सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 20 और ट्रेडमार्क अधिनियम की धारा 134 के साथ इसका परस्पर संबंध

0
2235
Code of Civil Procedure
Image Source- https://rb.gy/mrmtpx

यह लेख भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति Sanjay Kishan Kaul के लॉ क्लर्क कम रिसर्च असिस्टेंट Pranav Gupta द्वारा लिखा गया है। इस लेख में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 20 और इसका ट्रेडमार्क अधिनियम की धारा 134 के साथ का संबंध बताया गया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

परिचय

ट्रेडमार्क अधिनियम, 1999 की धारा 134 के तहत ट्रेडमार्क के उल्लंघन के लिए सिविल मुकदमा दायर करने के लिए कानून की परिकल्पना की गई है। यह धारा, पंजीकृत (रजिस्टर्ड) ट्रेडमार्क के कथित उल्लंघन, ट्रेडमार्क से संबंधित किसी भी अधिकार का उल्लंघन या किसी ट्रेडमार्क के उल्लंघनकर्ता द्वारा ‘उपयोग’ से उत्पन्न होने वाले पासिंग ऑफ़ के लिए मुकदमे पर विचार करने के लिए ‘जिला न्यायालय’ को अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) प्रदान करती है और ‘मार्क’ का पंजीकृत उपयोगकर्ता, जहां वह वास्तव में और स्वेच्छा से रहता है, या व्यवसाय करता है, या व्यक्तिगत रूप से लाभ के लिए काम करता है, वहा एक मुकदमा दायर कर सकता है।

सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के तहत ट्रेडमार्क उल्लंघन के मुकदमे की स्थापना के संबंध में स्थिति को हाल ही में माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा बर्गर किंग कॉर्पोरेशन बनाम टेकचंद शेवाकरमणि और अन्य के प्रसिद्ध मामले में दोहराया गया था, जहां विचार करने के लिए जो मुद्दा आया वह सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 20 और ट्रेडमार्क अधिनियम की धारा 134 के तहत वाद के संबंध में था, जहां मुकदमा दायर करने के समय कोई विश्वसनीय और मजबूत आशंका नहीं है और कार्रवाई का कारण दिल्ली में प्रतिवादियों द्वारा फ्रैंचाइज़ी के एक आसन्न लॉन्च में पारित कार्रवाई का कारण आशंका है।

न्यायिक निर्णय

तथ्य

मामले के तथ्यात्मक मैट्रिक्स जो लॉर्डशिप के समक्ष प्रस्तुत किए गए, वे ये थे कि वादी ने ट्रेडमार्क ‘बर्गर किंग’ और ‘हंग्री जैक’ दोनों के संबंध में ट्रेडमार्क के उल्लंघन, पासिंग ऑफ, नुकसान को रोकने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया था। जबकि सभी प्रतिवादी मुंबई, महाराष्ट्र के रहने वाले थे। वादी एक यू.एस. आधारित कंपनी है। वादी ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष दो अलग-अलग कानूनों के तहत मुकदमा दायर किया, पहला ट्रेडमार्क अधीनियम, 1999 की धारा 134 और सीपीसी की धारा 20 के तहत, इस आधार पर कि नई दिल्ली में अपने बर्गर किंग फ्रैंचाइज़ी आउटलेट के आसन्न लाउंज को आगे बढ़ाने के लिए नई दिल्ली के क्षेत्र में विभिन्न पक्षों के साथ उनके द्वारा कई समझौते और अनुबंध किए गए थे और एक मजबूत और विश्वसनीय आशंका थी कि प्रतिवादी नई दिल्ली में ‘बर्गर किंग रेस्तरां’ की विवादित व्यापारिक शैली/ट्रेड मार्क के तहत अपने कार्यों का विस्तार करेंगे और एक खतरा मौजूद था कि प्रतिवादी इस माननीय न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आक्षेपित ट्रेडमार्क व्यापार नामों का उपयोग करेंगे।

प्रतिवादी के तर्क

प्रतिवादियों के अधिवक्ता ने प्रस्तुत किया कि दिल्ली की अदालतों के पास इस मुकदमे पर विचार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, क्योंकि दिल्ली में कोई कार्य नहीं हुआ था, क्योंकि सभी प्रतिवादी स्वतंत्र और अलग-अलग संस्थाएं हैं और उनका एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है। इसके अलावा, बाद की घटनाएं, मुकदमा दायर करने के बाद, अदालत को मुकदमे पर विचार करने के लिए अधिकार क्षेत्र प्रदान नहीं कर सकती हैं। तर्क को पुष्ट करने के लिए, प्रतिवादी ने इंडियन परफॉर्मिंग राइट्स सोसाइटी लिमिटेड बनाम संजय दलिया, उसके बाद अल्ट्रा होम कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड बनाम पुरुषोत्तम कुमार चौबे और अन्य के मामले पर यह प्रस्तुत करने के लिए भरोसा किया कि दिल्ली उच्च न्यायालय का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था, क्योंकि प्रतिवादी वास्तव में और स्वेच्छा से मुंबई में रहते हैं, दिल्ली में नहीं।

वादी के तर्क

वादी ने प्रस्तुत किया कि प्रतिवादी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और उनकी एक वेबसाइट है जो इंटरैक्टिव है। प्रतिवादी संख्या 5 की वेबसाइट जो प्रतिवादी संख्या 3 के नाम से पंजीकृत है, प्रतिवादी संख्या 7 को अपनी संपत्ति के रूप में सूचीबद्ध करती है, और विवादित मार्क ‘बर्गर किंग’ का उपयोग करती है, और कहा जाता है कि दिल्ली में अपने संचालन का विस्तार कर रहा है, जैसा कि रिकॉर्ड पर रखे गए विभिन्न दस्तावेजों और समझौतों से स्पष्ट है और आशंकाएं न केवल आसन्न हैं, बल्कि वास्तव में वास्तविक हैं, जो कि प्रतिवादियों द्वारा दायर विभिन्न समझौतों के अनुसार, दिल्ली में बर्गर किंग कार्ट और आउटलेट के लॉन्च से बहुत स्पष्ट है।

निर्णय

लॉर्डशिप इस मामले में, बताते हैं कि कैसे, धारा के तहत ट्रेडमार्क के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए वाद को प्राथमिकता दी जाती है। सीपीसी की धारा 20, जो ऐसे मामलों में कार्रवाई का कारण बनता है, वह था “मार्क का उपयोग” जो उल्लंघन या एक पासिंग ऑफ के कार्य का गठन करता है। लॉर्ड्स ने केर्ली के ट्रेडमार्क और व्यापर नाम के कानून और ट्रेडमार्क कानूनों के प्रावधान के संदर्भ में “उपयोग” शब्द को परिभाषित किया और यह समझाया कि यह ‘मार्क का उपयोग’ या वस्तुओं के संबंध में एक मार्क का उपयोग’ है जो या तो भौतिक (फिजिकल) या किसी अन्य संबंध में हो सकता है, जो ऐसे सामान के लिए हो, जहां “संबंध में” विज्ञापन, प्रचार आदि को संदर्भित करता है।

वस्तुओ की वास्तविक बिक्री और सेवाएं प्रदान करने के अलावा, यदि कोई व्यक्ति किसी क्षेत्र में मार्क के तहत अपने व्यवसाय का विज्ञापन करता है, किसी क्षेत्र में मार्क के तहत अपने व्यवसाय का प्रचार करता है, या उदाहरण के लिए, किसी विशेष क्षेत्र से फ़्रैंचाइजी प्रश्नों को आमंत्रित करता है, एक विशेष क्षेत्र में माल का निर्माण करता है, एक विशेष क्षेत्र में सामान इकट्ठा करता है, एक विशेष क्षेत्र में पैकेजिंग की छपाई करता है, एक विशेष क्षेत्र से माल का निर्यात करता है, तो यह सब ‘एक मार्क का उपयोग’ होगा।

इसके अलावा, प्रतिवादी की आपत्ति कि वर्तमान मामले में मुकदमा दायर करने के बाद की घटनाओं, यानी, दिल्ली में एक फ्रेंचाइजी के खुलने के दौरान पासिंग ऑफ की आशंका है, तो ऐसे में लक्ष्मीकांत बनाम पटेल बनाम चेतनभट शाह और अन्य के मामले में, लॉर्ड्स द्वारा प्रतिपादित किया गया था, कि पासिंग ऑफ़ का निर्धारण तथ्यों से नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वे मुकदमा दायर करने की तारीख पर मौजूद थे, लेकिन व्यवसाय के भविष्य के विस्तार को ध्यान में रखते हुए पता लगाया जा सकता है, जो वादी-पंजीकृत स्वामी को अपूरणीय (इरेपरेबल) हानि हो सकती है।

इसलिए, अदालत ने सही माना कि ट्रेडमार्क की धारा 134 और कॉपीराइट अधिनियम की धारा 62 अतिरिक्त हैं और सीपीसी की धारा 20 का बहिष्करण नहीं हैं, जहां तक ​​​​अधिकार क्षेत्र मंचों का संबंध है, और यदि वादी कारण बनाने में सफल होता है तो सीपीसी की धारा 20 के तहत अदालत के अधिकार क्षेत्र में कार्रवाई के लिए, उसे ट्रेडमार्क अधिनियम की धारा 134 का संदर्भ देने की आवश्यकता नहीं है।

निष्कर्ष

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 20 सामान्य कानून प्रावधान है, जो वादी को ऐसे स्थान पर मुकदमा चलाने का अधिकार प्रदान करती है जहां प्रतिवादी वास्तव में और स्वेच्छा से रह रहे हैं या लाभ के लिए व्यवसाय कर रहे हैं। सीपीसी की धारा 20 के पीछे विधायकों का इरादा वादी को प्रतिवादी के खिलाफ अपनी शिकायत रखने के लिए एक मंच प्रदान करना है, जिसके स्थानीय अधिकार क्षेत्र में, कार्रवाई का कारण या तो पूरी तरह से या आंशिक रूप से उत्पन्न हुआ है।

ट्रेडमार्क अधिनियम की धारा 134 के प्रावधान सीपीसी की धारा 20 की छत्रछाया के तहत अधिनियमित किए गए थे, जो वादी को मंच के अधिकार क्षेत्र के संबंध में लगभग समान अधिकार प्रदान करती है जहां वादी (पंजीकृत मालिक या पंजीकृत उपयोगकर्ता) अपने स्वयं के स्थान पर, या जहाँ वह लाभ के लिए व्यवसाय करता है, मुकदमा दायर कर सकता है।

धारा 134 में इस प्रकार प्रदान किया गया यह मंच सीपीसी की धारा 20 के तहत परिकल्पित मंच में जोड़ा गया है। ट्रेडमार्क अधिनियम की धारा 134 के दायरे के तहत धारा 20 की प्रयोज्यता (एप्लिकेबिलिटी) के दायरे को कम नहीं किया जा सकता है। सीपीसी की धारा 20 प्रकृति में प्रक्रियात्मक होने के कारण, हमेशा मूल कानून पर प्रबल होगी और ट्रेडमार्क अधिनियम की धारा 134 के साथ पढ़ी जाती है। न्याय न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) का लक्ष्य है।

लॉर्डशिप ने अपने ओबिटर डिक्टा में, वाणिज्यिक (कमर्शियल) न्यायालय अधिनियम द्वारा विनियमित वाणिज्यिक मामलों में स्वीकार/अस्वीकार के महत्व पर विचार किया था। शाब्दिक अर्थ में स्वीकार/अस्वीकार का अर्थ है विरोधी पक्षों द्वारा प्रदान किए गए दस्तावेजों की वास्तविकता या वैधता को स्वीकार करना या अस्वीकार करना। एक हलफनामे के माध्यम से स्वीकार/अस्वीकार के प्रावधानों को सम्मिलित करने में विधायकों का मुख्य उद्देश्य विचारणीय मुद्दों को कम करना और लंबे समय तक परीक्षण को रोकना और केवल उन दस्तावेजों को अस्वीकार करना है जिनके अस्तित्व, वास्तविकता या प्रामाणिकता विवादित है। लॉर्डशिप ने माना कि ट्रेडमार्क प्रमाण पत्र, कॉपीराइट प्रमाण पत्र, कानूनी नोटिस, उत्तर, ई-मेल पत्राचार (कॉरेस्पोंडेंस), सरकार द्वारा जारी दस्तावेजों जैसे दस्तावेजों को अस्वीकार करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि इस तरह के इनकार योग्यता से परे हैं और परीक्षण को लम्बा खींचते हैं। स्वीकार/अस्वीकार हलफनामा निष्पक्ष, प्रामाणिक होना चाहिए और केवल प्रमाणित प्रतियों (कॉपी)/मूल के साथ प्रत्येक दस्तावेज को साबित करने के लिए विरोधी पक्षों को परेशान करने के लिए दस्तावेज को अस्वीकार करके मुकदमे को लंबा नहीं करना चाहिए।

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here