विशिष्ट राहत अधिनियम 1963

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Specific Relief Act

यह लेख Khushi Sharma जो वर्तमान में आईआईएमटी और स्कूल ऑफ लॉ, आईपी यूनिवर्सिटी से बी.ए.एलएलबी (ऑनर्स) कर रही हैं; और ग्राफिक एरा हिल यूनिवर्सिटी, देहरादून के Monesh Mehndiratta द्वारा लिखा गया है। यह एक विस्तृत लेख है जो विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के सभी प्रावधानों से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube ने किया है।

Table of Contents

परिचय

चूंकि अधिनियम का मुख्य उद्देश्य इस क़ानून के शीर्षक यानी विशिष्ट राहत में निहित हैं, जिसके कारण हम एक बुनियादी समझ प्राप्त कर सकते हैं कि विशिष्ट राहत अधिनियम एक कानूनी अधिनियम है जो घायल व्यक्ति को राहत देने या हर्जाने की वसूली से संबंधित है। यह अधिनियम 1963 में इस दृष्टिकोण के बाद अधिनियमित किया गया था कि जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के संबंध में किसी विशेष वादे या अनुबंध के प्रदर्शन से खुद को वापस ले लेता है, तो दूसरा व्यथित व्यक्ति विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत राहत का हकदार है। अधिनियम को भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की शाखाओं में से एक माना जाता है।

जब भी आपको किसी और की गलती के कारण किसी प्रकार का नुकसान होता है, तो आप हमेशा एक विशिष्ट उपाय की तलाश में रहते हैं, है ना?

इसी प्रकार, जब किसी पक्ष को किसी अन्य पक्ष के कार्यों के कारण हानि और क्षति होती है, जिसके परिणामस्वरूप अनुबंध का उल्लंघन होता है, तो इसका निवारण विशिष्ट कार्यों द्वारा किया जाना चाहिए। ये विशिष्ट कार्य या राहतें विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत दी जाती हैं जो इन स्थितियों में कुछ उपायों से संबंधित है।

जब भी दो लोग किसी अनुबंध में प्रवेश करते हैं, तो यह उन दोनों को दायित्वों और कर्तव्यों से बांध देता है। दोनों पक्षों को अनुबंध के अपने हिस्से का परिश्रमपूर्वक पालन करना होता है और अधिकारों का आनंद लेना आवश्यक है। लेकिन जहां किसी पक्ष द्वारा अनुबंध का उल्लंघन किया जाता है या उसका पालन नहीं किया जाता है, तो दूसरा पक्ष किसी अन्य पक्ष द्वारा अनुबंध का पालन न करने के कारण हुए नुकसान के लिए राहत मांगने का हकदार है। अधिनियम के तहत प्रयुक्त शब्द ‘विशिष्ट प्रदर्शन’ स्वयं अपना अर्थ सुझाता है। इसका मतलब अनुबंध के संदर्भ में विशेष रूप से एक कार्य करना है और पक्षों को उसमें उल्लिखित अपने दायित्वों को विशेष रूप से पूरा करने का निर्देश देना है और इस प्रकार अनुबंध के नियमों और शर्तों को पूरा करना है। इस प्रकार, जहां अनुबंध के एक पक्ष को दूसरे पक्ष के गैर-प्रदर्शन के कारण नुकसान होता है, तो पीड़ित पक्ष विशिष्ट प्रदर्शन के लिए मुकदमा दायर कर सकता है। किसी अनुबंध का प्रदर्शन उसके प्रमुख और महत्वपूर्ण भागों में से एक है। विशिष्ट प्रदर्शन का उपाय उस पक्ष द्वारा अनुबंध के प्रदर्शन का प्रावधान करता है जो अनुबंध का प्रदर्शन करने में विफल रहता है, उपेक्षा करता है या जानबूझकर इनकार करता है। आंशिक प्रदर्शन का सिद्धांत भी अनुबंधों के प्रदर्शन से संबंधित है।

महत्वपूर्ण परिभाषाएँ

विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 2 कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाओं से संबंधित है जो इस प्रकार हैं:

  1. धारा 2(a) उन दायित्वों से संबंधित है जो कानून या कानूनी निकाय द्वारा किसी व्यक्ति पर लगाए गए कर्तव्य हैं।
  2. धारा 2(b) निपटान से संबंधित है जिसका अर्थ है चल या अचल संपत्ति को उनके क्रमिक (सक्सेसिव) हितों के लिए सौंपना जब इसके निपटान पर सहमति हो।
  3. धारा 2(c) “ट्रस्ट” शब्द से संबंधित है जिसका वही अर्थ है जो भारतीय ट्रस्ट अधिनियम, 1882 की धारा 3 में परिभाषित है।
  4. धारा 2(d) “ट्रस्टी” शब्द से संबंधित है जिसका अर्थ है संपत्ति पर ट्रस्ट रखने वाला व्यक्ति।
  5. अन्य सभी परिभाषाएँ जिनकी यहाँ व्याख्या नहीं की गई है, वे वही हैं जो भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की परिभाषाओं में संदर्भित हैं।

विशिष्ट राहत

इस अधिनियम की धारा 4 बताती है कि यह अधिनियम व्यक्तिगत अधिकारों के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए विशेष राहत देता है न कि दंडात्मक कानून लागू करने के लिए। इस अधिनियम के तहत प्रवर्तन केवल व्यक्तिगत नागरिक अधिकार पर आधारित है और उस तथ्य के लिए मूल प्रकृति स्थापित की जानी चाहिए। सरल तरीके से समझा जाए तो विशिष्ट राहत व्यक्ति के उल्लंघन किए गए नागरिक अधिकारों के लिए राहत प्रदान करने से संबंधित है। इसका मुख्य उद्देश्य अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करना है और यदि मामले की कोई दंडात्मक प्रकृति है, तो उसे साबित करने के लिए इसे स्थापित करना पड़ सकता है।

कब्ज़ा पुनः प्राप्त करना

इस अधिनियम के तहत कब्जे की पुनः प्राप्ति दो शीर्षकों के तहत प्रदान की जाती है: अचल संपत्ति की पुनः प्राप्ति  और चल संपत्ति की  पुनः प्राप्ति। विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 का कानून एक बुनियादी सिद्धांत पर काम करता है कि “कब्जा अपने आप में स्वामित्व का प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) सबूत है।

अचल संपत्ति पर कब्ज़ा पुनः प्राप्त करना

धारा 5 किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से बेदखल होने पर उपलब्ध उपचारों की व्याख्या करती है। यदि किसी व्यक्ति को कब्जे से हटा दिया गया है और कानूनी रूप से उसकी संपत्ति को पुनर्प्राप्त करना चाहता है, तो वह व्यक्ति सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा प्रदान की गई पुनर्प्राप्ति प्रक्रिया के माध्यम से ऐसा कर सकता है और जिसमें व्यक्ति यह साबित करेगा कि शीर्षक उसका है।

इस अधिनियम की धारा 6 में बताया गया है कि यदि किसी व्यक्ति को कानून की प्रकृति के विरुद्ध संपत्ति से बेदखल या वंचित किया गया है, तो वह व्यक्ति कब्जा पुनः प्राप्ति के लिए मुकदमा दायर कर सकता है। यह धारा न केवल मात्र कानूनी नियम है बल्कि इसका व्यापक व्यावहारिक दृष्टिकोण (प्रैक्टिकल एप्रोच) भी है। इस धारा के तहत पुनः प्राप्ति की पूर्ति के लिए कुछ आवश्यकताएं हैं जो इस प्रकार हैं:

  • बेदखली के लिए मुकदमा करने वाले व्यक्ति के पास उस संपत्ति का कब्ज़ा होना चाहिए।
  • व्यक्ति को संपत्ति से बेदखल किया जाना चाहिए और संपत्ति से ऐसा विनिवेश (डाइवेस्ट) गैरकानूनी तरीके से किया जाना चाहिए या कानून की प्रकृति के खिलाफ किया जाना चाहिए।
  • बेदखल मुकदमा करने वाले व्यक्ति की सहमति के बिना होना चाहिए।
  • धारा 6(2) में बताया गया है कि बेदखल की तारीख से 6 महीने की समाप्ति के बाद कोई भी व्यक्ति कोई मुकदमा नहीं कर सकता है।
  • धारा 6(2) में यह भी बताया गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा कोई भी मुकदमा सरकार के खिलाफ नहीं लाया जा सकता है।

यदि व्यक्ति ने निर्धारित समय अवधि (धारा 6) में कोई मुकदमा दायर नहीं किया है, तो उसके लिए एकमात्र राहत धारा 5 है, यानी संपत्ति पर अपना शीर्षक बेहतर तरीके से साबित करना है। धारा 6 की कुछ सीमाएँ हैं जो बताती हैं कि यदि धारा 6 के संबंध में अदालत द्वारा कोई आदेश या डिक्री निर्देशित की गई है, तो ऐसे आदेश या डिक्री के खिलाफ कोई अपील या समीक्षा (रीव्यू) नहीं की जाएगी, लेकिन ऐसा आदेश पुनरीक्षण (रिवीजन) के लिए खुला है।

चल संपत्ति पर कब्ज़ा पुनः प्राप्ति

धारा 7 बताती है कि जब कोई व्यक्ति चल संपत्ति का कब्जा पुनः प्राप्त चाहता है, तो वह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा व्यक्त प्रक्रिया का पालन कर सकता है। धारा 7 में आगे दो उप-खंड (सब क्लॉज़) हैं जो आगे बताते हैं कि एक ट्रस्टी उस लाभकारी हित के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता है जिसका वह हकदार था और दूसरा उप-खंड बताता है कि संपत्ति का स्वामित्व मुकदमा करने वाले व्यक्ति को दिए गए विशेष अधिकार की उपस्थिति के साथ भी व्यक्त किया जा सकता है; जो मुकदमा दायर करने के लिए आवश्यक के रूप में पर्याप्त होगा।

धारा 7 की अनिवार्यताएँ इस प्रकार हैं:

  • ऐसी चल संपत्ति की उपस्थिति होनी चाहिए जो वितरित या निपटान योग्य हो।
  • मुकदमा करने वाले व्यक्ति के पास विचाराधीन संपत्ति का कब्ज़ा होना चाहिए।
  • संपत्ति पर विशेष या अस्थायी अधिकार का अस्तित्व हो सकता है।

विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 8 बताती है कि जब किसी व्यक्ति के पास ऐसी वस्तु होती है जिसका वह मालिक नहीं है, तो निम्नलिखित मामलों में ऐसी वस्तु को उस व्यक्ति को देने के लिए मजबूर किया जाएगा जिसके पास उसका तत्काल कब्जा प्राप्त करने का हक होगा:

  • जब वस्तु प्रतिवादी द्वारा उस व्यक्ति के ट्रस्टी के रूप में रखी जाती है जिसके पास तत्काल कब्ज़ा है।
  • जब धन के रूप में मुआवज़ा पर्याप्त राहत नहीं है।
  • जब व्यक्ति को हुई वास्तविक क्षति का पता लगाना मुश्किल हो जाता है।
  • जब वस्तु का कब्ज़ा गलत तरीके से हकदार व्यक्ति से स्थानांतरित (ट्रांसफर्ड) कर दिया गया हो।

अनुबंधों का विशिष्ट प्रदर्शन

धारा 10 में बताया गया है कि अनुबंध का विशिष्ट प्रदर्शन किस शर्त पर लागू किया जा सकता है, विशिष्ट प्रदर्शन आमतौर पर अदालत के विवेक पर निर्भर करता है लेकिन प्रदर्शन के लिए कुछ शर्तें हैं जिनका उल्लेख इस प्रकार है:

  1. जब अनुबंध का पालन न करने के कारण जो क्षति या हानि हुई, उसका पता नहीं लगाया जा सकता।
  2. जब अनुबंध के गैर-प्रदर्शन के कारण मुआवजे के रूप में धन पर्याप्त राहत नहीं है।

जब तक कि इसके विपरीत साबित न हो जाए, तब तक अदालत यह मानती है कि:-

  1. अचल संपत्ति के अनुबंध के उल्लंघन को पैसे से पर्याप्त रूप से पूरा नहीं किया जा सकता है। 
  2. चल संपत्ति के अनुबंध के उल्लंघन से राहत दी जा सकती है, सिवाय इन मामलों के जहां:-
  • संपत्ति वाणिज्य (कॉमर्स) का एक सामान्य लेख नहीं है, 
  • जहां संपत्ति को प्रतिवादी द्वारा संपत्ति के ट्रस्टी के रूप में रखा जाता है।

ऐसे अनुबंध जिन्हें विशेष रूप से लागू नहीं किया जा सकता

धारा 14 में कुछ ऐसे अनुबंधों का उल्लेख है जिन्हें विशेष रूप से लागू नहीं किया जा सकता है जो इस प्रकार हैं:

  1. जब कार्य के लिए गैर-प्रदर्शन होता है, और पैसा पर्याप्त मुआवजा होता है।
  2. एक अनुबंध जो कई विवरणों से भरा है और इसकी प्रकृति पक्षों के लिए व्यक्तिगत है, इन्हें विशेष रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।
  3. अनुबंध के लिए निरंतर कार्य की आवश्यकता होती है जिसकी निगरानी न्यायालय नहीं कर सकता है।
  4. वह अनुबंध जिसकी प्रकृति निर्धार्य (डिटरमिनेबल) हो

वे व्यक्ति जिनके विरुद्ध अनुबंध विशेष रूप से लागू किए जा सकते हैं

धारा 15 उस व्यक्ति से संबंधित है जिसके विरुद्ध अनुबंध विशेष रूप से लागू किए जा सकते हैं:

  1. अनुबंध करने वाले कोई भी पक्ष या मुकदमा करने वाले कोई भी पक्ष
  2. हित में प्रतिनिधि और प्रिंसिपल, जिसमें कुछ महत्वपूर्ण तत्व हो-
  • कोई विशेष कौशल, या कोई योग्यता।
  • हित में प्रतिनिधि और प्रिंसिपल विशिष्ट प्रदर्शन के हकदार नहीं होगे।

3. जहां अनुबंध शादी तय करने या परिवार के सदस्यों के बीच स्थिति से समझौता करने के लिए होता है।

4. जब किरायेदार द्वारा किसी संपत्ति पर जीवन भर के लिए अनुबंध किया गया हो।

मुआवजे का प्रवर्तन

धारा 21 मुआवज़ा देने की शक्ति से संबंधित है; विभिन्न मामलों में न्यायालय के माध्यम से पीड़ित व्यक्ति को मुआवजा दिलाया जा सकता है। कुछ मामले ऐसे हैं जो इस प्रकार हैं:

  1. जब अनुबंध के उल्लंघन के कारण उसके विशिष्ट पालन के लिए कोई मुकदमा दायर किया जाता है तो पीड़ित व्यक्ति अतिरिक्त मुआवजे की भी मांग कर सकता है।
  2. जब अदालत के अनुसार विशिष्ट प्रदर्शन नहीं दिया जा सकता है लेकिन अनुबंध का उल्लंघन हुआ है, तो अदालत तदनुसार पीड़ित पक्ष को मुआवजा देने का आदेश देगी।
  3. जब अदालत को लगता है कि इस मामले में अनुबंध का विशिष्ट प्रदर्शन दिया जाएगा, लेकिन यह पर्याप्त राहत नहीं होगी, तो पैसे में मुआवजे का आदेश दिया जा सकता है।
  4. जब वादपत्र में पैसे के लिए राहत का उल्लेख नहीं किया गया हो तो कोई मुआवजा नहीं दिया जाएगा।

लिखत (इंस्ट्रूमेंट) का सुधार

धारा 26 उन तरीकों से संबंधित है जिनसे लिखत को सुधारा जा सकता है:

जब धोखाधड़ी या आपसी गलती के कारण पक्ष अपना वास्तविक इरादा नहीं दिखा पाते हैं तो:

  • हित में प्रतिनिधि या कोई भी पक्ष लिखत में सुधार के लिए मुकदमा दायर कर सकता है,
  • वादी अपने वादपत्र में लिखत में सुधार के लिए अनुरोध कर सकता है,
  • प्रतिवादी अपने बचाव में लिखत के सुधार के लिए दावा कर सकता है।

अदालत उन मामलों में लिखत में सुधार का निर्देश दे सकती है जहां धोखाधड़ी के माध्यम से पक्ष तीसरे पक्ष के अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिए अपना वास्तविक इरादा नहीं दिखाता है।

सुधार की आवश्यकता

जो पक्ष लिखत में सुधार करना चाहता है, उसे पहले उन्हें लिखित रूप में देना होगा और फिर अपनी अभिवचन (प्लीडिंग) में उनका उल्लेख करना होगा। जब सुधार का विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया हो तो कोई राहत नहीं दी जाएगी।

अनुबंधों का विखंडन (रिसेशन)

धारा 27 अनुबंध का विखंडन से संबंधित है, कानून में, विखंडन का अर्थ है अनुबंध को वापस लेना या सरल शब्दों में: अनुबंध को रद्द करना। यह पक्ष को ऐसी स्थिति में लाता है जैसे कि अनुबंध हुआ ही नहीं यानी यथास्थिति मतलब अपनी मूल स्थिति में आना।

विखंडन का नामंजूर होना

एक अनुबंध किसी भी पक्ष के अभिवचन से विखंडन के दौर से गुजर सकता है, सिवाय इसके कि कुछ मामले ऐसे हैं जिनमें विखंडन ना मंजूर किया जा सकता है है। विखंडन को कुछ तरीकों से नामंजूर किया जा सकता है: 

  1. जहां अनुबंध समाप्त कर दिया गया है या वादी द्वारा “शून्यकरणीय (वॉइडेबल) माना गया हो
  2. जब अनुबंध गैरकानूनी है।

विखंडन के माध्यम से अनुबंध रद्द करना

निम्नलिखित मामलों में विखंडन के कारण से एक अनुबंध को रद्द किया जा सकता है:

  1. जहां वादी ने स्वयं अनुबंध के लिए सहमति दी है,
  2. जहां तीसरे पक्ष ने अनुबंध में हित प्राप्त किया है है और जहां उनके अधिकार प्रश्न में आते हैं,
  3. जहां अनुबंध का केवल एक हिस्सा रद्द किया जाना है, लेकिन यह ऐसी स्थिति में है कि दोषपूर्ण हिस्सा अनुबंध से अलग नहीं हो सकता है।

अनुबंध रद्द करना

रद्दीकरण उन उपायों में से एक है जो अनुबंध में चोटों के खिलाफ पक्षों के लिए उपलब्ध है; धारा 31 से 33 न्यायालय के माध्यम से लिखतों को रद्द करने से संबंधित है।

धारा 31 बताती है कि जब कोई लिखत किसी व्यक्ति के विरुद्ध शून्य या शून्यकरणीय हो तो वह उस लिखत को रद्द कर सकता है यदि इससे उसे क्षति हो सकती है।

धारा 32 उस स्थिति से संबंधित है जब किसी अनुबंध को आंशिक रूप से रद्द किया जा सकता है; उदाहरण के लिए ऐसे मामलों में जहां उस अनुबंध के माध्यम से कुछ पक्षों के साथ कुछ अधिकार और दायित्व जुड़े हुए हैं, तो अदालत तदनुसार दोषपूर्ण हिस्से को रद्द कर सकती है और दूसरे को चालू कर सकती है।

धारा 33 में दो प्रमुख हैं यानी रद्द करने के बाद पीड़ित पक्ष की शक्तियां और रद्द करने के बाद प्रतिवादी को आदेश।

पीड़ित पक्ष की शक्ति

जब अनुबंध सफलतापूर्वक रद्द कर दिया गया है, तो पीड़ित पक्ष को न्याय सुनिश्चित करने के लिए सभी लाभ और मुआवजे की बहाली मिल सकती है।

रद्दीकरण के बाद प्रतिवादी को आदेश

जब प्रतिवादी के खिलाफ मुकदमा शून्यकरणीय साबित हो जाता है, तो उसे वादी को हर वह लाभ बहाल करना होता है जो प्रतिवादी को अनुबंध के दौरान प्राप्त हुआ हो।

घोषणात्मक डिक्री

धारा 34 और 35 घोषणात्मक डिक्री से संबंधित हैं जो अदालतों के माध्यम से मुकदमा या अनुबंध करने वाले पक्षों को घोषित की जाती हैं।

धारा 34 इस बात से संबंधित है कि जब किसी व्यक्ति के पास संपत्ति पर एक निश्चित अधिकार या दायित्व होता है और उसे किसी भी पक्ष द्वारा उस अधिकार से वंचित कर दिया जाता है, तो पीड़ित पक्ष उस संपत्ति पर अधिकार को लागू करने के लिए मुकदमा दायर कर सकता है जिसे उसेदेने से इनकार कर दिया गया है। अदालत मामले को देखने के बाद घोषणा करेगी कि पीड़ित पक्ष का ऐसी संपत्ति के स्वामित्व पर अधिकार है और इसलिए एक घोषणात्मक डिक्री पारित की जाएगी। जब वादी उस संपत्ति पर स्वामित्व से अधिक कुछ मांगता है तो ऐसी घोषणात्मक डिक्री अदालत द्वारा पारित नहीं की जाएगी।

धारा 35 घोषणा के प्रभाव से संबंधित है जो बताती है कि यह डिक्री केवल उन पक्षों के लिए बाध्यकारी होगी जो मुकदमा करने वाले पक्ष हैं, डिक्री केवल मुकदमा करने वाले पक्षों और मुकदमे के समय ट्रस्टियों, यदि कोई हो, के लिए बाध्यकारी होगी।

निवारक राहत

निवारक राहत को कोई भी राहत माना जाता है जो किसी पक्ष को कोई भी कार्य करने से रोकती है; अदालत से एक राहत जिसमें विवरण दिया गया है कि पक्ष को कुछ ऐसे कार्य नहीं करने चाहिए जिनके लिए राहत निर्धारित की जाएगी। ऐसी राहतें निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) के रूप में दी जा सकती हैं।

निषेधाज्ञा

निषेधाज्ञा एक विशिष्ट आदेश है जिसके तहत किसी पक्ष को कोई भी कार्य करने से रोक दिया जाता है। विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत निषेधाज्ञाओं को अस्थायी, शाश्वत (परपेक्चुअल) और अनिवार्य जैसे विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। धारा 36 से 44 तक निषेधाज्ञा का उल्लेख है।

शाश्वत निषेधाज्ञा

शाश्वत निषेधाज्ञा को स्थायी निषेधाज्ञा के रूप में जाना जाता है। उन्हें केवल उस मामले के गुण-दोष के आधार पर पक्षों को सुनने के बाद दिया जा सकता है जिसमें प्रतिवादी ने अधिकार का दावा किया है और इसके विपरीत वादी को प्रभावित किया है। किसी दायित्व के उल्लंघन को रोकने और उसके पक्ष में अधिकार थोपने के लिए वादी को शाश्वत निषेधाज्ञा दी जा सकती है। जब प्रतिवादी वादी के आनंद के अधिकार पर आक्रमण करते हैं, तो कुछ मामलों में शाश्वत (परपेक्चुअल) निषेधाज्ञा लागू की जा सकती है:

  1. प्रतिवादी संपत्ति का ट्रस्टी है। 
  2. वास्तविक क्षति का आकलन नहीं किया जा सकता है।
  3. मुआवज़े के रूप में पैसा पर्याप्त राहत नहीं होगा।
  4. निर्णयों की बहुलता को रोकने के लिए निषेधाज्ञा आवश्यक है।

ऐतिहासिक फैसले

गीता रानी पॉल बनाम दिब्येंदु कुंडू

इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि जब वादी बेदखली के संबंध में मुकदमा दायर करता है, तो यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि वह उस संपत्ति के स्वामित्व का हकदार है। एक बार स्वामित्व साबित हो जाने के बाद अन्य विवरण जैसे संपत्ति से विनिवेश या अन्य चीजों को साबित करने की आवश्यकता नहीं होती है।

एन.पी. तिरुगननम बनाम डॉ. आर.जे. मोहन राव

इस मामले में न्यायालय द्वारा यह माना गया है कि जब किसी मामले में यह देखा जाता है कि वादी ने स्वयं अनुबंध में अपना हिस्सा नहीं निभाया है या न ही वह प्रदर्शन करना चाहता है, तो विशिष्ट प्रदर्शन अधिनियम के संबंध में निर्णय इस पक्ष के तहत जारी किया जाएगा।

प्रेम सिंह बनाम बीरबल

इस मामले में न्यायालय ने कहा कि जब कोई अनुबंध वैध होता है तो उसके रद्द होने में कोई संदेह नहीं होता है और जब यह शुरू से ही शून्य हो जाता है (जिसका अर्थ है कि शुरू से ही कानून में कोई अस्तित्व नहीं है) तो कोई विकल्प भी नहीं है जब किसी अनुबंध का कोई अस्तित्व नहीं होता तो उस पर कोई कार्रवाई लागू नहीं होती है।

निष्कर्ष

विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 में संबंधित पक्षों को राहतों का एक सेट दिया गया है। उनके पास अलग-अलग राहतें और लागू नियम हैं जो सभी को पर्याप्त मुआवजा प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इस क़ानून का मुख्य उद्देश्य यह है कि कोई भी व्यक्ति क्षति और हानि के साथ जीवित नहीं रहेगा और जिन लोगों ने ऐसी स्थिति पैदा की है, उन्हें उनके द्वारा प्राप्त सभी गैरकानूनी लाभों को बहाल करने की स्थिति में होना चाहिए। यह अधिनियम सभी को न्याय प्रदान करने पर केंद्रित है न कि किसी एक पक्ष का पक्षपात करने पर।

 

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