आयकर आयुक्त बनाम गोमेदल्ली लक्ष्मीनारायण (1935)

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यह लेख Mudit Gupta द्वारा लिखा गया है। इसमें आयकर आयुक्त बनाम गोमेदल्ली लक्ष्मीनारायण (1935) मामले से संबंधित तथ्यों, तर्कों और निर्णय सहित सभी आवश्यक विवरणों को व्यापक रूप से शामिल किया गया है। यह लेख हिन्दू कानून के तहत हिन्दू अविभाजित परिवार और सहदायिकता (कोपार्सनरी) की आवश्यक अवधारणाओं से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) और इसके अंतर्गत संपत्तियों का उत्तराधिकार एक अवधारणा है, जो 19वीं शताब्दी से भारत में सामाजिक विकास के इतिहास में निहित है, जिसकी वर्तमान में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अंतर्गत चर्चा की जाती है। अपने लंबे अस्तित्व के बावजूद, इसे 1922 में कराधान कानून में मान्यता प्राप्त हुई। तब से, भारत में न्यायपालिका द्वारा एचयूएफ से संबंधित विभिन्न प्रश्नों का समाधान किया गया है। ऐसा ही एक प्रश्न आयकर आयुक्त बनाम गोमेदल्ली लक्ष्मीनारायण (1935) के मामले में उठाया गया था। 

यह ऐतिहासिक निर्णय, पिता की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के माध्यम से सहदायिक को हस्तांतरित आय और परिसंपत्तियों के कराधान के उद्देश्य से मूल्यांकन और आयकर अधिनियम, 1922 की धारा 55 के अनुसार अधि-कर (सुपर-टैक्स) की प्रयोज्यता का आकलन करने से संबंधित है। निर्णय में उत्तराधिकार के माध्यम से प्राप्त आय और परिसंपत्तियों तथा व्यक्तिगत प्रयासों से अर्जित आय और परिसंपत्तियों के बीच अंतर किया गया है। इस लेख में मामले से संबंधित सभी विवरणों पर चर्चा की गई है, जिसमें तथ्य, उठाए गए मुद्दे, पक्षों की दलीलें, प्रासंगिक कानूनी अवधारणाएं, संदर्भित निर्णय और अंतिम निर्णय शामिल हैं। यह ऐतिहासिक निर्णय भारत में पारिवारिक कानून के तहत एचयूएफ का अध्ययन और शोध करने वालों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: आयकर आयुक्त बनाम गोमेदल्ली लक्ष्मीनारायण
  • उद्धरण: एआईआर 1935 बॉम्बे 412
  • अपीलकर्ता का नाम: आयकर आयुक्त
  • प्रतिवादी का नाम: गोमेदल्ली लक्ष्मीनारायण
  • निर्णय की तारीख: 28 मार्च, 1935

  • न्यायालय: बॉम्बे उच्च न्यायालय
  • न्यायाधीश: सर जॉन ब्यूमोंट, सी.जे.
  • महत्वपूर्ण प्रावधान: आयकर अधिनिमयम, 1922 की धारा 55, धारा 14(1), और धारा 3

मामले के तथ्य

इस विशेष मामले में, मूलतः एक संयुक्त हिंदू परिवार था जिसमें चार सदस्य थे: पिता, उसकी पत्नी, पुत्र और उसकी पत्नी। पिता की मृत्यु 1929 में हुई, जो कि संबंधित कर निर्धारण वर्ष से पहले की बात है। पिता की मृत्यु के बाद, संयुक्त हिंदू परिवार में पुत्र (करदाता), उसकी मां और उसकी पत्नी शामिल थे। परिवार के पास कुछ पैतृक संपत्ति थी, जिसे बेटे को हस्तांतरित कर दिया गया क्योंकि वह परिवार का एकमात्र जीवित सदस्य था। यहां प्राथमिक मुद्दा यह था कि क्या पुत्र/करदाता द्वारा, हिंदू अविभाजित परिवार के एकमात्र जीवित पुरुष सदस्य के रूप में प्राप्त आय पर, आयकर अधिनियम, 1922 की धारा 55 के अंतर्गत अधिकर के प्रयोजनार्थ उसकी अपनी व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में या संयुक्त हिंदू परिवार की आय के रूप में कर लगाया जाना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर अधिकर की अवधारणा और ऐसे मामलों में इसकी प्रयोज्यता को समझने के लिए आवश्यक था। 

उठाए गए मुद्दे 

यह मामला महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें संयुक्त हिंदू परिवार में उत्तरजीविता के अधिकार के माध्यम से प्राप्त आय के आकलन के संबंध में प्रमुख प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं। इस मामले में अदालत के समक्ष प्रस्तुत मुख्य मुद्दे इस प्रकार थे: 

  1. क्या करदाता की आय का मूल्यांकन उसकी अपनी व्यक्तिगत आय के रूप में किया जाना चाहिए या संयुक्त हिंदू परिवार की आय के रूप में किया जाना चाहिए?
  2. क्या मामले की परिस्थितियों के अनुसार लगाया गया मूल्यांकन उचित था?
  3. हिन्दू सहदायिक को हिन्दू अविभाजित परिवार से किस प्रकार अलग किया जाता है?

इस निर्णय में संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य द्वारा उत्तरजीविता के अधिकार के माध्यम से प्राप्त आय के आकलन से संबंधित सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार किया गया तथा उनके उत्तर प्रदान किए गए। 

पक्षों के तर्क

लेख के इस भाग में दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत तर्कों पर चर्चा की गई है और वे इस प्रकार हैं:

याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए तर्क

इस मामले में याचिकाकर्ता, आयकर आयुक्त ने कई तर्क प्रस्तुत किए, जिनमें मुख्य तर्क यह था कि उत्तरजीविता के अधिकार के माध्यम से पुत्र द्वारा अर्जित आय पर व्यक्तिगत आय के रूप में कर लगाया जाना चाहिए, न कि हिंदू अविभाजित परिवार की आय के रूप में लगाया जाना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि पिता की मृत्यु होते ही एचयूएफ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तथा परिवार में पुत्र ही एकमात्र पुरुष सदस्य रह जाता है। परिणामस्वरूप, पुत्र द्वारा अर्जित आय को उसकी व्यक्तिगत आय माना जाना चाहिए, तथा भारतीय आयकर अधिनियम, 1922 की धारा 55 के अंतर्गत अधिकर का प्रावधान इस आय पर लागू होना चाहिए। याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि एचयूएफ की अवधारणा एक कानूनी कल्पना है और इसे कराधान के प्रयोजनों के लिए नहीं माना जाना चाहिए। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि कराधान के प्रयोजनों के लिए एचयूएफ को मान्यता देने से गलत मिसाल कायम होगी और भविष्य में कर चोरी को बढ़ावा मिल सकता है। 

प्रतिवादी द्वारा तर्क

याचिकाकर्ता के तर्कों के जवाब में, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि पिता की मृत्यु के बाद भी हिंदू अविभाजित परिवार अस्तित्व में रहा, जैसा कि वेदाथन्नी बनाम आयकर आयुक्त (1932) के मामले में कहा गया है। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि व्यक्ति और एचयूएफ दो अलग-अलग कानूनी संस्थाएं हैं, और इसलिए, कराधान कानूनों के तहत मूल्यांकन के प्रयोजन के लिए आय को एचयूएफ की आय माना जाना चाहिए, न कि व्यक्ति की आय माना जाना चाहिए। इसलिए, पिता की मृत्यु के कारण बेटे को हस्तांतरित संपत्ति से होने वाली आय पर कोई अतिरिक्त कर नहीं लगाया जाना चाहिए। यह भी तर्क दिया गया कि एचयूएफ महज एक कानूनी कल्पना नहीं है, बल्कि भारत के सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में एक वास्तविकता है। 

मामले की सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों की ओर से ये दलीलें पेश की गईं।

आयकर आयुक्त बनाम गोमेदल्ली लक्ष्मीनारायण (1935) में शामिल अवधारणाएँ

इस निर्णय को स्पष्ट रूप से समझने के लिए अविभाजित हिन्दू परिवार और अधिकर (सुपर टैक्स) से संबंधित विभिन्न अवधारणाओं पर चर्चा करना आवश्यक है। 

हिंदू अविभाजित परिवार और हिंदू सहदायिक

इस निर्णय को पूरी तरह से समझने के लिए हिंदू अविभाजित परिवार और हिंदू सहदायिकता की अवधारणाओं को विस्तार से समझना आवश्यक है। 

इस निर्णय को पूरी तरह से समझने के लिए हिंदू अविभाजित परिवार और हिंदू सहदायिकता की अवधारणाओं को विस्तार से समझना आवश्यक है।

हिंदू अविभाजित परिवार एक पारंपरिक प्रणाली या परिवार की संरचना है जो भारत में हिंदू परिवारों में पाई जाती है, जहां परिवार के सभी सदस्य, जो रक्त या विवाह से संबंधित होते हैं, एक साथ रहते हैं और संपत्ति और धन जैसी सामान्य संपत्तियों को साझा करते हैं। एक परिवार को ‘संयुक्त’ या अविभाजित परिवार माना जाता है यदि रसोईघर और पूजा स्थल साझा रहते हैं, अलग-अलग नहीं, भले ही परिवार में केवल एक पुरुष सदस्य ही क्यों न हो। इस परिवार इकाई को कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है तथा कानूनी और कर उद्देश्यों के लिए इसकी एक विशिष्ट स्थिति है। एचयूएफ में, परिवार के सभी वंशज, चाहे उनका लिंग कुछ भी हो, सदस्य माने जाते हैं तथा परिवार की संपत्ति पर उनका अधिकार होता है। सबसे बड़ा पुरुष सदस्य आमतौर पर परिवार का मुखिया होता है और उसे कर्ता के नाम से जाना जाता है। वह परिवार के वित्त और परिसंपत्तियों का प्रबंधन करता है, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों की इन साझा परिसंपत्तियों में हिस्सेदारी होती है। नियमित परिवारों के विपरीत, एचयूएफ को कर निर्धारण आदि के प्रयोजन के लिए एकल कानूनी इकाई माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि ऐसे परिवार की आय पर उसके व्यक्तिगत सदस्यों की आय से अलग से कर लगाया जा सकता है। इसका अर्थ यह भी है कि ऐसा परिवार कर्ता की मृत्यु के बाद भी अपना अस्तित्व बनाए रखता है। अगला सबसे बड़ा सदस्य परिवार के नए मुखिया या कर्ता के रूप में कार्यभार संभाल लेता है। 

दूसरी ओर, हिंदू सहदायिक, एचयूएफ के भीतर एक छोटा समूह है जिसमें तीन पीढ़ियों के केवल पुरुष सदस्य शामिल होते हैं, जो एक ही पूर्वज से सीधे संबंधित होते हैं। इस समूह में पिता, उसके पुत्र, पौत्र और परपौत्र शामिल हैं, जिन्हें सहदायिक कहा जाता है। परिवार की पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी पाने का उन्हें जन्मसिद्ध अधिकार है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में 2005 के संशोधन ने हिंदू सहदायिकता की अवधारणा को बदल दिया है। इससे पहले, संयुक्त हिंदू परिवार के केवल पुरुष सदस्य ही सहउत्तराधिकारी हो सकते थे। हालाँकि, 2005 के संशोधन ने बेटियों को बेटों के समान अधिकार दिए, जिसका अर्थ है कि वे अपनी वैवाहिक स्थिति के बावजूद बेटों की तरह सहदायिक हो सकती हैं और कर्ता बन सकती हैं।

इन अवधारणाओं को हिंदू कानून के दो स्कूलों द्वारा भी परिभाषित किया गया है: मिताक्षरा और दयाभाग। इन दोनों प्रणालियों के बीच प्राथमिक अंतर सहदायिक अधिकारों के प्रबंधन में निहित है। मिताक्षरा प्रणाली में सहदायिक शामिल हैं, जबकि दयाभाग प्रणाली में सहदायिक अधिकारों को समान रूप से मान्यता नहीं दी जाती है। दयाभाग प्रणाली में, सहदायिक की मृत्यु के बाद, संपत्ति का हस्तांतरण अन्य सहदायिकों के बजाय उसके कानूनी उत्तराधिकारियों के हाथों में होता है। इसके विपरीत, मिताक्षरा प्रणाली में संपत्ति का हस्तांतरण कानूनी उत्तराधिकारियों को नहीं बल्कि सहदायिकों को किया जाता है। 

अधि-कर

आयकर अधिनियम, 1922 की धारा 55 के तहत उल्लिखित अधि-कर की अवधारणा में किसी व्यक्ति, हिंदू अविभाजित परिवार, कंपनी, स्थानीय प्राधिकरण या व्यक्तियों के अन्य संघ की कुल आय पर अतिरिक्त कर लगाना शामिल है। यह कर किसी भी कर निर्धारण वर्ष के लिए नियमित आयकर के अतिरिक्त लगाया जाता है। मूलतः, एक बार आयकर निर्धारित हो जाने पर, करदाता की आय पर अधि-कर नामक एक अतिरिक्त कर भी लगाया जाता है। दर उस विशेष वर्ष के लिए अधिनियम द्वारा निर्दिष्ट दर पर निर्भर करती थी। 

धारा 55 में निर्दिष्ट किया गया है कि अधि-कर करदाता द्वारा पिछले वर्ष अर्जित कुल आय पर लगाया जाता है। इस प्रावधान ने यह सुनिश्चित किया कि सभी आय, भले ही उस पर आयकर अधिनियम, 1922 के अंतर्गत कर नहीं लगाया गया हो, इस प्रावधान के अंतर्गत कराधान के अधीन होगी और उसका मूल्यांकन किया जाएगा, जिससे किसी भी प्रकार की कर चोरी को रोका जा सकेगा। उदाहरण के लिए, वर्तमान मामले में, आय वर्ष 1929 में उत्पन्न हुई थी, और मामले का निर्णय 1935 में हुआ था। इसलिए, इस प्रावधान के अंतर्गत अर्जित आय पर कर लगाया गया, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि इन वर्षों में अर्जित समस्त आय पर उचित रूप से कर लगाया गया। 

इस धारा में कुछ अपवाद भी दिए गए हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आयकर अधिनियम 1922 में उल्लिखित अधि-कर की अवधारणा अब भारत के वर्तमान कर कानून में मौजूद नहीं है। आयकर अधिनियम, 1961, जिसने आयकर अधिनियम, 1922 का स्थान लिया, ने अधि-कर के प्रावधान को आगे नहीं बढ़ाया। नये अधिनियम के लागू होने से भारत में कराधान की संरचना में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। यह परिवर्तन आर्थिक स्थितियों में परिवर्तन और कराधान के ढांचे को सरल बनाने के सरकार के उद्देश्य को दर्शाता है।

आयकर आयुक्त बनाम गोमेदल्ली लक्ष्मीनारायण (1935) में उल्लिखित पूर्ववर्ती मामले 

वेदथन्नी बनाम आयकर आयुक्त (1932)

आयकर आयुक्त बनाम गोमेदल्ली लक्ष्मीनारायण मामले की सुनवाई के दौरान, वेदथन्नी बनाम आयकर आयुक्त (1932) मामले को मिसाल के तौर पर उद्धृत किया गया। उस मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय की विशेष पीठ ने माना था कि एक हिंदू अविभाजित परिवार में एक पुरुष सदस्य और अन्य सहदायिकों की विधवाएं शामिल हो सकती हैं। इसलिए, मृतक सहदायिक की विधवा द्वारा प्राप्त भरण-पोषण की बकाया राशि को आयकर अधिनियम, 1922 की धारा 14(1) के अंतर्गत कर से छूट दी गई हैं। इस मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय मद्रास उच्च न्यायालय की इस व्याख्या से सहमत था। निर्णय सुनाते समय न्यायालय ने दिए गए तर्क को स्वीकार कर लिया तथा कहा कि उसे इस मामले में महाधिवक्ता द्वारा दिए गए तर्क को अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं मिला। 

इन री मूलजी सिक्का एवं अन्य बनाम अज्ञात (1934)

उपर्युक्त मामले के अलावा, न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष मूलजी सिक्का और पांच अन्य करदाताओं के मामले पर भी विचार किया। हालाँकि, न्यायालय ने इसके विवरण में जाने से परहेज किया, क्योंकि कार्यवाही के दौरान न्यायालय को निर्णय की केवल एक अप्रमाणित प्रति ही उपलब्ध कराई गई थी। 

मामले का निर्णय

दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अदालत ने निम्नलिखित निर्णय दिया:

  1. अदालत ने निर्धारित किया कि वर्तमान मामले में, आय को संयुक्त हिंदू परिवार की आय माना जाना चाहिए, न कि व्यक्ति की आय के रूप में माना जाना चाहिए। यह निर्णय इस तथ्य पर आधारित था कि पिता की मृत्यु के बाद भी संयुक्त हिंदू परिवार अस्तित्व में रहता है, क्योंकि शेष सदस्यों में पुत्र, उसकी पत्नी और मृत पिता की पत्नी शामिल होते हैं। 
  2. वर्तमान मामले में अधि-कर का प्रावधान लागू नहीं होगा। आय को करदाता की व्यक्तिगत आय नहीं माना गया, और इसलिए आयकर अधिनियम, 1922 के अधि-कर प्रावधान के तहत पुत्र/करदाता पर लगाया गया दायित्व सही नहीं है। 

निर्णय के पीछे तर्क

माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय कई प्रमुख बिंदुओं पर आधारित किया, जो इस प्रकार हैं:

  1. इस मामले में संयुक्त हिंदू परिवार की वैधता के संबंध में प्रस्तुत मुद्दे पर निर्णय करते हुए, न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में मिसाल के तौर पर उद्धृत मामले, वेदाथन्नी बनाम आयकर आयुक्त, ने मद्रास उच्च न्यायालय की विशेष पीठ के समक्ष कानून का एक समान प्रश्न उठाया था, और भिन्न राय रखने का कोई वैध कारण नहीं था। इसलिए, अदालत ने फैसला किया कि संयुक्त हिंदू परिवार तब भी अस्तित्व में रह सकता है, जब परिवार में केवल एक पुरुष सदस्य हो, और इसलिए, इस मामले में भी, पिता की मृत्यु के बाद यह विघटित नहीं होता है। 
  2. अधि-कर के मुद्दे पर निर्णय देते हुए माननीय न्यायालय ने कहा कि चूंकि संयुक्त हिंदू परिवार को वैध माना जाता है, इसलिए उत्तरजीविता के अधिकार के रूप में प्राप्त आय को संयुक्त हिंदू परिवार की आय माना जाएगा, न कि व्यक्तिगत रूप से करदाता की आय के रूप में माना जाएगा। 

निष्कर्ष

आयकर आयुक्त बनाम गोमेदल्ली लक्ष्मीनारायण मामले ने भारत में पारिवारिक कानून के परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, विशेष रूप से कराधान से निपटने के मामले में भूमिका निभाई है। इस मामले ने उत्तराधिकार के अधिकार के माध्यम से प्राप्त आय के मूल्यांकन से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर दिया और एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम की है। इस निर्णय ने एक सामान्य मुद्दे पर स्पष्टता प्रदान की जो भारत में हिंदू समाज के विभिन्न अन्य मामलों को प्रभावित करता है। इस निर्णय में न्यायालय के तर्क ने न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत सभी मुद्दों को विस्तार से संबोधित किया तथा एक स्पष्ट चित्र प्रस्तुत किया कि सहदायिक द्वारा उत्तरजीविता के अधिकार के रूप में प्राप्त आय का आयकर के प्रयोजन हेतु मूल्यांकन किस प्रकार किया जाना चाहिए। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

भारतीय कर कानून में ‘उत्तराधिकार के अधिकार’ से क्या तात्पर्य है?

‘उत्तराधिकार का अधिकार’ उत्तराधिकार कानूनों के अनुसार संपत्ति प्राप्त करने के लिए किसी व्यक्ति के कानूनी अधिकार को संदर्भित करता है। इस अधिकार में ऐसी आय प्राप्त करने के लिए करदाता की ओर से कोई व्यक्तिगत प्रयास शामिल नहीं है। 

भारतीय कर कानून उत्तराधिकार के अधिकार के प्रयोग से प्राप्त आय को किस प्रकार मानता है?

इस मामले के बाद, भारत में कर कानून उत्तराधिकार के अधिकार से प्राप्त आय को व्यक्तिगत रूप से सहदायिक की आय के बजाय संयुक्त हिंदू परिवार की आय मानता है।

क्या भारत में अधि-कर का प्रावधान अभी भी लागू है?

नहीं, आयकर अधिनियम, 1961 के लागू होने के साथ ही अधि-कर का प्रावधान समाप्त कर दिया गया है। नये अधिनियम के लागू होने के बाद कराधान की संरचना बदल दी गई है। 

संदर्भ

 

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