आर्टिकल 370 (अनुच्छेद 370)

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1914
Article 370
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यह लेख पुणे के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल की छात्रा Namrata Kandankovi ने लिखा है। इस लेख के लेखक ने जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने और उन परिस्थितियों के बारे में विस्तार से चर्चा की है, जिनके कारण इस तरह के विशेष प्रावधान करना आवश्यक हो गया और इसके अलावा जम्मू और कश्मीर राज्य को स्वायत्तता दिए जाने के बाद विकसित हुए परिणाम और विकास। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar ने किया है।

Table of Contents

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (हिस्टोरिकल बैकग्राउंड)

यह संधि (ट्रीटी) 16 मार्च, 1846 को ब्रिटिश सरकार और महाराजा गुलाब सिंह के बीच अमृतसर में की गई थी, जिसने जम्मू और कश्मीर को एक राजनीतिक और भौगोलिक इकाई (एंटिटी) के रूप में तैयार किया था। इस नए से बनाए गए राज्य में मुख्य रूप से तीन जिले शामिल थे – जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। जहां भारत ने ब्रिटिश शासन से आजादी की लड़ाई में विकास देखा, वहां शेर-ए-कश्मीर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के नेतृत्व में निरंकुशता (ऑटोक्रेसी) के खिलाफ लड़ने के लिए कश्मीर में भी इसी तरह का हंगामा हुआ। जिसका परिणाम यू हुए की निरंकुश शासन लोगों के स्वतंत्रता आंदोलन पर भारी पड़ गया।

13 जुलाई, 1931 को 22 प्रदर्शनकारी शहीद होने के बाद आंदोलन को गति मिली। इसके अलावा, मोहम्मद अब्दुल्ला की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सम्मेलन (नेशनल कांफ्रेंस) एक जन आंदोलन के रूप में उभरकर सामने आया और लोगों की निरंकुशता के खिलाफ लड़ने की दृढ़ इच्छा से खड़ा हुआ। जन आंदोलन के नेतृत्व में राष्ट्रीय सम्मेलन ने आगे कई उतार-चढ़ाव देखे, जिसके बाद मोहम्मद अब्दुल्ला के नेतृत्व में परिस्थितियों और भाग्य में बदलाव आया।

परिग्रहण का साधन (इंस्ट्रूमेंट्स ओफ एसेशन)

15 अगस्त 1947 को जब भारत को स्वतंत्रता मिली, तब जम्मू और कश्मीर भारत की 565 रियासतों में से एक था। जब भारत को स्वतंत्रता दी जा रही थी, रियासतों के शासकों (प्रिंसली रुलर्स) को एक विकल्प सौंप दिया गया था, वह यह था कि उनके पास दो प्रभुत्वों (डॉमिनियन) में से एक में शामिल होने का निर्णय वह खुद ले सकते थे – कि वह भारत या पाकिस्तान या एक स्वतंत्र राज्य के रूप में रहना चाहते है।

जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन शासक, महाराजा हरि सिंह ने भारत या पाकिस्तान से साथ अलग होने के विकल्प का प्रयोग नहीं किया और इसके बजाय भारत और पाकिस्तान दोनों अधिराज्यों के साथ एक  समझौते के ठहराव  का प्रस्ताव भेजा। प्रस्ताव प्राप्त होने पर, पाकिस्तान ने तुरंत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधान मंत्री को इसकी सूचना दी। दूसरी ओर, भारत ने प्रस्ताव पर सहमत होने से इनकार कर दिया और इसके बजाय, महाराजा हरि सिंह को उस प्रस्ताव पर चर्चा करने के लिए प्रतिनिधियों को दिल्ली भेजने की सलाह दी।

स्टैंडस्टिल समझौते के बाद: घटनाक्रम (डेवलपमेंट फॉलोअर बाय स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट)

हालांकि पाकिस्तान ने भारत के साथ एक ठहराव (स्टैंडस्टिल) समझौता किया था, फिर भी उसकी नजर कश्मीर पर थी। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के तर्क से यह मान लिया था कि यह पाकिस्तान का हिस्सा बन जाएगा। लेकिन इसके बाद जो घटनाएं हुईं, वे इसके विपरीत थीं।

आखिरकार, पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर की भूमि पर नियंत्रण हासिल करने के लिए कश्मीर पर आदिवासी हमले की योजना बनाई और उसे हरी झंडी दे दी। उनका मुख्य उद्देश्य कश्मीर के महाराजा को उनकी भूमि से खदेड़ना था। इसके साथ ही, पुंछ विद्रोह अस्तित्व में आया, जिसने “आजाद कश्मीर” की विचारधारा को मुक्त कर दिया। पुंछ विद्रोह कश्मीर के लोगों द्वारा महाराजा हरि सिंह के शासन के खिलाफ विद्रोह और कश्मीर की भूमि के सुरक्षित भविष्य की मांग द्वारा चिह्नित किया गया था।

इस तरह के घटनाक्रम ने हरि सिंह पर कश्मीर के भविष्य के लिए कार्रवाई का फैसला करने का दबाव डाला। महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर राज्य में स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए भारत की मदद मांगी। कश्मीर के लोगों की मांगों के सामने झुकते हुए और आक्रमणकारियों को अपनी भूमि से पीछे धकेलने के लिए, हरि सिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को भारत के पक्ष में विलय (असेशन) के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षरित दस्तावेज की कृति वही थी जिस पर अन्य रियासतों के शासकों द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे।

एक बार जब जम्मू और कश्मीर विलय के साधन के माध्यम से भारत का कानूनी और संवैधानिक हिस्सा बन गया, तो भारतीय सैनिकों को आक्रमणकारियों को पीछे धकेलने और आक्रमण के क्षेत्र खाली करने के लिए भेजा गया। विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद, 30 अक्टूबर 1947 को कश्मीर राज्य में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के प्रमुख के रूप में एक आपातकालीन सरकार का गठन किया गया था। सेना ने लड़ाई लड़ी और कई बलिदानों को झेलने के बाद, आखिरकार कश्मीर के क्षेत्र से आक्रमणकारियों को खदेड़ने में सफल रही।

कश्मीर विवाद में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका (रोल ऑफ़ यूनायतेड नेशन इन कश्मीर डिस्प्यूट)

1 जनवरी, 1948 को भारत ने अपने चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में उठाया। अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान पर कश्मीर के इलाके में कबायली (आदिवासी) घुसपैठ में मदद करने का आरोप लगा। लेकिन पाकिस्तान ने सभी आरोपों का खंडन किया और बदले में, उन्होंने भारत पर कश्मीर के क्षेत्र पर कब्जा करने और इसके अलावा पाकिस्तान को उसकी प्रारंभिक अवस्था में अस्थिर करने का आरोप लगाया।

भारत और पाकिस्तान दोनों के प्रतिनिधियों को सुनने के बाद, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 7 जनवरी 1948 को कश्मीर मुद्दे पर बहस की शुरुआत की। भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव को समाप्त करने के लिए, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव पारित किया , भारत और पाकिस्तान दोनों को युद्ध विराम का आह्वान करने और कठिन स्थिति से बचने के लिए संकल्प 38 प्रस्ताव जारी किया।

लेकिन पाकिस्तान ने कश्मीर के मुद्दे पर अपने रुख और कश्मीर के मुद्दे पर भारत के विलय के संबंध में कई कानूनी और दूसरे मुद्दों को उठाया। संयुक्त राष्ट्र ने इस मामले को सुलझाने और कश्मीर विवाद को अंतिम रूप देने के लिए 21 अप्रैल 1948 को एक और प्रस्ताव पारित किया, जिसने भारत और पाकिस्तान के बीच शत्रुता को समाप्त करने और सभी पाकिस्तानी सैनिकों और कबायली को वापस लेने और कश्मीर की भूमि से भारतीय सैनिकों के वापसी के लिए अंतिम आह्वान किया।

परिग्रहण की प्रमुख विशेषताएं (प्रॉमिनेंट फीचर्स ऑफ़ ऐसेशन)

हालांकि यह समझौता अस्थायी था, लेकिन यह जम्मू और कश्मीर को एक विशेष दर्जा प्रदान करने और बनाए रखने के लिए बनाया गया था, और इसकी मुख्य विशेषताएं नीचे दी गई है:

  1. उस समझौते के तहत राज्य ने रक्षा, संचार और विदेश मामलों को आत्मसमर्पण कर दिया।
  2. विलय का दस्तावेज भारत के प्रभुत्व के साथ जम्मू और कश्मीर राज्य के संबंधों को नियंत्रित करेगा।
  3. अलग संविधान सभा के माध्यम से राज्य को अपने स्वयं के संविधान का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करने की स्वायत्तता (अटोनोमी) प्रदान की गई थी।
  4. मूल संविधान (1950) में जम्मू और कश्मीर राज्य का गठन भाग बी श्रेणी में किया गया था।
  5. केंद्र और समवर्ती सूची (कंक्योरंट लिस्ट) के संबंध में कानून जम्मू और कश्मीर राज्य की पहले सहमति लेने के बाद ही केंद्र द्वारा बनाए जाएंगे।
  6. उपरोक्त प्रावधानों (प्रोविजन) को प्रभावी बनाने और समायोजित (एडजस्ट) करने के लिए भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल किया गया था।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 (आर्टिकल 370 ऑफ़ इंडियन कंस्टीट्यूशन)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद (आर्टिकल) 370 जम्मू और कश्मीर राज्य के पक्ष में नीचे दिए गए संशोधनों को सुनिश्चित करता है:

  1. अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर राज्य के लिए एक अलग संविधान प्रदान करता है।
  2. जम्मू और कश्मीर राज्य का नाम, क्षेत्र या सीमा राज्य विधायिका (स्टेट लेजिस्लेचर) की पूर्व अनुमति के बिना नहीं बदला जा सकता है।
  3. भारतीय संविधान का भाग VI जो राज्य सरकार से संबंधित है, जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू नहीं है।
  4. राज्य के स्थायी निवासियों को सार्वजनिक रोजगार, बंदोबस्त और सरकारी छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) और अचल संपत्ति (इमूवेबल प्रॉपर्टी) के अधिग्रहण के संबंध में विशेष अधिकार प्रदान किए जाते हैं।
  5. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत और मौलिक कर्तव्य जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होते हैं।
  6. जम्मू और कश्मीर राज्य में वित्तीय आपातकाल (फाइनेंशियल इमरजेंसी) नहीं लगाया जा सकता है।
  7. जम्मू और कश्मीर के उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य मामलों में याचिका (रिट) जारी करने का अधिकार नहीं है।
  8. राष्ट्रीय आपातकाल (नेशनल इमर्जेंसी) जो आंतरिक या अंदरूनी अशांति के आधार पर लगाया जाएगा उसका राज्य सरकार की सहमति के बिना जम्मू और कश्मीर राज्य पर प्रभाव पड़ेगा।
  9. राजभाषा के प्रावधान (प्रोविजन) केवल तभी तक लागू होते हैं जब तक वे संघ (यूनियन) की राजभाषा से संबंधित होते हैं।
  10. भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची और छठी अनुसूची जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू नहीं है।
  11. जम्मू और कश्मीर राज्य में राष्ट्रपति शासन केवल राज्य के संविधान की संवैधानिक यंत्रणा विफल होने पर ही लागू किया जा सकता है, न कि भारतीय संविधान के विफल होने पर।
  12. आतंकवादी कृत्यों से संबंधित गतिविधियों को रोकना, भारत की संप्रभुता (सोवर्नीटी) और क्षेत्रीय अखंडता (टेरिटोरियल इंटीग्रिटी) पर सवाल उठाने और बाधित करने और राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान और भारत के संविधान का अपमान करने के अलावा सभी शेष शक्ति राज्य की है।

अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू और कश्मीर राज्य को स्वायत्तता (एटनमी टू द स्टेट ऑफ़ जम्मू एंड कश्मीर अंडर आर्टिकल 370)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर राज्य को एक बहुत ही विशेष दर्जा का आश्वासन देता है, और यह दर्जा जम्मू-कश्मीर को उन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए दिया जाता है, जिनमें रियासत ने विलय के साधन में प्रवेश किया था। भारत के संविधान ने जम्मू और कश्मीर राज्य के संबंध में केंद्र सरकार की शक्तियों पर कई प्रतिबंध लगाए है।

हालांकि, हाल के वर्षों में, अलोकतांत्रिक प्रथा और उपायों की एक श्रृंखला सामने आई है, जो वास्तव में जम्मू और कश्मीर राज्य पर अनुच्छेद 370 द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण अधिकार और शक्तियों के कम होने का कारण बने हैं। अभी के उदाहरणों में देखा जा सकता है जिसकी वजह से जम्मू और कश्मीर के महत्वपूर्ण अधिकारों का क्षरण (इरोजन) किया गया है, उन्हें घोषणापत्रों और उपायों के रूप में सामने लाया या उभारा (सिटेशन) जा सकता है जो भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न दलों द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं, जिन पर इस लेख अंतर्गत दिए गए खंड में विस्तार से चर्चा की जाएगी।

भारतीय संविधान के तहत अनुच्छेद 370 की वर्तमान स्थिति (प्रेजेंट स्टेटस ऑफ़ आर्टिकल 370 अंडर इंडियन कंस्टीट्यूशन)

हाल के वर्षों में अनुच्छेद 370 के क्षेत्र में कई बदलाव और विकास हुए हैं, और उसी पर इस लेख के विभिन्न खंडों के तहत चर्चा की जाएगी।

अनुच्छेद 370 क्या है (व्हाट इज आर्टिकल 370)?

अनुच्छेद 370 का निर्माण इस विचार के साथ किया गया था कि इसका अस्तित्व अस्थायी (कुछ समय के लिए) होगा। कश्मीर के शासक द्वारा विलय के दस्तावेज पर केवल तीन विषयों – विदेश, संचार और रक्षा के आत्मसमर्पण के संबंध में थे हस्ताक्षर किए गए थे, जम्मू और कश्मीर राज्य द्वारा भारत के प्रभुत्व के लिए आत्मसमर्पण किया गया था। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि भारत, जम्मू और कश्मीर राज्य के बीच मौजूद संबंध असाधारण प्रकार का है और ऐतिहासिक महत्व के साथ चिह्नित है।

यह कहा जा सकता है कि भारत संघ को इस मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से कार्य करने की शक्ति तभी मिलेगी जब वह किसी भी तरह से जम्मू और कश्मीर के शासक द्वारा आत्मसमर्पण की गई तीन विषयों से संबंधित हो या उनमें से एक हो जिसका उल्लेख विलय के साधन में किया गया है।

अनुच्छेद 370 का निरसन- पक्ष और विपक्ष (अब्रोगेशन ऑफ़ आर्टिकल 370- फॉर एंड अगेंस्ट)

अनुच्छेद 370 का निरसन एक अत्यधिक चर्चा और बहस का मामला है, कोई यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि अनुच्छेद के निरसन (रिपील) यानी कि निकाल देने के पक्ष और विपक्ष में तर्क (आर्गुमेंट) समान रूप से संतुलित हैं।

अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के पक्ष में तर्क (आर्गुमेंट फेवरिंग द अब्रोगेशन ऑफ़ आर्टिकल 370)

  • यहां ध्यान देने योग्य मुख्य पहलू यह है कि इस अनुच्छेद में “अस्थायी” शब्द जोड़ा गया था और यह इसे भारतीय संविधान में सीमित समय के लिए शामिल किया गया केवल एक ही लेख बनता है।
  • अनुच्छेद 370 का अस्तित्व जम्मू और कश्मीर को अपना संविधान बनाने कि, और मौलिक अधिकारों की पूर्ण सुरक्षा प्रदान नहीं कर रहा है, और इसमें अल्पसंख्यकों का भी कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इन सबके अलावा, लिंग अधिकारों के मामले में बहुत ज्यादा भेदभाव मौजूद है और इस बात का समर्थन करने के लिए एक उदाहरण संपत्ति के अधिकार से पहले दा है- यहां महिलाओं को संपत्ति के समान अधिकारों से वंचित किया जाता है। इसके अलावा, अगर कोई महिला अनिवासी कश्मीरी से शादी करती है, तो उसे जम्मू और कश्मीर राज्य में संपत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है।
  • ऐसे कई और भी अपमानजनक और विनाशकारी अधिकार हैं जो अनुच्छेद 370 के कारण मौजूद हैं और यह बदले में, कश्मीर संविधान के कारण भारतीयों के अधिकारों को कमजोर करता है।
  • कांग्रेस के पूर्व गृह मंत्री जे एल नड्डा ने अनुच्छेद 370 को “सत्ता में सुरंग” के रूप में परिभाषित किया था, वहां मौजूद पूर्वधारणा यह थी कि, जैसे जम्मू और कश्मीर राज्य किसी भी अन्य राज्य की तरह बन जाएगा, राज्य पर केंद्र की शक्ति बढ़ जाएगी। परंतु, इसके विरुद्ध, समय बीतने के साथ, सोचे हुए परिणाम नहीं दिखाई दिए।
  • कई आलोचकों (क्रिटिक्स) का यह भी तर्क है कि कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से जम्मू और कश्मीर अब भारत का हिस्सा नहीं रहेगा यह एक निराधार और गलत सूचना है जो लोगों के मन में भ्रम पैदा कर रही है।
  • संपत प्रकाश बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य के मामले में, अदालत ने कहा कि केंद्र को और अधिक शक्ति दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, “संशोधन” (मॉडिफिकेशन) शब्द का व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिए जिसका प्रयोग अनुच्छेद 370(1) में किया गया है। यह जम्मू और कश्मीर राज्य के शासन के संदर्भ में केंद्र के पास जो मजबूत और तानाशाही (ऑटोक्रेटिक) शक्ति है, उसे प्रदर्शित करता है।
  • आलोचकों का यह भी तर्क है कि एक राष्ट्र के रूप में अलगाववादियों (सेपरटीस्ट) की मांग को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती है और इस तरह के किसी भी प्रावधान को समाप्त करने का यह सही समय है।

अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का विरोध करने वाले तर्क (आर्गुमेंट अपोजिंग द अब्रोगेशन ऑफ़ आर्टिकल 370)

  • अनुच्छेद 370 को निरस्त करना भाजपा सरकार का चुनावी वादा रहा है। भाजपा एक ऐसा पक्ष रहा है जो जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र को विशेष दर्जा देने की निरंतरता का विरोध कर रहा है।
  • आलोचकों का तर्क है कि भारतीय संविधान से अनुच्छेद 370 को रद्द करने का मतलब वास्तव में भारत, जम्मू और कश्मीर राज्य के बीच संवैधानिक पुल का विनाश होगा।
  • जम्मू और कश्मीर को भारत के क्षेत्र से अलग करने के परिणामों का विश्लेषण करते हुए, किसी ने यह निष्कर्ष निकाला कि इससे सांप्रदायिक झड़प (कम्युनल क्लैश) होंगी और भारत, जम्मू और कश्मीर के बीच मौजूद संबंधों को भी खतरा होगा।
  • महबूबा मुफ्ती की दलील थी कि अगर सरकार धारा 370 को खत्म करने के लिए आगे बढ़ती है तो जम्मू-कश्मीर के पूरे क्षेत्र को खतरा होगा। उन्होंने आगे कहा कि यह ‘विस्फोटकों के ढेर’ के अस्तित्व की एक झलक थी। जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र में और यह हाल ही में पुलवामा हमलों को मद्देनजर रखते हुए पता चला था।
  • भारत और पाकिस्तान के बीच लड़े गए तीन युद्धों में से दो जम्मू और कश्मीर राज्य के लिए थे, जो वर्ष 1947 और 1999 में थे। जम्मू और कश्मीर के मुद्दे को फिर से प्रकाश में लाने से इस तरह का और भी विकास होगा।
  • धारा 370 को खत्म करने का पूरा सवाल बेहद संवेदनशील और विवादास्पद है और इसलिए इस मामले को सावधानीपूर्वक और परिपक्व (मैच्योर) तरीके से संभालने की गंभीर जरूरत है।

निरसन का प्रभाव किया जा सकता है या नहीं (व्हेदर अब्रोगेशन कैन बी गिव्हन इफेक्ट ऑर नॉट)?

अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का प्रावधान मौजूद है, जिसे संशोधन के माध्यम से बनाया जा रहा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-368 में अनुच्छेद के निरसन के इस प्रावधान पर विचार किया गया है। इस प्रावधान को लागू करने की एकमात्र आवश्यकता यह है कि अनुच्छेद 370 का ऐसा निरसन संविधान की मूल संरचना के संबंध में एक अविनाशकरी प्रकृति में किया जाना चाहिए।

अब जिस प्रश्न पर विचार किया जाना चाहिए वह यह नहीं है कि निरसन को कैसे प्रभावित किया जा सकता है, बल्कि यह है कि क्या निरसन बिल्कुल भी किया जा सकता है और इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक नहीं है। अनुच्छेद 368 के प्रावधान को खोल विश्लेषण पर, यह पता चलेगा कि भारत के राष्ट्रपति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को संशोधित या निलंबित करने की शक्ति का प्रयोग करते हैं, लेकिन ऐसा केवल जम्मू और कश्मीर के संविधान सभा की सिफारिश के साथ ही किया जा सकता है। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 370, भारत संघ, जम्मू और कश्मीर की राज्य विधानसभा के संबंध में पूर्ण शक्ति जम्मू और कश्मीर की राज्य सरकार के पास है।

अनुच्छेद 370 के संबंध में भारत, जम्मू और कश्मीर के संघ के बीच असहमति अपरिहार्य (इंडिस्पेंसबल) है और इसके परिणामस्वरूप अनुच्छेद 370 का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

जम्मू-कश्मीर में भारत से स्वतंत्रता से निरसन का परिणाम क्या होगा (वूड द अब्रोगेशन रिजल्ट इन जम्मू एंड कश्मीर फ्रीडम फ्राम इंडिया)?

फारूक अब्दुल्ला जैसे राजनेताओं द्वारा रखे गए यह तर्क है कि अनुच्छेद 370 को निकाल देने से राज्य की जमीनी हकीकत को देखते हुए यह कहा जा सकता है की, कश्मीर को भारत के प्रभुत्व से आजादी मिल जाएगी। कश्मीरियों के बीच यह धारणा मौजूद है कि 370 को खत्म करने से उनके क्षेत्र की जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी) बदल जाएगी और राजनीतिक दलों द्वारा उनके दिमाग में भी यही बात डाली गई है। जम्मू और कश्मीर राज्य को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है जो जम्मू, लद्दाख और कश्मीर हैं।

लद्दाख और कश्मीर के निवासी धारा 370 के निरस्त होने पर ज्यादा आपत्ति नहीं जताते और दरअसल लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बनना चाहता है। आपत्ति केवल कश्मीर के निवासियों से है जिसमें मुस्लिम आबादी का बहुमत शामिल है, इस विकास के कारण घाटी को छोड़कर केवल लद्दाख और जम्मू के क्षेत्रों में इस प्रावधान को स्क्रैप करने का कोई प्रभाव नहीं दिया जा सकता है।

अनुच्छेद 370 को निरस्त करने पर पाकिस्तान का रुख (पाकिस्तान स्टेंस ऑन अब्रोगेशन ऑफ़ आर्टिकल 370)

पाकिस्तान ने कहा है कि वह अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को स्वीकार नहीं कर सकता है और अपनी बात के समर्थन में यह कहता है कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करना संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का उल्लंघन होगा। अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान होने के कारण जम्मू और कश्मीर राज्य के लिए कानून बनाने के संबंध में भारतीय संविधान की शक्तियों को कम करता है। पाकिस्तान ने तो यहां तक ​​कह दिया था कि वह किसी भी हाल में अनुच्छेद 370 को खत्म करने को स्वीकार नहीं करेगा और यहां तक ​​कि कश्मीर के लोग भी इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

एक पत्रकार सम्मेलन (प्रेस कॉन्फ्रेंस) को संबोधित करते हुए, जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि, जब देश को आजादी मिली, तो भारतीय संविधान में कुछ प्रावधान थे जिन्हें जम्मू और कश्मीर के हितों की रक्षा के लिए रखा गया था और इसे वर्तमान समय में भारतीय संविधान द्वारा निरस्त नहीं किया जा सकता है।

अनुच्छेद 35A क्या है (व्हाट इज आर्टिकल 35 A)?

अनुच्छेद 35A वह प्रावधान है जिसे जम्मू और कश्मीर राज्य में शामिल किया गया था ताकि यह तय किया जा सके कि वे सभी व्यक्ति कौन हैं जिन्हें राज्य का ‘स्थायी निवासी’ कहा जाएगा। स्थायी निवासियों (परमानेंट रेजिडेंट) के दायरे में आने वाले लोगों को उनकी ओर से विशेषाधिकार (प्रिविलेज) और विशेष अधिकार प्रदान किए जाते हैं। ये विशेषाधिकार उन्हें राज्य में संपत्ति के रखना, सरकारी नौकरियों, सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों, शिक्षा में छात्रवृत्ति, लोक कल्याण और सार्वजनिक सहायता जैसे विभिन्न पहलुओं पर लागू होते हैं।

अनुच्छेद 35A कैसे अस्तित्व में आया (हाऊ डिड आर्टिकल 35A कम इंटू बीइंग)?

1954 में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 35 को लागू किया गया था। उस समय जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने मंत्रिमंडल (कैबिनेट) की सलाह पर भारतीय संविधान में अनुच्छेद 35 को शामिल किया था। 1954 में एक आदेश पारित किया गया था और इसके बाद वर्ष 1952 में दिल्ली समझौता हुआ था जिसे जवाहरलाल नेहरू और जम्मू-कश्मीर के प्रधान मंत्री शेख अब्दुल्ला के बीच दर्ज किया गया था। यह प्रावधान वह था जिसने जम्मू और कश्मीर के लोगों को नागरिकता का दर्जा दिया और उन्हें राज्य का विषय बना दिया।

अंतत: यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान में अनुच्छेद 35ए को शामिल करने के पीछे मुख्य उद्देश्य जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवास के अनुदान के लिए भारत सरकार के विशेष विचार के प्रमाण के रूप में है।

अनुच्छेद 35A का महत्व (इंपॉर्टेंस ऑफ़ आर्टिकल 35A)

एनजीओ- “वी द सिटीजन” द्वारा दायर एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में चल रही है। अनुच्छेद 370 और 35A दोनों को निरस्त करने के लिए याचिका दायर की गई थी और इसका निर्धारित किया गया कारण यह है कि, अनुच्छेद 35A संविधान की भावना के खिलाफ था और यह भारतीय संविधान के वर्ग के भीतर एक वर्ग बनाता है।

यह विशेष मुद्दा केवल राजनीतिक बात का नहीं है बल्कि लोगों ने जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र की जनसांख्यिकी से संबंधित अपनी चिंता भी व्यक्त की है। यहां के लोगों को डर है कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद अगर लोग घाटी छोड़ देते हैं तो बड़े पैमाने पर पलायन होगा, इससे न केवल कश्मीर घाटी की जनसांख्यिकी बल्कि वहां के सांप्रदायिक माहौल पर भी असर पड़ेगा।

अनुच्छेद 35A क्यों मायने रखता है (व्हाय डज आर्टिकल 35A मैटर्स)?

यह विचार करने वाला पहला प्रश्न यह है कि क्या अनुच्छेद 35ए शून्य है क्योंकि इसे पारित (पास) होने से पहले संसद के समक्ष चर्चा के लिए नहीं रखा गया था। मार्च 1961 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजेस की बेंच पूरनलाल लखनपाल बनाम भारत के राष्ट्रपति के मामले पर फैसला कर रही थी। इस मामले में अदालत ने चर्चा करते हुए कहा कि, क्या राष्ट्रपति के पास संविधान को संशोधित (अमेंड) करने की शक्ति है, यह माना कि राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 370 के किसी भी मौजूदा प्रावधान को संशोधित करने की शक्ति है, लेकिन साथ ही, अदालत इस सवाल पर चुप थी कि क्या ऐसा निर्णय राष्ट्रपति द्वारा संसद के विचार के बिना लिया जा सकता है। साथ ही, यह सवाल कि क्या राष्ट्रपति संसद की जानकारी के बिना एक नया लेख पेश कर सकते हैं, यह एक खुला प्रश्न बना हुआ है।

अनुच्छेद-35A पर राजनीतिक दलों का रुख (स्कोप ऑफ़ पॉलिटिकल पार्टीज ऑन आर्टिकल 35A)

अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के अपने चुनावी वादे के अलावा, भाजपा ने अनुच्छेद 35A को निरस्त करने और घाटी में आतंकवादी हमलों के प्रकोप के कारण घाटी छोड़ने के लिए मजबूर किए गए कश्मीरी पंडितों की वापसी सुनिश्चित करने का भी वादा किया। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 35A गैर-निवासियों को संपत्ति खरीदने या सरकारी नौकरी की तलाश करने या विवादित क्षेत्र में किसी अन्य विशेषाधिकार का लाभ उठाने से रोकता है। मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 35A को खत्म करने के कदम का समर्थन करने के साथ, हुर्रियत नेताओं ने चेतावनी दी है कि अनुच्छेद 35A के अभी के स्थिति में किसी भी बदलाव के खतरनाक परिणाम होंगे।

दूसरी ओर, पाकिस्तान, कश्मीर विवाद का एक वैध (वैलिड) पक्ष है, उसने भी भारत सरकार के अनुच्छेद 35A को निरस्त करने के प्रयासों की निंदा की है। पाकिस्तान ने आगे कहा कि भारत सरकार द्वारा इस तरह के किसी भी प्रयास का उद्देश्य स्पष्ट रूप से भारत के कब्जे वाले कश्मीर में जनसांख्यिकीय परिवर्तन लाना होगा।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने के मुद्दे को ऐतिहासिक महत्व से चिह्नित किया गया है। इसलिए, सहमत संधि के अनुसार स्थिति को आगे बढ़ाना एक महत्वपूर्ण कदम बन जाता है और इसके अलावा, इसके दूसरे पक्ष पर विचार करते हुए, यह तथ्य कि प्रावधान अस्थायी अवधि के लिए किया गया था, और इसलिए, अब इस प्रावधान को निरस्त करने का सही समय इस पर संतुलित जोर देता है, जम्मू और कश्मीर के विवादित क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए इसका पालन किए जाने की उम्मीद है।

सरकार को जम्मू और कश्मीर राज्य के संबंध में कोई भी कानून या परिवर्तन करते समय विशेष देखभाल और सावधानी बरतने की आवश्यकता है क्योंकि यह हाल के दिनों में भारत और पाकिस्तान के बीच पैदा हुए अंतर को नजर में रखते हुए एक अत्यधिक विवादित क्षेत्र के रूप में विकसित हुआ है। अंतत: यह कहा जा सकता है कि यदि जम्मू-कश्मीर से संबंधित कानूनों का सावधानीपूर्वक पालन किया जाता है, तो यह लंबे समय में भारतीय राज्य के लिए मददगार साबित होगा।

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