यह लेख कोलकाता के एमिटी लॉ विद्यालय की छात्रा Oishika Banerji के द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21A, जो छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मौलिक अधिकार के रूप में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करता है, का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय
हर देश का सार शिक्षा में निहित है, और इसके बिना, देश का अस्तित्व ही विफल हो जाता है। नतीजतन, देश शिक्षा पर ही आधारित होता है। यह लोकतंत्र के समग्र विकास और प्रभावी संचालन (ऑपरेशन) के लिए महत्वपूर्ण है। शिक्षा लोगों को अधिक कुशल और अधिक पसंद करने योग्य बनने में मदद करती है, और जैसे-जैसे लोग आगे बढ़ते हैं, वैसे ही देश भी आगे बढ़ता रहता है। शिक्षा का उद्देश्य रोजगार से लेकर मानव संसाधन (रिसोर्स) विकास, सामान्य सुधार, और बहुत जरूरी सामाजिक पर्यावरण परिवर्तन लाने तक के लक्ष्यों की एक विस्तृत श्रृंखला को प्राप्त करना है। यह एक राष्ट्र के निवासियों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सशक्तिकरण (एंपावरमेंट) प्रदान करता है, जिससे एक स्वतंत्र व्यक्ति के विकास में योगदान होता है। इसे सामाजिक आधारशिला माना जाता है जो राजनीतिक स्थिरता (स्टेबिलिटी), सामाजिक प्रगति और आर्थिक समृद्धि का समर्थन करता है। मनुष्य के लिए जीने की सबसे आवश्यक चीजो मे से भोजन के बाद वस्त्र, और आश्रय के साथ साथ, चौथी सबसे अनिवार्य चीज शिक्षा है। यह वह नींव है जिस पर समाज का निर्माण होता है। सामाजिक न्याय और समानता शिक्षा के माध्यम से ही संभव हो पाता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21A, जिसे संविधान (86 वें संशोधन) अधिनियम, 2002 के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया था, प्रत्येक राज्य को छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का आदेश देता है। इस प्रकार संविधान के भाग III के तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में घोषित किया गया है। यह संशोधन, ‘सभी के लिए शिक्षा’ हासिल करने के देश के लक्ष्य में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। सरकार ने इस कदम को ‘नागरिक अधिकारों के अध्याय में दूसरी क्रांति का प्रारंभ’ बताया है। यह लेख समाज, न्यायपालिका और सामान्य रूप से संविधान के अन्य प्रावधानों के संबंध में इस अनुच्छेद पर चर्चा करता है।
शिक्षा का अधिकार और इसका अंतर्निहित (अंडरलाइंग) इतिहास
अधिकार से वंचित करने के ऐतिहासिक कारणों और उस पर संवैधानिक प्रतिक्रिया के कुछ ज्ञान के बिना, भारत में शिक्षा के अधिकार के महत्व को समझना बिल्कुल असंभव है। 1947 में जब भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली थी, तो संविधान निर्माताओं को उस आबादी की वास्तविकता से निपटना पड़ा जो मुख्य रूप से निरक्षर (इलिट्रेट) और गंभीर रूप से गरीब थी।
- जैसा कि मूल रूप से अधिनियमित (इनेक्ट) किया गया था, संविधान का अनुच्छेद 45, जो राज्य नीति का निदेशक सिद्धांत (डायरेक्टिव प्रिंसिपल) है, वह संविधान के लागू होने के 10 साल के अंदर अंदर, राज्य को हर बच्चे को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए हर संभव प्रयास करने के लिए बाध्य करता है। संविधान में कहा गया है कि भले ही राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत “कानून की अदालत में लागू करने योग्य” नहीं हैं, फिर भी राज्य को कानून बनाते समय उनका उपयोग करने की आवश्यकता होती है क्योंकि “जो सिद्धांत इसमे दिए गए है वह देश के शासन में बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, अनुच्छेद 45 पूरा होने की समय सीमा के साथ एकमात्र ऐसा निदेशक सिद्धांत था, जो यह दर्शाता है कि संविधान के निर्माताओं ने इस सिद्धांत को कितना महत्व दिया है।
- स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती दशकों में शिक्षा तक सार्वभौमिक (यूनिवर्सल) पहुंच प्रदान करने के प्रयास की घोर विफलता के बारे में बहुत कम बहस है। 2001 तक समग्र साक्षरता दर 65 प्रतिशत थी। प्राथमिक शिक्षा के संदर्भ में, 2003-2004 से 2004-2005 तक, ग्रेड I-V में नामांकित 10% से अधिक छात्रों ने पाठ्यक्रम पूरा करने से पहले विद्यालय छोड़ दिया था। पहली बार, जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, निरक्षर भारतीयों की संख्या 1991 में 329 मिलियन से गिरकर 2001 में 304 मिलियन हो गई थी।
- यह आश्चर्य की बात नहीं है कि किसी भी अन्य लोकतंत्र की तरह, भारत सरकार के लोकतांत्रिक हथियार ऊपर उल्लिखित बड़े पैमाने की विफलता के परिणामस्वरूप आत्म-प्रतिबिंब (सेल्फ रिफ्लेक्शन) और आत्म-सुधार में लगे हुए हैं। केंद्र सरकार द्वारा शिक्षा के लिए जो राशि आवंटित (एलोकेट) की जाती है, वह समय के साथ बढ़ती जा रही है, भले ही यह धीरे-धीरे और गलत तरीके से बढ़ रही हो। 1955-1956 में पहली बार, शिक्षा पर खर्च, सकल घरेलू उत्पाद (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट) (जी.डी.पी.) के 1 प्रतिशत से अधिक था, और यह 1979 तक इस सीमा में ही रहा था। संवैधानिक संशोधन जिसने केंद्र सरकार को शिक्षा के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने के लिए समवर्ती (कंकर्रेंट) विधायी अधिकार प्रदान किया, 1976 में एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि था। हालांकि यह अभी तक पूरा नहीं हुआ है, सरकार ने शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6% खर्च करने का एक स्व-लगाया (सेल्फ इंपोज) लक्ष्य निर्धारित किया है।
- यह स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा की प्राप्ति की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। इसे अक्सर सर्व शिक्षा अभियान [सभी को शिक्षा प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय अभियान] को श्रेय दिया जाता है, जो सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के लक्ष्य के साथ 2000 में शुरू किया गया एक राष्ट्रीय अंब्रेला कार्यक्रम है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, दसवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) की शुरुआत में विद्यालय में नामांकित बच्चों की कुल संख्या 42 मिलियन से घटकर 2005 में 13 मिलियन हो गई है।
- सभी महत्वपूर्ण केंद्रीय करों पर 2 प्रतिशत उपकर (सेस), विशेष रूप से प्रारंभिक शिक्षा की ओर जाने वाली आय के साथ, संसाधन जुटाने की दिशा में यह एक व्यावहारिक कदम है। शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल करने के लिए संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन करने का निर्णय लिया गया था। इसके अलावा, बजटीय आवंटन और कार्यक्रम निष्पादन (एग्जिक्यूशन) के मामले में शिक्षा धीरे-धीरे गति प्राप्त कर रही थी।
- अंत में, अनुच्छेद 21A, एक मौलिक अधिकार, जो न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के अधीन है, को संविधान में, 2002 के संविधान (86 वें संशोधन) अधिनियम के माध्यम से जोड़ा गया था। इस संशोधन के सबसे जरूरी पहलुओं में से एक, प्रारंभिक बाल्यावस्था में देखभाल और शिक्षा (छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए) का न्यायोचित (जस्टिफिएबल) अधिकार के दायरे से बहिष्कारण (एक्सक्लूजन) है, जिसने आलोचना की एक बड़ी मात्रा को आकर्षित किया था। यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि इसमें संसद की ओर से कोई गलती नहीं की गई थी। तथ्य यह है कि प्राथमिक शिक्षा का अधिकार अब एक पूर्ण अधिकार है, जबकि राज्य के पास अभी भी बाल्यावस्था में देखभाल और शिक्षा प्रदान करने के अपने दायित्व के संदर्भ में कुछ अक्षांश (लैटिट्यूड) है, यह दर्शाता है कि संसद का इरादा प्रवर्तनीयता (इंफोर्सबिलिट) के संदर्भ में लक्ष्यों को स्थानांतरित (मूव) करने का था।
यहां इस बात पर ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के लिए राज्य को जिस वित्तीय प्रतिबद्धता (फाइनेंशियल कमिटमेंट) की आवश्यकता थी, वह अब पूरी तरह से असंभव नहीं है। उदाहरण के लिए, सरकार द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति (एक्सपर्ट कमिटी) ने पहले गणना की कि अनुच्छेद 21A को शामिल करने से पहले के वर्षों में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा को लागू करने के लिए जीडीपी का 0.78 प्रतिशत सालाना खर्च होगा। हालांकि, सरकार ने संवैधानिक संशोधन के समय अनुमानित वार्षिक लागत को सकल घरेलू उत्पाद का 0.44 प्रतिशत संशोधित किया था।
यह वित्तीय मांग सरकार के स्व-लगाए गए लक्ष्य को सकल घरेलू उत्पाद के 6% तक बढ़ाने और शिक्षा के लिए बजटीय आवंटन को धीरे-धीरे बढ़ाने के संदर्भ में देखने योग्य प्रतीत होती है। इन ऐतिहासिक घटनाओं के आलोक में मौलिक अधिकार को लागू करने में होने वाला लंबा विलंब विशेष रूप से चिंताजनक है। नए मौलिक अधिकार के संबंध में संवैधानिक कानून और लोकतांत्रिक जवाबदेही के साथ महत्वपूर्ण मुद्दों को भी उठाया गया है।
शैक्षिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के द्वारा भी शिक्षा के अधिकार की गारंटी दी जाती है। 1948 में अपनाई गई मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणा (यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स) के तहत अनुच्छेद 26 में घोषणा की गई है की ‘सभी को शिक्षा का अधिकार है’।
तब से, संयुक्त राष्ट्र द्वारा शिक्षा के अधिकार को व्यापक रूप से मान्यता दी गई है और कई अंतरराष्ट्रीय मानक उपकरणों द्वारा इसे विकसित किया गया है, जिसमें आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा (कॉवनेंट) (1966, सी.ई.एस.सी.आर.), बच्चों के अधिकारों पर सम्मेलन (कन्वेंशन) (1989, सी.आर.सी.), और शिक्षा में भेदभाव के खिलाफ यूनेस्को सम्मेलन (1960, सी.ए.डी.ई.) है।
विशिष्ट समूहों (महिलाओं और लड़कियों, विकलांग व्यक्तियों, प्रवासियों (माइग्रेंट्स), शरणार्थियों (रिफ्यूजी), स्वदेशी लोगों, आदि) और संदर्भों (सशस्त्र संघर्षों के दौरान शिक्षा) को शामिल करने वाली अन्य संधियों (ट्रीटी) में भी शिक्षा के अधिकार की पुष्टि की गई है। इसे विभिन्न क्षेत्रीय संधियों में भी शामिल किया गया है और राष्ट्रीय संविधानों के विशाल बहुमत में अधिकार के रूप में प्रतिष्ठापित (इनश्राइन) किया गया है।
हालांकि अधिकांश देशों ने शिक्षा के पूर्ण अधिकार को मान्यता देने वाली अंतर्राष्ट्रीय संधियों की पुष्टि की है, फिर भी संसाधनों, क्षमता और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण दुनिया भर में लाखों लोगों को इस अधिकार से वंचित रखा गया है। अभी भी कई ऐसे देश हैं जिन्होंने शिक्षा के अधिकार को अपने राष्ट्रीय संविधान में एकीकृत (इंटीग्रेट) नहीं किया है या यह सुनिश्चित करने के लिए विधायी और प्रशासनिक ढांचा प्रदान नहीं किया है कि शिक्षा के अधिकार को व्यवहार में महसूस किया जाए। ज्यादातर बच्चे और वयस्क (एडल्ट्स) जो शिक्षा के अधिकार का पूरी तरह से आनंद नहीं लेते हैं, वे समाज के सबसे वंचित और हाशिए (मार्जिनलाइज) के समूहों से संबंधित हैं जो अक्सर राष्ट्रीय नीतियों में पीछे रह जाते हैं।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21A
मानव की प्रगति शिक्षा पर निर्भर करती है। किसी भी देश का भविष्य उसकी शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। भले ही संविधान सभा के सदस्यों ने सार्वभौमिक शिक्षा के मूल्य को समझा हो लेकिन वे इसे मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी देने में असमर्थ थे क्योंकि तब वित्तपोषण (फंडिंग) की कमी थी, इसलिए इस तथ्य के बावजूद इसे राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में सूचीबद्ध किया गया था। भारतीय न्यायिक प्रणाली ने 1993 में उन्नी कृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में जीवन के अधिकार के एक घटक के रूप में शिक्षा के अधिकार को शामिल करने का प्रयास किया था। 2002 में पारित हुए एक संवैधानिक संशोधन के माध्यम से, भारतीय संसद ने अपने भविष्य के निवासियों को शिक्षा का अधिकार भी दिया था।
कई अवसरों पर, न्यायपालिका और संसद दोनों को इस नए मौलिक अधिकार की प्रकृति को स्पष्ट रूप से समझाने का मौका मिला, विशेष रूप से इस संभावना के आलोक में कि यह अल्पसंख्यकों (माइनोरिटीज) के मौलिक अधिकार के साथ संघर्ष कर सकता है जो पहले से ही शैक्षणिक संस्थानों को बनाने और चलाने के लिए मौजूद है। कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न थे जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता थी। क्या उपर्युक्त मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 के दायरे में शामिल करने और जीवन के अधिकार के साथ इस नए अधिकार को शामिल करने के फैसले ने अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार को अन्य संबंधित अधिकारों पर कोई प्राथमिकता दी है, यह एक अनुत्तरित प्रश्न बना हुआ है।
भारतीय संविधान के तहत शिक्षा का अधिकार
भारतीय संविधान में कई प्रावधान और अनुसूचियां (शेड्यूल) हैं जो शिक्षा में बच्चों के हितों की रक्षा करती हैं। भारतीय संविधान में विभिन्न अनुच्छेद और मार्गदर्शक अवधारणाएं हैं जो अपने नागरिकों के लिए शिक्षा के प्रावधान की रक्षा करती हैं। अंतिम ब्रिटिश शिक्षा आयोग, सार्जेंट कमीशन ने भविष्यवाणी की थी कि सार्वभौमिक शिक्षा 40 वर्षों में या 1985 तक उपलब्ध होगी। भारतीय संविधान मे 1976 के 42वें संशोधन ने शिक्षा को एक समवर्ती मुद्दा बना दिया, ताकि बुनियादी शिक्षा सुविधाओं का विस्तार किया जा सके, विशेष रूप से अविकसित क्षेत्रों ने प्राथमिक शिक्षा के साथ इसे स्वतंत्र रूप से और अनिवार्य रूप से वितरित करके प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा को सुलभ बनाया है।
प्रारंभ में संविधान की मौलिक अधिकारों की सूची से बाहर रखा गया, शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 45 के तहत एक निदेशक सिद्धांत के रूप में जोड़ा गया, जिसने राज्य को 14 वर्ष की आयु तक सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के प्रयास करने के लिए अनिवार्य किया। इसे संविधान के लागू होने के पहले दस साल के भीतर किया गया था। अनुच्छेद 45 का निर्देश, 14 वर्ष की आयु तक और इसमें शिक्षा के सभी स्तरों को शामिल करता है और यह केवल प्राथमिक विद्यालय तक ही सीमित नहीं है।
नतीजतन, इस आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा तक मुफ्त पहुंच मिलनी चाहिए थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस समय के दौरान अपने निर्णयों के माध्यम से अन्य संवैधानिक प्रावधानों जैसे कि अनुच्छेद 21, 24, 30(1), 39(e) और 39(f) से ‘शिक्षा का अधिकार’ निहित किया, जो की शिक्षा के अधिकार से संबंधित मुद्दों पर थे। न्यायालय ने बार-बार इस बात पर प्रकाश डाला है कि राज्य सरकार द्वारा संचालित और सहायता प्राप्त विद्यालयों के माध्यम से “बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने” के लिए अनुच्छेद 45 के तहत अपनी नैतिक प्रतिबद्धता (मोरल कमिटमेंट) को पूरा कर सकता है, और यह कि अनुच्छेद 45 अनिवार्य नहीं करता है कि अल्पसंख्यक आबादी पर होने वाले खर्च की जगह इस दायित्व को पूरा किया जाए।
4 अगस्त 2009 को, भारतीय संसद ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 पारित किया, जिसे लोकप्रिय रूप से आर.टी.ई. अधिनियम, 2009 के रूप में जाना जाता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21A भारत में 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की आवश्यकता को स्पष्ट करता है। 1 अप्रैल 2010 को इस अधिनियम के लागू होने के साथ, भारत उन 135 देशों की सूची में शामिल हो गया, जिन्होंने शिक्षा को सभी बच्चों के लिए मौलिक अधिकार बना दिया है। यह प्राथमिक विद्यालयों के लिए बुनियादी मानकों (स्टैंडर्ड) को स्थापित करता है, गैर-मान्यता प्राप्त संस्थानों के संचालन को प्रतिबंधित करता है, और सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों में प्रवेश के दौरान प्रवेश शुल्क और बच्चों के साक्षात्कार (इंटरव्यू) का विरोध करता है।
नियमित सर्वेक्षणों के माध्यम से, शिक्षा का अधिकार अधिनियम हर पड़ोस पर नजर रखता है और उन बच्चों की पहचान करता है जिनकी शिक्षा तक पहुंच होनी चाहिए लेकिन उन्हें शिक्षा प्रदान नहीं की गई है। भारत में, राष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ राज्यों में भी लंबे समय से महत्वपूर्ण शैक्षिक मुद्दे रहे हैं। 2009 का आर.टी.ई. देश की शिक्षा प्रणाली में किसी भी अंतराल को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार, प्रत्येक राज्य और सभी स्थानीय सरकारों के कार्यों और दायित्वों की रूपरेखा तैयार करता है।
शिक्षा को अधिकार के रूप में बढ़ावा देने वाले संवैधानिक प्रावधानों की सूची
- अनुच्छेद 21A: नया अनुच्छेद 21A, जिसे 86वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान में शामिल किया गया था, में कहा गया है कि “राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को कानून के माध्यम से मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा”। 2009 में, शिक्षा का अधिकार अधिनियम अनुच्छेद 21A के आलोक में पारित किया गया था।
- अनुच्छेद 15: धर्म, जातीयता (इथिनिसिटी), जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 द्वारा निषिद्ध है। हालाँकि, अनुच्छेद 15 (3) कहता है कि इस खंड में कुछ भी राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए कोई विशिष्ट उपाय अपनाने से नहीं रोकता है।
- अनुच्छेद 38: लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने वाली कोई भी सामाजिक व्यवस्था भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 द्वारा सुरक्षित है।
- अनुच्छेद 45: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 45 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करता है।
- अनुच्छेद 29(2): भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29(2) में प्रावधान है कि किसी भी नागरिक को किसी भी राज्य द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश करने से वंचित नहीं किया जाएगा या राज्य के फंड से उनके धर्म, जाति, भाषा, या इनमें से कोई संयोजन के आधार पर वित्तीय सहायता से वंचित नहीं किया जाएगा।
- अनुच्छेद 30: अल्पसंख्यक भाषाई और धार्मिक समूह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 द्वारा संरक्षित हैं। उन्हें अपनी इच्छानुसार कोई भी संस्था बनाने और चलाने का अधिकार है।
86वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2002
2002 का 86वां संशोधन अधिनियम संविधान में तीन विशिष्ट प्रावधान जोड़ता है जिससे यह समझना आसान हो जाता है कि 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के पास मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार है। यह संशोधन नागरिकों के शिक्षा के अधिकारों की रक्षा करने और भारत की शैक्षिक चुनौतियों को पहचानने के इरादे से किया गया था।
- भारतीय संविधान के भाग III में अनुच्छेद 21A को जोड़ने के कारण, प्रत्येक बच्चे को औपचारिक (फॉर्मल) विद्यालय में पर्याप्त और समान गुणवत्ता की पूर्णकालिक प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार मिला, जो कुछ मौलिक मानदंडों (नॉर्म) और मानकों का अनुपालन करता है।
- अनुच्छेद 45 की भाषा अनुच्छेद 45 में संशोधन के माध्यम से चली गई क्योंकि इसे इस कथन के साथ बदल दिया गया था कि “राज्य छह साल तक के सभी बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन की देखभाल और मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए काम करेगा”।
- अनुच्छेद 51A में एक नया खंड जोड़ने से माता-पिता या अभिभावकों (गार्जियन) के लिए यह स्पष्ट रूप से अनिवार्य हो जाता है कि वे 6 से 14 वर्ष के बीच के अपने बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करें [अनुच्छेद 51A (k)]।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अधिनियमन के पीछे के कारण
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अधिनियमित होने के पीछे के कारण नीचे दिए गए हैं:
- 1950: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 में इसे राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया था।
- 1968: डॉ. कोठारी को पहले राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का प्रभारी बनाया गया था, जिसने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी जिसमे शिक्षा को एक अधिकार के रूप में प्रस्तुत किया था।
- 1976: शिक्षा को एक समवर्ती मुद्दा बनाने के लिए संविधान में संशोधन (भारतीय संविधान का 42वां संशोधन) किया गया जो केंद्र और राज्य दोनों के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) के अंतर्गत आता है।
- 1986: सामान्य विद्यालय प्रणाली (कॉमन स्कूल सिस्टम) (सी.एस.एस.) को राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एन.पी.ई.) द्वारा समर्थित किया गया था, जिसे हालांकि विकसित तो किया गया था लेकिन व्यवहार में नहीं लाया गया था।
- 1993: मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य (1992) और उन्नी कृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार, शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई थी, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के अंदर आता है।
- 2002: अनुच्छेद 21A को 86वें संशोधन के हिस्से के रूप में संविधान में जोड़ा गया था, जिसने अनुच्छेद 45 को भी बदल दिया और अनुच्छेद 51A (k) के तहत एक नई बुनियादी जिम्मेदारी जोड़ी गई थी।
- 2005: शिक्षा का अधिकार विधेयक (बिल) को डिजाइन करने के लिए गठित केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (सी.ए.बी.ई.) समिति की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी।
- 2009: बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 सामने आया।
बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009
संविधान के अनुच्छेद 21A को प्रभावी बनाने के लिए बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 पारित किया गया था। इसमें यह कहा गया है कि राज्य 6 से 14 साल की उम्र के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा के अधिकार को शामिल करते हुए उन्हें मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा। 2008 में, भारतीय संविधान में संशोधन (86वां संशोधन, 2002) के छह साल बाद, कैबिनेट के द्वारा शिक्षा के अधिकार विधेयक को मंजूरी दी गई थी। मंत्रिमंडल के द्वारा 2 जुलाई, 2009 को इस उपाय को अपनाया गया था। विधेयक को राज्य सभा और लोकसभा दोनों ने क्रमशः 20 जुलाई, 2009 और 4 अगस्त, 2009 को अनुमोदित (अप्रूव) किया था। यह अधिनियम राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करने के बाद 3 सितंबर 2009 को कानून के रूप में अधिसूचित किया गया था। जम्मू और कश्मीर राज्य के अपवाद के साथ, यह कानून, 1 अप्रैल 2010 को पूरे देश में लागू हुआ था। अधिनियम निम्नलिखित के लिए प्रदान करता है:
- 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे को प्राथमिक शिक्षा पूरी होने तक विद्यालयों में मुफ्त, अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रदान किया जाएगा।
- जिन बच्चों ने या तो विद्यालय छोड़ दिया है या अभी तक किसी विद्यालय में नहीं आए हैं, उन्हें विद्यालयों में नामांकित (एनरोल) किया जाएगा, और कोई भी विद्यालय उन्हें स्वीकार करने से मना नहीं कर सकता है।
- आर्थिक रूप से वंचित और समाज के कमजोर वर्गों के विद्यार्थियों को कक्षा एक में प्रवेश देने के लिए, निजी और स्वतंत्र शिक्षण संस्थानों को अपनी 25% सीटों को अलग रखना होगा।
- जन्म, मृत्यु और विवाह पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) अधिनियम 1856 की शर्तों के अनुसार जारी किए गए प्रमाण पत्र के आधार पर या किसी अन्य आवश्यक दस्तावेज के आधार पर विद्यालय में प्रवेश के लिए एक बच्चे की उम्र स्थापित की जानी चाहिए।
- इस अधिनियम के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) की निगरानी राज्य आयोग और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर.) द्वारा की जाएगी।
- निजी गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों को छोड़कर, सभी विद्यालयों की देखरेख के लिए 75% माता-पिता और अभिभावकों की विद्यालय प्रबंधन (मैनेजमेंट) समितियों की आवश्यकता होती है।
- बच्चे की मातृभाषा को उसे निर्देश देने के माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा, और प्रदर्शन मूल्यांकन की एक संपूर्ण और चल रही प्रणाली का उपयोग किया जाएगा।
- कक्षा पहली से पांचवीं तक के शिक्षकों की संख्या :
- प्रवेशित बच्चे (60 तक): आवश्यक शिक्षकों की संख्या 2 है।
- (61-90) के बीच के बच्चे: आवश्यक शिक्षकों की संख्या 3 है।
- (91-120) के बीच के बच्चे: 4 शिक्षकों की आवश्यकता है।
- 150 से अधिक बच्चे: 5 शिक्षक + 1 प्रधान शिक्षक।
9. केंद्र सरकार और प्रत्येक राज्य के बीच वित्तीय (फाइनेंशियल) जिम्मेदारियों का अनुपात (रेश्यो) 55:45 होगा। पूर्वोत्तर राज्य के लिए यह 90:10 रहेगा।
10. इमारत:
- प्रत्येक शिक्षक के लिए कम से कम एक कक्षा और एक कार्यालय-सह-भंडार (स्टोर)-सह-प्रधान शिक्षक कक्ष भी होना चाहिए।
- लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग शौचालय होने चाहिए।
- एक रसोई जहां मध्याह्न भोजन तैयार किया जाएगा, होना चाहिए।
- एक खेल का मैदान भी होना चाहिए।
- सुरक्षित एवं पर्याप्त पेयजल की सुविधा भी उपलब्ध होनी चाहिए।
11. कार्य दिवसों की न्यूनतम संख्या:
- 1-5वीं कक्षा के लिए 200 कार्य दिवस होने चाहिए।
- 6-8वीं कक्षा के लिए 220 कार्य दिवस होने चाहिए।
12. निर्देशात्मक (इंस्ट्रक्शनल) घंटे:
- पहली-पांचवीं कक्षा के लिए प्रति शैक्षणिक वर्ष 800 शिक्षण घंटे होने चाहिए।
- 6वीं-8वीं कक्षा के लिए प्रति शैक्षणिक वर्ष में 1000 शिक्षण घंटे होने चाहिए।
13. यह अधिनियम प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकालयों की उपस्थिति को अनिवार्य करता है, जहां समाचार पत्र, पत्रिकाएं और किताबें प्रदान की जानी चाहिए।
14. आर.टी.ई. अधिनियम के अनुसार, “पड़ोस के निर्धारित क्षेत्र या सीमाओं” के भीतर रहने वाले बच्चों की प्राथमिक विद्यालयों तक पहुंच होनी चाहिए:
- 1 कि.मी. के भीतर प्राथमिक विद्यालय।
- 3 कि.मी. के भीतर प्रारंभिक विद्यालय।
15. यह अधिनियम 18 वर्ष की आयु तक विकलांग आबादी के शिक्षा के अधिकार को स्थापित करता है।
16. यह अधिनियम शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह के शोषण, भर्ती किए जा रहे युवाओं की स्क्रीनिंग की प्रक्रिया, प्रतिव्यक्ति (कैपिटेशन) लागत, निजी शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षकों और अनुमति के बिना विद्यालयों के संचालन पर रोक लगाता है।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 की विशेषताएं
सभी के लिए अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा प्रदान करना
भारत में, सरकार को 1 कि.मी. के दायरे में पड़ोस के विद्यालय में कक्षा 8 तक के प्रत्येक बच्चे को मुफ्त और आवश्यक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता है। किसी भी बच्चे को ऐसा कोई शुल्क या अन्य लागत का भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है जो उन्हें अपनी प्रारंभिक शिक्षा को आगे बढ़ाने और पूरा करने से रोकता है। विद्यालय के खर्चों के वित्तीय बोझ को कम करने के लिए, मुफ्त शिक्षा में विकलांग छात्रों के लिए पाठ्यपुस्तकों, कपड़े, स्टेशनरी का सामान और विशेष शैक्षिक सामग्री का वितरण भी शामिल है।
विशेष मामलों के लिए विशेष प्रावधान
आर.टी.ई. अधिनियम के अनुसार, जिन बच्चों को विद्यालय में नामांकित नहीं किया गया हैं, उन्हें उनकी उम्र के हिसाब से उस विशेष कक्षा में स्वीकार किया जाना चाहिए और उन्हें उम्र के अनुकूल सीखने के स्तर तक पहुंचने में मदद करने के लिए अतिरिक्त निर्देश प्राप्त करना चाहिए।
बेंचमार्क जनादेश (मैंडेट)
आर.टी.ई. अधिनियम अन्य बातों के अलावा कक्षाओं, लड़कों और लड़कियों के शौचालय, पीने के पानी की सुविधा, विद्यालय के दिनों की संख्या और शिक्षकों के लिए काम करने के घंटों के लिए दिशानिर्देश और आवश्यकताएं स्थापित करता है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत आवश्यक न्यूनतम मानकों को बनाए रखने के लिए आवश्यकताओं के इस संग्रह का पालन, भारत में प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय (प्राथमिक + मध्य विद्यालय) द्वारा किया जाना चाहिए।
शिक्षकों की मात्रा और गुणवत्ता (क्वालिटी)
आर.टी.ई. अधिनियम यह सुनिश्चित करता है कि हर विद्यालय में बिना किसी शहरी-ग्रामीण असंतुलन के आवश्यक छात्र-शिक्षक अनुपात बनाए रखा जाना चाहिए, जिससे शिक्षक समझदारी से तैनाती हो सके। इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम के तहत आवश्यक शैक्षणिक और व्यावसायिक प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) रखने वाले शिक्षकों की भर्ती की आवश्यकता होती है।
भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ बिलकुल सहनशक्ति नहीं
2009 का आर.टी.ई. अधिनियम सभी प्रकार के शारीरिक दंड और मनोवैज्ञानिक शोषण के साथ-साथ लिंग, जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर भेदभाव के साथ-साथ प्रतिव्यक्ति शुल्क, निजी शिक्षण सुविधाओं और गैर-मान्यता प्राप्त विद्यालयों के संचालन को प्रतिबंधित करता है। शिक्षा का अधिकार (आर.टी.ई.) फोरम की स्टॉकटेकिंग रिपोर्ट, 2014 के अनुसार, देश भर में 10% से कम विद्यालय शिक्षा के अधिकार अधिनियम की सभी आवश्यकताओं का पालन करते हैं। भले ही 2009 के शिक्षा का अधिकार अधिनियम ने बहुत प्रगति की हो, शिक्षा के निजीकरण (प्राइवेटाइजेशन) की चिंता अभी भी मौजूद है। भारत में शिक्षा में असमानता लंबे समय से कायम है। हालांकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम भारत में एक समावेशी (इन्क्लूसिव) शिक्षा प्रणाली की दिशा में पहला कदम है, लेकिन इसका सफल कार्यान्वयन अभी भी कठिनाइयाँ प्रस्तुत करता है।
निरोध (डिटेंशन) को कम करने के लिए सीखने के परिणामों में सुधार
शिक्षा का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, किसी भी बच्चे को कक्षा 8 तक विद्यालय से निकलने या निष्कासित (एक्सपेल) करने की अनुमति नहीं है। विद्यालयों में प्रत्येक ग्रेड के लिए स्वीकार्य सीखने के परिणामों की गारंटी के लिए, शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत 2009 में सतत व्यापक मूल्यांकन (कंटीन्यूअस कॉम्प्रिहेंसिव इवेल्यूएशन) (सी.सी.ई.) प्रणाली बनाई गई थी। यह दृष्टिकोण बच्चे के हर क्षेत्र की जांच करने के लिए स्थापित किया गया था, जब वे विद्यालय में है, ताकि कमियों को जल्द से जल्द ढूंढा जा सके और संबोधित किया जा सके।
आर.टी.ई. मानदंडों के अनुपालन की निगरानी
प्राथमिक शिक्षा में शासन और सहभागी (पार्टिसिपेट्री) लोकतंत्र को बढ़ाने के लिए विद्यालय प्रबंधन समितियां (एस.एम.सी.) आवश्यक हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के तहत आने वाले सभी विद्यालयों को प्रिंसिपल, स्थानीय निर्वाचित (इलेक्टेड) अधिकारी, माता-पिता और अन्य समुदाय के सदस्यों से मिलकर एक विद्यालय प्रबंधन समिति बनाने की आवश्यकता है। समितियों को विद्यालय विकास योजना स्थापित करने और विद्यालयों के संचालन की निगरानी करने का अधिकार दिया जाता है।
बच्चों का सर्वांगीण (ऑल राउंड) विकास सुनिश्चित करना
2009 का शिक्षा का अधिकार अधिनियम एक ऐसे पाठ्यक्रम के निर्माण की बात करता है जो प्रत्येक बच्चे के समग्र विकास की गारंटी देता हो। क्योंकि एक व्यक्ति के रूप में बच्चे के ज्ञान और क्षमताओं का विकास करना जरूरी है।
शिक्षा का अधिकार कानून न्यायोचित (जस्टिशिएबल) है
शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 कानूनी रूप से लागू करने योग्य है, और यह एक शिकायत निवारण (जी.आर.) ढांचे द्वारा समर्थित होता है जो किसी को भी इसके प्रावधानों के उल्लंघन के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने में सक्षम बनाता है। ऑक्सफैम इंडिया और जोश ने 2011 में केंद्रीय सूचना आयोग (सेंट्रल इनफॉर्मेशन कमिशन) (सी.आई.सी.) में सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 4 के तहत शिकायत दर्ज कराई थी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी विद्यालय इस आवश्यकता का पालन करते हैं। सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों को व्यक्तियों के साथ सूचना साझा करने की आवश्यकता है कि वे आर.टी.आई. अधिनियम की धारा 4 के तहत कैसे काम करते हैं, जो एक सक्रिय प्रकटीकरण (प्रोएक्टिव डिस्क्लोजर) धारा है। चूंकि सार्वजनिक प्राधिकरणों में विद्यालय शामिल होते हैं, इसलिए धारा 4 के अनुपालन की आवश्यकता थी।
सभी के लिए समावेशी (इंक्लूसिव) स्थान बनाना
शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार, सभी निजी विद्यालयों को सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित क्षेत्रों के बच्चों के लिए अपनी 25% सीटों को अलग रखना चाहिए। सामाजिक समावेश को बढ़ावा देने वाले अधिनियम के खंड का उद्देश्य अधिक न्यायसंगत और न्यायपूर्ण समाज बनाना है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21A और अनुच्छेद 30(1) के बीच विवाद
अनुच्छेद 21A और 30(1) दोनों अनिवार्य रूप से शिक्षा के अधिकार के बारे में बात करते हैं, हालांकि वे इस अधिकार के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाते हैं। प्रत्येक बच्चे को एक व्यक्ति के रूप में अनुच्छेद 21A के तहत अधिकार प्रदान किया जाता है जबकि अल्पसंख्यकों को सामूहिक अधिकार के रूप में अनुच्छेद 30(1) के तहत अधिकार प्रदान किया जाता है। यह निर्धारित करना महत्वपूर्ण है कि दो हिस्से कहाँ एक दूसरे के पूरक (कॉम्प्लीमेंटरी) हैं, कहाँ वे एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा (कॉन्ट्रेडिक्ट) कर रहे हैं या एक दूसरे का विरोध कर रहे हैं, और किस हद तक वह ऐसा कर रहे है।
रे केरल शिक्षा विधेयक (1958), सेंट जेवियर कॉलेज बनाम गुजरात राज्य (1974), सेंट स्टीफन कॉलेज बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय (1991), टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य (2002) और इस्लामिक अकादमी की शिक्षा बनाम कर्नाटक राज्य (2003), जैसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने कई मौकों पर अनुच्छेद 30 (1) द्वारा गारंटीकृत अधिकार की प्रकृति पर चर्चा की है।
प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ (बेंच) ने केवल इस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित किया कि क्या सहायता प्राप्त या गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को ‘सभी’ यानी की देश में 25% छात्रों को ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ प्रदान करने की आवश्यकता है। हालाँकि, हर बार यह मुद्दा केवल उस सीमा से संबंधित होता है, जिस सीमा तक विभिन्न सरकारी नियम अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को ‘प्रशासित’ करने के अधिकार में प्रवेश करते हैं। हालांकि, अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को ‘बनाने’ के अधिकार पर ध्यान नहीं दिया गया था। अल्पसंख्यक समूह शैक्षणिक संस्थान कैसे बना सकते हैं, इस पर कभी भी उतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना वह पाने का हकदार है।
भारत में प्रत्येक बच्चे को, जाति, वर्ग, पंथ (क्रीड) या धर्म की परवाह किए बिना, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21A के तहत प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार है। प्रत्येक बच्चे को अधिकार प्रदान किया जाता है जिसे उससे छीना नहीं जा सकता है क्योंकि छूट का विचार अक्सर मौलिक अधिकारों पर लागू नहीं होता है। हालाँकि, क्योंकि 6 से 14 वर्ष की आयु के नाबालिग बच्चे अनुच्छेद 21A के केंद्र बिंदु हैं, इसलिए बच्चों के शिक्षा के अधिकार को बनाए रखने के लिए राज्य का और भी अधिक दायित्व बनता है। अनुच्छेद 21A द्वारा गारंटीकृत शिक्षा के अधिकार का प्रकार प्राथमिक स्तर की मौलिक शिक्षा है और यह 2009 के अधिनियम की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता भी है। इस अधिकार का इरादा, किसी भी प्रकार की धार्मिक या विशिष्ट शिक्षा होने का नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने केरल शिक्षा विधेयक (1958) के मामले में यह निर्धारित किया था कि अनुच्छेद 30(1) कहता है और इसका अर्थ यह है कि भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान खोलने की अनुमति दी जानी चाहिए। इन शैक्षिक संस्थानो में जिन विषयों को पढ़ाया जा सकता है, उन्हे किसी भी तरह से विवश नहीं किया जा सकता हैं। इस तथ्य के कारण कि, अल्पसंख्यक लोग आमतौर पर अपने बच्चों को प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाना चाहते हैं, उन्हें उच्च शिक्षा के लिए योग्यता प्राप्त कराना चाहते हैं, और उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए आवश्यक बौद्धिक कौशल (इंटेलेक्चुअल स्किल) के साथ दुनिया में भेजना चाहते हैं, इसलिए उनकी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों में अनिवार्य रूप से धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) सामान्य शैक्षणिक संस्थान भी शामिल होंगे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, यह अनुच्छेद अल्पसंख्यकों पर इस बात को छोड़ देता है कि वे ऐसे शैक्षणिक संस्थानों का चयन करें जो उनके धर्म, भाषा या संस्कृति के संरक्षण के लिए उद्देश्यों की पूर्ति करेंगे।
ध्यान रखने वाली अगली बात यह है कि यह अनुच्छेद स्पष्ट रूप से सभी अल्पसंख्यकों, चाहे वे भाषा या धर्म पर आधारित हों, को दो अधिकार प्रदान करता है, अर्थात् शैक्षणिक संस्थान बनाने का अधिकार और अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान चलाने का अधिकार। यह स्पष्ट रूप से बताया जा सकता है कि संविधान में कोई विशिष्ट सीमाएँ नहीं हैं, लेकिन दस्तावेज़ की कानूनी व्याख्या ने अभी तक एक बाध्यकारी निर्णय नहीं बनाया है जिसके लिए अल्पसंख्यकों को ऐसे संस्थान स्थापित करने की आवश्यकता है जो दोनों उद्देश्यों को पूरा कर सकें।
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह धारणा बनाई (2002) गई थी कि अधिकांश अल्पसंख्यक लोग चाहते हैं कि उनके बच्चों को सम्मानजनक नागरिकों के रूप में विकसित करने के लिए उन्हे धर्म और आधुनिक शिक्षा दोनों मिले। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ सम्मानित सलाह के अनुरूप नहीं थीं। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का स्थानीय स्तर पर अमल नहीं किया जा रहा है।
यह स्पष्ट है कि कुछ समय पहले तक, महाराष्ट्र सरकार के आदेश में कहा गया था कि मदरसे गैर-विद्यालयों के रूप में पारंपरिक पाठ्यक्रम (कन्वेंशनल कोर्स) नहीं पढ़ाते हैं, इसलिए मदरसों को महाराष्ट्र में शैक्षणिक संस्थान माना जाता था। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के साथ साथ कई अन्य राज्य भी इसी तरह की स्थिति का सामना कर रहे हैं। अनुच्छेद 21A के उद्देश्य, जो की बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान करना सुनिश्चित करना है, का उल्लंघन राज्य की ऐसी शैक्षिक सुविधाओं को विद्यालयों के रूप में मान्यता प्रदान करने से होता है। प्रत्येक बच्चे को अपने व्यक्तित्व और बुद्धि के लिए आधारभूत कार्य (ग्राउंडवर्क) प्रदान करने के लिए, कम से कम 12 वर्षों के लिए मौलिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है।
भारत में कई इस्लामिक संप्रदाय (सेक्ट) इन मदरसों का संचालन (ऑपरेट) करते हैं, जो सभी पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड) के छात्रों को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा और धार्मिक शिक्षा दोनों प्रदान करते हैं। हालाँकि, भारत में कुछ इस्लामी धार्मिक समूहों का दावा है कि मदरसे अन्य समूहों के छात्रों को प्रवेश से वंचित करते हैं क्योंकि उनका उद्देश्य केवल इस्लामी धार्मिक विशेषज्ञ (एक्सपर्ट) तैयार करना है। अल्पसंख्यक लोगो के द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों के रूप में उनकी स्थिति के परिणामस्वरूप, इन संगठनों को राज्य से वित्तीय सहायता प्राप्त होती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 (2) के तहत कहा गया है कि भारत के किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा प्रबंधित शैक्षणिक संस्थानों या जो शैक्षणिक संस्थान राज्य से धन प्राप्त करते हैं, उन में प्रवेश से वंचित नहीं किया जा सकता है, और इसलिए उपरूक्त अल्पसंख्यक विद्यालय स्पष्ट रूप से इस प्रावधान के उल्लंघन में काम कर रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा 2014 में प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम भारत संघ के मामले में फैसला सुनाया गया कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के द्वारा, अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को ‘सभी’ को ‘मुफ्त’ और ‘बाध्य’ शिक्षा प्रदान करने के राज्य के लक्ष्य को बनाए रखने के लिए अन्य समुदायों के छात्रों को प्रवेश देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। हालांकि, अदालत ने फिर से पुष्टि की कि राज्य सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों सहित सभी शैक्षणिक संस्थानों को प्रभावित करने के लिए नियामक (रेगुलेटरी) उपायों का उपयोग कर सकता है। प्रमति के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले के फैसलों को बरकरार रखा, जिसमें कहा गया था कि सहायता प्राप्त या गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थान को “शैक्षिक संस्थान” के रूप में नामित करने के लिए आवश्यक नियामक उपायों के अधीन हो सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के विचार, जिन्हें ऊपर संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है, यह स्पष्ट रूप से बताते हैं कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 (1) द्वारा धार्मिक अल्पसंख्यकों को दिए गए अधिकार अयोग्य नहीं हैं। हमारे संविधान के मौलिक और मार्गदर्शक आदर्श, जैसे समानता और धर्मनिरपेक्षता, इस अधिकार को नियंत्रित करते हैं। इसलिए, इस तरह के नियामक उपायों को संवैधानिक रूप से अनुमति दी जाती है यदि वे उन विद्यालयों में लागू होते हैं जो सभी धर्मों से जुड़े होते हैं ताकि विद्यार्थियों को दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा की गुणवत्ता की जांच की जा सके। इस दृष्टिकोण में, बच्चों के व्यक्तिगत अधिकारों और अल्पसंख्यक आबादी के सामूहिक अधिकारों दोनों की सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनियस) व्याख्या करना संभव है, जो पूरे राष्ट्र के लिए फायदेमंद हो सकता है। इस प्रकार, सभी धर्मों की संस्थाएं जो केवल 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करती हैं, उन्हें पूरी तरह से गैरकानूनी घोषित कर दिया जाना चाहिए क्योंकि वे अनुच्छेद 21 A की गारंटी का उल्लंघन कर रहे हैं कि बच्चों को बुनियादी शिक्षा का अधिकार है।
भारत में लड़कियों के लिए शिक्षा का समर्थन करने की आवश्यकता
मानव पूंजी सिद्धांत (ह्यूमन कैपिटल थ्योरी) की गहन जांच के अनुसार, प्रति श्रमिक कारक उत्पादन बढ़ाकर, शिक्षा अर्थव्यवस्था (इकोनॉमी) की उत्पादकता (प्रोडक्टिविटी) को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती है। दीर्घकालिक (लॉन्ग टर्म) आर्थिक विकास की योजनाएँ शिक्षा और मानव संसाधनों (रिसोर्सेज) के विकास पर केन्द्रित होती हैं। असंरक्षित और असुरक्षित महसूस करने वाली लड़कियां भी विद्यालय जाना बंद कर देती हैं। लड़के दोपहर में विद्यालय जाते हैं जबकि लड़कियां सुबह विद्यालय जाती हैं। सीनियर छात्र अक्सर कहते हैं कि लड़के विद्यालय के बाद घर जाकर उनका पीछा करते हैं, उन्हें छेड़ा जाता है। उत्तेजना के कारण इस तरह की घटनाओं के बारे में कई शिकायतों में, लड़कियों के विद्यालय से बाहर निकलने पर पुलिस अधिकारियों को गश्त (पेट्रोलिंग) के लिए नियुक्त किया गया था। हालांकि, जैसे ही कम पुलिस अधिकारी होते थे, लड़के लड़कियों को परेशान करना शुरू कर देते थे। क्योंकि उनके माता-पिता सोचते हैं कि अब उनकी बेटियों को विद्यालय भेजना सुरक्षित नहीं है, इसलिए कई लड़कियां अंततः पढ़ाई छोड़ देती हैं। पुलिस और एस.एम.सी. सदस्यों को बार-बार रिपोर्ट करने के बावजूद यह समस्या बनी हुई है।
एक सुशिक्षित महिला आने वाली पीढ़ियों के लिए शिक्षा के मूल्य को समझकर अपने बच्चों को एक बेहतर जीवन शैली और बेहतर स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच प्रदान कर सकती है। इसके अलावा, लड़कियों को शिक्षित करने से शिशु और मातृ मृत्यु दर, बाल विवाह और घरों में घरेलू और यौन शोषण की दर में काफी कमी आएगी। उच्च शिक्षा प्राप्त लड़की के राजनीतिक बहसों, बैठकों और निर्णय लेने में भी भाग लेने की अधिक संभावना होती है जिसके परिणामस्वरूप एक अधिक लोकतांत्रिक और प्रतिनिधि सरकार का निर्माण होता है।
एन.सी.पी.सी.आर. द्वारा निजी और सार्वजनिक दोनों विद्यालयों में बच्चों के स्वास्थ्य, स्वच्छता और सुरक्षा के लिए नए मानक जारी किए गए हैं। नई सिफारिशें इस बात पर जोर देती हैं कि लड़कियों को मासिक धर्म स्वच्छता के बारे में जानने और मदद प्राप्त करने की आवश्यकता है ताकि वे कक्षा न छोड़ें। इसके अतिरिक्त, वे कहते हैं कि बाल यौन शोषण से जुड़े किसी भी मुद्दे के लिए विद्यालयों में शून्य-सहिष्णुता (जीरो टॉलरेंस) की नीति होनी चाहिए और कानून तोड़ने वालों को कठोर सजा का सामना करना पड़ेगा।
क्या अनुच्छेद 21A मातृभाषा में शिक्षा के अधिकार की गारंटी देता है?
राजस्थान उच्च न्यायालय ने विद्यालय विकास प्रबंधन बनाम राजस्थान राज्य (2022) के एक ऐतिहासिक निर्णय में मुफ्त और प्राथमिक शिक्षा के अधिकार पर विचार करते हुए कहा कि संविधान का अनुच्छेद 21 A किसी की “मातृभाषा या घरेलू भाषा” मे उसके “शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार” सुनिश्चित नहीं करता है। हालाँकि, न्यायमूर्ति दिनेश मेहता की अध्यक्षता वाली एकल न्यायाधीश की पीठ ने फैसला सुनाया कि राजस्थान सरकार का जोधपुर जिले के पीलवा में श्री हरि सिंह सरकारी वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय को सितंबर 2021 में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में बदलने का निर्णय अमान्य है क्योंकि यह संविधान का अनुच्छेद 19 (1) जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है का उल्लंघन करता है। विद्यालय विकास प्रबंधन समिति (एस.डी.एम.सी.) और विद्यालय के बच्चों के माता-पिता ने राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की थी, जिसने उसके बाद अपना फैसला सुनाया।
मामले के तथ्य
अदालत के समक्ष यह तर्क दिया गया था कि एक सत्र (सेशन) के बीच में शैक्षिक माध्यम को बदलना छात्रों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है और यह संविधान के खिलाफ है। बच्चों के माता-पिता ने जोर देकर कहा कि उन्होंने “वर्तमान संस्था के पूर्ण रूपांतरण” का विरोध किया है, जो केवल अंग्रेजी को शिक्षा की भाषा के रूप में रखने की सोच रहा था। उन्होंने दावा किया कि अचानक बदलाव से छात्रों को शैक्षणिक सत्र के दौरान दूसरे विद्यालयों में दाखिला लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जिसका असर उनके अकादमिक प्रदर्शन पर पड़ेगा।
राजस्थान राज्य सरकार ने जोर देकर कहा कि छात्र हिंदी को दूसरी भाषा के रूप में पेश करने वाले विभिन्न सरकारी संस्थानों में दाखिला ले सकते हैं। प्रशासन ने तर्क दिया कि 5,000 से अधिक लोगों की आबादी वाले समुदाय में एक अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय की नीति पसंद का हवाला देते हुए ऐसा निर्णय स्वीकार्य था। हालांकि, प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधानों की समीक्षा (रिव्यू) के बाद, उच्च न्यायालय के दायर तर्क को खारिज कर दिया गया था।
हालाँकि, याचिकाकर्ताओं का तर्क यह था कि अनुच्छेद 21A हिंदी में शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार की रक्षा करता है, जिसे राजस्थान उच्च न्यायालय के द्वारा खारिज कर दिया गया था। अदालत ने 2014 के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला दिया (कर्नाटक राज्य और अंग्रेजी माध्यम के प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों के एसोसिएटेड मैनेजमेंट और अन्य (2022)) जिसने यह मानते हुए एक समान व्यवहार किया था कि इस अनुच्छेद के तहत दिए गए शब्द पूर्ण नहीं है और यह राज्य को ‘कानून द्वारा’ शिक्षा का माध्यम चुनने की अनुमति देता है। संविधान के अनुच्छेद 21 A के तहत जो प्रदान किया गया है, उसके अनुसार, “कोई भी बच्चा या बच्चों के माता-पिता यह अधिकार के मामले में दावा नहीं कर सकते हैं कि उसे/उनके बच्चे को किसी विशेष भाषा या मातृभाषा में ही प्रशिक्षित किया जाना चाहिए,” और यह वर्तमान मामले में न्यायालय द्वारा देखा गया था।
राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा निर्णय और विश्लेषण (एनालिसिस)
- शिक्षा का अधिकार, अनुच्छेद 19 (1) (A) का एक हिस्सा है, जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, और न्यायालय के द्वारा स्वीकार किया गया है कि यह नहीं कहा जा सकता है कि यह कहा नही जा सकता है की यह किसी भी मौलिक अधिकार द्वारा संरक्षित नहीं है। खंडपीठ ने तब अनुच्छेद 19 (2) द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को देखा, और यह निष्कर्ष निकाला कि इस मामले में राज्य सरकार का निर्णय, जो पूरी तरह से प्रशासनिक था, वह अनुच्छेद 19 (2) द्वारा परिभाषित “उचित प्रतिबंध” का गठन नहीं करता है।
- न्यायालय के अनुसार, खंड (2) का उपयोग केवल “भारत की संप्रभुता (सोवरेंटी) और अखंडता (इंटीग्रिटी), राज्य की सुरक्षा, विदेशी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता (डिसेंसी) या नैतिकता (मॉरलिटी), या अदालत की अवमानना (कॉन्टेप्ट ऑफ़ कोर्ट), मानहानि (डिफेमेशन), या अपराध करने के लिए उकसाना के हित में किया जा सकता है।” इस प्रकार, राज्य सरकार का निर्णय अनुच्छेद 19 (1) (A) के तहत हिंदी में शिक्षा प्राप्त करने के बच्चे के अधिकार को कम नहीं कर सकता है।
- अदालत के द्वारा यह भी कहा गया कि यह “601 बच्चों को, कलम के एक झटके से इस विश्वास के साथ बाहर निकालना कानून के खिलाफ था कि उन्हें पड़ोसी विद्यालयों में समायोजित (एकोमोडेट) किया जाएगा।” राज्य सरकार का निर्णय भी अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा, जो समानता के अधिकार की गारंटी देता है, क्योंकि यह बिना किसी सबूत या बोधगम्य मानकों (कॉम्प्रिहेंसिबल स्टैंडर्ड) का उपयोग किए बिना बनाया गया था। न्यायालय ने यह भी बताया कि संविधान की समवर्ती सूची (कंकर्रेंट लिस्ट), जिसमें कुछ ऐसे विषय वस्तु शामिल हैं, जिन पर केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों को कानून बनाने का अधिकार है, यह शिक्षा को शामिल करता है।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अनुसार, “शिक्षण की भाषा, व्यावहारिक हद तक, मातृभाषा या घरेलू भाषा में होना चाहिए।” न्यायमूर्ति मेहता ने कहा कि इसके आलोक में, “शिक्षा की भाषा के रूप में अंग्रेजी को राज्य के कानून द्वारा एक बच्चे पर लागू नहीं किया जा सकता है, नीति या प्रशासनिक निर्णय से बहुत कम, जैसा कि वर्तमान में है ।”
उन्होंने कहा कि इस तरह का बदलाव आर.टी.आई. अधिनियम के नियमों और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का भी उल्लंघन होगा। एस.डी.एम.सी. ने माना कि विद्यालय निम्नलिखित शैक्षणिक सत्र में कुछ बदलावों के साथ आगे बढ़ सकता है, बशर्ते कि अधिकांश एस.डी.एम.सी. सदस्यों ने इस तरह के कदम को मंजूरी दे दी हो, इस तथ्य के बावजूद कि नीतिगत निर्णय स्वयं नहीं लिया गया था और यह की एस.डी.एम.सी. ने सैद्धांतिक रूप से निर्णय का समर्थन किया था।
5. अदालत ने शैक्षणिक वर्ष के मध्य में एक अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में रूपांतरण को “राज्य की शक्ति का अपमान” बताते हुए याचिका को खारिज कर दिया, जिसका अर्थ है कि यह राज्य की शक्ति से बाहर है।
भारतीय न्यायपालिका और भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21A
मानव विकास में सबसे महत्वपूर्ण निवेश शिक्षा है, जो एक समान और न्यायपूर्ण समाज बनाने और आर्थिक समृद्धि को बढ़ावा देने का एक उपकरण भी है। सरकार ने नागरिकों के शिक्षा के अधिकार के प्रचार और बचाव के लिए कई राष्ट्रीय संस्थानों की भी स्थापना की है। शिक्षा की गतिशील प्रक्रिया बच्चे के जन्म से ही शुरू हो जाती है। सामाजिक आर्थिक प्रगति की नींव और समाज का आईना शिक्षा है।
एक सफल लोकतांत्रिक समाज और शासन का मूलभूत (फाउंडेशनल) घटक शिक्षा है। यह समाज की बुराइयों को मिटाने के लिए राष्ट्र को एक नई दृष्टि और दिशा प्रदान करता है। एक मौलिक और मानव अधिकार दोनों, शिक्षा शांति के साथ-साथ बुनियादी स्वतंत्रता के सम्मान को प्रोत्साहित करती है। मानव संसाधन के विकास में शिक्षा प्राथमिक कारक है क्योंकि यह इसे प्राप्त करने वालों के कौशल, प्रभावशीलता, उत्पादकता और सामान्य जीवन स्तर में सुधार करता है। इसके आलोक में, प्रारंभिक शिक्षा को सार्वभौमिक (यूनिवर्सल) बनाने से राज्य के लिए अब 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और आवश्यक शिक्षा प्रदान करना आवश्यक हो गया है।
भारतीय संविधान में उच्च शिक्षा के अधिकार का विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। हालाँकि, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के वर्षों में उत्पन्न हुए कई जनहित याचिका मामलों में इस मुद्दे को संबोधित किया है। उन्नी कृष्णन जे.पी. बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) और मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य (1992) शिक्षा के अधिकार से संबंधित दो सबसे महत्वपूर्ण निर्णय हैं, जिनकी चर्चा यहां की गई है। इस तथ्य के बावजूद कि अनुच्छेद 21A अभी भी अपेक्षाकृत (रिलेटिवली) रूप से नया है, इसके दायरे और महत्व पर पहले से ही कुछ सीमित अदालती टिप्पणियां दी गई हैं।
नीचे दिए गए मामले के विस्तृत विश्लेषण न करके, अनुच्छेद 21A के आवेदन को समझने के लिए मामले के अनुपात (रेश्यो) का एक संक्षिप्त संस्करण (वर्जन) दिया गया है।
मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य (1992)
इस उदाहरण में, मेरठ की मूल निवासी, मिस मोहिनी जैन ने 1991 में शुरू होने वाले सत्र में कर्नाटक राज्य के एक निजी मेडिकल कॉलेज में एम.बी.बी.एस. कार्यक्रम में प्रवेश के लिए आवेदन किया था। कॉलेज प्रशासन ने उसे पहले वर्ष के शिक्षण शुल्क के रूप में 60000 रुपये की राशि जमा करने के साथ-साथ अगले वर्ष के लिए शुल्क के बराबर राशि के लिए बैंक गारंटी जमा करने को भी बोला। प्रबंधन (मैनेजमेंट) ने मिस जैन को उनके पिता से यह सुनने के बाद मेडिकल कॉलेज में प्रवेश देने से मना कर दिया कि अनुरोध की गई राशि उनकी वित्तीय क्षमताओं से परे थी। अदालत में गवाही देने वाली मिस जैन के अनुसार, प्रशासन कथित तौर पर 450000/- रुपये का अतिरिक्त शुल्क चाहता था, लेकिन प्रबंधन ने इस तरह के दावे से इनकार कर दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में यह फैसला सुनाया कि भले ही शिक्षा के अधिकार को संविधान द्वारा मौलिक अधिकार के रूप में संरक्षित नहीं किया गया है, लेकिन यह संविधान की प्रस्तावना और निदेशक सिद्धांतों से स्पष्ट है कि राज्य का उद्देश्य उसके नागरिकों को शिक्षा प्रदान करना था। इसके अतिरिक्त, उन्होंने फैसला सुनाया कि निजी शैक्षणिक संस्थानों के प्रतिव्यक्ति शुल्क के संग्रह (कलेक्शन) ने शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन किया है जो कि जीवन के अधिकार, मानव गरिमा (ह्यूमन डिग्निटी) और कानून के तहत समान संरक्षण द्वारा निहित है।
उन्नी कृष्णन, जे.पी. और अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993)
इस मामले में कुछ निजी व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों द्वारा लगाए गए प्रतिव्यक्ति शुल्क को नियंत्रित करने वाले राज्य के नियमों की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी।
राज्य के कानूनों को चुनौती देने के लिए निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा की गई याचिकाओं के माध्यम से मामले को सारगर्भित (सब्सटेंस) किया जाता है। तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों के द्वारा प्रतिव्यक्ति शुल्क राशि को नियंत्रित करने के लिए यह राज्य कानून बनाया गया था। इन कानूनों में कहा गया है कि प्रबंधन कर्मचारियों द्वारा प्राप्त किसी भी अतिरिक्त शुल्क को प्रतिव्यक्ति शुल्क माना जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 39 (e) और (f) के लिए आवश्यक सुविधाओं और अवसरों की पेशकश करने और अभाव और गंदगी के कारण उनके बचपन के शोषण से बचने के लिए राज्य की जिम्मेदारी होगी।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, इस अनुच्छेद को जब शिक्षा पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करने वाले निदेशक सिद्धांतों के संबंध में पढ़ा जाता है, तो जीवन का मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21) शिक्षा के न्यूनतम स्तर के अधिकार को भी दर्शाता है। अदालत के द्वार फैसला सुनाया गया कि इस अधिकार के दायरे को राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के आलोक में समझा जाना चाहिए, जिसमें अनुच्छेद 45 भी शामिल होता है, जिसमें कहा गया है कि राज्य के द्वारा 14 साल से कम उम्र के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने निर्धारित किया कि अनुच्छेद 21 शिक्षा के मौलिक अधिकार को स्थापित नहीं करता है जिससे पेशेवर डिग्री प्राप्त होती है। हालांकि, यह निर्णय लिया गया था कि संविधान के अधिनियमन (इनैक्टमेंट) के 44 वर्षों के बाद शिक्षा के संबंध में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के गैर-प्रवर्तनीय (नॉन एनफोर्सेबल) अधिकार को कानूनी दायित्व में बदल दिया गया है। 14 वर्ष की आयु के बाद, उनका शिक्षा का अधिकार राज्य की आर्थिक क्षमता और विकास के स्तर (अनुच्छेद 41 के अनुसार) द्वारा प्रतिबंधित होता है।
न्यायालय के द्वारा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा (इंटरनेशनल कॉवेनेंट ऑन इकोनॉमिक, सोशल एंड कल्चरल राइट्स) के अनुच्छेद 13 का हवाला दिया गया, जब उसने कहा कि राज्य को उच्च शिक्षा प्रदान करने के अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए, अपने सभी संसाधनों का यथासंभव रूप से पूर्ण उपयोग करना चाहिए, ताकि शिक्षा के लिए प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार को धीरे-धीरे महसूस किया जा सके।
उन्नी कृष्णन के मामले में, अदालत ने मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य (1992) के फैसले से असहमति जताई कि संविधान सभी स्तरों पर शिक्षा के अधिकार की गारंटी देता है। उन्नी कृष्णन में संवैधानिक बेंच के फैसले के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की कि एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य और अन्य (1996) के मामले में अनुच्छेद 45 को अब मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है।
अदालत ने आगे फैसला सुनाया कि संविधान के भाग III में एक अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्पष्ट रूप से पहचानने की आवश्यकता नहीं है, ताकि यह कहा जा सके कि “भाग III और भाग IV के प्रावधान एक दूसरे के परिशिष्ट (सप्लीमेंट) और पूरक हैं।” न्यायालय इस बात से असहमत था कि भाग IV में व्यक्त नैतिक मांगें और आकांक्षाएं भाग III के प्रावधानों में परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) अधिकारों से बेहतर हैं।
इस घोषणा के नौ साल बाद, राज्य ने संविधान में अनुच्छेद 21 A जोड़कर एक प्रतिक्रिया की, जो 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को शिक्षा के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है। इसके अतिरिक्त, कई भारतीय राज्यों द्वारा बुनियादी शिक्षा को अनिवार्य करने वाले कानून को अपनाया गया है। हालांकि, कई प्रशासनिक और वित्तीय प्रतिबंधों, सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक कारणों और अन्य कारकों के वजह से, इन कानूनों को “लागू नहीं किया गया है।” इसलिए, कोई राष्ट्रीय कानून नहीं है जिसमें बच्चों को प्राथमिक विद्यालय में भाग लेने की आवश्यकता हो।
अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ और अन्य (2008)
अशोक कुमार ठाकुर मामले (2008) में न्यायमूर्ति भंडारी की राय, संभवतः हाल के दशक या उससे अधिक समय में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया सबसे महत्वपूर्ण सकारात्मक कार्रवाई का मामला है, जो शिक्षा के अधिकार पर चर्चा करने का सबसे उल्लेखनीय उदाहरण है। ऊपरी तौर पर देखा जाए तो, अशोक कुमार ठाकुर का प्राथमिक विद्यालयी शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। इस मामले मे संबंधित मुख्य संवैधानिक मुद्दा यह था कि क्या अन्य पिछड़े वर्गों (अर्थात, भारतीय नागरिकों के सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों) के सदस्यों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में सीटों के आरक्षण से समानता की संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन किया गया था।
याचिकाकर्ता की सरकार की शिक्षा नीति की वैधता और औचित्य (रेशनल) के लिए व्यापक और सर्वव्यापी (ऑल एनकंपासिंग) चुनौती, जिसमें आरक्षण का सबसेट उनके लिए नुकसान का विशेष कारण था, वह ऐसा लगता है कि बुनियादी शिक्षा के अधिकार पर तानाशाही की स्थापना की गई है। न्यायमूर्ति भंडारी ने इस मामले में अपनी अलग राय में विवादित सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को बनाए रखने के लिए अन्य न्यायाधीशों के साथ अनिवार्य रूप से सहमति व्यक्त की थी। जिसे वह संवैधानिक सिद्धांतों का उलटा मानते थे, वह उच्च शिक्षा (और, विशेष रूप से, उच्च शिक्षा में सकारात्मक कार्रवाई) को बुनियादी शिक्षा से आगे रखने के लिए सरकार की कठोर आलोचना करते थे।
उनकी राय में इस संदर्भ में अनुच्छेद 21A पर स्पष्ट निर्देश शामिल हैं। उन्होंने अनुच्छेद 21A के लिए दो मुख्य घटकों की योजना बनाई:
- सबसे पहले, उपयुक्त उम्र के सभी बच्चों को विद्यालय जाना चाहिए, और
- दूसरा, उन बच्चो को जो शिक्षा मिलती है वह “गुणवत्ता” की होनी चाहिए।
यह एक पूर्वाभास (फोरशैडोइंग) का संकेत है कि सर्वोच्च न्यायालय यह शासन करने के लिए इच्छुक हो सकता है कि संवैधानिक कर्तव्य को पूरा करने के लिए गुणवत्ता की न्यूनतम शिक्षा गारंटी आवश्यक है जब अनुच्छेद 21 A के तहत ठोस दावों के संदर्भ में अनिवार्य रूप से मुद्दा उठता है।
भारत का निर्वाचन आयोग (इलेक्शन कमिशन) बनाम सेंट मैरी विद्यालय (2008)
कानून या कार्यक्रम जो सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा के संवैधानिक उद्देश्य को स्पष्ट रूप से बाधित करते हैं, वे अनुच्छेद 21 A के तहत संवैधानिक चुनौती का विषय हो सकते हैं। भारत का निर्वाचन आयोग बनाम सेंट मैरी विद्यालय (2008) इस रणनीति का एक बड़ा उदाहरण है जिसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा नोट किया गया था। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय विद्यालय के कर्मचारियों को नियमित विद्यालय के समय के दौरान चुनाव कराने का आदेश देने की प्रथा पर मामला सुन रहा था। न्यायालय ने स्वयं समस्या को ऐसे चित्रित किया की, दो प्रतिस्पर्धी (कंपेटिंग) संवैधानिक प्राथमिकताओं के बीच विवाद को कैसे हल किया जाए।
न्यायालय के द्वारा भारतीय संदर्भ में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के महत्वपूर्ण महत्व के साथ-साथ इस संबंध में भारत के निर्वाचन आयोग के संवैधानिक दायित्वों को स्वीकार किया गया था। हालांकि, इसने फैसला सुनाया कि यह वैकल्पिक संवैधानिक उद्देश्य मुफ्त प्रारंभिक शिक्षा के मौलिक अधिकार पर पूर्वता (प्रीसीडेंस) नहीं ले सकता है। इस मामले में भारत में प्राथमिक शिक्षा की “दयनीय स्थिति” का उल्लेख किया गया था। इसे ध्यान में रखते हुए, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा कहा गया था कि केवल छुट्टियों और अन्य दिनों में जब कक्षाएं चल नहीं रहीं होती हैं, तो चुनाव संबंधी कार्यों के लिए शिक्षण कर्मचारियों को तैनात किया जा सकता है। इस प्रकार, चुनाव कार्यों के उद्देश्य के लिए शिक्षकों की तैनाती उन दिनों में नहीं हो सकती है जब बच्चों को शिक्षा देने के लिए विद्यालय में उनकी ड्यूटी होती है।
यह ध्यान रखना बहुत ही दिलचस्प है कि संविधान का अनुच्छेद 21, जिसकी व्याख्या कम से कम शाब्दिक रूप से एक नकारात्मक प्रक्रियात्मक प्रक्रिया के रूप में की गई है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है, इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के तर्क का मुख्य केंद्र था।
अविनाश मेहरोत्रा बनाम भारत संघ और अन्य (2009)
इस फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा शिक्षा के अधिकार की परिभाषा को एक सुरक्षित सीखने के माहौल के अधिकार को शामिल करने के लिए विस्तारित किया गया था, और विद्यालयों को इस फैसले में निर्धारित विशिष्ट अग्नि सुरक्षा जरूरतों का पालन करने की आवश्यकता थी।
कुम्भकोणम जिले के भगवान कृष्ण मध्य विद्यालय में लगी आग के जवाब में यह जनहित कानूनी याचिका दायर की गई थी। लॉर्ड कृष्ण मध्य विद्यालय एक निजी संस्थान था, जिसमे लगभग 900 विद्यार्थि पढ़ते थे। पास की रसोई में लगी आग, विद्यालय की इमारत की फूस की छत तक फैल गई, जो ढह गई और जिसके कारण 93 बच्चों की मौत हो गई। विद्यालय को नगरपालिका भवन नियमों द्वारा हर दो साल में प्रमाणित (सर्टिफाइड) करने की आवश्यकता थी, हालांकि, लॉर्ड कृष्ण मध्य विद्यालय को नियम प्रमाणित किए तीन साल हो चुके थे और इसके द्वारा कई महत्वपूर्ण कोड के उल्लंघन किए गए थे।
न्यायमूर्ति भंडारी के द्वारा अविनाश मेहरोत्रा बनाम भारत संघ और अन्य (2009) के मामले में कहा गया कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अन्य मौलिक अधिकारों को दी गई उदार और समावेशी (इंक्लूसिव) व्याख्या ने महत्वपूर्ण दिशा प्रदान की है की कैसे अनुच्छेद 21A का अर्थ निकाला जा सकता है। अदालत ने कहा कि एक बच्चे को शिक्षित करने के लिए “एक शिक्षक और एक ब्लैकबोर्ड, या एक कक्षा और एक किताब” से अधिक की आवश्यकता होती है। हालांकि न्यायमूर्ति भंडारी ने स्वीकार किया कि वर्तमान मामले में न्यायालय को अनुच्छेद 21A की पूरी रूपरेखा का विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है (या संभवतः अनुमति भी), उनका मानना था कि यह निष्कर्ष निकालना उचित था कि जहां स्पष्ट रूप से असुरक्षित संरचनाओं को घरों के विद्यालयों में नियोजित किया गया था, यह नहीं हो सकता था उसे अनुच्छेद 21A के जनादेश के अनुपालन के गठन के रूप में माना जा सकता है।
हालांकि राज्यों ने विद्यालय के निर्माण नियमों को विकसित करने और उनका पालन करने का प्रयास किया है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने जोर दिया कि यह प्रयास भी पर्याप्त रूप से नहीं किए गए है। सर्वोच्च न्यायालय ने बच्चों के मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के मौलिक अधिकार की रक्षा करने वाले संविधान के अनुच्छेद 21A के तहत अपने कर्तव्यों के अनुसार विद्यालयों के लिए बुनियादी सुरक्षा आवश्यकताओं की स्थापना की है।
निष्कर्ष
भारतीय इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण कानूनों में से एक शिक्षा के मौलिक अधिकार में संशोधन है, जो यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि बच्चों को एक बुनियादी शिक्षा प्रदान की जा सके। देश का भविष्य देश के बच्चों के साथ है। इसलिए शिक्षा बच्चे को सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित कराने, उसे भविष्य के पेशेवर प्रशिक्षण के लिए तैयार करने और अपने परिवेश (सराउंडिंग) के साथ सामान्य समायोजन (एडजस्टमेंट) करने में उसकी सहायता करने के लिए एक उपकरण है। शिक्षा के बिना आज का बच्चा जीवन में सफल नहीं हो सकता है। शिक्षा का मौलिक अधिकार सभी पर समान रूप से लागू होता है। इसलिए उच्च शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण घटक प्रारंभिक शिक्षा है।
संदर्भ