यह लेख Sarakshie Sonawan के द्वारा लिखा गया है, जो सिंबायोसिस लॉ सकूल, पुणे में बीबीए एलएलबी (ऑनर्स) की प्रथम वर्ष की छात्रा है। यह लेख अनुचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के विधाई विश्लेषण के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Namra Nishtha Upadhyay द्वारा किया गया है।
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परिचय
अनुसूचित जातियों (शेड्यूल्ड कास्ट) और अनुसूचित जनजातियों (शेड्यूल्ड ट्राइब) को एक आदिम समूह (प्रिमिटिव ग्रुप) के रूप में उनके जीवन के पूरक (सप्लीमेंट) संसाधनों के सीमित स्रोत के कारण प्रमुखता से नीचे देखा में बल्कि ऐसे आदिवासी समूहों की स्वीकृति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आवश्यक अधिकारों तक सीमित पहुंच के कारण, उनके पास साक्षरता (लिटरेसी), स्वास्थ्य, प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी), इंफ्रास्ट्रक्चर आदि की कमी है। ऐसे संसाधनों की सुविधा के लिए, विधायिका का यह कर्तव्य बन जाता है कि वह ऐसे कानूनों को लागू करे जो दिशानिर्देशों की तरह काम करते हैं जो आवश्यक समानता प्राप्त करने में मदद करते हैं।
ऐतिहासिक पहलू
आज, भारत की लगभग 8.6 प्रतिशत जनसंख्या जनजातियाँ और उप-जनजातियाँ (सब्ट्राइब) हैं, जिन्हें पहचानने की आवश्यकता नहीं है। आजादी से पहले, ब्रिटिशर्स ने भी आदिवासी समुदायों को मान्यता दी और उनमें से कुछ को ‘अनुसूचित’ घोषित किया। अनुसूचित जिला अधिनियम, 1874 ने ब्रिटिश प्रशासन के भीतर स्वशासन (सेल्फ्गवर्निंग) की शक्ति प्रदान की। स्वतंत्रता के बाद, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ़ शोशल जस्टिस एंड एंपावरमेंट) को 1999 में विभाजित किया गया था, और भारत में जनजातियों की कानूनी, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं पर अधिक जोर देने के लिए जनजातीय मामलों के मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ़ ट्राइबल अफेयर्स) का गठन किया गया था।
छठी और सातवीं अनुसूची के अलावा, संविधान के अनुच्छेद 46 (राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ़ स्टेट पॉलिसी)) के माध्यम से अनुसूचित जनजातियों के हित में समान शैक्षिक और आर्थिक अवसर प्रदान करता है जो कानून के लिए दिशानिर्देश के रूप में कार्य करता है। अनुच्छेद 15(4), अनुच्छेद 16(4) और अनुच्छेद 17 भारत के संविधान में क्रमशः शिक्षा, रोजगार और अस्पृश्यता (अनटचैबिलिटी) को समाप्त करने के लिए आरक्षण (रिज़र्वेशन) और समान अवसर प्रदान करके उनके अधिकारों की रक्षा के लिए एक तंत्र के रूप में अंतर्निहित (एंबेडेड) हैं।
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम (प्रोटेक्शन ऑफ़ सिविल राइट्स एक्ट), 1955 को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के नागरिक अधिकारों की रक्षा के उद्देश्य से पहला स्वतंत्र कानून था। यह समुदाय सदियों से लगातार अन्याय का शिकार रहा है और उसे एक दलित (डाउनट्रोडेन) समुदाय के रूप में देखा गया है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज एक्ट)), 1989 को पीओए एससी/एसटी अधिनियम, अत्याचार निवारण अधिनियम, या अत्याचार अधिनियम 1989 के रूप में भी जाना जाता है। इस अधिनियम को 31 मार्च, 1995 को अधिसूचित किया गया था, और 9 सितंबर, 1989 को अधिनियमित (इनैक्टेड) किया गया था। यह भारत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए अधिनियमित कानूनों में से एक है।
उद्देश्य
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 342 (1) राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को एक जनजाति या समुदाय की एक विशेष श्रेणी के रूप में परिभाषित करता है, जैसा कि राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 366 (25) के अनुसार एक सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से घोषित किया गया है।
- अधिनियम मुख्य रूप से भारत की अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराधों और अत्याचारों की रोकथाम पर केंद्रित है।
- अधिनियम का उद्देश्य ऐसे अत्याचारों के परीक्षण के उद्देश्य से ‘विशेष न्यायालयों और विशिष्ट (एक्सक्लूसिव) विशेष न्यायालयों का प्रावधान करना है।
- यह अधिनियम उनके मुफ्त पुनर्वास, यात्रा के पैसे, रखरखाव के खर्च के लिए धन और सहायता प्रदान करता है और इसके कुशल कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को अधिकृत (ऑथराइज) करता है।
- इसके अलावा, अधिनियम व्यापक रूप से समाज में दलितों के सामाजिक समावेश (इंक्लूजन) के लिए और उनके सामाजिक, आर्थिक, लोकतांत्रिक और राजनीतिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले अपराध होने पर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखता है।
- यह अधीनियम वंचन (डिप्रिवेशन) से बचने का प्रयास करता है, वंचन से बचाता है और हाशिए पर पड़े समुदायों के वंचन में सहायता करता है
नीति का सारांश
- अत्याचार निवारण अधिनियम 1989, के में इस समुदाय के प्रति मानव व्यवहार से संबंधित अपराधों को 22 लिस्ट में बताया गया है। अत्याचार उन अपराधों को संदर्भित करता है जो कुछ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित करते हो, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा शोषण, भेदभाव और दुर्व्यवहार करते हैं जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से संबंधित नहीं है।
- यह अधिनियम सामाजिक अक्षमताओं जैसे जबरदस्ती खाना या पीना (अप्रिय पदार्थ), यौन शोषण, चोट पहुंचाना, जबरदस्ती कपड़े हटाना, गलत तरीके से जमीन पर कब्जा करना, जबरदस्ती भीख मांगना, पुलिस को झूठी और तुच्छ शिकायतें, सार्वजनिक रिसॉर्ट के उपयोग से इनकार करना, दुर्भावनापूर्ण अभियोजन (मेलीशियस प्रॉसिक्यूशन), जबरन बेदखली, बंधुआ मजदूरी (फोर्सेड लेबर), उनकी संपत्ति से संबंधित अपराध, आर्थिक शोषण और अन्य सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक बाधाएं और अक्षमताएं को रोकता है।
- इस अधिनियम के तहत प्रत्येक अपराध संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और गैर-जमानती प्रकृति के है, न ही अपराधी को अग्रिम जमानत (एंटीसिपेटरी बेल) दी जा सकती है। कोई भी व्यक्ति जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से संबंधित नहीं है, अगर वो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य पर ऐसी हिंसा करता है, तो उसे कम से कम छह महीने की अवधि के लिए दंडित किया जाएगा, जिसे पांच साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माने से भी दंडित किया जा सकता है।
- जो कोई भी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय का सदस्य नहीं है, वह भारतीय दंड साहिता के तहत किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को मृत्युदंड या कारावास की सजा देने के लिए जानबूझकर झूठे सबूत देता है या सबूत गढ़ता है तो ऐसे व्यक्ति को मृत्युदंड से दंडित किया जाएगा।
- जो कोई अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय का सदस्य न होते हुए भी किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को सात वर्ष या उससे अधिक की सजा देने के लिए जानबूझकर मिथ्या साक्ष्य (फाल्स एविडेंस) देता है या साक्ष्य गढ़ता (फैब्रिकेट्स एविडेंस) है, उसे कम से कम छह महीने की सजा दी जा सकती है जो कि सात वर्ष तक बढ़ सकती है और साथ में जुर्माना भी देना पड़ सकता है। यदि कोई व्यक्ति संपत्ति को नुकसान पहुंचाने या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय के किसी सदस्य को चोट पहुंचाने के इरादे से विस्फोटकों का उपयोग करने या आग लगाने की कोशिश करता है तो यही दंड अवधि लागू होगी।
- इस अधिनियम के तहत अपने कर्तव्यों की जानबूझकर उपेक्षा के लिए एक लोक सेवक (पब्लिक सर्वेंट) (जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है) को दंडित करने का भी प्रावधान है, जो कम से कम छह महीने की अवधि के लिए दंडनीय है जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
- डीएसपी स्तर के अधिकारी द्वारा की जाने वाली जांच की रिपोर्ट राज्य के पुलिस महानिदेशक (डायरेक्टर जनरल) को प्रस्तुत की जाएगी जो इस अधिनियम के तहत मामलों को और अधिक तेज़ी से और कुशलता से सुलझाने में मदद करेगे। राज्य स्तरीय (स्टेट लेवल) सतर्कता (विजिलेंस) और निगरानी समिति (मॉनिटरिंग कमिटी) के लिए जिला मजिस्ट्रेट के अधीन समिति को वर्ष में दो बार और जिला स्तरीय सतर्कता और निगरानी समिति की वर्ष में तीन बार बैठक करनी होती है।
- अधिनियम सरकार को ‘विशेष न्यायालयों के तहत विशेष लोक अभियोजक (पब्लिक प्रासीक्यूटर) नियुक्त करने और सामूहिक जुर्माना लगाने का अधिकार देता है। यह अपराध की रिपोर्ट करने से लेकर अपराधी को दंडित करने और पीड़ित को न्याय दिलाने तक लोक सेवकों, अधिकृत अधिकारियों के कुशल कामकाज को सुनिश्चित करता है।
सूक्ष्म समीक्षा
- अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अधिनियम समाज के अल्पसंख्यक वर्गों को पूरा करने, शत्रुता और उनके खिलाफ संभावित अपराधों को समाप्त करके उनकी समान भागीदारी बढ़ाने के इरादे से अधिनियमित किया गया है। अधिनियम आवश्यक नीतियां प्रदान करता है जो दलित समुदाय के जाति-आधारित भेदभाव को प्रतिबंधित करने के लिए बनाई गई हैं। भीमा-कोरेगांव हिंसा (2017), खैरलांजी (2008) और ऊना हिंसा जैसे सभी नरसंहारों के अंत में दलित ही रहे हैं। अधिनियम उन्हें अन्याय के खिलाफ लड़ने का अधिकार देता है और उनकी रक्षा के लिए आवश्यक विशेष उपचार को मान्यता देता है।
- अधिनियम उन लोगों को सशक्त बनाता है जो इस बात से अनजान हैं कि उनके अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है। अधिनियम की समझ की कमी उन लोगों की रक्षा करना कठिन बना देती है जो इस बात से अनजान हैं कि उनके अधिकारों का दुरुपयोग किया जा रहा है। अधिनियम और उस समाज के आदर्शों के बारे में जागरूकता पैदा की जानी चाहिए जिसे वह बढ़ावा देना चाहता है।
- जब देश में अत्याचार-प्रवण क्षेत्रों की पहचान करने की बात आती है तो एक खामी है। अधिनियम अब तक केवल 7 राज्यों की पहचान करता है जो अत्याचार से ग्रस्त हैं। ऐसे क्षेत्रों की स्वीकृति और मान्यता उनकी शिकायतों के त्वरित निवारण के लिए अनिवार्य है।
- बहुत से ‘दलित’ जो धर्म परिवर्तन कर चुके हैं या अब इस समुदाय से संबंधित नहीं हैं, वे उन समान अधिकारों से वंचित हैं जिनकी उन्हें आवश्यकता है। कई पृथक (आइसोलेटेड) और आदिम (प्रिमिटीव) जनजातियाँ जो समाज की मुख्यधारा में नहीं हैं वो अज्ञात हो सकती हैं।
- अधिनियम का दुरुपयोग काफी आम है जिसके कारण अधिनियम के शोषण के कारण पैदा हुई झूठी जाति-आधारित घृणा के कारण वैध अत्याचारों पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। एससी-एसटी समुदाय के सदस्यों को सर्वश्रेष्ठ शक्ति दी जाती है जिसका निर्दोष आरोपियों के खिलाफ दुरुपयोग किया जा सकता है। यह निहित स्वार्थों को संतुष्ट करने के लिए ‘ब्लैकमेल’ का एक साधन या प्रतिशोध का एक तरीका भी बन सकता है।
अधिनियम में संशोधन
- अधिनियम के संशोधन 2016 से प्रभावी, अत्याचार शब्द को हाथ से मैला ढोने (मैनुअल स्केवेंजिंग), बलपूर्वक देवदासियों (महिलाओं) के खिलाफ, चुनाव लड़ने से रोकने, गंभीर चोट आदि को शामिल करने के लिए और अपहरण के लिए 10 साल के कारावास की सजा दे सकते है।
- इसमें ‘अपराधों की छूट’ और लोक सेवकों की ‘जानबूझकर लापरवाही’ के प्रावधान भी शामिल थे। मामले के शीघ्र निस्तारण के लिए विशेष न्यायालय की स्थापना का प्रावधान, ‘पीड़ितों एवं गवाहों के अधिकार’ पर अध्याय भी जोड़ा गया। जाति के नाम का दुरुपयोग, सामाजिक या आर्थिक बहिष्कार, मानव शव को ठिकाने लगाने के लिए मजबूर करना, जूतों की माला पहनाना आदि जैसे नए अपराध अधिनियम में अत्याचारों की सूची में जोड़े गए हैं।
- यह जिला स्तर पर विशेष न्यायालय और विशेष लोक अभियोजक की स्थापना, लोक अधिकारियों के कर्तव्यों को निर्दिष्ट करता है। इसके अलावा, आम संपत्ति, पूजा स्थलों, स्वास्थ्य और शिक्षा संस्थानों में प्रवेश को प्रतिबंधित करने के लिए भी दंड प्रदान करता है।
- 1989 के अधिनियम में 2018 में भी संशोधन किया गया था, जिसमें आरोपी के खिलाफ प्राथमिकी (फर्स्ट इनफॉर्मेशन रिपोर्ट) दर्ज करने के लिए प्रारंभिक जांच की आवश्यकता नहीं होने के प्रभाव से धारा 18 (A) को बदल दिया गया था। इसने जांच को मंजूरी देने के लिए जांच अधिकारी की गैर-आवश्यकता का भी उल्लेख किया।
न्यायिक प्रतिक्रिया
- किसी भी दर्ज शिकायत के साथ दर्ज मामलों की तुलना में दोषसिद्धि की दर बहुत कम है। 1998 में, दायर किए गए 147,000 पीओए मामलों में से केवल 31,011 को ही सुनवाई के लिए लाया गया था। धीमी न्यायिक प्रक्रिया नागरिकों का न्याय प्रणाली में विश्वास खो देती है। इस समस्या को दूर करने के लिए विशेष न्यायालयों और न्यायाधिकरणों (ट्रिब्यूनल्स) की स्थापना में तेजी लाई जानी चाहिए।
- सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य में अदालत ने 2018 के संशोधन की वैधता को बरकरार रखा और अग्रिम जमानत पर रोक को बहाल कर दिया। सज्जन कुमार बनाम आंध्र प्रदेश राज्य में, यह माना गया था कि एससी-एसटी समुदाय से संबंधित पीड़ित आरोपियों के ज्ञान के साथ-साथ अपराध साबित करने के लिए ‘मेन्स रिया’ या आपराधिक इरादा एक आवश्यक घटक है। विपुल (कुपियस) मामलों के साथ, न्यायालय ने अपमान और धमकी के प्रकारों पर विचार किया। हितेश वर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य और अन्य में, उस मामले की वैधता रखता है जब अपमान या अत्याचार किया गया था क्योंकि व्यक्ति एक विशेष जाति या जनजाति से संबंधित था।
- न केवल भारतीय न्यायपालिका, बल्कि स्वदेशी लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा (यूनाइटेड नेशंस डिक्लेरेशन), 2007 और स्वदेशी और जनजातीय लोगों पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानक (इंटरनेशनल लेबर स्टैंडर्ड्स)(आईएलओ) दो प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन और संगठन हैं जो जनजातीय अधिकारों से जुड़े हैं और कल्याण को बढ़ावा देते हैं।
निष्कर्ष
इस अधिनियम को एक ऐसे के रूप में वर्णित किया गया है जिसकी बाते बड़ी-बड़ी हैं लेकिन काम वैसा नही है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय ने कई शताब्दियों तक उत्पीड़न का सामना किया है और उनके खिलाफ अत्याचार को रोकने के लिए क़ानून भेदभाव और जाति आधारित हिंसा को रोकने के लिए निर्देशित है। यद्यपि अधिनियम कागज पर एक शक्तिशाली हथियार के रूप में सामाजिक पूर्वाग्रह को खत्म करने के लिए एक कुशल प्रणाली प्रदान करता है, सामाजिक परिवर्तनों को प्राप्त करने के लिए नियमों का कार्यान्वयन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। पुलिस और नौकरशाही राज्य और समाज के बीच अंतःक्रिया का आधार बनती है। यह अधिनियम सामाजिक समानता को प्राप्त करने का प्रयास करता है जो तब संभव है जब न केवल लोकतंत्र के तीन स्तंभ, बल्कि नागरिक भी तैयार कानूनों के अनुरूप कार्य करते हैं।
1964 में यूनाइट्स स्टेट्स कांग्रेस द्वारा अधिनियमित नागरिक अधिकार अधिनियम से बहुत कुछ सीखना है। इसके संशोधन इतिहास के ऐतिहासिक क्षण हैं और इसने दासता और भेदभाव को काफी हद तक सफलतापूर्वक समाप्त कर दिया है। इसलिए, भले ही झूठे आरोप और अधिनियम का दुरुपयोग बहुत असामान्य न हो, वैध अन्याय की पहचान करने के लिए कार्यान्वयन और निवारण मंचों की एक सख्त प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए। बहरहाल, एससी-एसटी अधिनियम रीढ़ की हड्डी है जिसका उद्देश्य भारत के हाशिए पर रहने वाले समुदायों के खिलाफ अत्याचारों को रोकना है और भारत और उसके नागरिकों की भलाई के लिए न्याय प्रदान करने के लिए उपयोगी रहा है।