समकालीन न्यायशास्त्र का स्कूल 

0
1768
Jurisprudence

यह लेख Suresh Sharma द्वारा लिखा गया है। यह लेख न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) के सभी स्कूलों के विश्लेषण और मानव जाति के लिए इनकी उपयोगिता और समकालीन (कंटेंपरेरी) न्यायशास्त्र की अवधारणा के बारे में उल्लेख करता है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है।

परिचय 

सभ्यता को बनाए रखना मानव जाति की प्राथमिक आवश्यकता है, जबकि आधुनिक सभ्यता लोकतांत्रिक और न्यायिक व्यवस्था पर निर्भर करती है, और न्यायशास्त्र, लोकतंत्र और न्यायपालिका का सर्वोच्च स्रोत (सोर्स) है। दुनिया भर में सभी लोकतांत्रिक संरचनाएं, संविधान और न्यायपालिका प्रणाली न्यायशास्त्र की जड़ों से विकसित हुई हैं। इसलिए, न्यायशास्त्र प्रत्येक लोकतांत्रिक और न्यायिक प्रणाली की वास्तविक आत्मा है।

जबकि हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली, संविधान और न्यायपालिका प्रणाली न्यायशास्त्र के प्राकृतिक, विश्लेषणात्मक (एनालिटिकल), ऐतिहासिक, समाजशास्त्र (सोशियोलॉजिकल), और यथार्थवादी (रियलिस्टिक) स्कूल के उत्पाद हैं, जिसमें यूके, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका आदि के विभिन्न न्यायविदों ने योगदान दिया है। जब भी प्राकृतिक न्यायशास्त्र के स्कूल को आदिम (प्रिमिटिव) न्यायशास्त्र के तहत माना जाता है तो न्यायशास्त्र के विश्लेषणात्मक, ऐतिहासिक, समाजशास्त्र और यथार्थवादी स्कूल को आधुनिक न्यायशास्त्र का हिस्सा माना जाता है। हाल ही में एक भारतीय न्यायविद श्री दीपक शर्मा द्वारा समकालीन न्यायशास्त्र के स्कूल के रूप में न्यायशास्त्र का एक नया स्कूल प्रस्तावित किया गया जो अब आधुनिक न्यायशास्त्र का हिस्सा है।

इसलिए, प्रमुख विचार हेतु अब न्यायशास्त्र के छह स्कूल हैं।

  1. न्यायशास्त्र का प्राकृतिक स्कूल,
  2. न्यायशास्त्र का विश्लेषणात्मक स्कूल,
  3. न्यायशास्त्र का ऐतिहासिक स्कूल,
  4. न्यायशास्त्र के समाजशास्त्रीय स्कूल,
  5. न्यायशास्त्र का यथार्थवादी स्कूल,
  6. न्यायशास्त्र के समकालीन स्कूल।

इस लेख में हम न्यायशास्त्र के सभी स्कूलों के विश्लेषण और मानव जाति के लिए इनकी उपयोगिता पर जोर देंगे, और समकालीन न्यायशास्त्र की अवधारणा और दर्शन (फिलोसॉफी) क्या है इसकी चर्चा भी इस लेख में की गई है। इस लेख में हम यह भी जांचेंगे कि क्या भारत के स्वदेशी न्यायशास्त्र के रूप में समकालीन न्यायशास्त्र का स्कूल भारतीय लोकतांत्रिक और न्यायपालिका की आवश्यकताओं और मानव जाति पर आगामी समकालीन न्यायशास्त्र के प्रभाव के लिए पर्याप्त होगा।

आदिम न्यायशास्त्र का विश्लेषण

न्यायशास्त्र के प्राकृतिक स्कूल को अरस्तू, सुकरात और हिंदू वैदिक जैसे अग्रणी (पायनियर) न्यायविदों द्वारा विकसित किया गया है, जो प्राकृतिक अधिकारों पर अधिक जोर देते हैं, जो प्रकृति द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से दिए जाते है। ईसा पूर्व 350 से 15वीं शताब्दी के बीच की अवधि आदिम न्यायशास्त्र के लिए मानी जाती है। बाद में न्यायशास्त्र के प्राकृतिक स्कूल को न्यायशास्त्र के दार्शनिक स्कूल के रूप में भी जाना जाता है, कई आधुनिक न्यायविदों जैसे ग्रोटियस, कांट और हेगल ने भी प्राकृतिक अधिकार पर सिद्धांत प्रस्तावित किए।

आधुनिक न्यायशास्त्र का विश्लेषण

15वीं शताब्दी के बाद की अवधि को आधुनिक न्यायशास्त्र के लिए माना जाता है।

मानव जाति के लिए न्यायशास्त्र के विश्लेषणात्मक, ऐतिहासिक, समाजशास्त्र, यथार्थवादी और समकालीन स्कूल का योगदान –

  1. विश्लेषणात्मक न्यायशास्त्र या इम्पीरेटिव स्कूल (ऑस्टिनियन स्कूल) बेंथम और ऑस्टिन (यूके) द्वारा प्रस्तावित किया गया था। ऑस्टिन को न्यायशास्त्र के विश्लेषणात्मक स्कूल के पिता के रूप में जाना जाता है। विश्लेषणात्मक न्यायशास्त्र इस बात पर अधिक जोर देता है कि कानून क्या है और कानून क्या होना चाहिए। न्यायशास्त्र के विश्लेषणात्मक स्कूल ने मानव जाति को यह समझने की बौद्धिक (इंटेलेक्चुअल) क्षमता प्रदान की कि कानून क्या है और कानून को कैसे समझा जाए।
  2. ऐतिहासिक न्यायशास्त्र का प्रस्ताव सैविग्नी (जर्मनी) द्वारा दिया गया था। सैविग्नी कानून पर अधिक जोर देते थे, जो रीति रिवाज, अनुष्ठान (रिचुअल) आदि का स्रोत है। रीति-रिवाजों के लिए मानव जाति से सम्मानित न्यायशास्त्र के ऐतिहासिक स्कूल कानून बनाने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। सैविग्नी को ऐतिहासिक न्यायशास्त्र के पिता के रूप में जाना जाता है, जबकि मोंटेस्क्यू, हेनरी मेन और पुचता ऐतिहासिक न्यायशास्त्र के अन्य अग्रणी न्यायविद हैं।
  3. समाजशास्त्र न्यायशास्त्र समाज, सरकार और अन्य जैसे सामाजिक गतिविधियों पर अधिक जोर देता था। यह न्यायशास्त्र का पहला स्कूल था, जिसने जनता के मूल अधिकारों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया और जनता के साथ न्यायिक संबंध के साथ बातचीत की। ईहेरिंग, रोसको पाउंड, ऑगस्ट कोमटे, एहरलिच और दुगिट न्यायशास्त्र के समाजशास्त्र स्कूल के मुख्य न्यायविद हैं। रूडोल्फ वैन इहेरिंग को न्यायशास्त्र के समाजशास्त्र स्कूल के पिता के रूप में जाना जाता है। उन्होंने विश्लेषणात्मक स्कूल को न्यायशास्त्र के समाजशास्त्र स्कूल के साथ जोड़ने का प्रयास किया था।
  4. यथार्थवादी न्यायशास्त्र जॉन ग्रे (अमेरिका) द्वारा प्रस्तावित किया गया था। न्यायशास्त्र का यह स्कूल न्यायालय की कार्यवाही, निर्णय, न्यायाधीशों की भूमिका पर अधिक जोर देता है। उन्होंने भविष्यवाणी की कि “निर्णय कानून का स्रोत हैं”। जॉन ग्रे और ओलिवर वेंडेल होम्स को न्यायशास्त्र के यथार्थवाद स्कूल के पिता के रूप में माना जाता है और जेरेमी फ्रैंक और लेवेलिन को यथार्थवाद के अन्य अग्रणी (पायनियर) न्यायविद की तरह माना जाता है।

इसलिए, यूनाइटेड किंगडम ने न्यायशास्त्र के विश्लेषणात्मक / इंपेरेटिव स्कूल (1800 से 1850) का शुभारंभ किया, जिसे बेंथम और ऑस्टिन द्वारा प्रस्तावित किया गया था। जर्मनी ने न्यायशास्ञ के ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय स्कूल (1750 से 1890) की शुरुआत की, इसी तरह फ्रेडरिक सैविग्नी और इहेरिंग को क्रमशः ऐतिहासिक न्यायशास्त्र का पिता और समाजशास्त्र न्यायशास्त्र का पिता कहा जाता है। यूएसए ने न्यायशास्त्र का यथार्थवाद स्कूल शुरू किया, जिसे जॉन ग्रे और ओलिवर वेंडेल होम्स द्वारा (1950-1920) के दौरान प्रस्तावित किया गया था, इसी तरह उन्हें यथार्थवादी न्यायशास्त्र का पिता कहा जाता है। इसलिए, न्यायशास्त्र की बौद्धिक क्षमता रखने के लिए यूके, जर्मनी, फ्रांस और यूएसए ज्यादातर पहचाने जाने योग्य राज्य हैं।

5. दीपक शर्मा (भारत) द्वारा हाल ही में प्रतिपादित किया गया है समकालीन न्यायशास्त्र। समकालीन न्यायशास्त्र में लोकतंत्र और न्याय पर अधिक बल दिया गया है। समकालीन न्यायशास्त्र के सिद्धांत को लक्षित करने, लोकतांत्रिक संरचना को सशक्त बनाने और न्यायिक प्रणालियों की दक्षता (एफिशिएंसी) और प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए बनाया गया है। यह 21वीं सदी का पहला न्यायशास्त्र स्कूल है, न्यायशास्त्र के इस स्कूल ने मानव जाति को तीन स्तरीय लोकतांत्रिक प्रणाली और केंद्रीकृत (सेंट्रलाइज्ड) न्यायिक प्रणाली की बौद्धिक क्षमता प्रदान की है। समकालीन न्यायशास्त्र को आधुनिक न्यायशास्त्र का 5वां स्कूल माना जाता है। इसलिए दीपक शर्मा को समकालीन न्यायशास्त्र का जनक कहा जाता है। न्यायशास्त्र के पूरे इतिहास में, समकालीन न्यायशास्त्र ने वर्तमान दो स्तरों (सार्वजनिक और संसदीय) लोकतांत्रिक व्यवस्था को इस आधार पर नकार दिया कि निर्वाचित (इलेक्टेड) व्यक्ति के व्यक्तिगत हित सार्वजनिक हित से भिन्न होते हैं।

इसी संबंध में श्री. शर्मा ने तीन स्तरीय लोकतांत्रिक संरचना (समाज, समाज प्रतिनिधि और संसद) का प्रस्ताव रखा। उन्होंने 5 प्रकार की कानून पृथक्करण (सेगरीगेशन) प्रक्रिया का भी प्रस्ताव दिया, जो संसदीय और समाज प्रतिनिधि सत्र के संयुक्त संचालन के माध्यम से किया जा सकता है, जबकि समाज का अर्थ लोगों का एक समूह है जिसमें समान हित होते हैं और समाज के प्रतिनिधि समाज के एक निर्वाचित व्यक्ति के रूप में संदर्भित होते हैं। संसद जनता के प्रतिनिधि सत्र के रूप में है। श्री शर्मा ने न्यायशास्त्र की विभिन्न अन्य अवधारणाओं जैसे लोकतंत्र की डिग्री, कानून के प्रकार, न्यायिक प्रणाली के विकासशील चरणों आदि का भी प्रस्ताव रखा। इसके अलावा, समकालीन न्यायशास्त्र ने विकेन्द्रीकृत प्रसंस्करण (डिसेंट्रलाइज्ड प्रोसेसिंग) के आधार पर बार-बेंच न्यायिक प्रणाली को अस्वीकार कर दिया है।

इसी संबंध में, समकालीन न्यायशास्त्र दुनिया की पहली केंद्रीकृत न्यायिक प्रणाली की वकालत करता है, जिसका नाम जस्ट-इन-ट्रायल प्रणाली (जे. आई. टी.) है। जेआईटी के लिए समकालीन न्यायशास्त्र के दावे, जेआईटी के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) के बाद, न्यायिक प्रणाली बार बेंच न्यायिक प्रणाली के खिलाफ 25 गुना तेज और 20 गुना अधिक पारदर्शी होगी। यह भी आश्चर्य की बात है कि ऐतिहासिक रूप से समकालीन न्यायशास्त्र द्वारा बेंच (न्यायाधीशों) की स्वतंत्र भूमिका को नकारा गया है। इसी मामले में चार्टर्ड लॉ ऑफिसर (एक नया न्यायिक अधिकारी) की एक नई अवधारणा पेश की गई है, जिसके तहत चार्टर्ड लॉ ऑफिसर को बेंच (जज) के बजाय स्वतंत्र न्यायिक व्यक्ति के रूप में नामित किया गया है।

निष्कर्ष

क्या समकालीन न्यायशास्त्र के स्कूल में न्यायशास्त्र के पिछले स्कूल से अलग दर्शन है

न्यायशास्त्र के पिछले स्कूल के विपरीत, समकालीन न्यायशास्त्र का स्कूल किसी भी दर्शन का पालन नहीं करता है। समकालीन न्यायशास्त्र में मजबूत लोकतांत्रिक व्यवस्था के निर्माण और न्यायपालिका प्रणाली को अधिक प्रभावी, कुशल और पारदर्शी बनाने पर अधिक जोर दिया गया है।

समकालीन न्यायशास्त्र स्कूल ने विभिन्न प्रश्नों के उत्तर खोजे हैं, जो पिछले न्यायशास्त्र स्कूल द्वारा नहीं खोजे गए थे, जैसे –

  1. किसी भी राज्य के लिए न्यायिक प्रणाली कैसे विकसित करें?
  2. लोकतांत्रिक व्यवस्था और न्यायिक व्यवस्था के बीच क्या संबंध है?
  3. विश्व स्तर पर कितने प्रकार के कानून मौजूद हैं?
  4. लोकतंत्र की डिग्री और न्यायिक व्यवस्था पर लोकतंत्र का प्रभाव क्या है?
  5. लोकतांत्रिक व्यवस्था को कैसे सशक्त बनाया जाए।
  6. बार बेंच न्यायिक प्रणाली के लिए कोई अन्य विकल्प, उसी संबंध में केंद्रीकृत न्यायपालिका प्रणाली (जे.आई.टी.) का अनावरण (अनवील) किया जा रहा है।

मैं आगे कहता हूं कि (a) से (f) के रूप में न्यायशास्त्र के नए स्कूल का प्रस्ताव करने के लिए पर्याप्त सामग्री हैं। मानव जाति गरीबी, भ्रष्टाचार, अपराध और पूर्वाग्रह न्याय आदि से पीड़ित है। इसलिए, न्यायशास्त्र के क्षेत्र में तुरंत अधिक बौद्धिक क्षमताओं की आवश्यकता थी, जबकि समकालीन न्यायशास्त्र स्कूल मानव जाति की वर्तमान न्यायिक और लोकतांत्रिक आवश्यकताओं के लिए सक्षम हो सकता है।

समकालीन न्यायशास्त्र और न्यायशास्त्र के पिछले स्कूलों के बीच तुलना

  1. न्यायशास्त्र के पिछले स्कूलों के विपरीत, समकालीन न्यायशास्त्र किसी भी दर्शन को नहीं दिखाता है, किसी भी दर्शन के बजाय वैचारिक पूर्वाग्रह (कंसेप्चुअल बायस) पर अधिक जोर देता है।
  2. न्यायशास्त्र के मूल प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए समकालीन न्यायशास्त्र विकसित किया गया है, जिन्हे न्यायशास्त्र के पिछले स्कूल द्वारा शामिल नहीं किया गया था।
  3. समकालीन न्यायशास्त्र न्यायिक प्रणाली की दक्षता और प्रभावशीलता पर अधिक जोर देता है। समकालीन न्यायशास्त्र मानव जाति के लिए सभी न्यायिक और लोकतांत्रिक आवश्यकताओं को हल करने के लिए अधिक जोर/लक्षित है।

लोकतंत्र पर समकालीन न्यायशास्त्र का भविष्य में प्रभाव

समकालीन न्यायशास्त्र के माध्यम से, मानव जाति अगली पीढ़ी के लोकतांत्रिक ढांचे को स्थापित करने में सक्षम होगी। व्यावहारिक पहलू में, यदि वर्तमान में लोकतांत्रिक संरचना के दो स्तरों (सार्वजनिक – संसद) को तीन स्तरों की लोकतांत्रिक संरचना (सार्वजनिक, संसद और समाज प्रतिनिधित्व) द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है तो यह मानव जाति के इतिहास में एक बड़ी लोकतांत्रिक क्रांति होगी।

न्यायिक प्रणाली पर समकालीन न्यायशास्त्र का भविष्य में प्रभाव

जे.आई.टी. (समकालीन न्यायशास्त्र की नई केंद्रीकृत न्यायिक प्रणाली) खुद को वर्तमान बार-बेंच न्यायिक प्रणाली के खिलाफ 25 गुना तेज (कुशल) और 20 गुना अधिक पारदर्शी होने का दावा करती है, उस स्थिति में अपराध दर को कम किया जाना चाहिए, इसलिए कानून और व्यवस्था को और अधिक प्रभावी और कुशल बनाया जाएगा, यह कदम मानव जाति के लिए ऐतिहासिक होगा।

न्यायशास्त्र में दीपक शर्मा का योगदान

वर्तमान समय में, मानव जाति सभ्यता के विभिन्न मुद्दों से पीड़ित है, जिसे न्यायशास्त्र की बौद्धिक क्षमता प्राप्त करके ही हल किया जा सकता है।

यह निस्संदेह है कि दीपक शर्मा ने न्यायशास्त्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इस बीच की अवधि में, जब मानव जाति को तुरंत नए लोकतांत्रिक और न्यायिक दृष्टिकोण की आवश्यकता थी। उन्होंने न्यायशास्त्र के विभिन्न सिद्धांतों को भी प्रतिपादित किया, जो न्यायशास्त्र की वास्तविक तस्वीर को और अधिक स्पष्ट करते हैं जैसे –

  1. न्यायिक प्रणाली के विकासशील चरण के सिद्धांत के माध्यम से विकसित एक प्रभावी और कुशल न्यायिक प्रणाली कैसे हो, इस मुद्दे को स्पष्ट किया गया है।
  2. न्यायिक प्रणाली (बार-बेंच) के विकेंद्रीकृत पूर्वाग्रह के कारण न्याय में देरी से पीड़ित मानव जाति की उपरोक्त आवश्यकता संतुष्ट लगती है, उसी संबंध में केंद्रीकृत न्यायिक परीक्षण प्रक्रिया (जे.आई.टी) का आविष्कार किया गया है।
  3. यह कानून के प्रकार और विकासशील प्रक्रिया पर एक विवादास्पद मुद्दा था, पूर्वोक्त कानूनों के प्रकार और कानून बनाने की प्रक्रिया पर मुद्दे को और अधिक स्पष्ट किया गया है।
  4. न्यायपालिका के साथ लोकतंत्र का संबंध, न्यायपालिका के चरणों के विकास के चरण का सिद्धांत, लोकतंत्र की डिग्री, कानून के प्रकार, संसद-लोक-समाज संबंध संरचना और केंद्रीकृत परीक्षण प्रक्रिया नई न्यायशास्त्र अवधारणाएं हैं, जिन्हें समकालीन न्यायशास्त्र द्वारा मानव जाति के लिए स्वीकार किया गया है।

समकालीन न्यायशास्त्र को सिद्ध करने के लिए प्रमाण का भार हमेशा श्रीमान दीपक शर्मा के कंधों पर रहता है, उन्हें समकालीन न्यायशास्त्र का पिता कहा जाता है, और मानव जाति हमेशा समकालीन न्यायशास्त्र के अधिक विवरण के लिए उनकी ओर देख रही है।

भारत के साथ-साथ मानव जाति पर समकालीन न्यायशास्त्र का भविष्य में प्रभाव 

  1. दुनिया के कई अन्य राष्ट्रों के साथ-साथ राज्यों के संघ के रूप में भारत अभी भी दो स्तरीय लोकतांत्रिक संरचना (सार्वजनिक और संसदीय) पर निर्भर है, जबकि समकालीन न्यायशास्त्र तीन स्तरीय लोकतांत्रिक संरचना (समाज, समाज के प्रतिनिधि और संसदीय) की वकालत करता है जबकि समाज के प्रतिनिधि को जनता के विभिन्न क्षेत्रों के निर्वाचित व्यक्ति का सत्र हो। निस्संदेह, यह बौद्धिक व्यक्ति का सत्र होगा, जो जनता के विभिन्न हित क्षेत्रों से संबंधित होगा। इसलिए, कानून बनाने की बौद्धिक क्षमताओं को बढ़ाया जाना चाहिए, दूसरी ओर, संसद जनता के प्रतिनिधित्व के रूप में होगी। कानून बनाने की प्रक्रिया के लिए संसद और समाज प्रतिनिधि सत्र दोनों एक दूसरे पर निर्भर होंगे, दूसरी ओर, राज्य कल्याण के लिए नीति विकास प्रक्रिया अधिक विश्वसनीय और व्यवहार्य (वायबल) होगी। इसलिए, मैं इस बिंदु पर हूं, कि समकालीन न्यायशास्त्र के माध्यम से लोकतांत्रिक संरचना को सशक्त बनाया जा सकता है।
  2. समकालीन न्यायशास्त्र मानव जाति की सभी न्यायिक आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम होगा। समय की वर्तमान अवधि, भारत के साथ-साथ भारत के विभिन्न राज्य ब्रिटिश न्यायिक प्रणाली का उपयोग कर रहे हैं, जो बार-बेंच परीक्षण कार्यवाही पर आधारित है, जब भी बार-बेंच विकेन्द्रीकृत न्यायिक कार्यवाही प्रणाली है, जो केवल उन राज्यों के लिए उपयुक्त है, जिनकी जनसंख्या कम है 4-5 करोड़, जबकि भारत की आबादी 130 करोड़ से अधिक है। इसलिए वर्तमान ब्रिटिश न्यायपालिका प्रणाली भारत के लिए उपयुक्त नहीं है, दुनिया की पहली केंद्रीकृत न्यायिक परीक्षण कार्यवाही प्रणाली का अविष्कार किया गया जिसे जस्ट-इन-ट्रायल (जे.आई.टी.) व्यवस्था कहा जाता है, और यह बार-बेंच न्यायिक परीक्षण प्रणाली के मुकाबले 25 गुना तेज और 20 गुना अधिक पारदर्शी है। जे. आई. टी. भारतीय न्यायिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त हथियार होगा, जब भी समकालीन न्यायशास्त्र को न्यायशास्त्र के मुख्य सिद्धांत के खिलाफ खुद को साबित कर दिया गया है, तो यह मानव जाति के साथ-साथ भारत के लिए भी महान अवसर है, और यह न्यायशास्त्र के इतिहास में मानव जाति के लिए एक विशेष उपलब्धि है।

संदर्भ

 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here