ए.के. क्रेपक बनाम भारत संघ (1970)

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यह लेख  Ozasvi Amol द्वारा लिखा गया है। लेख का उद्देश्य ए.के. क्रेपक बनाम भारत संघ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित आदेश पर चर्चा करना है। यह लेख प्राकृतिक न्याय और न्यायिक निष्पक्षता जैसी विभिन्न अवधारणाओं पर प्रकाश डालता है। यह प्रशासनिक कानून के संदर्भ में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत पर चर्चा करता है। लेख प्रशासनिक कार्यवाही में प्राकृतिक न्याय के उपयोग के मुद्दे की भी पड़ताल करता है और बताता है कि वर्तमान निर्णय इसका समाधान कैसे प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Vanshika Gupta द्वारा किया गया है।

परिचय

प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत ‘जस नेचुरल’ शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है कानून की एक प्रणाली जो इस विचार पर आधारित है कि क्या सही है और क्या गलत है। यह एक संहिताबद्ध कानून (कोडिफाइड लॉ) नहीं है बल्कि न्यायालय द्वारा निर्धारित नियमों पर आधारित है। यह एक प्राकृतिक कानून है और किसी भी क़ानून या संविधान में इसका कोई स्थान नहीं है, लेकिन प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत वे नियम हैं जो न्यायालयों द्वारा स्थापित किए जाते हैं और किसी व्यक्ति के अधिकारों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाले निर्णय को लागू करते समय प्रशासनिक प्राधिकरण, न्यायिक या अर्ध-न्यायिक निकाय द्वारा किए जा सकने वाले किसी भी मनमाने और असंगत कार्यों के खिलाफ किसी व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा के लिए न्यूनतम प्रदान करते हैं। प्राकृतिक न्याय सभी कानूनों में आत्मसात किया गया है। यह पहले से ही विधियों में निर्मित पूर्व-शामिल विचार या धारणा है। भले ही वे संहिताबद्ध नहीं हैं, उन्हें न्यायालयों द्वारा लागू और स्वीकार किया जाता है। दिशानिर्देश अधिकारियों को अनुचित निर्णय लेने से दूर करने के लिए हैं। स्पष्ट रूप से, कोई प्राकृतिक न्याय शब्द का वर्णन किसी विशेष मामले में एक बुद्धिमान और उचित निर्णय लेने और उचित कार्य करने के रूप में कर सकता है और किसी भी व्यक्ति को अनुचित और अतार्किक कार्यवाही या निर्णय से जुड़े नहीं रहना चाहिए। 

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि प्राकृतिक न्याय कानून की एक अलग शाखा नहीं है; यह केवल मौजूदा कानून को पूरक (सप्प्लीमेन्ट) करता है। इसके अलावा, प्राकृतिक न्याय किसी भी न्यायिक कार्यवाही की आत्मा और भावना है। प्राकृतिक न्याय से संबंधित दो मुख्य नियम निम्नलिखित हैं:

  • सुनवाई नियम या ऑडी अल्टरम पार्टम: जिसका अर्थ है कि दोनों पक्षों को सुना जाना चाहिए। इसमें तर्कसंगत निर्णय शामिल हैं जिसका अर्थ है कि पीठासीन अधिकारियों द्वारा न्यायालय में दिए गए आदेश या निर्णय का वैध और उचित आधार है। 
  • पूर्वाग्रह नियम या निमो डेबेट एस्से जुडेक्स इन प्रोप्रिया कॉसा: जिसका अर्थ है कि निर्णय में बैठने वाला अधिकारी निष्पक्ष होना चाहिए। 

तात्कालिक मामला ए.के. क्रेपक बनाम भारत संघ (1970) उन निर्णयों में से एक है जहां माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि निष्पक्ष निर्णय न केवल न्यायिक कार्यों तक सीमित है बल्कि प्रशासनिक मामलों में भी है। इस मामले को व्यक्तिगत पूर्वाग्रह के मुद्दे पर एक अनिवार्य आदेश माना जाता है।

मामले की बुनियादी जानकारी

पीठ

माननीय सीजे, जेएम शेलत, केएस हेगड़े, एएन ग्रोवर, वशिष्ठ भार्गव, जेजे और माननीय श्री न्यायमूर्ति एम हिदायतुल्लाह

साल

1969

उद्धरण

एआईआर 1970 एससी 150

याचिकाकर्ता

ए.के. कृपक व अन्य अधिकारी 

प्रतिवादी

भारत संघ

प्रशासनिक कानून में प्राकृतिक न्याय का उपयोग

प्राकृतिक न्याय कोई नई अवधारणा नहीं है; बल्कि, यह एक अविश्वसनीय रूप से प्राचीन अवधारणा है जिसकी उत्पत्ति प्रागैतिहासिक (प्रेहिस्टोरिक) युग में हुई है। रोमन और यूनानियों ने भी इस विचार को समझा। आदम, कौटिल्य और आषास्त्र के युग में प्राकर्तिक न्याय को मान्यता दी गई। बाइबल के अनुसार, परमेश्वर ने हव्वा और आदम को ज्ञान का फल खाने से मना किया था। दण्ड दिए जाने से पहले, हव्वा को स्वयं का बचाव करने का अवसर दिया गया था, और आदम के मामले को इसी तरह से संभाला गया था। यह बाद में था कि अंग्रेजी न्यायविदों ने प्राकृतिक न्याय के विचार को अपनाया। शब्द ‘लेक्स-नेचुरल,’ और ‘जस-नेचुरल’ ने प्राचीन रोम में समानता (इक्विटी), प्राकृतिक कानून और प्राकृतिक न्याय को प्राकृतिक न्याय शब्द की जड़ों के रूप में परिभाषित किया।

सिद्धांत के उद्देश्य निम्नलिखित है:

  • सभी को सुनने के लिए एक समान अवसर प्रदान करना। 
  • निष्पक्षता कानूनी अंतराल और खामियों को भरने के लिए एक अवधारणा है। 
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा करना, जो संविधान का एक प्रमुख घटक हैं।
  • अन्याय नहीं होना चाहिए।

इसमें शामिल सभी पक्षों को सुनवाई का मौका प्रदान किया जाना चाहिए और न्यायालय को निष्कर्ष और मामले के तर्क के पक्षों को सूचित करना चाहिए और पक्षपात को दूर करना चाहिए। इन्हें प्राकृतिक न्याय का प्राथमिक और मौलिक हिस्सा माना जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, न्यायालयें और प्रशासनिक प्राधिकरण मौजूद हैं ताकि वे एक ऐसे निर्णय पर पहुंच सकें जो न केवल तार्किक हो बल्कि निष्पक्ष हो और साथ ही मनमाना न हो। अन्याय को होने से रोकना प्राकृतिक न्याय का मुख्य उद्देश्य है।

प्राकृतिक न्याय का दावा कब किया जा सकता है

न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) के रूप में या अर्ध-न्यायिक क्षमता में कार्य करते समय, जैसे कि पंचायत, प्राकृतिक न्याय का उपयोग किया जा सकता है। इसमें न्याय का विचार, मौलिक नैतिक उपदेश और पूर्वाग्रहों के विभिन्न उदाहरण शामिल हैं। यह प्राकृतिक न्याय की आवश्यकता और उन विशिष्ट परिस्थितियों को भी प्रकट करता है जिनमें इसके सिद्धांत लागू नहीं होते हैं।

प्राकृतिक न्याय की एक मौलिक धारणा के रूप में, जो न्याय और निष्पक्षता को बढ़ावा देता है, यह बॉम्बे प्रांत बनाम खुशलदास आडवाणी (1950) मामले में आयोजित किया गया था कि प्राकृतिक न्याय वैधानिक आधार पर लागू होगा। 

मामले के तथ्य

याचिका एके क्रेपक और कुछ अन्य राजपत्रित अधिकारियों द्वारा उठाई गई थी। भारतीय वन सेवा अधिनियम, 1951 के तहत बनाए गए भारतीय वन सेवा (भर्ती) नियमों के 4 (1) के तहत बनाए गए भारतीय वन सेवा (प्रारंभिक भर्ती) विनियम, 1966 के अनुसार, जम्मू और कश्मीर राज्य के वन विभाग में सेवारत अधिकारियों के बीच वरिष्ठ और कनिष्ठ पैमाने पर जम्मू और कश्मीर वन विभाग में अधिकारियों का चयन करने के लिए एक विशेष चयन बोर्ड का गठन किया गया था।

राज्य के वन के मुख्य संरक्षक इस प्रकार गठित चयन बोर्ड के सदस्यों में से एक थे। बोर्ड के चयन के समय, वह एक कार्यवाहक मुख्य (एक्टिंग चीफ) आयुक्त थे जिन्हें वन संरक्षक की जगह नियुक्त किया गया था, जिनके खिलाफ राज्य सरकार के पास एक अपील लंबित थी। भारतीय वन सेवा (आईएफएस) द्वारा चयन की उम्मीद करने वाले आवेदकों में कार्यवाहक मुख्य संरक्षक थे।

हालांकि कार्यवाहक मुख्य संरक्षक ने चयन बोर्ड में हिस्सा नहीं लिया जबकि उनके नाम पर विचार किया गया था, लेकिन जब आवेदकों के नामों पर विचार किया जा रहा था तो उन्होंने चर्चा में भाग लिया। उन्होंने बोर्ड की बैठक में चयनित उम्मीदवारों के वरीयता क्रम के चयन में भी भाग लिया।

कार्यवाहक मुख्य संरक्षक का नाम सूची में सबसे ऊपर दिखाई दिया, जबकि नाम का स्थान लेने वाले अधिकारी सहित अन्य तीन संरक्षकों के नाम सूची से हटा दिए गए। विनियमन के अनुसार, सूची और रिकॉर्ड गृह मंत्रालय द्वारा संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) को अपनी टिप्पणियों के साथ भेजे गए थे और आगे, यूपीएससी ने अधिकारी के पद के लिए अपनी सिफारिशें प्रदान कीं जिसके लिए भारत सरकार ने सूची की घोषणा की।

जिन संरक्षकों के नाम सूची से हटा दिए गए थे और अन्य असंतुष्ट अधिकारियों ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। पीड़ित अधिकारियों ने अधिसूचना को रद्द करने के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस न्यायालय में याचिका दायर की।

मामले में मुद्दा

  1. क्या दिए गए मामले में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया था?
  2. क्या प्राकृतिक न्याय के नियम वर्तमान मामले की कार्यवाही पर लागू होते हैं, यह मानते हुए कि वे प्रशासनिक प्रकृति के हैं?
  3. क्या याचिकाकर्ता की शिकायत वैध है?

तर्क

याचिकाकर्ताओं के तर्क

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस पद के लिए अधिकारियों की नियुक्ति मनमानी और असंवैधानिक थी। उन्होंने तर्क दिया कि नियुक्ति योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत पूर्वाग्रह और राजनीतिक प्रभाव पर आधारित थी। यह, बदले में, प्रक्रिया की निष्पक्षता को कम कर दिया। उन्होंने न केवल विशिष्ट नियुक्तियों के लिए बल्कि एक निर्णय के लिए तर्क दिया जिसका उपयोग मिसाल के रूप में किया जाएगा। ये मिसालें योग्यता-आधारित चयन को संरक्षित करेंगी और व्यावसायिकता सुनिश्चित करेंगी। इस प्रकार, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि अधिसूचना नियम 4 और विनियमन 5 के तहत थी।

प्रतिवादियों के तर्क

प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि बोर्ड के अधिकार का चयन अर्ध-न्यायिक नहीं है, बल्कि प्रकृति में प्रशासनिक है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि चयन बोर्ड अर्ध-न्यायिक नहीं था क्योंकि वे अधिकारों का निर्णय नहीं कर रहे थे; उन्हें केवल अधिकारी नियुक्त करने का कर्तव्य सौंपा गया था। ‘न्यायाधीश’ शब्द का अर्थ केवल ‘योग्य चयन’ था।

उन्होंने तर्क दिया कि चयन बोर्ड एक समूह था जिसने सिफारिशें की थीं। इसलिए याचिकाकर्ता की शिकायतें निराधार हैं। प्रशासनिक भूमिका में होने के कारण उन्हें यह तय करना था कि अंतिम चयन उचित थे या अन्यायपूर्ण। अंत में, यह भी तर्क दिया गया कि एक व्यक्तिगत पूर्वाग्रह पूरे चयन बोर्ड को संदिग्ध नहीं बना सकता है। इस प्रकार, याचिकाकर्ता की शिकायतों में कोई दम नहीं है। केवल एक चीज जिसे निर्धारित किया जाना चाहिए वह है निर्णय का अंतिम औचित्य।

न्यायालय का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि चयन बोर्ड का नियुक्ति का निर्णय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ था। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक वास्तविक पूर्वाग्रह था और उम्मीदवारों की उपस्थिति बोर्ड की अंतिम राय को प्रभावित कर सकती है। न्यायालय ने चयन प्रक्रिया की वैधता की जांच की और माना कि चयन बोर्ड का अधिकार चरित्र में प्रशासनिक है। न्यायालय ने यह भी निर्णय लिया कि प्राकृतिक न्याय सिद्धांत न्यायिक कार्य से परे है। इसे केवल न्यायिक निकायों तक सीमित नहीं किया जा सकता है। यह कार्यकारी और प्रशासनिक निकायों पर भी लागू होता है।

न्यायालय ने फैसले को असंवैधानिक ठहराया क्योंकि यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विपरीत था। न्यायालय ने कहा कि चयन बोर्ड का कार्य केवल अधिकारियों का चयन करना था और इसलिए इसे अर्ध-न्यायिक नहीं माना जा सकता है। 

न्यायालय ने आगे कहा कि प्राकृतिक न्याय का उद्देश्य न्याय के उल्लंघन को रोकना है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसका उपयोग प्रशासनिक कार्यवाही में नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने कहा कि भले ही बोर्ड के कार्य प्रशासनिक थे, लेकिन उन्हें न्यायिक रूप से कार्य करना था। पहली बार, न्यायालय ने किसी भी विदेशी निर्णय से किसी भी सहायता के बिना, फैसला किया कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत न केवल न्यायिक कार्यों तक ही सीमित थे, बल्कि प्रशासनिक कार्यों तक भी सीमित थे। इस प्रकार, बोर्ड द्वारा किया गया चयन प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन था।

मामले का विश्लेषण

प्राकृतिक न्याय के विचार पर लेख का अवलोकन इसे संकीर्ण अर्थों में लागू करना असंभव बनाता है। यह मामला प्रशासनिक कार्य के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक घटना है और इसने कानून के शासन को मजबूत करने में भी मदद की है। इस फैसले से पहले इन सिद्धांतों का अनुप्रयोग केवल न्यायालयों तक ही सीमित था, लेकिन आर.एस. दास बनाम भारत संघ (1986) के मामले के बाद, वे अब कई न्यायालय के फैसलों, न्यायाधिकरणों और प्रशासनिक निकायों पर लागू होते हैं। आधुनिक प्रशासन विवेक के बिना कार्य नहीं कर सकता है, लेकिन यह विवेक कानूनी बाधाओं के अधीन होना चाहिए। न्यायालय हर समय प्रशासनिक विवेक का प्रभारी नहीं हो सकता है। साथ ही, सिद्धांत का उपयोग न करने को कम से कम किया जाना चाहिए। प्राकृतिक न्याय की अवधारणा को समय के साथ लागू किया जाना चाहिए। 

निर्णय का प्रशासनिक कार्यों पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है जो प्रदान करता है कि किसी भी प्रकार की मनमानी को बाहर रखा जाना चाहिए। साथ ही कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए।

मामले के बाद

क्रेपक के मामले ने निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के दायरे का विस्तार किया और इसने भारतीय प्रशासनिक कानून को अवधारणावाद से कार्यात्मकता में बदल दिया। नतीजतन, इस मामले का प्रशासनिक कार्यवाही में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुप्रयोग के विकास पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इस मामले ने प्राकृतिक न्याय के न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) में बदलाव को चिह्नित किया है। 

तत्काल मामले ने कई अन्य मामलों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। ऐसा ही एक मामला चेयरमैन, खनन परीक्षा बोर्ड बनाम रामजी (1977) का है जहां न्यायालय ने कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत उस निष्पक्षता को दर्शाते हैं जिसके साथ निर्णय लेने वाले को आगे बढ़ना चाहिए। न्यायालय ने यह भी दोहराया कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उपयोग अमूर्त रूप में नहीं किया जाना चाहिए। 

स्वदेशी कॉटन मिल्स बनाम भारत संघ (1981) मामले में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की अवधारणा को स्पष्ट रूप से समझाया: “एक बार जब हम नियम की आत्मा को कार्रवाई में निष्पक्ष खेल के रूप में समझते हैं और ऐसा है, तो हमें यह मानना चाहिए कि यह दोनों क्षेत्रों तक फैला हुआ है। आखिरकार, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासनिक शक्ति को निष्पक्षता से एलर्जी नहीं है और विवेकाधीन कार्यकारी न्याय एकतरफा अन्याय में पतित नहीं हो सकता है।

न्यायालय ने कुमाऊं मंडल विकास निगम लिमिटेड बनाम गिरजा शंकर पंत (2001) में आगे कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत न केवल न्याय को सुरक्षित करने के लिए हैं, बल्कि न्याय के उल्लंघन को रोकने के लिए भी हैं।

प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों ने प्रागैतिहासिक काल से मनुष्यों का ध्यान आकर्षित किया है। वे कानूनी सिद्धांत की मौलिक आधारशिला के रूप में कार्य करते हैं। वे कानून का समर्थन करते हैं, इसे प्रतिस्थापित नहीं करते हैं। इन विचारों को यह तय करने में मदद करने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना होगा कि कानून को किस रास्ते पर जाना चाहिए। इसलिए, इस मामले से जो बात सामने आती है वह यह है कि यद्यपि न्यायालयें प्रशासनिक और अर्ध-न्यायिक शक्तियों के बीच अंतर कर रहें हैं, साथ ही निष्पक्ष प्रक्रिया का एक सामान्य तत्व भी है।

निष्कर्ष 

इस प्रकार, कोई यह देख सकता है कि प्राकृतिक न्याय की विषय वस्तु और पदार्थ स्थिर नहीं हैं और सामाजिक मूल्य के संबंध में उनके रंग, विचार और रूप में काफी बदलाव आया है। दिशानिर्देशों को विभिन्न मामलों के साथ-साथ उन परिस्थितियों पर प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है जिनका समाज सामना करता है। इसका आधार निष्पक्षता के साथ-साथ निष्पक्ष खेल भी होना चाहिए। डी स्मिथ, वुल्फ और जोवेल ने कहा, “निर्णय निर्माता को इस तरह से पक्षपाती या पक्षपाती नहीं होना चाहिए जिससे पक्षों द्वारा दिए गए तर्कों पर निष्पक्ष और वास्तविक विचार करना मुश्किल हो जाए।” इस प्रकार, प्रशासनिक कार्यवाही में मनमानेपन का बहिष्कार एक सर्वोपरि तत्व है। राज्य के कार्यकर्ताओं को उचित रूप से, निष्पक्ष और तर्कसंगत रूप से कार्य करना चाहिए।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

प्रशासनिक कानून क्या है? क्या यह संहिताबद्ध है?

प्रशासनिक कानून सार्वजनिक कानून की एक शाखा है। कानून राज्य के कार्यकर्ताओं की शक्ति, संरचना और कर्तव्यों से संबंधित है। वे संहिताबद्ध कानून नहीं हैं, बल्कि वे न्यायाधीश द्वारा बनाए गए कानून हैं।

प्राकृतिक न्याय क्या है?

प्राकृतिक न्याय का सीधा सा अर्थ है किसी विशेष मुद्दे पर एक समझदार और उचित निर्णय लेने की प्रक्रिया है।

अर्ध-न्यायिक निकाय क्या है?

अर्ध-न्यायिक निकाय न्यायालय के अलावा एक संगठन है जिसके पास कानून की व्याख्या करने की शक्ति है। 

कानून का शासन क्या है?

कानून का शासन कानून की प्रधानता या कानून की सर्वोच्चता है जो मनमानी के विपरीत है।

संदर्भ

 

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