अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन – शक्ति का दुरुपयोग करने के लिए एक संवैधानिक साधन

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22029
Constitution of India
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यह लेख तमिलनाडु के टीएनएनएलयू की छात्रा Anushka Kashyap ने लिखा है। इस लेख में कई उदाहरणों के साथ राज्यों पर राष्ट्रपति शासन लागू होने कि बात कि गयी है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

भारत का संविधान एक ऐसा उपकरण (इंस्ट्रूमेंट) है जो देश में एक संघीय (फ़ेडरल) व्यवस्था प्रदान करता है और केंद्र और राज्य सरकार के लिए निश्चित कार्यों को भी बताता है। कानून बनाने की प्रक्रिया के संबंध में केंद्र और राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) का संविधान की अनुसूची (शेड्यूल) 7 में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। हालांकि, कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनके माध्यम से केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर सकती है और राष्ट्रपति के द्वारा आपातकाल (इमरजेंसी) की घोषणा उनमें से एक है।

भारत के राष्ट्रपति “संवैधानिक तंत्र (कंस्टीट्यूशनल मशीनरी) की विफलता” के मामले में किसी भी राज्य में आपातकाल लगाकर, उस राज्य की विधि के अनुसार और कार्य करने कि शक्ति से आगे निकल सकते हैं। अनुच्छेद (आर्टिकल) 356 में कहा गया है कि “यदि राष्ट्रपति, राज्य के राज्यपाल (गवर्नर) से रिपोर्ट प्राप्त होने पर या अन्यथा, संतुष्ट हो जाते हैं कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें राज्य की सरकार इस संविधान के प्रावधानों (प्रोविजन) के अनुसार नहीं चल सकती है, तब राष्ट्रपति किसी राज्य में आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं।” एक राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा के साथ, निर्वाचित (इलेक्टेड) सरकार को बर्खास्त कर दिया जाता है और विधान सभा को निलंबित (ससपेंड) कर दिया जाता है और राज्य का प्रशासन सीधे राष्ट्रपति द्वारा अपने प्रतिनिधि राज्यपाल के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है।

अपनी स्थापना के बाद से, अनुच्छेद 356 बहस और चर्चा का विषय रहा है क्योंकि राष्ट्रपति शासन से राष्ट्र के संघीय ढांचे में बाधा उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अनुच्छेद 356 की उत्पत्ति को भारत सरकार अधिनियम की धारा 93 में वापस खोजा जा सकता है, जिसमें राज्यपाल द्वारा आपातकाल लगाने का समान प्रावधान प्रदान किया गया है, यदि राज्य को अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है। इस खंड को भारतीय संविधान में ‘राष्ट्रपति’ के स्थान पर ‘राज्यपाल’ को शामिल किया गया था। हालांकि, संविधान सभा के विभिन्न सदस्यों ने एक राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के इस प्रावधान का विरोध किया था क्योंकि अनुच्छेद 356 के परिणामस्वरूप ‘अन्यथा’ शब्द की अस्पष्ट और व्यक्तिपरक प्रकृति (सब्जेक्टिव नेचर) के कारण राज्य पर संघ का प्रभुत्व (डॉमिनेंस) हो सकता है।

लेकिन, ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष बी.आर. अम्बेडकर का विचार था कि संविधान या कानून के किसी भी प्रावधान का दुरुपयोग किया जा सकता है, लेकिन किसी कानून को शामिल ही ना करने के कारण के रूप में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। संविधान सभा की बहस में, उन्होंने कहा कि “वास्तव में, मैं अपने माननीय मित्र श्री गुप्ते द्वारा कल व्यक्त की गई भावनाओं को साझा (शेयर) करता हूं कि हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसे धाराओं को कभी भी संचालन में नहीं बुलाया जाएगा और वे अयोग्य (इनएप्लीकेबल) ही रहते हैं। यदि उन्हें लागू किया जाता है, तो मुझे आशा है कि राष्ट्रपति, जो इन शक्तियों से संपन्न हैं, राज्यों के प्रशासन को वास्तव में निलंबित करने से पहले उचित सावधानी बरतेंगे।”

मूल रूप से, अम्बेडकर यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल दुर्लभ से दुर्लभ मामलों में किया जा सकता है न कि तुच्छ मुद्दों पर गलत रूप से। संविधान के संस्थापकों (फॉउन्डिंग फादर्स) ने माना है कि देश भर में सामाजिक-राजनीतिक विविधताओं (सोसिओ-पोलिटिकल डाइवर्सिटीज) में कठिन परिस्थितियों को आकर्षित करने की संभावना है क्योंकि लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) की राह इतनी आसान नहीं है और इसलिए, राष्ट्रपति को राज्य को बचाने के लिए ऐसी शक्ति दी जानी चाहिए ताकि वह कानून और व्यवस्था के टूटने और राज्य में शांति और सद्भाव (हार्मनी) बनाए रखने की स्थिति बना सके।

हालांकि, संविधान के निर्माता भारतीय राजनीति की प्रकृति और उदाहरणों की भविष्यवाणी करने में सक्षम नहीं थे जब संविधान को केवल एक विशेष राजनीतिक दल को लाभ पहुंचाने के लिए संशोधित (अमेंड) किया गया था। विडंबना (आईरोनिक) यह है कि संविधान लागू होने के एक साल बाद यानी 1951 में, अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग किया गया था, जब नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव को बर्खास्त कर दिया था, वो भी जब उनके पास राज्य में बहुमत थी और उनकी विफलता की कोई स्थिति नहीं थी। फिर से, 1954 में, आंध्र प्रदेश की चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंका गया था क्योंकि केंद्र सरकार को राज्य पर एक कम्युनिस्ट शासन की संभावना की आशंका थी।

तब से, ऐसे कई उदाहरण सामने आ चुके हैं जहां अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल केंद्र सरकार द्वारा अपने राजनीतिक लाभ को प्राप्त करने के लिए और राज्य सरकार से आगे निकलने के लिए, एक उपकरण के रूप में किया गया था। यह भारतीय लोकतंत्र का एक स्थापित सिद्धांत है कि राज्यपाल राष्ट्रपति की प्रसन्नता के लिए कार्य करता है और अंततः एक विशेष राजनीतिक दल से संबंधित मंत्रि परिषद (काउंसिल ऑफ़ मिनिस्टर्स) की सहायता और सलाह के तहत काम करता है। इस तथ्य से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि केंद्र सरकार इस प्रावधान का उपयोग किसी राज्य में विपक्षी दल को पछाड़ने के लिए एक उपकरण के रूप में कर सकती है।

इसलिए, राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) शक्ति के प्रयोग की वैधता संदिग्ध है क्योंकि इस बात की पूरी संभावना है कि किसी राज्य में आपातकाल लगाने की राष्ट्रपति की राय केंद्र में एक राजनीतिक दल की विचारधाराओं से प्रभावित हो। इस लेख में लेखक ने बोम्मई मामले में शीर्ष न्यायालय के फैसले पर विशेष जोर देते हुए संविधान के अनुच्छेद 356 की प्रकृति और दायरे का विश्लेषण किया है। इसके अलावा, पेपर ने समय की अवधि यानी 2014 से 2020 तक लागू राष्ट्रपति शासन के उदाहरणों, संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार इसके कारण और वैधता, और संबंधित प्रावधान में संशोधन की आवश्यकता की जांच की है।

अनुच्छेद 356- इसकी प्रकृति और कार्यक्षेत्र (आर्टिकल 365- इट्स नेचर एंड स्कोप)

अनुच्छेद 356 की प्रकृति और दायरे का विश्लेषण करने से पहले, भारतीय राजनीतिक संरचना (स्ट्रक्चर) की प्रकृति को समझना आवश्यक है। भारतीय लोकतंत्र सुशासन के लिए संघ और राज्य सरकार के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए ‘सहकारी संघवाद (कॉपरेटिव फेडरलिज्म)’ की अवधारणा पर काम करता है। केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरल के मामले के अनुसार, यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप (सब-कांटिनेंट) की संघीय संरचना संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 भारत को “राज्यों के संघ (यूनियन ऑफ़ स्टेट्स)” के रूप में बताता है, लेकिन संविधान के निर्माताओं का इरादा राज्यों पर संघ का वर्चस्व (सुप्रीमेसी) प्रदान करने का नहीं था। वास्तव में, विभिन्न मामलों में केंद्र सरकार का राज्य सरकार पर प्रभुत्व (डोमिनेंस) है, लेकिन यह लोगों की अधिक भलाई के लिए किया गया था न कि राज्य सरकार की शक्ति को पार करने के लिए। यह संविधान सभा में अम्बेडकर के शब्दों के माध्यम से परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) हो सकता है। उन्होंने कहा कि “यह देखा जाएगा कि समिति ने ‘फेडरेशन’ के बजाय ‘संघ’ शब्द का इस्तेमाल किया है। नाम पर ज्यादा कुछ नहीं बदलता है, लेकिन समिति ने ब्रिटिश उत्तरी अमेरिका अधिनियम (ब्रिटिश नार्थ अमेरिका एक्ट), 1867 की भाषा का पालन करना पसंद किया है, और माना है कि भारत को एक संघ के रूप में वर्णित करने में फायदे हैं, हालांकि यह संविधान संरचना में संघीय हो सकता है”।

भारत की संवैधानिक व्यवस्था में, एक विशेष संस्था या राजनीतिक विंग दूसरों पर श्रेष्ठता का दावा नहीं कर सकता है। महासंघ (फेडरेशन) के रूप में शक्ति, शांति और सद्भाव (हार्मनी) बनाए रखने के लिए कई अंगों और संस्थानों के बीच वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) की जाती है। केंद्र सरकार को कुछ प्रकार का प्रभुत्व प्रदान किया गया है, लेकिन प्रभुत्व को मनमाने कारणों से उपयोग करने के बजाय इच्छित उद्देश्य को पूरा करने की आवश्यकता है।

अनुच्छेद 356 को भारतीय संविधान में शामिल किया गया था ताकि केंद्र सरकार संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी जैसी गंभीर परिस्थितियों से राज्यों की रक्षा कर सके क्योंकि भारत जैसे बड़े देश में ऐसी स्थिति के बढ़ने की संभावना हमेशा बनी रहती है। अनुच्छेद 356 के आधार पर दी गई असाधारण शक्ति राज्यों को उनकी चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें बचाने के लिए थी। जैसा कि ऊपर कहा गया है, संघीय ढांचा भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है और राज्य सरकार को फेंकने और विधानसभा को निलंबित करने का कोई भी अनुचित या मनमाना कार्य संविधान की मूल संरचना और दिए गए अधिनियम में बाधा उत्पन्न करेगा और इस तरह के कार्य को अमान्य (नल एंड वॉइड) माना जाना चाहिए।

अब अनुच्छेद 356 की प्रकृति और दायरे में आते हुए, यह देखा गया है कि अनुच्छेद 356 के दो आवश्यक घटक (कंपोनेंट्स) हैं। सबसे पहले, राष्ट्रपति, राज्य के राज्यपाल द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के आधार पर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है। इसे अन्य परिस्थितियों में भी लगाया जा सकता है जो राज्य की रक्षा के लिए मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर राष्ट्रपति को सही लगता है। अनुच्छेद 356 में ‘अन्यथा’ शब्द के प्रयोग में भी यही दिख सकता है। दूसरा, राष्ट्रपति शासन उस राज्य में तब लागू किया जा सकता है जब संवैधानिक तंत्र की विफलता हो। संवैधानिक तंत्र की विफलता उस स्थिति को संदर्भित करती है जब राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों का पालन करते हुए अपने कार्यों को पूरा नहीं कर पा रहा है।

अनुच्छेद 356 के तहत, राज्यपाल के पास एक रिपोर्ट तैयार करने और राष्ट्रपति को भेजने की शक्ति है, यदि उसके राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता, या राजनीतिक संकट जैसे हाउस राइडिंग की स्थिति आ जाती है तो। हालांकि, राष्ट्रपति के पास राज्यपाल की रिपोर्ट के अलावा अन्य स्रोतों (सोर्सेस) से प्राप्त जानकारी के आधार पर किसी राज्य में आपातकाल लगाने की शक्ति भी होती है। अब तक, ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ और ‘अन्यथा’ के दायरे और प्रकृति को विधायिका द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है और यह एक व्यापक (वाइड) और व्यक्तिपरक मुद्दा (सब्जेक्टिव इश्यू) बना हुआ है, यानि कि यह मामले पर निर्भर करता है। लेकिन, राज्यपाल की रिपोर्ट की विषय वस्तु जो राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए संभावित आधार हो सकती है, को न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के दायरे में लाया गया है।

न्यायालय राज्यपाल की रिपोर्ट की विषय-वस्तु की जांच कर सकती हैं जिसने ‘राष्ट्रपति की संतुष्टि’ को आकर्षित किया है। राज्यपाल, राष्ट्रपति की इच्छा के अधीन कार्य करता है और राष्ट्रपति केंद्र में रह रहे दल से संबंधित मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है। इसलिए, राज्यपाल की रिपोर्ट के केंद्र में रह रहे दल के हितों और एजेंडे से प्रभावित होने की बहुत अधिक संभावना है और इसे कई बार देखा भी गया है। उदाहरण के लिए, पीएम के रूप में इंदिरा गांधी के पास सबसे अधिक बार राष्ट्रपति शासन लगाने का रिकॉर्ड है और 90% परिस्थितियों में, यह उन राज्यों में लगाया गया था जो विपक्षी दलों द्वारा शासित थे या उन राज्यों में जो उनकी पार्टी के हितों के अनुसार नहीं चले थे। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एस.आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में कहा कि न्यायालय को राज्यपाल की रिपोर्ट की निष्पक्षता की जांच करने का अधिकार है।

अनुच्छेद 356 की न्यायिक व्याख्या (ज्यूडिशियल इंटरप्रेटेशन ऑफ़ आर्टिकल 356)

बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को लेकर गंभीर सवाल उठाए गए थे। इस मामले में, कर्नाटक के मुख्यमंत्री को राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने का मौका देने से पहले बर्खास्त कर दिया गया था और बाद में, राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। न्यायालय ने कहा कि आम तौर पर राष्ट्रपति की संतुष्टि संदिग्ध नहीं होती है लेकिन राज्यपाल की रिपोर्ट की जांच राष्ट्रपति की संतुष्टि के आधार का पता लगाने के लिए की जा सकती है।

न्यायालय ने कहा कि “राष्ट्रपति की संतुष्टि वस्तुनिष्ठ सामग्री (ऑब्जेक्टिव मेटेरियल) पर आधारित होनी चाहिए, वह सामग्री राज्यपाल द्वारा उन्हें भेजी गई रिपोर्ट में या दोनों रिपोर्ट और अन्य स्रोतों से उपलब्ध हो सकती है। इसके अलावा, इस प्रकार उपलब्ध वस्तुनिष्ठ सामग्री से यह संकेत मिलता है कि राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चल रही है। इस प्रकार उद्देश्य सामग्री का अस्तित्व यह दर्शाता है कि राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चल सकती है, जो कि राष्ट्रपति द्वारा उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) जारी करने से पहले कि एक शर्त है। ऐसी सामग्री के मौजूद होने के बाद, सामग्री के आधार पर राष्ट्रपति की संतुष्टि सवालों के घेरे में नहीं रहती है।”

रामेश्वर प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार के मामले में भी ऐसा ही किया गया था, जिसमें न्यायालय ने राज्यपाल द्वारा भेजी गई रिपोर्ट की जांच के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा को अयोग्य (डिसक्वालीफाइड) घोषित कर दिया था। यह देखा गया कि रिपोर्ट में ऐसी कोई वस्तुनिष्ठ सामग्री नहीं थी जिससे राष्ट्रपति की संतुष्टि प्राप्त करने की संभावना हो। फिर, ऐसी परिस्थितियों में, जहां राज्यपाल शासन में उचित आधारों का अभाव है, न्यायालय राष्ट्रपति शासन लगाने के राष्ट्रपति के फैसले पर सवाल उठा सकती है।

यहां राज्यपाल की रिपोर्ट की निष्पक्षता का मतलब है कि संबंधित रिपोर्ट को उन परिस्थितियों की व्यापकता (स्कोप) को दिखाना चाहिए जो राज्य में संवैधानिक तंत्र को रोक रही हैं। स्थिति गंभीर होनी चाहिए क्योंकि संविधान के कुछ प्रावधानों के उल्लंघन को संवैधानिक तंत्र की विफलता नहीं कहा जा सकता है और यह दिखाया जाना चाहिए कि आपातकाल की घोषणा के बिना सरकार संविधान के अनुसार चल सकती है। न्यायालय का विचार था कि आपातकाल लगाना अंतिम उपाय होना चाहिए और राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन की घोषणा से पहले अन्य सभी उपायों को चुनने की आवश्यकता है।

इसके अतिरिक्त, बोम्मई के मामले का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि न्यायालय ने माना कि आपातकाल लगाने की राष्ट्रपति की शक्ति पूर्ण शक्ति नहीं है और यह संविधान के प्रावधानों के अधीन है। सरल शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और इसलिए, राष्ट्रपति को संविधान के अनुसार कार्य करना आवश्यक है।

न्यायालय ने कहा कि “अनुच्छेद 356 द्वारा दी गयी शक्ति एक सशर्त शक्ति (कंडीशन्ड पावर) है; यह राष्ट्रपति के विवेक में प्रयोग की जाने वाली पूर्ण शक्ति नहीं है। स्थिति संतुष्टि का गठन है- व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव), इसमें कोई संदेह नहीं है कि खंड द्वारा विचारित प्रकार की स्थिति उत्पन्न हुई है। यह संतुष्टि राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर या उसके द्वारा प्राप्त अन्य जानकारी के आधार पर या दोनों के आधार पर बनाई जा सकती है। प्रासंगिक (रिलेवेंट) सामग्री का अस्तित्व संतुष्टि के गठन के लिए एक पूर्व शर्त है। “मे” शब्द का प्रयोग न केवल विवेक का संकेत देता है बल्कि कार्रवाई की उपयुक्तता (एडमिसिबिलिटी) और आवश्यकता पर विचार करने का दायित्व (ऑब्लिगेशन) भी दर्शाता है।”

अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करके राज्य को गंभीर प्रकृति के संकट से बचाने के लिए आपातकाल लगाने की असाधारण शक्ति प्रदान की गई है। राज्यपाल की रिपोर्ट की न्यायिक समीक्षा की अनुमति के बावजूद, व्यापक दायरे के कारण अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग अभी भी जारी है। अनुच्छेद 356 के ‘अन्यथा’ और ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ शब्दों का क्या अर्थ है, इसकी कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं है, जो अंत में केंद्र सरकार के हाथों में इसके दुरुपयोग की ओर ले जाती है।

2014 से राष्ट्रपति शासन लागू

यह अध्याय 2014 से पांच राज्यों में लागू राष्ट्रपति शासन और उसके कारणों से संबंधित है। इसके अलावा, शोधकर्ता (रिसर्चर) का उद्देश्य आपात स्थिति की प्रकृति को समझना है और क्या ऐसे कारण संवैधानिक तंत्र की विफलता के बराबर हैं।

2016 में अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करना: 2016 में, अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता (पॉलिटिकल इंस्टेबिलिटी) पैदा हुई जब कांग्रेस के 20 विधायकों ने भाजपा और दो निर्दलीय विधायकों (इंडिपेंडेंट एमएलए) के साथ हाथ मिलाया और मुख्यमंत्री नबाम तुकी के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इन विधायकों ने राज्यपाल के समक्ष राज्य में सरकार बनाने की अपनी इच्छा मुख्यमंत्री को बताए बिना विधानसभा सत्र (सेशन) को आगे बढ़ाया और विधानसभा अध्यक्ष को हटाने की सूची दे दी। इसके बाद स्पीकर ने उन 20 विधायकों को दलबदल के आधार पर अयोग्य घोषित कर दिया। हालांकि, गुवाहाटी के उच्च न्यायलय ने इसे अयोग्य घोषित कर दिया था।

इस बीच, राज्यपाल राजखोवा ने एक रिपोर्ट तैयार की और राष्ट्रपति को यह कहते हुए इसे भेजा कि एक राज्य में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिससे सरकार के लिए संवैधानिक सिद्धांतों के अनुसार अपने कार्यों को अंजाम देना असंभव हो गया है। राज्यपाल की रिपोर्ट पर राष्ट्रपति ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया और विधानसभा को निलंबित कर दिया। उसके बाद कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने को चुनौती दी थी, लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पहले ही गठबंधन के नेतृत्व वाली सरकार ने शपथ ले ली थी ।

यहां पहला सवाल यह उठता है कि क्या यह संवैधानिक तंत्र की विफलता है और अगर कोई विफलता है, तो क्या राज्यपाल राजखोवा ने एक रिपोर्ट तैयार करने से पहले सभी उपायों के विकल्प को देखा है जिसके परिणामस्वरूप आपात स्थिति हुई है। राज्यपाल की रिपोर्ट का विश्लेषण करने के बाद यह देखा गया था कि संवैधानिक तंत्र की विफलता दिखाने के लिए जो प्रमुख कारण बताया गया था, वह गायों का वध है। विडंबना यह थी कि भारत जैसे देश में जहां पशु अधिकारों का उल्लंघन एक मामूली मुद्दा था, गाय के वध को राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए कानून और व्यवस्था के टूटने के रूप में पेश किया गया था। राज्य में गाय के वध पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया था और इसलिए, रिपोर्ट में इस तरह के तुच्छ मुद्दों का उल्लेख करना अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का एक स्पष्ट उदाहरण था।

एक अन्य प्रमुख बात जो राज्यपाल ने की, वह यह थी कि 20 विधायकों के बागी (रिबेल) होने के कारण, कांग्रेस ने सदन में अपना बहुमत खो दिया था। इसे एक कारण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता था क्योंकि रिपोर्ट तैयार करने से पहले, राज्यपाल को सत्ताधारी सरकार को फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने के लिए आमंत्रित करना चाहिए था। जैसा कि बोम्मई के मामले में कहा गया था, राष्ट्रपति शासन लागू करना अंतिम उपाय होना चाहिए और सभी कदमों का सहारा लेने के बाद ही इसे लगाया जा सकता है। 20 विधायकों कि बागी, एक पार्टी के भीतर का मुद्दा था और यह दलबदल का मामला था न कि संवैधानिक तंत्र की विफलता का मामला।

सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक बेंच ने राज्यपाल की कार्रवाई को असंवैधानिक माना क्योंकि ये कारण यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है और राज्यपाल की रिपोर्ट में कोई तर्क नहीं है, इसलिए संतुष्टि के लिए राष्ट्रपति से पूछताछ की जा सकती है। न्यायालय ने कहा कि “राजनीतिक दल के भीतर की गतिविधियां, जो उसके रैंकों के भीतर अशांति की पुष्टि करती हैं, राज्यपाल की चिंता से परे हैं”। इसलिए, भले ही यह अनुमान हो कि सत्ता वाली सरकार ने अपना बहुमत खो दिया है, आपातकाल के उपाय को चुनने से पहले एक मंजिल की आवश्यकता होती है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए शीर्ष न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन को रद्द कर दिया था​​ और राज्य में तुकी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को बहाल (रिस्टोर) कर दिया था।

उत्तराखंड राजनीतिक संकट और राष्ट्रपति शासन: 2016 में, उत्तराखंड में सीएम हरीश रावत ने कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व किया था। राज्य में समस्या की शुरुआत विधानसभा में बजट को लेकर बहस के दौरान हुई जब 9 विधायकों ने पार्टी के खिलाफ बगावत कर दी और बीजेपी से हाथ मिला लिया। इसके चलते कांग्रेस के नेतृत्व वाले रावत के बहुमत को चुनौती दी गई और उसी के संबंध में राज्यपाल केके पॉल ने फ्लोर टेस्ट में सीएम रावत को बहुमत साबित करने के लिए आमंत्रित किया था। फ्लोर टेस्ट से पहले, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संवैधानिक तंत्र का कारण बताते हुए कैबिनेट की सलाह पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। विधिवत निर्वाचित (इलेक्टेड) सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और विधानसभा को निलंबित कर दिया गया।

यहां जो बड़ा सवाल उठता है, वह फ्लोर टेस्ट की प्रतीक्षा किए बिना आपातकाल लगाने के राष्ट्रपति के फैसले की संवैधानिकता के बारे में है। राजनीतिक अस्थिरता से संबंधित सभी प्रश्नों का एकमात्र उत्तर, फ्लोर टेस्ट के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है लेकिन राष्ट्रपति द्वारा इसे टाल दिया गया था। जब राष्ट्रपति शासन को उत्तराखंड के उच्च न्यायलय के समक्ष चुनौती दी गई, तो न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन को रद्द कर दिया और फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया। न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश का विचार था कि भले ही राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और राष्ट्रपति शासन लागू करना पूर्ण शक्ति नहीं है; ऐसा लग रहा था कि केंद्र एक ‘निजी पार्टी’ की तरह काम कर रहा है, यानी अपने राजनीतिक हितों के लिए काम कर रहा है। जैसा कि बार-बार कहा गया था कि राष्ट्रपति शासन अंतिम उपाय होना चाहिए, बिना फ्लोर टेस्ट के इसे लागू करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

राष्ट्रपति शासन की गंभीरता को समझने की जरूरत है; यह राज्य सरकार के दायरे में एक अतिक्रमण (एन्क्रोचमेंट) की तरह है जिससे देश के संघीय ढांचे का उल्लंघन होता है। इसके अतिरिक्त, शोधकर्ता ने पाया कि यह कहने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हैं कि राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता है क्योंकि राज्यपाल की रिपोर्ट का कोई प्रचलन नहीं है और ऐसी घटनाएं जो संवैधानिक सिद्धांतों से परे हैं, और यह राजनीतिक संकट था, लेकिन विधानसभा को निलंबित करने से पहले इसे हल करने के लिए फ्लोर टेस्ट जैसे कोई कदम नहीं उठाए गए थे।

मुख्यमंत्री के इस्तीफे के बाद राजधानी दिल्ली में राष्ट्रपति शासन: भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लोकपाल बिल को सदन में पारित करने में उनकी सरकार की विफलता के कारण, केजरीवाल ने अपने मंत्रिपरिषद के साथ मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। क्यूंकि सदन में आ.प. का बहुमत थी, उनके इस्तीफे के बाद राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा हो गई थीथी। उस समय, किसी भी दल को विकल्प बनाने के लिए सदन में बहुमत की आवश्यकता नहीं थी। इसलिए, एक निर्वाचित सरकार के अभाव में राज्य को कानून और व्यवस्था के टूटने से बचाने के लिए और इसकी स्थिरता बनाए रखने के लिए, उपराज्यपाल ने राज्य में कैबिनेट द्वारा लागू राष्ट्रपति शासन की सलाह पर राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट दी और विधान सभा को निलंबित एनीमेशन के तहत रखा। यहां निलंबित एनिमेशन का मतलब है कि फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने और सरकार बनाने के लिए राजनीतिक दलों के पास अभी भी एक विकल्प बचा हुआ है।

इस उदाहरण में, शोधकर्ता ने महसूस किया कि राष्ट्रपति शासन लागू करना उचित था। केंद्र सरकार के राजनीतिक हितों को संतुष्ट करने के लिए राष्ट्रपति को भेजी गई रिपोर्ट में किसी भी अनुचित आधार को नहीं पाया गया था। संविधान के अनुसार सरकार चलाने के लिए सदन में बहुमत का होना अनिवार्य है और किसी भी प्रमुख राजनीतिक दल की अनुपस्थिति में संवैधानिक तंत्र की विफलता काफी स्पष्ट है। उपराज्यपाल ने एक रिपोर्ट बनाने से पहले सभी कदम उठाए थे यानी उन्होंने पार्टियों को बहुमत साबित करने और सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था, और राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद भी सरकार बनाने का विकल्प को उपलब्ध कराया था, जो उनके प्रयासों को दर्शाता है, जो उपराज्यपाल ने राष्ट्रीय राजधानी में आपातकाल से बचने के लिए किये थे।

जम्मू और कश्मीर में राष्ट्रपति शासन: शुरुआत में, पीडीपी और भाजपा की गठबंधन सरकार के बीच विभाजन के बाद जम्मू और कश्मीर राज्य में 6 महीने का राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। विभाजन के बाद, राज्य में वैकल्पिक (अलटरनेट) सरकार बनाने के लिए किसी अन्य राजनीतिक दल के पास बहुमत नहीं थी और इसलिए, राज्य में संवैधानिक विफलता थी। राज्य में सरकार बनाने के लिए जगह छोड़कर विधानसभा को निलंबित एनीमेशन के तहत रखा गया था। अब तक, सब कुछ ठीक लगता था, लेकिन समस्याएं तब पैदा होती हैं जब राष्ट्रपति शासन को अन्य 6 महीनों के लिए बढ़ा दिया जाता है, भले ही पार्टियां सदन में बहुमत का दावा कर रही थीं। एक तरफ महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी ने नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के साथ मिलकर बहुमत का दावा किया और राज्य में गठबंधन सरकार बनाने का अनुरोध किया। दूसरी ओर, पीपल्स कांफ्रेंस के सज्जाद लोन ने कहा कि उनके पास भाजपा और अन्य लोगों के साथ सरकार बनाने के लिए बहुमत थी।

आदर्श रूप से, जैसा कि बोम्मई मामले में हुआ था, राज्यपाल सत्य पाल मलिक को मुफ्ती और लोन को फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने के लिए बुलाना चाहिए था, और जो बहुमत साबित कर सकता था उसे राज्य में सरकार बनाने की अनुमति दी जानी चाहिए थीं। हालांकि, दिलचस्प बात यह थी कि राज्यपाल ने मुफ्ती के दावे को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वह एक उत्तरदायी सरकार नहीं बना पाएंगी और घुड़सवारी भारतीय लोकतंत्र में बाधा उत्पन्न करेगी। राज्यपाल द्वारा ​​दिए गए दोनों कारण अनुचित और गलत थे क्योंकि राज्यपाल का यह तर्क कि गठबंधन सरकार उत्तरदायी सरकार नहीं बना सकती, कोई तार्किक बात नहीं है। विधानसभा को निलंबित रखने का प्रमुख कारण राज्य के कार्यों को करने के लिए सरकार बनाना था और जब सरकार को बहाल करने का विकल्प मौजूद था, तो राज्यपाल ने मनमाने ढंग से खारिज कर दिया। भले ही, आपातकाल का प्रारंभिक अधिरोपण (इनिशियल इंपोजिशन) वैध लगता है, फ्लोर टेस्ट की अनुमति देने से पहले राष्ट्रपति शासन का विस्तार अमान्य है और इसे अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करार कर दिया जाना चाहिए।

महाराष्ट्र में राजनीतिक संकट और राष्ट्रपति शासन: महाराष्ट्र में लगाया गया राष्ट्रपति शासन वर्ष 2019 में सबसे अधिक बहस का विषय था। विधानसभा परिणामों के बाद, भाजपा, एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस के बीच सीएम पद को लेकर खींचतान संकट का केंद्र रही है। असहमति के कारण, किसी भी राजनीतिक दल ने सरकार बनाने के लिए बहुमत साबित नहीं किया और राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। राज्यपाल के इस कदम की विभिन्न वरिष्ठ वकीलों और कानूनी बिरादरी के अन्य सदस्यों द्वारा आलोचना की गई क्योंकि राज्यपाल ने राष्ट्रपति को रिपोर्ट तैयार करने और भेजने से पहले सभी चरणों का सहारा नहीं लिया था। मामले में एच.एस. जैन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, इसी तरह की स्थिति यूपी में प्रचलित थी। पक्षपात को ध्यान में रखते हुए, इलाहाबाद के उच्च न्यायलय ने कहा कि, “इस संदेश में राज्यपाल को सदन को इस मामले के बारे में उचित समय के भीतर इकट्ठा होने और निर्णय लेने के लिए कहना चाहिए था, और फिर उन्हें सूचित करना चाहिए था। इस संदेश में राज्यपाल सदन को यह चेतावनी भी दे सकते थे कि यदि उसने उचित समय के भीतर अपना मन नहीं बनाया, तो सदन को भंग करना पड़ सकता है। मूल रूप से, न्यायालय यह कहने की कोशिश कर रही थी कि आपातकाल के गंभीर कदम का सहारा लेने से पहले, राज्यपाल को राजनीतिक दलों को सदन में इकट्ठा होने और राजनीतिक संकट को हल करने के लिए संदेश भेजने की आवश्यकता होती है।

महाराष्ट्र के मामले में राज्यपाल कोश्यारी ने एक रिपोर्ट तैयार की और राजनीतिक दलों को सूचित करने से पहले उसे राष्ट्रपति को भेजा। विधानसभा के निलंबन की चेतावनी मिलने के बाद संभावना है कि राजनीतिक दल एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंच सकते थे। राज्यपाल को राजनीतिक दलों को सदन में इकट्ठा होने और विचार-विमर्श करने और अंतिम निर्णय की सूचना देने के लिए कहना चाहिए था। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि राज्यपाल का कदम गलत था क्योंकि उन्होंने उन सभी उपायों का विकल्प नहीं चुना जो अंत में राज्य में आपातकाल लगाने का कारण बने।

अनुच्छेद 356 की अस्पष्टता और संशोधन की आवश्यकता (वेगनेस ऑफ़ आर्टिकल 356 एंड द नीड फॉर अमेंडमेंट)

भारत जैसे संघीय देश में, जहां संघ और राज्य विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा शासित होते हैं, केंद्र में राजनीतिक दल द्वारा अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है और इसके उदाहरण भारत में कई बार देखे भी गए हैं। 2014 से 5 राज्यों में राष्ट्रपति शासन की घोषणा को देखने के बाद, यह कहा जा सकता है कि ऐसी स्थिति तब पैदा हुई जब केंद्र और राज्य में दो अलग-अलग दल मौजूद हों या जब केंद्र सरकार के राजनीतिक हितों का राज्य सरकार के साथ टकराव होने लगे। अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का प्रमुख कारण इसकी अस्पष्ट और व्यक्तिपरक प्रकृति है। ‘अन्यथा’ और ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ जैसे शब्दों का प्रयोग इतना व्यापक है कि वे इसके दायरे में कई प्रकार के कार्यों को शामिल कर सकते हैं। अनुच्छेद 356 यह परिभाषित करने में विफल रहता है कि संवैधानिक तंत्र की विफलता क्या है और किस प्रकार की विफलता को राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण (एन्क्रोचमेंट) करने के लिए एक उचित आधार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है? अनुच्छेद 356 की अस्पष्टता राजनीतिक दलों के उपयोग के लिए एक जगह छोड़ती है। उनके हितों को संतुष्ट करने के लिए यह एक असाधारण शक्ति है और इसलिए आपातकाल लगाने के लिए गाय के वध जैसे कारणों का हवाला देते हुए इसे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।

यह समझने की जरूरत है कि अनुच्छेद 356 को शामिल करने का मूल उद्देश्य राज्यों की सुरक्षा करना था, जब सुशासन के लिए कानून और व्यवस्था टूट जाती है। लेकिन, अनुच्छेद 356 की उदार व्याख्या (लिबरल इंटरप्रिटेशन) इसके दुरुपयोग के लिए एक व्यापक गुंजाइश छोड़ती है जो अंत में अनुच्छेद 356 के माध्यम से राष्ट्रपति को ऐसी शक्ति देने के मूल उद्देश्य में बाधा उत्पन्न करती है। वास्तव में, यह सच है कि कानूनों की व्याख्या नहीं की जानी चाहिए। यह सबसे खराब स्थिति है, लेकिन इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि इस तरह की गंभीर प्रकृति को मापने (मेजर) से पहले अत्यधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका देश के संघीय ढांचे पर सीधा प्रभाव पड़ता है, जिससे संविधान के मूल ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) का उल्लंघन होता है। कई विद्वानों ने कहा है कि अनुच्छेद 356 को हटा दिया जाना चाहिए लेकिन अनुच्छेद 356 को हटाने से राज्यों को अधिक स्वायत्तता (ऑटोनोमी) मिलेगी और स्थिति और खराब होगी। समय की मांग है कि अनुच्छेद 356 में संशोधन किया जाए और ‘अन्यथा’ और ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ वाक्यांशों (फ्रेसेज) की एक विशिष्ट परिभाषा प्रदान की जाए ताकि अनुच्छेद 356 का दायरा तय किया जा सके। विधायिका को उन कार्यों की तीव्रता (इंटेंसिटी) या गंभीरता को परिभाषित करना चाहिए जिन्हें यह तर्क देने के लिए उचित और न्यायसंगत आधार के रूप में दिया जा सकता है कि यह संवैधानिक तंत्र की विफलता है और इसलिए, निर्वाचित सरकार को बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

संविधान के तथाकथित ‘मृत अक्षरों (डेड लेटर्स)’ जो दुर्लभतम से दुर्लभतम (रेयरेस्ट औफ द रेयरेस्ट) मामलों में उपयोग किए जाने की उम्मीद थी, राज्य सरकार के दायरे का अतिक्रमण करने का एक उपकरण बन गया है। पांच राज्यों में आपातकाल लागू करने के विश्लेषण के माध्यम से यह देखा गया है कि राष्ट्रपति शासन उचित आधारों के बिना भी रहा है और वही भारतीय राजनीति का गलत पक्ष बन गया है। केंद्र और राज्य दोनों सरकारें अपने क्षेत्र में सर्वोच्च हैं और उनमें से कोई भी दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता का दावा नहीं कर सकता है। अनुच्छेद 356 की अस्पष्ट प्रकृति के कारण, कोई प्रभावी उपाय नहीं है जो केंद्र सरकार के हाथों में अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकता है। भारत के संघीय ढांचे की रक्षा के लिए, बोम्मई के मामले में और साथ ही सरकारिया आयोग द्वारा पेश की गई सिफारिशों के अनुरूप अनुच्छेद 356 में संशोधन करना अनिवार्य है। राष्ट्रपति शासन हमेशा अंतिम उपाय होना चाहिए और सभी कदम जैसे राज्य सरकार को चेतावनी देना कि वह संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार काम नहीं कर रही है, बहुमत साबित करने के लिए फ्लोर टेस्ट आदि का राज्यपाल द्वारा पालन किया जाना चाहिए।

हालांकि, भले ही सरकारिया आयोग की सभी सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 356 में संशोधन किया जाएगा, फिर भी, शक्ति के दुरुपयोग की संभावना होगी क्योंकि किसी भी कानून की दक्षता (एफिशिएंसी) इस शर्त पर निर्भर करती है कि इसे कितनी अच्छी तरह से लागू किया गया है। इसलिए, अनुच्छेद 356 की सख्त व्याख्या के माध्यम से ही यह उम्मीद की जा सकती है कि राष्ट्रपति शासन का चुनाव करते समय सह-संघ (को-फेडरेशन) की भावना को बनाए रखा जाना चाहिए और केंद्र सरकार को अपने स्वयं के राजनीतिक हितों की तलाश के लिए इस शक्ति का उपयोग नहीं करना चाहिए।

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