यह लेख देहरादून के ग्राफिक एरा हिल यूनिवर्सिटी में कानून की छात्रा Monesh Mehndiratta के द्वारा लिखा गया है । यह लेख बताता है कि हिरासत क्या है, इसके कितने प्रकार है (न्यायिक और पुलिस हिरासत), और साथ ही यह बताता है कि न्यायिक हिरासत पुलिस हिरासत से कैसे अलग है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
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परिचय
‘हिरासत’ जिसको अंग्रेजी मे ‘कस्टडी’ कहते है, यह शब्द लैटिन शब्द “कस्टोडिया” से लिया गया है जिसका अर्थ है “किसी पर नजर रखना या उस पर चौकसी रखना”। इसका अर्थ है किसी को ऐसे कारण से पकड़ना जो या तो व्यक्ति को अपराध करने से रोकने के लिए या किसी व्यक्ति की सुरक्षा के लिए हो सकता है। कई बार लोग ‘गिरफ्तारी’ शब्द को ‘हिरासत’ के पर्यायवाची शब्द के रूप में इस्तेमाल करते हैं। लेकिन दोनों में काफी फर्क होता है। एक व्यक्ति को तब गिरफ्तार किया जाता है जब वह अपराध करने का दोषी होता है या उसके अपराध करने का संदेह होता है, लेकिन हिरासत का शब्द मतलब किसी पर चौकसी रखना या उसे अस्थायी रूप से जेल में रखना होता है। जब भी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे हिरासत में रखा जाता है। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि प्रत्येक गिरफ्तारी में हिरासत शामिल होती है लेकिन प्रत्येक हिरासत में गिरफ्तारी शामिल नहीं होती है। हिरासत के 2 प्रकार हैं:
- न्यायिक हिरासत
- पुलिस हिरासत
यह लेख विशेष रूप से दो प्रकार की हिरासत की व्याख्या करता है और आगे लेख में उनके बीच के अंतर को भी बताया गया है। यह देश में हिरासत से संबंधित हाल की प्रवृत्ति (ट्रेंड) को भी प्रदान करता है।
न्यायिक हिरासत क्या होती है?
- जब किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के द्वारा हिरासत में रखा जाता है, तो इसे न्यायिक हिरासत कहा जाता है। यह पुलिस हिरासत के विपरीत है, यहां एक व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेश पर एक निश्चित अवधि के लिए जेल में रखा जाता है, और यह अवधि अस्थायी होती है। वह व्यक्ति या संदिग्ध व्यक्ति मजिस्ट्रेट की जिम्मेदारी बन जाता है और उसे जनता की नजरों से दूर रखा जाता है ताकि उसे जनता या समाज के किसी वर्ग द्वारा किसी भी तरह के दुर्व्यवहार या उत्पीड़न से बचाया जा सके।
- जब किसी व्यक्ति को थाने में दर्ज की गई प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) के कारण पहली बार गिरफ्तार किया जाता है और उस पर संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध का आरोप लगाया जाता है, तो उसे 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है। मजिस्ट्रेट के द्वारा यह तय किया जाता है कि उसे जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए या न्यायिक हिरासत या पुलिस हिरासत में भेजा जाना चाहिए। न्यायिक हिरासत की अवधि को उन मामलों में 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है, जिन में सजा के रूप में मौत की सजा, आजीवन कारावास या 10 साल या उससे अधिक की कैद शामिल होती है।
- यदि कोई व्यक्ति न्यायिक हिरासत में होता है और जांच अभी भी चल रही होती है और उन मामलों में जहां अपराध में 10 साल या 10 साल से कम की कैद है और पुलिस द्वारा 60 दिनों के भीतर आरोप पत्र (चार्ज शीट) दायर नहीं किया गया है या उन मामलों के लिए जहां अपराध 10 साल या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय होते हैं, वहां पुलिस द्वारा 90 दिनों के भीतर आरोप पत्र दायर नहीं किया गया है, और अपराधी ने जमानत के लिए आवेदन नहीं किया है, तो वह हिरासत में ही रहेगा।
- आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 436 A के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति अपराध के लिए दी जा सकने वाली अधिकतम सजा की आधी अवधि तक के लिए न्यायिक हिरासत में है और मुकदमा अभी भी अदालत में लंबित (पेंडिंग) है, तो वह डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए आवेदन करने का पात्र होगा।
न्यायिक हिरासत के बाद क्या होता है?
न्यायिक हिरासत के बाद एक व्यक्ति को पुलिस की हिरासत में या न्यायिक हिरासत में रखा जा सकता है। गिरफ्तारी पर आरोप के संदिग्ध व्यक्ति के साथ पहली बात यह होती है कि उसे पुलिस हिरासत में ले लिया जाता है, जिसके बाद उसे एक मजिस्ट्रेट के सामने ले जाया जाता है और उसे या तो न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है या उसे वापस पुलिस हिरासत में भी भेजा जा सकता है।
पुलिस हिरासत क्या होती है?
- जब किसी व्यक्ति को किसी जघन्य (हीनियस) अपराध करने के आरोप में या अपराध करने के संदेह के आधार पर पुलिस के द्वारा गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे पुलिस हिरासत में रखा जाता है। गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने का नियम आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 167 के तहत दिया गया है। इस धारा के अनुसार, जब आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है और उसे लगता है कि आगे की जांच या पूछताछ करने की आवश्यकता है, तो वह व्यक्ति को अगले 15 दिनों के लिए पुलिस हिरासत में लेने का आदेश दे सकता है, जिसे कुछ मामलों में 30 दिनों तक भी बढ़ाया जा सकता है, ऐसा प्रत्येक मामले की प्रकृति, गंभीरता और परिस्थितियों के आधार पर किया जा सकता है।
- मजिस्ट्रेट को धारा 167 के तहत किसी व्यक्ति को पुलिस हिरासत में भेजने की शक्ति प्रदान की गई है। वह हिरासत को पुलिस हिरासत से न्यायिक हिरासत में बदलने का भी आदेश दे सकता है। ऐसी स्थिति में पुलिस हिरासत की अवधि को न्यायिक हिरासत की कुल अवधि में से काट लिया जाता है।
- राज्य बनाम धर्मपाल (1982) के मामले में, यह माना गया था कि किसी व्यक्ति को आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 167 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए जाने की तारीख से 15 दिनों के भीतर पुलिस हिरासत में भेजा जाना चाहिए। लेकिन अगर आरोपी न्यायिक हिरासत में होता है, तो उसे 15 दिनों में या उसके बाद भी जेल भेजा जा सकता है।
- मीठाभाई पाशाभाई पटेल बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात (2009) के मामले में, यह माना गया था कि एक आरोपी को तब तक पुलिस हिरासत में नहीं लिया जा सकता है जब तक कि उसकी जमानत रद्द नहीं कर दी जाती है।
पुलिस हिरासत और न्यायिक हिरासत के बीच अंतर
अंतर का आधार | पुलिस हिरासत | न्यायिक हिरासत |
नियंत्रण | पुलिस अधिकारी, जो थाने का प्रभारी (इन चार्ज) होता है वह पुलिस हिरासत पर नियंत्रण रखता है। | हिरासत पर मजिस्ट्रेट का नियंत्रण होता है। |
जाँच | पुलिस जांच करती है। | मजिस्ट्रेट अदालत में पेश किए गए सबूतों पर निर्भर करता है। |
प्रक्रिया | किसी व्यक्ति को प्राथमिकी या अपराध करने के संदेह के आधार पर गिरफ्तार किए जाने के बाद उसे पुलिस हिरासत में रखा जाता है। | लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) द्वारा अदालत को यह विश्वास दिलाने के बाद कि आगे की जांच के लिए ऐसी हिरासत आवश्यक है, एक व्यक्ति को न्यायिक हिरासत में रखा जाता है। |
हिरासत की अवधि | पुलिस हिरासत के लिए 15 दिन का समय होता है। | गैर-जमानती अपराधों के मामले में, जिनमे आजीवन कारावास या कम से कम 10 वर्ष के कारावास तक की सजा होती है, वहां हिरासत की अवधि 90 दिन होती है और जमानती अपराधों के मामले में अधिकतम अवधि 60 दिन तक की होती है। |
हिरासत की समाप्ति | गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए और यदि आरोप साबित नहीं होते हैं, तो उसे जमानत दे दी जाती है, अन्यथा उसे आगे की जांच और पूछताछ के लिए पुलिस हिरासत में भेज दिया जाता है। | मजिस्ट्रेट के आदेश पर व्यक्ति को तब तक न्यायिक हिरासत में रखा जाता है जब तक कि उसे जमानत नहीं मिल जाती। |
जेल | पुलिस हिरासत में एक व्यक्ति को उस विशेष पुलिस स्टेशन में जेल या एक सेल में रखा जाता है। | न्यायिक हिरासत में एक व्यक्ति को केंद्रीय जेल में रखा जाता है। |
पूछताछ | पुलिस अधिकारी, पुलिस हिरासत में किसी व्यक्ति से पूछताछ कर सकते हैं। | न्यायिक हिरासत में बंद व्यक्ति से सवाल पूछने के लिए, अधिकारियों को अदालत से अनुमति लेनी पड़ती है। |
सी.आर.पी.सी. की धारा 167
आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 167 के अनुसार एक व्यक्ति को अधिकतम 15 दिन की अवधि तक के लिए पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है। जांच पूरी नहीं होने पर न्यायिक मजिस्ट्रेट के द्वारा पुलिस हिरासत की अवधि को केवल 15 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है। यदि न्यायिक मजिस्ट्रेट उपलब्ध नहीं होता है, तो कार्यकारी (एग्जिक्यूटिव) मजिस्ट्रेट व्यक्ति को केवल 7 दिनों तक पुलिस हिरासत में रखने का आदेश दे सकता है और उससे आगे की अवधि के लिए आदेश नहीं दे सकता है।
हालाँकि, न्यायिक हिरासत की अवधि को मृत्यु की सजा, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय अपराध के लिए 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है। यदि अपराध जघन्य नहीं है, लेकिन मजिस्ट्रेट संतुष्ट है कि कारण हैं, तो वह न्यायिक हिरासत की अवधि को 60 दिनों तक बढ़ा सकता है, बशर्ते कि वह अपराधी जमानत का हकदार होगा।
राकेश कुमार पॉल बनाम स्टेट ऑफ़ असम, (2017) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जमानत के अधिकार का लाभ उठाने के लिए 90 दिनों की न्यायिक हिरासत की अवधि उन अपराधों में उपलब्ध नहीं है जिनमे 10 साल से कम कारावास का दंड दिया जाता है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 167 और धारा 309 के बीच अंतर
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167, जांच के चरण के दौरान किसी व्यक्ति की हिरासत के बारे में बात करती है और यह हिरासत, न्यायिक हिरासत या पुलिस हिरासत हो सकती है। यह धारा उस व्यक्ति पर लागू नहीं होती है जिसे बाद के चरण में गिरफ्तार किया जाता है, जब जांच चल रही होती है। लेकिन धारा 309 हिरासत पर लागू होती है जब अदालत मामले का संज्ञान लेती है और यह हिरासत केवल न्यायिक हिरासत ही हो सकती है।
न्यायिक हिरासत में पुलिस जांच करने की शक्ति का प्रयोग, न्यायिक मजिस्ट्रेट की अनुमति से ही कर सकती है। न्यायिक हिरासत मे अदालत के आदेश देने के बाद ही किसी व्यक्ति से पूछताछ की जा सकती है। यदि अदालत मामले का संज्ञान लेती है, तो धारा 309(2) लागू होती है; अन्यथा जांच के चरण में धारा 167 लागू होती है। सी.बी.आई. बनाम दाऊद इब्राहिम कास्कर और अन्य (1997) के मामले में भी यही दोहराया गया था।
न्यायिक और पुलिस हिरासत से संबंधित कानून में हाल की प्रवत्ति और विकास
आपराधिक मामलों में गिरफ्तारी की प्रक्रिया, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के अध्याय 5 के तहत प्रदान की गई है। किसी व्यक्ति को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद, उसे 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है, और फिर सबूत पेश करने के बाद मजिस्ट्रेट, आगे की पूछताछ या जांच या न्यायिक हिरासत के लिए उसे वापस पुलिस हिरासत में भेज सकता है। इस अवधि के समाप्त होने के बाद, पुलिस हिरासत की समय अवधि 15 दिन की होती है, और यदि मजिस्ट्रेट उचित समझे तो वह व्यक्ति को न्यायिक हिरासत में भेज सकता है, जहां हिरासत की अधिकतम समय अवधि 90 दिनों के लिए होती है, वो भी उन मामलो के लिए जो गैर-जमानती अपराध होते हैं और मौत की सजा या 10 साल या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय होते है और जमानती अपराधों के मामले में यह अवधि 60 दिन तक की होती है। हालांकि, न्यायिक हिरासत में एक व्यक्ति जमानत के लिए आवेदन दर्ज कर सकता है।
हाल ही में एक अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को ड्रग मामले में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एन.सी.बी.) के द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था और उनका संबंध सुशांत सिंह राजपूत की मौत से भी जुड़ा था। लेकिन गिरफ्तारी के तुरंत बाद ही जब उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो उसे न्यायिक हिरासत में रखा गया था। ऐसा ही एक और ताजा उदाहरण है क्रूज शिप ड्रग्स का मामला जिसमें आर्यन खान को कुछ अन्य आरोपियों के साथ एन.सी.बी. के द्वारा गिरफ्तार किया गया था और फिर उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था, जिसका अर्थ है कि उसे जमानत मिलने तक जेल में रखा जाना था। न्यायालय के द्वारा अनुमति देने के बाद ही एन.सी.बी. को जांच करनी पड़ी थी। उन्होंने हिरासत में पूछताछ की जिसका अर्थ है पूछताछ जब आरोपी को हिरासत में रखा जाता है। जब आर्यन खान न्यायिक हिरासत में था, तब उसके वकील ने अंतरिम जमानत (इंटरिम बेल) की मांग की थी।
हालांकि, आरोपी को प्राधिकारियों (अथॉरिटीज) और अधिकारियों द्वारा दुर्व्यवहार और उत्पीड़न से बचाने के लिए कुछ अधिकार भी प्रदान किए गए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत आत्म दोषारोपण (सेल्फ इंक्रिमिनेशन) के खिलाफ अधिकार प्रदान किया गया है, जिसका अर्थ है कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति को अपने खिलाफ ऐसा कोई भी बयान देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है, जिसमें उसके खिलाफ उन आपराधिक आरोपों को स्पष्ट करने की प्रवृत्ति है। संविधान के अनुच्छेद 22 के साथ साथ आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 50 आरोपी को यह अधिकार प्रदान करती है की उसे गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए। पुलिस अधिकारी भी आरोपी को मुफ्त कानूनी सहायता के बारे में सूचित करने के लिए बाध्य है, जिसका वह हकदार है। आरोपी को दिए गए अधिकारों में से एक यह भी है को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना जरूरी है। यदि कोई मजिस्ट्रेट उपलब्ध नहीं है तो आरोपी या गिरफ्तार व्यक्ति को कार्यकारी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा जो उसे अधिकतम 7 दिनों तक हिरासत में रखने का आदेश दे सकता है, और जिसके बाद आरोपी को अनिवार्य रूप से न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए। सी.बी.आई. विशेष जांच सेल II बनाम न्यायाधीश अनुपम कुलकर्णी (1992) के मामले में,यह माना गया था कि मजिस्ट्रेट को गिरफ्तार व्यक्ति के लिए ऐसी हिरासत का आदेश देना चाहिए जो उसे लगता है कि ठीक है और यह अवधि 15 दिनों से अधिक की नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार, हिरासत की अवधि शुरू में 15 दिन की होगी और उससे अधिक नहीं। हालांकि इसे और बढ़ाया जा सकता है।
ऐतिहासिक निर्णय
स्टेट (दिल्ली प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन)) बनाम धर्मपाल और अन्य (1981)
मामले के तथ्य
इस मामले में, एक व्यक्ति पर एक जघन्य अपराध करने का आरोप लगाया गया था और यह आरोप भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत लगाया गया था। उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और फिर उसे पुलिस हिरासत में रखा गया था। लेकिन जल्द ही मजिस्ट्रेट ने आइडेंटिफिकेशन परेड के उद्देश्य से उसे न्यायिक हिरासत में रखने का आदेश दिया था। परीक्षण (टेस्ट) के बाद, पुलिस ने उसे आगे की जांच के लिए पुलिस हिरासत में वापस रखने का अनुरोध किया, लेकिन मजिस्ट्रेट ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था और ज्ञान सिंह बनाम स्टेट (दिल्ली प्रशासन), (1981) के मामले को संदर्भित किया था। जिसके परिणामस्वरुप, मजिस्ट्रेट के आदेश को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की गई थी।
मामले में शामिल मुद्दे
क्या आरोपी को एक बार न्यायिक हिरासत में भेजे जाने के बाद पुलिस हिरासत में भेजा जाना चाहिए?
न्यायालय का फैसला
न्यायालय के द्वारा यह माना गया था कि किसी व्यक्ति को आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 167 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए जाने की तारीख से 15 दिनों की अवधि के भीतर पुलिस हिरासत में भेजा जाना चाहिए। लेकिन अगर आरोपी न्यायिक हिरासत में है, तो उसे या तो 15 दिनों में या उसके बाद भी जेल भेजा जा सकता है। इसी के साथ, यहां यह भी कहा गया था कि यदि पुलिस 60 दिनों (यदि अपराध 10 वर्ष से कम कारावास की सजा के साथ दंडनीय है) या 90 दिनों (यदि अपराध मौत की सजा, 10 साल या उससे अधिक की कारावास की सजा के साथ दंडनीय है) के भीतर आरोप पत्र दायर नहीं करता है और यदि आरोपी जमानत के लिए आवेदन दर्ज नहीं करता है तो आरोपी न्यायिक हिरासत में ही रहेगा।
अदालत के द्वार यह भी प्रदान किया गया कि मजिस्ट्रेट को इस पर ध्यान देना चाहिए कि मामले की प्रकृति के अनुसार हिरासत की अवधि को 60-90 दिनों तक बढ़ाने के लिए असाधारण परिस्थितियां मौजूद हैं या नहीं। अदालत ने इस बात पर भी जोर दिया कि गिरफ्तार व्यक्ति को उसके अधिकारों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए और यह पुलिस अधिकारियों का कर्तव्य है कि वह आरोपी के हिरासत में होने पर भी उसके कानूनी अधिकारों की रक्षा करे। पुलिस अधिकारी, पुलिस हिरासत की अवधि बढ़ाने का अनुरोध तभी कर सकता है जब 24 घंटे के भीतर जांच पूरी नहीं हुई हो। यदि न्यायिक मजिस्ट्रेट उपलब्ध नहीं है, तो आरोपी को कार्यकारी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिए।
सी.बी.आई. बनाम दाऊद इब्राहिम कास्कर और अन्य (1997)
मामले के तथ्य
इस मामले में, देश में आतंकवादी गतिविधियों और ऐसे बम विस्फोटों के आधार पर एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप जनता की हत्या हुई थी और बहुत सी संपत्ति का विनाश हुआ था। आरोपी पर आतंकवादी गतिविधियों के लिए विभिन्न अधिनियमों और क़ानूनों के तहत आरोप लगाए गए थे।
मामले में शामिल मुद्दे
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 और 309(2) के तहत हिरासत के बीच क्या अंतर है?
न्यायालय का फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संहिता की धारा 309(2) के तहत हिरासत में लिए गए व्यक्ति की रिमांड और संहिता की धारा 167 के तहत हिरासत में रखने के बीच महत्वपूर्ण अंतर है। अदालत द्वारा मामले का संज्ञान लेने के बाद धारा 309 (2) के तहत हिरासत की बात सामने आती है और किसी व्यक्ति को केवल न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति इस धारा के तहत हिरासत में है, तो पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति से पूछताछ नहीं कर सकते हैं और उन्हें संहिता के अध्याय XII के प्रावधानों का पालन करना होगा। लेकिन धारा 167 के तहत जांच के स्तर पर किसी व्यक्ति को हिरासत में भेजा जा सकता है। यह मामले की परिस्थितियों और मजिस्ट्रेट के आदेश के आधार पर या तो पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत हो सकती है। हालांकि, यह धारा उस व्यक्ति पर लागू नहीं होती है जिसे जांच के दौरान बाद में गिरफ्तार किया जाता है।
सिद्धार्थ बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश (2021)
मामले के तथ्य
इस मामले में 7 साल पहले दर्ज कराई गई प्राथमिकी के चलते अपीलकर्ता समेत अन्य लोगों को गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने जांच में सहयोग किया और जल्द ही आरोप पत्र दाखिल किया जाना था। अपीलकर्ता ने अग्रिम (एंटीसिपेटरी) जमानत के लिए आवेदन किया लेकिन उच्च न्यायालय ने उसकी अर्जी को खारिज कर दिया था। इसके चलते उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया था। यह तर्क दिया गया था कि जब तक व्यक्ति को हिरासत में नहीं रखा जाता है तब तक आरोप पत्र प्रस्तुत नहीं किया जाएगा।
मामले में शामिल मुद्दे
क्या आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 170 के तहत आरोप पत्र को रिकॉर्ड में लेने के लिए किसी व्यक्ति को हिरासत मे रखना जरूरी है ?
न्यायालय का फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जहां व्यक्ति ने जांच प्रक्रिया में सहयोग किया है, वहां मजिस्ट्रेट को आरोप पत्र दाखिल करते समय अपराध के लिए आरोपी हुए प्रत्येक व्यक्ति को गिरफ्तार करना और हिरासत में रखना जरूरी नहीं है। इसने कुछ ऐसी परिस्थितियाँ दी हैं जहाँ आरोपी को हिरासत में रखना आवश्यक हो जाता है:
- यदि हिरासत में जांच की जानी है;
- जघन्य और गंभीर अपराध के मामले में;
- यदि ऐसी संभावना है कि आरोपी गवाह को धमकाएगा या उसे नुकसान पहुंचाएगा; तथा
- ऐसी संभावना है की वह भाग सकता है।
निष्कर्ष
इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि हिरासत दो प्रकार की होती है: न्यायिक हिरासत और पुलिस हिरासत। न्यायिक हिरासत में, व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेश के अनुसार जेल में रखा जाता है, और पुलिस हिरासत में उसकी पूर्व अनुमति से जांच की जाती है, व्यक्ति को अधिकतम 15 दिनों तक पुलिस थाने की जेल में रखा जाता है और उसके बाद यदि मजिस्ट्रेट ठीक समझे तो वह हिरासत की अवधि बढ़ा सकता है और यह तय कर सकता है कि व्यक्ति को न्यायिक हिरासत में भेजा जाना चाहिए या फिर पुलिस हिरासत में भेजा जाना चाहिए। पहले के समय में, पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी करते समय अपनी शक्तियों का का दुरुपयोग करते थे और साथ ही उनकी गिरफ्तारी के समय के दौरान ऐसे व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने और उन्हे प्रताड़ित करने के लिए हिरासत में रखा जाता है। वह आरोपी पर थर्ड डिग्री की प्रताड़ना का इस्तेमाल इस उद्देश्य के साथ करते थे कि आरोपी सवालों का जवाब दे देगा और अपना अपराध स्वीकार कर लेगा। लेकिन अब हिरासत और गिरफ्तारी से संबंधित कानूनों में काफी विकास हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी करते समय पालन किए जाने वाले विभिन्न ऐतिहासिक मामलों में कई दिशानिर्देश दिए हैं और यह कहा है कि गिरफ्तार व्यक्ति को हिरासत में रखने के दौरान उसे उसके अधिकारों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए। यह सब अधिकारियों को मनमाने ढंग से अपनी शक्तियों का प्रयोग करने से रोकने में मदद करता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ.ए.क्यू.)
1. न्यायिक हिरासत से आप क्या समझते हैं?
जब किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के द्वारा हिरासत में रखा जाता है, तो इसे न्यायिक हिरासत कहा जाता है। यह पुलिस हिरासत के विपरीत है, यहां एक व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेश पर एक निश्चित अवधि के लिए जेल में रखा जाता है और ऐसी अवधि अस्थायी होती है। आरोपी व्यक्ति या संदिग्ध व्यक्ति मजिस्ट्रेट की जिम्मेदारी बन जाता है और उसे जनता की नजरों से दूर रखा जाता है ताकि उसे जनता या समाज के किसी वर्ग द्वारा, किसी भी तरह के दुर्व्यवहार या उत्पीड़न से बचाया जा सके।
2. पुलिस हिरासत से आप क्या समझते हैं?
जब किसी व्यक्ति को किसी जघन्य अपराध या अपराध करने के संदेह के आरोप में पुलिस के द्वारा गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे जांच और पूछताछ के लिए पुलिस हिरासत में रखा जाता है।
3. न्यायिक और पुलिस हिरासत में हिरासत की अवधि क्या होती है?
- पुलिस हिरासत के लिए 15 दिन का समय है।
- गैर-जमानती अपराधों के लिए जहां मामले में आरोपी को आजीवन कारावास से या कम से कम 10 साल के कारावास की से दंडित किया गया है, वहां, हिरासत की अवधि 90 दिन है और जमानती अपराधों में हिरासत की अधिकतम अवधि 60 दिन है।
4. क्या न्यायिक हिरासत में रखे गए किसी व्यक्ति से पूछताछ की जा सकती है?
न्यायिक हिरासत में रखे गए किसी व्यक्ति से सवाल पूछने के लिए अधिकारियों को अदालत से अनुमति लेनी पड़ती है।
संदर्भ
- https://www.beingvakil.com/post/explained-the-difference-between-police-custody-and-judicial-custody