यह लेख Monesh Mehndiratta और Sushree Surekha Choudhary द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 से संबंधित है। यह अनुच्छेद के उद्देश्य और महत्व तथा निर्णयित मामले के माध्यम से इसके प्रभाव की व्याख्या करता है। इस लेख का अनुवाद Vanshika Gupta द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय
क्या आप सहमत हैं कि शिक्षा सभी के लिए महत्वपूर्ण है?
हां, यह वास्तव में न केवल एक व्यक्ति के लिए बल्कि देश की वृद्धि और विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है। इसका महत्व इस तथ्य में भी देखा जा सकता है कि भारतीय संविधान में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया गया है। यह उन गरीब छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए भी किया गया था जो निजी स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों की फीस नहीं दे सकते। भारतीय संविधान न केवल मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है बल्कि भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को भी मान्यता देता है। इसमें अनुच्छेद 30 के तहत दिए गए शिक्षण संस्थानों की स्थापना का अधिकार अन्य सांस्कृतिक अधिकारों के साथ दिया गया अधिकार भी शामिल है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यह प्राचीन काल से अपनी विविधता के लिए जाना जाता है। भारत में राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष छत के नीचे विभिन्न धर्मों का पालन करने वाले अल्पसंख्यक समूह हैं। प्रारंभ से ही, भारतीय संविधान के प्रारूपण (ड्राफ्टिंग) के समय से ही धर्मनिरपेक्षता को महत्व दिया गया है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना ने इसमें स्वतंत्रता, अखंडता, समानता और सामाजिक न्याय के मूल्यों को सन्निहित किया है, जिससे भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य राष्ट्र बन गया है। भारत का संविधान समान रूप से प्रत्येक नागरिक के अधिकारों की रक्षा और गारंटी देता है, और पूरे भारतीय संविधान में और अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों आदि के अधिकारों की रक्षा के लिए कई अन्य विधानों के माध्यम से विशेष प्रावधान किए गए हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और अनुच्छेद 30 भारत में अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार प्रदान करते हैं। यह सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों के संदर्भ में भारत में अल्पसंख्यकों को मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है। ये अधिकार प्रकृति में पूर्ण हैं और इन अल्पसंख्यकों के लिए स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार की रक्षा और गारंटी देने के इरादे से बनाए गए थे। अनुच्छेद 30 भारतीय अल्पसंख्यक समुदायों को अपने समुदायों के लिए शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना करने और उन्हें अपनी पसंद के आंतरिक प्रशासन के साथ चलाने का अधिकार देकर शिक्षा के अधिकार की गारंटी देता है। वर्तमान लेख संविधान के अनुच्छेद 30 पर केंद्रित है और इसके महत्व को बताता है। यह ऐसे अधिकारों के विकास पर महत्वपूर्ण मामले के साथ इस संबंध में अन्य प्रासंगिक अनुच्छेदो की भी व्याख्या करता है।
भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के पीछे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
मध्यकालीन भारत ने देश में अल्पसंख्यक समुदायों के गठन की शुरुआत को चिह्नित किया। मुसलमानों, ईसाइयों, एंग्लो-इंडियनों आदि ने समूह बनाना शुरू कर दिया, और इस तरह भारत में धार्मिक समुदायों को मान्यता दी गई। भारत अल्पसंख्यकों का घर बन गया, और इसे दुनिया के विभिन्न हिस्सों के प्रवासियों द्वारा आगे बढ़ाया गया, जिन्होंने अपने गृह राज्य में धार्मिक गड़बड़ी के कारण भारत में प्रवास करना और निवास करना शुरू कर दिया। जैसे ही उन्होंने देश में एक महत्वपूर्ण आबादी बनाना शुरू किया, पंडित जवाहरलाल नेहरू सरकार ने उनकी बेहतरी के लिए नीतियां बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने 1946 में संविधान सभा में एक प्रस्ताव रखा, जिसे 1947 में मंजूरी दी गई। भारत में अल्पसंख्यक समुदायों, पिछड़े वर्गों और जनजातियों के लिए नीतियों और सुरक्षा तंत्र का मसौदा तैयार करने का निर्णय लिया गया।
संविधान मसौदा समिति ने 1948 में अल्पसंख्यकों के लाभ के लिए कई कानून तैयार किए। भारतीय संविधान के भाग XIV के तहत ‘अल्पसंख्यकों से संबंधित विशेष प्रावधान’ (अनुच्छेद 292-301) शीर्षक के तहत प्रावधान प्रदान किए गए थे। इन प्रावधानों को बाद में अंतिम मसौदे से हटा दिया गया था, और जो बचा था उसे अनुच्छेद 29 और 30 (सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार) के तहत व्यक्त किया गया था। शुरुआती मसौदे में विधायी निकायों में अल्पसंख्यकों के लिए सीटें आरक्षित करने का भी प्रावधान किया गया था। हालांकि, इसे अंतिम मसौदे में शामिल नहीं किया गया था।
अल्पसंख्यकों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान नहीं करने के रूप में इसकी आलोचना की गई, क्योंकि उन्हें दंगों, धमकियों, सांप्रदायिक (कम्युनल) हिंसा, राजनीति और सिविल सेवाओं में प्रतिनिधित्व की कमी, अलगाववाद l और असमानता का सामना करना पड़ा। इस प्रकार, भारत जैसे लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों के अधिकारों और लाभों के लिए प्रावधान करना हमेशा आवश्यक था। अनुच्छेद 29 और 30 बने रहे, जिसमें राष्ट्र के अल्पसंख्यकों के लिए लाभ, संरक्षण और समानता सुनिश्चित करने के लिए कई प्रावधान किए गए।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 30 और उसका उद्देश्य
अनुच्छेद 30 भारत में शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन के लिए अल्पसंख्यकों के अधिकार से संबंधित है। अनुच्छेद 30(1) के अनुसार, भारत में अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना करने और उन्हें संचालित करने का अधिकार है। ऐसे अल्पसंख्यकों में भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक अर्थात् भाषाई अल्पसंख्यक और धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल हैं। अनुच्छेद में प्रयुक्त ‘स्थापित’ शब्द किसी शैक्षणिक संस्थान को अस्तित्व में लाने के अधिकार को दर्शाता है, जबकि ऐसी संस्था के मामलों का प्रबंधन करने के साधनों का प्रशासन करता है।
केरल शिक्षा विधेयक बनाम अज्ञात (1958) के मामले में, अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 30 के तहत दिया गया अधिकार अल्पसंख्यकों को दो उद्देश्यों के लिए अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार प्रदान करता है:
- अपने धर्म, संस्कृति और भाषा को संरक्षित करने के लिए,
- अपने बच्चों को उनकी पसंद के अनुसार उनकी भाषा में शिक्षा प्रदान करना।
डी.ए.वी कॉलेज भटिंडा बनाम पंजाब राज्य (1971) के मामले में, अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत गारंटीकृत अधिकार में विश्वविद्यालय में दिए जाने वाले निर्देशों का माध्यम चुनने का अधिकार शामिल है। इस प्रकार, विश्वविद्यालय परिपत्रों (सर्कुलर्स) में हिंदी का उपयोग अनुच्छेद 30 (1) का उल्लंघन करने वाला माना गया था, और यह घोषित किया गया था कि पंजाबी शिक्षा का एकमात्र माध्यम होगा। न्यायालय की एक अन्य प्रमुख टिप्पणी यह थी कि यह अधिकार संविधान से पहले और बाद में स्थापित संस्थानों को उपलब्ध होगा।
संविधान के अनुच्छेद 30 (2) के अनुसार, राज्य को किसी भी शैक्षणिक संस्थान को सहायता देने में भेदभाव करने से केवल इसलिए प्रतिबंधित किया गया है क्योंकि वे धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों द्वारा प्रबंधित और प्रशासित हैं। ब्रह्मचारी सिद्धेश्वर भाई बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1995) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन अल्पसंख्यक नहीं है और हिंदू धर्म से अलग है, बल्कि इसके संप्रदाय या धार्मिक संप्रदाय है। इस प्रकार, यह संविधान की धारा 30 के तहत उल्लिखित अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।
अनुच्छेद 30 भारत में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए भारत में शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के लिए प्रावधान करता है। यह उन्हें अन्य शैक्षणिक संस्थानों की तरह सरकार से सहायता प्राप्त करने के अधिकार की गारंटी देता है। अनुच्छेद 30 उन्हें शिक्षा में समानता और गैर-भेदभाव की गारंटी देता है। अनुच्छेद 30 में यह भी कहा गया है कि भूमि का अनिवार्य अधिग्रहण, जिस पर अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान स्थापित हैं, इस तरह से निर्धारित किया जाना चाहिए कि अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षा अधिकारों में बाधा न हो। यह भारत में अल्पसंख्यकों के लिए शिक्षा के अधिकार की सुविधा प्रदान करता है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत सभी को गारंटीकृत समानता के अधिकार के मूल्य को कायम रखता है। अनुच्छेद 30 के तहत प्रदत्त अधिकार केवल भारत में अल्पसंख्यकों को दिए गए हैं, न कि सभी नागरिकों को। यह भारत में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के इरादे से किया जाता है। यह उन्हें इन शिक्षण संस्थानों में अपनी भाषा में शिक्षा प्रदान करने का अधिकार भी देता है।
भारत में अल्पसंख्यकों के शिक्षण संस्थान निम्नलिखित प्रकार के हैं:
- शैक्षणिक संस्थान जो राज्य सरकार से अनुमोदन, मान्यता और सहायता चाहते हैं जहां उन्होंने अपनी संस्था स्थापित की है,
- शैक्षणिक संस्थान जो राज्य सरकार से केवल अनुमोदन और मान्यता प्राप्त करते हैं और
- शैक्षणिक संस्थान जो राज्य सरकार से न तो मान्यता चाहते हैं और न ही सहायता चाहते हैं।
इन संस्थानों का प्रशासन भी विविध है। शैक्षणिक संस्थान जो राज्य सरकार से मान्यता, सहायता या दोनों चाहते हैं, वे न्यूनतम राज्य हस्तक्षेप के अधीन हैं। इन संस्थानों को इस संबंध में राज्य सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करना होगा जैसे कि शिक्षाविदों के तरीके और मानक, पाठ्यक्रम, इन संस्थानों में शिक्षकों के रोजगार, स्वच्छता मानकों को बनाए रखा जाना और अन्य नियमों और विनियमों जैसे मामलों पर।
इसके विपरीत, जो शिक्षण संस्थान राज्य सरकार से मान्यता या सहायता नहीं लेते हैं, वे बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के अपने नियम, विनियम और प्रशासन के मानक बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। हालांकि, वे राज्यों द्वारा लगाए गए उचित मानकों और प्रतिबंधों के अधीन हैं।
तीनों प्रकार के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में एक समानता यह है कि वे सभी राज्य सरकार और राष्ट्र के अनुबंध कानूनों, श्रम कानूनों, कराधान कानूनों आदि से संबंधित सामान्य कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के उद्देश्य
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के उद्देश्य निम्नलिखित है:
- अल्पसंख्यकों के लिए शिक्षा के अधिकार की रक्षा करता है।
- अल्पसंख्यकों को उनकी पसंद के अनुसार शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन करने का अधिकार देता है।
- उनके सांस्कृतिक और भाषाई अधिकारों को संरक्षित करता है।
- अल्पसंख्यकों को अन्य धर्मों और समाज के वर्गों के बीच उनकी गरिमा और विशिष्ट पहचान बनाए रखने और उनकी रक्षा करने में मदद करता है।
- ऐसे शिक्षण संस्थानों में प्रवेश पाने के इच्छुक लोगों के खिलाफ किसी भी प्रकार के भेदभाव पर रोक लगाता है।
44वें संशोधन अधिनियम, 1978 का प्रभाव
संविधान में 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 का बहुत प्रभाव पड़ा क्योंकि इसने संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (f) को समाप्त करके मौलिक अधिकार के रूप में संपत्ति के अधिकार को समाप्त कर दिया। इसके अलावा अनुच्छेद 30 में भी महत्वपूर्ण संशोधन किया गया। अनुच्छेद 30 (1A) के रूप में एक नया खंड जोड़ा गया था, जिसमें यह प्रावधान किया गया था कि अल्पसंख्यकों द्वारा प्रशासित किसी भी स्थापित शैक्षणिक संस्थान की किसी भी संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण (एक्वीजीशन) के लिए कोई कानून बनाते समय, राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसी संपत्ति के अधिग्रहण के लिए निर्धारित राशि अनुच्छेद 30 (1) के तहत दिए गए अल्पसंख्यकों के अधिकारों को प्रतिबंधित या समाप्त नहीं कर रही है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और अनुच्छेद 30 के बीच संबंध
संविधान का अनुच्छेद 29 अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा से संबंधित है और नागरिकों को उनकी भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण के अधिकार की गारंटी देता है। अनुच्छेद 29 (2) आगे यह प्रदान करता है कि कोई भी शैक्षणिक संस्थान, चाहे वह राज्य द्वारा बनाए रखा गया हो या राज्य से धन प्राप्त कर रहा हो, किसी भी नागरिक को जाति, धर्म या भाषा के आधार पर प्रवेश से इनकार नहीं करेगा। अनुच्छेद 29 के तहत दिए गए अधिकार को अल्पसंख्यकों की भाषा, लिपि और संस्कृति के संरक्षण के लिए शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना द्वारा आगे प्रयोग किया जा सकता है। यह संविधान के अनुच्छेद 30 द्वारा प्रदान किया गया है, जो अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन का अधिकार देता है। हालाँकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि अनुच्छेद 29 केवल नागरिकों पर लागू होता है, जबकि अनुच्छेद 30 नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों पर लागू होता है।
अनुच्छेद 29 और अनुच्छेद 30 के बीच अंतर्संबंध पर अदालत ने अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य (1974) के मामले में चर्चा की थी। इस मामले में राज्य ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 30 के तहत गारंटीकृत अधिकार कॉलेज को उपलब्ध नहीं था क्योंकि यह अनुच्छेद 29 के तहत उल्लिखित अल्पसंख्यकों की भाषा, संस्कृति या लिपि के संरक्षण के लिए स्थापित नहीं किया गया था। अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 30 प्रकृति में प्रतिबंधात्मक नहीं है। यह अल्पसंख्यकों को केवल भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण के लिए शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना करने से प्रतिबंधित नहीं करता है। आगे यह देखा गया कि अनुच्छेद 29 के तहत दिया गया अधिकार देश के नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण के लिए दिया गया एक सामान्य संरक्षण है, जबकि अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के अनुसार शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना करने के लिए उपलब्ध एक विशेष अधिकार है।
अदालत ने दो अनुच्छेदों के बीच अंतर भी प्रदान किया:
- अनुच्छेद 29 भारत में रहने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग को अधिकार देता है, जबकि अनुच्छेद 30 केवल अल्पसंख्यकों के लिए उपलब्ध है।
- अनुच्छेद 29 मुख्य रूप से भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण से संबंधित है, जबकि अनुच्छेद 30 दो प्रकार के अल्पसंख्यकों, यानी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए उपलब्ध है।
- अनुच्छेद 29 के तहत अधिकार भाषा, लिपि और संस्कृति के संरक्षण का प्रावधान करता है, जबकि अनुच्छेद 30 में दिया गया अधिकार शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना का अधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 29 में शिक्षा के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं है। दूसरी ओर, अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन का अधिकार देता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 की प्रयोज्यता के लिए दोहरे परीक्षण (ड्यूल टेस्ट फॉर ऍप्लिकेबिलिटी)
रेव्ह सिद्धजभाई सबी और अन्य बनाम बॉम्बे राज्य और अन्य (1962), में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दोहरा परीक्षण मानदंड स्थापित किया। न्यायालय ने कहा कि एक शैक्षणिक संस्थान अनुच्छेद 30 के प्रावधानों को तभी लागू करेगा जब वह दोहरे मानदंड को पूरा करेगा। दोहरे परीक्षण की निम्नलिखित शर्तें हैं:
- शैक्षणिक संस्थान प्रकृति में नियामक (रेगुलेटरी) होना चाहिए। यह संस्था के ‘अल्पसंख्यक संस्थान’ होने की प्रकृति के लिए विनाशकारी नहीं होना चाहिए।
- अल्पसंख्यकों के लिए शिक्षा की सुविधा प्रदान करने हेतु संस्थान को एक प्रभावी संस्थान होना चाहिए।
न्यायमूर्ति ललित ने इन रे: केरल शिक्षा बिल मामला (1957) का उल्लेख किया, जहां भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि शब्द ‘पसंद’ अनुच्छेद 30 का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक अल्पसंख्यक समुदाय के पास अपने शैक्षणिक संस्थान की स्थापना, प्रशासन और संचालन करने और सरकार से मान्यता और सहायता लेने या न लेने का विकल्प है।
न्यायमूर्ति ललित ने रेव्ह फादर डब्ल्यू प्रोस्ट और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1968) के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम (1960) की धारा 48A को निरस्त कर दिया, जिसमें कहा गया था कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के शिक्षकों और कर्मचारियों को विश्वविद्यालय सेवा आयोग (यूनिवर्सिटी सर्विस कमीशन) की पूर्व स्वीकृति और अनुमति के बिना नियुक्त, बर्खास्त, हटाया या रैंक में कम किया जा सकता है। यह अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में स्व-प्रशासन के अधिकारों को सुविधाजनक बनाने के लिए था। इस फैसले के बाद केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973), जिसे ‘मूल संरचना सिद्धांत (बेसिक स्ट्रक्चर डॉक्ट्रिन) मामले’ के रूप में जाना जाता है, ने संविधान की मूल संरचना के एक हिस्से के रूप में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को मान्यता दी।
भारत में अल्पसंख्यक
किन्हें अल्पसंख्यक की श्रेणी में रखा जा सकता है
संविधान का अनुच्छेद 30 केवल दो प्रकार के अल्पसंख्यकों अर्थात् धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों के बारे में बात करता है। यह प्रश्न कि क्या कोई विशेष समुदाय अल्पसंख्यक की श्रेणी में आता है, राज्य की जनसांख्यिकीय संरचना के आधार पर तय किया जाना है, जिसका अर्थ है कि विभिन्न राज्यों में जनसंख्या में उनकी स्थिति का अनुपात और पूरे देश में नहीं। इसी प्रश्न पर न्यायालय ने टीएमए पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य (2003) के मामले में ऐसे शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश की प्रक्रिया के प्रश्न के साथ विचार किया था। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भले ही राज्य सरकार धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों द्वारा प्रशासित शैक्षणिक संस्थानों की प्रवेश नीति को विनियमित नहीं कर सकती है, यदि वे उनके द्वारा सहायता प्राप्त नहीं हैं, तो यह छात्रों के प्रवेश, कर्मचारियों और शिक्षकों की नियुक्ति और शैक्षणिक मानकों के रखरखाव के लिए योग्यता निर्दिष्ट कर सकता है।
संबद्धता (ऐफिलिएशन) प्राप्त करने के लिए, ऐसे अल्पसंख्यक संस्थानों को बोर्ड या विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित शर्तों का पालन करना होगा। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को प्रवेश चाहने वाले छात्रों की योग्यता को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। जबकि सरकार द्वारा सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश को एक सामान्य प्रवेश परीक्षा द्वारा विनियमित किया जाना है।
अल्पसंख्यकों का वर्गीकरण
2019 की संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकीय (स्टैटिस्टिकल) रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि भारत की जनसंख्या, 136.6 करोड़ है, जिसको बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच निम्नलिखित प्रतिशत में विभाजित किया गया था:
- हिंदुओं ने बहुमत का गठन किया, जो कुल आबादी का 80.5% था।
- मुसलमान कुल आबादी का 13.4% बनाते हैं।
- ईसाई कुल आबादी का 2.3% बनाते हैं।
- सिख कुल आबादी का 1.9% हिस्सा हैं।
- बौद्ध कुल आबादी का 0.8% कवर करते हैं।
- जैन कुल आबादी का 0.4% हैं, और
- बाकी समुदाय और वर्ग मिलकर 0.6% बनाते हैं।
इस प्रकार, सांख्यिकीय रूप से, भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों में मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिख और अन्य शामिल हैं। ‘अल्पसंख्यक’ को अंग्रेजी में माइनोरिटीज कहते है जिसे लैटिन शब्द ‘माइनर’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘संख्या में छोटा’। हालांकि भारतीय संविधान कहीं भी ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को परिभाषित नहीं करता है, यह आमतौर पर सांख्यिकीय आंकड़ों से निर्धारित होता है। अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों की दो श्रेणियों: धार्मिक अल्पसंख्यक और भाषाई अल्पसंख्यक के बारे में बात करता है। भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों में उपर्युक्त धार्मिक समुदाय शामिल हैं। इस सांख्यिकीय आंकड़ों के अलावा, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम (1992) की धारा 2 (c) निम्नलिखित समुदायों को भारत में अल्पसंख्यक घोषित करती है:
- मुसलमानों
- ईसाइयों
- सिखों
- बौद्ध
- जैन, और
- पारसी।
किसी देश के भाषाई अल्पसंख्यक वे लोग हैं जो अलग भाषा बोलते हैं और जिनकी मातृभाषा उस देश के बहुसंख्यक समूह से अलग है।
अल्पसंख्यकों के इस वर्गीकरण और अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थानों के वर्गीकरण को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा टीएमए पाई फाउंडेशन और अन्य बनाम कर्णाटक राज्य और अन्य (2002) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 29 और अनुच्छेद 30 पर दिशानिर्देशों का पाठ किया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धार्मिक अल्पसंख्यकों और भाषाई अल्पसंख्यकों का निर्धारण राज्य स्तर होना चाहिए, न कि राष्ट्रीय स्तर पर। इसलिए, इन अल्पसंख्यक समुदायों और उनके शैक्षणिक संस्थानों को अपने-अपने राज्य सरकारों के मानक नियमों, विनियमों और नीतियों का पालन करना चाहिए। ये नियम, विनियम और नीतियां केंद्र के पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन के साथ राज्य निर्मित हैं। ये नियम सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, सुरक्षा और राष्ट्र की संप्रभुता (सोवरेनिटी) के पालन में बनाए जाते हैं।
अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का महत्व
दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र और विविध लोगों के लिए एक घर के रूप में, संविधान के मूल्यों को बनाए रखना भारत सरकार का प्राथमिक कर्तव्य है। इसमें देश के अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा भी शामिल है। बहुसंख्यक समुदाय द्वारा प्राप्त महत्व और विशेषाधिकार के कारण अल्पसंख्यकों के हितों को दरकिनार करने की यह एक सामान्य प्रवृत्ति है। इस प्रकार, अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए, कानून इस तरह से बनाए जाने चाहिए कि उनके अधिकारों को बहुसंख्यक विशेषाधिकारों और अधिकारों के बराबर संरक्षित किया जाए। यही कारण है कि अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान किए जाते हैं। भारतीय कानून बहुसंख्यक समुदाय को विशेषाधिकार प्रदान करते हैं। देश में अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभावपूर्ण होने के कारण कुछ नीतियों की आलोचना की गई है। उन्होंने विरोध प्रदर्शन किया। बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक विवादो के कारण देश में विरोध प्रदर्शन के कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं:
- दिल्ली सांप्रदायिक हिंसा के दौरान, कई लोग मारे गए, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम थे। इसने अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षा की कमी के बारे में और विरोध प्रदर्शन किया। राजधानी शहर को सबसे अधिक धार्मिक विरोध प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है।
- सिखों द्वारा 2020 के कृषि विधेयक का विरोध विधेयक की संरचना से समुदाय के अधिकारों में बाधा उत्पन्न होने के कारण हुआ था।
- 2019 का नागरिकता संशोधन अधिनियम (सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट) अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लंघन था क्योंकि इसमें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के लिए अलग-अलग प्रक्रियात्मक प्रावधान थे।
- हिंदू महिलाओं से शादी करने वाले मुस्लिम पुरुषों पर मुकदमा चलाने वाले धर्मांतरण विरोधी कानूनों (एंटी- कन्वर्शन लॉज़) की प्रकृति में भेदभावपूर्ण होने के कारण आलोचना की जाती है।
इसलिए, भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए नीतियां, नियम और विशेष कानून होना आवश्यक हैं।
अल्पसंख्यकों की संस्था और भारतीय संविधान का अनुच्छेद 30
अनुच्छेद 30 (1) द्वारा सशक्त भारत में अल्पसंख्यक समुदायों को अपने स्वयं के धार्मिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने, अपने समुदाय के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने और न्यूनतम राज्य हस्तक्षेप के साथ सामान्य शिक्षा के साथ धार्मिक मूल्यों को विकसित करने का अधिकार है। कई न्यायिक निर्णयों ने अनुच्छेद 30 की व्याख्या को आकार दिया है।
एस. अज़ीज़ बाशा और अन्य बनाम भारत संघ (1967) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्थापना और प्रशासन के अर्थ की व्याख्या की है। न्यायालय ने कहा कि ऐसे अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा स्थापित अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों को भी अपने रोजमर्रा के मामलों का प्रशासन करने का अधिकार है। इसके विपरीत, किसी शैक्षणिक संस्थान को संचालित करने का अधिकार होने के लिए, यह आवश्यक है कि अल्पसंख्यक समुदाय इसे धार्मिक शैक्षणिक संस्थान के रूप में शिक्षा प्रदान करने के इरादे से स्थापित करे। एसपी मित्तल बनाम भारत संघ (1982) में, सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 30 की पूर्वापेक्षाओं के बारे में इस प्रकार बात की:
- समुदाय को यह दिखाना होगा कि वे धार्मिक अल्पसंख्यक या भाषाई अल्पसंख्यक हैं।
- समुदाय को यह दिखाना होगा कि शैक्षणिक संस्थान उनके द्वारा स्थापित किया गया था।
जब ये पूर्वापेक्षाएं पूरी हो जाती हैं तभी अल्पसंख्यक समुदाय को शैक्षणिक संस्था चलाने और संचालित करने का अधिकार प्रदान किया जाता है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आन्ध्र प्रदेश क्रिश्चियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम आन्ध्र प्रदेश सरकार और अन्य (1986) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह संस्थान वास्तव में एक शैक्षणिक संस्थान नहीं है। यह एक व्यावसायिक उद्यम (वेंचर) चलाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक दिखावा था, और अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा कोई शैक्षणिक संस्थान नहीं चलाया गया था। न्यायालय ने कहा कि ऐसा उद्यम अनुच्छेद 30 के तहत लाभ नहीं उठा सकता है, क्योंकि यह उन पर लागू नहीं होगा। केरल राज्य आदि बनाम वेरी रेव्ह मदर प्रोविंशियल आदि (1970) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय का एक भी सदस्य एक शैक्षणिक संस्थान की स्थापना और प्रशासन करने और अपने समुदाय के सदस्यों को शिक्षा प्रदान करने के लिए पात्र है। अनुच्छेद 30 के प्रावधान उस पर उसी तरह लागू होंगे जैसे वे पूरे समुदाय पर लागू होते हैं।
अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात सरकार और अन्य (1974) के एक महत्वपूर्ण निर्णय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह माना कि एक अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित और प्रशासित एक शैक्षणिक संस्थान अन्य अल्पसंख्यक समुदायों या बहुसंख्यक समुदाय के बच्चों को प्रवेश से इनकार नहीं कर सकता है। न्यायालय ने कहा कि शैक्षणिक संस्थान सभी के लिए सुलभ होने चाहिए, भले ही उन्हें स्थापित करने वाला समुदाय कोई भी हो।
राज्य का हस्तक्षेप
यह सुनिश्चित करना राज्यों का दायित्व है कि उनके राज्य में संगठन और संस्थान राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुसार, राष्ट्र के कानूनों के अनुरूप, सार्वजनिक नीतियों, सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य, सुरक्षा, नैतिकता, सुरक्षा, संप्रभुता और देश के विदेशी संबंधों का पालन करते हुए न्यायपूर्ण तरीके से चलाए जाते हैं। ऐसा करने में, राज्य चौकस नजर रखते हैं और इन संस्थानों के कामकाज की निगरानी करते हैं। अल्पसंख्यक स्थापित और प्रशासित शिक्षा संस्थान इस सामान्य नियम के अपवाद नहीं हैं और इसलिए, राज्य द्वारा निर्मित नियमों द्वारा शासित हैं।
सरकार निम्नलिखित तरीके से हस्तक्षेप करती है:
- संस्थानों के प्रबंधन पर नियमित जांच करना।
- इन संस्थानों द्वारा बनाए गए शैक्षणिक स्थिति और मानकों की जाँच करना।
- राज्य सरकार के पास इन संस्थानों के उच्च प्रशासन द्वारा शक्ति के किसी भी दुरुपयोग के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति है।
- संस्थान के शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों के आचरण पर राज्य सरकार नजर रख सकती है।
- राज्य सरकार यह भी सुनिश्चित करती है कि इन संस्थानों के कर्मचारी संस्थानों द्वारा बनाए गए प्रशासनिक नियमों का पालन करें।
- राज्य सरकार नीति निर्देश दे सकती है।
- राज्य सरकार संस्थानों के कल्याण और बेहतरी के लिए उपाय कर सकती है।
इस प्रकार, राज्य सरकार को समय-समय पर यथोचित प्रतिबंधित तरीके से उपाय करने का अधिकार है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि संस्थानों को कानूनों के अनुसार चलाया जाए। ये अनुदेश और उपाय सीमित तरीके से इस प्रकार किए जाते हैं जिससे इन अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थाओं के प्रशासन की स्वायत्तता और पसंद के कारकों पर कोई प्रभाव न पड़े। बिहार राज्य मदरसा शिक्षा बोर्ड बनाम मदरसा की प्रबंध समिति (1989) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यों को नियमों और विनियमों का निर्माण नहीं करना चाहिए और उन्हें इन अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों पर इस तरह से लागू नहीं करना चाहिए जो मानकों और दक्षता को बनाए रखने के लिए विनियमन के दिखावे में इन संस्थानों के प्रबंधन के प्रशासनिक अधिकारों को बाधित करता है।
अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित संस्थानों को विनियमित करने की सरकार की शक्ति
यह सच है कि अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना, प्रबंधन या प्रशासन करने का अधिकार दिया गया है। हालाँकि, यह अधिकार पूर्ण नहीं है। ऐसे संस्थानों के उचित और सुचारू प्रशासन के लिए नियामक उपाय होना आवश्यक है। अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य (1974) के मामले में,अदालत ने माना कि प्रशासन का अधिकार अच्छे प्रशासन और प्रबंधन के कर्तव्य को दर्शाता है और इसमें शामिल है। इसके अलावा, रे केरल शिक्षा विधेयक बनाम अज्ञात (1958) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 30 (1) के तहत दिए गए अधिकार का मतलब यह नहीं है कि राज्य ऐसे शैक्षणिक संस्थानों के लिए उचित नियम निर्धारित नहीं कर सकता है। हालांकि, ऐसा विनियमन या शर्त अनुच्छेद में उल्लिखित अल्पसंख्यकों के अधिकारों को छीनने वाली नहीं होनी चाहिए।
रेव सिदजबाही सबी बनाम बॉम्बे राज्य (1962) के मामले में, बॉम्बे सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों में सरकार द्वारा नामित लोगों के लिए शिक्षकों की 80 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने का आदेश जारी किया गया था। इसमें यह भी प्रावधान है कि ऐसे नामितियों द्वारा किसी भी तरह के इनकार के परिणामस्वरूप ऐसे संस्थानों के साथ संबद्धता को रोक दिया जाएगा, और सहायता भी रोक दी जाएगी। न्यायालय ने कहा कि ऐसा आदेश अनुच्छेद 30 का उल्लंघन है। इसी तरह, केरल राज्य बनाम वेरी रेव मदर प्रोविंशियल (1970) के मामले में, न्यायालय ने केरल विश्वविद्यालय अधिनियम 1969 की धारा 63(1) को इस आधार पर अधिकारातीत (अल्ट्रा वायर्स) माना कि यह संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत उल्लिखित अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लंघन करता है। इस धारा ने सरकार को अल्पसंख्यकों द्वारा चलाए जा रहे शिक्षण संस्थानों का प्रबंधन अपने हाथ में लेने का अधिकार दिया था, अगर उनकी ओर से कोई चूक हुई हो।
अल्पसंख्यकों का शिक्षा का अधिकार
अल्पसंख्यकों को शिक्षा के अधिकार की गारंटी दी गई है और संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत विशेष प्रावधान किए गए हैं। यह अधिकार प्रकृति में पूर्ण नहीं है। इसका मतलब यह है कि अनुच्छेद 30 के तहत गारंटीकृत अधिकार उचित प्रतिबंधों के अधीन है। राज्य को संविधान के अनुच्छेद 19(6) के तहत उचित प्रतिबंध लगाने की शक्ति प्राप्त है। अनुच्छेद 19(6) का दायरा अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थानों पर उचित प्रतिबंध लगाने तक फैला हुआ है।
राज्य सरकार द्वारा पूर्ण सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थान अनुच्छेद 30 के तहत अपने शैक्षणिक संस्थानों को प्रशासित करने का अधिकार खो देते हैं। उन्हें केवल इन शैक्षणिक संस्थानों को स्थापित करने का अधिकार है, और जब वे सरकार से पूर्ण सहायता और मान्यता चाहते हैं, तो उनके प्रशासनिक अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। इन संस्थानों को चलाने के लिए वित्त पोषण सरकार में निहित है। अनुच्छेद 29, अनुच्छेद 30 को सुविधाजनक बनाता है क्योंकि अनुच्छेद 29 की व्याख्या अल्पसंख्यक समुदायों को परिभाषित करने के लिए की जाती है, जिसमें आम तौर पर बोली जाने वाली भाषा से अलग भाषा, संस्कृति या लिपि वाले और आमतौर पर देश की संस्कृति का पालन करने वाले लोगों को इसके दायरे में लाया जाता है। यह यह कहकर अल्पसंख्यकों के लिए समानता को बढ़ावा देता है कि किसी को भी धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर राज्य में किसी शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा। इसलिए, अनुच्छेद 29 के बाद अनुच्छेद 30 आता है, जो भारत के अल्पसंख्यक समुदायों को अपने स्वयं के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने की अनुमति देता है।
44वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम (1978) ने संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के दायरे से हटा दिया, लेकिन यह अनुच्छेद 30 का एक हिस्सा बना हुआ है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के लिए संपत्ति रखने के अधिकार में बाधा न आए।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग
1978 में, गृह मंत्रालय ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया। पहले अल्पसंख्यक आयोग के रूप में जाना जाता था, यह 1984 तक एक गैर-सांविधिक निकाय (नॉन-स्टटूटोरी बॉडी) था। वर्ष 1984 में आयोग को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया गया। 2020 तक, आयोग का नाम बदलकर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कर दिया गया है और यह अल्पसंख्यक मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में कार्य करता है। आयोग के दायरे में केवल धार्मिक अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी और जैन) आते हैं और भाषाई अल्पसंख्यक शामिल नहीं हैं। एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और पांच सदस्यों के साथ गठित, आयोग निम्नलिखित कार्य करता है:
- भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति और इसे सुधारने के लिए सरकारों (केंद्र और राज्य) के प्रयासों का मूल्यांकन करता है,
- अल्पसंख्यकों के लाभ के लिए बनाए गए कानूनों के कामकाज की जाँच करता है,
- भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति में सुधार करने वाले कानूनों को लागू करने के लिए सिफारिशें करता है,
- किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के भेदभाव या पीड़ा के मामलों की शिकायतों को लेने के लिए प्राधिकरण के रूप में कार्य करता है,
- केंद्र सरकार के साथ समन्वय में काम करता है, अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने वाले मुद्दों और प्रशंसनीय समाधानों पर केंद्र सरकार को अध्ययन और रिपोर्ट प्रस्तुत करता है।
- इन सुझावों के बाद, संसद ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के प्रावधानों को सुगम बनाने के लिए 2004 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्था आयोग अधिनियम अधिनियमित किया।
गैर-अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान चलाने का अधिकार
एक और सवाल जिसका जवाब देने की जरूरत है, वह यह है कि क्या गैर-अल्पसंख्यक, अल्पसंख्यकों की तरह ही शैक्षणिक संस्थानों को चला सकते हैं, स्थापित कर सकते हैं और उनका प्रबंधन कर सकते हैं। इस प्रश्न का उत्तर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) की सहायता से दिया जा सकता है, जो नागरिकों को किसी भी पेशे का अभ्यास करने और किसी भी व्यवसाय या व्यापार को करने के अधिकार की गारंटी देता है। इसका मतलब यह भी है कि गैर-अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन कर सकते हैं। हालांकि, यह अधिकार उचित प्रतिबंधों या आम जनता के हित में राज्य द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के अधीन है।
पीए इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2002), के मामले में न्यायालय ने निजी शैक्षणिक संस्थान चाहे अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित हो या गैर-अल्पसंख्यक में प्रवेश सीटों के आरक्षण के सवाल से निपटा है। अदालत ने कहा कि इस तरह के आरक्षण, चाहे अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों में हों या गैर-अल्पसंख्यकों में, संविधान के अनुच्छेद 30 और 19 (1) (g) का उल्लंघन है क्योंकि वे उनकी स्वायत्तता (ऑटोनोमी) को प्रभावित करते हैं। आगे यह माना गया कि प्रवेश को एक सामान्य प्रवेश परीक्षा द्वारा विनियमित किया जा सकता है, जो योग्यता के आधार पर छात्रों के प्रवेश को सक्षम बनाता है।
भारतीय संविधान के अन्य प्रासंगिक अनुच्छेद
अल्पसंख्यकों को समाज के ‘कमजोर वर्गों’ के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार, भारतीय संविधान के तहत उनके लाभ के लिए और समानता सुनिश्चित करने के लिए कई प्रावधान प्रदान किए गए हैं। नीचे उल्लिखित भारतीय संविधान के अनुच्छेद हैं जो अल्पसंख्यकों के लाभ के लिए बनाए गए हैं:
- अनुच्छेद 14 सभी भारतीय नागरिकों को दिया गया मौलिक अधिकार है। यह अनुच्छेद सभी के बीच समानता सुनिश्चित करता है और गैर-भेदभाव को बढ़ावा देता है।
- अनुच्छेद 15 लोगों को जाति, पंथ, धर्म, भाषा या लिंग के आधार पर भेदभाव से बचाता है।
- अनुच्छेद 16 अवसर, शिक्षा और रोजगार में समानता की गारंटी देता है। यह अनुच्छेद राज्यों पर विशेष राज्य के सभी नागरिकों के लिए उचित और समान अवसर सुनिश्चित करने और गैर-भेदभाव सुनिश्चित करने का दायित्व डालता है।
- अनुच्छेद 25 भारतीयों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। देश में धर्मनिरपेक्षता (सेकूलरिस्म) के मूल्यों को कायम रखते हुए, अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपनी पसंद के धर्म का अभ्यास करने और उसे मानने की स्वतंत्रता होगी। इसमें कहा गया है कि लोगों के धार्मिक मामलों में राज्यों या संघ द्वारा कोई प्रतिबंध या बाधा नहीं डाली जाएगी। हालाँकि, अनुच्छेद 25 का प्रयोग सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और अन्य मौलिक अधिकारों के दायरे में किया जाना है।
- अनुच्छेद 26 धार्मिक धर्मार्थ (चैरिटेबल) संस्थानों को स्थापित करने और बनाए रखने, अपने मामलों का प्रबंधन स्वयं करने और इस संबंध में संपत्तियों का अधिग्रहण और रखरखाव करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इन अधिकारों का अभ्यास सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और राष्ट्र की सुरक्षा का पालन करके किया जाना चाहिए।
- अनुच्छेद 28 में कहा गया है कि राज्य सरकारें राज्य सहायता प्राप्त धार्मिक शिक्षण संस्थानों को कोई धार्मिक निर्देश नहीं देंगी। इसमें आगे कहा गया है कि किसी भी छात्र को सहमति के बिना किसी भी धार्मिक निर्देश या व्यवस्था में भाग लेने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा।
- अनुच्छेद 29 कहता है कि कोई भी राज्य-सहायता प्राप्त, राज्य-मान्यता प्राप्त या राज्य-अनुरक्षित शैक्षणिक संस्थान किसी व्यक्ति को उसके लिंग, रंग, पंथ, धर्म, जाति या भाषा के आधार पर प्रवेश से इनकार नहीं करेगा। यह अनुच्छेद भारत में सभी समुदायों को सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की गारंटी देता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत ऐतिहासिक निर्णय
डीएवी कॉलेज, बठिंडा, आदि बनाम पंजाब राज्य और अन्य (1971) मे सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यद्यपि अल्पसंख्यक समुदायों को अपने शैक्षणिक संस्थानों में अपनी क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना एक अधिकार है, लेकिन यह पूर्ण नहीं हो सकता है। भले ही संस्था पंजाबी में शिक्षा और निर्देश दे सकती है, लेकिन हिंदी में भी ऐसे ही निर्देश होने चाहिए। एक शैक्षणिक संस्थान होने के नाते, यह शैक्षणिक संस्थानों को एक भाषा तक सीमित करके देश के किसी भी अन्य समुदाय को बाधित, अस्वीकार या भेदभाव नहीं कर सकता है। इस प्रकार, जबकि पंजाब विश्वविद्यालय को राज्य द्वारा मान्यता दी गई थी, केवल पंजाबियों को शिक्षा प्रदान करने की प्रतिबंधात्मक खंडों को न्यायालय ने अमान्य, भेदभावपूर्ण और संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 का उल्लंघन बताते हुए खारिज कर दिया था।
पी.ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2005), में सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया जहां उसने कहा कि प्रवेश के दौरान आरक्षण नीति अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों पर लागू नहीं होगी। बल्कि, यह योग्यता के आधार पर होगा और भारत में सभी धार्मिक और भाषाई समूहों के बच्चों के लिए समान रूप से खुला होगा।
एस अज़ीज़ बाशा और अन्य बनाम भारत संघ (अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय मामला (1967), के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय किसी अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा ‘स्थापित’ नहीं किया गया है। इस प्रकार, मुस्लिम समुदाय को इसे प्रशासित करने का अधिकार भी नहीं है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय संसद द्वारा मान्यता प्राप्त अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान के रूप में योग्य नहीं है। इस मामले के बाद डॉ. नरेश अग्रवाल बनाम भारत संघ (2005) का मामला आया, जहां अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के रूप में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की दावा की गई स्थिति को न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया था।
मिल्ली तकीमी मिशन बिहार के प्रबंध बोर्ड और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1984) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक समुदायों को प्रदत्त शिक्षा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। यदि राज्य बिना किसी उचित आधार के किसी अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान को मान्यता देने से इनकार करता है, तो इस तरह के इनकार को अनुच्छेद 30(1) का उल्लंघन माना जाएगा।
महत्वपूर्ण मामले
अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य और अन्य (1974)
मामले के तथ्य
इस मामले में याचिकाकर्ता ईसाई बच्चों को उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए एक अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान चलाते हैं लेकिन अन्य धार्मिक समूहों से संबंधित बच्चों को भी प्रवेश दिया जाता है। यह 1972 के गुजरात विश्वविद्यालय अधिनियम नामक राज्य कानून से संबद्ध है। इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने उक्त अधिनियम की संवैधानिक वैधता को इस आधार पर चुनौती दी कि यह अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान चलाने के उनके अधिकार का उल्लंघन है।
मामले में शामिल मुद्दे
- क्या उपर्युक्त अधिनियम असंवैधानिक है।
न्यायालय का निर्णय
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 30 के पीछे के उद्देश्य और भावना पर विचार किया। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 30 के पीछे की भावना अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति राष्ट्र का नैतिक दायित्व है। यह सुनिश्चित करना है कि देश के धार्मिक अल्पसंख्यक और भाषाई अल्पसंख्यक अपनी पसंद की शिक्षा की स्थापना, प्रशासन और प्रदान करने से प्रतिबंधित न हों। उन्हें अपने बच्चों में अपने समुदाय के मूल्यों और विश्वासों को स्थापित करने और उन्हें देश के जिम्मेदार नागरिकों और अपने समुदाय के अग्रणी (पायनियर्स) के रूप में आकार देने के लिए अत्यंत सम्मान और स्वतंत्रता दी जाती है।
अदालत ने आगे कहा कि अधिनियम विश्वविद्यालय द्वारा पेश किए गए पाठ्यक्रमों में एकरूपता, दक्षता और उत्कृष्टता लाने के लिए संबद्धता के उपायों का प्रावधान करता है और अनुच्छेद 30 का उल्लंघन नहीं कर रहा है। आगे यह माना गया कि कोई भी अधिकार किसी भी प्रकार के विनियमन या मानदंड से मुक्त नहीं है, क्योंकि ये शैक्षिक चरित्र के रखरखाव के लिए प्रदान करते हैं।
मिस रवनीत कौर बनाम क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज (1997)
मामले के तथ्य
इस मामले में, याचिकाकर्ता का दावा है कि उसे ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया गया है और एमबीबीएस के पाठ्यक्रम के लिए कॉलेज में प्रवेश के लिए आवेदन किया गया है। सीटें ईसाई भारतीय नागरिकों के लिए आरक्षित थीं और उन्होंने लिखित परीक्षा भी दी थी। उसे सूचित किया गया था कि उसे अदालतों के लिए अनंतिम (प्रोविज़नली) रूप से चुना गया था और उसे एक प्रायोजन (स्पॉन्सरशिप) पत्र के साथ संबंधित दस्तावेज जमा करने के लिए कहा गया था। हालांकि, बिशप शहर से बाहर था और पत्र का उत्पादन नहीं किया जा सका। उसे इस आधार पर प्रवेश से वंचित कर दिया गया था, भले ही उसने कॉलेज समिति को कारणों से अवगत कराया था। इस प्रकार याचिकाकर्ता ने इस संबंध में एक रिट याचिका दायर की।
मामले में शामिल मुद्दे
- क्या रिट याचिका एक ऐसे कॉलेज के खिलाफ सुनवाई योग्य है जो निजी, गैर-सहायता प्राप्त और विश्वविद्यालय से संबद्ध है।
न्यायालय का निर्णय
इस मामले में, पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने कहा कि एक शैक्षणिक संस्थान प्रवेश देते समय विभिन्न धार्मिक या भाषाई समुदायों के छात्रों के साथ भेदभाव नहीं कर सकता है, इस आधार पर कि संस्थान राज्य-सहायता प्राप्त नहीं हैं और इसलिए राज्य के निर्देशों से बाध्य नहीं हैं। अदालत ने देखा कि याचिकाकर्ता ने प्रायोजन पत्र पेश किया; हालांकि, यह संबंधित व्यक्ति से नहीं था। इस स्थिति में, प्रतिवादी को दोष नहीं दिया जा सकता है। यह आगे देखा गया कि वह केवल कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गई थी। नतीजतन, रिट को मंजूरी नहीं दी गई और खारिज कर दिया गया।
मलंकारा सीरियन कैथोलिक कॉलेज के सचिव बनाम टी. जोस और अन्य (2006)
मामले के तथ्य
इस मामले में मलंकारा सीरियन कैथोलिक कॉलेज एसोसिएशन एक सोसायटी है जो केरल में कई निजी कॉलेज चलाती है। इनका प्रबंधन शैक्षिक एजेंसी द्वारा नियुक्त एक प्रबंध परिषद द्वारा किया जाता है। मार इवानियोस कॉलेज ऐसा ही एक कॉलेज है। उक्त कॉलेज के प्रिंसिपल का पद खाली हो गया और मैनेजर ने एक लेक्चरर को आदेश देकर यह पद दे दिया। इसे कॉलेज के कुलपति (वाईस चांसलर) ने चुनौती दी थी। हालांकि, केरल विश्वविद्यालय अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) ने माना कि नियुक्त व्यक्ति पात्रता मानदंडों को पूरा करता है, जिसे ऊपरी अदालत में चुनौती दी गई थी। यह भी तर्क दिया गया कि 1974 का केरल विश्वविद्यालय अधिनियम, संविधान के अनुच्छेद 30 का उल्लंघन था। यही घटना दूसरे कॉलेज में हुई और याचिका पर एक साथ सुनवाई हुई।
मामले में शामिल मुद्दे
- क्या याचिका सुनवाई योग्य है।
न्यायालय का निर्णय
इस मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 30 के प्रावधानों के पीछे के उद्देश्य के बारे में विस्तार से बात की। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत में अल्पसंख्यकों को दिए गए विशेष अधिकार भारत के बहुसंख्यक समुदाय के रूप में उनके लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने के इरादे से हैं। न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार देने से उन्हें बहुसंख्यक समुदाय पर ऊपरी हाथ नहीं मिलता है, क्योंकि यह उन्हें एक फायदा नहीं देता है, बल्कि एक स्तर का खेल मैदान देता है। राज्य और संघ के सामान्य नियम उन पर समान रूप से लागू होते हैं जैसे वे दूसरों के लिए हैं। अदालत ने कहा कि अधिनियम की धारा 57(3), अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रयोग में हस्तक्षेप करती है और इसलिए यह माना जाता है कि यह अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं किया जा सकता है, भले ही वे निजी तौर पर सहायता प्राप्त हों।
निष्कर्ष
मौलिक अधिकार किसी देश के संविधान द्वारा उसके नागरिकों को दिए गए अधिकार हैं। ये जाति, पंथ, नस्ल, धर्म, लिंग या भाषा के आधार पर बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक की वृद्धि और विकास के लिए प्रदान किए जाते हैं। हालाँकि, ऐसी संभावना है कि नागरिकों के कुछ वर्गों को विशिष्ट अधिकार दिए जा सकते हैं, उदाहरण के लिए, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार। भारतीय संविधान, अनुच्छेद 30 के तहत, शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना, प्रबंधन या प्रशासन करने का अधिकार प्रदान करता है। हालाँकि, यह अधिकार विशेष रूप से धर्म और भाषा के आधार पर अल्पसंख्यकों को दिया गया है। इसका मतलब यह है कि धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित और प्रशासित कर सकते हैं।
इसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना है, जिन्हें किसी न किसी तरह से दबाया जा सकता है। इसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों के शैक्षिक अधिकारों के साथ-साथ उनकी संस्कृति और भाषा को संरक्षित करने की स्वतंत्रता की रक्षा करना है। हालाँकि, अनुच्छेद 30 के तहत दिए गए अधिकार का मतलब यह नहीं है कि राज्य ऐसे शैक्षणिक संस्थानों को सहायता नहीं दे सकता है। अनुच्छेद में यह भी प्रावधान है कि राज्य को किसी भी शैक्षणिक संस्थान को सहायता देते समय इस आधार पर कि इसका प्रबंधन अल्पसंख्यक द्वारा किया जाता है या धर्म या भाषा जैसे अन्य आधारों पर भेदभाव नहीं करना चाहिए।
भारतीय अल्पसंख्यकों को हिंसा, भेदभाव, नफरत और प्रतिनिधित्व की कमी के रूप में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। इन अत्याचारों पर अंकुश लगाने के लिए, केंद्र सरकार, विधायक और नीति निर्माता अल्पसंख्यक समुदायों के लिए कानून, नियम, विनियम और विशेष अधिकार लेकर आए हैं। ऐसे ही एक अधिकार की गारंटी उन्हें अनुच्छेद 30 के तहत दी गई है। यह अनुच्छेद अल्पसंख्यक समुदायों को उनकी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने में सुविधा प्रदान करता है। उन्हें सरकार के न्यूनतम हस्तक्षेप के साथ प्रशासनिक स्वायत्तता दी गई है। यह शिक्षा के मामले में देश के धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए समानता और समान अवसर सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया गया है। माना जाता है कि वर्षों से विभिन्न सरकारी प्रयासों के बावजूद, हिंसा, भेदभाव और नफरत आज भी जारी है। समय ही बताएगा कि भारतीय अल्पसंख्यकों का क्या होता है और सरकार उनके अत्याचारों को किस हद तक कम करती है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या शिक्षा के अधिकार पर कोई अलग कानून है?
शिक्षा का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21A के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों में से एक है, और ऐसे अधिकारों के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अलग कानून बनाया गया है। बच्चों का निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 भी बच्चों की निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करता है। यह अधिनियम शिक्षा के अधिकार के अनुरूप बनाया गया है।
संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 में क्या अंतर है?
दोनों अनुच्छेदों के बीच मुख्य अंतर यह है कि अनुच्छेद 29 केवल नागरिकों पर लागू होता है, जबकि अनुच्छेद 30 नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों पर लागू होता है।
44वें संशोधन अधिनियम का संविधान के अनुच्छेद 30 पर क्या प्रभाव पड़ा?
44वें संशोधन अधिनियम, 1978 के परिणामस्वरूप, संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत एक नया खंड जोड़ा गया। अनुच्छेद 30(1A) में प्रावधान है कि अल्पसंख्यक द्वारा प्रशासित किसी भी स्थापित शैक्षणिक संस्थान की किसी भी संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण के लिए कोई भी कानून बनाते समय, राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी संपत्ति के अधिग्रहण के लिए निर्धारित राशि अल्पसंख्यक के अधिकारों को प्रतिबंधित या निरस्त नहीं कर रही है।
क्या बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश से वंचित किया जा सकता है?
नहीं, अनुच्छेद 29(2) के अनुसार, किसी भी समुदाय को भेदभाव के आधार पर अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान में भाग लेने की अनुमति से इनकार नहीं किया जा सकता है।
क्या अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार पूर्ण प्रकृति के हैं?
नहीं, अनुच्छेद 30 प्रकृति में पूर्ण नहीं है। यह सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता को बनाए रखने के लिए राज्य के हस्तक्षेप और न्यूनतम उचित प्रतिबंधों के अधीन है।
सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार क्या हैं?
भारत में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक समूहों को संविधान द्वारा सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की गारंटी दी गई है ताकि वे अपनी विशिष्ट संस्कृति, भाषा या लिपि को संरक्षित कर सकें।
दोहरा परीक्षण मानदंड क्या है?
यह दर्शाने के लिए कि कोई शैक्षणिक संस्थान वास्तव में अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है, दोहरा परीक्षण किया जाता है। इसके लिए यह सिद्ध करना होगा कि:
- शैक्षणिक संस्थान की प्रकृति नियामक होनी चाहिए। यह संस्था की ‘अल्पसंख्यक संस्था’ होने की प्रकृति के लिए विनाशकारी नहीं होना चाहिए।
- संस्थान को अल्पसंख्यकों को शिक्षा की सुविधा प्रदान करने के लिए एक प्रभावी संस्थान होना चाहिए।
संदर्भ
- https://www.thehindu.com/opinion/op-ed/an-sc-verdict-violative-of-minority-rights/article31101652.ece