यह लेख लखनऊ के एमिटी लॉ स्कूल की छात्रा Pragya Agrahari ने लिखा है। यह लेख विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत प्रदान किए गए न्यायिक पृथक्करण (ज्यूडिशियल सेपरेशन) की वैवाहिक राहत का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। यह तलाक और न्यायिक पृथक्करण के बीच के अंतर पर भी चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय
प्रसिद्ध मानवविज्ञानी (एंथ्रोपोलॉजिस्ट) रॉबर्ट लोवी के अनुसार, “विवाह अनुमेय (पर्मिसिबल) साथियों के बीच एक स्थायी बंधन है।” विवाह एक सार्वभौमिक (यूनिवर्सल) संस्था है जो मनुष्य के जीवन को विनियमित (रेगूलेट) करने के लिए बनाई गई है। विभिन्न संस्कृतियों में इसके अलग-अलग निहितार्थ (इंप्लीकेशन) हो सकते हैं, लेकिन यह समाज में हर जगह मौजूद है। हिंदू सामाजिक विरासत में, विवाह को एक संस्कार माना जाता है। इसे एक व्यक्ति का धार्मिक कर्तव्य माना जाता है, और वैवाहिक बंधन को अविभाज्य (इंसेपरेबल) और अपरिवर्तनीय कहा जाता है। लेकिन समय के साथ, यह अवधारणा बदल गई है, और अब इसे अविभाज्य नहीं माना जाता है। भारतीय वैवाहिक कानूनों के तहत, न्यायिक पृथक्करण के समझौते या तलाक के माध्यम से वैवाहिक संबंधों को समाप्त किया जा सकता है।
न्यायिक पृथक्करण उन विवाहित जोड़ों को प्रदान किया जाने वाला एक उपकरण है जो अपनी शादी को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन केवल विवाह में कुछ अधिकारों और दायित्वों को निलंबित करना चाहते हैं, जबकि तलाक पूरी तरह से विवाह को समाप्त कर देता है। न्यायिक पृथक्करण का समझौता तलाक के विकल्प के रूप में कार्य करता है।
यह लेख न्यायिक पृथक्करण की अवधारणा और उन आधारों की जाँच करेगा जिनके तहत न्यायिक पृथक्करण की डिक्री का अनुरोध किया जा सकता है। यह तलाक के साथ इसकी समानता और अंतर का भी विश्लेषण करता है।
न्यायिक पृथक्करण क्या है?
- न्यायिक पृथक्करण एक कानूनी डिक्री है जो एक अदालत द्वारा पति और पत्नी को अलग-अलग रहने का आदेश देने या उनकी शादी को भंग किए बिना उनके वैवाहिक संबंधों को समाप्त करने का आदेश देने के लिए पारित की जाती है। इसे कभी-कभी “डाइवोर्स मेन्सा एट थोरो” यानी पृथक्करण जिसमें पक्ष बिना सहवास के पति-पत्नी रहते है, कहा जाता है। न्यायिक पृथक्करण के आदेश के बाद, पति और पत्नी एक साथ रहने या सहवास (कोहैबिट) करने के लिए बाध्य नहीं होते हैं, और उनके बीच सभी बुनियादी वैवाहिक दायित्वों को निलंबित कर दिया जाता है। वे सहमति से एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं, ताकि उन्हें अपने वैवाहिक संबंधों का आत्मनिरीक्षण (इंट्रोस्पेक्ट) करने का समय मिल सके। न्यायिक पृथक्करण का समझौता आमतौर पर पति और पत्नी के बीच तलाक या सुलह का परिणाम होता है। इसलिए, पृथक्करण की यह अवधि उनकी शादी की समीक्षा (रिव्यू) करने के लिए एक समय के रूप में कार्य करती है, और यदि वे अपनी शादी से खुश नहीं हैं, तो वे तलाक के समझौते के साथ इसे समाप्त कर सकते हैं।
चूंकि एक पृथक्करण समझौते के पक्ष पति और पत्नी बने रहते हैं, इसलिए वे पुनर्विवाह के लिए स्वतंत्र नहीं होते हैं। और यदि वे पुनर्विवाह करते हैं, तो उन्हें द्विविवाह (बाईगेमी) के अपराध के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। यदि पृथक्करण समझौते के दौरान पति-पत्नी में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है, तो दूसरे पति या पत्नी को उसकी संपत्ति विरासत में मिलती है। वैध न्यायिक पृथक्करण के लिए एक और शर्त यह है कि पक्षों के बीच विवाह भी वैध होना चाहिए। शून्य (वॉयड) विवाह में पृथक्करण का समझौता नहीं हो सकता है, लेकिन यदि विवाह शून्यकरणीय (वॉयडेबल) है तो मामला अलग हो सकता है।
निम्नलिखित अधिनियमों में न्यायिक पृथक्करण के विभिन्न प्रावधान प्रदान किए गए थे:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955: बौद्ध धर्म, सिख धर्म और जैन धर्म के लोगों सहित हिंदुओं के लिए है,
- तलाक अधिनियम 1869: ईसाइयों के लिए है,
- पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1936: पारसी लोगों के लिए है,
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954: सभी लोगों पर लागू होता है।
विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत न्यायिक पृथक्करण
हिंदू कानून
हिंदू धर्म में, विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाता है जो प्रकृति में अटूट और शाश्वत है। यह न केवल इस जीवन के लिए बल्कि कई भावी जन्मों के लिए भी माना जाता है। प्राचीन कानूनविद (लॉगिवर), मनु के अनुसार, विवाह को खत्म नहीं किया जा सकता है। लेकिन व्यक्ति के आधुनिक जीवन में नई समस्याओं के उत्पन्न होने के कारण हिंदू कानून में विभिन्न परिवर्तन हुए है। विवाह को अब प्रकृति में खत्म होने वाला माना जाता हैं। किसी भी विवाद या अन्य कारणों से विवाह में पक्ष को तलाक के माध्यम से विवाह को खत्म करने या न्यायिक पृथक्करण की दलील देने के लिए विभिन्न राहत उपाय प्रदान किए जाते हैं।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 10 में ‘न्यायिक पृथक्करण की वैवाहिक राहत का प्रावधान है और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 23 के तहत भी यही स्थिति प्रदान की गई है। जिन आधारों के तहत पति या पत्नी द्वारा न्यायिक पृथक्करण की डिक्री की मांग की जा सकती है, वे वही हैं जो दोनों कानूनों में तलाक के समझौते के लिए प्रदान किए गए हैं।
न्यायिक पृथक्करण के लिए विभिन्न आधार हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 उप-धारा (1) और (2) के तहत और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 27 उप-धारा (1) और (2) के तहत प्रदान किए गए है। उप-धारा (1) में निर्दिष्ट आधारों के तहत, कोई भी पक्ष न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका प्रस्तुत कर सकता है; और उप-धारा (2) में निर्दिष्ट आधारों के तहत, केवल पत्नी न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका प्रस्तुत कर सकती है। इनमें से कुछ आधार इस प्रकार हैं:
- व्यभिचार (एडल्टरी),
- क्रूरता,
- परित्याग (डिजर्शन),
- धर्मांतरण (कन्वर्जन),
- अस्वस्थ मन या मानसिक विकार (डिसऑर्डर),
- गुप्त रोग (वेनरल डिजीज),
- त्याग,
- 7 साल से पति या पत्नी के बारे में नहीं सुना गया है,
- द्विविवाह,
- पति बलात्कार, सोडोमी या पाशविकता (बेस्टिलिटी) का दोषी है।
पारसी कानून
पारसी धर्म में, विवाह को एक अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) माना जाता है और इसे ‘आशीर्वाद’ नामक एक समारोह के माध्यम से संपन्न किया जाता है, जिसमें पुजारी दो पारसी गवाहों की उपस्थिति में विवाहित जोड़ों को आशीर्वाद देते है।
पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1936 के तहत, विवाहित जोड़ों के लिए एक राहत के उपाय के रूप में विवाह की शून्यता, तलाक और न्यायिक पृथक्करण के प्रावधान प्रदान किए गए थे। धारा 34 में ‘न्यायिक पृथक्करण के लिए मुकदमे’ का प्रावधान है, जो किसी भी पारसी पति या पत्नी द्वारा, धारा 32 के तहत तलाक के लिए अधिनियम में वर्णित विभिन्न आधारों पर दायर किया जा सकता है। ये आधार विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत उल्लिखित आधारों के समान हैं।
ईसाई कानून
ईसाई विवाह ईसाई संस्कारों, समारोहों और रीति-रिवाजों के अनुसार धर्म मंत्री, चर्च के पादरी (क्लर्गीमैन) या किसी अन्य धार्मिक व्यक्ति की उपस्थिति में संपन्न होते हैं। ये विवाह अनुबंध के रूप में भी होते हैं।
भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 के तहत ईसाई समुदाय के विवाह और अन्य व्यक्तिगत कानूनों से संबंधित विभिन्न प्रावधान प्रदान किए गए थे, लेकिन तलाक अधिनियम, 1869 के तहत तलाक और विवाह के विघटन (डिजोल्यूशन) के प्रावधान प्रदान किए गए थे। तलाक अधिनियम, 1869 की धारा 22 और धारा 23 ईसाई पति या पत्नी को 2 साल से अधिक के लिए व्यभिचार, क्रूरता या परित्याग के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने की अनुमति देती है। यह डिक्री एक डाइवोर्स मेन्सा एट थोरो के समान है, यानी एक तलाक जो पति और पत्नी को अलग करता है और उन्हें एक साथ रहने के लिए मना करता है लेकिन वास्तव में शादी को खत्म नहीं करता है।
इस डिक्री को तलाक अधिनियम की धारा 26 के तहत उस पक्ष जिसकी याचिका पर न्यायिक पृथक्करण का आदेश दिया गया था, के पति या पत्नी की याचिका पर उलट दिया जा सकता है। न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका के दौरान पति या पत्नी की अनुपस्थिति के आधार पर प्रार्थना की जा सकती है, और यदि अदालत इसे संतोषजनक पाती है, तो वह आदेश को पलटने की डिक्री पारित कर सकती है।
मुस्लिम कानून
मुस्लिम कानून में न्यायिक पृथक्करण से राहत की कोई अवधारणा नहीं है। रहमत उल्लाह और खातून निसा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1994) के मामले में यह देखा गया कि “मुस्लिम व्यक्तिगत कानून या शरीयत कानून, हालांकि तलाक की अवधारणा को मान्यता देते हैं, लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम के तहत प्रदान की गई न्यायिक पृथक्करण जैसी किसी भी चीज की कल्पना नहीं करते है। हालांकि ऐसा कोई कानून नहीं है जो विशेष रूप से पति-पत्नी को न्यायिक पृथक्करण की राहत प्रदान करता है, लेकिन कुछ ऐतिहासिक मामले हैं जो मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 की धारा 2 के तहत न्यायिक पृथक्करण के आधार पर विवाह के विघटन के लिए प्रदान किए गए आधार का विस्तार करते हैं। अधिनियम के तहत प्रदान किए गए कुछ आधार हैं:
- 4 साल से पति का पता नहीं है,
- 2 साल तक भरण पोषण प्रदान करने में उपेक्षा (नेगलेक्ट) या विफलता,
- पति को 7 साल या उससे अधिक की कैद की सजा मिली है,
- 3 साल तक वैवाहिक दायित्वों को निभाने में विफलता,
- नपुंसकता (इंपोटेंसी),
- पागल या कुष्ठ रोग (लेप्रोसी) या गुप्त रोग से पीड़ित,
- 18 वर्ष से पहले पत्नी द्वारा विवाह का खंडन (रेपुडिएशन) जब विवाह 15 वर्ष की उम्र से पहले किया गया हो,
- क्रूरता।
जॉर्डन डिएंगदेह बनाम एस.एस. चोपड़ा (1985), के मामले में माननीय न्यायाधीशों ने विभिन्न आधारों की गणना की जिसके तहत एक मुस्लिम पत्नी भी विवाह के विघटन के लिए एक डिक्री प्राप्त कर सकती है। इस मामले मे विवाह की शून्यता, तलाक और न्यायिक पृथक्करण के संबंध में समान कानून जो सभी लोगों पर उनके धर्म के बावजूद लागू होंगे, की आवश्यकता पर भी बल दिया गया है।
भारत में न्यायिक पृथक्करण के आधार
व्यभिचार
यह पति-पत्नी में से किसी एक के किसी अन्य व्यक्ति के साथ विवाह से बाहर स्वैच्छिक संभोग को संदर्भित करता है। डॉ. एच.टी. वीरा रेड्डी विकिस्तम्मा (1968), के मामले में अदालत ने अपीलकर्ता (पति) को इस आधार पर न्यायिक पृथक्करण का अवॉर्ड प्रदान किया कि प्रतिवादी (पत्नी) ने किसी तीसरे व्यक्ति के साथ यौन संबंध बनाए थे। न्यायालय ने कहा कि “कानूनी पृथक्करण की राहत प्रदान की जाएगी, भले ही दूसरे पति या पत्नी की ओर से बेवफाई का एक ही कार्य साबित हो।”
क्रूरता
क्रूरता का अर्थ वही नहीं है जो आम आदमी की भाषा में क्रूरता शब्द को समझा जाता है। ‘कानूनी क्रूरता’ का एक अलग अर्थ है। सर्वोच्च न्यायालय ने जी.वी.एन. केसवरा राव बनाम जी. जल्ली (2002), में विवाह के संदर्भ में ‘क्रूरता’ शब्द को परिभाषित करने का प्रयास किया हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक कार्य क्रूर होगा यदि इसका उद्देश्य दूसरे पक्ष को पीड़ा देना है। इससे पति पत्नी के मन में यह आशंका पैदा नहीं हो सकती है कि दूसरे पति पत्नी के साथ रहना हानिकारक है। क्रूरता पैदा करने वाले पक्ष का इरादा सारहीन (इमेटेरियल) है। इसके अलावा, यह याचिकाकर्ता के खिलाफ नहीं होना चाहिए और न ही केवल प्रतिवादी द्वारा किया जाना चाहिए।
परित्याग
दो साल की निरंतर अवधि के लिए परित्याग न्यायिक पृथक्करण की अपील का आधार हो सकता है। इसका अर्थ एक पक्ष द्वारा बिना किसी उचित कारण और दूसरे पक्ष की सहमति के बिना वैवाहिक दायित्वों का पूर्ण खंडन करना है। यह तीन प्रकार का हो सकता है-
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वास्तविक परित्याग
जब पति या पत्नी में से कोई भी वास्तव में अपने किसी भी कार्य के माध्यम से दूसरे पक्ष को छोड़ देता है। उदाहरण के लिए, मीना बनाम लक्ष्मण (1959) के मामले में, पत्नी अपने पति को बताए बिना अपने माता-पिता के घर चली गई और वापसी का झूठा वादा किया लेकिन 2 साल की अवधि तक वापस नहीं आई। बंबई उच्च न्यायालय ने इसे परित्याग माना और न्यायिक पृथक्करण का आदेश दिया।
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रचनात्मक (कंस्ट्रक्टिव) परित्याग
जब पति या पत्नी में से कोई भी ऐसा वातावरण बनाता है जो दूसरे पक्ष को छोड़ने के लिए मजबूर करता है, तो इसे उस पक्ष द्वारा ‘रचनात्मक परित्याग’ कहा जाता है जो ऐसा करने के लिए मजबूर होता है। उदाहरण के लिए, ज्योतिष चंद्र गुहा बनाम मीरा गुहा (1969), में पति को अपनी पत्नी में कोई दिलचस्पी नहीं थी और उसके प्रति उसका व्यवहार शादी की शुरुआत से ही कठोर था, जिसके कारण पत्नी को बहुत सारी मानसिक और शारीरिक पीड़ाएँ झेलनी पड़ीं और उसे एक तलाक की याचिका दर्ज करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसे पति के द्वारा परित्याग माना गया था।
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जानबूझकर उपेक्षा करना
जब पति या पत्नी में से कोई भी शारीरिक रूप से त्याग किए बिना जानबूझकर दूसरे पक्ष की उपेक्षा करता है, तो यह जानबूझकर उपेक्षा है। इसमें सहवास से इनकार या विभिन्न अन्य वैवाहिक कर्तव्यों की उपेक्षा करना शामिल है।
धर्मांतरण
जब पति या पत्नी में से कोई एक दूसरे धर्म में परिवर्तित हो जाता है और हिंदू नहीं रहता है, तो दूसरा पक्ष न्यायिक पृथक्करण के लिए अपील कर सकता है। विलायत राज बनाम श्रीमती सुनीला (1983), के मामले में पति ने इस्लाम धर्म अपना लिया था और विवाह के विघटन के लिए याचिका दायर की थी। सवाल यह था कि क्या हिंदू धर्म का धर्मत्यागी हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत विवाह के विघटन के लिए याचिका दायर कर सकता है। न्यायालय ने कहा कि वह एक याचिका दायर कर सकता है क्योंकि धर्म परिवर्तन से विवाह समाप्त नहीं होता है, बल्कि यह विवाह समाप्त करने के एक आधार के रूप में कार्य करता है। हालाँकि, अदालत ने यह भी कहा, कि “पक्ष अपनी खुद की गती या अक्षमता का लाभ लेने और उस स्थिति से लाभ लेने के हकदार नहीं है, जिसके कारण दूसरे पति या पत्नी को नुकसान हुआ है।”
अस्वस्थ मन या मानसिक विकार
यदि पति या पत्नी में से कोई एक अस्वस्थ मन का है या किसी मानसिक बीमारी या विकार से पीड़ित है जो प्रकृति में लाइलाज है और किसी अन्य पक्ष के लिए ऐसी स्थिति में पति या पत्नी के साथ रहना मुश्किल है, तो पक्ष न्यायिक पृथक्करण के लिए अपील दायर कर सकता है। अनिमा रॉय बनाम प्रोबोथ मोहन रॉय (1968), के मामले में पति ने अपनी पत्नी के अस्वस्थ मन के आधार पर शादी को खत्म करने की मांग की, यह तर्क दिया गया कि वह शादी की तारीख में सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित थी। अदालत ने उनकी याचिका की अनुमति नहीं दी क्योंकि उस तारीख से तीन साल की अनावश्यक देरी हुई थी जब यह आरोप लगाया गया था कि उन्हें याचिका दायर करने में अपनी पत्नी की समस्या के बारे में पता चला था, और दिखाया गया सबूत भी संतोषजनक नहीं था।
गुप्त संचारी (कम्युनिकेबल) रोग
यदि पति या पत्नी में से कोई एक गुप्त रोग से पीड़ित है जो संचारी और लाइलाज है, जैसे एचआईवी / एड्स, एचपीवी, सिफलिस, आदि, तो दूसरा पक्ष न्यायिक पृथक्करण के समझौते के लिए प्रार्थना कर सकता है। मधुसूदन बनाम श्रीमती चंद्रिका (1975), के मामले में पति ने अपनी पत्नी के गुप्त रोग, सिफलिस से पीड़ित होने के आधार पर विवाह को खत्म करने या न्यायिक पृथक्करण के लिए, जिला न्यायाधीश द्वारा उसकी याचिका को खारिज करने के खिलाफ अपील की थी। अदालत ने अपील को खारिज कर दिया क्योंकि वह यह साबित करने में असमर्थ था कि याचिका की तारीख से तीन साल पहले उसकी पत्नी सिफलिस से पीड़ित थी। यह भी साबित नहीं हुआ था कि बीमारी लाइलाज थी।
त्याग
त्याग का अर्थ है कि व्यक्ति ने आध्यात्मिक (स्पिरिचुअल) जीवन जीने और आत्मज्ञान (एनलाइटमेंट) प्राप्त करने के लिए पूरी दुनिया और सभी भौतिक (मैटेरियल) सुखों को त्याग दिया है। यह उन आधारों में से एक है जिस पर विवाह का पक्ष न्यायिक पृथक्करण के लिए प्रार्थना कर सकता है। तीस्ता चट्टोराज बनाम भारत संघ (2012), में अभिव्यक्ति ‘दुनिया का त्याग’ को आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए सांसारिक हितों से हटने के रूप में परिभाषित किया गया था। इसका मतलब औपचारिक (फॉर्मल) रूप से त्याग, समर्पण, या दावा, अधिकार, कब्जा, आदि को छोड़ने के लिए सहमति देना है।
जिंदा न होने का अनुमान
जब पति या पत्नी में से कोई भी कम से कम 7 साल के लिए लापता हो जाता है और उसके जीवित रहने के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है, न ही उसके परिवार या दोस्तों को उसकी उपस्थिति के बारे में पता होता है, तो यह माना जाता है कि पति या पत्नी की मृत्यु हो गई है और अन्य पति या पत्नी इस आधार पर न्यायिक पृथक्करण के लिए प्रार्थना कर सकते हैं।
पत्नी के लिए उपलब्ध न्यायिक पृथक्करण के आधार
द्विविवाह
यह दूसरे व्यक्ति से शादी करने को संदर्भित करता है, जब एक व्यक्ति पहले से ही कानूनी रूप से किसी और के साथ विवाहित होता है। अधिनियम के लागू होने से पहले, यदि पति दूसरी महिला से पुनर्विवाह करता है, भले ही उसकी पत्नी जीवित हो, तो पत्नी अपने पति से न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर कर सकती है। हरमोहन सेनापति बनाम श्रीमती कमला कुमारी (1978), के मामले में वादी (पत्नी) ने न्यायिक पृथक्करण के लिए एक मुकदमा दायर किया था क्योंकि प्रतिवादी (पति) ने दूसरी महिला से शादी कर ली थी और अपनी पहले वाली शादी को खत्म किए बिना उसके साथ रहता था।
बलात्कार, सोडोमी या पाशविकता का दोषी
अगर पति शादी के बाद बलात्कार, सोडोमी या पाशविकता का दोषी हो जाता है, तो पत्नी इस आधार पर न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर करने की हकदार है। उदाहरण के लिए, यदि ‘A’ और ‘B’ पति और पत्नी हैं और पति ‘A’ किसी अन्य महिला के बलात्कार का दोषी पाया जाता है, तो पत्नी ‘B’ न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर कर सकती है।
भरण पोषण के आदेश के बाद सहवास की बहाली न होना (नॉन रिजंप्शन)
यदि पति के खिलाफ हिंदू दत्तक (एडॉप्शन) और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत पत्नी को भरण-पोषण प्रदान करने के लिए कोई डिक्री या आदेश पारित किया गया था, और 1 वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए पति और पत्नी के बीच कोई सहवास फिर से शुरू नहीं हुआ था, तो पत्नी न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर कर सकती है।
15 वर्ष की आयु के बाद और 18 वर्ष की आयु से पहले विवाह का खंडन
यदि लड़की के 15 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं करने पर विवाह किया गया था और उसने 15 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद, लेकिन 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले विवाह को अस्वीकार कर दिया है, तो पत्नी न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर कर सकती है। यह आधार नाबालिग (माइनर) लड़कियों, विशेषकर पिछड़े समुदायों की लड़कियों जिनकी शादी उनकी इच्छा के विरुद्ध की गई थी, को राहत प्रदान करने में एक बड़ी भूमिका निभाता है।
न्यायिक पृथक्करण के परिणाम
न्यायिक पृथक्करण के समझौते के बाद, पति और पत्नी अब एक साथ रहने के लिए बाध्य नहीं हैं। हालांकि पति और पत्नी के रूप में उनकी कानूनी स्थिति अपरिवर्तित रहती है, उनके बीच सहवास निलंबित रहता है। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376B तलाकशुदा पत्नी को यह कहकर कानूनी राहत प्रदान करती है कि यदि न्यायिक पृथक्करण के आदेश के बाद पति ने उसकी सहमति के बिना उसके साथ यौन संबंध बनाए, तो वह सजा के लिए उत्तरदायी होगा। इस तरह के अपराध के लिए सजा कम से कम 2 साल की होगी, जिसे 7 साल तक बढ़ाया जा सकता है। इसके अलावा, न्यायिक पृथक्करण की अवधि के दौरान पति-पत्नी को पुनर्विवाह से रोक दिया जाता है। नरसिम्हा रेड्डी बनाम बासम्मा (1975), के मामले में यह माना गया था कि यदि तलाक से पहले कोई भी पति या पत्नी पृथक्करण की इस अवधि के दौरान विवाह करते हैं, तो यह द्विविवाह के बराबर होगा। न्यायिक पृथक्करण के बाद पति-पत्नी पहले की तरह ही संपत्ति के अधिकार के हकदार होते हैं, जैसा कि कृष्णा भट्टाचार्जी बनाम सारथी चौधरी (2015), के मामले में बरकरार रखा गया था, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने पृथक्करण के एक समझौते के बाद पत्नी को ‘स्त्रीधन’ के अधिकार की अनुमति दी थी। अदालत ने इसे पत्नी की अनन्य (एक्सक्लूजिव) संपत्ति करार दिया था।
कभी-कभी, अदालत एक वर्ष की अवधि के लिए न्यायिक पृथक्करण का आदेश देती है ताकि पति-पत्नी सुलह या तलाक के लिए निर्णय ले सकें। यह अवधि उन्हें अपने विवाह को आत्मनिरीक्षण करने का समय प्रदान करती है और सुलह का अवसर प्रदान करती है।
क्या न्यायिक पृथक्करण तलाक के समान है?
न्यायिक पृथक्करण और तलाक दोनों वैवाहिक राहतें हैं जो एक विवाह में पीड़ित पक्ष को विभिन्न कानूनों द्वारा प्रदान की जाती हैं। दोनों एक विवाह में एक दूसरे के प्रति वैवाहिक दायित्वों और अधिकारों को खत्म करने के तरीके हैं। लेकिन तलाक के विपरीत, न्यायिक पृथक्करण एक ‘कम बुरा’ है क्योंकि यह पूरे वैवाहिक बंधन को समाप्त नहीं करता है। यह केवल पति-पत्नी को अलग करता है और उन्हें साथ रहने से रोकता है, लेकिन पति-पत्नी के रूप में उनके बीच वैवाहिक बंधन वही रहता है। कोई एक साथ रहकर या एक दूसरे के प्रति अपने वैवाहिक दायित्वों और अधिकारों को फिर से शुरू करके न्यायिक पृथक्करण की डिक्री को पलट सकता है।
अमित सिंह बनाम संध्या सिंह (2019), में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तलाक और न्यायिक पृथक्करण की वैवाहिक राहत के बीच अंतर के विभिन्न बिंदुओं की गणना की है।
उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
आधार | तलाक | न्यायिक पृथक्करण |
विवाह की समाप्ति | तलाक के समझौते के बाद, पति-पत्नी के बीच विवाह का बंधन समाप्त हो जाता है। | न्यायिक पृथक्करण के समझौते के बाद, पति-पत्नी के बीच विवाह बंधन समाप्त नहीं होता है। |
आपसी अधिकार और दायित्व | तलाक के साथ एक दूसरे के खिलाफ आपसी अधिकार और दायित्व समाप्त हो जाते हैं। | न्यायिक पृथक्करण के मामले में एक दूसरे के खिलाफ आपसी अधिकार और दायित्व केवल निलंबित रहते हैं। |
सुलह की संभावना | सुलह का कोई मौका नहीं होता है क्योंकि विवाह अब मौजूद नहीं होता है। | यदि पति-पत्नी फिर से एक-दूसरे के साथ रहने और अपने विवादों को सुलझाने के लिए सहमत होते हैं तो सुलह का मौका मिलता है। |
पुनर्विवाह का अधिकार | पक्षों को पुनर्विवाह की अनुमति है क्योंकि वे अब किसी वैवाहिक बंधन से बंधे नहीं होते हैं। | पक्षों को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है क्योंकि उनका वैवाहिक बंधन केवल निलंबित होता, समाप्त नहीं होता है। |
पति-पत्नी होने की स्थिति | पक्षों को अब पति-पत्नी नहीं कहा जाता है। | दोनों पक्ष एक दूसरे के पति-पत्नी बने रहते हैं। |
याचिका दायर करने का समय | तलाक के लिए याचिका, शादी के एक साल बाद ही दायर की जा सकती है। | न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका शादी के बाद किसी भी समय दायर की जा सकती है। |
प्रक्रिया | यह दो चरणों वाली प्रक्रिया है। पहला सुलह और फिर तलाक। | यह एक-चरणीय प्रक्रिया है। |
अधिकार और दायित्व | तलाकशुदा पति-पत्नी संपत्ति पर अपने सभी अधिकार खो देते है। | न्यायिक पृथक्करण में पति पत्नी के पास साझेदारी की संपत्ति में विवाहित लोगों के समान अधिकार हैं। |
न्यायिक पृथक्करण तलाक से बेहतर क्यों है?
विभिन्न मामलों में यह माना गया कि न्यायिक पृथक्करण तलाक की तुलना में ‘कम बुरा’ है, क्योंकि न्यायिक पृथक्करण के मामले में, विवाह में सुलह की संभावना अधिक होती है। तलाक के विपरीत, न्यायिक पृथक्करण में वैवाहिक बंधनों का स्थायी रूप से टूटना नहीं होता है। इसलिए, यह विवाह में दोनों पक्षों को अपने संबंधों का आत्मनिरीक्षण करने और अपनी भविष्य की शर्तों को तय करने का समय प्रदान करता है, चाहे वे तलाक चाहते हों या सुलह। कभी-कभी, विवाह में विवाद कुछ तुच्छ मामलों के कारण उत्पन्न होते हैं और ऐसे विवादों के लिए तलाक एक बड़ा कदम प्रतीत होता है। ऐसे मामलों में, न्यायिक पृथक्करण पीड़ित को राहत का एक वैकल्पिक साधन प्रदान करता है।
अंग्रेजी कानून के अनुसार, तलाक दो प्रकार के होते हैं:
- पूर्ण तलाक (विंक्यूलो मैट्रिमोनी), और
- सीमित तलाक (मेन्सा एट थोरो)।
न्यायिक पृथक्करण सीमित तलाक का एक रूप है जिसमें केवल सहवास की बाध्यता को निलंबित कर दिया जाता है जबकि वैवाहिक बंधन कायम रहता है। यह उनके वैवाहिक विवादों को सुलझाने के लिए स्थायी तलाक से पहले अंतिम चरण के रूप में कार्य करता है। इसके अलावा, यह पक्षों को अपने निर्णय की समीक्षा करने और अपने दोस्तों और परिवार से उसी के बारे में सलाह लेने के लिए कुछ समय भी प्रदान करता है।
मोज़ेल रॉबिन सोलोमन बनाम लेफ्टिनेंट कर्नल आर.जे. सोलोमन (1968), में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा, कि दोनों के बीच अंतर यह है कि तलाक के लिए एक डिक्री में शादी को खत्म करने और वैवाहिक बंधन को समाप्त करने का प्रभाव होता है, इस प्रकार दोनों पक्षों के बीच वास्तव में और कानून में पूर्ण पृथक्करण हो जाता है। हालाँकि, न्यायिक पृथक्करण की डिक्री अंतिम अपरिवर्तनीयता में से एक नहीं है, बल्कि कानूनी पृथक्करण है और इसका परिणाम विवाह बंधन के विघटन में नहीं होता है।
क्या तलाक के स्थान पर न्यायिक पृथक्करण दिया जा सकता है?
विनय खुराना बनाम श्वेता खुराना (2022), में दिल्ली उच्च न्यायालय ने देखा कि न्यायिक पृथक्करण और तलाक की वैवाहिक राहत पूरी तरह से अलग हैं, हालांकि दोनों को समान आधार पर प्रदान किया जाता है। न्यायिक पृथक्करण पति और पत्नी के बीच वैवाहिक बंधन को समाप्त करने का इरादा नहीं रखता है, लेकिन तलाक उन्हें उनके वैवाहिक बंधन से मुक्त कर देता है, जिससे उन्हें पुनर्विवाह का अधिकार मिल जाता है। इसलिए, अदालत ने कुटुंब न्यायालय के पहले के फैसले को दोषपूर्ण माना, जिसने तलाक के स्थान पर न्यायिक पृथक्करण का आदेश दिया था।
यह मामला पक्षों द्वारा मांगी गई राहत को बदलने के लिए कुटुंब न्यायालय की शक्तियों के बारे में भी बात करता है। यह माना गया था कि पक्षों द्वारा मांगी गई एक वैवाहिक राहत को दूसरे के साथ प्रतिस्थापित (सब्स्टीट्यूट) करना कुटुंब न्यायालय के लिए नहीं है। यह पक्षों को यह नहीं बता सकता कि उनके लिए ‘अच्छा और बुरा’ क्या है। यह केवल मामले से जुड़े विभिन्न तथ्यों को ध्यान में रखते हुए पक्षों को सलाह दे सकता है।
न्यायिक पृथक्करण के लिए आवेदन कैसे करें?
न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका किसी भी पक्ष, पति या पत्नी द्वारा संबंधित अधिनियमों के तहत प्रदान किए गए आधार पर दायर की जा सकती है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 19 के प्रावधानों के अनुसार न्यायिक पृथक्करण से संबंधित प्रत्येक याचिका को जिला न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) के भीतर प्रस्तुत किया जाएगा:
- जहां शादी की गई है,
- जहां प्रतिवादी याचिका के समय निवास करता है,
- जहां पति या पत्नी अंतिम बार रहे थे, या
- जहां याचिकाकर्ता याचिका के समय निवास करता है।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 20 के अनुसार, प्रत्येक याचिका में उस मामले के तथ्य और प्रकृति होनी चाहिए जिस पर न्यायिक पृथक्करण का दावा स्थापित किया जा सकता है। इसे यह भी दिखाना होगा कि न्यायिक पृथक्करण की मांग करने वाले पक्षों के बीच कोई मिलीभगत नहीं है।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 21 में प्रावधान है कि इस अधिनियम से संबंधित सभी कार्यवाही सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा विनियमित होती हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश VII के नियम 1 में यह प्रावधान है कि न्यायिक पृथक्करण के लिए प्रत्येक वाद में निम्नलिखित जानकारी होनी चाहिए:-
- याचिकाकर्ता का नाम, स्थान और निवास,
- प्रतिवादी का नाम, स्थान और निवास,
- मामले के तथ्य,
- न्यायालय का अधिकार क्षेत्र,
- न्यायिक पृथक्करण के लिए आधार,
- याचिकाकर्ता जो राहत चाहता है,
- विवाह की तिथि और स्थान।
ऐसी याचिका के बाद, अदालत प्रतिवादी को याचिका का नोटिस भेजती है और दोनों पक्षों की दलीलें सुनती है। अदालत उन आधारों की सच्चाई की जांच करेगी जिनके तहत न्यायिक पृथक्करण का दावा किया गया था और यदि वह इसकी विश्वसनीयता से संतुष्ट हैं तो न्यायिक पृथक्करण की एक डिक्री पारित करेगी। न्यायिक पृथक्करण के लिए एक याचिका की सुनवाई जितनी जल्दी हो सके या ऐसी याचिका की तारीख से छह महीने के भीतर समाप्त हो जानी चाहिए।
एक बार जब पक्ष न्यायिक रूप से अलग हो जाते हैं, यदि मामले की परिस्थितियों की मांग है, तो वे तलाक के लिए भी आवेदन कर सकते हैं। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13B के तहत, पक्ष इस आधार पर ‘आपसी सहमति पर तलाक’ प्राप्त कर सकते हैं कि वे एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि से अलग रह रहे हैं। पहले प्रस्ताव और तलाक की याचिका की प्रस्तुति के बाद, उन्हें छह महीने की अवधि मिलेगी, जिसे ‘कूलिंग अवधि’ के रूप में जाना जाता है, जिसे उनके निर्णय पर विचार करने के लिए अंतिम अवसर के रूप में दिया जाता है। लेकिन यह कूलिंग अवधि की आवश्यकता तब नहीं होती है जब पक्ष पहले से ही न्यायिक रूप से अलग हो जाते है। न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका के रूप में इसकी एक समान प्रक्रिया है, सिवाय इसके कि तलाक के लिए याचिका विवाह के एक वर्ष से पहले प्रस्तुत नहीं की जा सकती है।
न्यायिक पृथक्करण की सीमाएं
- तलाक के रूप में जटिल है: हालांकि यह तलाक के विकल्प के रूप में कार्य करता है, लेकिन न्यायिक पृथक्करण की तलाक से कम जटिल प्रक्रिया नहीं है। इन दोनों वैवाहिक राहतों के आधार समान हैं और दोनों के लिए याचिका दायर करने की प्रक्रिया भी समान है।
- अनावश्यक वैवाहिक बंधन: न्यायिक पृथक्करण उस वैवाहिक बंधन को बचाने का प्रयास करता है, जो पहले से ही क्रूरता, परित्याग, व्यभिचार आदि जैसे गंभीर आधारों पर टूट चुका है, केवल समाज को यह दिखाने के लिए कि वैवाहिक बंधन को जीवित रखना अनावश्यक है।
- समान मनोवैज्ञानिक (साइकोलॉजिकल) प्रभाव: न्यायिक पृथक्करण का समझौता, तलाक के मामले में अलग होने की मांग करने वाले पति-पत्नी के मन में समान मनोवैज्ञानिक तनाव को दर्शाता है।
विश्व स्तर पर न्यायिक पृथक्करण की स्थिति
इंगलैंड
इंग्लैंड में न्यायिक पृथक्करण के प्रावधान वैवाहिक कारण अधिनियम, 1973 की धारा 17 और धारा 18 में प्रदान किए गए हैं। न्यायिक पृथक्करण प्राप्त करने के लिए कोई भी एक पक्ष या दोनों पक्ष याचिका दायर कर सकते हैं।
तलाक और वैवाहिक कारणों पर रॉयल आयोग (कमीशन), जो 1909 में नियुक्त की गई थी और जो लॉर्ड गोरेल की अध्यक्षता में थी, के अनुसार न्यायिक पृथक्करण विवाह के बंधन में रहते हुए ब्रह्मचर्य को बल देता है। स्थिति को हल करने में इसकी अपर्याप्तता (इंएडिक्वेसी) और पक्षों और उनके बच्चों पर इसके हानिकारक प्रभावों के कारण इसकी कई बार आलोचना की गई थी। हालांकि, आयोग ने उन लोगों के लिए न्यायिक पृथक्करण की आवश्यकता को बरकरार रखा जिनके लिए तलाक धार्मिक आधार पर प्रतिकूल था। 1956 में विवाह और तलाक पर एक अन्य शाही आयोग ने इसी तरह के आधार पर इस वैवाहिक राहत को बनाए रखने का आह्वान किया था।
संयुक्त राज्य अमेरिका
संयुक्त राज्य अमेरिका में, इसे ‘कानूनी पृथक्करण’ के रूप में जाना जाता है, जबकि इसका न्यायिक पृथक्करण के समान अर्थ है। अमेरिका के विभिन्न राज्यों में कानूनी पृथक्करण से संबंधित कानून अलग-अलग हैं। वास्तव में, कुछ राज्य कानूनी पृथक्करण की अवधारणा को नहीं पहचानते हैं। इस अवधारणा को मान्यता देने वाले राज्य इसे धार्मिक उद्देश्यों के लिए या विभिन्न अन्य भरण पोषण लाभों का आनंद लेने के लिए आवश्यक मानते हैं।
ऑस्ट्रेलिया
ऑस्ट्रेलिया में, पृथक्करण का प्रावधान परिवार कानून अधिनियम 1975 की धारा 49 में दिया गया है, और इसका अर्थ कि अब पति पत्नी के रूप में एक साथ न रहना है। ऑस्ट्रेलिया के संघीय (फेडरल) परिवार कानून पृथक्करण को “विवाह या वास्तविक संबंध को समाप्त करने के एक कार्य” के रूप में परिभाषित करते हैं और इसमें पक्षों के बीच सहवास को समाप्त करना शामिल है। कुछ मानदंडों (क्राइटेरिया) को पूरा करके पति पत्नी को एक छत के नीचे ही अलग भी किया जा सकता है। इसे ‘एक छत के नीचे पृथक्करण’ कहा जाता है। पृथक्करण प्राप्त करने के लिए न तो किसी कानूनी प्रक्रिया की आवश्यकता होती है और न ही पृथक्करण के किसी पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) की आवश्यकता होती है। लेकिन जोड़ों को इसके बारे में संबंधित अधिकारियों को सूचित करने की आवश्यकता होती है। उन्हें अलग होने की तारीख का भी ध्यान रखना होगा क्योंकि ऑस्ट्रेलिया में तलाक लेने के लिए यह एक पूर्व-आवश्यकता है। एक जोड़े को एक साल या उससे अधिक के पृथक्करण के बाद ही तलाक मिल सकता है।
कनाडा
कनाडा में, तलाक और पृथक्करण का प्रावधान तलाक अधिनियम, 1985 की धारा 8 में दिया गया है। जब जोड़े अपनी शादी समाप्त करते हैं और अलग रहने लगते हैं, तो उन्हें अलग हुआ कहा जाता है। न्यायिक पृथक्करण की कोई अवधारणा नहीं है, लेकिन ‘पृथक्करण समझौते’ की एक अवधारणा है, जो तलाक देने या अलग करने वाले पक्षों के बीच किया गया अनुबंध है। साथ ही, एक वर्ष के लिए पृथक्करण तलाक प्राप्त करने का आधार भी है। पृथक्करण समझौता, जोड़ों के बीच एक अनुबंध है जो पक्षों के बीच विभिन्न मुद्दों जैसे रहने की व्यवस्था, संपत्ति का विभाजन, भरण पोषण, बच्चों की हिरासत (कस्टडी) आदि से संबंधित है।
निष्कर्ष
हमारे समाज में, विशेष रूप से भारत में, विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता है और इस पवित्र बंधन के टूटने को एक अशुभ घटना के रूप में देखा जाता है। इस मान्यता ने अनादि काल से कई पति पत्नी को जबरन विवाह में रहने के लिए बाध्य किया है। लोग तलाक से राहत पाने से हिचकिचाते हैं क्योंकि यह उनके लिए खासकर महिलाओं के मामले में एक बहुत बड़ा कदम है, जो उनकी प्रतिष्ठा को खराब करने के लिए काफी है। इसलिए, वे विभिन्न अन्य विकल्पों को चुन सकते हैं।
न्यायिक पृथक्करण तलाक का विकल्प प्रदान करता है, जिसे विवाह के बाद किसी भी समय दायर किया जा सकता है। यदि विवाह के पक्ष अपनी शादी से खुश नहीं हैं, तो वे न्यायिक पृथक्करण के लिए प्रार्थना कर सकते हैं और अपने रिश्ते पर ध्यान लगा सकते हैं। तलाक के समझौते की तुलना में न्यायिक पृथक्करण के कई फायदे हैं, जैसा कि अदालतों ने कहा है कि यह तलाक से कम बुरा है। यह पक्षों को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने और एक-दूसरे के साथ सामंजस्य (हार्मनी) स्थापित करने का समय प्रदान करता है। यह उपकरण टूटे परिवारों के बीच शांति वापस लाने और विवाह संस्था की पवित्रता को बनाए रखने में सिद्ध हुआ है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
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न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के बाद क्या होता है?
न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के बाद, पत्नी और पति एक साथ रहने के दायित्व से मुक्त हो जाते हैं। पृथक्करण की अवधि के दौरान, उन्हें अपने संबंधों को सुधारने और पृथक्करण की डिक्री को रद्द करने का मौका मिलता है। यदि वे अपने बीच शांति वापस लाने में असमर्थ है तो वे तलाक की मांग भी कर सकते हैं और अपने वैवाहिक संबंधों को खत्म कर सकते हैं।
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वैवाहिक राहत के लिए तलाक या न्यायिक पृथक्करण कौन सा बेहतर है?
न्यायिक पृथक्करण एक बेहतर वैवाहिक राहत और तलाक का सबसे अच्छा विकल्प प्रतीत होता है। वैवाहिक बंधन के पूरी तरह टूटने से पहले, यह सुलह के लिए समय प्रदान करता है। इसके अलावा, यह वैवाहिक बंधन को स्थायी रूप से खत्म नहीं करता है, यह सिर्फ उनके बीच कुछ दायित्वों और अधिकारों को निलंबित करता है।
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क्या न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के बाद पत्नी अपने पति से भरण-पोषण की हकदार हो सकती है?
हां, न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के बाद भी पत्नी अपने पति से भरण-पोषण की हकदार है। अगर अदालत को पता चलता है कि पत्नी अपने खर्चों को पूरा करने में असमर्थ है, तो वह पत्नी के लिए भरण-पोषण का आदेश दे सकती है। यह रोहिणी कुमारी बनाम नरेंद्र सिंह (1971) के मामले में आयोजित किया गया था।
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क्या एक मुस्लिम महिला, न्यायिक पृथक्करण की राहत मांग सकती है?
नहीं, मुस्लिम महिलाएं न्यायिक पृथक्करण की राहत की मांग नहीं कर सकती है क्योंकि उनके व्यक्तिगत कानूनों में न्यायिक पृथक्करण का कोई प्रावधान नहीं है। शरिया कानून और मुसलमानों के अन्य व्यक्तिगत कानून न्यायिक पृथक्करण जैसी किसी चीज को मान्यता नहीं देते हैं। वे केवल तलाक की वैवाहिक राहत को मान्यता देते हैं।
संदर्भ
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- Family Law by Dr. Paras Diwan.
- Family Law Lectures, Family Law-I by Prof. Kusum.