किशोर अपराध के प्रकार

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Juvenile Delinquency

यह लेख उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद से संबद्ध पेंडेकंती लॉ कॉलेज की छात्रा Sai Shriya Potla द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत में विभिन्न प्रकार के किशोर अपराध और इसके कारणों पर प्रकाश डालता है और उनसे निपटने के लिए बनाए गए कानूनों की व्याख्या विस्तार से करता है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube ने किया है।

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परिचय

“एक बहादुर, स्पष्टवादी, साफ दिल वाला, साहसी और महत्वाकांक्षी युवा ही एकमात्र नींव है जिस पर भविष्य के राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है।” – स्वामी विवेकानंद

युवा देश के भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। नई चीजें सीखने की उनकी निरंतर इच्छा और विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण देश को नए नवाचारों और तकनीकी प्रगति में आगे ले जाएगा। युवा मासूम दिमाग वाले होते हैं, उन्हें देश के हितों की सेवा के लिए प्रभावी नेता बनाया जा सकता है। इसलिए, भारत ने हाल के दिनों में बच्चों की उचित शिक्षा को बहुत महत्व दिया है। लेकिन बच्चों में बढ़ता अपराधी व्यवहार इस प्रक्रिया में कठिनाई पैदा कर सकता है।

राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में किशोरों के खिलाफ 31,170 मामले दर्ज किए गए, जो 2020 में दर्ज किए गए 29,768 मामलों से 4.7% अधिक है, और इनमें से 76% अपराध 16 वर्ष से 18 वर्ष के बीच के किशोरों द्वारा किए गए थे। तेजी से बढ़ते किशोर अपराध के मामले देश के लिए बड़ी चिंता का विषय बन गए हैं। निम्नलिखित लेख किशोर अपराध के मुद्दे, विभिन्न प्रकारों, कारणों, परिणामों, प्रासंगिक क़ानूनों और समस्या के संबंध में सरकार द्वारा उठाए गए निवारक उपायों के बारे में व्यापक जानकारी प्रदान करता है।

किशोर अपराध क्या है

किशोर अपराध से तात्पर्य 18 वर्ष से कम उम्र के नाबालिगों की अवैध गतिविधियों में भागीदारी से है जो किसी देश में कानून और व्यवस्था के उचित कामकाज में बाधा उत्पन्न कर सकते है। किशोर वह व्यक्ति है जिसने वयस्कता (मेजॉरिटी) की आयु प्राप्त नहीं की है। हर देश में वयस्कता की वैधानिक उम्र अलग-अलग है। भारत में वयस्कता की उम्र 18 वर्ष है।

किसी व्यक्ति को अपराधी तब कहा जाता है जब वह सामाजिक मानदंडों और मूल्यों के अनुरूप नहीं होता है। एक किशोर अपराधी के साथ वयस्क अपराधी से अलग व्यवहार किया जाता है। जब कोई किशोर किसी असामाजिक गतिविधियों में शामिल होता है, तो यह माना जाता है कि उसमें उचित निर्णय लेने के लिए मानसिक परिपक्वता का अभाव है, लेकिन एक वयस्क के मामले में ऐसा नहीं है। एक वयस्क अपने कार्यों और उनके परिणामों से पूरी तरह अवगत होता है। इसलिए, सजा के बजाय किशोरों के पुनर्वास पर जोर दिया जाता है।

तोड़फोड़, किसी भी दुकान से सामान की चोरी और ऐसी लड़ाई शुरू करना या उसमें शामिल होना जिससे जनता को चोट पहुंचे, किशोर अपराध के कुछ सामान्य उदाहरण हैं।

किशोर अपराध से निपटने वाला कानून

किशोरों को उनके सीमित मानसिक और सामाजिक विकास के कारण अलग कानून द्वारा शासित किया जाता है। हालाँकि, भारत में शुरू से ही कोई संरचित (ऑर्गनाइज़्ड)  किशोर प्रणाली नहीं थी।

आजादी से पहले किशोर पुनर्वास प्रणाली

आज़ादी से पहले, किशोर अपराध मौजूदा प्रथागत (कस्टमेरी) कानूनों द्वारा शासित होते थे। लेकिन दिन-प्रतिदिन किशोर अपराध में वृद्धि के कारण, सरकार को किशोरों के लिए विशेष कानून की आवश्यकता महसूस हुई। इस मुद्दे के आलोक में, ब्रिटिश सरकार ने पहला किशोर कानून, प्रशिक्षु(एप्रेंटिस)अधिनियम, 1850 पारित किया। अधिनियम के अनुसार, छोटे अपराध करने वाले दस से अठारह वर्ष की आयु के नाबालिगों के साथ अलग व्यवहार किया जाएगा, और दोषी किशोरों को व्यापार में प्रशिक्षु के रूप में रखा जाएगा।

आज़ादी से पहले पारित कुछ अन्य कानूनों में भी किशोर अपराध से संबंधित प्रावधान थे। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 82, सात साल से कम उम्र के बच्चों को प्रतिरक्षा प्रदान करती है और उन्हें अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) से छूट देती है। “डोली इनकैपैक्स” का सिद्धांत इस धारा का आधार बनता है, जिसके अनुसार बच्चों में स्वयं कोई अपराध करने की मानसिक क्षमता नहीं होती है। आईपीसी की धारा 83 में प्रावधान है कि सात साल से अधिक और बारह साल से कम उम्र के बच्चे जो पर्याप्त परिपक्वता (मैच्योरिटी) तक नहीं पहुंचे हैं, उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।

सुधारक विद्यालय अधिनियम,1876 को किशोरों के दृष्टिकोण को बदलने और किशोर अपराधियों से संबंधित सुधारात्मक प्रावधान प्रदान करने के लिए अधिनियमित किया गया था। न्यायालय सोलह वर्ष से कम आयु के उन अपराधियों को जेल भेजने के बजाय सुधारक विद्यालय में दाखिला लेने का निर्देश दे सकता है, जिन्हें कारावास की सजा सुनाई गई है। लेकिन अपराधी को अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद स्थानीय जेलों में स्थानांतरित (शिफ्ट) कर दिया जाना चाहिए। अधिनियम किशोर अपराधियों के उपचार और पुनर्वास के लिए प्रावधान प्रदान करता है।

ब्रिटिश भारत में, बच्चों के कार्यों को विनियमित करने के लिए कोई समान राष्ट्रीय किशोर कानून नहीं था। फिर भी, बंबई और मद्रास जैसे कुछ प्रांतों (प्रोविंस) के पास अपने स्वयं के किशोर कानून हैं।

आज़ादी के बाद

आज़ादी के बाद किशोर न्याय प्रणाली को पुनर्गठित किया गया। उपेक्षित (नग्लेक्टेड) या अपराधी बच्चों की देखभाल, सुरक्षा, शिक्षा और पुनर्वास प्रदान करने के उद्देश्य से 1960 में बाल अधिनियम लागू किया गया था। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(3), 21A, 24, 39(e) , 39(f) , 45, और 47 बच्चों के कल्याण को बढ़ावा देते हैं और उनके उज्ज्वल भविष्य को सुरक्षित करते हैं।

किशोर न्याय अधिनियम, 1986

सरकार ने पूरे भारत में लागू एक संरचित किशोर न्याय प्रणाली स्थापित करने के लिए बाल अधिनियम, 1960 लागू किया, लेकिन अधिनियम के कार्यान्वयन (इम्प्लिमेन्टेशन)  में कोई एकरूपता नहीं थी। शीला बरसे बनाम भारत संघ (1986) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को सोलह वर्ष से कम उम्र के बच्चों के मुकदमे के लिए एक समान किशोर अधिनियम के साथ बाल अधिनियम, 1960 को बदलने की सिफारिश की।

किशोर न्याय प्रशासन के लिए संयुक्त राष्ट्र मानक न्यूनतम नियम (बीजिंग नियम 1985) के अनुसार, सरकार ने किशोर न्याय अधिनियम, 1986 अधिनियमित किया। किशोर न्याय अधिनियम 1 दिसंबर 1986 को लागू हुआ। अधिनियम के कुछ प्रावधान को बाल अधिनियम के आधार पर अधिनियमित किया गया। अधिनियम का मुख्य उद्देश्य अपराधी और उपेक्षित किशोरों के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचा प्रदान करना है।

अधिनियम का उद्देश्य देखभाल, सुरक्षा, कल्याण को बढ़ावा देना और किशोर अपराध की घटना को रोकना है। इस अधिनियम का उद्देश्य किशोर गृह, बाल न्यायालय और किशोर कल्याण बोर्ड की स्थापना करना भी है। अधिनियम किशोरों को सोलह वर्ष से कम उम्र के लड़कों और अठारह वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के रूप में परिभाषित करता है।

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000

किशोर न्याय अधिनियम, 1986 का मुख्य उद्देश्य भारतीय किशोर न्याय प्रणाली को 1985 के संयुक्त राष्ट्र मानक के अनुपालन में लाना है। हालाँकि, यह उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने 1989 में बच्चों के अधिकारों पर सम्मेलन (कन्वेंशन) को अपनाया और भारत ने 1992 में इसको मंजूरी दी, जिसके कारण किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 का निर्माण हुआ।

अधिनियम द्वारा किया गया सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन एक ऐसे किशोर की परिभाषा को दोबारा बदलना था जो अठारह वर्ष की आयु तक नहीं पहुंचा हो। यह परिवर्तन किशोरों की आयु सोलह वर्ष से बढ़ाकर अठारह वर्ष कर देता है। इस बदलाव का मुख्य उद्देश्य किशोरों के साथ वयस्कों से अलग व्यवहार करना है। अधिनियम ने “किशोर अपराध” वाक्यांश को “कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चे” से और “उपेक्षित बच्चे” को “देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता वाले बच्चे” से प्रतिस्थापित कर दिया।

इस अधिनियम का उद्देश्य पर्यवेक्षण (आब्ज़र्वेशन) गृहों और किशोर कल्याण बोर्डों की स्थापना करना है। इसके अलावा, अधिनियम का उद्देश्य बाल कल्याण समिति की स्थापना करना भी है। अधिनियम की धारा 31(1) समिति को बच्चों की देखभाल, सुरक्षा और पुनर्वास के मामलों को निपटाने और उन्हें अपने मानवाधिकारों का प्रयोग करने के लिए एक स्वस्थ वातावरण प्रदान करने का अंतिम अधिकार प्रदान करती है।

इस अधिनियम का लक्ष्य प्रत्येक जिले में एक किशोर पुलिस इकाई का निर्माण करना भी है। प्रत्येक पुलिस स्टेशन में बाल कल्याण अधिकारी को किशोरों को संभालने के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) प्रदान किया जाता है। यह अधिनियम किशोरों के लिए मौत की सजा और आजीवन कारावास पर रोक लगाता है।

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015

कुख्यात 2012 दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामला, जिसे आमतौर पर निर्भया बलात्कार मामले के रूप में जाना जाता है, ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के अधिनियमन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला था। इस मामले में, एक 23 वर्षीय महिला थी जिसका छह लोगों द्वारा क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया गया था; उनमें से एक उस समय किशोर था।

इस भयावह घटना के कारण पूरे देश में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ और किशोर न्याय अधिनियम 2000 की दक्षता (एफिशिएंसी) के संबंध में संदेह उठाया गया। सरकार ने मौजूदा कानून की सक्षमता के संबंध में उठाई गई सभी चिंताओं को स्पष्ट करने की दृष्टि से अधिनियम पारित किया।

अधिनियम बाल कल्याण बोर्ड और बाल कल्याण समिति को जारी रखता है और प्रत्येक जिले के लिए किशोर न्यायालय को पुनर्जीवित करता है, जिसे 2000 अधिनियम में हटा दिया गया था।

किशोर न्याय अधिनियम में 2015 के संशोधन द्वारा लाया गया सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन अपराधों का वर्गीकरण है। अपराधों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है:

  1. जघन्य अपराध: ऐसे अपराध जिनके लिए भारतीय दंड संहिता या किसी अन्य कानून के तहत न्यूनतम सजा सात साल या उससे अधिक की अवधि के लिए कारावास है। (किशोर न्याय अधिनियम की धारा 2(33))
  2. गंभीर अपराध: ऐसे अपराध जिनके लिए भारतीय दंड संहिता या किसी अन्य कानून के तहत सजा तीन से सात साल के बीच की अवधि के लिए कारावास है। (किशोर न्याय अधिनियम की धारा 2(54))
  3. छोटे-मोटे अपराध: ऐसे अपराध जिनके लिए भारतीय दंड संहिता या किसी अन्य कानून के तहत कारावास की सजा को अधिकतम तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है। (किशोर न्याय अधिनियम की धारा 2(45))।

अधिनियम की धारा 15 में उल्लेख है कि 16-18 आयु वर्ग के कानून का उल्लंघन करने वाले किसी भी किशोर पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाया जाएगा यदि अपराध जघन्य अपराधों की श्रेणी में आता है। हालाँकि, अधिनियम की धारा 18 के अनुसार, किसी किशोर को आजीवन कारावास या मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता है।

किशोर न्याय बोर्ड बच्चे पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाने से पहले किशोर की मानसिक और शारीरिक क्षमता का प्रारंभिक मूल्यांकन करेगा। बोर्ड में बच्चों के व्यवहार का आकलन करने के लिए अनुभवी मनोवैज्ञानिक और मनो-सामाजिक कार्यकर्ताओं को शामिल किया गया है।

बरुण चंद्र ठाकुर बनाम मास्टर भोलू (2022) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जिस किशोर पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाया जाएगा, उसमें उस कार्य के भविष्य के परिणामों को समझने की क्षमता होनी चाहिए जिसके लिए उस पर आरोप लगाया गया था। अदालत ने आगे उल्लेख किया कि परिणाम न केवल अपराध के तत्काल परिणामों तक ही सीमित हैं, बल्कि पीड़ित और उसके परिवार को भुगतने वाले परिणाम भी होंगे, तभी एक किशोर पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाया जा सकता है।

राजीव कुमार बनाम बिहार राज्य (2018) के मामले में, पटना उच्च न्यायालय ने माना कि प्रारंभिक मूल्यांकन किसी भी अन्य अपराध के लिए नहीं किया जा सकता है जो “जघन्य अपराध” की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आता है।

किशोर अपराध में योगदान देने वाले कारक

ऐसे कई कारक हैं जो बच्चों में अपराधी व्यवहार का कारण बनते हैं। किशोरों में असामाजिक व्यवहार के विकास के प्राथमिक कारण निम्नलिखित कारक हैं।

सामाजिक कारक

किसी व्यक्ति के सामाजिक जीवन का उस पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है। परिवार और सहकर्मी समूह सामाजिक जीवन के दो प्रमुख घटक हैं। अन्य सभी कारकों के अलावा, किसी व्यक्ति के व्यवहार में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बच्चे अपना अधिकांश समय परिवार के साथ बिताते हैं, वे माता-पिता के कार्यों को देखते हैं और अपने दैनिक जीवन में उनकी नकल करने या दोहराने की प्रवृत्ति रखते हैं।

माता-पिता द्वारा अपने बच्चों के सामने अपनी भावना व्यक्त करने में विफलता और परिवार में लगातार झगड़ों के कारण बच्चे में अकेलापन आ जाएगा। इस प्रक्रिया में, वे बुरी संगति की तलाश कर सकते हैं। दूसरी ओर, सख्त पालन-पोषण शैली और अत्यधिक प्रतिबंध उन्हें स्वीकृत मानदंडों और मूल्यों के खिलाफ विद्रोही बना देंगे। जो बच्चे कम उम्र में शारीरिक या मानसिक हिंसा झेलते हैं, उनके अपराधों में शामिल होने की संभावना अधिक होती है।

परिवार के बाद बच्चे अपना अधिकांश समय अपने सहकर्मीयों के साथ बिताते हैं। सहकर्मी समूह एक-दूसरे को सहयोग प्रदान करने के लिए बनाए जाते हैं। आम तौर पर, सहकर्मी समूह किसी व्यक्ति में स्थिरता और उदारता को बढ़ावा देते हैं, लेकिन अगर वे बुरी संगति में हों तो इसका किशोरों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

आर्थिक कारक

किशोरों के अपराध में लिप्त होने का एक प्रमुख कारण गरीबी है। कम समय में अमीर बनने की लालची इच्छा व्यक्तियों को अवैध गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रभावित कर सकती है। प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य अपनी आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाना होता है, लेकिन कानूनी तरीके से अवसरों और संसाधनों का भंडारण व्यक्ति को अपने सपनों को अवैध और नैतिकता विरोधी तरीके से पूरा करने के लिए मजबूर करता है।

शिक्षा बच्चों को तर्कसंगत सोच कौशल (स्किल), अनुशासन, अच्छा व्यवहार और कानूनी और अवैध के बीच अंतर प्रदान करेगी। लेकिन कई परिवार अपनी गरीबी के कारण अपने बच्चों को स्कूल और कॉलेज भेजने में असमर्थ होते हैं, इसके बजाय, उन्हें अपने परिवार की आर्थिक मदद करने के लिए कहा जाता है। इस प्रक्रिया में, वे शराब और नशीली दवाओं के आदी हो जाते हैं। औपचारिक (फॉर्मल) शिक्षा की कमी के कारण ये किशोर अच्छे और बुरे के बीच अंतर करने में असफल हो जाते हैं और अंततः आपराधिक गतिविधियों की ओर आकर्षित हो जाते हैं।

मनोवैज्ञानिक कारक

अपराध का होना हमेशा बाहरी ताकतों से प्रभावित नहीं होता, कई बार व्यक्ति के भीतर की अशांति भी असामाजिक मानसिकता को बढ़ावा देती है। भावनात्मक अशांति व्यक्तियों में विकृत सोच, अत्यधिक व्यवहार और असामान्य मनोदशा में बदलाव का कारण बन सकती है।

उच्च आत्मसम्मान वाले व्यक्ति की तुलना में कम आत्मसम्मान वाले व्यक्ति के विचलित व्यवहार में शामिल होने की संभावना अधिक होती है। कम आत्मसम्मान वाला किशोर अपने बारे में नकारात्मक धारणा रखता है और इससे लगातार निराश रहता है। दूसरों द्वारा अस्वीकृति और शत्रुता कम आत्मसम्मान वाले किशोरों में अत्यधिक व्यवहार का कारण बन सकती है। परिवारों में भावनात्मक अशांति और माता-पिता और सहकर्मी समूहों से स्नेह और समर्थन की कमी युवा वयस्कों के कम आत्मसम्मान का प्रमुख कारण है।

कभी-कभी, ईर्ष्या पारस्परिक विवाद के रूप में प्रकट हो सकती है और बदले की भावना को जन्म दे सकती है। अपनी सीमित मानसिक परिपक्वता के कारण किशोर वयस्कों की तुलना में ईर्ष्या के अधिक कार्य दिखाते हैं।

ध्यान आभाव सक्रियता विकार, विपक्षी विकार या किसी अन्य मानसिक स्वास्थ्य विकार से पीड़ित बच्चे अत्यधिक आक्रामक व्यवहार प्रदर्शित करने और जानबूझकर परेशान करने वाले व्यवहार में संलग्न होने के लिए इच्छुक होते हैं।

किशोर अपराध के प्रकार

हॉवर्ड बेकर ने मोटे तौर पर किशोर अपराध को चार प्रकारों में वर्गीकृत किया है, अर्थात्, व्यक्तिगत, समूह-समर्थित, संगठित और परिस्थितिजन्य, जिस तरह से अपराधी व्यवहार किया जाता है और अंतर्निहित सामाजिक संदर्भ पर आधारित है।

व्यक्तिगत अपराध

व्यक्तिगत अपराध का उपयोग उस बच्चे के व्यवहार का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो दूसरों की सहायता के बिना अपनी मर्जी से आपराधिक गतिविधियों में संलग्न होता है। मनोचिकित्सकों ने व्यक्तिगत अपराध के अध्ययन में प्रमुख योगदान दिया है। उनके अनुसार व्यक्तिगत अपराध मनोवैज्ञानिक समस्याओं से उत्पन्न होता है।

डॉक्टर हीली के अनुसार, इस तरह के व्यवहार के प्रदर्शन का प्राथमिक कारण अपराधी की कमज़ोर मानसिकता है। बच्चे की बौद्धिक असमानता उसे समाज द्वारा निर्धारित नैतिक मानदंडों का पालन करने में असमर्थ बनाती है, जो बच्चे को आपराधिक व्यवहार अपनाने के लिए मजबूर करती है।

बच्चे अपने तात्कालिक वातावरण की कल्पना करके अपने व्यवहार पैटर्न को अपनाते हैं, जिससे परिवार बच्चे के व्यवहार को निर्धारित करने में एक महत्वपूर्ण कारक बन जाता है। पारिवारिक वातावरण, जीवनशैली और रिश्ते की गतिशीलता बच्चे के मानसिक और बौद्धिक विकास को प्रभावित करती है। यदि माता-पिता अपेक्षित प्यार, करुणा और समर्थन प्रदान करने में विफल रहते हैं, तो बच्चे में असामाजिक रवैया विकसित होने का जोखिम होता है। गरीबी, शिक्षा की कमी, नशीली दवाओं का उपयोग और बच्चे के परिवार की आपराधिक पृष्ठभूमि मुख्य ताकतें हैं जो बच्चों में हिंसक और असामाजिक व्यवहार को बढ़ावा देती हैं।

आनुवंशिकता (हरेडिटी) भी किशोरों में अपराधी व्यवहार का एक कारण है। बच्चों को अपने पूर्वजों से नकारात्मक व्यवहार संबंधी गुण विरासत में मिलते हैं। हालाँकि, बच्चे के वातावरण में बदलाव से उन आपराधिक गुणों का विकास कम हो जाएगा।

बरुण चंद्र ठाकुर बनाम मास्टर भोलू (2022) मामले में, एक 16 वर्षीय लड़के ने रयान इंटरनेशनल स्कूल के शौचालय में 7 वर्षीय लड़के की गला काटकर हत्या कर दी। आरोपी की उम्र को देखते हुए मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो से किशोर न्याय बोर्ड को स्थानांतरित कर दिया गया था। आरोपी की सामाजिक जांच रिपोर्ट के अनुसार, वह आक्रामक, गुस्सैल, कम स्थिर था और अक्सर शराब का सेवन करता था। प्रारंभिक मूल्यांकन करने के बाद बोर्ड की राय थी कि आरोपी के पास अपराध करने की मानसिक क्षमता है और उस पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाया जा सकता है। हालाँकि, आदेश के खिलाफ कई अपीलें दायर की गईं, और सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रारंभिक मूल्यांकन करने की शक्ति बाल न्यायालय और किशोर न्याय बोर्ड के पास है, और न्यायालय इस मामले में गहराई से नहीं जा सकता।

समूह-समर्थित अपराध

समूह-समर्थित अपराध से तात्पर्य उस बच्चे के व्यवहार से है जो दूसरों के साथ मिलकर असामाजिक गतिविधियों में संलग्न होता है। अपराधियों में यह व्यवहार उनके निकटतम पड़ोस और परिवार के बाहर के सामाजिक समूहों में प्रचलित संस्कृति के प्रभाव में विकसित होता है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, किशोर अपराध के कुल मामलों में से दो तिहाई उन किशोरों द्वारा किये जाते हैं जो स्वयं को गिरोह जैसे संगठनों में समूहित कर लेते हैं।

फ्रेडरिक थ्रैशर ने अपने काम “गैंग्स थ्योरी” में समूह-समर्थित अपराध पर चर्चा की है। प्रत्येक समूह में अन्य समूहों से भिन्न एक अद्वितीय व्यवहार पैटर्न होता है, और सदस्य इसे अपने व्यक्तित्व में शामिल करते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान, समूह एक-दूसरे के प्रति शत्रुता उत्पन्न करते हैं और अपने हितों की रक्षा और बढ़ावा देने के लिए आपराधिक तकनीकों का प्रसार करते हैं।

सहकर्मी संघ समान आयु वर्ग के लोगों के बीच बनते हैं। किशोर अपने परिवार की तुलना में सहकर्मी समूहों को अधिक समय देते हैं। किशोर आपराधिक प्रवृत्ति के शिकार होते हैं क्योंकि उस उम्र में उनमें वयस्क मानसिक और बौद्धिक परिपक्वता का अभाव होता है।

एक व्यक्ति समूह द्वारा स्वीकार किए जाने के लिए किसी भी अनैतिक कार्य जो समाज के मानदंडों के विरुद्ध है में भाग लेने को तैयार हो जाता हैं। माता-पिता अपने नियंत्रण का प्रयोग करने में विफल हो जाते हैं क्योंकि बच्चा अपने माता-पिता की तुलना में सहकर्मीयों की राय को अधिक महत्व देना शुरू कर देता है।

संगठित अपराध

संगठित अपराध औपचारिक रूप से आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने के लिए संगठित युवाओं के एक समूह द्वारा किया जाता है। इन संगठनों की एक पदानुक्रमित (हायरार्कीकल) संरचना होती है और ये समूह के स्थापित मूल्यों और मानदंडों द्वारा निर्देशित होते हैं। अल्बर्ट कोहेन संगठित अपराध का उल्लेख करने वाले पहले व्यक्ति थे। “डेलिनक्वेंट बॉयज़: कल्चर ऑफ़ द गैंग” पुस्तक में अल्बर्ट कोहेन ने उपसंस्कृति का सिद्धांत विकसित किया। कोहेन के अनुसार, अपराधी उपसंस्कृति किशोरों के अपराध में शामिल होने का प्राथमिक कारण है।

उपसंस्कृतियाँ समाज में मौजूदा सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के परिणाम के रूप में उभरती हैं। कामकाजी वर्ग का व्यक्ति जो सफलता प्राप्त करना चाहता है और अपने लक्ष्यों का पीछा करना चाहता है, उसे लगातार मध्यम वर्ग की मांगों और अपेक्षाओं का सामना करना पड़ता है; उन्हें जल्द ही एहसास होता है कि कठोर सामाजिक संरचना और सामाजिक रैंक उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुंचने से रोकती है। समाज में असमानताएं व्यक्ति को मौजूदा सामाजिक मानदंडों और मूल्यों को अस्वीकार करने और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक उपसमूह में शामिल होने के लिए मजबूर करती हैं।

क्लोवर्ड और ओहलिन ने अपनी पुस्तक “अपराध और अवसर” में बताया है कि जो युवा वैध तरीकों से सफलता प्राप्त करने में अपनी असमर्थता के साथ तालमेल बिठाने में विफल रहते हैं, वे नाजायज प्रक्रिया अपनाते हैं। किशोर अपनी असफलता के लिए अपनी अक्षमता के बजाय सामाजिक व्यवस्था को दोषी मानते हैं। व्यक्तियों का एक समूह जिसने समान अनुभवों का सामना किया है और मौजूदा व्यवस्था के प्रति घृणा का एक विशिष्ट रवैया रखता है, एक विचलित उपसंस्कृति का निर्माण करेगा। ये अपराधी उपसंस्कृतियाँ 1950 के दशक में अमेरिका में उभरीं। बच्चों के बीच नशीली दवाओं की तस्करी भारत में संगठित अपराध का एक प्रमुख उदाहरण है। इन संगठित समूहों द्वारा किशोरों को ड्रग्स और पदार्थ वितरित करने के लिए काम पर रखा जाता है, और उन्हें अक्सर दवाओं के लिए भुगतान किया जाता है।

परिस्थितिजन्य अपराध

ऊपर उल्लिखित अपराधों के प्रकारों में, किशोरों द्वारा अपराध करने के कारणों की जड़ें बहुत गहरी हैं। वे मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या सांस्कृतिक कारकों से प्रेरित होते हैं। लेकिन परिस्थितिजन्य अपराध की जड़ें गहरी नहीं हैं; बल्कि, कारण और नियंत्रण के साधन अपेक्षाकृत सरल हैं।

एक व्यक्ति जो सीमित आवेग (इम्पल्स) नियंत्रण या पारिवारिक और सामाजिक प्रतिबंधों के कारण दबाव के कारण असामाजिक गतिविधियों में लिप्त होता है। अन्य प्रकार के अपराध की तुलना में, परिस्थितिजन्य अपराध को नियंत्रित करना काफी आसान है।

डेविड मैट्ज़ा ने अपनी पुस्तक “अपराध औरअभिप्राय (ड्रिफ्ट)” में परिस्थितिजन्य अपराध का उल्लेख किया है। मैट्ज़ा के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति में आपराधिक प्रवृत्ति होती है जिसे सामाजिक मानदंडों के अनुसार दबा दिया जाता है। एक किशोर अपराधी दुनिया और पारंपरिक दुनिया के बीच फंस गया है; समाज के मानदंडों और मूल्यों के बारे में ज्ञान होने के बावजूद, किशोर अपने अनुज्ञाकारी प्रलोभनों (पर्मिसिव  टेम्टैशन) के कारण विचलित व्यवहार की ओर झुक जाता है। मैट्ज़ा ने इस प्रक्रिया को “अभिप्राय” कहा।

डेविड मैट्ज़ा कहते हैं कि तटस्थीकरण (न्यूट्रिलाइजेशन) की तकनीकें अभिप्राय को सक्षम बनाती हैं। तटस्थीकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से युवा अपने अपराधी कार्यों को उचित ठहराते हैं। हालाँकि, परिस्थितिजन्य अपराध की अवधारणा विकसित नहीं हुई है और इसे किशोर अपराध की समस्या के लिए अधिक प्रासंगिकता नहीं दी गई है। इस प्रकार का अपराध केवल लेखन में ही अपना स्थान पाता है, वास्तविकता में नहीं।

किशोर अपराधियों के लिए पुनर्वास

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 का उद्देश्य किशोर अपराधियों के पुनर्वास और पुन:एकीकरण (रीइन्टग्रैशन) पर जोर देते हुए छोटे मामलों के निपटान के लिए बच्चों के अनुकूल तरीकों को अपनाना है। पुनर्वास किसी व्यक्ति के अपराधी व्यवहार में शामिल होने के बाद उसे सुधारने और समाज में वापस लाने की प्रक्रिया है।

अधिनियम में कहा गया है कि पर्यवेक्षण गृह और बाल देखभाल संस्थान क्रमशः कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों और देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता वाले बच्चों के लिए पुनर्वास केंद्र के रूप में काम करेंगे।

किशोर न्याय बोर्ड और बाल न्यायालय की मंजूरी से 16-18 वर्ष की आयु के किशोरों पर जघन्य अपराध करने के लिए वयस्कों के रूप में मुकदमा चलाया जा सकता है। लेकिन इस अधिनियम ने छोटे अपराधों के लिए अपराधी व्यवहार में शामिल किशोरों के लिए विशेष बाल देखभाल संस्थान बनाए। इन किशोरों को शारीरिक दंड या मानवीय व्यवहार का सामना नहीं करना पड़ता; इसके बजाय, पुनर्वास सुविधाएं प्रदान की जाती हैं।

किशोरों का पुनर्वास अत्यधिक सावधानी और अत्यंत परिश्रम से किया जाता है, यह देखते हुए कि वे अभी भी मानसिक विकास के प्रारंभिक चरण में हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21A और निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अनुपालन में अपराधियों को अनिवार्य शिक्षा दी जाती है।

अपराधियों को नया ज्ञान प्राप्त करने और अपने कौशल को बढ़ाने का अवसर दिया जाता है। उन्हें खेल जैसी मनोरंजक गतिविधियों में भाग लेने या संगीत, कला, नृत्य और सांस्कृतिक कार्यक्रमों जैसे कौशल का अभ्यास करने का अवसर प्रदान किया जाता है। प्रत्येक अपराधी को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं और परामर्श प्रदान किया जाता है। बच्चे के व्यक्तित्व विकास के लिए जब भी आवश्यक हो, बाल देखभाल संस्थान नशामुक्ति, व्यावसायिक प्रशिक्षण और रोग उपचार के लिए परामर्श सेवाएं प्रदान करते हैं।

पुनर्वास और पुनर्एकीकरण की प्रक्रिया अपराधी की व्यक्तिगत योजना के अनुसार की जाती है। जब भी आवश्यक समझा जाए, अधिनियम में इस प्रक्रिया में पालन-पोषण देखभाल, प्रायोजन (स्पॉन्सरशिप) और गोद लेना भी शामिल है।

किशोरों को स्वस्थ पारिवारिक वातावरण और बच्चे के लिए प्यार और स्नेह प्रदान करने के लिए पालक (फोस्टर) देखभाल के संरक्षण में रखा जाता है। पालक परिवार बच्चे के स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के लिए जिम्मेदार होंगे।

यह अधिनियम राज्य सरकार को बच्चे की गुणवत्ता में सुधार के लिए चिकित्सा, शैक्षिक और अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रायोजन के रूप में बाल देखभाल संस्थानों और परिवारों को वित्तीय सहायता देने में सक्षम बनाता है। अधिनियम में अनाथों और परित्यक्त (अबैन्डन्ड) बच्चों के लिए परिवार के अधिकार को बहाल करने के लिए गोद लेने का प्रावधान भी किया गया है।

पुनर्वास की अवधि के बाद अठारह वर्ष की आयु में बाल देखभाल संस्थानों और विशेष गृह को छोड़ने वाले बच्चों को किशोरों को समाज में वापस लाने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाएगी।

बाल अपराध की रोकथाम

किसी राष्ट्र की भविष्य की समृद्धि युवाओं की भलाई और प्रभावशीलता पर निर्भर करती है, इसलिए, देश के भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए किशोरों के बीच अपराधी व्यवहार को सीमित करना आवश्यक है। कुछ निवारक उपायों में निम्नलिखित शामिल हैं

शिक्षा कार्यक्रम

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का व्यक्तियों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे उनमें अपराध करने की संभावना कम हो जाती है। स्कूली शिक्षा ज्ञान और जीवन कौशल प्रदान करती है, जो उन्हें आत्मनिर्भर बनाती है और किशोरों को असामाजिक गतिविधियों में शामिल होने से रोकती है। किशोरों को सामाजिक मानदंडों, मूल्यों, नागरिक अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान मिलता है, जो उन्हें कानून का उल्लंघन करने से हतोत्साहित करता है। निःशुल्क और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में सरकारी निवेश किशोरों के बीच अपराधी व्यवहार को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

स्वस्थ पारिवारिक वातावरण

माता-पिता-बच्चे के संबंध, पारिवारिक रिश्ते की गतिशीलता और पालन-पोषण के दृष्टिकोण का बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर लंबे समय तक प्रभाव रहता है। प्रारंभिक चरण में बच्चों में अपराधी व्यवहार की रोकथाम के लिए माता-पिता और बच्चों के बीच मजबूत संचार स्थापित करना महत्वपूर्ण है।

हीन भावना को दूर करना

डर, हीन भावना और यह आशंका कि कोई उसे चोट पहुंचा सकता है, किशोर पर गलत प्रभाव डालता है और इस डर से दूसरों को नुकसान पहुंचाता है। माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों को एक ठोस आधार तैयार करना चाहिए ताकि बच्चे सुरक्षित महसूस कर सकें और किसी भी तरह की बेचैनी साझा कर सकें।

मनोरंजक कार्यक्रम

मनोरंजक गतिविधियाँ असामाजिक गतिविधियों की घटना को कम नहीं करती हैं बल्कि अपराधी मूल्यों को कम करने में प्रमुख भूमिका निभा सकती हैं। असामाजिक व्यवहार वाले व्यक्ति अत्यधिक क्रोध, आवेगपूर्ण व्यवहार और आत्म-नियंत्रण की कमी का अनुभव करते हैं, जबकि मनोरंजक गतिविधियाँ किशोरों को आराम प्रदान करती हैं और दूसरों के साथ मेलजोल बढ़ाने में मदद करती हैं। किशोर संगीत, नृत्य, नाटक और कला जैसी अपनी छिपी हुई प्रतिभाओं को खोजते हैं और हम उन्हें आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

प्रचार एवं जागरूकता अभियान

समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, मीडिया, रेडियो और सोशल मीडिया जनता में जागरूकता पैदा करने और ज्ञान प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में काम कर सकते हैं। सरकारी और गैर-सरकारी संगठन किशोर अपराध के मुद्दे के बारे में जागरूकता अभियानों के माध्यम से जनता को शिक्षित कर सकते हैं।

निष्कर्ष

किशोरों के हितों की रक्षा करना और भावी पीढ़ियों के सर्वोत्तम हित में किशोर अपराध की घटनाओं को कम करना महत्वपूर्ण है क्योंकि वे राष्ट्र की प्रगति और उन्नति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015, इस मुद्दे के आलोक में एक प्रगतिशील कदम है लेकिन इसमें उचित कार्यान्वयन का अभाव है। अधिनियम के तहत स्थापित कई किशोर गृहों में उचित बुनियादी ढांचा और पानी, स्वच्छता और पर्याप्त कर्मचारी जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। क़ानून में नए संशोधनों और अपराधियों के उपचार के संबंध में जागरूकता की कमी और भ्रम भी है। सरकार को अधिनियम के उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए।

मुद्दे की जटिलता के कारण, सरकार को मौजूदा कानूनों को लागू करने के अलावा निवारक उपायों को भी प्राथमिकता देनी चाहिए। सरकार लोगों को किशोर अपराध के बारे में शिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान, विशेष व्याख्यान (लेक्चर) और विद्यालय और कॉलेजों में विभिन्न कार्यक्रम शुरू कर सकती है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

किशोर अपराध के प्रकार क्या हैं?

अमेरिकी समाजशास्त्री हॉवर्ड बेकर ने किशोर अपराध को चार प्रमुख प्रकारों में वर्गीकृत किया है: व्यक्तिगत अपराध, समूह-समर्थित अपराध, संगठित अपराध और परिस्थितिजन्य अपराध।

किशोर अपराध के मुख्य कारण क्या हैं?

किशोर अपराध के प्रमुख कारणों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है: सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक। सामाजिक कारकों में परिवार और सहकर्मी समूहों का प्रभाव शामिल है। आर्थिक कारकों में अधिक धन और बेहतर जीवन स्तर प्राप्त करने के लिए अपराधी व्यवहार का प्रदर्शन शामिल है, जबकि मनोवैज्ञानिक कारकों में व्यक्ति के भीतर के चरित्र लक्षण शामिल होते हैं जो उन्हें असामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रेरित करते हैं।

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 द्वारा क्या परिवर्तन लाए गए हैं?

अधिनियम ने अपराधों के वर्गीकरण की शुरुआत की। मानसिक मूल्यांकन के बाद यदि 16-18 वर्ष की आयु के किशोरों की हरकतें अधिनियम के तहत “जघन्य अपराध” के रूप में योग्य होती हैं, तो उन पर वयस्कों के रूप में मुकदमा चलाया जाएगा।

संदर्भ

 

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