सीपीसी के तहत मुजरा और प्रतिदावा

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Civil Procedure Code

यह लेख टेक्नोलॉजी लॉ, फिनटेक रेगुलेशन और टेक्नोलॉजी कॉन्ट्रैक्ट में डिप्लोमा कर रही Jasmeet Kaur द्वारा लिखा गया है। इस लेख में सीपीसी के तहत मुजरा (सेट ऑफ) और प्रतिदावे (काउंटर क्लेम) के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

परिचय

वादी वह पीड़ित पक्ष है जो अदालत से राहत का दावा करने के लिए वाद दायर करता है और इसे पूरा करने के लिए वादी को कई अधिकार और अवसर दिए जाते हैं लेकिन क्या प्रतिवादी को केवल उसके वाद का बचाव करने का अधिकार है? यदि वह स्वयं पीड़ित पक्ष है तो क्या होगा? यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि किसी को साफ हाथों से अदालत में आना चाहिए। इसलिए, यहां मुजरा और प्रति दावे के प्रावधान सामने आते हैं जो क्रमशः सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश VIII के नियम 6 और आदेश VIII के नियम 6A के तहत सूचीबद्ध हैं, जहां प्रतिवादी को भी वादी पर वाद करने का अधिकार है यदि वह भी उसी वाद में पीड़ित है। न्यायसंगत के आगमन के साथ, ये प्रावधान विधायिका द्वारा जोड़े गए।

मुजरा का इतिहास

मुजरा का सिद्धांत पहली बार 1729 में न्यायसंगत के आगमन के साथ अंग्रेजी न्यायालयों द्वारा लागू किया गया था ताकि प्रतिवादियों को भी मुआवजा प्रदान किया जा सके।

मुजरा का मतलब

मान लीजिए कि A और B वाद के दो पक्ष हैं। A ने 2000 रुपये के विनिमय बिल (बिल ऑफ एक्सचेंज) के लिए B के खिलाफ वाद दायर किया। B, जिसके पास A से 1000 रुपये का वचन पत्र था, उस राशि का मुजरा करने का दावा करता है। इस राशि का मुजरा किया जा सकता है।

इसलिए, मुजरा उस राशि की कानूनी वसूली है जो वादी द्वारा प्रतिवादी के लिए लंबित है, और प्रतिवादी का दावा है कि उस राशि को वाद में ही मुजरा कर दिया जाएगा। यहां दोनों पक्ष एक-दूसरे के कर्जदार हैं। इसे इसलिए पेश किया गया ताकि प्रतिवादी भी अपने हिस्से की रकम चुका सके। शाब्दिक रूप से, वादी को केवल उसे वापस पाने के लिए राशि का भुगतान करने का कोई मतलब नहीं है। इससे न्यायपालिका पर बोझ बढ़ेगा क्योंकि अदालत में अधिक वाद दायर होंगे। इसके अलावा, यह ध्यान रखना उचित है कि सीपीसी के तहत स्पष्ट रूप से कोई कानूनी परिभाषा प्रदान नहीं की गई है, और इसकी व्याख्या विभिन्न निर्णयों के माध्यम से की जाती है।

भारत संघ बनाम करण चंद थापर और ब्रदर्स (कोल सेल्स) लिमिटेड और अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ब्लैक लॉ डिक्शनरी मुजरा की अवधारणा को देनदार के उस अधिकार के रूप में परिभाषित करती है, जो ऋण के अपने हिस्से को उस राशि से कम करता है, जो लेनदार को देना है।

हालाँकि, दावे की राशि निर्धारित करने के लिए कुछ शर्तों को पूरा करना होगा जो निम्नानुसार सूचीबद्ध हैं:

  • वाद पैसे की वसूली के लिए होना चाहिए।
  • यह राशि कानूनी रूप से वसूली योग्य होनी चाहिए।
  • प्राप्य राशि सुनिश्चित की जानी चाहिए।
  • न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) की आर्थिक सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए।
  • दोनों पक्षों का एक ही चरित्र होना चाहिए।
  • चरित्र वैसा होना चाहिए जैसा वादी के वाद में भरा गया हो।
  • मुजरा मामले से संबंधित होना चाहिए

इसमें यह स्पष्ट है कि राशि तभी वसूली योग्य होगी जब वह सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश VIII के नियम 6 के तहत दी गई शर्तों को पूरा करती है।

उदाहरण के लिए, X ने अनुबंध के उल्लंघन के लिए Y पर वाद दायर किया है, लेकिन Y का तर्क है कि यह X  द्वारा लापारवाही के कारण है और वह ऐसी लापरवाही के कारण होने वाले नुकसान का मुजरा करना चाहता है। चूंकि यहां राशि का पता नहीं लगाया गया है, इसलिए इसका मुजरा नहीं किया जा सकता है। सुकुमारन बनाम माधवन के मामले में माननीय केरल उच्च न्यायालय ने माना कि मुजरा केवल मौद्रिक मामलों में किया जा सकता है, और अन्य मामलों के लिए, प्रतिवादी प्रतिदावा का विकल्प चुन सकता है।

इसके अलावा, यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि वाद की पहली सुनवाई में मुजरा की याचिका दायर की जानी चाहिए, और यदि इसे पहली सुनवाई के बाद दायर किया जाना है, तो अदालत की पूर्व मंजूरी आवश्यक है।

मुजरा के प्रकार

कानून द्वारा मान्यता प्राप्त मुजरा दो प्रकार के होते हैं। ये:

1. कानूनी मुजरा

कानूनी मुजरा को आदेश VIII के नियम 6(1) के तहत कानून में मान्यता प्राप्त है और सीमा अवधि को ध्यान में रखते हुए इसके तहत उल्लिखित शर्तों को पूरा करना चाहिए।

आइए इसे पहले उदाहरण से समझें, ‘A और B वाद  के दो पक्ष हैं। A ने 2000 रुपये के विनिमय बिल के लिए B के खिलाफ वाद दायर किया। B, जिसके पास A से 1000 रुपये का एक वचन पत्र था। वह उस राशि का मुजरा करने का दावा करता है।

इसमें, आदेश VIII के नियम 6(1) की शर्तों का अनुपालन किया जाता है ताकि B को मुजरा की जाने वाली राशि मिल सके

2. न्यायसंगत मुजरा 

न्यायसंगत मुजरा का प्रावधान सीपीसी के तहत स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया है और यह समानता, न्याय और अच्छे विवेक पर आधारित है। यह अधिकार का मामला नहीं है और न्यायालय अपने विवेक से इसे प्रदान कर सकता है।

आइए इसे दूसरे उदाहरण से समझते हैं, ‘X ने अनुबंध के उल्लंघन के लिए Y पर वाद दायर किया है, लेकिन Y का तर्क है कि यह X द्वारा लापरवाही के कारण है और X की ओर से लापरवाही के कारण हुए नुकसान की भरपाई करना चाहता है। चूंकि यहां राशि का पता नहीं लगाया गया है, नियम 6(1) की शर्तें पूरी नहीं होती हैं, इसलिए, राशि केवल अदालत के विवेक पर तय की जा सकती है, अधिकार के तौर पर नहीं।

मुजरा का प्रभाव

मुजरा का प्रभाव सीपीसी के आदेश VIII के नियम 6(2) के तहत दिया गया है, जहां यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मुजरा के लिए लिखित बयान का प्रभाव प्रति वाद में एक वादपत्र (प्लेंट) के समान है।

इसके अलावा, मुजरा से संबंधित वाद के लिए कोई अलग वाद नंबर नहीं होगा। मूल वाद और मुजरा से संबंधित वाद दोनों को एक ही वाद माना जाएगा।

प्रतिदावे का अर्थ

प्रतिदावे के नियम सीपीसी के आदेश VIII के नियम 6A – 6G में दिए गए हैं, जिन्हें 1976 के संशोधन द्वारा शामिल किया गया था जो 1 फरवरी 1977 से लागू हुआ था, जिसके अनुसार प्रतिवादी के पास वादी के खिलाफ मुजरा की वाद के अतिरिक्त दावा दायर करने का विकल्प है।

गैस्टेक प्रोसेस इंजीनियरिंग (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड बनाम सैपेम में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि प्रति दावा एक हथियार की तरह है जिसका इस्तेमाल प्रतिवादी द्वारा अपना बचाव पेश करने के साथ-साथ कई वाद दायर करने से बचने के लिए किया जाता है।

हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रतिदावा अदालत के अधिकार क्षेत्र की आर्थिक सीमा के भीतर होना चाहिए और वादी को प्रतिवादी के प्रतिदावे का जवाब देने के लिए एक लिखित बयान दाखिल करने का अधिकार है और जब प्रतिवादी एक लिखित बयान दाखिल करता है, तो उसे उसमें उन आधारों का उल्लेख करना होगा जो उसने प्रतिदावे में उद्धृत (कोट) किए हैं।

प्रतिदावे का प्रभाव

प्रतिदावे का प्रभाव प्रति वाद के समान होना चाहिए और इसे एक वादपत्र के रूप में माना जाएगा। माणिकचंद फूलचंद कटारिया बनाम लालचंद हरकचंद कटारिया के मामले में यह माना गया कि प्रतिदावे के माध्यम से कब्जे की डिक्री प्रतिवादी के पक्ष में हो सकती है क्योंकि यह केवल मौद्रिक वाद तक ही सीमित नहीं है।

मुजरा के विपरीत, यदि वादी का वाद बंद कर दिया जाता है, खारिज कर दिया जाता है या रोक दिया जाता है, तो प्रतिदावा भी संसाधित (प्रोसेस्ड) नहीं किया जाएगा।

जब प्रति दावे को बाहर रखा जा सकता है

नियम 6C के अनुसार, यदि वादी का तर्क है कि वाद  को एक स्वतंत्र वाद के रूप में माना जाना चाहिए, न कि प्रतिदावे के रूप में, तो वह मुद्दों के निपटारे से पहले किसी भी समय अदालत में आवेदन कर सकता है और यह अदालत के विवेक पर निर्भर करेगा कि वह ऐसा आदेश पारित करे या नहीं।

प्रतिदावे का उत्तर देने में वादी की चूक

यदि वादी प्रतिदावे का जवाब देने में चूक करता है, तो अदालत प्रतिदावे के संबंध में उसके खिलाफ आदेश पारित कर सकती है या कोई अन्य आदेश दाखिल कर सकती है जो वह उचित समझे (नियम 6E)।

प्रतिदावे के वाद की सफलता पर प्रतिवादी को दी गई राहत

यदि निर्णय प्रतिवादी के पक्ष में पारित किया जाता है, तो वादी प्रतिवादी को शेष राशि का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा (नियम 6F)।

मुजरा और प्रति दावे के बीच अंतर

मुजरा  प्रतिदावा 
आदेश 8 के नियम 6(1) के तहत मुजरा का प्रावधान दिया गया है। आदेश 8 के नियम 6A के तहत प्रतिदावे का प्रावधान दिया गया है।
यहां दोनों पक्ष पारस्परिक रूप से एक-दूसरे के देनदार और लेनदार होते हैं, यानी भले ही वादी ने धन की वसूली के लिए वाद दायर किया हो, प्रतिवादी को उस राशि को मुजरा करने का भी अधिकार है जो वादी द्वारा उसे देय है। यह एक प्रति कार्रवाई की तरह है, जिसे एक ही कार्यवाही में अलग से दायर किया जाता है।
यह वादी की कार्रवाई के बचाव के रूप में कार्य करता है। यह बचाव के रूप में कार्य नहीं करता है, बल्कि यह एक प्रति कार्रवाई यानी एक अलग वाद है।
मुजरा उसी लेनदेन से दायर किया जा सकता है और वह राशि सुनिश्चित होनी चाहिए। एक ही लेन-देन से प्रतिदावा निकलना आवश्यक नहीं है।
इसे एक लिखित बयान में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यह एक अलग कार्रवाई के रूप में कार्य करता है जो एक वादपत्र के समान ही प्रभावी है।
मुजरा 2 प्रकार के होते हैं- कानूनी और न्यायसंगत मुजरा। प्रतिदावा किसी भी प्रकार में विभाजित नहीं है।

प्रासंगिक मामले

हुलास राय बैज नाथ बनाम फर्म के.बी. बास एंड कंपनी एआईआर 1963 इलाहाबाद 368 के मामले में प्रतिवादी फर्म ने अपीलकर्ता (जो उनका कमीशन एजेंट था) के खिलाफ वाद में 2100 रुपये का दावा करके खातों का प्रतिपादन (रेंडिशन) मांगा क्योंकि उनके खातों का 1941 से निपटान नहीं किया गया था। अदालत ने इस अपील को खारिज कर दिया और कहा कि खातों के प्रतिपादन के मामलों में वादी को वाद में ऐसे चरण में आगे बढ़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए जिसमें प्रतिवादी ने वर्तमान वाद की तरह वापसी के लिए आवेदन किया है। इसके अलावा, अदालत ने यह भी माना कि तथ्यों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो मुजरा या प्रति-दावा की ओर ले जाए क्योंकि ऐसा कोई प्रावधान नहीं दिखाया गया है जिससे ऐसा हो सकता है। लागत अपीलार्थी को प्रदान की गई थी।

सुबैदा इब्राहिम बनाम मूसा सी. और अन्य, (2022) के मामले में, संपत्ति के वितरण से संबंधित विवाद में डिक्री धारक के पक्ष में दिए गए आदेश को चुनौती देने के लिए सीपीसी की धारा 104 और आदेश XLIII के तहत अपील दायर की गई थी। पहला प्रतिवादी शेष बिक्री मूल्य को उचित कर सकता था जो कि रु. 2,85,433 थी जो अपीलकर्ता द्वारा जमा किया गया था, इसलिए अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि कोई कथित धोखाधड़ी या अनियमितता नहीं है, इसलिए बिक्री के आदेश को रद्द नहीं किया जाना चाहिए। केरल उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अलग-अलग डिक्री धारकों के मामले में, उनमें से किसी एक द्वारा दावे का मुजरा नहीं किया जा सकता है।

मैसर्स ए.जी. एनवायरो इंफ्रा प्रोजेक्ट्स बनाम मैसर्स जे.एस. एनवायरो सर्विसेज प्राईवेट लिमिटेड, (2023) के मामले में, याचिकाकर्ता ने मध्यस्थता और सुलह (आर्बिट्रेशन एंड कॉन्सिलिएशन) अधिनियम, 1996 की धारा 34 के तहत अंतिम पंचाट (अवॉर्ड) को रद्द करने और 18% ब्याज दर के साथ 4,14,42,192 रुपये की अतिरिक्त राशि वसूलने के लिए प्रतिवादी के खिलाफ उठाए गए जवाबी दावे की अनुमति देने के लिए एक याचिका दायर की, जबकि प्रतिवादी कंपनी ने साख (गुडविल) की हानि के लिए 2,00,00,00 रुपये का पंचाट पारित करने का तर्क दिया। चूंकि मामले का निर्णय पहले मध्यस्थ द्वारा किया गया है, इसलिए प्रमुख प्रश्न यह था कि क्या मध्यस्थ प्रतिदावे पर निर्णय लेने में विफल रहता है और क्या अदालत भी वैसा ही निर्णय ले सकती है। माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि अदालत पंचाट को संशोधित कर सकती है लेकिन सीमा सीमित होनी चाहिए।

निष्कर्ष

यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मुजरा और प्रति दावे क्रमशः ढाल और तलवार के रूप में कार्य करते है। यहां मुजरा एक ढाल की तरह काम करता है जो प्रतिवादी को वादी द्वारा उसके प्रति लंबित राशि के मुजरा करने के वैधानिक अधिकार से परिचित कराता है और प्रतिदावा प्रति कार्रवाई के रूप में तलवार की तरह काम करता है।

संदर्भ

 

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