यह लेख Varun Ranganathan द्वारा लिखा गया है जो लॉसिखो में पैरालीगल एसोसिएट में डिप्लोमा कर रहे हैं। इस लेख को Ojuswi (एसोसिएट, लॉसिखो) ने संपादित (एडिट) किया है। इस लेख में मृत्युदंड के बारे में चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।
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परिचय
न्यायपालिका राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने और देश के कानून को लागू करने के लिए दंडात्मक प्रावधानों को अपनाती है। कानून द्वारा निर्धारित अन्य दंडात्मक प्रावधानों में मृत्युदंड सर्वोच्च और सबसे विवादनिय (कॉन्ट्रोवर्शियल) है। भारत में, मृत्युदंड अभी भी प्रचलित है, हालांकि यह विशेष रूप से कुछ जघन्य (हिनियस) अपराधों और क्रूर अपराधों के लिए ही दिया जाता है, लेकिन फिर भी इसके बारे में लंबे समय से चले आ रहे, अक्सर बहस वाले प्रश्न का मार्ग प्रशस्त (पेव) करता है।
मानव विकास प्रक्रिया की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है। मानव के विकास की तरह ही उनके द्वारा आविष्कृत नियम भी समय के साथ-साथ विकसित होते जा रहे हैं। तो, क्या किसी को जीवन की ‘सबसे बड़ी उपलब्धि’ से वंचित करना उचित है क्योंकि यह कानून द्वारा अनुमत है, जो अपने आप में भी परिवर्तन के अधीन है?
इस लेख का मुख्य उद्देश्य है:
- मृत्युदंड का व्यापक विश्लेषण करना।
- नैतिकता (मॉरलिटी) के सिद्धांतों और मानवाधिकारों के कानूनों के साथ असंगति के लिए मृत्युदंड के खिलाफ गंभीर रूप से वकालत करना।
मृत्युदंड का अर्थ और परिभाषा
“मृत्युदंड” शब्द, सजा के सबसे गंभीर रूप के लिए है। यह वह सजा है जो मानवता के खिलाफ सबसे जघन्य और घृणित अपराधों के लिए दी जाती है। जबकि इस तरह के अपराधों की परिभाषा और सीमा अलग-अलग देशों में, अलग-अलग राज्यों में और उम्र दर उम्र अलग-अलग होती है, मृत्युदंड का निहितार्थ (इंप्लीकेशन) हमेशा मौत की सजा रहा है। न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस), अपराध विज्ञान (क्रिमिनोलॉजी) और दंडशास्त्र (पिनोलॉजी) में, मृत्युदंड का मतलब मौत की सजा है।
ब्रिटानिका डिक्शनरी “कैपिटल पनिशमेंट” (मृत्युदंड) को इस प्रकार परिभाषित करती है:
मौत की सजा;
गंभीर अपराधों के लिए सजा के रूप में लोगों को मारने की प्रथा है।
भारत में मृत्युदंड की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
मृत्युदंड देने की प्रथा भारतीय न्याय प्रणाली का एक हिस्सा रही है और प्राचीन काल से इसका इतिहास रहा है। हालाँकि, इसके प्रचलन के संदर्भों का पता मनुस्मृति के ग्रंथों से लगाया जा सकता है, जो कानून का एक प्राचीन स्रोत है, जिसमें:
“10 से अधिक खुंभों की चोरी के लिए मृत्युदंड स्वीकृत था” – मनु 8, श्लोक 320
मृत्युदंड का उल्लेख महाभारत के प्राचीन महाकाव्य में भी मिलता है, जब पांडवों ने फैसला किया कि अश्वत्थामा द्वारा किए गए जघन्य नरसंहार (मैसेकर) के लिए मृत्युदंड बहुत दयालु थी। तमिलनाडु में, चोलों के शासनकाल के दौरान, राजा एल्लालन, जिसे निष्पक्ष न्याय के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया था, को गाय को न्याय देने के लिए अपने ही बेटे को मारने के लिए “मनु निधि चोलन” (न्याय का पालन करने वाले चोला) की उपाधि से सम्मानित किया गया था। जेल व्यवस्था की स्थापना के बाद ही, मृत्युदंड को सजा का एक वैकल्पिक रूप माना जाने लगा था।
मृत्युदंड का लंबा इतिहास, प्राचीन काल के दौरान प्राथमिक दंड से लेकर विशेष रूप से दुर्लभतम (रेयरेस्ट) मामलों में दी गई सजा तक कई बदलावों से गुजरा है। धीरे-धीरे इसके उपयोग को उदार (लिबरल) बनाने की ओर स्थानांतरित (शिफ्ट) किया गया है। अब, इसके अस्तित्व को खत्म करने का समय आ गया है।
क्या मृत्युदंड के पीछे का इरादा सही है?
मृत्युदंड देने के इरादे तीन वजहों से आते हैं:
निवारक (प्रिवेंटिव) दृष्टिकोण, जिसमें अपराधी को मृत्युदंड दी जाती है ताकि अपराधों को आगे होने से रोका जा सके
इस तरह के निवारक दृष्टिकोण का इरादा वास्तविक हो सकता है लेकिन यह उस तरीके को उचित नहीं ठहराता है, जिसमें इसे अपनाया जाता है। अपराधियों को फाँसी देकर अपराधों को नहीं रोका जाना चाहिए, बल्कि मूल कारण को मिटाकर, ऐसे अपराध को अंजाम देने के इरादे को ही हटा देना चाहिए।
प्रतिवारक (डिटरेंट) दृष्टिकोण, जो अन्य विषयों पर एक प्रतिवारक बनाने के लिए गंभीर दंड लगाता है
राजशाही के समय में भय पैदा करने वाला इरादा अच्छी तरह से अनुकूल रहा होगा लेकिन हाल के वर्षों में, लोकतंत्र ही सरकार का रूप है, जो प्रचलित है। यह दृष्टिकोण लोकतंत्र के सिद्धांतों का उतना ही उल्लंघन करता है जितना कि यह नैतिकता का उल्लंघन करता है। दूसरे शब्दों में, एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में लोग खुद ही अंतिम प्राधिकारी (अथॉरिटी) होते हैं; इसलिए उन्हें प्रतिवरक प्रभाव से नियंत्रित नहीं किया जाना चाहिए।
प्रतिशोधात्मक (रेट्रीब्यूटिव) दृष्टिकोण, जो अपराधी को वह पीड़ा देता है जो उसके अपराध के समान है
यह दृष्टिकोण अपनी प्रकृति में प्रतिशोधी है। यह दृष्टिकोण समाज में सद्भाव (हार्मनी) का मार्ग प्रशस्त करने के बजाय एक निरंकुश (ऑटोक्रेटिक) राज्य की ओर ले जाता है, जो अपनी प्रजा को पीड़ा देता है।
भारत में मृत्युदंड – “दुर्लभ से दुर्लभतम मामले” का सिद्धांत
अलग-अलग धाराओं के तहत विभिन्न अपराधों के लिए मृत्युदंड प्रदान की जाती है, फिर भी, सजा के रूप में मौत को मंजूरी देने की परंपरा एक सामान्य नियम के रूप में लागू नहीं होती है, बल्कि केवल “दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों” पर लागू होती है।
“दुर्लभ से दुर्लभतम मामले” का सिद्धांत सबसे पहले बचन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के मामले में प्रस्तावित किया गया था, जिसमे सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मृत्युदंड केवल दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में ही दिया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के इस दृष्टिकोण को अपनाया गया क्योंकि इसका उद्देश्य मृत्युदंड के उपयोग को कम करना था। इस सिद्धांत ने मृत्युदंड के उपयोग को महत्वपूर्ण रूप से प्रतिबंधित कर दिया है, लेकिन इस सिद्धांत में दिक्कत “दुर्लभ से दुर्लभ मामला” शब्द में है, जिसे कानून या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है। कानून के शासन की परिभाषा अस्पष्टता को दूर करती है और निश्चितता के साथ इसका निर्माण करती है, जो सचमुच गंभीर दंड से संबंधित मामलों में अपरिहार्य (इनएविटेबल) हो जाती है क्योंकि यह निश्चित रूप से रद्द करने योग्य नहीं है और ऐसी परिभाषा लगभग अस्वीकार्य और अव्यवहारिक है।
अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य
दुनिया भर के राष्ट्र कम से कम पिछले एक दशक से मृत्युदंड को मंजूरी देने की ओर झुक रहे हैं। 2014 के अंत में, 98 देशों ने मृत्युदंड को अभिनिषेध (एब्रोगेट) कर दिया; 35 देशों ने ऐसी प्रथाओं को समाप्त कर दिया और अप्रत्याशित (अनएक्सपेक्टेडली) रूप से 58 देशों ने हाल के दिनों में मृत्युदंड को बरकरार रखा हुआ है।
अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन, एमनेस्टी इंटरनेशनल का मानना है कि मृत्युदंड मानव अधिकारों का उल्लंघन करता है, विशेष रूप से जीवन का अधिकार और यातना या क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या दंड से मुक्त रहने का अधिकार, जो मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (यूनिवर्सल डिक्लेरेशन) के तहत संरक्षित हैं, जिसे 1948 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाया गया था।
नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा (कोविनेंट) का दूसरा वैकल्पिक प्रोटोकॉल मृत्युदंड को समाप्त करने का लक्ष्य रखता है “यह मानते हुए कि मृत्युदंड का हटना मानव गरिमा और मानव अधिकारों के प्रगतिशील विकास में योगदान देता है।”
यूरोप की परिषद के सदस्य राज्यों ने मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए प्रोटोकॉल की पुष्टि के आधार पर मृत्युदंड को हटाने के लिए सहमति व्यक्त की है।
मृत्युदंड के खिलाफ तर्क
मृत्युदंड के विरोध को नैतिक, व्यावहारिक और संवैधानिक आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है:
नैतिक आधार
मानव जीवन का मूल्य
मानव जीवन सम्मान का पात्र है। मानव जीवन को बनने में केवल 9 महीने लगते हैं और पूर्ण विकास प्राप्त करने में कई वर्ष लग जाते हैं। ऐसे जीवन को पल भर में नहीं छीनना चाहिए, ऐसा कार्य और कुछ नहीं बल्कि एक अनमोल जीवन के मूल्य की अवहेलना (डिसरीगार्ड) है। वास्तव में, मानव जीवन अत्यंत मूल्यवान है, और सबसे खराब आचरण वाला अपराधी भी, उसके द्वारा किए गए किसी भी अपराध के लिए अपने जीवन से वंचित होने के योग्य नहीं होता है।
प्रतिशोध अनैतिक है
प्रतिशोध एक अपराधी को दंडित करने का एक आदर्श तरीका नहीं है और विशुद्ध रूप से बदला लेने का एक तरीका है। प्रतिशोध की अवधारणा कानून के माध्यम से हत्या के कार्य को ठीक से करके न्याय स्थापित करने के उद्देश्य को मिटा देती है, जिसे नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि यह कानून द्वारा निषिद्ध है। एक राष्ट्र की न्याय प्रणाली में प्रतिशोध को रखने की वजह से प्रजा के मन में प्रतिशोध आ जाता हैं और यह किए गए अपराधों की संख्या में वृद्धि करते है और भलाई से अधिक नुकसान की ओर जाता है।
क्रूर और अमानवीय
मृत्युदंड चाहे योग्य हो या न हो, भारी पीड़ा का कारण बनता है और क्रूर, अमानवीय और पीड़ादायक कार्य है जो न केवल अपराधी को बल्कि अपराधी के निकट और प्रियजनों को भी पीड़ा देता है।
व्यावहारिक आधार
अपरिवर्तनीय (इरेवोकेबल)
मृत्युदंड के खिलाफ सबसे स्पष्ट और आम तर्क इसकी अपरिवर्तनीय प्रकृति है। हर दूसरी सजा, अगर यह प्रकाश में आता है कि ऐसी सजा गलती से दी गई थी, तो उसे उलट दिया जा सकता है और/या कम से कम किसी भी नुकसान के लिए मुआवजा दिया जा सकता है। हालांकि उन्नत न्याय प्रणाली इस तरह की घटना को न होने देने की दिशा में प्रयास करेगी, लेकिन एक निर्दोष व्यक्ति को फांसी देने की संभावना मौजूद है, जिसे बाद में बदला नहीं जा सकता है।
हिंसक उपाय
एक राज्य का सिद्धांत कम से कम आक्रामक और हानिकारक तरीके से अपने दायित्वों का पालन करना होता है। मृत्युदंड अक्सर हिंसा के कार्य से जुड़ा होता है। आपराधिक हिंसा को रोकने के उपाय के रूप में मृत्युदंड को शामिल करने वाली न्याय प्रणाली अंततः कानून को हिंसा के आधार पर निर्भर करती है, जो अस्वीकार्य है।
अनावश्यक
मृत्युदंड एक व्यवस्थित समाज की स्थापना के लिए उपलब्ध दंड का एकमात्र रूप नहीं है। वास्तव में, इसे अन्य प्रभावी दंडों जैसे आजीवन कारावास, कठोर कारावास आदि से प्रतिस्थापित (सब्स्टीट्यूट) किया जा सकता है।
संवैधानिक आधार
जीवन का अधिकार
संविधान के तहत जीवन का अधिकार बिना शर्तों के और पूरी तरह से प्रदान किया जाना चाहिए और इसे कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं द्वारा प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि जीवन का अधिकार न केवल संप्रभु (सॉवरेन) द्वारा अपने विषयों पर निहित एक संवैधानिक अधिकार है, बल्कि यह सभी मनुष्यों के लिए एक अंतर्निहित (इन्हेरेंट) और अक्षम्य (इनएलियनेबल) अधिकार है, जो उनके आचरण की परवाह किए बिना सभी को दिया गया है।
राजेंद्र प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश के मामले में न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्णा अय्यर कहते हैं कि:
“विशेष कारण अपराध से नहीं बल्कि अपराधी से संबंधित होना चाहिए। अपराध चौंकाने वाला हो सकता है और फिर भी अपराधी मृत्युदंड के लायक नहीं हो सकता है ”।
प्रतिवारक लोकतंत्र की विचारधारा के अनुरूप नहीं है
एक लोकतांत्रिक राज्य में एक प्रतिवारक प्रभाव पैदा करने के माध्यम से एक राज्य के विषयों को अपराध करने से नियंत्रित करने की धारणा आत्म-विरोधाभासी (सेल्फ कांट्रेडिक्टरी) है क्योंकि एक लोकतांत्रिक राज्य में लोग ही अंतिम प्राधिकार हैं और धमकी देकर एक अपराध रहित समाज को प्राप्त करने का विचार सही नहीं है। यह विचारधारा राज्य और उसकी प्रजा के बीच संबंधों को खराब करती है।
“शक्ति दो प्रकार की होती है। एक दंड के भय से प्राप्त होती है और दूसरी प्रेम के कार्यों से प्राप्त होती है। प्रेम पर आधारित शक्ति दण्ड के भय से प्राप्त शक्ति से हजार गुना अधिक प्रभावशाली और स्थायी होती है।” – महात्मा गांधी।
सुझाव
प्रतिवारक और प्रतिशोधात्मक दृष्टिकोण को सुधारात्मक दृष्टिकोण से प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए। अपराध पर आधारित होने के अलावा सजा की मंजूरी भी अपराधी के सुधार पर आधारित होनी चाहिए। आजीवन कारावास और कठोर कारावास दो सामान्य विकल्प हैं जिनका उपयोग जघन्य अपराधों के लिए मृत्युदंड के बदले में किया जा सकता है। सामुदायिक सेवा की सजा जो अपराधी को सार्वजनिक भलाई के लिए काम करने के लिए मजबूर करती है, उसे सजा के अन्य रूपों के अलावा नियमित किया जाना चाहिए। अपराधी को अपनी सजा के एक हिस्से के दौरान सामुदायिक सेवा के लिए काम करना चाहिए। अपराधी को उसके आपराधिक कार्य के परिणामों को महसूस करने के लिए जागरूक किया जाना चाहिए, न कि उसे उसके आपराधिक कार्य के लिए उसी दर्द और पीड़ा को महसूस कराना चाहिए।
निष्कर्ष
कानून मनुष्यों की भलाई के लिए और उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए बनाए जाते हैं न कि उन्हें छीनने के लिए। “आंख के बदले आंख” सिद्धांत के विश्वास और अभ्यास ने हमें अतीत में मृत्युदंड के क्रूर और अमानवीय पक्ष की कल्पना करने से रोका हो सकता है। लेकिन वर्तमान में, दुनिया भर के राष्ट्र मृत्युदंड के दुष्परिणामों को महसूस कर रहे हैं और मानवता पर इसके हानिकारक प्रभाव को देखते हुए इसे समाप्त कर रहे हैं। अब यह हम पर है कि हम “दांत के बदले दांत” की अवधारणा के खिलाफ दांत और नाखून से लड़ें और बेहतर भविष्य के लिए मौत की निंदा करने वाले कार्य को खत्म करें।
संदर्भ
पुस्तकें
- Subash C Gupta, Capital Punishment In India (1986)
- C K Thakker ‘Takwani’ and M C Thakker, Criminal Procedure (4th Edition, 2014)
- K N Chandrasekharan Pillai, Criminal Procedure (7th Edition, 2021)
- Navin Kumar, Criminal Psychology (1st edition, 2015)
वेबसाइटें