यह लेख निरमा विश्वविद्यालय के विधि संस्थान के छात्र Paridhi Dave ने लिखा है। यह एक विस्तृत लेख है जो कई ऐतिहासिक निर्णयों के साथ आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत जांच रिपोर्ट की प्रक्रिया से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।
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परिचय
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 वह कानून है जो प्रक्रियात्मक पहलू को नियंत्रित करता है। यह न्याय के प्रशासन के लिए पालन की जाने वाली सभी प्रक्रियाओं के लिए एक तंत्र प्रदान करता है। यह भारत में मूल कानूनों के प्रशासन के लिए प्राथमिक कानून है, यानी भारतीय दंड संहिता, 1860 और अन्य आपराधिक क़ानून।
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत एक जांच रिपोर्ट की तैयारी अपराध का रिकॉर्ड बनाने के लिए की जाती है क्योंकि यह अपराध के कमीशन को निर्धारित करने के लिए एक महत्वपूर्ण आधार बनाती है। आपराधिक जाँच सत्य के खोज की प्रक्रिया है। भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के तहत, जानने का अधिकार या सही ज्ञान का अधिकार शामिल किया गया है। इसके दायरे में किसी भी व्यक्ति की मृत्यु का सही कारण जानने का अधिकार भी शामिल है।
यह लेख ऐतिहासिक निर्णयों के साथ-साथ जांच रिपोर्ट के प्रावधानों की व्याख्या करता है।
जांच (इनक्वेस्ट) रिपोर्ट
कोड में ‘जांच’ शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। जांच का अर्थ तथ्यों का पता लगाने के लिए कानूनी या न्यायिक जांच करना है। ब्लैक्स लॉ डिक्शनरी के अनुसार, ‘जांच’ शब्द का अर्थ चिकित्सा अधिकारियों द्वारा या कभी-कभी जूरी की मदद से किसी व्यक्ति की मौत के तरीके की जांच करना है, जो संदिग्ध परिस्थितियों में मर गया है या जेल में मर गया है। जांच रिपोर्ट से संबंधित प्रावधान संहिता के अध्याय XII के अंतर्गत दिए गए है।
प्राथमिक रूप से अप्राकृतिक मृत्यु के कारणों की जांच के लिए एक जांच रिपोर्ट बनाई जाती है। अप्राकृतिक मृत्यु के मामले में, परिस्थितियों की जांच की जानी चाहिए। राज्य अपने नागरिकों के लिए उनके स्वास्थ्य और जीवन को सुनिश्चित करने का कर्तव्य रखता है। जब कोई अपराध किया जाता है, तो वह राज्य के खिलाफ किया जाता है। अप्राकृतिक मृत्यु की परिस्थितियों में, मृत्यु के कारण का पता लगाना और उसके अनुसार आगे के उपाय करना राज्य का कर्तव्य है। जांच रिपोर्ट का उद्देश्य उन तथ्यों को स्थापित करना है जिनका उपयोग अपराधी को पकड़ने और दंडित करने के लिए किया जा सकता है।
संहिता के तहत प्रासंगिक प्रावधान
संहिता की धारा 174 के तहत पुलिस को अप्राकृतिक मौत के मामलों की जांच करने और रिपोर्ट करने का अधिकार दिया गया है। प्रावधान के पहले खंड में कहा गया है कि जब किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी (इन चार्ज) अधिकारी या राज्य सरकार द्वारा सशक्त कोई पुलिस अधिकारी सूचना प्राप्त करता है कि:
- एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली है;
- एक व्यक्ति को दूसरे ने मार डाला है;
- एक व्यक्ति को एक जानवर ने मार डाला है;
- एक व्यक्ति को मशीनरी द्वारा मारा गया है;
- एक व्यक्ति दुर्घटना से मारा गया है;
- एक व्यक्ति की मृत्यु ऐसी परिस्थितियों में हुई है जो एक उचित संदेह पैदा करती है कि किसी अन्य व्यक्ति ने अपराध किया है।
उपरोक्त मामलों में, पुलिस अधिकारी को तत्काल पास के कार्यकारी मजिस्ट्रेट को सूचित करना चाहिए, जिसे जांच करने का अधिकार है। इसके अलावा, वह उस स्थान पर जाएगा जहां मृत व्यक्ति का शरीर है और पड़ोस के दो या दो से अधिक सम्मानित निवासियों की उपस्थिति में, ऐसा पुलिस अधिकारी जांच करेगा और एक रिपोर्ट तैयार करेगा।
गवाहों के बयान जो जांच के दौरान दर्ज किए जाने हैं, संहिता की धारा 162 के निषेध (इन्हिबिशन) के भीतर हैं। इस धारा के तहत दर्ज किए गए बयान को एक ठोस सबूत के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। इसका उपयोग केवल परीक्षण में इसे बनाने वाले व्यक्ति की पुष्टि या खंडन करने के लिए किया जा सकता है। लेकिन, गवाहों के अपने बयानों पर हस्ताक्षर प्राप्त करने से पुलिस अधिकारियों की शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
संहिता की धारा 174(2) के तहत, रिपोर्ट पर जांच करने वाले पुलिस अधिकारी और अन्य व्यक्तियों द्वारा हस्ताक्षर किए जाने चाहिए, जिनमें वे भी शामिल हैं जो इससे सहमत हैं। यह रिपोर्ट तब जिला मजिस्ट्रेट या उप-मंडल मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है।
संहिता की धारा 174(3) के तहत एक महिला की मृत्यु से संबंधित विशेष परिस्थितियों को निर्धारित किया गया है। यह आपराधिक कानून (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, 1983 द्वारा जोड़ा गया था।
ऐसे मामलों में जहां:
- एक महिला ने अपनी शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या कर ली है;
- शादी के सात साल के भीतर एक महिला की मौत से उचित संदेह पैदा होता है कि किसी अन्य व्यक्ति ने ऐसी महिला के संबंध में अपराध किया है;
- एक महिला की मृत्यु उसके विवाह के सात वर्ष के भीतर हो गई हो और ऐसी महिला की ओर से उसके किसी रिश्तेदार ने अनुरोध किया हो;
- मृत्यु के कारण के संबंध में संदेह है;
- किन्हीं अन्य सहायक कारणों से संबंधित पुलिस अधिकारी ऐसा करना समीचीन (एक्सपीडियंट) समझते हैं।
उपरोक्त स्थितियों में, संबंधित पुलिस अधिकारी शरीर को जांच के लिए निकटतम सिविल सर्जन या राज्य सरकार द्वारा इन उद्देश्यों के लिए नियुक्त किसी अन्य योग्य चिकित्सा कर्मियों के पास अग्रेषित (फॉरवर्ड) करेगा। इस विवेक (डिस्क्रेशन) का प्रयोग विवेकपूर्ण और सावधानीपूर्वक तरीके से किया जाना चाहिए। शरीर को तभी आगे भेजा जाना चाहिए जब शरीर को आगे जांच के लिए तभी भेजना चाहिए जब, शरीर को ले जाते समय रास्ते में शरीर के सड़न का कोई खतरा न हो, जिससे परीक्षा बेकार हो जाएगी।
धारा 174(4) के तहत, मजिस्ट्रेटों को सूचीबद्ध किया गया है जिन्हें जांच करने का अधिकार है।
- कोई भी जिला मजिस्ट्रेट;
- कोई भी उप-मंडल (सब डिविजनल) मजिस्ट्रेट;
- कोई अन्य कार्यकारी (एक्जीक्यूटिव) मजिस्ट्रेट
इन मजिस्ट्रेटों को राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा इस क्षमता में कार्य करने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
संहिता की धारा 175 के तहत, पुलिस अधिकारी जो जांच कर रहा है वह एक लिखित आदेश द्वारा, उक्त जांच करने के उद्देश्य से ऊपर वर्णित दो या दो से अधिक व्यक्तियों को बुला सकता है। इसमें कोई भी व्यक्ति शामिल होगा जो मामले के तथ्यों से परिचित प्रतीत होता है। ऐसे सभी व्यक्ति जिन्हें बुलाया जाता है, उपस्थित होने और पूछे गए सभी प्रश्नों का सही उत्तर देने के लिए बाध्य हैं। वे ऐसे प्रश्नों का उत्तर नहीं देने का विकल्प चुन सकते हैं, जिनमें उन्हें आपराधिक आरोप या दंड या जब्ती के लिए उजागर करने की प्रवृत्ति हो। प्रावधान के खंड 2 के तहत, यह उल्लेख किया गया है कि यदि तथ्य एक संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध का खुलासा नहीं करते हैं, जिस पर संहिता की धारा 170 लागू होती है, तो ऐसे व्यक्तियों को मजिस्ट्रेट की अदालत में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं होगी।
रिपोर्ट की सामग्री और विवरण
पुलिस द्वारा संहिता की धारा 174(1) के तहत जो रिपोर्ट बनाई गई है, वह संपूर्ण प्रकृति की नहीं है। इसमें केवल मृत शरीर की पहली जानकारी दी जाती है। जांच करने वाले पुलिस अधिकारी को रिपोर्ट तैयार करनी होती है।
रिपोर्ट में निम्नलिखित विवरण (डिटेल्स) होना चाहिए:
- मौत का स्पष्ट कारण।
- मृत शरीर पर पाए गए घाव, फ्रैक्चर, चोट के निशान और चोट के अन्य निशान का विवरण।
- जिस तरह से इस तरह के निशान लगाए गए प्रतीत होते हैं।
- ऐसा हथियार या साधन (यदि कोई हो) जो ऐसा प्रतीत होता है कि इस तरह की चोट देने के लिए इस्तेमाल किया गया है।
मनोहरी और अन्य बनाम जिला पुलिस अधीक्षक एवं अन्य (2018) के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है, कि अप्राकृतिक मौतें जो दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 174 के तहत दर्ज हैं, ऐसे मामलो में पुलिस केवल कार्यकारी मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट प्रस्तुत करके मामले को बंद नहीं कर सकती है। चाहे जांच के परिणाम मिले या न मिले, पुलिस से अपेक्षा की जाती है कि वह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 173 के तहत अधिकार क्षेत्र रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष अंतिम रिपोर्ट दाखिल करेगी।
मजिस्ट्रेट द्वारा जांच
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 176 मजिस्ट्रेट द्वारा मृत्यु के कारणों की जांच से संबंधित है।
इस खंड को धारा 174 के अनुरूप पढ़ा जाता है, जिसमें धारा 174(3)(i) और धारा 174(3)(ii) पर विशेष जोर दिया गया है। यदि संदर्भित मामला इन उपरोक्त धाराओं की प्रकृति का है या संहिता की धारा 174(1) में उल्लिखित किसी अन्य मामले में है, तो मजिस्ट्रेट, जिसे मृत्यु के कारणों की जांच करने का अधिकार है, उनके पास सभी शक्तियां होंगी जो उसके पास अपराध की जांच करने के लिए होनी चाहिए। मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी द्वारा की गई जांच के बजाय या उस जांच के अलावा और जांच की जाती है।
धारा 176(1A) के तहत, न्यायिक मजिस्ट्रेट या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट, जिनके अधिकार क्षेत्र में अपराध किया गया है, उन्हें निम्नलिखित मामलों में जांच करने का अधिकार है।
- जहां कोई व्यक्ति मर गया है या गायब हो गया है;
- जब किसी महिला के साथ बलात्कार का आरोप लगाया जाता है;
मजिस्ट्रेट द्वारा यह जांच पुलिस द्वारा की गई जांच या उस जांच के अलावा और जांच की जाती है।
संहिता की धारा 176(2) के तहत, ऐसी जांच करने वाला मजिस्ट्रेट मामले की परिस्थितियों के अनुसार उसके संबंध में अपने द्वारा लिए गए साक्ष्य को रिकॉर्ड करने के लिए बाध्य है।
संहिता की धारा 176(3) के तहत, ऐसे मामलों में जहां शव का पहले ही अंत्य संस्कार हो चुका है और वह कब्र/मकबरे में रखा जा चुका है, ऐसे वक्त मृत्यु के कारणों का पता लगाने के लिए मजिस्ट्रेट शव को बाहर निकालने और उसकी जांच करने के लिए आदेश दे सकता है।
संहिता की धारा 176(4) के तहत, मजिस्ट्रेट, जो इस धारा के तहत जांच करता है, जहां भी संभव हो, उन्हे मृत व्यक्ति (जिसके नाम और पते ज्ञात हैं) के रिश्तेदारों को सूचित करना चाहिए और जाँच कराते समय उन्हें उपस्थित रहने की अनुमति देने के लिए बाध्य है। इस धारा की व्याख्या के अनुसार संबंधियों का अर्थ माता-पिता, बच्चों, भाइयों, बहनों और जीवनसाथी से है।
संहिता की धारा 176(5) के तहत दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 176(1a) के तहत मजिस्ट्रेट (न्यायिक या मेट्रोपोलिटन या कार्यकारी) या पुलिस अधिकारी जो जांच कर रहा है, वह मृतक के नजदीक के सिविल सर्जन या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किसी अन्य योग्य चिकित्सा व्यक्ति की जांच के लिए शव भेजने के लिए बाध्य है। यदि उनके लिए ऐसा करना संभव नहीं है, तो नहीं कर पाने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करना होगा।
इस धारा के तहत कार्यवाही न्यायिक कार्यवाही है और उच्च न्यायालय इस पर धारा 397 और धारा 401 या संहिता की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकता है।
एक जांच रिपोर्ट का दायरा
कई मामलों के कानूनों में एक जांच रिपोर्ट के दायरे पर चर्चा की गई है। कुछ ऐतिहासिक निर्णयों का उल्लेख नीचे किया गया है:
तहसीन पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 174 के दायरे पर चर्चा की है।
पेड्डा नारायण बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1975) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संहिता की धारा 174 के तहत जांच का दायरा सीमित प्रकृति का है। यह केवल यह पता लगाने के लिए है कि किसी व्यक्ति की संदिग्ध परिस्थितियों में या अप्राकृतिक मृत्यु हुई है और मृत्यु का स्पष्ट कारण पता नही है। इस उपरोक्त सिद्धांत को अमर सिंह बनाम बलविंदर सिंह (2003) में दोहराया गया था, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि धारा इस बात पर विचार नहीं करती है कि, किस तरह से घटना हुई या आरोपी के नामों का उल्लेख जांच रिपोर्ट में किया जाना चाहिए।
जांच करने का मूल उद्देश्य मृत्यु के स्पष्ट कारण का निर्धारण करना है। खुज्जी @ सुरेंद्र तिवारी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1991) , राधा मोहन सिंह उर्फ लाल साहब बनाम यूपी राज्य (2006) जैसे मामलों की एक श्रृंखला में इस दृष्टिकोण को बरकरार रखा गया है।
मनोज कुमार शर्मा बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2016) में, दो-न्यायाधीशों की पीठ ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 174 और धारा 175 के तहत आकस्मिक या संदिग्ध मौतों के मामलों में ‘जांच’ का उद्देश्य संहिता की धारा 157 के तहत ‘जांच’ से अलग है। इसे बिमला देवी बनाम राजेश सिंह (2016) में फिर से दोहराया गया, जिसमें यह माना गया कि इस खंड का उद्देश्य बरामद शरीर पर पहली नज़र में जो पता चला है उसको संरक्षित करना है और इसमें हर मिनट का विवरण शामिल करने की आवश्यकता नहीं है।
मधु उर्फ मधुरनाथ बनाम कर्नाटक राज्य (2014) में, सर्वोच्च न्यायालय की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा है कि एक जांच रिपोर्ट वास्तविक सबूत नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने योगेश सिंह बनाम महाबीर सिंह (2017) में कहा कि जांच रिपोर्ट को केवल जांच के गवाहों की सत्यता का परीक्षण करने के लिए देखा जा सकता है।
निष्कर्ष
एक जांच रिपोर्ट का दायरा उसके उन्मुखीकरण (ओरिएंटेशन) में बेहद सीमित है। इस विषय पर हाल ही में चर्चा इस प्रावधान में ‘लापता व्यक्तियों’ के मामलों को शामिल करने की है। यह प्रावधान प्रारंभिक जांच में केवल मृत शरीर की ‘पहली छाप’ निर्धारित करने के बारे में बताता हैं। विवरण से संबंधित प्रश्न कि मृतक पर कैसे हमला किया गया था या आरोपी कौन था या किन परिस्थितियों में उसके साथ मारपीट की गई थी, ऐसे विषय हैं जो संहिता की धारा 174 के दायरे से बाहर हैं। यह प्रावधान मुख्य रूप से अप्राकृतिक मौतों और दहेज से होने वाली मौतों से निपटने के लिए प्रतिबंधित है। बाद के मामलों में, यह विशेष प्रदर्शन को सूचीबद्ध करता है जिसका पुलिस कर्मियों को पालन करना होता है।
संदर्भ
- http://www.wbja.nic.in/wbja_adm/files/inquest%20report.pdf [Format of Inquest Report u/s 176 of the Code]
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