प्रारंभिक डिक्री

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Civil Procedure Code

यह लेख L M Lakshmi Priya द्वारा लिखा गया है, जो स्कूल ऑफ लॉ, सत्यबामा इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, चेन्नई की छात्रा हैं। यह लेख प्रारंभिक डिक्री का एक विस्तृत अवलोकन (ओवरव्यू) प्रदान करता है। यह कानून की अदालत में पारित डिक्री के प्रकारों पर भी चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

सिविल कार्यवाही के संबंध में उपयोग की जाने वाली सबसे आम शब्दावली डिक्री है और जिसे आमतौर पर अदालत में मामले के दौरान न्यायाधीशों द्वारा दिए गए फैसले के रूप में जाना जाता है। एक अधिकारी जैसे कि एक अदालत या अन्य न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) में एक न्यायाधीश एक आदेश पारित करते है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2(2) में कहा गया है कि पक्षों के विवादों के बारे में, अदालत द्वारा एक औपचारिक अभिव्यक्ति (फॉर्मल एक्सप्रेशन) है, यह या तो अंतिम या प्रारंभिक हो सकती है। इसी तरह, एक प्रारंभिक डिक्री एक निर्णय को संदर्भित करती है जो अदालत पक्षों के निर्णायक (कंक्लूसिव) अधिकारों को स्थापित करने से पहले पारित करती है, जब वह उन्हें अंतिम डिक्री देने में असमर्थ होती है। जब मामला पूरी तरह से हल नहीं होता है और शेष कार्यवाही अभी भी लंबित होती है, तो अदालत प्रारंभिक डिक्री पारित कर सकती है।

प्रारंभिक डिक्री का उदाहरण

अगर पत्नी समर्थन का अनुरोध करती है, तो अदालत को मुकदमे की प्रक्रिया के दौरान इस पर विचार करना चाहिए; यदि नहीं, तो अदालत परीक्षण प्रक्रिया के दौरान भरण-पोषण (मेंटेनेंस) के लिए प्रारंभिक निर्णय जारी कर सकती है; अंत में, न्यायाधीश दोनों पक्षों से परामर्श करने के बाद अंतिम निर्णय की घोषणा कर सकते है। 

अब आइए एक प्रारंभिक डिक्री के बारे मे अच्छे से जाने।

प्रारंभिक डिक्री कब पारित की जा सकती है?

सिविल प्रक्रिया संहिता द्वारा निम्नलिखित परिस्थितियों को सुनिश्चित किया जाता है ताकि प्रारंभिक डिक्री जारी की जा सके:

आदेश 20, नियम 12 – कब्जे और लाभ के लिए वाद (सूट)

आदेश 20, नियम 12 के अनुसार, जब अचल संपत्ति के कब्जे की वसूली के लिए और किराए या मेस्ने लाभ के लिए वाद लाया जाता है तो अदालत संपत्ति के कब्जे के लिए, एक वाद के दायर होने से पहले की अवधि के दौरान अर्जित किराए के लिए या इस तरह के किराए के बारे में जांच करने के लिए, या मेस्ने लाभ के लिए, या इस तरह की जांच के निर्देश के लिए एक डिक्री जारी कर सकती है। 

मामला – श्रीमती सुबाशिनी बनाम एस शंकरम्मा (2018)

इस मामले में तेलंगाना उच्च न्यायालय ने मेस्ने लाभ देने की प्राथमिकताओं (प्रायोरिटी) पर प्रकाश डाला, जहां यह असली मालिक को क्षतिपूर्ति (कंपेंसेट) करने में मदद करता है जब वही संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति के गैरकानूनी कब्जे में हो और इसे वैध और असली मालिक की स्थिति को सुधारने के लिए दिया जाता है।

आदेश 20, नियम 13 – प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेटिव) वाद

आदेश 20, नियम 13 के तहत अदालत एक प्रारंभिक डिक्री और कोई अन्य निर्णय कर सकती है जो संपत्ति या उसके प्रशासन के बारे में चिंता से जुड़े विवाद में उपयुक्त हो सकता है, जो कि अंतिम डिक्री के लिए अदालत के सामने है।

मामला- बाई असलबाई बनाम इस्माइलजी अब्दुलाली (1963)

इस मामले में, वादी महमदल्ली इब्राहिमजी की विधवा थी, जिनका 10 अगस्त, 1947 को निधन हो गया था। उनके निधन के बाद, 5 लोगों ने मृतक महमदल्ली इब्राहिमजी की संपत्ति का प्रशासन करने के लिए 8 अन्य लोगों पर वाद दायर किया। अदालत ने प्रशासन के लिए एक आदेश जारी किया और एक आयुक्त (कमिश्नर) को मृतक की संपत्ति को उसके उत्तराधिकारियों (हायर) के बीच बांटने के लिए नामित किया। अपील में, यह निर्धारित किया गया था कि भिन्नता यह थी कि प्रशासन केवल तीस तोला सोने के बजाय बीस तोला सोने के दो-तिहाई पर लागू होना चाहिए और मृतक महामद द्वारा उसकी प्रतिवादी (डिफेंडेंट) पत्नी के पक्ष में निष्पादित (एग्जीक्यूट) एक घर की बिक्री-विलेख (सेल डीड), एक कपटपूर्ण लेनदेन था और इसलिए घर प्रशासन के लिए पात्र था।

आदेश 20, नियम 14- पूर्व-नियुक्ति (प्री एंप्शन) का वाद

आदेश 20, नियम 14 के तहत जब अदालत किसी संपत्ति की बिक्री या खरीद के संबंध में पूर्व-नियुक्ति का दावा करने के लिए डिक्री पारित करती है, तो वह अदालत को खरीद राशि का भुगतान करने के दिन या उससे पहले हो सकती है और साथ ही यदि वादी (प्लेंटिफ) के खिलाफ कोई कीमत है तो उसका भी भुगतान किया जाएगा, मामले में प्रतिवादी को वादी को कब्जा सौंप देना चाहिए, जिसका शीर्षक ऐसे भुगतान की तारीख से गलत माना जाएगा और यदि लागत या खरीद राशि लंबित है तो अदालत वाद खारिज कर सकती है।

मामला – सी.के गंगाधरन बनाम कुमारन (2019)

इस मामले में, अदालत ने पूर्व-नियुक्ति को लागू करने के लिए अनिवार्य निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) की आवश्यकता कि पूर्व-नियुक्ति करने वाले के पास, बाहरी लोगो से परिवार की संपत्ति की रक्षा के लिए परिवार के सदस्यों के समान अधिकार है, और सहमति के आधार पर पूर्व-नियुक्ति के अधिकार की संवैधानिक असंगति सहित पूर्व-नियुक्ति अधिकारों से संबंधित कई तरह के सवालों के जवाब दिए। 

आदेश 20, नियम 15 – साझेदारी (पार्टनरशिप) के विघटन (डिजोल्युशन) के लिए वाद

आदेश 20, नियम 15, के तहत जब साझेदारी के विघटन या पक्षों के संबंधित शेयर अनुपात  (रेश्यो) को देखते हुए साझेदारी के खाते को लेने के निर्णयों की बात आती है, तो अदालत अंतिम डिक्री जारी करने से पहले प्रारंभिक डिक्री जारी कर सकती है।

मामला- एम. ​​मुथुकृष्णन बनाम एथिराजुलु (2009)

इस मामले में अदालत ने एक मामले का हवाला दिया और फैसला सुनाया कि इस मामले में जारी किए गए फैसले में शेयरों की घोषणा करना जरूरी नहीं है। हालाँकि, जब यह दलीलों और सबूतों के माध्यम से साबित हो जाता है कि पक्षों के समान शेयर हैं, तो पक्षों के संबंधित शेयरों को बताते हुए डिक्री दी जानी चाहिए। अदालत को सीपीसी के आदेश 20, नियम 15 और फॉर्म संख्या 21 के अनुसार डिक्री का मसौदा (ड्राफ्ट) भी तैयार करना चाहिए।

आदेश 20, नियम 16 ​​- प्रिंसिपल और एजेंट के बीच खातों से संबंधित वाद

आदेश 20, नियम 16 के तहत, न्यायालय अपने अंतिम निर्णय को जारी करने से पहले एक प्रारंभिक डिक्री जारी करेगा जिसमें निर्देश दिया जाएगा कि किसी भी मामले में एक प्रिंसिपल और एक एजेंट के बीच वित्तीय (फाइनेंशियल) लेनदेन के लिए या किसी अन्य वाद में जहां पहले से प्रदान नहीं किया गया है, वहां किसी भी पक्ष के द्वारा देय राशि या उसको दी जाने वाली राशि का निर्धारण करने के लिए खाता देखना आवश्यक है।

मामला- राजेंद्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1983)

इस मामले में न्यायालय ने कहा कि खातों के विवरण का अनुरोध करने का अधिकार राहत का एक असामान्य रूप है जो केवल बहुत विशिष्ट परिस्थितियों में दिया जाता है और केवल तभी अनुरोध किया जाता है जब पक्षों के बीच संबंध ऐसा हो कि यह एकमात्र राहत है कि दावेदार को अपने कानूनी अधिकारों का पर्याप्त रूप से दावा करने की अनुमति देगा। इस निर्णय तक पहुंचने के लिए एक अन्य मामले का हवाला दिया गया। न्यायाधीश ने इस बात पर प्रकाश डाला कि एक एजेंट का अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 213 के तहत अपने प्रिंसिपल के लिए कानूनी दायित्व था, लेकिन एजेंट के प्रति प्रिंसिपल का कोई समान कानूनी कर्तव्य नहीं था।

आदेश 20, नियम 18- विभाजन और अलग कब्जे के लिए वाद

आदेश 20, नियम 18 के तहत यदि डिक्री सरकार की संपत्ति से संबंधित है जो की उन्हें राजस्व (रेवेन्यू) का भुगतान करने के लिए है, तो डिक्री पक्षों के अधिकारों की घोषणा करेगी, और विभाजन कलेक्टर की उपस्थिति में होता है। यदि मामले चल या अचल संपत्ति से संबंधित हैं, तो अदालत पक्षों के अधिकारों के आधार पर आगे की जांच के साथ प्रारंभिक डिक्री पारित कर सकती है।

मामला- शशिधर बनाम अश्विनी उमा मथाड (2015)

इस मामले में, यह निर्णय लिया गया कि एक सह-साझेदार, सह-मालिक, या संयुक्त मालिक, या जैसा भी मामला हो, विभाजन और अलग कब्जे के लिए दायर वाद में, अदालत के लिए संपत्तियों की प्रकृति की जांच करना आवश्यक था, साथ ही यह भी आवश्यक है की ये देखा जाए की एक वाद में, जिसमें वाद संपत्तियों का मूल मालिक कौन था, कैसे और किस स्रोत (सोर्स) से उसने ऐसी संपत्ति अर्जित की, चाहे वह उसकी स्वयं द्वारा अर्जित संपत्ति हो या पैतृक संपत्ति, या संयुक्त संपत्ति या सहदायिक (कोपार्सनरी) संपत्ति हो। न्यायालय को प्रत्येक पक्ष के दावे के आधार पर उसकी सीमा के बारे में निर्णय दर्ज करने से पहले उसके उचित संदर्भ में विचार करना चाहिए।

आदेश 34, नियम 2- बंधक (मॉर्टगेज) के फौजदारी (फोरक्लोज़र) से संबंधित वाद

आदेश 34, नियम 2 के अनुसार, जब फौजदारी से संबंधित वाद दायर किया जाता है, तो अदालत को आदेश देना चाहिए कि वादी को कोई भी पैसा, उसके कानूनी बचाव की लागत, और किसी भी बकाया मूलधन (प्रिंसिपल) और बंधक पर ब्याज को मामले के सफल होने पर खाते से काट लिया जाए। जब प्रतिवादी प्रारंभिक डिक्री पर अदालत द्वारा निर्धारित आरोपों की राशि का भुगतान करने में विफल रहता है, तो वादी अंतिम निर्णय के लिए आगे बढ़ सकता है। 

मामला- नारायण देवराव जावले बनाम कृष्णा (2015)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि भले ही बन्धककर्ता (मॉर्टगेजर) ने एक पंजीकृत (रजिस्टर्ड) बिक्री विलेख के उपयोग के माध्यम से बंधक की गई संपत्ति का एक हिस्सा हासिल कर लिया हो, फिर भी बन्धककर्ता द्वारा लाए गए मुकदमे में जारी की गई फौजदारी की डिक्री ने भूमि को अप्रासंगिक रूप से भुमि को छुड़ाने के बन्धककर्ता के अधिकार को प्रदान नहीं किया होगा।

आदेश 34, नियम 4 – बंधक की गई संपत्ति की बिक्री के लिए वाद

यदि वादी बिक्री के मुकदमे में सफल होता है, तो अदालत प्रारंभिक डिक्री जारी कर सकती है, और यदि प्रतिवादी भुगतान नहीं करता है, तो वादी अंतिम डिक्री के लिए कह सकता है। उप-नियम (1) के तहत पाई गई या देय राशि का भुगतान करने की समय सीमा या अतिरिक्त लागत, शुल्क, व्यय (एक्सपेंस) और ब्याज के संबंध में देय राशि का भुगतान समय-समय पर अदालत द्वारा अच्छे कारण के साथ बढ़ाया जा सकता है, और बिक्री के लिए अंतिम डिक्री जारी होने से पहले किसी भी समय न्यायालय द्वारा निर्धारित की जाने वाली शर्तों के तहत किया जा सकता है।

मामला- कांति राम बनाम कुतुबुद्दीन मोहम्मद (1894)

इस मामले में, चूंकि यह बंधक सुरक्षा को लागू करने के लिए है, वादी के मुकदमे को खारिज करने के लिए न्यायाधीश की राय गलत है, और वादी को बंधक की गई संपत्ति की बिक्री के लिए आदेश देने का अधिकार है, जो पूर्व ऋणभार (एनकंबरेंस) के ग्रहणाधिकार (लिएन) के अधीन है और संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 के अनुसार नई बंधक डिक्री का गठन करता है।

आदेश 34, नियम 7- एक बंधक की ऋणमुक्ति (रिडेंप्शन) के लिए वाद

जब वादी आवेदन जमा करता है और प्रतिवादी की अन्य लागतों का भुगतान करता है, तब प्रतिवादी से वादी का समर्थन करने के लिए आवश्यक अन्य सभी कार्रवाई करने की अपेक्षा की जाती है। यदि कोई भी पक्ष प्रारंभिक डिक्री के दौरान अदालत के निर्देशों का पालन करने में विफल रहता है, तो दूसरा अंतिम डिक्री के लिए आवेदन दायर कर सकता है।

मामला- एलके ट्रस्ट बनाम ईडीसी लिमिटेड (2011)

सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले में कहा कि बन्धककर्ता के अधिकारों की रक्षा एक बंधक की ऋणमुक्ति के दावे में की जाती है। हालांकि ऋणमुक्ति का अधिकार भारत में एक विधायी अधिकार है, ऋणमुक्ति के अधिकार का अस्तित्व अंतर्निहित (अंडरलाइंग) बंधक के निरंतर अस्तित्व पर निर्भर करता है। एक बंधक विलेख के तहत ऋणमुक्ति का अधिकार केवल कानून द्वारा अनुमत तरीके से समाप्त किया जा सकता है; पक्षों के बीच एक समझौते या अदालत के आदेश के अलावा इस अधिकार को समाप्त नहीं किया जा सकता है।

प्रारंभिक डिक्री की विशेषताएं

डिक्री एक अदालत के फैसले को व्यक्त करती है। अदालत के फैसले को प्रारंभिक डिक्री के रूप में माने जाने के लिए नीचे सूचीबद्ध विशेषताओं को पूरा किया जाना चाहिए।

अपील करने योग्य 

यदि आप निचली अदालत के आदेश से असंतुष्ट हैं, तो आप एक विशेष प्रारंभिक डिक्री की अपील दायर करके उच्च न्यायालय में जा सकते हैं, लेकिन अंतिम डिक्री होने से पहले आपको इसे दर्ज करना होगा।

उदाहरण – संपत्ति के विभाजन से जुड़े एक मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने पक्षों के संबंधित शेयरों का निर्धारण करते हुए एक प्रारंभिक डिक्री जारी की। इस प्रारंभिक डिक्री के आधार पर एक अंतिम डिक्री पारित की गई थी। पक्षों में से एक ने इस आधार पर अंतिम निर्णय की अपील की कि प्रारंभिक निर्णय ने उस पक्ष को कोई शेयर नहीं दिया। चूंकि अंतिम डिक्री जारी होने के बाद प्रारंभिक डिक्री के खिलाफ अपील नहीं की जा सकती, इसलिए अदालत ने इस अपील को अनुमति देने से इनकार कर दिया।

दूसरी प्रारंभिक डिक्री पारित करना

प्रारंभिक डिक्री का हमेशा अंतिम डिक्री द्वारा पालन किया जाना चाहिए, जबकि प्रारंभिक डिक्री में परिवर्तन की अनुमति अंतिम डिक्री के अनुमोदन (अप्रूवल) से पहले दी जाती है, जब तक कि परिस्थितियों में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ हो। अदालत को संशोधित क़ानून का मूल्यांकन करना चाहिए और आवश्यकता के अनुसार दूसरी प्रारंभिक डिक्री जारी करनी चाहिए।

उदाहरण– A ने चार प्रतिवादियों के विरुद्ध विभाजन का वाद दायर किया। निचली अदालत ने पक्षों के संबंधित शेयरों को रेखांकित करते हुए एक प्रारंभिक डिक्री जारी की। हालांकि, अंतिम डिक्री जारी होने से पहले दो पक्षों का निधन हो गया, और उनके संबंधित हिस्से के बारे में असहमति सामने आई। विवाद को हल करने के लिए, अदालत को प्रारंभिक अस्थायी डिक्री में निर्दिष्ट शेयरों का पुनर्वितरण करना पड़ा। यह निर्णय लिया गया कि कानून में कुछ भी एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री जारी करने से नही रोकता है यदि स्थिति इसके लिए आवश्यक है। यह निर्णय लिया गया कि एक दूसरी प्रारंभिक डिक्री आवश्यक थी।

प्रारंभिक डिक्री का निष्पादन न होना 

निष्पादन अदालत के फैसले को लागू करने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि केवल एक प्रारंभिक डिक्री को तब तक लागू किया जा सकता है जब तक कि वह अंतिम डिक्री का हिस्सा न बन जाए।

उदाहरण – A ने B के खिलाफ विभाजन का वाद दायर किया, और मुकदमे में A और B के शेयरों को संपत्ति के रूप में परिभाषित करते हुए एक प्रारंभिक डिक्री जारी की गई। B ने अदालत द्वारा अंतिम निर्णय जारी करने से पहले निष्पादित की जाने वाली प्रारंभिक डिक्री के लिए वाद दायर किया। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि कोई निष्पादन योग्य डिक्री नहीं है क्योंकि इस मामले में कोई अंतिम डिक्री नहीं दी गई है। अंतिम संस्करण (वर्जन) को मंजूरी मिलने के बाद तक डिक्री लागू नहीं होती है।

प्रारंभिक डिक्री के गुण

पक्षों के अधिकार 

मामले से संबंधित पक्ष, वादी और प्रतिवादी को होना चाहिए, और अन्य किसी तीसरे पक्ष को नहीं होना चाहिए, जिसके खिलाफ पहले कभी वाद नहीं हुआ हो। मुकदमे में विवादित सभी मुद्दों से संबंधित पक्षों के अधिकारों का निर्णय लिया जाना चाहिए।

अधिनिर्णय (एडज्यूडिकेशन) 

‘अधिनिर्णय’ शब्द का तात्पर्य केवल न्यायालय के निर्णय से है, जो प्रासंगिक तथ्यों की गहन न्यायिक समीक्षा (रिव्यू) के बाद ही न्यायाधीशों और अन्य कानूनी पेशेवरों द्वारा दिया जाना चाहिए।

वाद 

अधिनिर्णय प्राप्त करने के लिए एक वाद दायर किया जाना चाहिए, और एक वाद पत्र (प्लेंट) दायर करके एक सिविल अदालत का मामला शुरू किया जाता है। उदाहरण के लिए, भूमि अधिग्रहण (एक्विजिशन) अधिनियम, 1894, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, भारतीय उत्तराधिकार (सक्सेशन) अधिनियम, 1925 आदि के तहत लाई गईं कानूनी करवाई को वैधानिक वाद कहा जाता है, और ऐसे कानूनों के अनुसार दिए गए निर्णय को एक डिक्री माना जाता है।

अंतिम डिक्री 

जब अंतिम डिक्री प्रदान की जाती है, तो अदालत अपने निष्कर्ष पर पहुंचती है और आगे की दलीलों को स्वीकार नहीं करती। उदाहरण के लिए, पक्षों को सुलह का मौका प्रदान करने के लिए अंतरिम (इंटरिम) तलाक के फैसले दिए जाते हैं। तलाक के मुकदमे को तब अंतिम डिक्री प्राप्त होती है।

प्रारंभिक डिक्री के परिणाम

एक अदालत एक मामले में एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री जारी कर सकती है, और सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधान इसे प्रतिबंधित नहीं करते हैं। यह केवल एक चीज निर्दिष्ट करती है कि अदालत किसी भी मामले में प्रारंभिक निर्णय जारी कर सकती है।

मामले 

फूलचंद बनाम गोपाल लाल (1967)

इस मामले में, निचली अदालत ने पक्षों के शेयरों के बारे में एक प्रारंभिक डिक्री जारी की लेकिन अन्य पक्षों के बीच असहमति के कारण अंतिम डिक्री जारी नहीं की गई, जिसके बाद चार में से दो पक्ष मर गए। अदालत ने तब शेयरों को पहले प्रारंभिक डिक्री में निर्दिष्ट के रूप में पुनर्वितरित (रीडिस्ट्रीब्यूट) किया, और बाद में कहा कि यदि मामले की परिस्थितियां इसे लागू करती हैं तो सीपीसी एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री जारी करने से मना नहीं करता है।

गांदूरी कोटेश्वरम्मा बनाम चाकिरी यानादी (2011)

इस मामले में, अदालत ने फैसला सुनाया कि अंतिम निर्णय प्रारंभिक निर्णय का पालन करना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मामले के तथ्यों के आधार पर प्रारंभिक निर्णय में संशोधन नहीं किया जा सकता है।

प्रारंभिक डिक्री कैसे निष्पादित की जाती है?

प्रारंभिक डिक्री का निष्पादन केवल अदालत के फैसले में प्रयास करने पर जोर देता है, इस प्रकार प्रारंभिक डिक्री निष्पादन योग्य नहीं है जब तक कि इसे अंतिम डिक्री का हिस्सा नहीं बनाया जाता है। एक प्रारंभिक डिक्री पक्षों के अधिकारों की घोषणा करती है, और एक अंतिम डिक्री उस प्रारंभिक डिक्री को संतुष्ट करती है। 

उदाहरण – A ने B के खिलाफ विभाजन का वाद दायर किया, और वाद में A और B के शेयरों को संपत्ति के रूप में परिभाषित करते हुए एक प्रारंभिक डिक्री जारी की गई। B ने अदालत द्वारा अंतिम निर्णय जारी करने से पहले प्रारंभिक डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन दायर किया। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि कोई निष्पादन योग्य डिक्री नहीं है क्योंकि इस मामले में कोई अंतिम डिक्री नहीं दी गई है। अंतिम संस्करण को मंजूरी मिलने के बाद तक डिक्री लागू नहीं होती है।

डिक्री के प्रकार

अदालत डिक्री या आदेश द्वारा मामलों का फैसला कर सकती है। अदालत औपचारिक रूप से एक डिक्री जारी करके विवादो का समाधान करती है, जिसे अनिवार्य रूप से निम्नलिखित प्रमुखों में विभाजित किया जाता है।

  • प्रारंभिक डिक्री,
  • अंतिम डिक्री,
  • आंशिक रूप से प्रारंभिक और आंशिक रूप से अंतिम डिक्री।

प्रारंभिक डिक्री

पक्षों के अधिकारों और अन्य सभी मुद्दों पर विवादों को समाप्त करने के लिए निर्णय देने से पहले, अदालत द्वारा प्रारंभिक डिक्री पेश की जाती है। इसे विशिष्ट मामलों पर शासन करने के लिए अदालत द्वारा पारित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। यह प्रारंभिक डिक्री, अंतिम डिक्री से पहले जारी की जाती है। प्रारंभिक डिक्री एक अदालत का फैसला है जो पक्षों के कानूनी अधिकारों और जिम्मेदारियों को रेखांकित करता है लेकिन अंतिम परिणाम को चल रही कार्यवाही में निर्णय के लिए छोड़ देता है। जब अदालत को पक्षों के अधिकारों पर फैसला करना होता है तो पहले प्रारंभिक डिक्री पारित की जाती है। लेकिन एक प्रारंभिक डिक्री मामले को पूरी तरह से समाप्त नहीं करती है।

प्रारंभिक डिक्री का उदाहरण

X, Y, और Z, जो एक संपत्ति के पक्ष हैं, अदालत से उस संपत्ति के विभाजन का आदेश देने के लिए कहते हैं, लेकिन अदालत ऐसा तब तक नहीं कर सकती जब तक कि वह प्रत्येक पक्ष के शेयरों और अधिकारों को स्थापित नहीं कर लेती। इसे पूरा करने के लिए अदालत इस मामले में प्रारंभिक डिक्री जारी कर सकती है।

इस मामले में A की पत्नी अपने पति पर भरण-पोषण के लिए वाद करती है, और अदालत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे लागू करने के लिए पूरे विचारण (ट्रायल) के दौरान उसे भरण-पोषण प्राप्त हो। इसलिए अदालत यह सुनिश्चित करने के लिए एक प्रारंभिक डिक्री जारी कर सकती है कि उसे पूरे विचारण के दौरान भरण-पोषण मिले।

मामला

सेल्वमनी बनाम चेल्लामल (2015)

इस मामले में, अदालत ने पक्षों के संबंधित शेयरों के संबंध में प्रारंभिक निर्णय लिया। बाद में, अंतिम डिक्री जारी की गई, और एक पक्ष ने यह तर्क देते हुए अपील की कि प्रारंभिक डिक्री ने उसे कोई शेयर नहीं दिया था। हालांकि, अदालत ने अपील को खारिज कर दिया क्योंकि प्रारंभिक डिक्री की अपील करना संभव नहीं था क्योंकि अंतिम डिक्री पहले ही जारी की जा चुकी थी।

अंतिम डिक्री

एक अंतिम डिक्री वह है जिसमें कानून की अदालत सभी कानूनी चिंताओं को हल करती है और मुकदमे में विवाद के समाधान के बाद अंतिम आदेश जारी करती है, और अदालत तब पूरी तरह से मुकदमे का निपटान करती है। अंतिम आदेश दो स्थितियों में से एक में दिए जाते हैं:

  1. जब आवंटित (एलॉटेड) समय के भीतर अपील दायर नहीं की जाती है या जब उच्च न्यायालय उस पर फैसला करता है, और
  2. जब अदालत मामले को पूरी तरह से सुलझा लेती है।

अंतिम डिक्री का उदाहरण

सुलह का मौका प्रदान करने के लिए, अंतरिम तलाक की डिक्री दी जाती है। बाद में तलाक के वाद में एक अंतिम डिक्री जारी की जाती है।

मामला

शंकर बलवंत लोखंडे बनाम चंद्रकांत शंकर लोखंडे (1995)

अदालत ने इस मामले में फैसला सुनाया कि जब तक अंतिम डिक्री जारी नहीं हो जाती, तब तक औपचारिक अदालती आदेश नहीं हो सकता है जो निश्चित रूप से मामले के सभी मुद्दों को हल करता है।

आंशिक रूप से प्रारंभिक और आंशिक रूप से अंतिम डिक्री

सिविल प्रक्रिया संहिता एक डिक्री को आंशिक रूप से प्रारंभिक और आंशिक रूप से अंतिम होने की अनुमति देती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आदेश का केवल एक हिस्सा अंतिम होता है, जबकि शेष प्रारंभिक डिक्री है।

आंशिक रूप से प्रारंभिक और आंशिक रूप से अंतिम डिक्री का उदाहरण

दो भाइयों के बारे में सोचें जो अपने स्वर्गीय पिता की संपत्ति को विरासत में पाना चाहते हैं लेकिन संपत्ति अब किराए पर है। संपत्ति का उत्तराधिकार अंतिम निर्णय हो सकता है, और पट्टे (लीज) पर दी गई संपत्ति का किराया प्रारंभिक और अंतिम डिक्री दोनों हो सकता है।

मामला

लकी कोचुवरीद बनाम पी. मारिअप्पा गौंडर (1979)

इस मामले में, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि मेस्ने लाभ और अचल संपत्ति के कब्जे के दावे के बीच विवाद है। इस प्रकार, अदालत को या तो यह तय करना चाहिए कि संपत्ति का असली मालिक कौन है या मेस्ने लाभ इंक्वायरी का आदेश देना चाहिए है। संपत्ति के कब्जे को परिभाषित करने वाला पहला घटक अंतिम है, जबकि मेस्ने लाभ का निर्धारण करने वाला हिस्सा प्रारंभिक है।

प्रारंभिक डिक्री और अंतिम डिक्री के बीच अंतर

प्रारंभिक डिक्री अंतिम डिक्री
वाद में मुद्दों में शामिल पक्षों के अधिकारों को निर्धारित करने के लिए अदालत द्वारा दिए गए औपचारिक बयान को प्रारंभिक डिक्री के रूप में जाना जाता है। अंतिम डिक्री वाद को पूरी तरह से हल करती है और भविष्य में निर्णय के लिए कोई समस्या नहीं छोड़ती है।
अदालत पक्षों के अधिकारों का निर्धारण कर सकती है और अंतिम डिक्री के प्रस्तुत होने की प्रतीक्षा कर सकती है अंतिम डिक्री द्वारा पक्षों के अधिकारों और जिम्मेदारियों को स्थापित करने के बाद तय करने के लिए कुछ भी नहीं बचता है।
यदि परिस्थितियाँ बदलती हैं तो प्रारंभिक डिक्री को संशोधित किया जा सकता है। अंतिम डिक्री को हमेशा प्रारंभिक डिक्री का पालन करना चाहिए।
प्रारंभिक डिक्री एक से अधिक बार जारी की जा सकती है। एक से अधिक अंतिम डिक्री जारी की जा सकती हैं।
फूलचंद बनाम गोपाल लाल (1967) के अनुसार प्रारंभिक डिक्री एक से अधिक बार जारी की जा सकती है। शंकर बनाम चंद्रकांत (1995) के अनुसार, एक से अधिक अंतिम डिक्री हो सकती हैं

निष्कर्ष

सिविल प्रक्रिया संहिता में ‘प्रारंभिक डिक्री’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन सीपीसी के पास प्रारंभिक डिक्री, अंतिम डिक्री और आंशिक रूप से प्रारंभिक और आंशिक रूप से अंतिम डिक्री हैं, जो अदालत किसी भी मामले के संबंध में जारी कर सकती है। प्रारंभिक डिक्री के खिलाफ भी अपील की जा सकती है, और एक से अधिक प्रारंभिक डिक्री हो सकती है। जब आवश्यक हो, प्रारंभिक डिक्री का पालन किया जाएगा और अंतिम डिक्री के साथ समाप्त हो जाएगी, जो पक्षों के अधिकारों को निर्धारित करने में मदद करती है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या प्रारंभिक डिक्री की अपील करना संभव है?

प्रारंभिक और अंतिम डिक्री दोनों के लिए अपील संभव है। लेकिन इसे पहले चुनौती दी जानी चाहिए, इस प्रकार, जब अदालत अंतिम डिक्री जारी करती है, तो प्रारंभिक डिक्री के खिलाफ अपील नहीं की जा सकती है; बल्कि, प्रारंभिक डिक्री के लिए अपील की अवधि समाप्त होने के बाद प्रारंभिक डिक्री अंतिम डिक्री बन जाएगी।

दूसरी प्रारंभिक डिक्री कब पारित की जा सकती है?

जब परिस्थितियाँ बदलती हैं, तो दूसरी प्रारंभिक डिक्री जारी की जा सकती है, लेकिन यह अंतिम डिक्री के रूप में काम नहीं कर सकती है। अलगम्मल बनाम गोपाल लाल (2016), में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला किया कि एक विभाजन मामले में पहली डिक्री में पहले से आवंटित किए गए शेयरों को संशोधित करने और पक्षों के बीच उत्पन्न होने वाली किसी भी असहमति को हल करने के लिए दूसरी प्रारंभिक डिक्री जारी की जा सकती है।

डीम्ड डिक्री क्या है?

डीम्ड डिक्री वे हैं जो डिक्री की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती हैं लेकिन फिर भी विशेष रूप से विधायिका द्वारा डिक्री के रूप में पहचानी जाती हैं। कुछ आदेश ऐसे हैं जिन्हें सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत डीम्ड डिक्री माना जाता है, जैसे आदेश 21 नियम 58, नियम 98, और नियम 100 के तहत निर्णय, जबकि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2 (2) स्पष्ट रूप इस प्रकार की डिक्री का उल्लेख नहीं करती है।

संदर्भ

 

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