यह लेख Bhavika Mittal द्वारा लिखा गया है, जो सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय से संबंधित श्री नवलमल फिरोदिया लॉ कॉलेज, पुणे में बीए एलएलबी की पढ़ाई कर रही हैं। यह लेख भारतीय दंड संहिता, 1860 की सबसे भ्रमित करने वाली अवधारणाओं में से एक पर अंतर्दृष्टि देने का प्रयास करता है, जो आपराधिक मानव वध (कल्पेबल होमीसाइड) और हत्या के बीच का अंतर है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय
A नाम के व्यक्ति ने B को मार डाला। इस दृष्टांत (इलस्ट्रेशन) का क्या अर्थ है? आप इससे क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं? खैर, पहली बार पढ़ने पर, कोई भी व्यक्ति कहेगा कि A ने B की हत्या की है। इसलिए, A को हत्या जैसा भयानक अपराध करने के लिए दंडित किया जाना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि एक व्यक्ति ने दूसरे को मार डाला है, इसका मतलब यह नहीं है कि उसने किसी की हत्या की है। इसके बजाय, इसका मतलब है कि व्यक्ति ने आपराधिक मानव वध का कार्य किया है।
लेकिन क्या हत्या और आपराधिक मानव वध पर्यायवाची नहीं हैं? आम आदमी के लिए, निश्चित रूप से दोनो एक हो सकते हैं, लेकिन कानून पेशेवरों के लिए ये अलग शब्द हैं। इस जागरूकता के बावजूद उनमें लगातार भ्रम की स्थिति बनी हुई है। यह लेख इन शब्दों के बीच अंतर को स्पष्ट करने का प्रयास करता है।
अर्थ
मानव वध
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2019 में एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें कहा गया था कि दुनिया भर में 475,000 लोग मानव वध के शिकार हुए हैं। वैश्विक दर 6.2 प्रति 100,000 है। यह कौन सा कार्य या अवधारणा है जिसका शिकार विश्व की आबादी हो रही है? खैर, “मानव वध” शब्द आम लोगों की तुलना में कानून के प्रति उत्साही और पेशेवरों के बीच अपेक्षाकृत अधिक आम है।
मानव वध जिसे अंग्रेजी में ‘होमिसाइड’ कहते हैं की उत्पत्ति दो लैटिन शब्दों से हुई है, ‘होमो’, जिसका अर्थ है ‘आदमी’, और ‘सीडो’ जिसका अर्थ है ‘मैंने काटा’। तो, मानव वध का तात्पर्य एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान को मार देने से है। विश्व स्वास्थ्य संगठन मानव वध को किसी भी तरह से मौत या गंभीर चोट पहुंचाने के इरादे से किसी दूसरे व्यक्ति को मार देने के रूप में परिभाषित करता है। इसमें कानूनी हस्तक्षेप और युद्ध के कारण होने वाली मृत्यु को शामिल नहीं किया गया है।’
हत्या
हत्या जिसे अंग्रेजी में “मर्डर” कहते है, की उत्पत्ति का पता “मोर्थ” से लगाया जा सकता है, जो एक जर्मन शब्द है जिसका अर्थ है “गुप्त हत्या”।
हत्या को द्वेष और प्राकृतिक कारणों से मौत का कारण बनने के लिए पर्याप्त चोट पहुंचाने के इरादे से किया गया कार्य माना जाता है। इसे एक आसन्न खतरनाक कार्य के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है जिससे किसी अन्य इंसान की मृत्यु होने की पूरी संभावना है। यह भी ध्यान दिया जाएगा कि इस तरह का जोखिम उठाने का कोई बहाना नहीं है।
किसी अपराध को हत्या या मानव वध की श्रेणी में लाने के लिए निम्नलिखित अनिवार्यताओं को पूरा किया जाना चाहिए।
1. मौत कारित करने का इरादा
किसी दूसरे इंसान को मारने का अपराधी का इरादा स्पष्ट होना चाहिए। किसी व्यक्ति का इरादा सचेत अवस्था में होना चाहिए जहां व्यक्ति उत्तेजित हो, और उसने जानबूझकर विशेष रूप से किसी व्यक्ति को मारने के लिए कार्य किया हो।
उदाहरण के लिए, A, Z को मारने के इरादे से उसकी दिशा में गोली चलाता है। परिणामस्वरूप, Z की मृत्यु हो जाती है। यहाँ, A का Z की मृत्यु कारित करने का इरादा स्पष्ट है।
2. शारीरिक चोट पहुँचाने का इरादा, जिससे मृत्यु होने की संभावना हो
एक व्यक्ति इस तरह से कार्य करता है कि उसे हुई शारीरिक चोट मृत्यु का कारण बनने के लिए पर्याप्त है।
3. मृत्यु कारित करने का ज्ञान
कार्य करने वाला व्यक्ति अच्छी तरह से जानता है कि यह कार्य उसकी मृत्यु का कारण बनेगा। ज्ञान एक संभावना नहीं है बल्कि परिणाम जानने की स्पष्टता है।
उदाहरण के लिए, यह जानते हुए कि उस विशेष भोजन में जहर है, A उसे दुर्भावनापूर्ण इरादे से B को परोसता है। इसे खाने के बाद B की मृत्यु हो जाती है।
दृष्टांत
A, बिना किसी बहाने के, लोगों की भीड़ पर तोप चलाता है और उनमें से एक को मार डालता है। A दोषी है, भले ही उसका किसी व्यक्ति विशेष को मारने का कोई पूर्व-निर्धारित इरादा नहीं था। चूँकि यह अपराध इसके संभावित परिणामों की पूरी चेतना के साथ किया गया है।
विरसा सिंह बनाम पंजाब राज्य 1958 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि तीन आवश्यक चीजें जो मौजूद है, साबित होनी चाहिए, और फिर हत्या के अपराध के लिए जांच आगे बढ़नी चाहिए। यह भी साबित किया जाना चाहिए कि हत्या की जांच शुरू की गई है क्योंकि ऊपर बताए गए तीन तत्व प्रकृति के सामान्य क्रम में मौत का कारण बनने के लिए पर्याप्त हैं।
अंडा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य 1965 में, आरोपी ने पीड़ित को एक घर में लेजाकर पीटा। पिटाई से कई चोटें आईं। उसके हाथ-पैर तोड़ दिए गए और घाव कर दिए गए। इसके अलावा, जो चोटें आईं, वे प्रकृति की सामान्य प्रक्रिया में मौत का कारण बनने के लिए पर्याप्त थीं। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि हत्या का अपराध किया गया है। न्यायालय ने यह कहते हुए अपने फैसले का समर्थन किया कि इस तरह की शारीरिक चोट से होने वाली इच्छित चोट मृत्यु मानी जाती है।
हालाँकि, उपर्युक्त परिणामों को पूरा करने वाला प्रत्येक कार्य हत्या का अपराध नहीं बनता है। कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ आवश्यक चीजें पूरी हो जाती हैं, फिर भी यह कार्य हत्या की श्रेणी में न आने वाला अपराधिक मानव वध होता है। जिनकी संख्या पांच है और इनका उल्लेख भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 300 के तहत किया गया है। अपवादों पर इस लेख में बाद में चर्चा की जाएगी।
उदाहरण सहित प्रकार
मानव वध की परिभाषा से पता चलता है कि इसका दायरा व्यापक है। इसे दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, एक, आपराधिक कार्य और दूसरा, गैर-आपराधिक कार्य।
आपराधिक कार्य की श्रेणी में हत्या एवं अपराधिक मानव वध को शामिल किया गया है। जबकि न्यायोचित मानव वध और आकस्मिक या क्षमायोग्य मानव वध गैर-आपराधिक कार्यों की श्रेणी में आते हैं।
स्पष्टता के लिए, उपर्युक्त शब्दों को संक्षेप में स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है।
न्यायसंगत मानव वध
इसका अर्थ है कानून द्वारा अधिकृत (ऑथराइज) परिस्थितियों में मृत्यु कारित करना। उदाहरण के लिए, दंगा होने से रोकने के दौरान किसी को मार देना, आत्मरक्षा में किसी को मार देना, हिंसक हमले को रोकने के लिए हत्या करना, भागने की कोशिश कर रहे कैदी की हत्या करना, आदि।
दृष्टांत
A, एक सैनिक, कानून के आदेशों के अनुरूप अपने वरिष्ठ अधिकारी के आदेश पर, भीड़ पर गोली चलाता है। A ने कोई अपराध नहीं किया है, क्योंकि यह कानून द्वारा उचित था।
उचित मानव वध की अवधारणा को आर बनाम डडले और स्टीफेंस 1884 के मामले को पढ़कर सबसे अच्छी तरह से समझा जा सकता है। मौजूदा मामले में, एक जहाज़ पर दो वयस्क (एडल्ट) और एक बच्चा था। तीनों यात्री कई दिनों से फंसे हुए थे और बिना खाना खाए रह रहे थे। बच्चा कमजोर हो गया था; वयस्कों ने बच्चे को खाकर खुद को बचाने का फैसला किया। वयस्कों ने दावा किया कि हत्या का कार्य आवश्यकता से बाहर था, लेकिन अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया। किसी की जान बचाने के लिए दूसरे इंसान की हत्या करना न्यायोचित मानव वध नहीं है।
आकस्मिक मानव वध
यह या तो आकस्मिक या क्षमायोग्य मानव वध है। इसका अर्थ है- दुर्घटना द्वारा अनजाने में मृत्यु कारित करना। उदाहरण के लिए, सड़क दुर्घटना, सर्जरी का असफल प्रयास आदि।
दृष्टांत
A, एक सर्जन को एक दुर्घटना से पीड़ित एक बच्चा मिलता है जिसका तुरंत इलाज न किए जाने पर उसकी मृत्यु होने की संभावना है। अभिभावक की सहमति मांगने का समय नहीं है। A सद्भावना से सर्जरी करता है। अब, यदि बच्चा मर जाता है, तो A ने कोई अपराध नहीं किया है।
दृष्टांत
A और B अपने खाली समय में एक-दूसरे के साथ तलवार से लड़ाई का खेल खेलने पर सहमत हैं। इस समझौते का तात्पर्य यह है की बिना किसी बेईमानी के, खेल के दौरान हुए कोई भी नुकसान उठाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति की सहमति है। A, निष्पक्षता से खेलते हुए, B को चोट पहुँचाता है। यहाँ, A कोई अपराध नहीं करता है।
अपराधिक मानव वध
अपराधिक मानव वध जिसे अंग्रेजी में कल्पेबल होमीसाइड कहते है, की उत्पत्ति लैटिन शब्द “कल्पेबिलिस” से हुई है, जिसका अर्थ है “दोष के योग्य”। हानलकी मानव वध का अर्थ है मनुष्य को काटना या मार डालना। इसलिए, अपराधिक मानव वध एक अपराध है जब किसी पर दूसरे आदमी को मार देने का आरोप लगाया जा सकता है।
यह एक ऐसे कार्य का कारण है जिससे संभवतः मृत्यु हो ही जाती है। अपराधिक मानव वध के तीन आवश्यक तत्व हैं:
- मौत कारित करने का इरादा,
- शारीरिक चोट से मृत्यु होने की संभावना, या
- ऐसा ज्ञान जिससे मृत्यु होने की संभावना हो।
दृष्टांत
A जानता है कि Z झाड़ी के पीछे है। B को यह नहीं पता। A, Z की मृत्यु कारित करने के इरादे से, B को झाड़ी पर गोली चलाने के लिए प्रेरित करता है। B ने गोली चलाई और Z को मार डाला। यहां, B दोषी नहीं है, लेकिन A अपराधिक मानव वध का दोषी है।
दृष्टांत
A, इस आशय या ज्ञान से कि इससे मृत्यु होने की संभावना है, गड्ढे के ऊपर डंडे और घांस बिछाता है। Z, गड्ढे से अनजान, रास्ते पर चलता है, गड्ढे में गिर जाता है और मर जाता है। यहां, A ने अपराधिक मानव वध का अपराध किया है।
इसके अलावा, अपराधिक मानव वध दो प्रकार की होती है, अर्थात्:
- अपराधिक मानव वध, जो हत्या की श्रेणी में नहीं आती; यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब भारतीय दंड संहिता, 1860 में हत्या के पांच अपवादों में से कोई एक पूरा हो जाता है।
- अपराधिक मानव वध जो हत्या की श्रेणी में आता है, इसमें मूलतः अभियुक्त ने वास्तव में हत्या की है।
हत्या
यह आखिरी तरह का मानव वध है। यह आपराधिक कार्य का सबसे गंभीर रूप है। आमतौर पर, न केवल आम आदमी बल्कि कानून पेशेवर, विशेषकर छात्र, अन्य प्रकार के मानव वध और हत्या के बीच अंतर करने में असमर्थ होते हैं। नीचे दिए गए शीर्षक के अंतर्गत हत्या की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा की गई है।
मानव वध की उपरोक्त विस्तृत व्याख्या से स्पष्ट है कि मानव वध का दायरा व्यापक है। इसमें आपराधिक के साथ-साथ गैर-आपराधिक कार्य भी शामिल हैं। हालाँकि, ये कार्य मानव जीवन को प्रभावित करने वाले अपराध हैं।
दायरा
मानव वध
सभी मानव वध हत्याएं नहीं हैं। मानव वध चार प्रकार के होते हैं, जिनमें न्यायोचित मानव वध, आकस्मिक मानव वध, अपराधिक मानव वध और हत्या शामिल हैं। मानव वध की अवधारणा में इतनी व्यापक विविधता होने से मानव वध का दायरा व्यापक हो जाता है।
हत्या
सभी हत्याएं मानव वध हैं। हत्या मानव वध के प्रकारों में से एक है, जो इसके दायरे को अपेक्षाकृत संकीर्ण (नैरो) बनाती है। हालाँकि, हत्या की चार डिग्री होती हैं।
हत्या अन्य प्रकार के मानव वध से किस प्रकार भिन्न है?
मानव वध और हत्या पर ऊपर उल्लिखित संक्षिप्त विवरण को पढ़ने पर, आपने दोनों के बीच एक धुंधली रेखा खींच दी होगी। इसमें, हत्या अन्य प्रकार की मानव वध से किस प्रकार भिन्न है, इसका विस्तृत विवरण दिया गया है।
इरादा और ज्ञान
इरादा किसी विशेष वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा है, और इरादा बनाने के लिए तर्क करने की क्षमता होनी चाहिए। इरादा साबित करने की जरूरत है; इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। ज्ञान एक अलग स्तर पर है; यह किसी कार्य के परिणामों के प्रति जागरूकता है।
बासदेव बनाम पेप्सू राज्य 1956 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ज्ञान और इरादे के बीच की सीमा रेखा निस्संदेह पतली है, लेकिन यह समझना मुश्किल नहीं है कि दोनों का मतलब अलग-अलग चीजें हैं। यह मुख्य रूप से भ्रम की यह रेखा है जो हत्या और मानव वध के बीच विवाद का कारण बनती है, लेकिन दृष्टांत और पूर्व निर्णयों की मदद से स्पष्टता का प्रयास किया जाता है।
हत्या और न्यायोचित मानव वध
भारतीय दंड संहिता, 1860 के अध्याय IV में सामान्य अपवादों के सिद्धांत शामिल हैं जिससे आरोपी आपराधिक दायित्व से बच सकता है। न्यायसंगत बचाव में, अभियुक्त अपराध के तत्वों के अस्तित्व से इनकार नहीं करता है, बल्कि अनुरोध करता है कि उन तत्वों के बावजूद, उसे बरी कर दिया जाना चाहिए क्योंकि कार्य किसी तरह से उचित थे। उदाहरण के लिए
- कानूनी दण्ड के क्रियान्वयन (एग्जिक्यूशन) में किया गया कार्य,
- कानूनी प्रक्रिया के क्रियान्वयन में किया गया कार्य,
- शांति बनाए रखने के लिए किया गया कार्य, या
- अपराधों की रोकथाम के लिए किया गया कार्य।
उपरोक्त उदाहरणों में, भले ही मानव वध होता है, लेकिन कार्य को करने वाले को आपराधिक कार्यों के लिए निर्धारित दंड से छूट प्राप्त है।
इसके अलावा, इस अध्याय के कुछ उदाहरण लागू होते हैं और न्यायोचित मानव वध की श्रेणी में आते हैं।
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तथ्य की भूल
एक व्यक्ति जिसने तथ्य की भूल के कारण और ना की कानून की गलती के कारण सद्भावनापूर्वक कोई कार्य किया है और खुद को कानून से बंधा हुआ मानता है, उसे आपराधिक दायित्व से छूट दी गई है।
आर बनाम प्रिंस 1875 में, अभियुक्त, सोलह वर्ष की एक लड़की को उसकी सहमति के बिना उसे उसके वैध अभिभावक से दूर रखने के लिए ले जाता है, यह विश्वास करते हुए कि लड़की अठारह वर्ष से अधिक की है। अदालत ने उसे उत्तरदायी ठहराया क्योंकि उसके द्वारा उचित जांच करने के बाद यह तथ्य सामने आ सकता था। इसलिए, तथ्य की गलती के खिलाफ कोई बचाव नहीं है।
यह अपवाद “इग्नोरेंटिया फैक्टी एक्सक्यूसैट, इग्नोरेंटिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट” के सिद्धांत पर आधारित है, यानी तथ्य की अज्ञानता माफ है, लेकिन कानून की अज्ञानता माफ नहीं है। हालाँकि, तथ्यों की जानकारी का अभाव उचित होगा। जब हत्या की बात आती है, तो आरोपी तथ्यों और अन्य परिस्थितियों से अवगत होता है।
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स्वयं को कानून द्वारा न्यायसंगत मानना
जहां कोई व्यक्ति खुद को कानून द्वारा उचित मानता है, उस पर आपराधिक दायित्व नहीं लगाया जाता है।
दृष्टांत
A, Z को हत्या करते हुए देखता है। A, सद्भाव में, विश्वास करता है कि कानून सभी व्यक्तियों को हत्यारों को पकड़ने का अधिकार देता है और Z को पकड़कर उचित प्राधिकारियों के सामने लाता है। A ने कोई अपराध नहीं किया है, भले ही, वास्तव में, Z आत्मरक्षा में कार्य कर रहा था।
वरयाम सिंह बनाम एंपरर 1926 में, मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि अभियुक्त क्रमशः भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 और धारा 304 के तहत हत्या या अपराधिक मानव वध का दोषी नहीं था। इस मामले में, आरोपी ने एक व्यक्ति को भूत समझकर उस पर हमला कर दिया। हमला घातक और जानलेवा साबित हुआ, लेकिन आरोपी को माफ कर दिया गया क्योंकि तथ्य की गलती थी, और उसका मानना था कि उसके कार्य कानून द्वारा उचित हैं।
इसलिए, हत्या और न्यायोचित मानव वध के बीच अंतर की बात यह है कि हत्या किसी कानूनी प्रक्रिया के क्रियान्वयन में किया गया कार्य नहीं है। यह बिल्कुल भी कानूनी कार्य नहीं है, जबकि न्यायोचित मानव वध कानूनी कार्य है। इसके अलावा, हत्या के तहत इरादा होता है, लेकिन उचित मानव वध के तहत कोई इरादा नहीं होता है।
हत्या और आकस्मिक हत्या
किसी वैध कार्य को करते समय दुर्घटनावश या अनजाने में मृत्यु हो सकती है; ऐसी मौतों को अप्राकृतिक मौतों की श्रेणी में रखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, दुर्घटना से, सहमति से, आदि। वे कार्य जो आकस्मिक हत्या का गठन करते हैं, सद्भाव में किए जाते हैं और किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनने के इरादे से नहीं किए जाते हैं।
दृष्टांत
A ने सद्भाव में और अपने बच्चे के लाभ के लिए, उसकी सहमति के बिना, एक सर्जन को उसका ऑपरेशन करने की अनुमति दी, यह जानते हुए भी कि ऑपरेशन से बच्चे की मृत्यु हो सकती है, लेकिन मृत्यु कारित करने का कोई इरादा नहीं था। A दोषी नहीं है, क्योंकि उद्देश्य बच्चे का इलाज करना है।
कुछ कार्य क्षमायोग्य होते हैं, और उन्हें करने वाला व्यक्ति आपराधिक रूप से उत्तरदायी नहीं होता है। उदाहरण के लिए, बच्चों द्वारा किए गए कार्यों को आपराधिक कार्य नहीं माना जाता क्योंकि वे किसी कार्य के परिणामों को जानने में असमर्थ होते हैं।
श्रीकांत आनंदराव भोसले बनाम महाराष्ट्र राज्य 2002 में, आरोपी ने अपनी पत्नी को पीसने वाले पत्थर से मारकर उसकी मृत्यु कर दी। अपराध करने के समय अभियुक्त की मानसिक स्थिति को आकस्मिक या क्षमा योग्य मानव वध की श्रेणी के तहत छूट प्राप्त करने के लिए साबित किया जाएगा। यह साबित हो गया कि अपीलकर्ता को सिज़ोफ्रेनिया था, और अदालत ने अपीलकर्ता पर हत्या के अपराध का आरोप नहीं लगाया।
जेठूराम सुखरा नागबंशी बनाम मध्य प्रदेश राज्य 1959 में निर्धारित किया गया कि, अभिव्यक्ति “उसको ज्ञान होने के बिना” का अर्थ तथ्य की अज्ञानता है। व्यक्ति कार्य को जानने में असमर्थ है, और ऐसी परिस्थितियों में, आरोपी को आपराधिक दायित्व से छूट मिल जाती है।
इसलिए, हत्या और आकस्मिक या क्षमा योग्य मानव वध के बीच अंतर का बिंदु मृत्यु कारित करने का ज्ञान है; आकस्मिक मानव वध के अंतर्गत मृत्यु कारित करने का कोई ज्ञान नहीं है, लेकिन हत्या में ऐसा होता है। आकस्मिक हत्या के मामले में मृत्यु अप्राकृतिक है, लेकिन जब हत्या की जाती है, तो कार्रवाई इतनी घातक होती है कि मृत्यु स्वाभाविक रूप से होती है।
हत्या और अपराधिक मानव वध
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 300, हत्या के अपवाद का प्रावधान करती है जो कि अपराधिक मानव वध है। पाँच परिस्थितियों को छोड़कर, हत्या की अनिवार्यताओं को पूरा करने वाले अन्य सभी कार्य अपराधिक मानव वध का अपराध बनते हैं। अपवाद ये हैं:
गंभीर और अचानक प्रकोपन (प्रोवोकेशन)
यह अपवाद तभी मिलता है जब अपराध उकसाने वाले के खिलाफ किया गया हो। हालाँकि, ऐसा कहा जाता है कि प्रकोपन तब नही है जब किसी अपराधी ने कानून के पालन करने और आत्म रक्षा के अधिकार के लिए कार्य किया है।
दृष्टांत
Y, A को गंभीर और अचानक प्रकोपन करता है। प्रकोपन पर A, Y पर बंदूक चला देता है। यहां, A का Y को मारने का कोई इरादा या ज्ञान नहीं था। इस प्रकार, A अपराधिक मानव वध के अपराध के लिए उत्तरदायी है।
हंसा सिंह बनाम पंजाब राज्य 1976 में, आरोपी ने मृतक को उसके बेटे के साथ अप्राकृतिक कार्य करते हुए देखा था। यह देखकर आरोपी ने गंभीर और अचानक प्रकोपन में आकर मृतक की हत्या कर दी। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे पर्याप्त प्रकोपन मानते हुए आरोपी को अपराधिक मानव वध के अपराध के तहत दोषी ठहराया और उसकी कारावास की सजा कम कर दी।
निजी रक्षा के लिए दी गई अतिरिक्त शक्ति
निजी रक्षा एक सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति करती है, क्योंकि हर किसी को अपनी सुरक्षा करने का अधिकार है। हालाँकि, यह आवश्यक है कि निजी बचाव सद्भावना से किया जाए, और होने वाली मृत्यु पूर्व नियोजित या इरादा नहीं होनी चाहिए।
दृष्टांत
Z, A पर हमला करने का प्रयास करता है। A सद्भाव में, Z द्वारा हमले को जारी रखने के लिए एक पिस्तौल निकालता है, यह मानते हुए कि यह Z को गोली मारने से रोकने का एकमात्र तरीका है। परिणामस्वरूप, Z की मृत्यु हो जाती है। यहां, A केवल अपराधिक मानव वध के लिए उत्तरदायी है, हत्या के लिए नहीं।
मोहम्मद माइथेन शाहुल हमीद बनाम केरल राज्य 1979 में, मृतक ने मृतक के दोस्तों की पिटाई के लिए अपीलकर्ता को थप्पड़ मारा था; उनके बीच झगड़ा हुआ लेकिन आसपास मौजूद लोगों ने उसे सुलझा लिया। दो दिन बाद, अपीलकर्ता और उसके दोस्तों ने मृतक और उसके भाई पर हमला किया। मृतक दक्षिण की ओर भागने लगा, जहां अपीलकर्ता ने खंजर का इस्तेमाल किया और मृतक की हत्या कर दी।
सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि हमलावर को निजी बचाव का कोई अधिकार नहीं मिलता क्योंकि मृतक के पास कोई हथियार नही था। जहां निजी बचाव के अधिकार का उल्लंघन किया जाता है, वहां मृत्यु कारित करना हत्या की श्रेणी में आता है। मौजूदा मामले से पता चलता है कि अपराधिक मानव वध और हत्या के बीच एक पतली रेखा है।
लोक सेवक, कानून द्वारा दी गई शक्ति से आगे निकल जाते हैं
लोक सेवक द्वारा की गई मृत्यु केवल सद्भावना के तहत की गई थी। लोक सेवक को दिया गया अधिकार उनके द्वारा वैध कर्तव्य माना गया।
दृष्टांत
A एक चोर, एक पुलिस अधिकारी B की हिरासत से भाग जाता है। पकड़ने में सक्षम होने के बावजूद, B उसे पकड़ने के इरादे से A पर गोली चलाता है। चलाई गई गोली A को लगती है और वह मर जाता है। B हत्या के नहीं, बल्कि अपराधिक मानव वध के अपराध के लिए उत्तरदायी है।
अचानक लड़ाई
यह सभी परिस्थितियों में अचानक होना चाहिए। यह जुनून की गर्मी में होगा, और क्रूरता या असामान्य व्यवहार का कोई कार्य नहीं होगा। इसके अतिरिक्त, यह पूर्वचिन्तित नहीं होना चाहिए।
दृष्टांत
बाजार में सब्जी खरीद रहे A का पैर गलती से B पर पड़ जाता है। इससे B पर आरोप लगता है और A और B के बीच तीखी बहस हो जाती है। इसके अलावा, बहस लड़ाई में बदल जाती है जहां A, B को पत्थर से मारता है। नतीजतन, B की मृत्यु हो जाती है, लेकिन A अपराधिक मानव वध के लिए उत्तरदायी है।
राजेंद्र सिंह और अन्य बनाम बिहार राज्य 2000 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 300 के चार अपवाद अचानक लड़ाई, पूर्वचिन्तन की अनुपस्थिति, कोई अनुचित लाभ या क्रूरता नहीं है, लेकिन अवसर अचानक होना चाहिए और इसे पहले से मौजूद द्वेष के लिए परिस्थिति का उपयोग नहीं करना चाहिए।
पीड़ित की सहमति
पीड़िता की उम्र अठारह वर्ष से अधिक होगी, जो कि बालिग है। उसकी जो मृत्यु हुई, वह उसके जोखिम लेने का परिणाम है।
दृष्टांत
A, Z को आत्महत्या के लिए उकसाता है। Z, अठारह वर्ष से कम आयु का व्यक्ति, स्वेच्छा से आत्महत्या करता है। चूँकि Z सहमति देने में सक्षम नहीं है, A हत्या के लिए उकसाने के अपराध के लिए उत्तरदायी है।
उपर्युक्त अपवादों से अंतर की बात आसानी से निकाली जा सकती है। कार्य का इरादा, ज्ञान और गंभीरता की मात्रा अपराधिक मानव वध और हत्या के बीच एक रेखा तय करती है।
फुलिया टुडू और अन्य बनाम बिहार राज्य, (2007)
फुलिया टुडू और अन्य बनाम बिहार राज्य 2007 के मामले में, अपीलकर्ता ने मृतक पर लाठी के एक ही वार से हमला किया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। निचली अदालत ने अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने तत्काल याचिका को बरकरार रखा और सजा को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 304 में कम कर दिया।
इसके अतिरिक्त, सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों के बीच भ्रम को कम करने के लिए कहा कि अपराधिक मानव वध और हत्या के बीच भ्रम तब पैदा होता है जब अदालतें भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 299 और धारा 300 में विधायिका द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों के वास्तविक दायरे और अर्थ को भूल जाती हैं।
अदालत ने यह भी कहा कि इन दोनों प्रावधानों की व्याख्या और कार्यान्वयन का सबसे सुरक्षित तरीका इन दोनों खंडों के विभिन्न खंडों में उपयोग किए गए शब्दों पर ध्यान केंद्रित करना है।
कानूनी प्रावधान
मानव वध और हत्या के बीच अंतर के बावजूद, उन्हें नियंत्रित करने वाला कानूनी प्रावधान 1860 का भारतीय दंड संहिता है। हालाँकि, विधायिका अलग-अलग शीर्षकों और धाराओं के तहत उनका उल्लेख करके दोनों के बीच अंतर करती है।
मानव वध
अध्याय IV, “सामान्य अपवाद”, मुख्य रूप से मानव वध के प्रकारों को नियंत्रित करता है। इसके अलावा, अध्याय XVI में विशिष्ट प्रावधान भी हैं। वे इस प्रकार हैं-
- न्यायोचित मानव वध को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 76, धारा 77, धारा 79, धारा 81, धारा 91 से 106 के तहत शामिल किया जा सकता है।
- दुर्घटनावश या क्षमायोग्य हत्या को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 80, धारा 82, धारा 83, धारा 84, धारा 85, धारा 87, धारा 88, धारा 89 और धारा 92 के तहत कवर किया जा सकता है।
- अपराधिक मानव वध को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 299 के तहत शामिल किया गया है। इसके अतिरिक्त, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 304 में अपराधिक मानव वध के लिए सजा का प्रावधान है। इसके अलावा, इस प्रकार की हत्या का उल्लेख भारतीय दंड संहिता, 1860 के अध्याय XVI के तहत किया गया है।
हत्या
अध्याय XVI जिसका शीर्षक “मानव जीवन को प्रभावित करने वाले अपराध” है, में हत्या के प्रावधान शामिल हैं।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 300, पांच अपवादों को बताते हुए हत्या को परिभाषित करती है, जो हत्या की श्रेणी में आने वाले अपराधिक मानव वध और हत्या की श्रेणी में न आने वाले अपराधिक मानव वध के बीच अंतर करती है। इसके अलावा, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 हत्या के अपराध के लिए सजा निर्धारित करती है।
सज़ा
मानव वध
जैसा कि ऊपर बताया गया है, अपराधिक मानव वध के लिए भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 304 के तहत सजा दी जाती है। भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत उचित हत्या और आकस्मिक हत्या के लिए सजा निर्धारित नहीं की गई है, क्योंकि वे गैर-आपराधिक कार्य हैं।
धारा 304 के तहत दो श्रेणियां निर्धारित की गई हैं।
- जहां इरादा साबित हो जाता है, आरोपी को आजीवन कारावास या दस साल की कैद और जुर्माना हो सकता है।
- जहां ज्ञान साबित हो जाता है, आरोपी को दस साल की कैद और जुर्माना हो सकता है।
हत्या
हत्या, जैसा कि ऊपर बताया गया है, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 के तहत दंडित किया जाता है। जहां हत्या की सभी आवश्यक बातें पूरी की जाती हैं और अपवादों का परीक्षण किया जाता है, उस व्यक्ति को हत्या का दोषी ठहराया जाएगा। ऐसा व्यक्ति मृत्युदंड, आजीवन कारावास और जुर्माने का भागी होता है।
निष्कर्ष
मानव वध और हत्या शब्द अक्सर एक दूसरे के स्थान पर उपयोग किए जाते हैं। निश्चित रूप से, हत्या एक प्रकार की मानव वध है, लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है, मानव वध को श्रेणियों में विभाजित किया गया है, और हत्या भी उनका एक हिस्सा है। जैसा कि सबसे प्रसिद्ध अभिव्यक्ति है, “मानव वध एक जाति है, और हत्या एक प्रजाति है”। हालाँकि, सीमा रेखा इतनी अस्पष्ट है कि हत्या और मानव वध के बीच का अंतर आपराधिक कानून में सबसे अधिक चर्चा वाले विषयों में से एक है।
मुख्य तत्व जो हत्या और अन्य प्रकार के मानव वध के बीच एक रेखा खींचते हैं वे हैं इरादा, ज्ञान, मृत्यु की संभावना की डिग्री और कार्य की प्रकृति। मानव वध के प्रकारों में गंभीरता की मात्रा भिन्न होती है, साथ ही सज़ा भी भिन्न होती है। इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि अपराधी पर उचित कारावास का आरोप लगाया गया है, अंतर को समझना जरूरी है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
मृत्युदंड क्या है?
मृत्युदंड, या मौत की सज़ा, सज़ा का उच्चतम स्तर है। यह तब होता है जब अदालत किसी व्यक्ति को अपराध करने की सजा के रूप में मारने की प्रथा को मंजूरी देती है। भारत में मौत की सज़ा दुर्लभतम (रेयरेस्ट) मामलों में दी जाती है। हत्या के अपराध के लिए मौत की सज़ा दी जा सकती है, लेकिन मानव वध के अन्य रूपों के लिए मौत की सज़ा नहीं दी जाती है। इसलिए, हत्या के लिए किसी व्यक्ति को मृत्युदंड के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
संदर्भ
- B M Gandhi’s Indian Penal Code, fourth edition
- Ratanlal and Dhirjlal, Indian Penal Code, thirth edition