विशिष्ट राहत अधिनियम 1963 के तहत लिखतों को रद्द करना

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1903
Specific Relief Act 1963

यह लेख एलायंस यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ लॉ के Anubhab Banerjee द्वारा लिखा गया है। यह विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत लिखतों (इंस्ट्रूमेंट) को रद्द करने से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है।

परिचय

भारत में कानूनी प्रणाली कुछ कर्तव्यों और दायित्वों का प्रावधान करती है जिनका पालन अनुबंध के प्रत्येक पक्ष को करना होता है। ऐसे किसी भी कर्तव्य या दायित्व का उल्लंघन करते हुए पाया गया पक्ष कानून के तहत दंडनीय है। इन कर्तव्यों के साथ, कानून अनुबंध के पक्षों को कुछ राहत भी प्रदान करते हैं, ऐसे मामलों में जहां अनुबंध को कानून के तहत प्रश्नास्पद(क्वेस्चनबल) माना जा सकता है। ऐसी ही एक राहत है लिखतों को रद्द करना, जिसका उल्लेख विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत किया गया है। यह लेख पाठक को विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत लिखतों को रद्द करने से जुड़े विभिन्न मुद्दों को समझाने में मदद करेगा।

लिखतों को रद्द करना

सरल भाषा में, लिखतों को रद्द करने का मतलब एक लिखित दस्तावेज़ को रद्द करना है जो लेनदेन का हिस्सा बनने वाले पक्षों के बीच लेनदेन का प्रमाण है। एक लिखत एक दस्तावेज़ है जिसके द्वारा कोई भी अधिकार या दायित्व भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 के अनुसार बनाया, हस्तांतरित (ट्रैन्स्फर), सीमित, विस्तारित या समाप्त किया जाता है।

दस्तावेजों को रद्द करना विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 31, 32 और 33 के तहत प्रदान किया जाता है। यदि कोई लिखत है, जो किसी कारण से शून्य या शून्यकरणीय (वॉयडेबल) है और ऐसे लिखत के पक्ष के पास यह विश्वास करने के लिए पर्याप्त कारण हैं कि उक्त लिखत में उसके खिलाफ कार्रवाई करने की क्षमता है और यहां तक कि उसे क्षति भी हो सकती है, तो ऐसा व्यक्ति ऐसे लिखत को रद्द करने के संबंध में वाद दायर कर सकता है। यह एक विवेकाधीन राहत है और इसके पीछे का कारण इस लेख के बाद के चरणों में परिभाषित किया गया है।

लिखतों को रद्द करना निम्नलिखित दो तरीकों से किया जा सकता है:

  • पूर्ण रद्दीकरण जहां अदालत पूरे लिखत को रद्द करने का निर्णय लेती है।
  • आंशिक रद्दीकरण जहां लिखत का केवल एक हिस्सा रद्द किया जाता है। इस प्रकार के रद्दीकरण का उल्लेख विशिष्ट राहत अधिनियम की धारा 32 के तहत किया गया है और बाद में इस लेख में आगे बताया गया है।

रद्दीकरण के लिए मुख्य आवश्यकताएँ

किसी लेन-देन के पक्ष के अनुरोध पर सिविल न्यायालयों द्वारा किसी लिखत को रद्द करने का कार्य कुछ आवश्यकताओं पर विचार करने के बाद ही किया जा सकता है। किसी पक्ष द्वारा दायर किसी लिखत को रद्द करने के मुकदमे पर तभी विचार किया जाएगा जब निम्नलिखित में से कोई भी आवश्यकता पूरी हो:

  • यदि वह लिखत जिसके विरुद्ध पक्ष द्वारा रद्दीकरण का वाद दायर किया गया है, शून्य है।
  • यदि वह लिखत जिसके विरुद्ध पक्ष द्वारा रद्दीकरण का वाद दायर किया गया है, शून्यकरणीय है।
  • यदि जिस लिखत के विरुद्ध रद्दीकरण का वाद दायर किया गया है, उसमें वाद दायर करने वाले पक्ष को क्षति/नुकसान पहुंचाने की क्षमता है।
  • यदि जिस पक्ष ने किसी लिखत को रद्द करने के लिए वाद दायर किया है, उसे लिखत के प्रदर्शन के कारण क्षति होने की उचित आशंका है।
  • जब जिस दस्तावेज़ को रद्द करने का अनुरोध पक्ष द्वारा किया गया है, वह पहले ही अनुरोध करने वाले पक्ष को पर्याप्त क्षति/हानि पहुंचा चुका हो।
  • मामले की सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय को संतुष्ट होना चाहिए कि किसी दस्तावेज़ को इस तरह रद्द करना उचित है और इससे ऐसे दावों के लिए अदालतों में आने वाले पक्षों को न्याय मिलेगा।

यदि उपरोक्त शर्तों/आवश्यकताओं में से कोई भी संतुष्ट है, तो कोई व्यक्ति किसी लिखत को रद्द करने के लिए सफलतापूर्वक वाद दायर कर सकता है।

रद्द करने का आदेश कब दिया जाता है

धारा 31 के तहत विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 हमें बताता है कि अदालत द्वारा किसी दस्तावेज़ को रद्द करने का आदेश कब दिया जा सकता है। आरंभ करने के लिए, यह धारा अपने पहले खंड के तहत हमें बताती है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी विशेष लिखत के प्रदर्शन से व्यथित है और महसूस करता है कि ऐसा लिखत शून्य या अमान्य हो गया है, या मानता है कि लिखत में क्षति/नुकसान पहुंचाने की क्षमता है। यदि ऐसा लेन-देन जारी रहता है तो वह ऐसे लिखत को शून्य घोषित कराने के लिए सिविल न्यायालय में वाद दायर कर सकता है। एक बार ऐसा वाद दायर होने के बाद यह अदालत पर निर्भर करता है कि वह यह तय करे कि क्या ऐसे लिखत को शून्य घोषित किया जाना चाहिए या नहीं। ऐसे मामलों में न्यायालय के पास पूर्ण विवेकाधिकार है। इस प्रकार, यदि उपर्युक्त आवश्यकताएं पूरी होती हैं तो न्यायालय ऐसे लिखत को रद्द करने का आदेश दे सकता है।

धारा 31 का दूसरा खंड हमें बताता है कि यदि कोई दस्तावेज जिसे रद्द करने के लिए न्यायालय के सामने रखा गया है वह एक दस्तावेज है जो भारतीय पंजीकरण (रेजिस्ट्रेशन) अधिनियम, 1908 के तहत पंजीकृत किया गया है, तो ऐसे डिक्री की एक प्रति जिसमें इसके बारे में विवरण शामिल हो, लिखत का रद्दीकरण उस अधिकारी को भेजना आवश्यक है जिसके तहत लिखत/दस्तावेज़ पंजीकृत किया गया था। ऐसा डिक्री अधिकारी की सुविधा और उसके रजिस्टर को अपडेट रखने के लिए भेजी जाती है। न्यायालय से निर्देश/आदेश प्राप्त होने पर, अधिकारी को दस्तावेजों की प्रतिलिपि को अपने रजिस्टर में “रद्द” के रूप में चिह्नित करना आवश्यक है।

लिखतों का आंशिक रद्दीकरण

विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 32 के तहत लिखतों को आंशिक रूप से रद्द करने की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है।

यह धारा कहती है, कि जब किसी लिखत के कोई विशेष हिस्से पर अदालत के सामने रद्द करने का प्रश्न हो या जब ऐसे लिखत के तहत आवश्यक कई अधिकार और दायित्व हों, तो अदालत अपने विवेक पर उसका केवल एक हिस्सा रद्द कर सकती है और बाकी को वैसे ही रहने दे सकती है। आंशिक रद्दीकरण का मूल रूप से मतलब है कि लिखत का एक हिस्सा जो असंगत, शून्य या शून्यकरणीय है, उसे अदालत द्वारा रद्द कर दिया जाएगा और इस तरह के रद्दीकरण का लिखत से जुड़े अन्य अधिकारों और दायित्वों के प्रदर्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

लाभ या मुआवज़े की मांग करने की शक्ति

किसी दस्तावेज़ के रद्द होने पर प्राप्त लाभों और उचित मुआवजे की बहाली की आवश्यकता के लिए न्यायालय की शक्ति के संबंध में प्रावधान विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 33 के तहत प्रदान किए गए हैं। इस धारा का प्राथमिक उद्देश्य किसी विशेष दस्तावेज़/अनुबंध को अदालत द्वारा रद्द किए जाने की स्थिति में उसके प्रतिभागियों को न्याय दिलाने में निहित है।

यह धारा सबसे पहले हमें बताती है कि जब अदालत किसी दस्तावेज़ को पूरी तरह या आंशिक रूप से रद्द करने का निर्णय लेती है, तो जिस पक्ष को ऐसी राहत दी जाती है, उसे या तो किसी भी लाभ को बहाल करना होगा या उसका दावा करना होगा जो उसे दूसरे पक्ष से प्राप्त हुआ हो या इसके लिए आवश्यक मुआवजा देना होता है। अधिनियम द्वारा पक्षों को न्याय दिलाने के इरादे से ऐसी शर्तें सामने रखी जाती हैं, क्योंकि अदालत एक ऐसी जगह है जो उसके पास आने वाले लोगों को न्याय दिलाने के लिए जिम्मेदार है।

यह धारा उन शर्तों को भी प्रदान करती है/बताती है जिनके तहत, किसी लिखत/अनुबंध के प्रदर्शन के मुकदमे का प्रतिवादी ऐसे लिखत/अनुबंध को रद्द करने का दावा कर सकता है। धारा 33 में उल्लिखित शर्तें इस प्रकार हैं:

  • जब कोई वादी किसी प्रतिवादी के विरुद्ध किसी अनुबंध को लागू करने के लिए वाद दायर करता है और प्रतिवादी ऐसे अनुबंध को शून्यकरणीय होने का दावा करके अनुबंध का विरोध करने का प्रयास करता है। ऐसे मामले में यदि न्यायालय की यह भी राय है कि विचाराधीन अनुबंध/लिखत शून्यकरणीय है, तो न्यायालय ऐसे लिखत/अनुबंध को रद्द करने का आदेश दे सकता है।
  • जब एक वादी किसी प्रतिवादी के खिलाफ अनुबंध लागू करने के लिए वाद दायर करता है और प्रतिवादी भारतीय कानूनों के तहत अनुबंध में भाग लेने के लिए सक्षम नहीं होने के कारण ऐसे अनुबंध के शून्य होने का दावा करके अनुबंध का विरोध करने की कोशिश करता है। अनुबंध में प्रवेश करने की क्षमता को भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 में धारा 11 के तहत परिभाषित किया गया है। अनुबंध में प्रवेश करने की क्षमता का आकलन उम्र, दिमाग की स्वस्थता आदि जैसी शर्तों से किया जा सकता है। ऐसे मामले में लिखत/अनुबंध को न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया जाएगा।

उपर्युक्त शर्तों के संबंध में यदि किसी दस्तावेज़ के संबंध में अदालत द्वारा रद्दीकरण का आदेश पारित किया जाता है, तो प्रतिवादी को ऐसे अनुबंध/लिखत के निष्पादन के दौरान दूसरे पक्ष से प्राप्त लाभों को बहाल करना होगा और प्रतिवादी को न्याय प्रदान करने में अदालत के उद्देश्य को पूरा करने के लिए दूसरे पक्ष यानी वादी को तदनुसार मुआवजा देने के लिए भी कहा जाएगा।

रद्दीकरण के लिए निर्णय

विशिष्ट राहत अधिनियम 1963 के तहत एक लिखत को रद्द करने के संबंध में प्रावधानों की बेहतर समझ के लिए भारतीय न्यायालयों द्वारा एक लिखत को रद्द करने के संबंध में दिए गए निर्णयों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। भारतीय न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों की कुछ व्याख्याएँ नीचे दी गई हैं।

  • वेल्लाय्या कोनार और अन्य बनाम रामास्वामी कोनार और अन्य

यह मामला हमारे विषय के लिए प्रासंगिक है क्योंकि इसके फैसले में, आधिपत्य न्यायाधीश वर्ड्सवर्थ द्वारा kaha गया था की किसी लिखत को रद्द करने और इस घोषणा कि लिखत वादी पर बाध्यकारी नहीं है के बीच अंतर किया गया है।

यह निर्णय हमें बताता है कि किसी लिखत को रद्द करने का वाद केवल उन पक्षों द्वारा दायर किया जा सकता है जो ऐसे लेनदेन का हिस्सा हैं और ऐसे मुकदमे को अदालत के विवेक पर रद्द करने के लिए रखा जा सकता है। यदि कोई तीसरा पक्ष किसी लेन-देन/लिखत के संबंध में चिंताएं साझा करता है, यानी यदि ऐसे तीसरे पक्ष को लगता है कि उसके साथ जुड़े पक्षों द्वारा ऐसे लिखत के दायित्वों के प्रदर्शन के कारण उसके साथ गलत व्यवहार किया गया है, तो ऐसा तीसरा पक्ष लिखत रद्दीकरण के लिए वाद दायर नहीं कर सकता है। अदालत ने कहा कि ऐसे मामले में संबंधित तीसरे पक्ष को डिक्लेरेशन डिक्री के लिए वाद करना होगा न कि किसी दस्तावेज को रद्द करने के लिए।

  • जेका दुला बनाम बाई जीवी (1937)

यह मामला हमें किसी दस्तावेज़ को रद्द करने के संबंध में अदालत के हस्तक्षेप के महत्व के साथ-साथ ऐसे रद्दीकरण के लिए अदालतों द्वारा उपयोग किए जाने वाले तर्क को समझने में मदद करता है। यह फैसला अदालत द्वारा दिए जाने वाले न्याय के महत्व के बारे में बात करता है। इसलिए न्यायालय द्वारा दिया जाने वाला न्याय किसी दस्तावेज़ को रद्द करने के पहलू से जुड़ा हुआ है।

यदि किसी लेनदेन के किसी भी पक्ष द्वारा किसी लिखत का अनुचित रूप से उपयोग किया जा रहा है, जो नुकसान पहुंचा रहा है या अदालत के पास आए पीड़ित पक्ष को नुकसान पहुंचाने का इरादा रखता है, तो ऐसी लिखत को न्याय के उद्देश्य से अदालत के विवेक से रद्द कर दिया जाना चाहिए।

किसी दस्तावेज़ को रद्द करना विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत ऐसे पक्षों की सुरक्षा के लिए एक सुरक्षात्मक उपाय है, जिन्हें उस लिखत के प्रदर्शन के माध्यम से दूसरे पक्ष द्वारा नुकसान होने का डर है, जिसका वे हिस्सा हैं।

  • राम करण बनाम भगवान दास

इस मामले में, माननीय न्यायालय ने किसी दस्तावेज़ को रद्द करने पर गलत बयानी या धोखाधड़ी के परिणामों की व्याख्या की। माननीय न्यायाधीश ने कुछ लाभ प्राप्त करने के लिए किसी विशेष दस्तावेज़/लिखत में गलत बयानी को एक ऐसा कार्य माना जो दस्तावेज़/लिखत/अनुबंध के दायित्वों के निष्पादन को अमान्य बनाता है, शून्य नहीं। इस मामले में न्यायालय ने कहा है कि चूंकि अनुबंध की बाध्यताएं शून्यकरणीय थीं इसलिए मामले के प्रतिवादियों को विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत एक दस्तावेज को रद्द करने के संबंध में प्रावधानों के तहत राहत की मांग करनी चाहिए थी और इस तरह का दावा, ऐसे दावों के लिए निर्धारित सीमा अवधि के भीतर शुरू किया जाएगा जैसा की सीमा अधिनियम, 1963 के तहत उल्लिखित है।

  • प्रेम सिंह एवं अन्य बनाम बीरबल एवं अन्य (2008)

इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 में धारा 31 के बारे में बात की है। माननीय न्यायालय की राय थी कि किसी दस्तावेज़ को रद्द करने का काम तब सौंपा जा सकता है जब दस्तावेज़ एक शून्य दस्तावेज़ हो या एक शून्यकरणीय दस्तावेज़ हो।

माननीय न्यायालय ने माना कि जहां तक अमान्य दस्तावेजों पर विचार किया जाता है, पीड़ित पक्ष को विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 31 के तहत किसी लिखत/दस्तावेज़ को रद्द करने के लिए वाद दायर करने की आवश्यकता नहीं हो सकती है। हालांकि जब किसी शून्यकरणीय दस्तावेज़/लिखत के संबंध में इसी तरह की चिंता जताई जाती है तो लिखत को रद्द करने के उद्देश्य से विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 31 के तहत वाद दायर करना आवश्यक होगा।

निष्कर्ष

1963 के विशिष्ट राहत अधिनियम के तहत भारत में अदालतों द्वारा दस्तावेजों को रद्द करने का उद्देश्य हमेशा उन पक्षों जिन्हें नुकसान होने का डर है या वास्तव में दूसरे पक्ष द्वारा नुकसान पहुंचाया जा रहा है, को न्याय दिलाने के इरादे से रहा है। ऐसे लिखत/अनुबंध का निष्पादन। ऐसी स्थितियों में न्यायालय लिखत/अनुबंध को रद्द करके न्याय प्रदान करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत दस्तावेजों को रद्द करने के संबंध में प्रावधान सराहनीय हैं और न्याय प्रदान करने के न्यायालयों के उद्देश्य के अनुरूप हैं।

 

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