औल यू नीड टु नो अबाउट प्रिएंबल ऑफ़ द इंडियन कंस्टीट्यूशन (भारतीय संविधान की प्रस्तावना के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं)

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preamble of indian constitution
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यह लेख ग्रेटर नोएडा के लॉयड लॉ कॉलेज में कानून के पांचवें वर्ष के छात्र Gourav Raj Grover ने लिखा है। यह लेख प्रस्तावना के अर्थ के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar ने किया है।

Table of Contents

प्रस्तावना (इंट्रोडक्शन)

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है:

“हम, भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु समाजवादी (सोवरिन सोशलिस्ट) धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) लोकतांत्रिक गणराज्य (डेमोक्रेटिक रिपब्लिक) बनाने और इसके सभी नागरिकों को सुरक्षित करने का संकल्प (रिजॉल्युशन) लेते हैं।

न्याय (जस्टिस), सामाजिक, आर्थिक (इकोनोमिक) और राजनीतिक (पॉलिटिकल);

विचार, अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन), विश्वास (बीलीफ़ एंड फेथ) और पूजा (वर्शिप) की स्वतंत्रता;

स्थिति और अवसर (स्टेटस एंड ऑपर्च्युनिटी) की समानता (इक्वालिटी); और उन सभी के बीच प्रचार (प्रोमोट) करने के लिए

व्यक्ति की गरिमा (डिग्निटी) और राष्ट्र की एकता और अखंडता (यूनिटी एंड इंटिग्रिटी) को सुनिश्चित (अश्योर) करने वाली बंधुता (फ्रेटर्निटी);

हमारी संविधान सभा में इस 26 नवंबर 1949 को, संविधान को अपनाया, अधिनियमित (एनेक्ट) किया और नागरिकों को प्रदान कराया था।

प्रस्तावना क्या है (व्हाट इज प्रिएंबल)?

विधेयक (बिल) में दि गई प्रस्तावना दस्तावेज़ (डॉक्यूमेंट) का एक परिचयात्मक (इंट्रोडक्टरी) भाग है जो दस्तावेज़ के उद्देश्य (पर्पज), नियमों (रूल्स), विनियमों (रेगुलेशन) और दर्शन की व्याख्या (फिलोसोफी) बताता है। एक प्रस्तावना दस्तावेज़ के सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) और मौलिक मूल्यों (फंडामेंटल वैल्यूज) के उपर रोशनी डालकर दस्तावेज़ों का छोटे रूप में परिचय देता है। यह दस्तावेज़ के अधिकार के स्रोत (सोर्स) को दिखाता है।

भारत के संविधान की प्रस्तावना, संविधान का एक परिचय है जिसमें देश के लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए नियमों और विनियमों के समूह शामिल हैं। इसमें नागरिकों की प्रेरणा (इंस्पायरेशन) और आदर्श (मोटो) क्या रहेना चाहिए ये समझाया गया है। प्रस्तावना को संविधान की शुरुआत माना जा सकता है जो संविधान के मूल आधार (बेस) पर प्रकाश डालता है।

भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (हिस्टोरिकल बैकग्राउंड ऑफ़ इंडियन कंस्टीट्यूशन)

1947 से पहले, भारत दो मुख्य भागों में विभाजित था – 11 प्रांत (प्रोविंस) जो अंग्रेजों द्वारा शासित (रुल्ड) थे और रियासतें (प्रिंसली स्टेट्स) ब्रिटिशों की आदेशों में भारतीय राजकुमारों द्वारा शासित थीं। इन दोनों इकाइयों (यूनिट्स) को मिलाकर भारत संघ (यूनियन) का निर्माण हुआ। प्रस्तावना संविधान सभा द्वारा लिखित सिद्धांतों पर आधारित है।

यह जीवन का एक तरीका प्रदान करता है, जिसमें एक सुखी जीवन की धारणा (नोशन) के रूप में बंधुत्व, स्वतंत्रता और समानता शामिल है और जिसे एक दूसरे से नहीं लिया जा सकता है। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व और यह एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है, जिसका अर्थ है कि समानता के बिना, स्वतंत्रता बहुसंख्यक (मेजोरिटी) पर अल्पसंख्यक (मायनोरिटी) की सर्वोच्चता (सुप्रीमसी) पैदा करेगी। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्तिगत धारणा को नष्ट कर सकती है और बिरादरी (फ्रेटरनिटी) उनकी कार्रवाई (प्रोसीडिंग्स) के दौरान स्वतंत्रता और समानता में मदद करती है।

भारत की प्रस्तावना और इसके अंगीकरण की तिथि किसने लिखी (हू रोट द प्रिएंबल ऑफ़ इंडिया एंड डेट ऑफ़ इट्स अडॉप्शन) 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना मुख्य रूप से जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित ‘उद्देश्य संकल्प (ऑब्जेक्टिव रेजोल्यूशन)’ पर आधारित है। उन्होंने 13 दिसंबर 1946 को अपना उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया, बाद में 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

मसौदा समिति (ड्राफ्टिंग कमिटी) ने देखा कि प्रस्तावना को नए राज्य की महत्वपूर्ण विशेषताओं का अर्थ करने में सीमित होना चाहिए और इसके सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्यों और अन्य महत्वपूर्ण मामलों को संविधान में और परिष्कृत (रिफाइंड) किया जाना चाहिए। समिति ने ‘संप्रभु स्वतंत्र गणराज्य’ से ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य’ के आदर्श वाक्य को बदल दिया क्योंकि इसका ‘उद्देश्य संकल्प’ में बताया गया था।

प्रस्तावना को संविधान की आत्मा कहा जा सकता है क्योंकि इसमें संविधान के बारे में सब कुछ दिया गया है। इसे 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था और यह 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था जिसे गणतंत्र दिवस के रूप में जाना जाता है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना के घटक (कंपोनेंट्स ऑफ़ प्रिएंबल ऑफ़ द इंडियन कंस्टीट्यूशन)

प्रस्तावना के घटक (कंपोनेंट्स) हैं:

  1. प्रस्तावना से यह पता चलता है कि भारत के लोग इस अधिकार के स्रोत हैं। इसका अर्थ है कि नागरिकों के पास अपने प्रतिनिधियों (रिप्रेजेंटेटिव्स) का चुनाव करने की शक्ति है और उन्हें अपने प्रतिनिधियों की आलोचना (क्रिटिसाइज) करने का भी अधिकार है।
  2. इसमें इसको कब अपनाया गया उसकी तारीख शामिल है जो 26 नवंबर, 1949 है।
  3. यह भारत के संविधान के उद्देश्यों को बताता है, जो देश के साथ-साथ नागरिकों की अखंडता और एकता (इंटिग्रिटी एंड यूनिटी) को बनाए रखने के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व हैं।
  4. यह भारतीय राज्य की प्रकृति (नेचर) को भी सही ठहराता है, जो कि संप्रभु, समाजवादी, गणराज्य, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक है।

पी ए इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य (पी. ए. इनामदार व. स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र)

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक सर्वसम्मत (अनएनिमस) निर्णय देते हुए घोषणा की कि राज्य पेशेवर (प्रोफेशनल) कॉलेजों सहित अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक (नॉन मायनोरिटी) गैर-सहायता (अन ऐडेड) प्राप्त निजी (प्राइवेट) कॉलेजों पर कोई आरक्षण नीति (रिजर्वेशन पॉलिसी) नहीं लागू कर सकता है।

यह निर्णय टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य और इस्लामीक शिक्षा अकादमी बनाम कर्नाटक राज्य के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के पिछले निर्णयों को स्पष्ट करने का एक प्रयास किया था। 

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक गैर-सहायता प्राप्त उच्च शिक्षा संस्थानों (हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूशन) से संबंधित कुछ विषयों पर चर्चा की:

आरक्षण नीति (रिजर्वेशन पॉलिसी)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य द्वारा किसी भी अल्पसंख्यक या गैर-अल्पसंख्यक बिना सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में न तो आरक्षण की नीति और न ही कोई कोटा या प्रवेश का प्रतिशत (परसेंटेज ऑफ़ एडमिशन) लागू किया जा सकता है।

संस्थान अन्य समुदायों (कम्युनिटी) के छात्रों सहित अपनी पसंद के छात्रों और विभिन्न राज्यों के एक ही समुदाय के छात्रों को किसी भी तरह से संस्थान में प्रवेश करने के लिए स्वतंत्र हैं।

राज्य से सहायता न मांगने वाले निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा फिक्स किए गए मानदण्डों (क्राइटेरिया) से कम अंकों पर प्रवेश देने के लिए राज्य आरक्षण पर नीतियाँ लागू नहीं कर सकता है। भले ही राज्य निजी शिक्षण संस्थानों को कम से कम संसाधन (रिसोर्सेस) दे रहा हो, लेकिन  कोई राज्य संस्थान को दिए गए मानदंडों से कम अंक वाले छात्रों को प्रवेश देने के लिए मजबूर करने के लिए अपनी नीतियों को लागू कर सकता है, यह कोई आधार (ग्राउंड) नहीं है।

प्रवेश नीति (एडमिशन पॉलिसी)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अल्पसंख्यक गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थान अपनी स्नातक शिक्षा (अंडरग्रैजुएट एजुकेशन) तक पूर्ण स्वतंत्रता का आनंद ले सकते हैं। लेकिन स्नातक और स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट) स्तर की शिक्षा के लिए और तकनीकी (टेक्निकल) और व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों के लिए भी आवेदन (एप्लिकेशन) करने के लिए अलग-अलग प्रावधान (प्रोविजन) होंगे।

अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में संस्थान की पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) और योग्यता (मेरिट) सुनिश्चित की जानी चाहिए। राज्य को निष्पक्ष (फेअर) और योग्यता-आधारित प्रवेश प्रदान करने और गलत प्रशासन को हटाने के लिए सामान्य प्रवेश परीक्षा (कॉमन एंट्रेंस टेस्ट) आयोजित करने की अनुमति है।

एक ही उम्मीदवार (कैंडिडेट) को कई परीक्षाओं में बैठने की अनुमति है। प्रत्येक परीक्षा के लिए, चुने गए उम्मीदवारों की पहचान करने के लिए एक मेरिट सूची बनाई जाती है, जिन्होंने परीक्षा उत्तीर्ण (पास) की है और छात्रों को उनके अंकों के आधार पर विभिन्न संस्थान आवंटित (अलॉट) किए जाते हैं और प्रवेश परीक्षा के स्कोर और भरे गए प्रवेश फार्म छात्र के विकल्पों (ऑप्शन्स) पर आधारित होता है। 

शुल्क संरचना (फी स्ट्रक्चर)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उचित शुल्क संरचना संस्था के प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) में एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटक है। इसका मतलब यह है कि हर संस्थान अपनी फीस संरचना बनाने के लिए स्वतंत्र है लेकिन वे छात्रों से होने वाले मुनाफे (बेनिफिट) का दुरुपयोग नहीं कर सकते हैं और वे किसी भी रूप में प्रतिव्यक्ती गणन (कैपिटेशन) फीस नहीं ले सकते हैं।

फीस संरचना कुछ कारकों (फैक्टर्स) पर निर्भर करती है जो फीस की उचितता (एप्रोप्रीएटनेस) फिक्स करते हैं:

  1. उपलब्ध आधारिक संरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) और सुविधाएं।
  2. किए गए निवेश (इन्वेस्टमेंट)।
  3. शिक्षकों और कर्मचारियों का वेतन (सैलरी)।
  4. विस्तार के लिए भविष्य की योजनाएं।

कोर्ट ने कहा कि संस्थानों को एक उचित अधिशेष (सरप्लस) बनाना चाहिए जो कि उनकी भविष्य की योजनाओं और संस्थान की बेहतरी के लिए 15% नहीं बढ़ाना चाहिए।

राज्य द्वारा विनियमन और नियंत्रण (रेगुलेशन एंड कंट्रोल बाय द स्टेट)

इस मामले के फैसले ने एक संस्था के प्रशासन के लिए कुछ अधिकार स्थापित किए है वह इस प्रकार है:

  • छात्रों को प्रवेश देना।
  • एक उचित शुल्क संरचना स्थापित करना।
  • शासी निकाय का गठन (कंस्टीट्यूशन ऑफ़ गवर्निंग बॉडी) करना।
  • कर्मचारियों (शिक्षण और गैर-शिक्षण दोनों) की नियुक्ति करना।
  • समस्याओं के खिलाफ कार्रवाई करना।

अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान के पास यह चुनने का पर्याय (ऑप्शन्स) है कि वे राज्य से मदद लेना चाहते हैं या नहीं। कोई भी संस्थान ऐसी कोई गतिविधि नहीं कर सकता जो किसी भी तरह से कानून का उल्लंघन (वॉयलेशन) करती हो। इसलिए, राज्य को शिक्षकों की गुणवत्ता और उनके पाठ्यक्रम (कोर्स) की कम से कम योग्यता (क्वालिफिकेशन) पर प्रावधान कर सकता है, लेकिन वे उनके दिन-प्रतिदिन (डे टू डे) के प्रशासन में हस्तक्षेप (इंटरफेयर) नहीं कर सकते। प्रबंधन (मैनेजमेंट) का मुख्य उद्देश्य छात्रों के प्रवेश को विनियमित (रेगुलेट) करना, कर्मचारियों (वर्कर्स) की भर्ती करना और शुल्क-संरचना की गिनती करना है जिसे राज्य द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।

प्रवेश और शुल्क से संबंधित समितियों की भूमिका (रोल ऑफ़ कमिटीज डीलिंग विथ एडमिशन एंड फीस)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गैर-अल्पसंख्यक जिन्हें किसी भी प्रकार की सहायता प्राप्त नहीं है अन शिक्षण संस्थानों में कुछ प्रतिबंध होने चाहिए जो छात्रों के पक्ष में हों। व्यावसायिक शिक्षा सभी पात्र (एलिजिबल) छात्रों को योग्यता के आधार पर उपलब्ध होनी चाहिए और कुछ नहीं। 

इसलिए, प्रवेश प्रक्रिया को विनियमित करने और शुल्क संरचना पर निगरानी रखने के लिए समितियों का गठन किया जाना चाहिए। समितियों को प्रशासन द्वारा सृजित (क्रिएट) सभी कदाचारों (माल प्रैक्टिसेज) से बचने के लिए प्रशासन को देखना चाहिए। यदि कोई समिति किसी व्यक्तिगत संस्थान में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करती है, तो प्रशासन द्वारा निर्णय पर सवाल उठाया जा सकता है क्योंकि समिति प्रकृति में अर्ध-न्यायिक (क्वासि जुडिशल) है।

भारतीय संविधान के उद्देश्य (ऑब्जेक्टिव ऑफ़ इंडियन कंस्टीट्यूशन)

भारतीय संविधान का मुख्य उद्देश्य पूरे देश में सद्भाव (हार्मनी) को बढ़ावा देना है। जैसा कि हम जानते हैं, संविधान सर्वोच्च कानून है और यह समाज में अखंडता बनाए रखने और एक महान राष्ट्र के निर्माण के लिए नागरिकों के बीच एकता को बढ़ावा देने में मदद करता है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने में नीचे दी गई चीजे सहायता करती हैं:

न्याय (जस्टिस)

‘न्याय’ शब्द में तीन तत्व (एलीमेंट्स) शामिल हैं जो परिभाषा को पूरा करते हैं, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक है। समाज में व्यवस्था  बनाए रखने के लिए नागरिकों के बीच न्याय आवश्यक है। भारत के संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ़ स्टेट) के विभिन्न प्रावधानों के जरिए से न्याय का वादा किया गया है।

  • सामाजिक न्याय – सामाजिक न्याय का अर्थ है कि संविधान जाति, पंथ, लिंग, धर्म आदि जैसे किसी भी आधार पर भेदभाव के बिना समाज बनाना चाहता है। जहां कम विशेषाधिकार (प्रिविलेज) प्राप्त लोगों की सहायता करके लोगों को समान सामाजिक स्थिति मिलती है। संविधान उन सभी शोषणों (एक्सप्लॉयटेशन) को समाप्त करने का प्रयास करता है जो समाज में समानता को नुकसान पहुँचाते हैं।
  • आर्थिक (इकोनोमिक) न्याय – आर्थिक न्याय का अर्थ है कि लोगों द्वारा उनके धन, आय (इनकम) और आर्थिक स्थिति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। इसका मतलब है कि धन का बंटवारा उनके काम के आधार पर होना चाहिए, किसी अन्य कारण से नहीं। प्रत्येक व्यक्ति को समान पद के लिए समान रूप से भुगतान किया जाना चाहिए और सभी लोगों को अपने जीवन जीने के लिए कमाने के अवसर मिलने चाहिए।
  • राजनीतिक न्याय – राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सभी लोगों को राजनीतिक अवसरों में भाग लेने के लिए बिना किसी भेदभाव के समान, स्वतंत्र और निष्पक्ष अधिकार है। इसका मतलब है कि सभी को राजनीतिक कार्यालयों तक पहुंचने का समान अधिकार है और सरकार की प्रक्रियाओं (प्रोसेस) में समान भागीदारी है।

समानता (इक्वालिटी)

‘समानता’ शब्द का अर्थ है समाज के किसी भी वर्ग के पास कोई विशेष विशेषाधिकार नहीं है और सभी लोगों ने बिना किसी भेदभाव के हर चीज के लिए समान अवसर दिए हैं। इसका अर्थ है लोगों के रहने के लिए एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करने के लिए समाज से सभी प्रकार के भेदभाव को दूर करना है। इसलिए कानून के समक्ष सभी समान हैं।

स्वतंत्रता (लिबर्टी)

‘स्वतंत्रता’ शब्द का अर्थ है लोगों को अपने जीवन जीने का तरीका चुनने, समाज में राजनीतिक विचार और व्यवहार करने की स्वतंत्रता है। इसका अर्थ है कि नागरिकों पर उनके विचारों, भावनाओं और विचारों के संदर्भ में कोई अनुचित प्रतिबंध (रीजनेबल रिस्ट्रिक्शन) नहीं लगाया जा सकता है। लेकिन आज़ादी का मतलब कुछ भी करने की आज़ादी नहीं है, व्यक्ति कुछ भी कर सकता है लेकिन कानून द्वारा तय की गई सीमा में। जो कुछ भी सार्वजनिक अव्यवस्था (पब्लिक डिसऑर्डर) पैदा कर सकता है वह स्वतंत्रता के दायरे में नहीं आ सकता। स्वतंत्रता के नाम पर चोट से बचने के लिए ये सीमाएं संविधान द्वारा निर्धारित की गई हैं।

बंधुत्व (फ्रेटरनिटी)

बंधुत्व शब्द का अर्थ है देश और सभी लोगों के साथ भाईचारे और भावनात्मक लगाव (ब्रदरहुड एंड इमोशनल अटैचमेंट) की भावना होनी चाहिए। यह एक ऐसी भावना को बताता है जो यह विश्वास करने में मदद करती है कि सभी एक ही मिट्टी के बच्चे हैं और एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। भाईचारा सामाजिक मानदंडों (सोशल नॉर्म्स) या नियमों से ऊपर है, यह जाति, उम्र या लिंग से ऊपर का रिश्ता है। बंधुत्व राष्ट्र में गरिमा और एकता को बढ़ावा देने में मदद करता है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान को दिशा और उद्देश्य देते हुए किसी को कोई शक्ति या श्रेष्ठता नहीं देती है। यह केवल संविधान के मूल सिद्धांतों को देता है। यह बिना किसी भेदभाव के लोगों को समान अवसर प्रदान करके समानता को बढ़ावा देता है। यह सभी लोगों की रक्षा करने और नागरिकों के बीच आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को बनाए रखने में मदद करता है। साथ ही, प्रस्तावना उन तथ्यों को समझाने में मदद करती है जिनकी व्याख्या या अर्थ लगने की आवश्यकता है।

क्या प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है (इज प्रीएंबल पार्ट ऑफ़ द कंस्टीट्यूशन)

यह एक बहुत ही विवादास्पद (डिबेटेबल) विषय है क्योंकि प्रस्तावना के संविधान का हिस्सा होने के बारे में कई चर्चाएं हुई हैं। इस प्रश्न का उत्तर केवल दो मामलों को पढ़कर ही दिया जा सकता है।

बेरुबारी केस 

बेरुबारी केस को संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत एक संदर्भ के रूप में इस्तेमाल किया गया था, जो कि बेरुबारी संघ से संबंधित भारत-पाकिस्तान समझौते (एग्रीमेंट) के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) पर था और उन परिक्षेत्रों (एंक्लेव्स) के आदान-प्रदान में था, जिन पर आठ न्यायाधीशों की पीठ (बेंच) ने विचार करने का निर्णय लिया था।

इस मामले के माध्यम से कोर्ट ने कहा कि ‘प्रस्तावना निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुंजी (की) है’ लेकिन इसे संविधान का हिस्सा नहीं माना जा सकता है।

केशवानंद भारती केस 

इस मामले ने इतिहास रच दिया क्योंकि पहली बार एक रिट याचिका पर सुनवाई के लिए 13 जजों की बेंच इकट्ठी हुई थी। कोर्ट ने माना कि:

  1. संविधान की प्रस्तावना को अब संविधान का अंग माना जाएगा।
  2. प्रस्तावना सर्वोच्च शक्ति या किसी प्रतिबंध या निषेध का स्रोत नहीं है, लेकिन यह संविधान की विधियों (स्टेच्यूट) और प्रावधानों की व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

तो, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रस्तावना संविधान के प्रारंभिक भाग का हिस्सा है।

प्रस्तावना का संशोधन (अमेंडमेंट ऑफ़ द प्रीएंबल)

केशवानंद भारती मामले के फैसले के बाद, यह स्वीकार किया गया कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है। तो, संविधान के एक भाग के रूप में, संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत इसे संशोधित किया जा सकता है, लेकिन प्रस्तावना की मूल संरचना (बेसिक स्ट्रक्चर) में संशोधन नहीं किया जा सकता है। क्योंकि संविधान की संरचना प्रस्तावना के मूल तत्वों पर आधारित है। अब तक, 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन किया गया है।

42वां संशोधन अधिनियम (अमेंडमेंट एक्ट), 1976

42वां संशोधन अधिनियम, 1976 संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने वाला पहला अधिनियम था। 18 दिसंबर 1976 को आर्थिक न्याय की रक्षा और भेदभाव को खत्म करने के लिए प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ को जोड़ा गया। इस संशोधन के माध्यम से, ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ को ‘संप्रभु’ और ‘लोकतांत्रिक’ के बीच जोड़ा गया, और ‘राष्ट्र की एकता’ को ‘राष्ट्र की एकात्मता और अखंडता’ में बदल दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्याख्या (इंटरप्रेटेशन बाय द सुप्रीम कोर्ट)

प्रस्तावना को संविधान के अधिनियमन के बाद संविधान में जोड़ा गया था। बेरुबारी संघ मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है, बल्कि इसे संविधान के प्रावधानों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में माना जाता है।

केशवानंद भारती मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फैसले को बदल दिया और प्रस्तावना को संविधान के हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया, जिसका अर्थ है कि इसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है।

एलआईसी ऑफ इंडिया मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा घोषित करने के अपने फैसले को जारी रखा।

इसलिए, अंत में, संविधान की प्रस्तावना को दस्तावेज़ की एक सुंदर प्रस्तावना माना जाता है क्योंकि इसमें संविधान के उद्देश्य और दर्शन जैसी सभी बुनियादी जानकारी शामिल है।

प्रस्तावना में मुख्य शब्द (कीवर्ड्स ऑफ़ द प्रिएम्बल)

संप्रभु (सोवेरिन)

संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत एक संप्रभु राज्य है। ‘संप्रभु’ शब्द का अर्थ है राज्य की स्वतंत्र सत्ता। इसका मतलब है कि राज्य का हर विषय पर नियंत्रण है और किसी अन्य प्राधिकरण या बाहरी शक्ति का उस पर नियंत्रण नहीं है। तो, हमारे देश की विधायिका के पास संविधान द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को ध्यान में रखते हुए देश में कानून बनाने की शक्तियां हैं।

संप्रभुता, सामान्य तौर पर, दो प्रकार की होती है: बाहरी और आंतरिक। बाहरी संप्रभुता का अर्थ है अंतर्राष्ट्रीय कानून में संप्रभुता जिसका अर्थ है अन्य राज्यों के खिलाफ राज्य की स्वतंत्रता जबकि आंतरिक संप्रभुता राज्य और उसमें रहने वाले लोगों के बीच संबंधों के बारे में बात करती है।

सिंथेटिक एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला किया कि ‘संप्रभु’ शब्द का अर्थ है कि राज्य के पास संविधान द्वारा दिए गए प्रतिबंधों के भीतर सब कुछ अधिकार है। संप्रभु का अर्थ है सर्वोच्च या स्वतंत्रता। इस मामले ने बाहरी और आंतरिक संप्रभु के बीच अंतर करने में मदद की। इस मामले ने प्रस्तावित किया कि ‘किसी भी देश का अपना संविधान तब तक नहीं हो सकता जब तक कि वह संप्रभु न हो’।

समाजवादी (सोशलिस्ट)

आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन 1976 के बाद ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ा गया। समाजवादी शब्द लोकतांत्रिक समाजवाद को दर्शाता है। इसका अर्थ है एक राजनीतिक-आर्थिक प्रणाली जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करती है।

श्रीमती इंदिरा गांधी ने समाजवादी को ‘अवसर की समानता’ या ‘लोगों के लिए बेहतर जीवन’ के रूप में समझाया। उन्होंने कहा कि समाजवाद लोकतंत्र की तरह है, हर किसी की अपनी व्याख्याएं होती हैं लेकिन भारत में समाजवाद लोगों के बेहतर जीवन का एक तरीका है।

  • एक्सेल वियर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि समाजवादी शब्द के साथ, उद्योग के राष्ट्रीयकरण और राज्य के स्वामित्व (ओनरशिप) के पक्ष में निर्णय लेने के लिए एक पोर्टल खोला गया है। लेकिन समाजवाद और सामाजिक न्याय का सिद्धांत समाज के एक अलग वर्ग के हितों की अनदेखी नहीं कर सकता है, मुख्य रूप से निजी मालिक।
  • डी एस नाकारा बनाम भारत संघ के मामले में, न्यायालय ने कहा कि ‘समाजवाद का मूल उद्देश्य देश में रहने वाले लोगों को एक सभ्य जीवन स्तर प्रदान करना है और जिस दिन वे पैदा होते हैं उस दिन से उनकी रक्षा करना है। वे मर जाते हैं’।

धर्म निरपेक्ष (सेक्युलर)

आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द भी जोड़ा गया था। संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में बताता है क्योंकि राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है। नागरिकों का जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण होता है और वे अपनी इच्छानुसार अपना धर्म चुन सकते हैं। राज्य लोगों को अपनी पसंद के किसी भी धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। राज्य सभी धर्मों को समान रूप से, समान सम्मान के साथ मानता है और उनके बीच भेदभाव नहीं कर सकता है। राज्य को लोगों की पसंद के धर्म, आस्था या पूजा की मूर्ति के साथ हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है।

धर्मनिरपेक्षता के महत्वपूर्ण घटक हैं (इंपॉर्टेंट कंपोनेंट्स ऑफ़ सेक्युलरिज्म आर):

  • संविधान के अनुच्छेद 14 द्वारा समानता के अधिकार की गारंटी दी गई है।
  • संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 द्वारा किसी भी आधार जैसे धर्म, जाति आदि पर भेदभाव निषिद्ध है।
  • संविधान का अनुच्छेद 19 और 21 नागरिकों की सभी स्वतंत्रताओं पर चर्चा करता है, जिसमें वाक् और अभिव्यक्ति (राइट टु स्पीच एंड एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता भी शामिल है।
  • अनुच्छेद 24 से अनुच्छेद 28 में धर्म का पालन करने से संबंधित अधिकार शामिल हैं।
  • संविधान के अनुच्छेद 44 ने सभी नागरिकों को समान मानते हुए समान नागरिक कानून बनाने के लिए राज्य के मौलिक कर्तव्य को त्याग दिया।
  • मामले में एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, सर्वोच्च न्यायालयों की नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को संविधान की मूल विशेषता के रूप में पाया।

बाल पाटिल बनाम भारत संघ के मामले में, न्यायालय ने कहा कि सभी धर्मों और धार्मिक समूहों के साथ समान और सम्मान के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है जहां लोगों को अपना धर्म चुनने का अधिकार है। लेकिन राज्य का कोई विशिष्ट धर्म नहीं होगा।

मामले में एम.पी. गोपालकृष्णन नायर बनाम केरल राज्य, कोर्ट ने कहा कि धर्मनिरपेक्ष राज्य एक नास्तिक समाज से अलग है, जिसका अर्थ है कि राज्य हर धर्म को अनुमति देता है और किसी का अनादर नहीं करता है।

लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक)

‘डेमोक्रेटिक’ शब्द ग्रीक शब्दों से लिया गया है जहां ‘डेमो’ का अर्थ है ‘लोग’ और ‘क्रेटोस’ का अर्थ ‘अधिकार’ है। जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सरकार का निर्माण लोगों द्वारा किया जाता है। भारत एक लोकतांत्रिक राज्य है क्योंकि लोग सभी स्तरों पर अपनी सरकार का चुनाव करते हैं, अर्थात संघ, राज्य और स्थानीय या जमीनी स्तर पर। हर किसी को अपनी जाति, पंथ या लिंग के बावजूद वोट देने का अधिकार है। इसलिए, सरकार के लोकतांत्रिक रूप में, प्रशासन में प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष (डायरेक्ट ऑर इंडायरेक्ट) हिस्सा होता है।

रायबरेली के जिला मजिस्ट्रेट बनाम मोहन लाल के मामले में, कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र राजनीति से संबंधित एक दार्शनिक विषय है जहां लोग सरकार बनाने के लिए अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं, जहां मूल सिद्धांत अल्पसंख्यकों के साथ उसी तरह व्यवहार करना चाहिए जिस तरह बहुमत के साथ व्यवहार किया जाता है। सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप में कानून के समक्ष प्रत्येक नागरिक समान है।

यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मामले में, कोर्ट ने कहा कि एक सफल लोकतंत्र की बुनियादी आवश्यकता लोगों की जागरूकता है। निष्पक्ष चुनाव के बिना सरकार का लोकतांत्रिक स्वरूप जीवित नहीं रह सकता क्योंकि निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आत्मा हैं। लोकतंत्र मानवीय गरिमा, समानता और कानून के शासन की रक्षा करके जीवन के तरीके को भी बेहतर बनाता है।

गणतंत्र (रिपब्लिक)

भारत में सरकार का एक गणतंत्र रूप है क्योंकि राज्य का मुखिया चुना जाता है और राजा या रानी की तरह वंशानुगत (हेरिडिटरी) सम्राट नहीं होता है। ‘रिपब्लिक’ शब्द ‘रेस पब्लिका’ से लिया गया है जिसका अर्थ है सार्वजनिक संपत्ति या कॉमनवेल्थ। इसका मतलब है कि एक निश्चित अवधि के लिए राज्य के मुखिया का चुनाव करने की शक्ति लोगों के भीतर है। तो, निष्कर्ष में, शब्द ‘रिपब्लिक’ एक ऐसी सरकार को दर्शाता है जहां राज्य का मुखिया किसी भी जन्मसिद्ध अधिकार के बजाय लोगों द्वारा चुना जाता है।

15 तथ्य जो आप प्रस्तावना के बारे में नहीं जानते थे (15 फैक्ट्स यू डिडंट नो अबाउट द प्रीएंबल)

  1. भारत का मूल संविधान प्रेम बिहारी नारायण रायज़ादा द्वारा सुलेख (कैलिग्राफी) में प्रवाहित (फ्लोइंग) इटैलिक शैली (स्टाइल) में लिखा गया था।
  2. हिंदी और अंग्रेजी दोनों में लिखी गई भारतीय संविधान की मूल प्रतियां (कॉपी) भारत की संसद (पार्लियामेंट) के पुस्तकालय (लाइब्रेरी) में विशेष हीलियम से भरे मामलों में मौजूद हैं।
  3. भारतीय संविधान में 448 अनुच्छेदों (आर्टिकल) और 12 अनुसूचियों (शेड्यूल) के साथ 25 भाग हैं, जो इसे दुनिया के किसी भी संप्रभु देश का सबसे लंबा लिखित संविधान बनाता है।
  4. भारतीय संविधान के अंतिम मसौदे को पूरा करने में संविधान सभा को ठीक 2 साल, 11 महीने और 18 दिन लगे।
  5. संविधान को अंतिम रूप देने से पहले लगभग 2000 संशोधन किए गए थे।
  6. संयुक्त राज्य अमेरिका (युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका) के संविधान की प्रस्तावना भी ‘वी द पीपल’ से शुरू होती है।
  7. मौलिक अधिकारों की अवधारणा अमेरिकी संविधान से आई क्योंकि उनके पास नागरिकों के लिए नौ मौलिक अधिकार थे।
  8. 44वें संशोधन ने संपत्ति के अधिकार (राइट टु प्रॉपर्टी) को मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) के रूप में हटा दिया जो कि संविधान के अनुच्छेद  31 के तहत दिया गया था, ‘कानून के अधिकार के बिना किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा’।
  9. भारत के संविधान को सबसे अच्छा संविधान माना जाता है क्योंकि इसमें त्रुटियों या गलतियों (एर्रस ऑर मिस्टेक्स) को बदलने की कोशिश की जाती है। इस वजह से, संविधान में अतीत (पास्ट) में 100 से अधिक संशोधन थे।
  10. संविधान के अन्य सभी पृष्ठों (पेजेस) के साथ प्रस्तावना के पृष्ठ को जबलपुर के प्रसिद्ध चित्रकार बेहर राममनोहर सिन्हा द्वारा डिजाइन और सजाया गया था।
  11. भारत का संविधान एक हस्तलिखित (हैंड रिटेन) संविधान है जिस पर 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के 284 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षर (सिग्नेचर) किए गए थे, जिनमें से 15 महिलाएं थीं, हस्ताक्षर करने के दो दिन बाद 26 जनवरी को लागू हुई।
  12. संविधान का अंतिम मसौदा 26 नवंबर 1949 को पूरा हुआ और यह दो महीने बाद 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ जिसे गणतंत्र दिवस (रिपब्लिक डे) के रूप में जाना जाता है।
  13. संविधान का मसौदा तैयार करते समय हमारी मसौदा समिति द्वारा विभिन्न संविधानों से कई प्रावधानों को अपनाया जाता है।
  14. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल) (डी पी एस पी) की अवधारणा आयरलैंड से अपनाई गई है।
  15. हमारी प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की अवधारणा को फ्रांसीसी क्रांति के फ्रांसीसी आदर्श वाक्य से अपनाया गया था।

निष्कर्ष (कंक्लुज़न)

अंत में यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न (इंटीग्रल) अंग है क्योंकि इसमें संविधान की भावना और विचारधारा (स्पिरिट एंड आइडियोलॉजी) शामिल है। प्रस्तावना संविधान के मौलिक मूल्यों और मार्गदर्शक सिद्धांतों पर प्रकाश डालती है। प्रस्तावना घोषित करती है कि भारत के नागरिकों ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को स्वीकार कर लिया था, लेकिन संविधान के लागू होने की तारीख 26 जनवरी 1950 तय की गई थी।

संविधान के अनुच्छेद 394 में कहा गया है कि अनुच्छेद 5, 6, 7, 8, 9, 60, 324, 367, 379, संविधान के 26 नवंबर 1949 को स्वीकृत किए जाने के बाद से और शेष प्रावधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुए। भारत के संविधान की प्रस्तावना न केवल विचारों में बल्कि भावों में भी अब तक की सबसे अच्छी प्रस्तावनाओं में से एक है। इसमें संविधान का उद्देश्य शामिल है, एक स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण करना जो न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की रक्षा करता है जो संविधान के उद्देश्य हैं।

 

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