भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324

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यह लेख तिरुवनंतपुरम के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज की छात्रा Adhila Muhammed Arif ने लिखा है। यह लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 और चुनाव आयोग (इलेक्शन कमीशन) के बारे में सब कुछ बताता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हर लोकतांत्रिक देश की विशेषता होती है। प्रत्येक लोकतांत्रिक देश के लिए इस संस्था की पवित्रता को बनाए रखना आवश्यक है। पूरे भारत में चुनावों की निष्पक्षता (फेयरनेस) सुनिश्चित करने के लिए वर्ष 1950 में एक चुनाव आयोग की स्थापना की गई थी। यह लोकसभा, राज्य सभा, राज्य विधानसभाओं और परिषदों (काउंसिल) और राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद के चुनावों के संचालन (एडमिनिस्टर) के लिए जिम्मेदार है। इस निकाय की शक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 द्वारा निहित की गई है। संविधान के अलावा, यह चुनाव आयोग लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, (रिप्रेजेंटेशन ऑफ़ पीपल एक्ट) 1950 द्वारा भी शासित है। 

चुनाव आयोग क्या है?

चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए संविधान द्वारा स्थापित एक स्वायत्त (ऑटोनोमस) निकाय है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 (1) के अनुसार, चुनाव आयोग की शक्ति लोकसभा, राज्य सभा, राज्य विधानसभाओं और परिषदों, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद के चुनावों के अधीक्षण (सुपरिटेंडेंस), निर्देशन और नियंत्रण करने की है। यह राज्यों में पंचायतों और नगर पालिकाओं के चुनावों से संबंधित नहीं है क्योंकि उन चुनावों का प्रशासन प्रत्येक राज्य के राज्य चुनाव आयोग द्वारा किया जाता है। 

चुनाव आयोग की संरचना (कंपोजिशन) 

चुनाव आयोग की संरचना के संबंध में अनुच्छेद 324 द्वारा किए गए प्रावधान निम्नलिखित हैं: 

  • अनुच्छेद 324(2) के अनुसार, चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त (कमिश्नर) और अन्य चुनाव आयुक्तों की संख्या शामिल होंगे। 
  • अनुच्छेद 324 (2) के तहत, भारत के राष्ट्रपति द्वारा किए जाने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का भी प्रावधान है। 
  • अनुच्छेद 324(3) के अनुसार, ऐसे मामलों में जहां एक और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की जाती है, तो मुख्य चुनाव आयुक्त, आयोग का अध्यक्ष बन जाता है। 
  • अनुच्छेद 324(4) के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति क्षेत्रीय आयुक्तों को भी नियुक्त कर सकते हैं, जैसा कि वह चुनाव आयोग की सहायता के लिए आवश्यक समझते हैं; यह चुनाव आयोग के परामर्श (कंसल्टेशन) के बाद किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 324(5) में कहा गया है कि चुनाव आयुक्तों और क्षेत्रीय आयुक्तों द्वारा किए जाने वाले कार्य की अवधि और शर्तें भारत के राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित की जाएंगी। इसमें यह भी प्रावधान था कि मुख्य चुनाव आयुक्त और दो अन्य चुनाव आयुक्तों के पास समान अधिकार हैं और उन्हें भी समान वेतन और भत्ते मिलते हैं, जो की सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान हैं। 

एक बहु-सदस्यीय निकाय के रूप में चुनाव आयोग

1989 तक चुनाव आयोग एक बहु-सदस्यीय निकाय नहीं था। यह एक सदस्यीय निकाय हुआ करता था जिसमें केवल मुख्य चुनाव आयुक्त होते थे। 1989 में, राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 324(2) के तहत एक अधिसूचना (नोटिफिकेशन) जारी की गई थी, जिसने चुनाव आयोग की संरचना को बदल दिया। यह एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो अन्य चुनाव आयुक्तों से युक्त एक बहु-सदस्यीय निकाय बन गया। इसके बाद, राष्ट्रपति ने 1990 में पहले की अधिसूचना को रद्द कर दिया और चुनाव आयोग को फिर से एक सदस्यीय निकाय बना दिया। 

पूर्व अधिसूचना के निरसन (रिवॉकेशन) की संवैधानिक वैधता को एस.एस. धनोआ बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1991) के मामले में चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आयोग की शक्ति को एक व्यक्ति के हाथों में केंद्रित करने से रोकना आवश्यक है। चूंकि चुनाव की पवित्रता को बनाए रखने में चुनाव आयोग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, इसलिए यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है कि यह निष्पक्ष हो और अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करे। इसलिए, न्यायालय ने माना कि दोनों अधिसूचनाएं संवैधानिक रूप से वैध थीं। यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को कुछ पदों को बनाने और समाप्त करने की स्वतंत्र शक्ति देता है। केवल मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करना अनिवार्य था। अनुच्छेद 324(2) और (4) के अनुसार अन्य चुनाव आयुक्तों या क्षेत्रीय चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक विवेकाधीन शक्ति थी। इस प्रकार, राष्ट्रपति के पास चुनाव आयुक्तों के दोनों पदों को समाप्त करने की शक्ति थी। 

इसके बाद, संसद ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1991 को अधिनियमित किया था। इस अधिनियम के अनुसार, मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त 6 साल की अवधि के लिए अपने पद पर बने रहेंगे। यह भी प्रावधान किया गया था कि जब मुख्य चुनाव आयुक्त या कोई अन्य चुनाव आयुक्त 6 साल की अवधि समाप्त होने से पहले 65 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेता है, तो वह अपना पद खाली कर देगा। चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया वही है जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की है, जैसा कि अनुच्छेद 124 में निर्धारित है। उनका वेतन भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बराबर होता है। मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त राष्ट्रपति को लिखित में संबोधित करके इस्तीफा दे सकते हैं। 

1993 में, सरकार ने दो चुनाव आयुक्तों के लिए नियुक्ति प्रदान करने के लिए एक अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) जारी किया था, जिसे बाद में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (सेवा की शर्त), संशोधन अधिनियम, 1993 द्वारा बदल दिया गया। इस अध्यादेश के अनुसार आयोग द्वारा लिए गए निर्णय सबकी सहमति से लिए जाएंगे। सहमति में अंतर के मामलों में, निर्णय लेते समय बहुमत की राय ली जानी चाहिए। 

1993 में, अनुच्छेद 324(2) में निर्धारित शक्तियों का प्रयोग करते हुए, दो चुनाव आयुक्तों को नियुक्त किया गया और उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त के बराबर माना गया था। टी.एन. शेषन, जो उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त थे, वे नए कानूनों से खुश नहीं थे और उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की शक्तियों को समान करने वाले प्रावधान की वैधता को चुनौती दी थी। टी.एन. शेषन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1995) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला किया कि बहुमत की राय की श्रेष्ठता का प्रावधान अनुच्छेद 324 के प्रावधानों के उल्लंघन में नहीं था। 

चुनाव आयोग वर्तमान में एक बहु-सदस्यीय निकाय के रूप में बना हुआ है। यदि आयोग सबकी सहमति से निर्णय पर नहीं पहुंच पाता है, तो मुख्य चुनाव आयुक्त को संबंधित मामले पर अपनी राय व्यक्त करनी होती है। 

चुनाव आयोग के कार्य

अनुच्छेद 324(1) के अनुसार चुनाव आयोग के कार्य निम्नलिखित हैं: 

  1. चुनाव के लिए मतदाता सूची तैयार करने का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण।  
  2. संसद के साथ-साथ सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव कराना। 
  3. राष्ट्रपति के साथ-साथ उपराष्ट्रपति के पद के लिए चुनाव आयोजित करना। 

अनुच्छेद 324(6) में कहा गया है कि जब चुनाव आयोग को खंड (क्लॉज) (1) में उल्लिखित कार्यों के निर्वहन के लिए कर्मचारियों की आवश्यकता होती है, तो राष्ट्रपति या राज्यपाल (गवर्नर) उसके अनुरोध पर उनकी व्यवस्था करेंगे। 

चुनाव आयोग की शक्तियां

2002 के स्पेशल रिफ्रेंस संख्या 1 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विधान सभा के चुनाव के लिए कार्यक्रम तैयार करना चुनाव आयोग का विशिष्ट कार्य है। यह संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के अधीन नहीं है। 

चुनाव आयोग द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति अत्यधिक या पूर्ण नहीं होनी चाहिए। अनुच्छेद 324(1) के तहत इसमें निहित शक्ति को कानून द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर निष्पादित (एग्जीक्यूट) किया जाना चाहिए। चुनाव आयोग के पास राजनीतिक दलों को मान्यता देने और उनके बीच उत्पन्न होने वाले विवादों पर निर्णय लेने की शक्ति है। इसके पास चिह्नो को जारी करने की शक्ति है, जो अनुच्छेद 324 के तहत दिए गए इसके अधीक्षण, नियंत्रण और निर्देश का एक हिस्सा है। चुनाव आयोग आवश्यक होने पर पूरे निर्वाचन क्षेत्र में फिर से मतदान का आदेश भी दे सकता है। यह भी अनुच्छेद 324 के दायरे में आएगा। यह चुनाव की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए अधिकारियों का हस्तांतरण (ट्रांसफर) भी कर सकता है। हालांकि, इस तरह के आदेश प्रकृति में मनमाना नहीं होने चाहिए। 

यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (2002) में, सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग द्वारा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों से पूछे जाने वाले कुछ प्रश्न जारी किए, जो निम्नलिखित हैं: 

  1. क्या उम्मीदवार को अतीत में किसी अपराध से जोड़ा गया है, और क्या उसे दोषी ठहराया गया, बरी किया गया या आरोपमुक्त (डिस्चार्ज) किया गया था? क्या आरोपी को कारावास या जुर्माना लगाया गया था? 
  2. क्या उम्मीदवार का नाम किसी लंबित आपराधिक मामले में 2 साल या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय अपराध के लिए रखा गया है, और लगाए गए आरोपों के बारे में विवरण। 
  3. उम्मीदवारों, उनके जीवनसाथी और आश्रितों (डिपेंडेंट) की चल और अचल संपत्ति। 
  4. देयताएं (लाइबिलिटी), विशेष रूप से सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों या सरकार को बकाया राशि। 
  5. शैक्षणिक (एजुकेशनल) योग्यता। 

चुनाव आयोग के पास उम्मीदवारों के लिए आचार संहिता निर्धारित करने और इसका पालन नहीं करने वाले उम्मीदवारों के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति है। 

ए.सी. जोस बनाम सिवन पिल्लई (1984) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि चुनाव आयोग ऐसे आदेश जारी कर सकता है जो पहले से मौजूद नियमों के पूरक (सप्लीमेंट्री) हैं। हालाँकि, वे निम्नलिखित सीमाओं के अधीन हैं: 

  1. जब कोई संसदीय कानून या राज्य विधायिका द्वारा जारी नियम नहीं होते हैं, तो यह आयोग चुनाव के संचालन के संबंध में आदेश पारित कर सकता है। 
  2. जब इसके संबंध में कोई अधिनियम या नियम बनाया जाता है, तो आयोग इसे रद्द करने का कोई आदेश पारित नहीं कर सकता है। 
  3. जब अधिनियम या नियम किसी विषय पर कोई प्रावधान नहीं प्रदान करता है, तो आयोग चुनाव के संचालन के लिए निर्देश जारी करने के लिए अनुच्छेद 324 द्वारा निहित शक्ति का उपयोग कर सकता है। 
  4. जब आयोग का कोई निर्देश सरकार को अनुमोदन (अप्रूवल) के लिए प्रस्तुत किया जाता है, तो आयोग को इसे लागू करने से पहले इसकी मंजूरी मिलने तक इंतजार करना पड़ता है। 

कुंवर रघुराज प्रताप सिंह बनाम भारत के सीईसी, नई दिल्ली (1999) के मामले में, मुख्य चुनाव आयुक्त ने याचिकाकर्ता, जो एक मंत्री थे, को मतदान समाप्त होने तक प्रतापगढ़ जिले से हटने का निर्देश दिया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह मतदान में बाधा न डालें। न्यायालय ने माना कि यह आदेश चुनाव आयोग की शक्तियों का दुरुपयोग नहीं था। 

सैयद अहमद बनाम सी.ई.सी. ऑफ इंडिया (1998) के मामले में, यह माना गया था कि चुनाव आयोग के पास चुनाव स्थगित करने की शक्ति है, क्योंकि यह अनुच्छेद 324 द्वारा शक्ति के साथ निहित है। इस मामले में चुनाव आयोग ने चुनाव की शुचिता (प्योरिटी) को बनाए रखने के लिए यह कदम उठाया है। चुनाव में दूसरे राज्य के राज्यपाल के शामिल होने के कारण उन्हें यह कदम उठाना पड़ा था। 

चुनाव आयोग के पास चुनाव पूर्व, एक्जिट पोल, सर्वेक्षण (सर्वे) आदि पर प्रतिबंध लगाने की शक्ति है यदि उनकी राय है कि यह मतदाताओं की स्वतंत्र पसंद को प्रभावित करेगा। 

2002 के स्पेशल रिफ्रेंस संख्या 1 में, राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 174 की व्याख्या पर एक प्रश्न के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श किया, जो राज्य विधानमंडल के सत्रावसान (प्रोरोगिंग) और उसे भंग (डिसोल्यूशन) करने पर है। एक सत्र में अंतिम बैठक और अगले सत्र में पहली बैठक के बीच की अवधि 6 महीने से अधिक नहीं होनी चाहिए। राज्य विधानमंडल को भंग करने की शक्ति सरकार में निहित है। एक बार ऐसा होने पर नए सिरे से चुनाव होने चाहिए, जिसका कार्य चुनाव आयोग द्वारा किया जाता है। राज्य विधानमंडल चुनावों के लिए निर्वाचक नामावली (इलेक्टोरल रोल) का अधीक्षण, निर्देशन, नियंत्रण और तैयारी चुनाव आयोग द्वारा अनुच्छेद 324 के अनुसार किया जाता है। गुजरात में, गोधरा कांड की वजह से और 2002 में इसके परिणामों के कारण, मुख्यमंत्री ने विधानसभा को भंग कर दिया और फिर से चुनाव की सिफारिश की थी। चुनाव आयोग ने राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की थी। 

राष्ट्रपति के प्रश्न निम्नलिखित थे: 

  1. क्या अनुच्छेद 174 और अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनाव, आयोग के निर्णयों के अधीन है? 
  2. क्या चुनाव आयोग 6 महीने बाद चुनाव की घोषणा कर सकता है और उसके साथ राष्ट्रपति शासन की आवश्यकता की मांग कर सकता है?
  3. क्या अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनाव कराना अनुच्छेद 174 के जनादेश को पूरा करता है? 

सर्वोच्च न्यायालय की राय थी कि अनुच्छेद 174 चुनाव से जुड़ा नहीं है और यह चुनाव कराने की कोई सीमा निर्धारित नहीं करता है। चुनावों का आयोजन चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र के लिए विशिष्ट है। यह भी माना गया था कि चुनाव कराने की तारीख चुनाव आयोग की सिफारिश पर राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा तय की जाती है। 

चुनाव आयोग की स्वतंत्रता

भारतीय संविधान में निम्नलिखित प्रावधान हैं जो चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र निकाय बनने में सक्षम बनाते हैं: 

  • अनुच्छेद 324(5) के अनुसार, मुख्य चुनाव आयुक्त का एक निश्चित कार्यकाल होता है और उसे उसके पद से नहीं हटाया जा सकता, सिवाय उस तरीके के जैसे एक सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को उसके पद से हटा दिया जाता है। उसे राष्ट्रपति द्वारा संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से पारित प्रस्ताव के आधार पर हटाया जा सकता है, जो उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का 2/3 है। यह दुर्व्यवहार या काम करने में असमर्थता के आधार पर किया जाना चाहिए। 
  • अनुच्छेद 324(5) में यह भी कहा गया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की सेवा की शर्तों को उनकी नियुक्ति के बाद उनकी प्रतिकूल परिस्थिति के लिए नहीं बदला जा सकता है। 
  • अंत में, अनुच्छेद 324(5) में प्रावधान है कि किसी अन्य चुनाव आयुक्त या क्षेत्रीय आयुक्त को उनके पद से तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक कि यह मुख्य चुनाव आयुक्त की सिफारिश पर नहीं किया जाता है। 

संबंधित संवैधानिक प्रावधान 

अनुच्छेद 324 के अलावा, भारतीय संविधान में निम्नलिखित प्रावधान शामिल हैं, जो भाग XV में चुनावों से संबंधित हैं : 

  1. संविधान का अनुच्छेद 325 एक निर्वाचन क्षेत्र की सामान्य मतदाता सूची से संबंधित है। इस अनुच्छेद के अनुसार लिंग, जाति, धर्म या नस्ल के आधार पर किसी भी व्यक्ति को इससे बाहर नहीं किया जा सकता है। 
  2. अनुच्छेद 326 के अनुसार, भारत में चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (यूनिवर्सल एडल्ट फ्रेंचाइजी) के सिद्धांत का पालन करते हैं। 
  3. अनुच्छेद 327 में प्रावधान है कि संसद को चुनावों से संबंधित कानून बनाने का अधिकार है। 
  4. अनुच्छेद 328 में यह प्रावधान है कि किसी राज्य की विधायिका (लेजिस्लेचर) राज्य विधानमंडल के चुनावों से संबंधित कानून भी बना सकती है। 
  5. अनुच्छेद 329, यह प्रदान करता है की अनुच्छेद 327 और अनुच्छेद 328 के तहत संसद या राज्य की विधायिका द्वारा बनाए गए उन कानूनों पर सवाल उठाने से अदालतों को प्रतिबंधित किया जाता है, जो इन निर्वाचन क्षेत्रों में इनके के परिसीमन (लिमिटेशन) या सीटों के आवंटन (एलॉटमेंट) से संबंधित है। 

निष्कर्ष

चुनाव आयोग ने आधी सदी से भी अधिक समय से देश भर में चुनावों की पवित्रता को नियंत्रित किया है और बनाए रखा है। इसने यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है कि देश का लोकतांत्रिक स्वरूप बिना किसी कलंक के बना रहे। आज तक, इसने कई चुनावों को राजनीतिक दलों और आंकड़ों की कपटपूर्ण गतिविधियों के प्रभाव से बचाया है ताकि नागरिकों के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के अधिकार को छीना नहीं जा सके। यह स्पष्ट है कि अनुच्छेद 324 ने चुनाव आयोग को बाहरी प्रभावों से मुक्त अपने कर्तव्यों का पालन करने में सहायता करने में एक मौलिक भूमिका निभाई है। 

संदर्भ

 

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