ए.के. रॉय बनाम भारत संघ एआईआर (1982)

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यह लेख Shafaq Gupta द्वारा लिखा गया है। यह लेख ए.के. रॉय बनाम भारत संघ (1982) के निर्णय का विस्तृत विवरण  (कंप्रिहैंसिव ओवरव्यू) प्रदान करता है, जिसे भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने सुनाया था। यह राष्ट्रपति की अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) बनाने की शक्ति और भारत में निवारक निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन) कानूनों के दायरे को परिभाषित करता है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की वैधता से भी संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय 

भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है और इसे आधारभूत मानदंड (ग्रैंडनॉर्म) (वह कानून जिससे अन्य सभी कानून अपनी वैधता प्राप्त करते हैं) माना जाता है जिससे अन्य सभी कानून अस्तित्व में आते हैं। संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, और कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही इसका उल्लंघन किया जा सकता है। यह एक पूर्ण अधिकार नहीं है और कानून के अनुसार प्रतिबंधों (रेस्ट्रेक्शंस) के अधीन है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही निवारक निरोध के कानूनों का पालन किया जाता रहा है, क्योंकि रोकथाम (प्रिवेंशन) इलाज से बेहतर है। लेकिन इंदिरा गांधी के शासनकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश, 1980 पारित करके इन कानूनों का दुरुपयोग किया गया। इस अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) के कारण कई लोगों को महीनों तक हिरासत में रखकर उनके जीवन के अधिकार से वंचित किया गया। उनके पास अपने वकीलों तक पहुंच नहीं थी और वे असहाय महसूस करते थे। इसने लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर रोक लगा दी थी, जो हमारे संविधान के भाग III के तहत आश्वासित (गैरंटीड) एक मौलिक अधिकार है। 

राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश 1919 के रॉलेट अधिनियम से काफी मिलता-जुलता है, जिसने ब्रिटिश सरकार को किसी भी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे के एक निश्चित अवधि के लिए गिरफ्तार करने की असीमित शक्ति दी थी। यह लेख ए.के. रॉय बनाम भारत संघ (1982) के मामले का गहन विश्लेषण प्रदान करेगा, जिसके तहत इस अध्यादेश को 5 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने वैध माना था। यह भारत के संविधान के  अनुच्छेद 123 के तहत अध्यादेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति के दायरे से भी संबंधित है।

मामले का विवरण

  • फैसले की तारीख: 28 दिसंबर, 1981 
  • केस का अनुक्रमांक: रिट याचिका संख्या 5724, 5874, और 5433 वर्ष 1980।
  • याचिकाकर्ता: ए.के. रॉय
  • प्रतिवादी: भारत संघ
  • पीठ : न्यायमूर्ति वाई. व्ही. चंद्रचूड़; न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती; न्यायमूर्ति ए. सी. गुप्ता; न्यायमूर्ति वी. डी. तुलजापुरकर; और न्यायमूर्ति डी. ए. देसाई
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • प्रासंगिक उद्धरण (रेलेवेंट साइटेशन): (1982) 2 एससीआर 272, 1982 एआईआर 710, 1982 एससीसी (1) 271, 1981 स्केल (4) 1905
  • प्रासंगिक प्रावधान: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 123। 

मामले की पृष्ठभूमि

भारत में निवारक निरोध कानून लगभग एक सहस्राब्दी पुराने (मिल्लेनिअम) हैं। ये कानून प्रकृति में निवारक हैं और किसी अपराध के संदिग्ध व्यक्ति को भविष्य में अपराध करने और अभियोजन से बचने से रोकते हैं। 1980 में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान, राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश लागू किया गया था, जो बाद में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 के रूप में जाना जाने वाला एक अधिनियम बन गया। यह एक बहुत ही कठोर कानून था जो केंद्र या राज्य सरकार को किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेने की अनुमति देता था यदि उसे भारत की सार्वजनिक व्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा माना जाता था। किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने का निर्णय सरकार की व्यक्तिपरक संतुष्टि (सब्जेक्टीव सैटिस्फैक्शन) पर निर्भर करता है, जो पक्षपातपूर्ण हो सकता है। इसे पेश करने का मुख्य कारण “कुछ मामलों में निवारक निरोध और उससे जुड़े मामलों के लिए प्रावधान करना” था। इस अधिनियम की अक्सर इसके मनमाने प्रावधानों के लिए आलोचना (क्रिटीसाईज) की जाती है, जो व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कम करता है। किसी भी व्यक्ति को अधिकतम 12 महीने की अवधि के लिए हिरासत में रखा जा सकता था, और 10 दिन बीत जाने तक उसे उसकी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित करना आवश्यक नहीं माना जाता था।   

ए. के. रॉय बनाम भारत संघ, एआईआर 1982 के तथ्य 

राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश, जो बाद में एक अधिनियम बन गया, के अनुसार मार्क्सवादी सांसद ए.के. रॉय को धनबाद के जिला मजिस्ट्रेट द्वारा पारित एक आदेश द्वारा हिरासत में लिया गया था। उन्हें इस आधार पर हिरासत में लिया गया था कि वे कुछ ऐसी गतिविधियों में शामिल थे जो सार्वजनिक व्यवस्था के विरुद्ध थीं। संसद के दस विपक्षी सदस्यों (उनमें से एक स्वतंत्र था और अन्य विभिन्न राजनीतिक दलों के थे) द्वारा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिकाओं का एक समूह दायर किया गया था, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश, 1980 की वैधता और निष्पक्षता को चुनौती दी थी, और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के कुछ प्रावधानों को भी चुनौती दी थी। उन्होंने न्यायपालिका से अध्यादेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति के दायरे को परिभाषित करने के लिए भी कहा और तर्क दिया कि यह कार्यकारी शक्ति है न कि विधायी शक्ति, इसलिए यह कानून नहीं है। सभी रिट याचिकाओं को अदालत ने अनुमति दे दी। मामले में हस्तक्षेप करने के लिए नागरी स्वतंत्रता के लिये लोगो का संगठन, सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन और जम्मू और कश्मीर राज्य द्वारा दायर आवेदनों को भी अनुमति दी गई। 

राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश 23 सितम्बर, 1980 को लागू किया गया था, जब संसद के दोनों सदन कार्य में नहीं थे और राष्ट्रपति इस बात से संतुष्ट थे कि ऐसी परिस्थितियां मौजूद थीं जिनके कारण तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक हो गया था। 

उठाए गए मुद्दे  

वर्तमान मामले में निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए:

  1. राष्ट्रपति की अध्यादेश बनाने की शक्ति का विस्तार और उसकी सीमाएँ क्या हैं? क्या यह न्यायोचित (जस्टीफाएबल) है या नहीं?
  2. क्या निवारक निरोध कानून वैध हैं क्योंकि वे किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण (इंक्रोच) करते हैं?
  3. 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 के अप्रवर्तित (अनइन्फोर्स्ड) भाग की वैधता क्या है और यह सलाहकार समिती के ढांचे को कैसे प्रभावित करता है?
  4. क्या राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की धारा 3(1) और धारा 3(2) कानून के अनुसार अस्पष्ट हैं?
  5. क्या राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम द्वारा निर्धारित एवं अपनाई गई प्रक्रिया को उचित माना जा सकता है?

पक्षों के तर्क 

याचिकाकर्ता

  1. याचिकाकर्ता के वकील श्री आर.के. गर्ग ने तर्क दिया कि अध्यादेश कानून नहीं है। उन्होंने निम्नलिखित तर्क देकर अपने तर्क का समर्थन किया:
  • अध्यादेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति विधायी प्रकृति की नहीं बल्कि कार्यकारी प्रकृति की है। उन्होंने ब्लैकस्टोन को उद्धृत (साईट) करके अपने तर्क का समर्थन किया, जिन्होंने कहा था कि यदि कानून बनाने की शक्ति और कानून को लागू करने का कार्य एक ही विभाग को दिया गया हो, तो ऐसे मे कोई सार्वजनिक स्वतंत्रता नहीं हो सकती।  
  • अनुच्छेद 123 के तहत अध्यादेश बनाने की शक्ति भारत सरकार अधिनियम, 1935 से उधार ली गई है , जिसमें प्रावधान था कि अगर गवर्नर-जनरल संसद के अवकाश (रिसेस) के दौरान तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक समझते है तो उन्हे अध्यादेश जारी करने की शक्ति है। यहां तक ​​कि ब्रिटेन और अमेरिका ने भी ऐसे प्रावधानों को स्वीकार नहीं किया और संविधान सभा (क्न्स्टीट्युअंट असेम्ब्ली) के कई सदस्य ऐसे अध्यादेश जारी करने से स्वतंत्र इच्छा के प्रयोग के होने वाले नुकसान के गवाह थे, फिर भी उन्होंने उन्हें स्वीकार कर लिया। 
  • किसी अध्यादेश को कानून नहीं माना जा सकता क्योंकि इसे भारत के संविधान के तहत स्थापित किसी विधायी निकाय (बॉडी) द्वारा नहीं बनाया गया है।
  • लोगों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए सत्ता पर संदेह किया जाता रहा है और हाल के दिनों में इसका मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया गया है। 
  • संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का आश्वासन (गॅरंटी) देता है, और इसे कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं के अलावा अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। अध्यादेश केवल एक निश्चित अवधि के लिए प्रभावी रहता है और एक निश्चित और तय प्रक्रिया का पालन नहीं करता है। इसलिए, इसे अनुच्छेद 21 के अनुसार ‘स्थापित’ अध्यादेश नहीं कहा जा सकता है। 
  • उन्होंने ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) मामले का उल्लेख किया , जिसमें अनुच्छेद 21 द्वारा आश्वासित मौलिक अधिकार की सर्वोच्चता को बरकरार रखा गया था और इसे अध्यादेश जारी करने की कार्यपालिका की शक्ति द्वारा दबाया नहीं जा सकता था। 
  • अध्यादेश केवल उन्हीं कानूनी बिंदुओं पर बनाए जाने चाहिए जिन पर कोई कानूनी प्रावधान मौजूद नहीं है। इन्हे विधायिका द्वारा पहले से बनाए गए कानूनों पर कोई अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। 
  • उन्होंने आगे तर्क दिया कि इसे कानून नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि इससे कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत (प्रिन्सिपल्स ऑफ सेपरेशन) का उल्लंघन होगा, जो संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है।
  • यदि कार्यपालिका को अध्यादेश पारित करके व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर अंकुश (कर्टेल) लगाने की स्वतंत्रता दे दी जाए तो अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 निष्प्रभावी हो जाएंगे। 

2. याचिकाकर्ता के वकीलों में से एक श्री तारकुंडे ने राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश की वैधता के बारे में तर्क दिया। उन्होंने तर्क दिया कि अध्यादेश बनाने की शक्ति कोई उदार (लिबरल) अधिकार नहीं है जिसका किसी भी स्थिति में प्रयोग किया जा सके। अध्यादेश जरी करते वक्त यह साबित किया जाना चाहिए कि असाधारण परिस्थितियाँ मौजूद थीं और तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक था। अनुच्छेद 123 के खंड (4) को 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा पहले ही हटा दिया गया था, जो यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि संसद भी कार्यपालिका को असीमित शक्तियाँ देने के पक्ष में नहीं थी। इसलिए, ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद थीं यह साबित करने का भार कार्यपालिका पर है। 

3. आगे यह तर्क दिया गया कि निवारक निरोध कानून भारतीय संविधान के अंतर्गत स्वीकार्य नहीं हैं, तथा वे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर सीमाएं लगाते हैं। 

4. डॉ. घटाटे ने माननीय न्यायालय के समक्ष तर्क दिया कि 44वें संशोधन अधिनियम (जिसने संविधान के अनुच्छेद 22 के खंड (4) में संशोधन किया की धारा 3 को लागू करना केंद्र सरकार का कर्तव्य था, लेकिन राष्ट्रपति की स्वीकृति के बावजूद अब तक ऐसा नहीं किया गया है। इसलिए संशोधित प्रावधान के अनुसार सलाहकार समिती तयार करना अनिवार्य नहीं है। इसके अलावा, सरकार के खिलाफ परमादेश (मैंडमस) रिट जारी की जानी चाहिए ताकि उन्हें उचित समय के भीतर और बिना किसी देरी के अपने कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए बाध्य किया जा सके।

उन्होंने यह भी कहा कि संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार संविधान में संशोधन करने की शक्ति देता है। कानून में ऐसा कोई अधिकार नहीं है जो कहता हो कि ऐसी शक्ति कार्यपालिका को सौंपी जा सकती है। यह एक समानांतर ब्रह्मांड (पैरलल युनिवर्स) का निर्माण करेगा, और यह शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन करेगा। इसलिए, यह संविधान के मूल ढांचे के विपरीत (अल्ट्रा वायर्स) है।  यह तर्क दिया गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 संविधान के अनुच्छेद 22(4) के अनुसार काम नहीं करता है, जिसे 44वें संशोधन अधिनियम की धारा 3 द्वारा संशोधित किया गया था। विधायिका द्वारा बनाए गए क़ानून के विरुद्ध कोई कानून नहीं बनाया जा सकता। इसलिए, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम कानून की नज़र में अच्छा नहीं है। 

5. श्री राम जेठमलानी, जो एक बहुत अनुभवी वकील हैं, ने कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम की धारा 3(1) और (2) में ‘भारत की रक्षा’, ‘विदेशी शक्तियों के साथ भारत के संबंध’, ‘भारत की सुरक्षा’ जैसे कुछ शब्दों का इस्तेमाल बिल्कुल निराधार है क्योंकि यह कार्यपालिका को बहुत व्यापक अधिकार देता है, जिसका दुरुपयोग होने की संभावना होती है। इससे अनियंत्रित हिरासत हो सकती है, जो किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है।

6. डॉ. सिंघवी ने सर्वोच्च न्यायालय के बार एसोसिएशन का प्रतिनिधित्व किया और मामले में हस्तक्षे किया। उनका मानना ​​था कि किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीने जाने से पहले उसे कानून के प्रावधानों के अनुसार अपने आचरण को सुधारने का उचित अवसर दिया जाना चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतो का पालन नहीं करता है और अपने वास्तविक अर्थ में अस्पष्ट है। 

7. अन्य तर्क प्रत्येक मामले में 12 महीने की समान हिरासत अवधि के बारे में दिए गए, भले ही प्रत्येक मामले के तथ्य और परिस्थितियाँ अलग-अलग हों। इसके अलावा, हिरासत में लिए गए व्यक्ति को उसकी हिरासत के आधार के बारे में सूचित करने की कोई बाध्यता नहीं थी, और उसे अपने वकील तक पहुँचने या जिरह करने का अधिकार भी नहीं था। ये सभी बातें अधिनियम को प्रकृति में क्रूर बनाती हैं, और इसलिये इसे रद्द कर दिया जाना चाहिए। 

ए.के. रॉय बनाम भारत संघ, एआईआर 1982 में निर्णय

भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश की वैधता को बरकरार रखा, जो बाद में 1980 में एक अधिनियम बन गया। इसे उचित पाया गया क्योंकि निवारक निरोध कानून व्यक्तियों के बीच सामाजिक सुरक्षा को बढ़ावा देने, राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करने और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। वे भारत के संविधान के भाग 3 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते हैं। यह माना गया कि वे अस्पष्ट नहीं हैं। 

इस निर्णय के पीछे तर्क 

यह राष्ट्रपति की अध्यादेश बनाने की शक्ति और निवारक निरोध कानूनों की संवैधानिक वैधता के संबंध में एक ऐतिहासिक मामला है। इसने हमें दिखाया कि भारत में विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों का कोई स्पष्ट विभाजन नहीं है। जब संसद के दोनों सदन कार्य में नहीं होते हैं और कार्रवाई करने की तत्काल आवश्यकता होती है, तो अध्यादेश पारित करने की शक्ति कार्यपालिका को सौंपी जा सकती है। राष्ट्रपति की अध्यादेश बनाने की शक्ति प्रकृति में विधायी है और इसका प्रभाव संसद द्वारा बनाए गए किसी भी अन्य कानून के समान ही है। निवारक निरोध कानून अनुमेय (पर्मीसिबल) हैं और संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते हैं। इसलिए, 1980 का राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम अस्पष्ट नहीं बल्कि उचित है। 44वें संशोधन अधिनियम की धारा 3 किसीसे विपरीत नहीं है, क्योंकि किसी भी प्रावधान को वैसे ही लागू किया जाना चाहिये जैसे किसी भी अन्य अधिनियम या क़ानून लागू किया जाता है। 

मुद्दावार निर्णय

राष्ट्रपति की अध्यादेश बनाने की शक्ति का विस्तार और सीमाएं तथा इसकी औचित्यता

माननीय न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए तर्कों को अस्वीकार कर दिया कि अध्यादेश कानून नहीं है। उन्होंने कहा कि अध्यादेश संविधान के अनुच्छेद 13(2) के अर्थ में एक कानून है, जो यह प्रावधान करता है कि राज्य को ऐसा कोई कानून बनाने का अधिकार नहीं है जो संविधान के भाग III के तहत आश्वासित किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को छीनता हो। अनुच्छेद 123(2) में यह भी कहा गया है कि अध्यादेश का वही प्रभाव होता है जो विधायिका द्वारा बनाए गए अधिनियम का होता है। वे केवल एक बिंदु पर भिन्न हैं कि विधायिका द्वारा बनाए गए कानून तब तक लागू रहते हैं जब तक उन्हें निरस्त नहीं कर दिया जाता। लेकिन अध्यादेश संसद के दोनों सत्रों के पुनः एकत्र होने से केवल छह सप्ताह की अवधि के लिए लागू रहता है और यदि संसद द्वारा इसे अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव पारित कर दिया जाता है तो यह प्रभावी नहीं रहता है। 

अनुच्छेद 367(2) में यह भी कहा गया है कि यदि संविधान के तहत संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून का संदर्भ दिया जाता है, तो इसमें राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा बनाए गए अध्यादेश भी शामिल होंगे। इसलिए, यह राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्ति नहीं बल्कि विधायी शक्ति है। अन्य कानूनों की तरह, यह भी संवैधानिक भावना से बंधा हुआ है। आर सी कूपर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1970) के मामले का हवाला दिया गया, जिसमें कहा गया था कि राष्ट्रपति को केवल असाधारण परिस्थितियों में कानून बनाने का अधिकार दिया जाता है, जिसमें तुरंत कार्रवाई की आवश्यकता होती है। इसलिए, हमारे संविधान में राष्ट्रपति को अध्यादेश बनाने की शक्ति प्रदान की गई है। इसका इस्तेमाल किसी भी दुर्भावनापूर्ण इरादे से नहीं किया जाना चाहिए। 

न्यायाधीशों ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि अनुच्छेद 21 के अर्थ में अध्यादेश कानून नहीं है क्योंकि ‘स्थापित’ शब्द का मूल रूप से अर्थ है कि एक स्पष्ट और निश्चित प्रक्रिया निर्धारित की जानी चाहिए। अनुच्छेद 123 अध्यादेशों के संबंध में एक विशिष्ट प्रक्रिया प्रदान करता है। वर्तमान मामले में यह कितने समय तक लागू रहता है, यह महत्वहीन है। राष्ट्रपति का विवेकाधिकार है कि वह अपनी ‘संतुष्टि’ के आधार पर ऐसा अध्यादेश जारी करें जो उचित है। और ऐसा करने के पीछे के सभी कारणों का खुलासा आम जनता को करना अनिवार्य नहीं है। 

न्यायाधीशों ने इस मुद्दे पर आगे अपनी राय व्यक्त की कि चूंकि अध्यादेश भी अनुच्छेद 13 के अर्थ में एक कानून है, इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 द्वारा दिए गए संवैधानिक सुरक्षा उपायों के अधीन भी है तथा इसे कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता। 

किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उल्लंघन के संबंध में निवारक निरोध कानूनों की वैधता

इस फैसले में निवारक निरोध कानूनों को वैध माना गया। न्यायालय ने कहा कि संविधान निर्माण में संविधान सभा का दोहरा उद्देश्य था। पहला, लोगों के लिए लोकतांत्रिक सरकार स्थापित करना और दूसरा, सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग से लोगों की रक्षा करना। इसलिए, हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों को शामिल किया गया। निवारक निरोध कानून राज्य की सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से बनाए जाते हैं। इसे व्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने और लोगों के बीच समानता सुनिश्चित करने के लिए बनाया जाता है। 

44वें संशोधन अधिनियम, 1978 के अप्रवर्तित भाग की वैधता, तथा सलाहकार समिती के ढांचे पर इसका प्रभाव

न्यायालय ने माना कि 44वें संशोधन अधिनियम का लागू न किया गया भाग वैध है क्योंकि यह सलाहकार समिती के कामकाज और संरचना पर तभी प्रभाव डालेगा जब यह विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी अन्य कानून की तरह लागू होगा। अनुच्छेद 368(2) और संशोधन अधिनियम की धारा 1(2) के बीच कोई विरोधाभास नहीं है, क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदन तिथि पर लागू होने वाले सामान्य नियम को निर्धारित करता है और बाद वाला अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों को लागू करने की प्रक्रिया से संबंधित है। यह भी माना गया कि धारा 1(2) अनुच्छेद 368 के अनुसार विपरीत नहीं है। सरकार के खिलाफ परमादेश रिट जारी नहीं की जा सकती क्योंकि न्यायालय के पास सरकार को संशोधन अधिनियम के सभी प्रावधानों को लागू करने के लिए बाध्य करने का कोई अधिकार नहीं है। यह केवल कार्यपालिका द्वारा ही किया जा सकता है। न्यायालय केवल यह अनुरोध कर सकता है कि सरकार बिना किसी देरी के संशोधन को लागू करे। 44वें संशोधन अधिनियम की धारा 3 को लागू न करने के पीछे सरकार की दुर्भावनापूर्ण इरादे को दर्शाने वाला कोई प्रथम दृष्टया साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। चूंकि इसे अभी तक लागू नहीं किया गया है, इसलिए संशोधन अधिनियम के अनुसार सलाहकार समिती का गठन करना अनिवार्य नहीं है। इसका गठन संविधान के मूल प्रावधानों के अनुसार किया जा सकता है। 

क्या राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की धारा 3(1) और धारा 3(2) अस्पष्ट हैं?

न्यायालय ने याचिकाकर्ता की ओर से परिषद द्वारा दी गई इस दलील को खारिज कर दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की धारा 3(1) और धारा 3(2) कानून के अनुसार अस्पष्ट हैं। न्यायालय की राय में, यह न्यायालय के समक्ष उठाया गया बहुत ही अव्यवहारिक मुद्दा है। धाराओं में इस्तेमाल किए गए शब्द या अभिव्यक्तियाँ उन्हें यह निश्चितता नहीं देती हैं कि उनका उपयोग केवल एक विशेष अर्थ में ही किया जा सकता है; न्यायालय द्वारा उनकी विभिन्न तरीकों से व्याख्या की जा सकती है जैसा वह उचित समझे। इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए, आपराधिक कानून से एक उदाहरण दिया गया जिसमें “जनता को परेशान करना” और “अवमानना” जैसे अभिव्यक्तियों का बहुत बार उपयोग किया गया है, लेकिन यह कोई निश्चितता नहीं देता है कि प्रावधानों की केवल एक विशेष रूप में व्याख्या करने की आवश्यकता है। इसलिए, अस्पष्टता के कारण न्यायालय द्वारा इन प्रावधानों को रद्द नहीं किया गया।

क्या राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम द्वारा निर्धारित प्रक्रिया उचित मानी जाती है?

हां, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम द्वारा निर्धारित और अपनाई गई प्रक्रिया को उचित माना गया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आपराधिक मुकदमे में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया सलाहकार समिती द्वारा अपनी कार्यवाही में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया से बहुत अलग है। आपराधिक मुकदमे में अभियुक्त को जो अधिकार प्राप्त हैं, वे सलाहकार समिती द्वारा की जाने वाली कार्यवाही में लागू नहीं किए जा सकते। सलाहकार समिती को अपनी मर्जी से अपनी प्रक्रिया को विनियमित करने का अधिकार है और न्यायालय इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। लेकिन यह संविधान द्वारा लगाई गई किसी भी सीमा के अधीन है।

ए.के. रॉय बनाम भारत संघ, एआईआर 1982 में विश्लेषण 

मेरी राय में, अध्यादेश को विधायिका द्वारा बनाए गए कानून के समान नहीं माना जाना चाहिए। मैं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए दृष्टिकोण का खंडन करता हूं कि अध्यादेश एक कानून है। इसे प्रशासनिक आपातकाल की आवश्यकता के बजाय सत्तारूढ़ दल के हाथों में एक राजनीतिक उपकरण माना जा सकता है। 

आइये किसी भी कानून को बनाने की प्रक्रिया पर नजर डालें:

  1. विधेयक का मसौदा समीक्षा के लिए मंत्रीमंडल समिति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तथा इसे नागरिको के टिप्पणी के लिए भी जारी किया जाता है।
  2. संशोधन नागरिको के इनपुट के आधार पर किए जाते हैं। 
  3. मंत्रिमंडल द्वारा यह देखने के लिए समीक्षा की जाती है कि इसमें सभी सहमत शर्तों और सिद्धांतों का पालन किया गया है तथा यह किसी अन्य नीति का उल्लंघन नहीं करता है। 
  4. फिर इसे कानूनी सलाहकारों द्वारा अनुमोदित किया जाता है।
  5. संबंधित मंत्री द्वारा विधेयक संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
  6. इसके बाद विधेयक पर संसद में बहस होती है और मतदान के आधार पर उसे कानून बना दिया जाता है।
  7. अंतिम विधेयक को अधिनियम के रूप में पारित किया जाता है तथा यह संसद द्वारा निर्धारित विशिष्ट तिथि से लागू होता है। 

इस तरह, कानून बनाने की प्रक्रिया हर उस हितधारक को आवाज़ देती है जो इसके अधिनियमन से प्रभावित होगा। यह संसद द्वारा तैयार की गई एक बहुत ही निष्पक्ष और उचित प्रक्रिया है। 

दूसरी ओर, अध्यादेश केवल राजनीतिक दलों की राय के आधार पर जारी किया जाता है। इसमें कोई बहस या चर्चा शामिल नहीं होती है। हालांकि यह अस्थायी कानून है, लेकिन इस शक्ति का कई बार दुरुपयोग किया गया है। इसे सत्तारूढ़ दल द्वारा कानून पारित करने का एक छोटा रास्ता कहा जा सकता है। इसका एक उदाहरण डी सी वाढवा एवं अन्य बनाम बिहार राज्य (1986) का मामला है। इस मामले में, बिहार राज्य में कुछ ही समय में 256 अध्यादेश जारी किए गए थे, जिनमें 69 अध्यादेश ऐसे थे जिन्हें उचित कानून बनाए बिना 1967 से 1981 के बीच बार-बार जारी किया गया। यहां तक ​​कि हर बार विधायिका की मंजूरी भी नहीं ली गई और यह कई वर्षों तक जारी रहा। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में माना कि बिहार सरकार द्वारा अपनाई गई यह प्रथा असंवैधानिक है। यह संविधान की नैतिकता के खिलाफ है और प्रथम दृष्टया रंग-रोगन वाले कानून का प्रयोग है। 

निष्कर्ष 

ए.के. रॉय बनाम भारत संघ भारत के संवैधानिक इतिहास में एक ऐतिहासिक मामला है और इसे कार्यपालिका की अध्यादेश बनाने की शक्ति और निवारक निरोध कानूनों की वैधता से संबंधित अन्य मामलों में एक मिसाल के रूप में कई बार उद्धृत किया गया है। इस मामले में 5 न्यायाधीशों की पीठ ने प्रत्येक मुद्दे को गहराई से संबोधित किया, जो हमें अवधारणा की व्यापक समझ देता है। हम यह भी देख सकते हैं कि भारत में शक्तियों का कोई स्पष्ट पृथक्करण नहीं है, और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की वैधता को भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने बरकरार रखा है। हालाँकि, मेरी राय में, विधायिका द्वारा बनाए गए कानून और कार्यपालिका द्वारा पारित अध्यादेशों का एक ही मूल्य नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के कुछ बुनियादी अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। इसका एक ऐसा उदाहरण यह है कि किसी अपराध के आरोपी प्रत्येक व्यक्ति को अपने खिलाफ कानूनी कार्यवाही में उसका प्रतिनिधित्व करने के लिए अपना वकील रखने का अधिकार होना चाहिए। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू) 

क्या राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 123 के अंतर्गत अध्यादेश जारी करने का पूर्ण अधिकार है?

नहीं, अनुच्छेद 123 के तहत अध्यादेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति पूर्ण नहीं है। दो महीने की अवधि समाप्त होने के बाद भी इसे लागू रहने के लिए संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित होना आवश्यक है। उपरोक्त निर्णय के अनुसार, यह माना गया कि इस मामले के संबंध में राष्ट्रपति की व्यक्तिपरक संतुष्टि कि ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जो तत्काल कार्रवाई की मांग करती हैं, जो पूरी तरह से गैर-न्यायसंगत नहीं है। ऐसा करने के लिए उचित आधार होना चाहिए। 

संविधान के किस अनुच्छेद के माध्यम से निवारक निरोध कानूनों को अपना अधिकार प्राप्त होता है?

संविधान के अनुच्छेद 22(3) में प्रावधान है कि किसी भी निवारक निरोध कानून के तहत हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को गिरफ्तारी से सुरक्षा नहीं मिलती है। उन्हें केवल आपराधिक अपराध करने के संदेह पर और राज्य की सुरक्षा के लिए गिरफ्तार किया जाता है। अनुच्छेद 22(4) में तीन महीने की अवधि से अधिक हिरासत जारी रहने की स्थिति में सलाहकार समिती के गठन का प्रावधान है। हिरासत में लिए गए व्यक्ति को उचित प्राधिकारी द्वारा हिरासत में लिए जाने के आदेश के बाद उसकी हिरासत के कारणों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए। 

संदर्भ

 

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