आईपीसी की धारा 304

1
10943
Indian penal Code

यह लेख Ishani Samajpati द्वारा लिखा गया है, जो कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. एलएलबी (ऑनर्स) कर रही है। इस लेख में आईपीसी की धारा 304 की विस्तृत चर्चा की गई है जो ‘गैर इरादतन हत्या (कल्पेबल होमिसाइड)’ के लिए दी जाने वाली सजा का प्रावधान करती है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

धारा 304 महत्वपूर्ण लेकिन कम जानने वाली धाराओं में से एक है जो ‘गैर इरादतन हत्या’ (भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 299) के दोषी को सजा देने के लिए विस्तृत निर्देश देती है।

आईपीसी का अध्याय XVI ऐसे अपराधों से संबंधित है जहां मानव शरीर प्रभावित होता है या अपराध में किसी व्यक्ति की जान जाती है और ऐसे मामलों में सजा दी जाती है। आईपीसी की धारा 304 गैर इरादतन हत्या, जो हत्या के बराबर नहीं है, के ऐसे अपराधों में से एक के लिए सजा का प्रावधान करती है।

यह लेख कुछ प्रासंगिक मामलो के साथ निम्नलिखित पैराग्राफों के माध्यम से आईपीसी की धारा 304 का एक विस्तृत दृष्टिकोण देने का प्रयास करता है। इससे पहले, स्पष्टता के लिए, हत्या और उसके वर्गीकरण, गैर-इरादतन हत्या और हत्या और इसके बीच के अंतर की एक संक्षिप्त चर्चा नीचे दी गई है।

हत्या और इसका वर्गीकरण

प्राकृतिक मृत्यु के अलावा, इसे अन्य पांच श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। वे निम्नलिखित हैं –

  1. दुर्घटना से हुई मौत,
  2. आत्महत्या करना या आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया जाना,
  3. हत्या का संचालन (जहां एक व्यक्ति दूसरे की मृत्यु का कारण बनता है)
  4. अनिर्धारित मृत्यु, जब मृत्यु के कारण का पता नहीं लगाया जा सकता है, और
  5. लंबित मृत्यु, जब मृत्यु का कारण और प्रकृति का निर्धारण किया जाना बाकी है।

हत्या शब्द को अंग्रेजी में होमीसाइड कहा जाता है और यह दो लैटिन शब्दों से बना है अर्थात् ‘होमो’ जिसका अर्थ आदमी है और ‘सीडा’ जिसका अर्थ हत्या है। इसलिए, हत्या का अर्थ एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति द्वारा हत्या करना है। हत्या को आगे दो प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:

1. वैध हत्या

वैध हत्याओं में वे हत्याएं शामिल की जाती हैं जिनमें ‘न्यायसंगत’ और ‘क्षमा करने योग्य’ हत्याएं शामिल हैं। उदाहरणों में आत्मरक्षा में हत्या करना, किसी व्यक्ति को मृत्युदंड के तहत फांसी देना, उन देशों में जहा इच्छामृत्यु (यूथेनेशिया) कानूनी है के तहत हत्या करना, आदि शामिल हैं।

2. गैर कानूनी हत्या

गैरकानूनी हत्या में वे हत्याएं शामिल हैं जो एक सभ्य समाज में कानून की नजर में अवैध हैं। दो सबसे आम गैरकानूनी हत्या निम्नलिखित शामिल हैं:

  • गैर इरादतन हत्या
  • हत्या

आईपीसी के अनुसार गैर इरादतन हत्या की परिभाषा

गैर इरादतन हत्या शब्द को धारा 299 में परिभाषित किया गया है, जो आईपीसी के अध्याय XVI के तहत पहली धारा है। गैर इरादतन हत्या का अपराध तब किया जाता है जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की जानबूझकर या इस ज्ञान के साथ किसी कार्य द्वारा मृत्यु का कारण बनता है, कि इस कार्य से उस व्यक्ति की मृत्यु होने की संभावना है।

आईपीसी की धारा 299 के अनुसार, एक व्यक्ति गैर इरादतन हत्या का अपराध तब करता है जब: –

  • वह व्यक्ति ऐसा कार्य करता है जो जानबूझकर दूसरे व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है।
  • वह व्यक्ति किसी भी ‘शारीरिक चोट’ का कारण बनता है, जिसके परिणामस्वरूप दूसरे व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
  • उस व्यक्ति ने मौत का कारण बनने के इरादे से कार्य किया; या इस ज्ञान के साथ कार्य किया कि इस कार्य से व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है लेकिन बिना किसी इरादे के।

हत्या : आईपीसी में परिभाषा

हत्या की परिभाषा आईपीसी की धारा 300 में दी गई है। यह किए गए अपराध का सबसे गंभीर रूप है। धारा 300 के अनुसार, एक हत्या एक प्रकार की गैर इरादतन हत्या है जहां किसी व्यक्ति की मौत जानबूझकर की जाती है या मौत का कारण बनने के इरादे से शारीरिक चोट पहुंचाई जाती है।

लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) बनाम सूर्यनारायण मूर्ति (1912)

इस सबसे शुरुआती मामलों में, एक संवेदनशील सवाल का फैसला किया गया था कि क्या किसी अपराध को गैर इरादतन हत्या या हत्या के तहत वर्गीकृत किया जाता है।

मामले के तथ्य

सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले लोक अभियोजक ने सूर्यनारायण मूर्ति के खिलाफ अपील की थी, जिसे एक लड़की राजलक्ष्मी की हत्या के आरोप से बरी कर दिया गया था।

आरोपी ने अपला नरसिम्हुलु के काफी बीमा किए थे। इतनी बड़ी रकम पाने के लिए उसने उसे मारने का फैसला किया। आरोपी ने अपला को अपने देवर के घर मिलने के लिए कहा और उसे आर्सेनिक और मर्करी युक्त जहर के साथ मिठाई दे दी। दूसरी ओर, अपला ने एक भाग खा लिया और बचे हुए को फेंक दिया।

राजलक्ष्मी, आरोपी की भतीजी और बहनोई की बेटी, एक 8 या 9 साल की लड़की, आरोपी की जानकारी के बिना फेंकी हुई मिठाई ले गई। फिर उसने इसे दूसरे बच्चे के साथ साझा किया। अपला ठीक हो गया, जबकि दो बच्चों की जहर खाने से मौत हो गई।

इस घटना के दोनों आरोपो को अदालत में पेश किया गया था। एक आरोप तो यह था कि राजलक्ष्मी ने आरोपी से मिठाई मांगी थी। दूसरा आरोप यह था कि राजलक्ष्मी अपला द्वारा फेंकी गई बची हुई मिठाई को आरोपी की जानकारी के बिना ले गई थी। अदालत ने दूसरे आरोप को सच मान लिया।

मामले का मुद्दा

जबकि आरोपी को अपला नरसिम्हुलु की हत्या के प्रयास के लिए ट्रांसपोर्टेशन (एक सुनसान जगह, विशेष रूप से अंडमान द्वीप समूह में सजा के रूप में स्थानांतरित) की सजा सुनाई गई थी, मुख्य मुद्दा यह तय करना था कि क्या आरोपी बच्चों की हत्या का दोषी था या गैर इरादतन हत्या करने का दोषी था।

टिप्पणियां 

मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि आरोपी का इरादा ही इस निस्संदेह हत्या का कारण था।

आरोपी राजलक्ष्मी की हत्या का दोषी है या नहीं, यह सवाल प्रस्तुत तथ्यों से निकाले गए अनुमानों पर आधारित है।

अदालत ने माना कि खाना खाते वक्त आरोपी मौके से गायब था। अगर वह मौजूद होता तो वह राजलक्ष्मी को मिठाई खाने से रोक सकता था। हालांकि, मिठाई के साथ जहर का मिश्रण, मौत का मुख्य कारण था। इसलिए आरोपी जिम्मेदारी से बरी नहीं होता है।

इस पर भी चर्चा हुई और व्यापक रूप से बहस हुई कि क्या उसका अपराध आईपीसी की धारा 299, धारा 301 के तहत आता है, जो गैर इरादतन हत्या जिसमें जिस व्यक्ति की मृत्यु मूल से अभिप्रेत थी उसकी मृत्यु नही हुई है और किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु हो गई है या धारा 302 के तहत मृत्यु से संबंधित है।

लेकिन आरोपी मूल रूप से मौत का कारण बनना चाहता था, इसलिए यह माना गया कि आरोपी बच्चों की हत्या के लिए उत्तरदायी था, भले ही वह केवल अपला को मारने का इरादा रखता था।

निर्णय 

सत्र न्यायाधीश द्वारा हत्या के आरोप से आरोपी को बरी करने के आदेश को निरस्त कर दिया गया था। आरोपी को धारा 304 के बजाय आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया था। हालांकि, आरोपी को मौत की सजा नहीं दी गई थी, लेकिन उसे ‘जीवन भर के लिए ट्रांसपोर्टेशन’ से दंडित किया गया था।

आईपीसी में हत्या और गैर इरादतन हत्या के बीच अंतर

हत्या और गैर इरादतन हत्या दोनों के मामलों में किसी भी व्यक्ति की हत्या शामिल होती है। इसलिए, किसी भी आरोपी पर इनमें से किसी एक के तहत मुकदमा चलाने के लिए, एक सामान्य अनिवार्यता मृत्यु जरूरी है। उनके बीच बुनियादी अंतर इस प्रकार हैं:

आधार हत्या  गैर इरादतन हत्या
आईपीसी में धाराएं आईपीसी की धारा 300 में हत्या को परिभाषित किया गया है।  आईपीसी की धारा 299 में गैर इरादतन हत्या को परिभाषित किया गया है। 
किए गए अपराध की डिग्री हत्या को किया गया सबसे गंभीर अपराध माना जाता है और यह ‘पहली डिग्री की गैर इरादतन हत्या’ के अंतर्गत आता है। गैर इरादतन हत्या में आमतौर पर दो अलग-अलग डिग्री के अपराध शामिल होते हैं। वे क्रमशः 2 और 3 डिग्री की गैर इरादतन हत्या हैं।
ज्ञान और इरादा हत्या के अपराध में इरादा होता हैं जबकि ज्ञान की उपस्थिति स्पष्ट होती है। गैर इरादतन हत्या का अपराध या तो ज्ञान और इरादे दोनों के साथ या केवल ज्ञान के साथ लेकिन बिना किसी इरादे के किया जाता है।
सजा आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या के लिए सजा को परिभाषित किया गया है। सजा में मौत की सजा या जुर्माने के साथ आजीवन कारावास शामिल है। आईपीसी की धारा 304 के तहत गैर इरादतन हत्या की सजा को परिभाषित किया गया है। सजा में अपराध की गंभीरता के आधार पर आजीवन कारावास और जुर्माना या कठोर कारावास शामिल है।
वर्गीकरण हत्या के सभी अपराध गैर इरादतन हत्या की श्रेणी में आते हैं। गैर इरादतन हत्या का दायरा व्यापक होता है और सभी गैर इरादतन हत्याएं, हत्या नहीं होती हैं।
व्याख्या यदि कोई व्यक्ति ऐसा कार्य करता है जो किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है या कोई शारीरिक चोट जो पूर्व तैयारी के साथ मृत्यु का कारण बनती है, तो इसे हत्या माना जाता है क्योंकि इरादा हत्या करना है और अचानक उत्तेजना या क्रोध का नहीं है। गैर इरादतन हत्या वह कार्य है जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य मृत्यु या शारीरिक चोट का कारण बनता है, जो बिना सोचे- समझे, अनियोजित (अनप्लेंड) संघर्ष में, या किसी के उकसावे के परिणामस्वरूप अनियोजित क्रोध में मृत्यु का कारण बनते है।

“सभी हत्याएं, गैर इरादतन हत्या हैं, लेकिन सभी गैर इरादतन हत्याएं, हत्या नहीं हैं”

किसी भी विशिष्ट मामले में, पहले यह जांच की जाती है कि एक गैर इरादतन हत्या, हत्या है या नहीं। जबकि गैर इरादतन हत्या ‘जीनस’ है और हत्या उसकी एक ‘प्रजाति’ है। इसलिए, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि “सभी हत्याएं, गैर इरादतन हत्या हैं, लेकिन सभी गैर इरादतन हत्याएं, हत्या नहीं हैं”।

यह कथन भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई मामलों में दोहराया गया है।

आंध्र प्रदेश राज्य बनाम रायवरापु पुन्नय्या और अन्य (1976)

इस मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘हत्या’ और ‘गैर इरादतन हत्या’ के बीच के अंतर ने “एक सदी से भी अधिक समय से अदालतों को परेशान किया है”। यह भी कहा गया था कि ‘गैर इरादतन हत्या’ जीनस है और ‘हत्या’ प्रजाति है। सभी ‘हत्या’ गैर इरादतन हत्या की श्रेणी में आती हैं, लेकिन इसके विपरीत कभी भी सच नहीं होता है।

तथ्य

  • रोमपिचेरला गाँव में तीन प्रमुख समुदायों, जैसे रेड्डी, कम्मा और भत्राजस के बीच गुट थे।
  • एक राजनीतिक प्रकृति का विवाद, दो समुदायों के बीच हुआ, अर्थात् 1954 के पंचायत चुनाव में रेड्डी, कांग्रेस का समर्थन करते थे और कम्मा, स्वतंत्र पार्टी का समर्थन करते थे। कम्मा समुदाय के एक सदस्य की हत्या कर दी गई और रेड्डी समुदाय के नौ लोगों पर हत्या का मुकदमा चलाया गया।
  • एक अन्य घटना में, मृतक, सरिकोंडा कोटामराजू, भत्राजस के नेता, ने पार्टी के एक सदस्य के पशुशाला (कैटल शेड) में विरोधियों की आक्रामकता से खुद को बचाने के लिए अपनी पार्टी के लोगों के साथ बैठक की। विपक्षी सदस्यों ने वहां की दीवार को जाम कर दिया।
  • मृतक 22 जुलाई, 1968 को रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए पशुशाला (पीडब्ल्यू 1) के मालिक के साथ पुलिस थाने गया था।
  • मृतक, पीडब्लू1 और पीडब्लू2, अगले दिन बस में सवार हुए और आरोपी व्यक्ति भी कुछ समय बाद उसी बस में सवार हो गए। आरोपी व्यक्तियों को देखकर पीडब्ल्यू1 ने खुद को बचा लिया।
  • 55 वर्षीय मृतक ने आरोपी व्यक्तियों से उसे छोड़ने का अनुरोध किया लेकिन उन्होंने उसे बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया। वह बेहोश हो गया और उसने चोट के कारण दम तोड़ दिया, जो प्रकृति में गंभीर थी। उन्होंने न्यायिक मजिस्ट्रेट को मृत्युकालिक घोषणा (डाइंग डिक्लेरेशन) भी दी।
  • विचारण (ट्रायल) न्यायाधीश ने प्रथम दो आरोपियो को आईपीसी की धारा 302 तथा धारा 34 के साथ पठित धारा 302 के तहत दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
  • उच्च न्यायालय ने अपील पर, आईपीसी की धारा 304, भाग II, के तहत दोषसिद्धि को बदल दिया और उनमें से प्रत्येक को ‘पांच साल के कठोर कारावास’ की सजा सुनाई।

राज्य ने विशेष अनुमति प्राप्त करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील की।

मुद्दा

अपील के विचाराधीन रहने के दौरान प्रथम आरोपी (प्रतिवादी 1) की मृत्यु हो गई। किसी अन्य आरोपी पर हत्या या गैर इरादतन हत्या के अपराध के तहत मुकदमा चलाने का निर्णय अब लिया जाना था।

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह तथ्य कि हमला पूर्व नियोजित था, गलत है।

मृतक को लगी चोटें भी मिश्रित प्रकृति की थीं। मौत “कई चोटों के कारण, सदमे और रक्तस्राव” के कारण हुई थी, जो आरोपी के कारण हुई थी।

निर्णय 

सर्वोच्च न्यायालय का मत था कि उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि में परिवर्तन करके एक गलत आदेश पारित किया है और आरोपी को आजीवन कारावास की सजा दी जानी चाहिए।

रामपाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2012)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने भी हत्या और गैर इरादतन हत्या के बीच के अंतर के बारे में यही राय सामने रखी थी।

तथ्य

  • मृतक राम कुमार सिंह और अपीलकर्ता रामपाल सिंह दोनों सेना में लांस नायक के रूप में कार्यरत थे।
  • मृतक अपनी पोस्टिंग की जगह आगरा से, छुट्टी पर अपने गांव आया था।
  • उन्होंने अपनी खाली जमीन पर एक लदौरी बनवाया। रामपाल सिंह ने निर्मित लदौरी को तोड़ दिया और वहां कचरा फेंकना शुरू कर दिया।
  • मृतक फिर छुट्टी पर अपने गांव आया था।
  • लौटने से पहले, वे रिश्तेदारों के साथ बातचीत कर रहे थे, जहां मृतक के चाचा का पोता रामपाल सिंह भी मौजूद थे।
  • मृतक ने उससे लदौरी को तोड़ने और कूड़ा फेंकने का कारण पूछा।
  • नोकझोंक के कारण उन दोनो के बीच कहासुनी हो गई। वे हाथापाई करने लगे और मृतक ने उसे जमीन पर पटक दिया।
  • अपीलकर्ता ने मृतक को गोली मारने के अपने इरादे की घोषणा की और मृतक ने टिप्पणी की कि क्या अपीलकर्ता में उसे गोली मारने का साहस है, जिसकी पुष्टि उसकी पत्नी ने अदालत में की थी।
  • इसके बाद आरोपित ने राइफल से मृतक kobगोली मार दी और फिर फरार हो गया।
  • गांव में प्राथमिक उपचार के बाद उसे सेना के अस्पताल में ले जाया गया जहां उसकी मौत हो गई।
  • आरोपी पर आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या का आरोप लगाया गया था।

मुद्दा

सर्वोच्च न्यायालय के सामने मुद्दा यह तय करना था कि क्या अपराध आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या है या आईपीसी की धारा 304 (भाग I) के तहत अचानक उकसावे के बाद की जाने वाली गैर इरादतन हत्या है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां

सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर आंध्र प्रदेश राज्य बनाम रायवरापु पुन्नय्या और अन्य के मामले में दिए गए अपने निर्णय को दोहराया कि ‘गैर इरादतन हत्या’ जीनस है और ‘हत्या’ इसकी प्रजाति है। सभी ‘हत्या’ ‘गैर इरादतन हत्या’ है, लेकिन इसका विपरीत सच नहीं है।

अदालत ने आगे कहा कि उनके बीच शब्दों का तीखा आदान- प्रदान हुआ और साथ ही मृतक की ओर से उकसावे का भी मामला था।

इसलिए, अपीलकर्ता को अपनी राइफल से गोली मारने के लिए उकसाया गया, जिसके परिणामस्वरूप मृतक की मृत्यु हो गई।

निर्णय

अपीलकर्ता के अपराध को धारा 302 से धारा 304 भाग 1 में बदल दिया गया और दस साल के कठोर कारावास के साथ-साथ, उसे 10,000/- रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी।

आईपीसी की धारा 304 के तहत गैर इरादतन हत्या के प्रकार

सजा के स्तर को निर्धारित करने के लिए, किए गए अपराध की गंभीरता के अनुसार, आईपीसी क्रमशः तीन डिग्री में गैर- इरादतन हत्या को विभाजित करती है। पहली डिग्री धारा 300 और धारा 302 के तहत आती है जबकि बाकी दो डिग्री गैर इरादतन हत्या क्रमशः आईपीसी की धारा 304 (भाग I) और (भाग 2) के तहत आती है:

  1. गैर इरादतन हत्या के सबसे गंभीर रूप को धारा 300 में ‘हत्या’ के रूप में परिभाषित किया गया है। इसे ‘पहली डिग्री की गैर इरादतन हत्या’ भी कहा जाता है।
  2. दूसरे को ‘दूसरी डिग्री की गैर इरादतन हत्या’ कहा जाता है। यह ऐसी गैर इरादतन हत्या है जो हत्या की श्रेणी में आती है। यह पहली डिग्री की तुलना में कम गंभीर होती है। यह धारा 304 के भाग I के तहत दंडनीय है।
  3. ‘तीसरी डिग्री की गैर इरादतन हत्या’ गैर-इरादतन हत्या का सबसे कम गंभीर प्रकार होता है। यह वो गैर इरादतन हत्या है जो हत्या की श्रेणी में ही नहीं आती है। यहां दी जाने वाली सजा सबसे कम होती है। यह आईपीसी की धारा 304 (भाग II) के तहत दंडनीय होता है।

रेग बनाम गोविंदा (1876)

यह उन शुरुआती मामलों में से एक है जिसने हत्या और गैर इरादतन हत्या के बीच अंतर को सटीक रूप से परिभाषित किया था।

तथ्य

इस मामले में आरोपी, एक 18 वर्षीय व्यक्ति ने अपनी 15 वर्षीय पत्नी को लात मारी, उसके सीने पर घुटना रखा और उसके चेहरे पर कई बार मुक्का मारा। इस कार्य से उसके मस्तिष्क पर ‘खून का बहिर्वाह (एक्सट्रेवर्शन)’ हुआ और उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई।

सत्र न्यायाधीश ने आरोपी को हत्या का दोषी पाया और उसे मौत की सजा सुनाई थी।

मुद्दा

बॉम्बे उच्च न्यायालय के सामने मुद्दा यह तय करना था कि आरोपी हत्या का दोषी है या गैर इरादतन हत्या का।

न्यायालय की टिप्पणियों

न्यायामूर्ति मेलविल की राय थी कि अपराध गैर इरादतन हत्या है, न कि हत्या, क्योंकि इस मामले में पति का हत्या करने का कोई इरादा नहीं था और शारीरिक चोट आम तौर पर मौत का कारण बनने के लिए पर्याप्त नहीं थी।

इसलिए, यह माना गया कि शारीरिक चोट मौत का कारण बनने के लिए पर्याप्त नहीं थी और आगे यह कार्य मौत का कारण बनने के इरादे से नहीं किया गया था। इसलिए, आरोपी गैर इरादतन हत्या जो हत्या के बराबर नहीं है के लिए उत्तरदायी था।

निर्णय 

आरोपी को गैर इरादतन हत्या के तहत दोषी ठहराए जाने का आदेश दिया गया था, और उसे सात साल के लिए ट्रांसपोर्टेशन (ब्रिटिश शासन के दौरान सजा के रूप में एकांत स्थान पर स्थानांतरित) की सजा सुनाई गई थी।

आईपीसी की धारा 304 के तहत सजा

आईपीसी की धारा 304 के अनुसार, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, ‘गैर इरादतन हत्या’ के लिए दंड की व्याख्या की गई है।

आईपीसी की धारा 304 को दो भागों: धारा 304 (भाग I) और धारा 304 (भाग II) में विभाजित किया जा सकता है। इनमे, सजा का स्तर अलग होता है और तदनुसार किए गए अपराधों की गंभीरता को देखते हुए दिया जाता है।

  • आईपीसी की धारा 304 (भाग I)

एक व्यक्ति जिसने ‘गैर इरादतन हत्या’ की श्रेणी में आने वाला अपराध किया है, उसे आजीवन कारावास या दस साल तक की अवधि के कारावास और जुर्माने की सजा दी जाएगी। अपराध का कार्य ज्ञान के साथ-साथ इरादे के साथ भी किया जाना चाहिए।

  • आईपीसी की धारा 304 (भाग II)

यह निर्धारित करता है कि एक कार्य जो मृत्यु का कारण बनता है, या कार्य स्वयं मृत्यु या शारीरिक चोट का कारण बनने के इरादे से किया जाता है, जिसे ‘मृत्यु का कारण बनने की संभावना है’, के लिए दस साल तक की अवधि के कारावास या जुर्माना या दोनों या दस साल की कैद और जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।

इसके अलावा, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि यह कार्य इस ज्ञान के साथ किया गया है कि इससे मृत्यु होने की संभावना है, लेकिन उस व्यक्ति का मृत्यु या किसी भी शारीरिक चोट के कारण मृत्यु का कारण बनने का कोई इरादा नहीं था।

यह निर्दिष्ट किया जा सकता है कि आईपीसी की धारा 304 सजा की मात्रा को निर्धारित करने के लिए दो कारकों अर्थात् ज्ञान और इरादे पर जोर देती है। यदि कोई कार्य इरादे और ज्ञान दोनों के साथ किया जाता है, तो आईपीसी की धारा 304 (भाग I) में आजीवन कारावास या दस साल के कारावास और जुर्माने की सजा दी जाती है। इसके विपरीत, यदि यह ज्ञान के साथ किया जाता है, लेकिन बिना इरादे के किया जाता है, तो आईपीसी की धारा 304 (भाग II) के तहत, एक व्यक्ति को दस साल की कैद या जुर्माना या दस साल की कैद और जुर्माना दोनों की सजा दी जाएगी।

आईपीसी की धारा 304 के तहत अपराधों का वर्गीकरण

आईपीसी की धारा 304 के भाग I और भाग II, दोनों के तहत अपराधों का वर्गीकरण इस प्रकार है:

  • संज्ञेय (कॉग्निजेबल)

सीआरपीसी की धारा 2(c) संज्ञेय अपराधों की परिभाषा प्रदान करती है। एक संज्ञेय अपराध एक ऐसा अपराध है जहां एक पुलिस अधिकारी बिना किसी गिरफ्तारी वारंट या मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना ही, किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है। गिरफ्तारी सीआरपीसी की पहली अनुसूची या लागू किसी अन्य प्रासंगिक कानून के अनुसार की जाती है।

एक संज्ञेय अपराध प्रकृति में गंभीर होते है।

  • गैर जमानती

गैर- जमानती अपराध उन गंभीर अपराधों को संदर्भित करता है जहां एक आरोपी व्यक्ति, जिसे गिरफ्तार किया गया है और पुलिस हिरासत में लिया गया है, पुलिस द्वारा जमानत पर रिहा नहीं किया जा सकता है। जांच अधिकारी को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर, आरोपी को न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना चाहिए। आरोपी जमानत के लिए आवेदन दायर कर सकता है और ऐसी जमानत केवल न्यायालय द्वारा अपने विवेक से और न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा जमानत बांड यानी मुकदमे तक व्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ धन की राशि, के साथ ही दी जा सकती है।

कुछ गैर-जमानती अपराधों में बलात्कार, हत्या, दहेज हत्या, हत्या का प्रयास और अपहरण जैसे अपराध शामिल हैं।

  • गैर शमनीय (नॉन कंपाउंडेबल)

सीआरपीसी की धारा 320 उन अपराधों की एक विस्तृत सूची प्रदान करती है जिन्हें शमनीय (कंपाउंडेबल) अपराध कहा गया है, जिसका अर्थ है कि शिकायतकर्ता और आरोपी के बीच समझौता किया जा सकता है। इनके अलावा, बाकी अपराधों को गैर- शमनीय कहा जाता है। यहां, या तो राज्य या राज्य के निर्वाचित (इलेक्टेड) अधिकारी जैसे पुलिस शिकायत दर्ज करती है और किसी भी समझौते में प्रवेश करना आधिकारिक रूप से संभव नहीं होता है।

  • सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय (ट्रायबल)

आईपीसी की धारा 304 में उल्लिखित अपराधों की सुनवाई सीआरपीसी की धारा 9 के तहत सक्षम सत्र न्यायालय द्वारा की जा सकती है।

आईपीसी की धारा 304 से संबंधित प्रासंगिक मामले 

आईपीसी की धारा 304 से संबंधित निर्णयों और आदेशों की एक श्रृंखला मौजूद है। कुछ महत्वपूर्ण मामलों की चर्चा नीचे की गई है। हालाँकि, मामलों की संख्या की विशालता को देखते हुए चर्चा को संपूर्ण नहीं बनाया जा सकता है।

हरेंद्र नाथ मंडल बनाम बिहार राज्य (1993)

तथ्य

यह एक अपील थी, जहां अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 304 (भाग I) के तहत दोषी ठहराया गया था और उच्च न्यायालय ने उसे दो साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। अपीलकर्ता के साथ दो अन्य, सीताराम मंडल और त्रिभंगा मंडल पर धारा 34 के साथ धारा 307 के तहत आरोप लगाया गया था। उन पर धान की चोरी के लिए आईपीसी की धारा 379 के तहत भी आरोप लगाया गया था।

अपीलकर्ता दो अन्य लोगों के साथ धान की कटाई कर रहा था। अभियोजन गवाह 9 (पीडब्लू 9) और उसके भाई ने विरोध किया क्योंकि जाहिर तौर पर अपीलकर्ता उनकी जमीन से धान की कटाई कर रहे थे। अपीलकर्ता ने पीडब्लू 9 के भाई पर तांगी से हमला किया। तीन लोगों पर हत्या और धान की चोरी का आरोप लगाया गया था।

हरेंद्र नाथ मंडल और सीताराम मंडल को सत्र न्यायाधीश द्वारा आईपीसी की धारा 307 के साथ पठित धारा 34 के तहत दोषी ठहराया गया था और क्रमशः सात साल और पांच साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी।

उन्होंने उच्च न्यायालय में अपील की जहां एक आरोपी की मामले के लम्बित रहने के दौरान ही मौत हो गई। अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 304 भाग I के तहत दोषी ठहराया गया था।

मुद्दा

सर्वोच्च न्यायालय के सामने मुद्दा यह तय करने का था कि क्या अपीलकर्ता पर आईपीसी की धारा 304 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है या नहीं।

न्यायालय की टिप्पणियां

अदालत ने माना कि आईपीसी की धारा 304 (भाग I), जिसमें आरोपी को दोषी ठहराया गया था, कोई अपराध नहीं बनाती है ना ही उसे परिभाषित करती है। बल्कि, धारा 304 में विस्तार से बताया गया है कि गैर इरादतन हत्या के लिए दी जाने वाली सजा हत्या के बराबर नहीं होती है। इसके अलावा, धारा 300 अपवादों के साथ हत्या को परिभाषित करती है।

निर्णय 

यह माना गया था कि एक आरोपी को दोषी ठहराने और धारा 304 के भाग I और भाग II के तहत दंडित करने के लिए, आईपीसी की धारा 300 में उल्लिखित पांच अपवादों में से किसी एक के तहत ही मृत्यु होनी चाहिए।

केदार प्रसाद बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1992)

तथ्य

इस मामले के आरोप, मृतक के मृत्युकालिक घोषणा बयान पर आधारित थे।

मृतक अल्ताफ एक हंगामे (कमोशन) के प्रति आकर्षित हुआ था। जब वह मौके पर पहुंचे तो उसने देखा कि एक महिला को पीटा जा रहा था और उसने उन्हे रुकने को कहा।

बारी- बारी से तीनों आरोपी केदार प्रसाद, रामलाल और रामबली, मृतक को पीटने लगे। आरोपियों में से एक केदार प्रसाद ने मृतक के सिर पर घातक प्रहार किया जिससे उसकी मौत हो गई। दूसरे आरोपी व्यक्ति ने मृतक के घुटने और हाथ पर भाले से वार कर उसे घायल कर दिया था।

केदार प्रसाद और रामलाल को आईपीसी की धारा 304 के भाग I के तहत दोषी ठहराया गया और पांच साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। तीनों को आईपीसी की धारा 323 के तहत भी दोषी ठहराया गया था।

मुद्दा

अदालत के सामने मुद्दा यह तय करना था कि क्या अपीलकर्ताओं को आईपीसी की धारा 304 (भाग I) के तहत दोषी ठहराया जा सकता है।

टिप्पणी और निर्णय

मृत्युकालिक घोषणा के आधार पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि केदार प्रसाद द्वारा सिर में दिया गया घातक प्रहार ही मृत्यु का एकमात्र कारण था। इसलिए अदालत ने उसकी सजा की पुष्टि की।

हालाँकि, रामलाल की सजा को आईपीसी की धारा 324 के तहत बदल दिया गया था।

मिर्जा घनी बेग बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1996)

तथ्य

इस मामले में मृतक की मृत्युकालिक घोषणा के अनुसार पति नशे की हालत में घर आया और उसकी पत्नी ने उसे खाना खिलाया था। खाना खाने के बाद पति ने अपनी पत्नी को केरोसिन डालकर आग के हवाले कर दिया था।

रोने की आवाज सुनकर उसके देवर और बहन ने उसे बचाया और अस्पताल ले गए, जहां उसकी मौत हो गई थी।

निचली अदालत ने उसे दोषी ठहराया और आईपीसी की धारा 302 के तहत सजा भी सुनाई।

मुद्दा

अदालत के सामने मुद्दा यह तय करना था कि क्या आरोपी को आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया जाना चाहिए।

टिप्पणियां

यह देखा गया कि इस बात का कोई सबूत नहीं था कि आरोपी अपनी पत्नी को दहेज के लिए प्रताड़ित कर रहा था या वे दोनो एक दुखी वैवाहिक जीवन जी रहे थे। आगे यह माना गया कि भले ही आरोपी नशे की हालत में था, और उसे इस बात का ज्ञान था कि उसका कार्य मृतक के जीवन के लिए खतरनाक होगा, उसका ऐसा करने का कोई इरादा नहीं था। हालांकि वह मृतक की मौत के लिए जिम्मेदार था, वह आईपीसी की धारा 304 भाग II के तहत दोषी है, और न कि धारा 302 के तहत है।

निर्णय 

आरोपी को आईपीसी की धारा 304 भाग II के तहत दोषी ठहराया गया था और उसे पांच साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी।

एस.डी. सोनी बनाम गुजरात राज्य (1990)

तथ्य

इस मामले में मृतक पत्नी ने अपने माता- पिता को सूचित किया कि वह अपने वैवाहिक जीवन में खुश नहीं है और एक पत्र लिखकर अपने माता- पिता को सूचित किया कि उसके पति, ससुराल वाले और अन्य रिश्तेदारों द्वारा उसके साथ बुरा व्यवहार किया जा रहा है। इस दौरान पत्नी अपने ससुराल में मृत पाई गई।

अदालत को बताया गया कि पत्नी के तकिये के नीचे एक सुसाइड नोट मिला है और चिकित्सा अधिकारी ने भी इसे आत्महत्या ही माना है।

निचली अदालत ने आरोपी को आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी करार देते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। अपील पर, उच्च न्यायालय ने उन्हें आईपीसी की धारा 304 भाग II के तहत दंडनीय पाया और उन्हें कठोर कारावास की सजा दी थी।

मुद्दा

अपीलकर्ता और गुजरात राज्य दोनों ने उसकी सजा को चुनौती देने और उसे आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराने के लिए अपील की। यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किया जाना था कि उसे किस धारा के तहत दोषी ठहराया जाना है।

टिप्पणी 

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि आत्महत्या के सिद्धांत का आविष्कार बचाव के रूप में और न्यायालय को गुमराह करने के लिए भी किया गया था। आगे यह माना गया कि मृतक की मृत्यु किसी ऐसे पदार्थ के सेवन से नहीं हुई थी, जिससे किसी की मृत्यु होने की संभावना थी।

उनके पति के अपराध का अनुमान ‘परिस्थितिजन्य (सर्कमस्टेंशियल) साक्ष्य’ के आधार पर लगाया गया था क्योंकि यह स्थापित करने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिला था कि इस मामले में पत्नी ने आत्महत्या की थी या उसकी हत्या की गई थी। चूंकि वह अपनी पत्नी की स्थिति से अवगत था और उसे जानकारी भी थी, इसलिए उसे धारा 304 (भाग II) के तहत दोषी ठहराया गया था।

निर्णय 

सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा और उसे आईपीसी की धारा 304 भाग II के तहत दोषी ठहराया और उसे पांच साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी।

रणधीर सिंह उर्फ ​​धीर बनाम पंजाब राज्य (1981)

तथ्य

इस मामले में आरोपी रणधीर सिंह ने मृतक मोहन सिंह पर कस्सी से वार कर दिया था। मृतक तुरंत जमीन पर गिर गया था। अस्पताल ले जाते समय उसकी मौत हो गई। आरोपी को धारा 302 के तहत दोषी करार दिया गया था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, मृतक को लगी चोटों में से एक उसकी मौत का कारण बनने के लिए पर्याप्त थी।

अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 302 और धारा 302 के साथ धारा 34 के तहत दोषी ठहराया गया था और सत्र न्यायाधीश के द्वारा उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

एक अपील में, पंजाब और हरियाणा के उच्च न्यायालय की खंड (डिविजन) पीठ ने दोषसिद्धि और सजा की पुष्टि की थी।

मुद्दा

मुद्दा यह तय करने का था कि क्या अपराध हत्या के दायरे में आता है क्योंकि यह पूर्व नियोजित नहीं था।

टिप्पणी 

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता एक कॉलेज का छात्र था और किया गया अपराध पूर्व नियोजित नहीं था। आगे यह कहा गया कि अपीलकर्ता को यह ज्ञान होना चाहिए कि उसके द्वारा दी गई चोट से मृत्यु होने की संभावना है। इसलिए उनका अपराध आईपीसी की धारा 304 भाग II की श्रेणी में आता है।

निर्णय 

अपीलकर्ता की दोषसिद्धि को आईपीसी की धारा 302 से धारा 304, भाग II में बदल दिया गया था। अपीलकर्ता को आजीवन कारावास के स्थान पर पांच वर्ष का कठोर कारावास दिया गया था।

आईपीसी की धारा 304 (भाग I) और (भाग II) के बीच अंतर

2016 में रमेशकुमार शंकरलाल शाह बनाम गुजरात राज्य के मामले में गुजरात के उच्च न्यायालय द्वारा आईपीसी की धारा 304 की विस्तृत व्याख्या प्रदान की गई है।

रमेशकुमार शंकरलाल शाह बनाम गुजरात राज्य (2016)

मामले के तथ्य, मुद्दे, टिप्पणियां और निर्णय इस प्रकार हैं:

मामले के संक्षिप्त तथ्य

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक रिट आवेदन आईपीसी की धारा 304, धारा 114 के साथ पठित धारा 120B के तहत प्राथमिकी (एफआईआर) को रद्द करने के लिए दायर किया गया था।

याचिकाकर्ता ने दो आरोपियों के साथ 13 मई, 2014 को जमीन खरीदी थी। इसके बाद, आरोपी नंबर 1 ने संपत्ति पर हाई टेंशन बिजली की लाइन को स्थानांतरित करने के लिए सेंट्रल गुजरात बिजली कंपनी को बिजली के कनेक्शन के लिए आवेदन किया और इसके लिए आवश्यक भुगतान भी किया।

19 जुलाई 2014 को किसी उत्खनन (एक्सकेवेशन) कार्य के कारण खुदाई की गई मिट्टी को जमीन के एक हिस्से में फेंक दिया गया था। फेकी गई मिट्टी ने एक बड़ा ढेर बना दिया। एक अन्य व्यक्ति अपने जानवरो के साथ उस जमीन से गुजर रहा था। जब वह मिट्टी के ढेर पर चढ़ गया, तो वह हाई टेंशन बिजली की लाइन के संपर्क में आया और उसे करंट लग गया।

भारतीय दंड संहिता की धारा 304, 120B के साथ पठित 114 के तहत दंडनीय अपराध के लिए एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी और आवेदक पर इस तरह के आरोप के आधार पर मुकदमा चलाने की मांग की गई थी, कि ‘गैर इरादतन हत्या जो हत्या के बराबर नहीं है’ के अपराध के लिए आईपीसी की धारा 304 के तहत वह दंडनीय है।

मामले का मुद्दा

गुजरात के माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह तय किया जाना था कि क्या अपराध ‘गैर इरादतन हत्या जो हत्या के बराबर नहीं है’ है और क्या आरोपी पर आईपीसी की धारा 304 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है।

न्यायालय की टिप्पणियां

गुजरात के माननीय उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.बी पारदीवाला ने आदेश के माध्यम से धारा 304 की संक्षिप्त व्याख्या प्रदान की। उन्होंने कहा कि: “उपरोक्त धारा को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह दो भागों में विभाजित है। धारा के पहले भाग को आम तौर पर “धारा 304 भाग I” के रूप में संदर्भित किया जाता है, जबकि दूसरे भाग को “धारा 304 भाग II” के रूप में संदर्भित किया जाता है।

यह भी उल्लेख किया गया था कि यदि मृत्यु का कारण बनने वाली शारीरिक चोट जानबूझकर की जाती है और पीड़ित की उससे मृत्यु हो जाती है, तो यह भाग I के अंतर्गत आता है। बाद में अगर इस तरह की चोट इस ज्ञान के कारण होती है कि इसके परिणामस्वरूप मृत्यु हो सकती है, लेकिन मृत्यु का कारण बनने के इरादे के बिना, तब “एक व्यक्ति जो जानबूझकर शारीरिक चोट का कारण बनता है, इस ज्ञान के साथ कि इस तरह के कार्य से मृत्यु होने की संभावना है, अनिवार्य रूप से एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो शारीरिक चोट का कारण बनने के इरादे से कार्य करता है जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु हो सकती है।”

निर्णय 

यह माना गया कि आरोपी व्यक्तियों पर धारा 304 के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है और प्राथमिकी को रद्द करने के आवेदन की अनुमति दी गई थी।

कुछ प्रासंगिक मामलो के साथ आईपीसी की धारा 304 के तत्वों की विस्तृत चर्चा

निम्नलिखित परिस्थितियों में भी आईपीसी की धारा 304 लागू की गई है। प्रासंगिक मामलो के साथ नीचे इनकी चर्चा की गई है:

  • क्षण का उत्साहन (स्पर ऑफ द मूमेंट)

इसका शाब्दिक अर्थ है एक आवेगपूर्ण (इंपल्सिव) कार्य जो बिना किसी पूर्वचिन्तन के या पहले की गई किसी भी आगे की योजना के बिना किया जाता है।

मंजीत सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2014)

मंजीत सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य के मामले में टैक्सी व्यवसाय में शामिल एक व्यक्ति जय पाल, प्रबंधक बुधी सिंह से किसी यात्री द्वारा अपनी टैक्सी की बुकिंग के संबंध में पूछताछ करने के लिए होटल अप्सरा गया था। उसने आरोपी मनजीत सिंह को शराब पीते हुए देखा। प्रबंधक के ठिकाने के बारे में पूछने पर आरोपी ने गाली- गलौज के बाद मारपीट शुरू कर दी। जय पाल के साथी, जिनसे वह सड़क पर मिले, उनसे पूछताछ करने आए।

आरोपी ने अपने दोस्तों के उकसाने पर गोली मार दी, जिससे जय पाल के एक साथी की अस्पताल ले जाते समय मौत हो गई।

आरोपी को धारा 302 के तहत नहीं बल्कि आईपीसी की धारा 304 (भाग II) के तहत दोषी ठहराया गया और सात साल के कठोर कारावास और 5,500 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई। अदालत ने विचारणीय अदालत द्वारा पारित आर्म्स अधिनियम की धारा 27, आईपीसी की धारा 304 के तहत अपराध के लिए दोषसिद्धि और सजा की पुष्टि की।

  • धारा 302 से धारा 304 (II) में आरोपों का परिवर्तन

स्थिति की गंभीरता और अपराध की प्रकृति को देखते हुए, कभी-कभी आवश्यक तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद, न्यायालय के विवेक पर आरोपों को बदल दिया जाता है।

कालू राम बनाम राजस्थान राज्य (1999)

कालू राम बनाम राजस्थान राज्य के मामले में, तथ्यों की सावधानीपूर्वक जांच के बाद, भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरोपियों की सजा में बदलाव किया गया था।

आरोपी कालू राम ने अपनी दो पत्नियों को दो अलग- अलग जगहों पर रखा था। यह उसके लिए महंगा था और इसलिए उसने अपनी एक पत्नी विमला को जलाकर मार डाला।

यह स्वीकार किया गया कि वह नशे की हालत में अपनी पत्नी के पास पहुंचा था और उससे उसके गहने मांगे थे। जब उसने मना किया तो उसने मिट्टी का तेल डाला और माचिस जलाई लेकिन बाद में उसे बचाने के लिए पानी भी डाल दिया था।

इसलिए, यह माना गया कि वह शायद ऐसी गंभीर स्थितियों से अवगत नहीं था। प्रथम श्रेणी की हत्या से अपराध को गैर इरादतन हत्या, जो हत्या के बराबर नहीं होती है, में बदल दिया गया था।

इस प्रकार, दोषसिद्धि को धारा 302 से धारा 304 (भाग II) में बदल दिया गया था।

  • धारा 304 (भाग I) के तहत निजी बचाव के अधिक अधिकार (एक्सीडेड राइट)

आईपीसी की धारा 96 से धारा 106 तक निजी रक्षा के अधिकार की गारंटी दी गई है। हालांकि, यदि कोई कार्य निजी बचाव के अधिकार से अधिक होता है, तो यह आईपीसी की धारा 304 (भाग I) के तहत सजा को आकर्षित करेगा।

इसके अलावा, आत्मरक्षा के अधिकार का उपयोग कानून के न्यायालय में बचाव के रूप में नहीं किया जा सकता है यदि यह निश्चित मात्रा से अधिक है।

सुरेश सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1999)

सुरेश सिंह बनाम हरियाणा राज्य के मामले में, अपीलकर्ता सुरेश सिंह और मोहिंदर सिंह को धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया था, जबकि एक अन्य आरोपी चंदर पाल को धारा 304 (भाग I) के तहत दोषी ठहराया गया था।

आरोपियों ने शरीर के अलग- अलग हिस्सों पर वार कर महिपाल की हत्या कर दी थी। आरोपी भी घायल हुए थे, लेकिन मृतक की तुलना में कम हुए थे।

अत: यह निर्धारित किया गया कि आरोपी व्यक्तियों ने निजी बचाव के अधिकार से अधिक कार्य किया था। सभी आरोपियों के आरोपों को धारा 304 (भाग I) में बदल दिया गया था।

  • आत्मरक्षा होनी चाहिए

यदि आरोपी को मामूली चोटें आती हैं, जबकि मृतक को गंभीर चोटें आती हैं, तो यह माना जाता है कि आरोपी धारा 304 (भाग I) के तहत हमलावर था।

मुरली बनाम तमिलनाडु राज्य (2000)

मुरली बनाम तमिलनाडु राज्य के मामले में, मृतक को आरोपी ने पेट में चाकू मार दिया था। मृतक ने कुएं और आरोपी के पंप सेट में 2/3 हिस्सा खरीदा था। वह मृतक को घसीटकर घर ले आया और उसकी पीट- पीटकर हत्या कर दी। कुछ देर बाद उसने खून से सने चाकू से दरवाजा खोला और फरार हो गया।

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वह धारा 304 (भाग I) के तहत दोषी था और कहा कि, “निस्संदेह निजी बचाव का अधिकार, एक आरोपी के लिए एक उपलब्ध बचाव है लेकिन ऐसे बचाव से निपटने के दौरान न्यायालय को उचित सावधानी के साथ कार्य करना चाहिए।

  • विवाद के दौरान अचानक हाथापाई – धारा 304 (I) से धारा 300 (II) में परिवर्तन

यदि कोई व्यक्ति एक छोटी सी हाथापाई करता है और बाद में मृत्यु या किसी शारीरिक चोट के कारण से उसकी मृत्यु हो जाती है, तो यह धारा 300 (II) के तहत आना चाहिए, न कि धारा 304 (भाग I) के तहत।

सुखदेव सिंह बनाम दिल्ली राज्य (एनसीटी दिल्ली की सरकार) (2003)

सुखदेव सिंह बनाम दिल्ली राज्य (एनसीटी दिल्ली की सरकार) के मामले में आरोपी और मृतक देवेंद्र सिंह के बीच, एक स्कूटर की पार्किंग को लेकर कहासुनी के बाद हाथापाई हुई थी। आरोपी ने पिस्टल तान दी और मृतक की गोली मारकर उसकी हत्या कर दी, और इस में एक व्यक्ति घायल भी हो गया।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कोई भी उचित व्यक्ति आत्म-नियंत्रण खोने और पिस्तौल से गोली चलाने के लिए इतना उत्तेजक नहीं हो सकता है। इसलिए दोषसिद्धि को धारा 304 (भाग II) के बजाय धारा 300 (भाग I) में बदल दिया जाना चाहिए।

  • ज्ञान और इसके खतरनाक परिणामों की संभावना के साथ जल्दबाजी और लापरवाही से कार्य करना

यदि कोई व्यक्ति एक ‘घृणित गंभीर (डेस्पिकेबल अग्रावटेड) अपराध’ करता है, तो वह लापरवाही के कारण हुई मृत्यु से निपटने के लिए आईपीसी की धारा 304A के बजाय धारा 304 (भाग II) के तहत दंड के लिए उत्तरदायी होता है।

एलिस्टर एंथोनी परेरा बनाम महाराष्ट्र राज्य (2012)

एलिस्टर एंथोनी परेरा बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में, मुंबई के बांद्रा के पास एक कार फुटपाथ से टकरा गई, जिसमें सात लोगों की मौत हो गई और आठ अन्य लोग घायल हो गए। अपीलकर्ता एलिस्टर एंथनी कार चला रहा था। उन्हें आईपीसी की धारा 338 और धारा 337 के साथ धारा 304 (भाग 2) के तहत दोषी ठहराया गया था। वह शराब के नशे में पाया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय धारा 304 (भाग II) के तहत दोषी ठहराए जाने के लिए काफी विचारशील था, जहां सात लोगों को असहाय रूप से मार दिया गया था।

हिरासत में मौत

यदि कोई पुलिस अधिकारी पुलिस हिरासत में किसी कैदी पर हमला करता है या उसे प्रताड़ित करता है और इसके परिणामस्वरूप कैदी की मौत हो जाती है, तो आईपीसी की धारा 304 (भाग II) के अनुसार दोषसिद्धि होनी चाहिए।

पुलिस हिरासत में एक व्यक्ति के लिए बनाए जाने वाले दिशा-निर्देशों की एक सूची तैयार करने के साथ, न्यायालय ने डी.के बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) के ऐतिहासिक मामले में भी यही बात कही थी।

आईपीसी की धारा 304 और धारा 304A के बीच एक तुलनात्मक विश्लेषण

जबकि आईपीसी की धारा 304 गैर इरादतन हत्या के अपराधों के लिए दी जाने वाली सजा से संबंधित है, धारा 304A लापरवाही से हुई मौतों से संबंधित है। कई उच्च न्यायालयों और माननीय सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों ने आईपीसी की धारा 304 और धारा 304A के बीच अंतर को बताया है।

इस संबंध में एक उल्लेखनीय मामला, महादेव प्रसाद कौशिक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2008) का मामला है। जहां सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश के पैराग्राफ 26 से 29 तक आईपीसी की धारा 304 और धारा 304A के बीच अंतर पर चर्चा की है:

  • धारा 304A नया अपराध नहीं बनाती है। बल्कि, यह जल्दबाजी या लापरवाही से किए गए कार्यों से हुई हत्या से संबंधित है। यह उन अपराधों को परिभाषित करता है जो आईपीसी की धारा 299 और धारा 300 में निर्दिष्ट अपराधों की श्रेणी में नहीं आते हैं।
  • आगे कहा गया कि धारा 304 के विपरीत, जहां या तो ‘ज्ञान’ या ‘ज्ञान’ और ‘इरादा’ दोनों आवश्यक हैं, धारा 304A के मामले में ‘ज्ञान’ और ‘इरादा’ दोनों की कोई भागीदारी नहीं है।
  • धारा 304A उन अपराधों से संबंधित है जहां जल्दबाजी और लापरवाही के कारण किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु हुई है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया, “इस प्रकार धारा 304 और धारा 304A के बीच अंतर है।”

जटिल अन्वेषण (क्रिटिकल एनालिसिस)

हत्या और गैर इरादतन हत्या के बीच अंतर की बारीक रेखा, अक्सर किए गए अपराध के मामले में सजा की मात्रा निर्धारित करते समय, सबको भ्रमित करती है। निष्पक्ष सुनवाई और न्याय सुनिश्चित करने के लिए, अंतर को ठीक से समझा जाना चाहिए।

यदि किसी अपराध के मामले में न्यायालय द्वारा वास्तविक दायरे, अर्थ और प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिट) को सूक्ष्मता से नहीं समझा जा सकता है, तो यह न्याय सुनिश्चित करने में विफल हो सकता है।

निष्कर्ष 

किसी अपराध को निर्धारित करने के लिए, यह निर्धारित करना बहुत महत्वपूर्ण है कि यह ‘हत्या’ या ‘गैर इरादतन हत्या’ के अंतर्गत आता भी है या नहीं। यदि अपराध को आगे गैर इरादतन हत्या के तहत निर्धारित किया जाता है, तो फिर यह निर्धारित करने की जिम्मेदारी आती है कि यह हत्या है या नहीं और क्या ज्ञान और इरादे या दोनों की कोई उपस्थिति थी या नहीं।

जबकि सैद्धांतिक (थियोरिटिकली) रूप से, वास्तविक जीवन के परिदृश्यों में अंतर करना आसान है, उन्हें निर्धारित करना और उन्हें अलग करना उतना आसान नहीं है। न्याय सुनिश्चित करने के लिए संबंधित धाराओं के कीवर्ड को ठीक से केंद्रित किया जाना चाहिए।

आईपीसी की धारा 304 पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

  • आईपीसी की धारा 304 के तहत किस अपराध को परिभाषित किया गया है?

आईपीसी की धारा 304 स्वयं किसी भी अपराध को परिभाषित नहीं करती है, लेकिन गैर इरादतन हत्या, जो हत्या के बराबर नहीं होती है, के अपराध के लिए दी जाने वाली सजा का विवरण देती है। आईपीसी की धारा 299 में गैर इरादतन हत्या और आईपीसी की धारा 300 में हत्या के अपराध को परिभाषित किया गया है।

  • गैर इरादतन हत्या और इरादतन हत्या में क्या अंतर है?

गैर इरादतन हत्या या तो ज्ञान और इरादे दोनों के साथ या ज्ञान के साथ लेकिन बिना इरादे के, मनुष्यों की गैरकानूनी हत्या है।

इरादतन हत्या ज्यादातर आत्मरक्षा या सहमति से की गई हत्या है, यानी किसी व्यक्ति की अपनी सहमति से हत्या करना, जैसे कि इच्छामृत्यु (यूथेनेशिया), सहायता प्राप्त आत्महत्या या दया हत्या के मामलों में, हालांकि सहमति से हत्या की वैधता अभी भी व्यापक रूप से भारत में बहस का विषय है।

  • गैर इरादतन हत्या कब हत्या की श्रेणी में आती है?

संक्षेप में, ‘पहली डिग्री की हत्या’ एक गैर इरादतन हत्या होती है, जिसे हत्या माना जाता है। प्रथम डिग्री की हत्या किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के एकमात्र इरादे से किया गया अपराध है। आईपीसी की धारा 300 के तहत सबसे गंभीर रुप के अपराध और आईपीसी की धारा 302 के तहत इसकी सजा को परिभाषित किया गया है।

  • क्या भारत में दया हत्या या इच्छामृत्यु, गैर इरादतन हत्या के दायरे में आती है?

भारत में दया हत्या की कानूनी स्थिति अभी भी अस्पष्ट है। सर्वोच्च न्यायालय ने अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम भारत संघ और अन्य (2011) के मामले में पहली बार निष्क्रिय (पैसिव) इच्छामृत्यु को वैध बनाया और मृत्यु के अधिकार को अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान किए गए जीवन के अधिकार के रूप में महत्वपूर्ण माना और यह गैर इरादतन हत्या के बराबर नहीं है।

  • आईपीसी की धारा 304 के आवश्यक तत्व क्या हैं?

आईपीसी की धारा 304 के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं:

  1. प्रश्न में किसी व्यक्ति की मृत्यु होनी चाहिए।
  2. मृत्यु का कारण या तो इरादे और ज्ञान दोनों से होना चाहिए या ज्ञान के साथ लेकिन बिना इरादे के होना चाहिए।
  3. अपराध की सजा उसी के अनुसार तय की जाती है।
  • क्या आईपीसी की धारा 304 के तहत जमानत मिलना संभव है?

आईपीसी की धारा 304 गैर जमानती है। हालांकि, कोई व्यक्ति न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है और यह केवल न्यायालय द्वारा उसके विवेक से न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा जमानत बांड के साथ दी जा सकती है।

  • आईपीसी की धारा 304 में क्या सजा दी गई है?

अपराधों की गंभीरता के आधार पर, आईपीसी की धारा 304 के तहत दी गई सजा में आजीवन कारावास, दस साल तक की उम्र कैद और जुर्माना या दस साल तक की उम्र कैद और जुर्माना दोनों हैं। हालांकि, आईपीसी की धारा 304 मौत की सजा नहीं देती है।

  • आईपीसी की धारा 304 के तहत अपराधों की सुनवाई के लिए कौन सा न्यायालय सक्षम है?

आईपीसी की धारा 304 के तहत किया गया एक अपराध, सत्र न्यायालय में विचारणीय होता है।

संदर्भ

1 टिप्पणी

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here