एजेंसी के अनुबंध के पहलू

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Contract of India

यह लेख Harsh Dev Singh के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में वह भारतीय अनुबंध अधिनियम के तहत एजेंसी के अनुबंध पर चर्चा करते हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

भारतीय अनुबंध अधिनियम विशेष अनुबंधों पर चर्चा करता है जो समकालीन (कंटेंपरेरी) कानूनी प्रणाली में मौजूद हैं। भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 124 से 238 में विशेष अनुबंधों पर चर्चा की गई है और ऐसा ही एक विशेष अनुबंध एजेंसी का अनुबंध है। इस लेख के माध्यम से हम एजेंसी के अनुबंध के विभिन्न पहलुओं का बारीकी से विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे, आगे हम दो शोध (रिसर्च) प्रश्नों पर गौर करेंगे जो हमें एजेंसी के अनुबंध की अनिवार्यता को बेहतर तरीके से समझने में मदद करेंगे।

एजेंसी का अनुबंध

तो, वास्तव में एजेंसी का अनुबंध क्या है? यह एक प्रकार का विशेष अनुबंध है जिसमें एक पक्ष दूसरे पक्ष के एजेंट या प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने के लिए सहमत होता है या सहमति देता है। भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 182 एक एजेंट को “दूसरे के लिए कोई कार्य करने के लिए नियोजित (एंप्लॉयड) व्यक्ति, या तीसरे व्यक्तियों के साथ कार्य करने के लिए दूसरे व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियोजित व्यक्ति” के रूप में परिभाषित करती है और एक प्रिंसिपल को “वह व्यक्ति जिसके लिए ऐसा कार्य किया जाता है, या जिसका एजेंट द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है” के रूप में परिभाषित करती है।

इस परिभाषा के अनुसार, एक एजेंट कोई भी हो सकता है जो किसी और के लिए कार्य करता है, इसका अर्थ यह होगा कि एक नौकर या एक कर्मचारी जो उनके मालिक या नियोक्ता (एंप्लॉयर) द्वारा उन्हें सौंपे गए कार्य को करता है, एक एजेंट होगा। यह पी. कृष्णा भट्ट बनाम मुंडिला गणपति भट्ट में स्पष्ट किया गया था, जिसमें न्यायमूर्ति रामामालिक ने कहा था कि कानूनी संदर्भ में प्रत्येक व्यक्ति जो दूसरे के लिए कोई कार्य करते है, एक एजेंट नहीं है, लेकिन केवल तब जब व्यक्ति (एजेंट), दूसरे व्यक्ति (प्रिंसिपल) के कार्यों और अनुबंधों में एक प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है, तो उसे एक एजेंट के रूप में कहा जा सकता है। 

यह भी एक सामान्य ग़लतफ़हमी है कि एक एजेंट केवल तीसरे पक्ष के साथ अनुबंध के निर्माण में शामिल होता है, लेकिन यह धारणा गलत है, क्योंकि एक एजेंट प्रिंसिपल और तीसरे पक्ष के बीच संविदात्मक (कॉन्ट्रैक्चुअल) दायित्वों के निर्माण, परिवर्तन या समाप्ति में शामिल हो सकता है।

एजेंसी के अनुबंध के लिए अनिवार्य तत्व

  • प्रिंसिपल अनुबंध के लिए योग्य/सक्षम होना चाहिए: 

भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 183 सक्षम प्रिंसिपल की योग्यता से संबंधित है। किसी व्यक्ति को एक सक्षम प्रिंसिपल होने के लिए उसे वयस्कता (मेजोरिटी) की आयु प्राप्त करनी चाहिए और एजेंट की नियुक्ति के समय उसका दिमाग स्वस्थ होना चाहिए।

  • एजेंट अनुबंध के लिए योग्य/सक्षम होना चाहिए:

भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 184 एक सक्षम एजेंट की योग्यता से संबंधित है। इस धारा में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति एक एजेंट के रूप में योग्य होने के लिए सक्षम है, भले ही उक्त व्यक्ति अवयस्क (माइनर) हो या मानसिक रूप से अस्वस्थ हो। ध्यान में रखने वाली एकमात्र बात यह है कि यदि किसी अवयस्क या अस्वस्थ मस्तिष्क के व्यक्ति को एजेंट के रूप में चुना जाता है, तो वह प्रिंसिपल के प्रति जवाबदेह नहीं हो सकता है।

  • अनुबंध करने का इरादा होना चाहिए: 

इरादा किसी भी अनुबंध का एक अनिवार्य हिस्सा है लेकिन इसकी प्रासंगिकता (रिलेवेंसी) और अनुपालन विभिन्न प्रकार के अनुबंधों के साथ भिन्न होता है। एजेंसी के अनुबंध में, एजेंट की ओर से प्रिंसिपल के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने का इरादा होना चाहिए।

  • एजेंसी के अनुबंध के अस्तित्व के लिए प्रतिफल (कंसीडरेशन) आवश्यक नहीं है: 

भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 185 एजेंसी के अनुबंध में प्रतिफल के मूल्य के बारे में बात करती है। यह धारा बताती है कि एजेंसी के अनुबंध के निर्माण के लिए कोई प्रतिफल आवश्यक नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि एक एजेंट को उपयुक्त कमीशन नहीं दिया जाएगा।

एजेंसी के अनुबंध में अवयस्क की स्थिति

एक प्रिंसिपल के रूप में अवयस्क 

धारा 183 किसी भी अवयस्क को एजेंसी के अनुबंध में एक प्रिंसिपल के रूप में कार्य करने से रोकती है। धारा 183 किसी भी अवयस्क को एजेंसी के अनुबंध में प्रिंसिपल के रूप में कार्य करने से रोकती है, लेकिन ऐसा क्यों है? एक अवयस्क को एक प्रिंसिपल के रूप में कार्य करने से रोकने के पीछे का कारण यह है कि उनके द्वारा किया गया कोई भी अनुबंध शुरू से ही शून्य होता है। मोहरी बीबी बनाम दामोदर घोष के ऐतिहासिक फैसले में इस पर विस्तार से चर्चा की गई थी। 

एक अवयस्क को एजेंसी के अनुबंध में प्रवेश करने से रोकने के पीछे के परिणाम और तर्क पर शेफर्ड बनाम कार्टराइट के ऐतिहासिक फैसले में चर्चा की गई, जहां न्यायाधीश डेनिंग ने कहा कि एक अवयस्क अपनी ओर से कार्य करने के लिए खुद के लिए एक एजेंट का चयन करने में असमर्थ है, क्योंकि यदि कानून ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की अनुमति देता है तो उक्त एजेंट का चयन शून्य हो जाएगा। इसके बाद यह होगा कि चुने गए एजेंट का हर कार्य शुरू से ही अमान्य होगा और प्रिंसिपल द्वारा अनुसमर्थित (रेटिफाइड) होने में अक्षम होगा।

अब तर्क पर आते हैं कि अदालत एक अवयस्क को एजेंसी अनुबंध में प्रिंसिपल के रूप में कार्य करने से क्यों रोकती है, कानून मानता है कि एक अवयस्क के पास अपने लिए एक उपयुक्त एजेंट चुनने के लिए आवश्यक ज्ञान नहीं है। वह, कानून की नजर में, गलत व्यक्ति को अपने एजेंट के रूप में चुन लेगा, इसलिए इस तर्कसंगत कानून का पालन करना कहता है कि एक अवयस्क एक एजेंट को चुनने में अयोग्य है। इसका मतलब यह नहीं है कि अवयस्क कभी भी एजेंट की नियुक्ति नहीं कर सकता चाहे मामला कुछ भी हो।

ऐसे मामलों में जहां एक अवयस्क स्वयं अनुबंध करने में सक्षम है, वह ऐसा करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति (एजेंट) को भी नियुक्त कर सकता है। इस सिद्धांत पर आगे बोस्टेड ऑन एजेंसी द्वारा गहराई से चर्चा की गई, जहां यह निष्कर्ष निकाला गया कि एक अवयस्क या अस्वस्थ दिमाग का व्यक्ति अपने अधिकारियों द्वारा किए गए अपने एजेंटों के कार्यों से बाध्य है, यह देखते हुए कि शर्तें ऐसी हैं कि यदि उसने स्वयं अनुबंध किया होता तो वह स्वयं बाध्य होता।

इसके अलावा, जैसा कि मदनलाल धारीवाल बनाम भेरूलाल में चर्चा की गई है, भारतीय अनुबंध अधिनियम में कोई भी धारा उस अवयस्क के कानूनी अभिभावक (गार्डियन) द्वारा एजेंट की नियुक्ति पर रोक नहीं लगाती है, भले ही कानून उसे सीधे अपने लिए एक एजेंट चुनने से रोकता है, यह आगे अवयस्क की ओर से हुई किसी भी गलती या असुविधा को ठीक करता है।

एक एजेंट के रूप में अवयस्क

जैसा कि हमने ऊपर देखा है, भारतीय अनुबंध अधिनियम में कुछ भी किसी व्यक्ति को एजेंसी के अनुबंध में एजेंट के रूप में कार्य करने से नहीं रोकता है। धारा 184 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को एजेंट होने के लिए सक्षम घोषित किया जा सकता है, लेकिन यह एक चेतावनी खंड के साथ आता है कि भले ही एक पागल या अवयस्क को एजेंट के रूप में कार्य करने की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन वह अपने मालिक के प्रति जवाबदेह नहीं होगा। 

एक पागल या अवयस्क को एजेंट होने की अनुमति क्यों दी जाती है इसका तर्क यह है कि एक एजेंट को व्यक्तिगत रूप से जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है जब वह प्रिंसिपल के लिए एक अनुबंध में प्रवेश कर रहा हो, इसलिए भले ही एजेंट अवयस्क या पागल हो उनकी योग्यताएं एक अनुबंध में सक्षम होने के लिए महत्वपूर्ण नहीं  है। मोहम्मद अली इब्राहिम पिरखान बनाम शिलर के मामले में इस पर विस्तार से चर्चा की गई थी।

तो, एक अवयस्क एक एजेंट होने के लिए योग्य है, लेकिन एक प्रिंसिपल नहीं है, इसका सार यह है कि एक प्रिंसिपल एजेंट द्वारा किए गए कार्यों के लिए व्यक्तिगत दायित्वों को लागू करता है और यदि प्रिंसिपल एक अवयस्क है, तो उसे उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, जबकि जब हम एक एजेंट के रूप में अवयस्क के बारे में बात करते हैं, वह अपने कार्यों के लिए कोई व्यक्तिगत दायित्व नहीं लेता है, इसलिए भले ही दूसरा पक्ष पारिश्रमिक (रिम्यूनरेशन) मांगता है या प्रिंसिपल को उत्तरदायी ठहराना चाहता है, वह बिना किसी असुविधा के ऐसा कर सकता है।

एजेंट और नौकर में अंतर

मालिक नौकर अनुबंध और एजेंसी के अनुबंध की आवश्यक विशेषताओं की जांच करने पर, हमें इन दोनों अनुबंधों में मौजूद विभिन्न समान विशेषताओं का पता चलता है। अब सवाल यह है कि हम उनके बीच निष्पक्ष रूप से अंतर कैसे करें? इस प्रश्न का उत्तर लक्ष्मीनारायण राम गोपाल एंड संस लिमिटेड बनाम हैदराबाद सरकार के मामले में न्यायमूर्ति भगवती के फैसले में दिया गया था, जहां उन्होंने कहा था कि मुख्य अंतर को निष्पक्ष रूप से निम्नलिखित बिंदुओं में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  • अपने मालिक के लिए एक अनुबंध में प्रवेश करने की शक्ति विशेष रूप से केवल एक एजेंट द्वारा प्राप्त की जाती है। उसके पास अनुबंध पर हस्ताक्षर करने में तीसरे पक्ष को उनकी ओर से प्रिंसिपल का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है, लेकिन जब हम नौकर के बारे में बात करते हैं, तो ऐसा अधिकार आम तौर पर अनुपस्थित होता है।
  • एक एजेंट को क्या करना है, इसका निर्देश देने के लिए एक प्रिंसिपल का नियंत्रण मौजूद है लेकिन वह उस तरीके को निर्धारित नहीं कर सकता है जिसमें एजेंट द्वारा कार्य किया जाना है। जब हम मालिक द्वारा अपने नौकर पर प्रयोग किए जाने वाले नियंत्रण के बारे में बात करते हैं, तो हम देखते हैं कि उसे यह मार्गदर्शन करने की शक्ति प्राप्त है कि नौकर को क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए। आम तौर पर, एक नौकर से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने मालिक द्वारा दिए गए सभी कानूनी आदेशों का पालन करे और रोजगार के दायरे में आए। एक एजेंट के मामले में ऐसा नहीं है, जबकि उससे उम्मीद की जाती है कि वह अपने मालिक द्वारा उसे दिए गए निर्देशों के अनुरूप होगा, उसे प्रिंसिपल का कोई प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) आदेश नहीं मिलता है।
  • जिस तरह से नौकर को अपने मालिक के लिए किए गए कार्यों के लिए मुआवजा दिया जाता है, वह एक एजेंट को मुआवजा देने के तरीके से अलग होता है। जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि एजेंसी के अनुबंध के अस्तित्व के लिए प्रतिफल एक अनिवार्य शर्त नहीं है, इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि एजेंट को उसके कार्यों के लिए वेतन/पारिश्रमिक दिया जाए। आम तौर पर, एक एजेंट प्रिंसिपल के लिए उसके द्वारा किए गए कार्य के लिए कमीशन प्राप्त करता है।
  • मालिक-नौकर संबंध में, नौकर के कार्यों के लिए मालिक उत्तरदायी होता है यदि उक्त कार्य रोजगार के दायरे और रोजगार के क्रम के दायरे में आता है। एक प्रिंसिपल-एजेंट संबंध में प्रतिनिधिक (वाइकेरियस) दायित्व इस मायने में अलग है कि भले ही एजेंट का एक कार्य रोजगार के दायरे में आता है, लेकिन यह प्रकृति में व्यक्तिगत था, ऐसे कार्यों के लिए प्रिंसिपल बाध्य/उत्तरदायी नहीं होगा। संक्षेप में, प्रिंसिपल केवल उन कार्यों के लिए उत्तरदायी है जो एजेंट के “अधिकार के दायरे में” किए जाते हैं
  • हमने विस्तृत रूप से अध्ययन किया है कि एक नौकर एक बार में एक से अधिक मालिक के लिए काम नहीं कर सकता है, क्योंकि यदि हम ऐसा होने देते हैं तो बहुत अधिक भ्रम होगा कि नौकर की गलतियों के लिए किसे प्रतिनिधिक रूप से उत्तरदायी ठहराया जाएगा। एजेंटों के साथ ऐसा नहीं है, एक एजेंट के पास यह लचीलापन होता है कि वह जितने चाहे उतने प्रिंसिपलों के लिए काम कर सकता है।

यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अदालत उस नाम से प्रतिबंधित नहीं है जो पक्षों द्वारा अनुबंध को, अनुबंध के लिए दिया गया है, लेकिन वह अनुबंध में सामग्री द्वारा प्रतिबंधित है। यहां तक ​​कि अगर एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किया जाता है, यह मानते हुए कि यह रोजगार का अनुबंध है, अदालत, इसके विपरीत पर्याप्त आधार खोजने पर, इसे एजेंसी के अनुबंध के रूप में मान सकती है।

इस बात पर भी जोर दिया जाना चाहिए कि एक अकेला व्यक्ति कभी-कभी एजेंट या नौकर/कर्मचारी की दो अलग-अलग भूमिकाएँ निभा सकता है। उदाहरण के लिए, किसी कंपनी में प्रबंधकीय (मैनेजेरियल) पद धारण करने वाले व्यक्ति को एक एजेंट के रूप में कहा जा सकता है जब वह एक अनुबंध में प्रवेश करने के लिए किसी तीसरे पक्ष को कंपनी का प्रतिनिधित्व करता है, और जब वह काम करता है जो उसके रोजगार के क्रम में है तो उसे नौकर भी कहा जा सकता है। 

निष्कर्ष

एजेंसी, जैसा कि भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 में वर्णित है, एक प्रत्ययी (फिड्यूशियरी) संबंध है जिसमें प्रिंसिपल अपनी ओर से तीसरे पक्ष से निपटने के लिए एक एजेंट नियुक्त करता है। किसी को भी ‘एजेंट’ कहा जा सकता है यदि वह उनके अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिकशन) के तहत किसी अन्य व्यक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहा है और उसके पास उस व्यक्ति के लिए कानूनी संबंध बनाने की क्षमता है जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है, जिसे ‘प्रिंसिपल’ कहा जाता है। 

जैसा कि एजेंट प्रिंसिपल का कानूनी प्रतिनिधि होता है, इस प्रकार प्रिंसिपल अपने एजेंट के कार्यों से बंधा होता है और उनसे लाभान्वित भी हो सकता है जैसे कि उसने इन कार्यों को स्वयं किया हो। इसके अलावा, एजेंट के अपने रोजगार के दायरे में किए गए सभी कार्यों को कानूनी तौर पर प्रिंसिपल के कार्यों के रूप में माना जाता है। 

इस लेख में उन अनिवार्यताओं पर चर्चा की गई है जिन्हें ऐसी एजेंसी के गठन के लिए पूरा किया जाना चाहिए। अक्सर, इसकी जटिलता को अनदेखा कर दिया जाता है क्योंकि आजकल इसका इतना अधिक उपयोग किया जाता है कि यह हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। हालाँकि, अनुबंध कानून की तरह, एजेंसी भी हर उस व्यक्ति का एक बहुत ही आवश्यक हिस्सा है जो व्यवसाय में लगा हुआ है और इसके लिए उच्च स्तर के व्यावहारिक ज्ञान की आवश्यकता होती है।

संदर्भ

  • Avtar Singh, Contract & Specific Relief, 12th edition
  • Manupatra.com
  • Scconline.com
  • Bowstead on agency (11th Edn) 14.
  • Incorporated.zone
  • Mondaq.com

 

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