अंजलि कपूर बनाम राजीव बैजल (2009)

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यह लेख Namitha Udayan द्वारा लिखा गया है। यह लेख अंजलि कपूर बनाम राजीव बैजल के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विस्तृत विश्लेषण के माध्यम से संरक्षक और प्रतिपाल्य (वार्ड्स) अधिनियम, 1890 के तहत नाबालिगों की अभिरक्षा (कस्टडी) और संरक्षकता से संबंधित मामलों का फैसला करते समय नाबालिगों के कल्याण पर विचार करने के महत्व को दर्शाता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 एक व्यापक कानून है जो नाबालिगों की संरक्षकता और कल्याण से संबंधित है। यह एक धर्मनिरपेक्ष कानून है जो सभी जातियों और धर्मों के व्यक्तियों पर लागू होता है। जबकि हिंदू अल्पवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 संरक्षकता के लिए पदानुक्रम स्थापित करता है, वहीं संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 अभिरक्षा एवं संरक्षकता से संबंधित मामलों में नाबालिग के कल्याण को प्राथमिकता देता है। यह न्यायालयों को बच्चे के सर्वोत्तम हित के आधार पर निर्णय लेने की विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है। न्यायालयों ने लगातार इस सिद्धांत को बरकरार रखा है, जैसा कि विभिन्न मामलों के कानूनों में देखा गया है। 

1993 में हैमलिन व्याख्यान में लॉर्ड मैके की टिप्पणी को याद करना दिलचस्प होगा, जिसमें उन्होंने कहा था, “एक न्यायाधीश के लिए अपेक्षित प्रमुख गुण हैं – कानून के ज्ञान पर आधारित अच्छा ठोस निर्णय, स्वीकार्य स्तर की खुलेपन के साथ किसी तर्क के सभी पक्षों का अध्ययन करने की इच्छा, तथा किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचने और निष्कर्ष के कारणों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की क्षमता”। अब, यह प्रश्न उठ सकता है कि यह कथन महत्वपूर्ण क्यों है? इसका उत्तर संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम में उल्लिखित प्रावधानों के अनुप्रयोग के लिए इसकी प्रासंगिकता में निहित है। यद्यपि अधिनियम के तहत “कल्याण” शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, फिर भी न्यायाधीशों ने इस मामले से संबंधित मामलों के निर्णय में अपनी नैतिकता और आचार-विचार को प्रभावी ढंग से लागू किया है। यह न्यायिक दृष्टिकोण रोज़ी जैकब बनाम जैकब ए. चक्रमक्कल (1973), बिमला देवी बनाम सुभाष चंद्र (1992) और अंजलि कपूर बनाम राजीव बैजल (2009) जैसे ऐतिहासिक मामलों में स्पष्ट है। 

अंजलि कपूर बनाम राजीव बैजल (2009) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने एक नाबालिग बच्चे की अभिरक्षा और संरक्षकता उसकी नानी को देकर इस सिद्धांत की पुनः पुष्टि की। अदालत का मानना था कि बच्चे का कल्याण और हित उसके द्वारा सर्वोत्तम रूप से पूरा किया जा सकता है। ऐसे निर्णय नाबालिगों के कल्याण को प्राथमिकता देने के प्रति अदालतों की प्रतिबद्धता को उजागर करते हैं। यह भारत में पारिवारिक कानून के परिदृश्य को आकार देने में संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के स्थायी महत्व को भी प्रतिबिंबित करता है। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: अंजलि कपूर बनाम राजीव बैजल (2009)
  • उद्धरण: एआईआर 2009 एससी 2821
  • अपीलकर्ता का नाम: अंजलि कपूर (नाबालिग की नानी)
  • प्रतिवादी का नाम: राजीव बैजल (नाबालिग का पिता)
  • मामले का प्रकार: विशेष अनुमति याचिका (सिविल)
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • पीठ: न्यायमूर्ति एच.एल. दत्तू और तरुण चटर्जी
  • निर्णय की तिथि: 17 अप्रैल, 2009
  • संबंधित कानून: संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890

मामले की पृष्ठभूमि

संरक्षकता से संबंधित कानूनी ढांचे की जांच करते समय, प्रासंगिक वैधानिक प्रावधानों और मार्गदर्शक सिद्धांतों को समझना आवश्यक है, जिन पर अदालतें नाबालिग के सर्वोत्तम हित में निर्णय लेते समय भरोसा करती हैं। संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890, कल्याण सिद्धांत की अवधारणा के साथ, ऐसे निर्धारणों का आधार बनता है। ये तत्व न केवल कानूनी विमर्श को आकार देते हैं, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए अदालतों के दृष्टिकोण को भी सूचित करते हैं कि बच्चे का कल्याण सर्वोपरि बना रहे। निम्नलिखित खंडों में संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम के विशिष्ट प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा की जाएगी तथा यह पता लगाया जाएगा कि कल्याण सिद्धांत की व्याख्या किस प्रकार की गई है तथा विभिन्न न्यायिक निर्णयों में उसका अनुप्रयोग किस प्रकार किया गया है। 

मामले के तथ्य

अपीलकर्ता की बेटी मेघना ने 1998 में प्रतिवादी से विवाह किया और वे दोनों महाराष्ट्र के पुणे में साथ रहते थे। मेघना अपने बच्चे को जन्म देने के लिए इंदौर में अपनी मां के घर चली गईं। उन्होंने 2001 में एक लड़की को जन्म दिया और प्रसव (चाइल्डबर्थ) के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। समय से पहले जन्मे बच्चे को गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती कराया गया तथा ऊष्मानियंत्रक (इनक्यूबेटर) में रखा गया। अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद बच्चे को अपीलकर्ता के घर ले जाया गया और उसका नाम ‘अनघ’ रखा गया। इस अवधि के दौरान, पीड़ा को और बढ़ाते हुए, अपीलकर्ता के पति का भी निधन हो गया। 

इस स्तर पर प्रतिवादी ने इंदौर के पारिवारिक न्यायालय में संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम के तहत मामला दायर कर अपनी पुत्री की अभिरक्षा की मांग की। उन्होंने दावा किया कि अपीलकर्ता द्वारा बच्चे की उचित देखभाल नहीं की गई तथा उसके लिए अपीलकर्ता की अभिरक्षा में रहना असुरक्षित था। उन्होंने यह भी कहा कि अपीलकर्ता की अक्षमता के कारण उन्होंने बार-बार बच्चे की अभिरक्षा के लिए अनुरोध किया था। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी उस अस्पताल में नहीं गया था जहां बच्चे को गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती कराया गया था तथा उसने अपनी गंभीर वित्तीय स्थिति के बारे में भी नहीं बताया। हालाँकि, अदालत ने प्रतिवादी के पक्ष में फैसला सुनाया और कहा कि प्रतिवादी की वित्तीय स्थिति को अक्षमता के बराबर नहीं माना जा सकता। इसके बाद अपीलकर्ता, जो नाबालिग की नानी है, ने इंदौर उच्च न्यायालय में अपील दायर की। 

उच्च न्यायालय ने भी प्रतिवादी के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि उसकी अभिरक्षा की याचिका को अस्वीकार करने का कोई महत्वपूर्ण कारण नहीं है, क्योंकि वह बच्चे का प्राकृतिक अभिभावक है। अदालत ने अपीलकर्ता के विरोध के बावजूद संरक्षकता प्राप्त करने के लिए उसके लगातार संघर्ष पर भी ध्यान दिया। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी कहा कि अपीलकर्ता को अपने पति की मृत्यु के कारण वित्तीय नुकसान भी उठाना पड़ा था। इस निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

मामले में शामिल मुद्दा

वर्तमान मामले में, न्यायालय ने नाबालिग की संरक्षकता और अभिरक्षा के संबंध में निम्नलिखित मुद्दे पर विचार किया: 

क्या अनघ की अभिरक्षा और संरक्षकता अपीलकर्ता या प्रतिवादी को दिए जाने का आदेश दिया जाएगा? 

पक्षों द्वारा तर्क

अपीलकर्ता और प्रतिवादी ने निचली अदालतों में अपने-अपने दावों के समर्थन में विभिन्न तर्क प्रस्तुत किए। हालांकि, प्रतिवादी कई नोटिस जारी किए जाने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने में विफल रहा, जिसमें एक दस्ती नोटिस (याचिकाकर्ता द्वारा प्रतिवादी को अदालत के आदेश के माध्यम से भेजा गया नोटिस, न कि किसी पंजीकृत डाक सेवा द्वारा) और पुणे, महाराष्ट्र में दो व्यापक रूप से प्रसारित समाचार पत्रों में नोटिस शामिल थे। 

नीचे दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत तर्कों का सारांश दिया गया है। प्रतिवादी की दलीलें पारिवारिक न्यायालय, इंदौर और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय (इंदौर पीठ) के समक्ष रखी गईं, क्योंकि वह सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने में विफल रहा। 

अपीलकर्ता द्वारा तर्क

अपीलकर्ता द्वारा पारिवारिक न्यायालय (इंदौर), मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय (इंदौर पीठ) और सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत मुख्य तर्क इस प्रकार थे: 

  • अपीलकर्ता ने दलील दी कि जब बच्ची समय से पहले जन्म के कारण अस्पताल में भर्ती थी, तो प्रतिवादी ने उससे मुलाकात नहीं की थी।
  • प्रतिवादी की नौकरी की प्रकृति के संबंध में विवाद उठाया गया, जिसके कारण उसे अधिकांश समय घर से बाहर रहना पड़ता था। यह भी कहा गया कि वह अपने माता-पिता के साथ नहीं रहता है, इसलिए यदि उसे बच्चे की अभिरक्षा दे दी जाए तो नाबालिग बच्चे की देखभाल के लिए कोई उपलब्ध नहीं होगा।
  • प्रतिवादी की वित्तीय स्थिति पर सवाल उठाया गया, क्योंकि उसने कई व्यक्तियों से ऋण लिया था और उसे चुकाने के लिए उसने अपीलकर्ता और उसके परिवार से वित्तीय सहायता भी मांगी थी। 
  • सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि वह आर्थिक रूप से सक्षम है तथा अपने सफल परिधान (गारमेंट) व्यवसाय के कारण बच्चे की देखभाल करने में सक्षम है। अदालत के ध्यान में यह भी लाया गया कि उसने बच्चे का दाखिला एक प्रसिद्ध जनता विद्यालय में करा दिया है। 
  • अपीलकर्ता ने प्रतिवादी की अल्प आय और उसके माता-पिता के गिरते स्वास्थ्य के बारे में चिंता जताई। 
  • अपीलकर्ता के वकील ने यह भी कहा कि अभिरक्षा आदेश पारित होने के बाद न तो प्रतिवादी और न ही उसके परिवार के सदस्यों या रिश्तेदारों ने बच्चे के बारे में पूछताछ की थी। यह तथ्य भी बताया गया कि उन्होंने दूसरी शादी कर ली थी और इसके परिणामस्वरूप इस मामले में उनकी रुचि समाप्त हो गई थी।  

इन तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर, अपीलकर्ता ने दावा किया कि प्रतिवादी नाबालिग बच्चे का अभिभावक बनने के योग्य नहीं है और उसे अभिरक्षा प्रदान करना प्रश्नगत बच्चे के कल्याण के लिए अनुकूल नहीं है। 

प्रतिवादी द्वारा तर्क

प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत मुख्य तर्क इस प्रकार हैं:

  • प्रतिवादी ने दावा किया कि बच्ची के प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते वह उसकी अभिरक्षा और संरक्षण का हकदार है। 
  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता ने बच्चे की पर्याप्त देखभाल नहीं की तथा उसकी अभिरक्षा में वह असुरक्षित थी।
  • उन्होंने तर्क दिया कि अपीलकर्ता की अक्षमता के कारण बच्चे की अभिरक्षा के लिए उनके लगातार अनुरोध के बाद भी, उसने बच्चे को उन्हें सौंपने से इनकार कर दिया। 
  • प्रतिवादी ने यह भी तर्क दिया कि अपीलकर्ता को अपने पति की मृत्यु के कारण वित्तीय नुकसान उठाना पड़ा था, जिसके कारण वह बच्चे का भरण-पोषण करने में असमर्थ हो गई थी। 

अंजलि कपूर बनाम राजीव बैजल (2009) में चर्चित कानून और कानूनी अवधारणाएँ

संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890

संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम में ‘संरक्षक’ को ‘ऐसा व्यक्ति जो नाबालिग के शरीर या उसकी संपत्ति, या उसके शरीर और संपत्ति दोनों की देखभाल करता है’ के रूप में परिभाषित किया गया है, तथा ‘प्रतिपाल्य’ को ‘ऐसा नाबालिग जिसके शरीर या संपत्ति, या दोनों के लिए संरक्षक है’ के रूप में परिभाषित किया गया है। इस अधिनियम के दूसरे अध्याय में ‘संरक्षकों की नियुक्ति और घोषणा’ से संबंधित धाराओं का उल्लेख किया गया है। इस अध्याय में धारा 7 और 17 शामिल हैं, जो क्रमशः ‘संरक्षकता के संबंध में आदेश देने की अदालतों की शक्ति’ और ‘संरक्षक की नियुक्ति में अदालत द्वारा विचार किए जाने वाले मामलों’ को संबोधित करती हैं। धारा 8 में ‘आदेश के लिए आवेदन करने के हकदार व्यक्तियों’ की सूची दी गई है। 

अधिनियम की धारा 7 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि न्यायालय किसी नाबालिग के शरीर या संपत्ति अथवा दोनों के लिए अभिभावक नियुक्त करने का आदेश जारी कर सकता है। यहां प्राथमिक विचार नाबालिग का कल्याण है। इस धारा में ऐसे किसी भी अभिभावक को हटाने का प्रावधान भी शामिल है, जिसे न्यायालय द्वारा नियुक्त नहीं किया गया है या जो गैर-घोषित है, अर्थात आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त नहीं है। धारा 8 के अनुसार, कोई व्यक्ति जो अभिभावक बनना चाहता है या अभिभावक होने का दावा करता है, साथ ही कोई रिश्तेदार या मित्र भी अभिभावक के रूप में नियुक्त होने के लिए आवेदन कर सकता है। जिस क्षेत्र में नाबालिग रहता है, या जहां नाबालिग की संपत्ति है, या जिसके पास नाबालिग की कक्षा के संबंध में प्राधिकार है, उस क्षेत्र पर अधिकार रखने वाले कलेक्टर को भी संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है। धारा 17 में यह भी स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि न्यायालय को अभिभावक की नियुक्ति या घोषणा करते समय बच्चे के कल्याण पर विचार करना चाहिए। इस प्रकार, धारा 7 को धारा 17 के साथ पढ़ने पर, अभिरक्षा और संरक्षकता से संबंधित मामलों पर निर्णय करते समय न्यायालयों द्वारा लागू कल्याण सिद्धांत को मान्यता मिलती है। 

कल्याण सिद्धांत

लिंडले, एल.जे. द्वारा रे मैकग्राथ (शिशु) में यह अवलोकन किया गया है कि ‘कल्याण’ शब्द को व्यापक अर्थ में समझा जाना चाहिए, जिसमें न केवल बच्चे का शारीरिक कल्याण शामिल है, बल्कि उनका नैतिक और धार्मिक कल्याण भी शामिल है। इसने उस सिद्धांत की नींव रखी जिसे आज कल्याण सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार, जे बनाम सी (एक शिशु) (1969) में, लॉर्ड मैकडरमोट ने इस बात पर जोर दिया कि रिश्तों, माता-पिता की इच्छाओं और संभावित जोखिमों सहित सभी प्रासंगिक कारकों पर विचार करते समय, निर्णय को हमेशा प्राथमिकता देनी चाहिए कि बच्चे के कल्याण के लिए क्या सबसे अच्छा है। 

ब्रिटेन के 1989 के बाल अधिनियम में उन कारकों की सूची दी गई है जिन पर किसी बच्चे के संबंध में कोई भी आदेश देने से पहले विचार किया जाना चाहिए। इन कारकों में बच्चे की इच्छाएं और भावनाएं, उनकी शारीरिक, शैक्षिक और भावनात्मक आवश्यकताएं, उनकी आयु और लिंग तथा माता-पिता की उन आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता शामिल हैं। यद्यपि यह सूची संपूर्ण नहीं है, फिर भी भारत में न्यायालय बच्चों के कल्याण से संबंधित मामलों पर निर्णय करते समय इन कारकों को ध्यान में रख सकते हैं। 

ब्लैक लॉ डिक्शनरी द्वारा परिभाषित कल्याण सिद्धांत, ‘स्वस्थ और आरामदायक जीवन के लिए आवश्यक संसाधनों और स्थितियों’ को संदर्भित करता है। इस सिद्धांत को भारत में विभिन्न निर्णयों के माध्यम से अपनाया और विस्तारित किया गया है। उदाहरण के लिए, फुलकुमारी बीबी बनाम बुध सिंह धुधुरिया एवं अन्य (1914) में यह माना गया कि नाबालिग के अभिभावक का चयन करते समय न्यायालय के लिए नाबालिग का हित, कल्याण, स्वास्थ्य, शिक्षा और खुशी मुख्य और सर्वोपरि विचार होना चाहिए। आर.वी. श्रीनाथ प्रसाद बनाम नंदामुरी जयकृष्ण एवं अन्य (2001) मामले में न्यायालय ने कहा कि नाबालिग बच्चे के प्रति पक्षों का लगाव और भावना के बीच संतुलन बनाया जाना चाहिए, जिसमें नाबालिग का कल्याण सर्वोपरि हो। 

अंजलि कपूर बनाम राजीव बैजल (2009) में निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने अपील को स्वीकार करते हुए अपीलकर्ता को नाबालिग बच्चे की अभिरक्षा तब तक प्रदान की जब तक कि बच्चा वयस्क नहीं हो जाता, अर्थात अठारह वर्ष का नहीं हो जाता। इस निर्णय पर पहुंचने के लिए न्यायालय ने कई प्रमुख निर्णयों पर विचार किया, जो नीचे सूचीबद्ध हैं। 

उल्लिखित पूर्ववर्ती मामले 

सर्वोच्च न्यायालय ने मामले पर निर्णय देते समय निम्नलिखित उदाहरणों और कारकों पर विचार किया।

  • सुमेधा नागपाल बनाम दिल्ली राज्य (2000): यह माना गया कि पिता नाबालिग बच्चे का प्राकृतिक अभिभावक है, जब तक कि वह अयोग्य न पाया जाए। यह भी माना गया कि ऐसे प्रश्नों का निर्णय करते समय, बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि ध्यान में रखा जाना चाहिए, तथा ऐसे प्रश्न का निर्णय केवल कानून के तहत पक्षों के अधिकारों के आधार पर नहीं किया जा सकता। 
  • रोज़ी जैकब बनाम जैकब ए. चक्रमक्कल (1973): न्यायालय ने दो प्रमुख कारकों की पहचान की, जिन पर अभिभावक की योग्यता पर निर्णय लेते समय विचार किया जाना चाहिए। वे निम्नलिखित हैं:
  1. पिता की अभिभावक बनने की योग्यता, और 
  2. नाबालिगों के हित।

इस मामले पर निर्णय देते हुए न्यायालय ने यह भी माना कि बच्चे न तो मात्र संपत्ति हैं और न ही वे अपने माता-पिता के लिए मात्र खिलौने हैं।

  • श्रीमती एलिजाबेथ दिनशॉ बनाम अरवंद एम. दिनशॉ और अन्य (1986): अदालत ने कहा कि जब भी किसी नाबालिग बच्चे की अभिरक्षा से संबंधित कोई प्रश्न उठता है, तो मामले का निर्णय एकमात्र और प्रमुख मानदंड के आधार पर किया जाना चाहिए कि बच्चे के हित और कल्याण के लिए क्या सर्वोत्तम होगा, न कि इसमें शामिल पक्षों के कानूनी अधिकारों के आधार पर होगा।
  • मुथुस्वामी चेट्टियार और अन्य बनाम के.एम.  चिन्ना मुथिस्वामी मूपनार (1934): मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि कोई नाबालिग कम उम्र से ही अपने दादा-दादी या निकट संबंधियों के साथ रहता है और इस अवधि के दौरान नाबालिग के पिता ने नाबालिग के मामलों में कोई चिंता नहीं दिखाई है, तो इन मामलों का न्यायालय के निर्णय पर काफी प्रभाव पड़ेगा। सर्वोच्च न्यायालय इस दृष्टिकोण से सहमत था। 
  • मैकग्राथ (शिशु) (1893) के मामले में: सर्वोच्च न्यायालय ने भी मामले का निर्णय करने के लिए यू.के. अपील न्यायालय के इस निर्णय पर विचार किया। 
  • वॉकर बनाम वॉकर (1981): इस मामले में जॉर्जिया के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि ‘कल्याण एक सर्वव्यापी शब्द है’ और इसके अर्थ में भौतिक कल्याण भी शामिल है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी विचार किया था। 

उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त, न्यायालय ने अमेरिकन न्यायशास्त्र के दूसरे संस्करण (एडीशन) के उनतीसवें खंड को भी ध्यान में रखा, जिसमें उल्लेख किया गया है कि यदि बच्चे में पर्याप्त विवेक है तो न्यायालय बच्चे की अभिरक्षा के मामलों में उससे परामर्श कर सकता है।  

अतः उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि नाबालिग के ‘कल्याण’ को उसके व्यापक अर्थ में समझा जाना चाहिए तथा संरक्षकता और अभिरक्षा का निर्धारण करने में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए, यदि यह बच्चे के कल्याण के लिए सर्वोत्तम हो तो नाबालिग की संरक्षकता और अभिरक्षा अपीलकर्ता को प्रदान की जा सकती है, भले ही वह प्राकृतिक संरक्षक न हो। 

निर्णय के पीछे तर्क

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बच्चे का पिता ही प्राकृतिक अभिभावक है, जब तक कि वह अयोग्यता के कारण अपात्र न हो जाए। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि इस तरह के निर्णय लेते समय, नाबालिग बच्चे का कल्याण सबसे महत्वपूर्ण कारक है जिस पर विचार किया जाना चाहिए, और इस तरह के प्रश्न का निर्धारण केवल संबंधित पक्षों के अधिकारों के आधार पर नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने सुमेधा नागपाल बनाम दिल्ली राज्य (2000) मामले में निर्धारित सिद्धांत को दोहराते हुए यह बात कही। न्यायालय ने संरक्षकता का निर्धारण करते समय नाबालिग के ‘कल्याण’ के महत्व को रेखांकित करने के लिए विभिन्न उदाहरणों का भी हवाला दिया, जिन्हें ऊपर सूचीबद्ध किया गया है। 

न्यायालय ने इस बात के संबंध में अपीलकर्ता (नानी) और प्रतिवादी (पिता) दोनों की योग्यता की गहन जांच की कि नाबालिग बच्चे की अभिरक्षा और संरक्षकता किसे दी जानी चाहिए। इस मामले में, अपीलकर्ता बच्चे के जन्म के बाद से ही प्राथमिक देखभालकर्ता थी, विशेषकर उस महत्वपूर्ण अवधि के दौरान जब बच्चे को अस्पताल की गहन देखभाल इकाई में भर्ती कराया गया था। न्यायालय में प्रस्तुत की गई तस्वीरें, जो निर्विवाद थीं, यह दर्शाती हैं कि नानी का बच्चे के प्रति कितना प्यार, देखभाल और स्नेह था। यह तथ्य कि अनघ का दाखिला एक प्रतिष्ठित जनता विद्यालय में हुआ था, भी बच्चे के कल्याण में एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखा गया। इन कारकों को संरक्षकता के प्रश्न पर प्रेरक और महत्वपूर्ण पकड़ रखने वाला माना गया। अपीलकर्ता और नाबालिग बच्चे के बीच भावनात्मक बंधन भी न्यायालय द्वारा विचारित एक अन्य महत्वपूर्ण कारक था। 

दूसरी ओर, न्यायालय ने प्रतिवादी की जीवन स्थितियों और वित्तीय कठिनाइयों पर ध्यान दिया, जिसमें कई व्यक्तियों से लिया गया उधार और उसकी अल्प आय भी शामिल थी। प्रतिवादी की उदासीनता इस बात से परिलक्षित (रिफ्लेक्टेड) होती है कि वह बार-बार नोटिस भेजे जाने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त, यह तथ्य कि प्रतिवादी ने पुनर्विवाह कर लिया था, जिसके कारण बच्चा सौतेली माँ की देखभाल में रह सकता था, अपीलकर्ता के पक्ष में एक कारक था। 

न्यायालय ने कहा कि बच्चे की अभिरक्षा का प्राकृतिक अभिभावक का अधिकार पूर्ण नहीं है तथा यह इस शर्त के अधीन है कि यह बच्चे की भलाई और आराम के लिए उपयुक्त हो। यह तथ्य कि बच्चे ने अपीलकर्ता के परिवार के सदस्यों के साथ एक भावनात्मक बंधन और लगाव विकसित कर लिया था, निर्णय तैयार करते समय भी एक प्रमुख विचारणीय बिंदु था। 

इन सभी कारकों पर विचार करने के बाद, अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि यदि बच्चे की देखभाल अपीलकर्ता को सौंपी जाए तो उसके कल्याण और सर्वोत्तम हितों की सर्वोत्तम पूर्ति होगी। परिणामस्वरूप, नाबालिग की अभिरक्षा अपीलकर्ता को सौंप दी गई तथा विवादित आदेश को रद्द कर दिया गया। 

मामले का विश्लेषण

न्यायालय का निर्णय और उद्धृत उदाहरण स्पष्ट रूप से रेखांकित करते हैं कि अभिरक्षा और संरक्षकता से संबंधित निर्णयों में बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है। वर्तमान मामले में, यद्यपि प्राकृतिक अभिभावक, पिता, उपस्थित हैं, फिर भी अपीलकर्ता ने अभिभावक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 8 के तहत नाबालिग की अभिरक्षा की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया है, जिसने उसे ऐसा करने का अधिकार दिया है। अदालत ने मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का ध्यानपूर्वक विश्लेषण किया ताकि यह तय किया जा सके कि नाबालिग का सर्वोत्तम हित किसमें निहित है। 

‘कल्याण सिद्धांत’ संरक्षकता के प्रति एक प्रगतिशील और मानवीय दृष्टिकोण है, जो न्यायालय को प्रत्येक मामले पर व्यक्तिगत रूप से विचार करने, तथ्यों का आकलन करने, परिस्थितियों का मूल्यांकन करने और ऐसा निर्णय लेने की अनुमति देता है जो बच्चे के कल्याण के लिए सर्वोत्तम हो। यह सर्वविदित है कि ऐसे मामलों में नाबालिगों का कल्याण ही अंतिम मार्गदर्शक सिद्धांत है। 

इस मामले में, यद्यपि प्रतिवादी ने शुरू में अभिरक्षा प्राप्त करने में उत्साह दिखाया था, लेकिन दूसरी शादी के बाद उसकी रुचि खत्म हो गई। अपीलकर्ता की कथित अक्षमता और वित्तीय कठिनाइयों के बारे में उनके तर्कों का अपीलकर्ता द्वारा प्रभावी ढंग से खंडन किया गया। दूसरी ओर, अपीलकर्ता ने बच्चे के कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए, लगातार अभिरक्षा और संरक्षकता प्राप्त करने का प्रयास किया। नाबालिग, जो जन्म से ही अपनी नानी की देखभाल और संरक्षण में रही है, विशेष रूप से अस्पताल की गहन देखभाल में बिताए गए उसके दिनों को देखते हुए, निश्चित रूप से उसकी नानी की हिरासत और संरक्षकता में रहने से उसके सर्वोत्तम हितों की रक्षा होगी। यह उनके बीच के मजबूत बंधन तथा नानी द्वारा प्रदान किए जाने वाले प्यार और देखभाल को ध्यान में रखते हुए किया गया था। प्रतिवादी के इस दावे के बावजूद कि अपीलकर्ता ने अपनी बेटी और पति दोनों को खो दिया है, अपीलकर्ता ने बच्चे के लिए एक सहायक और पोषण वातावरण प्रदान किया। वह बच्चे की बहुत परवाह करती है, जैसा कि उसके द्वारा खींची गई तस्वीरों से पता चलता है। ये तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि नाबालिग के हितों की सर्वोत्तम ढंग से रक्षा उसकी अभिरक्षा में की जाएगी। 

इसलिए, वर्तमान मामले में, तथ्यों और परिस्थितियों के मद्देनजर, अदालत ने नानी को संरक्षकता और अभिरक्षा प्रदान करना सही समझा, तथा यह स्वीकार किया कि यह निर्णय नाबालिग के कल्याण और हितों की सर्वोत्तम सुरक्षा करता है। यह निर्णय कल्याण सिद्धांत के अनुरूप एक विचारशील और सहानुभूतिपूर्ण मिसाल कायम करता है। यह बच्चे की भलाई और अधिकारों के लिए मजबूत सुरक्षा सुनिश्चित करता है। 

निष्कर्ष

अंजलि कपूर बनाम राजीव बैजल मामला, संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 द्वारा स्थापित कल्याण सिद्धांत के अनुप्रयोग के संबंध में बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह हमें बताता है कि न्यायालय जनता के हित को ध्यान में रखते हुए कानून की व्याख्या किस प्रकार करता है। यहां, कानून को केवल सख्त अर्थों में पढ़ने के बजाय, मामले का निर्णय करने के लिए बच्चे के कल्याण को मुख्य मानदंड माना जाता है। यह मिसाल इस सिद्धांत को रेखांकित करती है कि न्याय सर्वोत्तम तरीके से बच्चे की आवश्यकताओं और परिस्थितियों पर व्यापक रूप से विचार करके ही प्राप्त किया जा सकता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

नाबालिग बच्चे के कल्याण से क्या तात्पर्य है?

किसी नाबालिग बच्चे के ‘कल्याण’ से तात्पर्य उसके स्वस्थ और आरामदायक जीवन के लिए आवश्यक परिस्थितियों और संसाधनों से है। इसमें उनकी भलाई, स्वास्थ्य, शिक्षा और खुशी शामिल हैं। भारत में न्यायालय बच्चे की आवश्यकताओं, इच्छाओं तथा संभावित अभिभावकों की उन आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता जैसे कारकों पर विचार करते हैं। 

क्या किसी नाबालिग के किसी अन्य रिश्तेदार को प्राकृतिक अभिभावक की उपस्थिति में अभिभावक नियुक्त किया जा सकता है?

हां, यदि न्यायालय को लगता है कि इससे बच्चे के सर्वोत्तम हित सधेंगे तो वह किसी अन्य रिश्तेदार को अभिभावक नियुक्त कर सकता है। मुथुस्वामी मूपमार और अंजलि कपूर जैसे मामलों में यह बात स्थापित हो चुकी है, जहां प्राकृतिक अभिभावक के अलावा अन्य रिश्तेदारों को भी अभिभावकत्व प्रदान किया गया था। 

अभिरक्षा और संरक्षकता का निर्णय करते समय न्यायालय किन कारकों पर विचार करते हैं?

न्यायालय बच्चे की आवश्यकताओं, जैसे उसकी शारीरिक, भावनात्मक और शैक्षिक आवश्यकताओं, के साथ-साथ बच्चे की इच्छाओं और भावी अभिभावकों की क्षमताओं का मूल्यांकन करते हैं। 

न्यायालय यह कैसे निर्धारित करता है कि कोई अभिभावक अयोग्य है या नहीं?

न्यायालय अभिभावक की बच्चे की आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता तथा उनके आचरण, रहन-सहन की स्थिति तथा बच्चे के जीवन में उनकी भागीदारी के आधार पर उनकी समग्र उपयुक्तता का आकलन करता है। 

क्या कल्याण सिद्धांत को अभिरक्षा और संरक्षकता के अलावा अन्य मामलों में भी लागू किया जा सकता है?

हां, कल्याण सिद्धांत को नाबालिगों से जुड़े अन्य कानूनी मामलों में भी लागू किया जा सकता है, जैसे कि गोद लेने और बाल संरक्षण के मामले, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बच्चे के सर्वोत्तम हितों को प्राथमिकता दी जाए। 

न्यायालय कल्याण सिद्धांत और माता-पिता के अधिकारों के बीच संतुलन कैसे स्थापित करता है?

न्यायालयों का उद्देश्य माता-पिता के अधिकारों को बच्चे के सर्वोत्तम हितों के साथ संतुलित करना है, तथा यह विचार करना है कि प्रत्येक माता-पिता बच्चे की आवश्यकताओं को कैसे पूरा कर सकते हैं तथा बच्चे के कल्याण पर इसका समग्र प्रभाव क्या होगा। 

संदर्भ

  • B.B. Mitra, Guardian and Wards Act, Fourteenth edition, 2000.

 

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