कंपाउंडेबल अपराध

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Criminal Procedure Code
Law.

यह लेख निरमा विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ की Shraddha Jain ने लिखा है। यह लेख कंपाउंडेबल अपराधों का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। यह कंपाउंडेबल और नॉन-कंपाउंडेबल अपराधों के बीच अंतर, कंपाउंडेबल अपराधों की प्रकृति और प्रभाव, कंपाउंडेबल अपराधों से निपटने वाले कानूनी प्रावधानों और इस मुद्दे से निपटने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णयों पर केंद्रित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

हम सभी ने कहावत “इंटरेस्ट रिपब्लिके अट सिट फिनिस लिटियम” के बारे में सुना है। यह लैटिन कहावत इंगित करती है कि मुकदमेबाजी को न्यूनतम रखना राज्य के सर्वोत्तम हित में होगा। उच्च न्यायालय और अन्य अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) न्यायालयों में लंबे समय से कई मामले लंबित (पेंडिंग) हैं। कानून आपराधिक न्याय प्रणाली को एक प्रभावी उपकरण प्रदान करता है, जिसका उपयोग करने पर, किसी मामले को सुलझाने में लगने वाले समय को कम किया जा सकता है। यह उपकरण अपराध का कंपाउंडिंग है।

कंपाउंडेबल अपराध क्या हैं?

कंपाउंडेबल अपराध वे अपराध हैं जिनकी चर्चा दंड प्रक्रिया संहिता (सी.आर.पी.सी.), 1973 की धारा 320 में की गई है। ये ऐसे अपराध हैं जिनमें पीड़ित व्यक्ति (जिस व्यक्ति ने शिकायत दर्ज की है, यानी शिकायतकर्ता) आरोपी के खिलाफ आरोपों को खारिज करने का फैसला करता है। हालाँकि, ये समझौता ‘अत्यंत सद्भाव में’ होना चाहिए और किसी भी मुआवजे के लिए नहीं बनाया जाना चाहिए जिसके लिए वादी पात्र नहीं है। एक कंपाउंडेबल अपराध का समझौता अदालत की सहमति से या अदालत की सहमति के बिना किया जा सकता है। वादी उस अदालत में अपराध को कंपाउंड करने की अनुमति का अनुरोध कर सकता है जिसमें मूल रूप से याचिका दायर की गई थी।

एक अपराध को कंपाउंड करना यह इंगित करता है कि जिस व्यक्ति के साथ अपराध किया गया है, उसने मुकदमे की प्रक्रिया से बचने के लिए आरोपी से कुछ मुआवजा प्राप्त किया है, और यह मुआवजा केवल मौद्रिक (मॉनेटरी) प्रकृति का नहीं होता है।

कुछ अपराध ऐसे होते हैं जिनमें अदालत की कार्यवाही चलने पर संबंधित पक्ष एक समझौते पर पहुंचते हैं तो ऐसे में अदालत में आगे की कार्यवाही निलंबित कर दी जाती है। इसे ‘कंपाउंडिंग’ के रूप में जाना जाता है। कंपाउंडेबल अपराध ऐसी स्थितियां हैं जहां समझौता स्वीकार्य होगा। चोट, सदोष अवरोध (रॉन्गफुल रिस्ट्रेंट), हमला, छेड़छाड़, धोखाधड़ी, व्यभिचार (एडलटरी) और इसी तरह के अन्य अपराध कंपाउंडेबल अपराध हैं।

कंपाउंडेबल और नॉन-कंपाउंडेबल अपराधों के बीच अंतर

अंतर के बिंदु  कंपाउंडेबल अपराध नॉन कंपाउंडेबल अपराध
प्रावधान सी.आर.पी.सी. की धारा 320 के तहत कंपाउंडेबल अपराधों का उल्लेख किया गया है। सी.आर.पी.सी. की धारा 320 के तहत उल्लिखित अपराधो को छोड़कर और सभी अपराध नॉन कंपाउंडेबल अपराध हैं।
अपराध की प्रकृति कंपाउंडेबल अपराध प्रकृति में कम गंभीर होते हैं। नॉन कंपाउंडेबल अपराध प्रकृति में अधिक गंभीर होते हैं।
अपराध से प्रभावित पक्ष ज्यादातर मामलों में, कंपाउंडेबल अपराध एक व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। जब एक नॉन कंपाउंडेबल अपराध किया जाता है, तो निजी पक्ष, साथ ही साथ समाज भी प्रभावित होता है।
कौन मुकदमा दर्ज कर सकता है आम तौर पर, मामले को किसी व्यक्ति या प्रभावित पक्ष द्वारा दायर किया जाता हैं। राज्य द्वारा नॉन कंपाउंडेबल मामले दायर किए जा सकते हैं।
अपराधों की कंपाउंडेबिलिटी जैसा कि नाम से पता चलता है, कंपाउंडेबल अपराधों को कंपाउंड किया जा सकता है। वे दो प्रकार के होते हैं: अदालत की सहमति के बिना कंपाउंडेबल (सी.आर.पी.सी. की धारा 320(1) में उल्लिखित अपराध)। अदालत की सहमति से कंपाउंडेबल (अपराध जो सी.आर.पी.सी. की धारा 320(2) में उल्लिखित हैं)। नॉन कंपाउंडेबल अपराधों को कंपाउंड नहीं किया जा सकता है। यहां तक ​​कि अदालतों को भी ऐसे अपराधों के निपटारे की अनुमति देने की कोई शक्ति नहीं है।
आरोप की वापसी यदि पीड़ित पक्ष अनुमति देता है, तो आरोपी पर लगाए गए आरोप वापस लिए जा सकते हैं। आरोपी पर लगाए गए आरोप वापस नहीं लिए जा सकते हैं।
बरी करने की प्रक्रिया जिन आरोपियों ने कंपाउंडेबल अपराध किया है, उन्हें समझौता होने पर बरी किया जा सकता है और आगे के परीक्षण की कोई आवश्यकता नहीं होती है। नॉन कंपाउंडेबल अपराधों के मामले में, एक पूर्ण परीक्षण की आवश्यकता होती है, जो साक्ष्य के आधार पर आरोपी को बरी या दोषी ठहराता है।
वर्गीकरण (क्लासिफिकेश) का कारण  कंपाउंडेबल अपराधों के पीछे तर्क यह है कि ये अपराध बहुत गंभीर नहीं हैं, इसलिए आरोपी को उदारता (लिनिएंसी) प्रदान की जा सकती है। इसका कारण यह है कि कार्य की गंभीरता इतनी जघन्य (हीनियस) और गैर कानूनी है कि आरोपी को बिना किसी सजा के छोड़ा नहीं जा सकता।

अपराधों की प्रकृति जिन्हें कंपाउंडेबल कहा जा सकता है

कंपाउंडेबल अपराधों के दायरे में आने के लिए, अपराधों की प्रकृति इस प्रकार होनी चाहिए:

  1. एक कंपाउंडेबल अपराध में अपराध की प्रकृति बहुत गंभीर नहीं होनी चाहिए।
  2. अपराध आम तौर पर निजी होने चाहिए। निजी अपराध वे हैं जिनका किसी व्यक्ति की क्षमता या पहचान पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस तरह के अपराधों से आम जनता को कोई नुकसान नहीं होना चाहिए और राज्य की भलाई के खिलाफ नहीं होना चाहिए।

बलात्कार, हत्या और डकैती जैसे अपराध जघन्य प्रकृति के होते हैं और इसलिए इन्हें कंपाउंड नहीं किया जा सकता है।

कंपाउंडेबल अपराधों की सूची

सी.आर.पी.सी. की धारा 320 में दो प्रकार के अपराधों का उल्लेख किया गया है जिन पर पीड़ित के विवेक पर समझौता किया जा सकता है। पहले प्रकार के अपराध के लिए, अपराध को कंपाउंड करने से पहले न्यायालय की सहमति आवश्यक नहीं है। जबकि दूसरे प्रकार के अपराध में किसी भी अपराध को कंपाउंड करने से पहले न्यायालय की सहमति आवश्यक होती है।

ऐसे अपराध जिन्हें न्यायालय से अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है

धारा 320(1) में एक तालिका (टेबल) दी गई है जिसमें पहले प्रकार के अपराधों का उल्लेख किया गया है जो अदालत से सहमति या अनुमति का अनुरोध नहीं करते हैं। इस तरह के अपराध इस प्रकार हैं:

आई.पी.सी. की धारा अपराध का नाम अपराध को कौन कंपाउंड कर सकता है
आई.पी.सी की धारा 298  किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के इरादे से कोई शब्द बोलना या कोई इशारा करना। जिन लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची है।
आई.पी.सी. की धारा 323, 334  स्वेच्छा से चोट पहुँचाना। जिसे चोट लगी है।
आई.पी.सी. की धारा 341, 342  किसी व्यक्ति को गलत तरीके से रोकना या सीमित करना। वह व्यक्ति जिसे रोका या बंदी बनाया गया हो।
आई.पी.सी. की धारा 352, 355, 358  हमला या आपराधिक बल का प्रयोग। जिस पर मारपीट की गई हो।
आई.पी.सी. की धारा 426, 427  शरारत (मिसचीफ) तब होती है जब एकमात्र नुकसान या क्षति यह होती है की किसी निजी व्यक्ति को नुकसान या क्षति हुई है। निजी व्यक्ति जिसे क्षति हुई है।
आई.पी.सी. की धारा 447  आपराधिक अतिचार (ट्रेसपास) अतिक्रमित संपत्ति का मालिक।
आई.पी.सी. की धारा 448  ग्रह-अतिचार।  अतिक्रमित संपत्ति का मालिक।
आई.पी.सी. की धारा 497  व्यभिचार। पति या स्त्री।

अपराध जिनके लिए न्यायालय से अनुमति की आवश्यकता होती है

धारा 320(2) में भी एक तालिका दी गई है जो दूसरी श्रेणी के अपराधों को संदर्भित करती है जिसके लिए पक्षों के समझौता करने से पहले अदालत की सहमति की आवश्यकता होती है। वे इस प्रकार हैं: 

आई.पी.सी. की धारा अपराध का नाम अपराध को कौन कंपाउंड कर सकता है
आई.पी.सी की धारा 325, 335, 337, 338 स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुंचाना। जिसे चोट लगी है।
आई.पी.सी. की धारा 312  गर्भपात (मिसकैरेज) कराना 9। जिस महिला का गर्भपात हुआ है।
आई.पी.सी. की धारा 406 , 408  आपराधिक विश्वास का उल्लंघन। संपत्ति का मालिक जिस पर विश्वास का उल्लंघन हुआ है।
आई.पी.सी. की धारा 494  पति या पत्नी के जीवनकाल में दोबारा शादी करना। पति या पत्नी जो शादी कर रहे हैं।
आई.पी.सी. की धारा 418  इस ज्ञान के साथ छल करना कि उस व्यक्ति को गलत हानि हो सकती है जिसका हित अपराधी रक्षा करने के लिए बाध्य है। वह व्यक्ति जिसके साथ छल किया गया हो।
आई.पी.सी की धारा 420  धोखाधड़ी और बेईमानी से संपत्ति की सुपुर्दगी (डिलीवरी) के लिए प्रेरित करना। वह व्यक्ति जिसके साथ धोखा किया गया हो।

अपराधों के कंपाउंडिंग का प्रभाव

सी.आर.पी.सी. की धारा 320(8) के अनुसार, सी.आर.पी.सी. की धारा 320 के तहत अपराध की कंपाउंडिंग का असर उस आरोपी को बरी करने का होता है जिसके साथ अपराध को कंपाउंड किया गया था।

एक अपराध को कंपाउंड करने का परिणाम अनिवार्य रूप से आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोपों को खारिज करना है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) दर्ज की गई थी या मुकदमा शुरू हो गया था; जब अपराध को न्यायालय की अनुमति के साथ कंपाउंड किया जाता है, अपराधी को सभी आरोपों से बरी कर दिया जाता है।

कानूनी प्रावधान जो कंपाउंडेबल अपराधों से निपटते हैं

आपराधिक कानून के तहत कंपाउंडेबल अपराध

सी.आर.पी.सी. की धारा 320 कंपाउंडेबल अपराधों के बारे में बात करती है। यह धारा भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.), 1860 के तहत अपराधों की एक श्रृंखला को परिभाषित करती है जिन मे ऐसे अपराधों से बचे लोगों द्वारा समझौता किया जा सकता है। किसी मामले में दोनों पक्षों द्वारा किए गए समझौते को ‘अपराध का समझौता’ कहा जाता है। नतीजतन, सी.आर.पी.सी. की धारा 320 में स्पष्ट रूप से सूचीबद्ध कुछ आई.पी.सी. के अपराधों को दोनों पक्षों द्वारा कंपाउंड किया जा सकता है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 401 के तहत उच्च न्यायालय या सी.आर.पी.सी. की धारा 399 के तहत सत्र न्यायालय अपनी संशोधित शक्ति के प्रदर्शन में किसी भी व्यक्ति को किसी भी ऐसे अपराध जो सी.आर.पी.सी. की धारा 320 के तहत समझौता करने के लिए योग्य है, को निपटाने की अनुमति दे सकता है।

जब भी कोई कार्य सी.आर.पी.सी. की धारा 320 के तहत कंपाउंडेबल होता है, तो इस तरह की गतिविधि के लिए उकसाना या यहां तक ​​कि इस तरह के कार्य को करने का प्रयास करना (यदि ऐसा प्रयास अपने आप में एक अपराध है), या जब आरोपित व्यक्ति भारतीय दंड संहिता की धारा 34 या धारा 149  के तहत उत्तरदायी है, तो उसे भी इसी तरह से ही कंपाउंड किया जाएगा।

विभिन्न कानूनों के तहत कंपाउंडेबल अपराध

कानूनी सेवा प्राधिकरण (लीगल सर्विसेज अथॉरिटी) अधिनियम, 1987

कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 की धारा 19 (5) में कहा गया है कि लोक अदालत के पास किसी भी कानून के तहत अपराध से संबंधित किसी भी विषय पर विवाद के लिए दोनों पक्षों के बीच समझौता करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

विदेशी मुद्रा प्रबंधन (फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट) अधिनियम (एफ.ई.एम.ए.), 1999

विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 के उल्लंघन को अधिनियम के नियमों, कानूनों, आदेशों, नोटिसों या निर्देशों के उल्लंघन के रूप में परिभाषित किया गया है। इस तरह के उल्लंघनों को कंपाउंड करने में स्वेच्छा से उल्लंघन को स्वीकार करना, इसके लिए दोषी ठहराना और बहाली (रेस्टिट्यूशन) का अनुरोध करना शामिल है। भारतीय रिज़र्व बैंक (आर.बी.आई.) के पास एफ.ई.एम.ए. अधिनियम की धारा 13 में सूचीबद्ध किसी भी उल्लंघन को कंपाउंड करने का अधिकार दिया गया है।

कंपनी अधिनियम, 2013

जब कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत कोई अपराध किया जाता है, या उसके तहत किसी नियम का उल्लंघन किया जाता है, या नियम को पुरा करने में कोई विफलता या देरी होती है, तो निदेशक (डायरेक्टर) अपराध को कंपाउंड करने योग्य होने पर प्रक्रियाओं की शुरुआत की अनुमति देने के बजाय अपराध को कम करने का अनुरोध कर सकते हैं। कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 441 अपराधों की कंपाउंडिंग को संबोधित करती है। धारा 441 (1) में कहा गया है कि केवल जुर्माने से दंडित किया गया अपराध कंपाउंडेबल होगा।

कंपाउंडेबल अपराधों का वैधीकरण (डिक्रिमिनेलाइजेशन)

कैंब्रिज डिक्शनरी के अनुसार, वैधीकरण, कानून को संशोधित करने की प्रक्रिया है, जिससे कार्य को अब अवैध नहीं माना जाएगा।

कंपाउंडिंग अपराध भी गैर-अपराधीकरण के सिद्धांत पर काम करते हैं क्योंकि यह आरोपी के खिलाफ आरोपों को खत्म कर देता है। शिकायतकर्ता ने गलत काम करने वाले से मुआवजा प्राप्त किया हो सकता है, या एक दूसरे के प्रति पक्षों की राय पूरी तरह से बदल सकती है। शिकायतकर्ता निराश और पश्चाताप करने के बाद अपराधी के आपत्तिजनक आचरण को क्षमा करने के लिए तैयार हो सकते है। ऐसे मामलों को पहचानने और विशिष्ट प्रकार के अपराधों के लिए आपराधिक कार्यवाही को समाप्त करने के लिए एक तंत्र प्रदान करने के लिए आपराधिक कानून में संशोधन किया जाना चाहिए। अपराधों की कंपाउंडिंग के पीछे यही कारण है। पीड़ित ने अपराधी से प्रतिपूर्ति (रीइंबर्समेंट) प्राप्त की हो सकती है, या पक्षों के बीच एक दूसरे के प्रति दृष्टिकोण स्थायी रूप से बदल सकता है।

कौन से अपराध कंपाउंडेबल माने जाने चाहिए या नहीं, यह हमेशा विधायकों के लिए एक सवाल रहा है। विषय की जांच कई तरीकों से की गई है, फायदे और नुकसान का आकलन किया गया है, और एक समझदार निर्णय लिया गया है। सामान्य तौर पर, राज्य की सुरक्षा को प्रभावित करने वाले या समुदाय पर एक बड़ा प्रभाव डालने वाले अपराधों को समझौता करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) नहीं किया जाता है। इसके अलावा, गंभीर अपराध को कंपाउंड नहीं  किया जा सकता है।

एक बार जब अपराध कंपाउंड हो जाता है, तो अपराधी बरी हो जाता है, और फिर अदालत का इस मामले पर अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) नहीं रह जाता है।

कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत कंपाउंड करने योग्य अपराधों का वैधीकरण

कोविड 19 महामारी के दौरान, कंपनियों को कंपनी अधिनियम, 2013 द्वारा अनिवार्य नियामक (रेगुलेटरी), प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) और तकनीकी दायित्वों को पूरा करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। इसलिए, कोविड 19 महामारी के उद्भव (इमर्जेंस) के दौरान भारत सरकार ने घोषणा की कि कुछ अपराध जो प्रकृति में कंपाउंड करने योग्य हैं, उन्हें क्रम से हटा दिया जाना चाहिए और ऐसा इसलिए किया गया ताकि अधिनियम के विभिन्न अनुच्छेदों के तहत निगमों (कॉर्पोरेशन) पर अनुपालन (कंप्लायंस) के भार को कम किया जा सके।

समीक्षा समिति (रिव्यू कमिटी)

कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय ने श्री इंजेती श्रीनिवास की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति का गठन किया है, जो अधिनियम में निर्दिष्ट अपराधों का मूल्यांकन करने, अध्ययन करने और आवश्यकता पर विचार करने के लिए है। समिति की प्रमुख सिफारिशों के संबंध में कंपाउंडेबल अपराध इस प्रकार हैं:

  • 81 कंपाउंडेबल अपराधों में से 16 को इन-हाउस अधिनिर्णय (एडज्यूडिकेशन) संरचना में पुनर्वर्गीकृत (रीक्लासीफाई) किया गया था।
  • एक निष्पक्ष और प्रौद्योगिकी संचालित (टेक्नोलॉजी ड्राइवन) इन-हाउस निर्णय प्रक्रिया को बनाया गया था।
  • ऑनलाइन सुनवाई निष्पादित (एग्जीक्यूट) करके और इंटरनेट पर आदेश प्रकाशित करके शारीरिक संपर्क को सीमित किया गया था।
  • बेहतर अनुपालन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नया जुर्माना लगाने के समय विफलता को ठीक करने के लिए एक समवर्ती (कंकर्रेंट) आदेश की आवश्यकता है।
  • अधिनियम की धारा 441 के तहत मौद्रिक सीमाओं को बढ़ाकर क्षेत्रीय निदेशकों (रीजनल डायरेक्टर) (आर.डी.) के अधिकार को व्यापक करके राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल) (एन.सी.एल.टी.) को कम करना, जिसके भीतर वे अपराधों को कम कर सकते हैं।

अपराधों की जांच के लिए समिति के सुझावों के आलोक में, कंपनी (संशोधन) अधिनियम, 2019 में 16 अपराधों को नागरिक गलतियों के रूप में पुनर्वर्गीकृत किया गया था। अधिनियम की धारा 454 के तहत इन-हाउस अधिनिर्णय मैकेनिज्म (आई.ए.एम.), कंपनी (संशोधन) अधिनियम, 2019 द्वारा किए गए प्राथमिक संशोधनों में से एक था, जिससे उस प्रक्रिया में सुधार किया जा सके जिसके द्वारा कंपाउंड करने योग्य अपराधों पर कोई उपाय किया जाता है।

आई.ए.एम. कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय की ऑनलाइन वेबसाइट के साथ सहायता करता है, जो एन.सी.एल.टी. के समक्ष अपील और निर्णय के विकल्प के रूप में कार्य करता है। आई.ए.एम. ढांचे की स्थापना का उद्देश्य मामूली और तकनीकी अनुपालन के लिए मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) की लागत को कम करके एन.सी.एल.टी. जैसे न्यायिक निकायों को खोलना है।

कंपाउंडेबल अपराधों से निपटने वाले महत्त्वपूर्ण निर्णय

महालोव्या गौबा बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब और अन्य (2021)

महालोव्या गौबा बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब और अन्य के मामले में, न्यायालय ने माना कि कंपाउंडेबल अपराधों वाली आपराधिक कार्यवाही को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है: 

  1. सी.आर.पी.सी. की धारा 320 (1) के तहत अदालत की सहमति के बिना अपराधों का निपटारा, और, 
  2. सी.आर.पी.सी. की धारा 320 (2) के तहत अदालत की मंजूरी के साथ आपराधिक कार्यवाही का निपटान।

लोक अदालत के पास सी.आर.पी.सी. की धारा 320 (1) के तहत अदालत की सहमति के बिना दोनों उपसमूहों की कंपाउंडेबल आपराधिक कार्यवाही सुनने का अधिकार होगा और जो की सी.आर.पी.सी. की धारा 320(2) के तहत अदालत की सहमति से कंपाउंडेबल होगा।

सी.आर.पी.सी. की धारा 320(1) में स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा गया है कि सी.आर.पी.सी. की धारा 173 (2) के तहत मुकदमे की फाइल जमा करने के बाद ही कंपाउंडिंग पूरी की जा सकती है, मुकदमा की फाइल दायर करने से पहले नहीं की जा सकती है। हालांकि, सी.आर.पी.सी. की धारा 320 (2) में वाक्यांश है की “अदालत की सहमति से जिसके समक्ष इस तरह के अपराध के लिए कोई मुकदमा चल रहा है” इसी का संकेत देता है। चिंता यह होगी कि क्या कंपाउंडेबल आपराधिक मामलों में, जांच के दौरान सी.आर.पी.सी. की धारा 173 (2) के तहत मामले की फाइल जमा करने से पहले निहित अपराधों को कंपाउंड किया जा सकता है।

सुरेंद्र नाथ मोहंती बनाम स्टेट ऑफ़ उड़ीसा राज्य (1999)

सुरेंद्र नाथ मोहंती बनाम स्टेट ऑफ़ उड़ीसा राज्य के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि “आई.पी.सी. के तहत उल्लिखित आरोपों को कंपाउंड करने के लिए सी.आर.पी.सी., 1973 की धारा 320 के तहत एक पूर्ण तंत्र उपलब्ध है।” धारा 320(1) में कहा गया है कि धारा 320 में दी गई तालिका में सूचीबद्ध अपराधों को सूची के तीसरे कॉलम में सूचीबद्ध लोगों द्वारा निपटाया जा सकता है। इसके अलावा, धारा 320(2) में कहा गया है कि सूची में निर्दिष्ट अपराधों को शिकायतकर्ता द्वारा अदालत की सहमति से सुलझाया जा सकता है। इसके विपरीत, धारा 320(9) स्पष्ट रूप से कहती है कि “जब तक सी.आर.पी.सी. की धारा 320 द्वारा अनुमति नहीं दी जाती है, तब तक कोई कार्रवाई तय नहीं की जाएगी।” उपरोक्त सांविधिक जनादेश (स्टेट्यूट मैंडेट) के अनुसार, ऊपर निर्दिष्ट तालिका 1 और 2 में सूचीबद्ध कार्यों को कंपाउंड किया जा सकता है, जबकि आई.पी.सी. के तहत दंडनीय किसी भी अन्य अपराध का निपटारा नहीं किया जा सकता है।

विश्वबहन दास बनाम गोपेन चंद्र हजारिका और अन्य (1967)

विश्वबहन दास बनाम गोपेन चंद्र हजारिका और अन्य के मामले में, जी.के. मित्तर की अगुवाई (लेड) वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि यदि अपराध इस तरह का है कि यह शिकायतकर्ता को उनकी व्यक्तिगत क्षमता में प्रभावित करता है, तो ऐसे अपराध के लिए उपयुक्त निवारण (रिड्रेसल) को कंपाउंड किया जा सकता है।

निखिल मर्चेंट बनाम सी.बी.आई.

निखिल मर्चेंट बनाम सी.बी.आई. के मामले में, आरोपी के खिलाफ आरोपों में कंपाउंडेबल और नॉन-कंपाउंडेबल दोनों तरह के अपराध शामिल थे। हालांकि, चार्जशीट दाखिल होने से पहले, पक्ष एक समझौते पर पहुंच गए थे और प्रतिवादी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना चाहते थे। उच्च न्यायालय ने कार्यवाही को रद्द नहीं किया लेकिन जब मामला सर्वोच्च न्यायालय में गया, तो आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी गई। सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि धारा 320 के तहत प्रदान की गई तकनीकीता के कारण जब कोई पक्ष कार्यवाही को रद्द करने के लिए फाइल करता है और जब कोई पक्ष समझौता करता है, तो न्याय के हितों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जब पक्ष पहले से ही एक व्यवस्था पर पहुँच चुके हैं, जिसकी सत्यता की न्यायालय द्वारा विधिवत जाँच की जा चुकी है, तो आपराधिक कार्यवाही जारी रखने का कोई मतलब नहीं है।

निष्कर्ष

कंपाउंड करने योग्य अपराधों की अवधारणा बहुत आगे बढ़ चुकी है। आज कल, इसे कानूनी कार्यवाही के समापन का एक स्वीकार्य तरीका माना जाता है। उन सभी अपराधों में जिन्हें कानून कंपाउंड करने योग्य मानता है, उनमें वादी आपस में अपने विवादो को शांतिपूर्वक सुलझा सकते हैं।

किसी भी व्यक्ति के खिलाफ किए गए अपराध जो इतने गंभीर नहीं हैं, उन्हें आम तौर पर कंपाउंडेबल अपराधों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिसका अर्थ है कि उन्हें किसी भी प्राधिकरण की आवश्यकता के बिना सौहार्दपूर्ण (एमिकेबल) तरीके से निपटाया जा सकता है। ऐसे अपराधों के लिए अपराधों की कंपाउंडिंग की अनुमति दी जानी चाहिए जो अत्यधिक भयानक नहीं हैं और सार्वजनिक क्षेत्र या समुदाय को जोखिम में नहीं डालते हैं।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ.ए.क्यू.)

पीड़ित किस न्यायालय में अपराध को कंपाउंड करने के लिए अनुरोध दायर कर सकता है?

जो पक्ष अपने मामले को कंपाउंड करने की इच्छा रखते हैं, उन्हें उसी अदालत में निपटान के लिए अनुरोध करना चाहिए जहां मामले की पहली बार सुनवाई हुई थी। उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में अपील या समीक्षा (रिव्यू) की कार्यवाही के दौरान भी अपराध को कंपाउंड करने की अनुमति दी जा सकती है।

क्या न्यायालय अपराध को कंपाउंड करने के फैसले को पलट सकती है?

यदि अदालतें पक्षों के बीच किसी समझौते की अनुमति देती हैं और बाद में पता चलता है कि यह दोषपूर्ण आधार पर स्थापित किया गया था, तो अदालतों के पास ऐसे निर्णय को उलटने का अधिकार है।

अपराधों को कंपाउंड करने के लिए न्यायालय से अनुमति की आवश्यकता कब होती है?

कुछ कार्यों, जैसे अतिचार, व्यभिचार, मानहानि (स्लैंडर), आदि को कंपाउंड करने के लिए अदालत की मंजूरी की आवश्यकता नहीं होती है। जबकि, अधिक गंभीर प्रकृति के अपराध, जैसे कि डकैती, हमला, और आपराधिक विश्वास के उल्लंघन, को अदालत की अनुमति के साथ ही नियंत्रित किया जाना चाहिए।

किसी अपराध को कंपाउंड करने का परिणाम क्या होगा?

किसी अपराध को कंपाउंडिंग करने में, आरोपी को उसी तरह बरी कर दिया जाता है जैसे कि उसे अदालत द्वारा कार्यवाही में आरोपों से बरी कर दिया गया हो।

सी.आर.पी.सी. के अनुसार, अपराध को कंपाउंड करने का अधिकार किसके पास है?

अपराध से पीड़ित व्यक्ति द्वारा सी.आर.पी.सी. की धारा 320 के अनुसार अपराध को कंपाउंड किया जा सकता है। माता-पिता और आरोपी बच्चे के कानूनी प्रतिनिधि, मृतक शिकायत, या विकलांग व्यक्ति द्वारा अदालत की सहमति से भी अपराध को कंपाउंड करने की अनुमति दी जा सकती है।

अगर एक से ज्यादा आरोपी हों तो क्या होगा?

जब कई अपराधी होते हैं, तो उनमें से किसी एक के साथ समझौता करने पर केवल उस विशेष अपराधी को बरी किया जाएगा।

संदर्भ

 

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