यह लेख नोएडा के सिंबॉयसिस लॉ स्कूल के Sushant Biswakarma ने लिखा है। यह लेख हिंदू कानून के तहत आपसी सहमति से तलाक के लिए चरणबद्ध (स्टेप बाई स्टेप) प्रक्रिया के साथ-साथ इसकी अनिवार्यता को बताता है और वैधानिक रूप से निर्धारित प्रतीक्षा अवधि की निर्देशिका (डायरेक्टरी) प्रकृति पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।
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परिचय
दुनिया भर के हर धर्म में शादी को हमेशा से एक पवित्र रिश्ता माना गया है। कहा जाता है कि रिश्ते स्वर्ग में बनते हैं और धरती पर केवल जोड़े एक दूसरे से मिलते हैं। यह सिर्फ दो लोगों के बीच का रिश्ता नहीं है, बल्कि दो अलग-अलग परिवारों के बीच का रिश्ता है। दो अलग-अलग परिवारों के दो अलग-अलग लोग शादी करने और एक नया परिवार शुरू करने के लिए एक साथ आते हैं। किसी भी तरह, विवाह अभी भी एक समझौता है और अन्य सभी प्रकार के समझौतों की तरह, इसे भी समाप्त किया जा सकता है।
भारत में विवाह के संबंध में कई कानून हैं जैसे भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872; मुस्लिम विवाह अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम और हिंदू विवाह अधिनियम। इस लेख में, हम केवल हिंदू विवाह अधिनियम के बारे में जानेंगे, और विशेष रूप से अधिनियम के अनुसार आपसी सहमति से विवाह को कैसे समाप्त किया जाए इसके बारे में जानेंगे।
हिंदू विवाह अधिनियम के तहत विवाह का विघटन (डिजोल्यूशन)
यदि हिंदू विवाह अधिनियम के तहत मान्य विवाह वैध है, और इसे समाप्त करने का एक कारण है – तो इसे धारा 10 के तहत न्यायिक पृथक्करण (ज्यूडिशियल सेपरेशन) या धारा 13 और धारा 13B के तहत तलाक के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है। धारा 13A तलाक की कार्यवाही में वैकल्पिक (अल्टरनेट) राहत प्रदान करती है।
न्यायिक पृथक्करण – (धारा 10)
न्यायिक पृथक्करण तलाक का एक विकल्प है – हालांकि, यह विवाह को समाप्त नहीं करता है। इसमें पक्ष सहवास में नहीं रहते हैं, लेकिन विवाह के अन्य दायित्व अभी भी अस्तित्व में होते हैं। पक्ष अभी भी पति-पत्नी होते हैं, भले ही वे अलग-अलग रह रहे हैं और वे यौन संबंध नहीं रखते हैं। न्यायिक पृथक्करण के मामले में कोई पुनर्विवाह नहीं कर सकता है।
भले ही पक्ष पति-पत्नी बने रहें, न्यायिक पृथक्करण के दौरान उन्हें दूसरे पक्ष की सहमति के बिना संभोग नहीं करना चाहिए। आईपीसी की धारा 376B में कहा गया है कि अगर कोई पुरुष न्यायिक पृथक्करण के दौरान अपनी पत्नी की सहमति के बिना उसके साथ यौन संबंध बनाने की कोशिश करता है, तो उसे 2 साल तक की जेल की सजा और/या जुर्माना हो सकता है।
अधिनियम की धारा 10 में उल्लेख किया गया है कि न्यायिक पृथक्करण के आधार वही हैं जो अधिनियम की धारा 13(1) के तहत प्रदान किए गए तलाक के आधार हैं।
तलाक – ( धारा 13 )
तलाक के मामले में, शादी को स्थायी रूप से समाप्त कर दिया जाता है। पक्षों से सभी वैवाहिक दायित्वों को हटा दिया जाता है और वे पुनर्विवाह के लिए स्वतंत्र होते हैं और पक्ष अब पति-पत्नी नहीं रहते हैं।
पक्ष यह चुनने के लिए स्वतंत्र हैं कि क्या वे न्यायिक पृथक्करण या तलाक की डिक्री चाहते हैं, अदालत संतुष्ट होने पर डिक्री दे सकती है।
न्यायिक पृथक्करण और तलाक के लिए आधार – धारा 13(1)
- व्यभिचार (एडल्ट्री): अपने पति या पत्नी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ यौन संबंध बनाना।
- क्रूरता: अपने जीवनसाथी के साथ क्रूर व्यवहार करता है।
- परित्याग (डिजर्शन): अपने पति या पत्नी को बिना किसी उचित आधार के कम से कम दो साल की अवधि के लिए छोड़ दिया है।
- रूपांतरण: किसी अन्य धर्म में रूपांतरित हो गया है।
- पागलपन: किसी मानसिक विकार से ग्रस्त है।
- कुष्ठ रोग (लेप्रोसी): एक लाइलाज और छूत बीमारी से ग्रस्त है।
- संसार को त्याग दिया है: ईश्वर के साथ जुड़ने या सत्य की खोज के लिए दुनिया को त्याग दिया है।
- सात साल से जिंदा नहीं सुना गया।
आपसी सहमति से तलाक – (धारा 13B)
ऐसे मामले में जहां उपरोक्त में से कोई भी आधार उपलब्ध नहीं है, लेकिन जब पक्ष चाहते हैं कि वे एक-दूसरे से शादी में नहीं रहना चाहते हैं या एक-दूसरे के साथ नहीं रह सकते हैं, वे हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13B के तहत आपसी सहमति से तलाक की मांग कर सकते हैं।
आपसी सहमति से तलाक की अनिवार्यता
पक्षों को अलग रहना चाहिए
अधिनियम की धारा 13B में प्रावधान है कि विवाह को आपसी सहमति से भंग करने के लिए, याचिका दायर करने से पहले पति या पत्नी को कम से कम 1 वर्ष की अवधि के लिए अलग रहना चाहिए।
एक वर्ष की यह अवधि जहां पक्ष अलग-अलग रहते हैं, याचिका दायर करने से ठीक पहले होनी चाहिए। धारा 13B के संदर्भ में “अलग रहने” का अर्थ यह नहीं है कि शारीरिक रूप से अलग-अलग जगहों पर रहना। पक्ष एक ही घर में रह सकते हैं, एक ही छत के नीचे रह सकते हैं लेकिन दोनों के बीच अभी भी दूरी हो सकती है।
यदि ऐसा है तो उन्हें पति-पत्नी के रूप में नहीं माना जाता है, तो वह अलग रहने के योग्य है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुरेशता देवी बनाम ओम प्रकाश के मामले में भी यही कहा गया था। यह स्पष्ट किया गया कि अलग रहने का मतलब अलग-अलग जगहों पर रहना जरूरी नहीं है। पक्ष एक साथ रह सकते हैं लेकिन जीवनसाथी के रूप में नहीं।
पक्ष एक साथ नहीं रह सकते है
कहा जाता है कि रिश्ते स्वर्ग में बनते हैं, लेकिन कई बार धरती पर पवित्र रिश्ते ज्यादा दिन तक नहीं चल पाते है। इन दिनों तलाक को बहुत हल्के में लिया जाता है और लोग इसे पहले उपाय के रूप में लेते हैं जबकि तलाक के कानून के पीछे इरादा इसे अंतिम उपाय बनाना था। कई बार शादी में ऐसा होता है कि पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ नहीं रह पाते और खुशी-खुशी साथ नहीं रह पाते है। तभी वे आपसी सहमति से तलाक का विकल्प चुनते हैं।
अफसोस की बात यह है कि अक्सर ऐसा होता है कि आपसी सहमति से तलाक की याचिका दायर करने से पहले मध्यस्थता और सुलह (आर्बिट्रेशन एंड कंसिलीएशन) की कोशिश करने और कई प्रयास करने के बाद भी पक्ष एक साथ नहीं रह पाते हैं।
प्रदीप पंत और अन्य बनाम एनसीटी दिल्ली सरकार में, पक्षों का विवाह हुआ और उनके विवाह से एक बेटी थी। हालांकि, उनके बीच मनमौजी मतभेदों के कारण, वे एक साथ नहीं रह पाए और अलग रहने का फैसला किया। अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद वे अपनी शादी में सामंजस्य नहीं बैठा पाए और खुद को फिर कभी पति-पत्नी के रूप में साथ नहीं देख पाए। तलाक की याचिका संयुक्त रूप से दायर की गई थी और उनके बच्चे के भरण पोषण और कस्टडी जैसे मुद्दों पर फैसला किया गया था और दोनों ने सहमति व्यक्त की थी।
पत्नी को उनकी बेटी की कस्टडी मिलेगी और पति के पास मिलने का अधिकार सुरक्षित रहेगा, इस पर दोनों ने आपस में सहमति जताई थी। दोनों पक्षों ने बिना किसी अनुचित प्रभाव के अपनी स्वतंत्र सहमति दी थी। अदालत ने पाया कि सुलह की कोई गुंजाइश नहीं थी और तलाक की डिक्री दी थी।
आपसी सहमति से तलाक के लिए याचिका दायर करने के बाद, पक्ष को 6 महीने की प्रतीक्षा अवधि दी जाती है, जिसे कूलिंग पीरियड भी कहा जाता है और इसे 18 महीने तक बढ़ाया जा सकता है। इस दौरान पक्षों को आत्ममंथन (इंट्रोस्पेक्ट) करना चाहिए और अपने फैसले पर विचार करना चाहिए।
यदि कूलिंग पीरियड के बाद भी पक्ष एक साथ नहीं रह पाते हैं, तो तलाक की याचिका जिला न्यायाधीश द्वारा पारित की जाती है।
वे पारस्परिक रूप से सहमत हुए हैं कि विवाह की समस्या को सुलझाना चाहिए
कुछ स्थितियों में – पक्ष अपनी शादी को एक और मौका देने का विकल्प चुन सकते हैं और आपसी सहमति से अपनी विवाह की समस्या सुलझा सकते हैं। प्रतीक्षा अवधि के दौरान, पक्ष कभी-कभी मेल-मिलाप करने और अपने रिश्ते को ठीक करने में सक्षम हो सकते हैं।
पहला प्रस्ताव पारित होने के बाद, पक्ष के पास दूसरा प्रस्ताव दायर करने के लिए कुल 18 महीने होते हैं और यदि वे उन 18 महीनों के भीतर ऐसा करने में विफल रहते हैं, तो ऐसा कहा जाता है कि दोनों पक्षों ने आपसी सहमति से प्रस्ताव वापस ले लिया है।
आपसी सहमति से तलाक की डिक्री प्राप्त करने की प्रक्रिया
चरण 1: संयुक्त रूप से याचिका दायर करना
हलफनामे (एफिडेविट) के रूप में तलाक की याचिका दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षरित की जाती है और उनके क्षेत्र में एक पारिवारिक अदालत में दायर की जाती है।
तलाक के लिए याचिका दायर करने में अदालत का अधिकार क्षेत्र एक प्रमुख मुद्दा नहीं होना चाहिए क्योंकि याचिका सामान्य नागरिक अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर दायर की जा सकती है जहां विवाह की पुष्टि की गई थी या जहां कोई भी पक्ष वर्तमान में रहता है।
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, याचिका दायर करने से पहले विवाह के पक्षों को कम से कम एक वर्ष के लिए अलग रहना चाहिए।
चरण 2: पहला प्रस्ताव
याचिका दायर करने के बाद पक्ष अदालत में पेश होंगे और अपना बयान देंगे। यदि अदालत संतुष्ट हो जाती है और बयान दर्ज किए जाते हैं तो पहला प्रस्ताव पारित किया जाता है, जिसके बाद पक्षों को दूसरा प्रस्ताव दाखिल करने में सक्षम होने से पहले 6 महीने की प्रतीक्षा अवधि दी जाएगी।
अधिनियम की धारा 13B(2) के तहत वैधानिक रूप से निर्धारित यह प्रतीक्षा अवधि पक्षों को आत्ममंथन करने और अपने निर्णय के बारे में सोचने के लिए है। यह उनके लिए सुलह करने और अपनी शादी को एक और मौका देने का समय है, अगर वे अपना मन बदलने का फैसला करते हैं।
किसी भी तरह, कभी-कभी अदालत को यकीन हो सकता है कि शादी बिना किसी वापसी के बिंदु पर पहुंच गई है और प्रतीक्षा अवधि केवल उनके दुख का विस्तार करेगी। उस मामले में, इस अवधि को अदालत द्वारा माफ किया जा सकता है। अगर माफ नहीं किया गया तो यह अवधि 18 महीने तक बढ़ सकती है। यदि पक्ष अभी भी तलाक लेना चाहते हैं तो वे अब दूसरा प्रस्ताव दायर कर सकते हैं। दूसरा प्रस्ताव 6 महीने की प्रतीक्षा अवधि के बाद और 18 महीने बीत जाने से पहले ही दायर किया जा सकता है।
चरण 3: दूसरा प्रस्ताव
यह तब होता है जब अंतिम सुनवाई होती है और बयान फिर से दर्ज किए जाते हैं। यदि भरण पोषण के लिए राशि और बच्चे की कस्टडी (यदि कोई हो) के मुद्दे आपसी सहमति से हैं तो तलाक की डिक्री इस चरण के बाद पारित की जाती है। इस चरण में शादी खत्म हो जाती है और आपसी सहमति से तलाक दे दिया जाता है।
क्या छह महीने की प्रतीक्षा अवधि अनिवार्य है?
तलाक लेना एक बहुत ही गंभीर मामला है, यह परिवारों को नष्ट और अलग कर देता है। लेकिन, दूसरी ओर, पक्षों को अपनी खुशी को चुनने और आगे बढ़ाने के अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए मिलता है क्योंकि अगर पति-पत्नी खुश नहीं हैं तो वैवाहिक रिश्ते में बने रहने का कोई मतलब नहीं है। आपसी सहमति से तलाक दाखिल करने के लिए जाने वाले जोड़ों को अपनी शादी बचाने की कोशिश करने और उसे बचाए रखने का समय दिया जाता है। उन्हें सलाह दी जाती है कि वे अपने मुद्दों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता और सुलह के लिए जाएं।
हालांकि, कई बार ये प्रयास काम नहीं करते हैं और लोग वास्तव में तलाक ले लेते हैं।
आपसी सहमति से तलाक के लिए याचिका दाखिल करते समय पक्ष वैधानिक आवश्यकता के अनुसार पहले से ही एक वर्ष से अधिक की अवधि के लिए अलग-अलग रह चुके होते हैं। इसलिए, इस बात की बहुत कम या कोई संभावना नहीं है कि वे फिर से शादी को बचाने का प्रयास करे।
अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर के मामले में, यह देखा गया कि दंपति के बीच आंतरिक विवाद थे और उनका वैवाहिक जीवन अच्छा नहीं था। विवाद वास्तव में खराब हो गया था और उसमे कई दीवानी और आपराधिक कार्यवाही चलाई गई थी।
उन्होंने आपसी सहमति से सभी विवादों को सुलझाने और तलाक के लिए याचिका दायर करने का फैसला किया। यह निर्णय दिया गया था की उनके बच्चों की कस्टडी पति के पास होगी और पत्नी को स्थायी भरण पोषण के लिए राशि दिया जाएगा।
इन सभी मुद्दों को पक्षों द्वारा आपसी सहमति से हल किए जाने के बाद वे बस एक त्वरित तलाक चाहते थे और प्रतीक्षा अवधि को माफ करने की मांग कर रहे थे। पक्ष अब एक-दूसरे के साथ नहीं रह सकते थे और प्रतीक्षा अवधि केवल उनकी पीड़ा को बढ़ानेवाली थी।
इसे ध्यान में रखते हुए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि छह महीने की प्रतीक्षा अवधि को माफ किया जा सकता है यदि अदालत संतुष्ट हो जाती है कि पति-पत्नी कम से कम एक वर्ष के वैधानिक रूप से निर्धारित समय से अधिक समय से अलग रह रहे हैं और उन्होंने भरण पोषण के लिए राशि और बच्चों की कस्टडी (यदि कोई हो) मुद्दों को सुलझा लिया है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी देखा कि प्रतीक्षा अवधि कुछ नहीं करेगी, लेकिन केवल एक साथ रहने में असमर्थ पक्षों के दुखों और कष्टों को और बढ़ाएगी।
के ओमप्रकाश बनाम के नलिनी के मामले में, पक्ष अपनी शादी से खुश नहीं थे और कथित तौर पर उनके दूसरे व्यक्तियों के साथ संबंध थे। याचिकाकर्ता का तर्क था कि वे एक साल से अधिक समय से एक-दूसरे से अलग रह रहे थे और इसलिए उनके बीच सुलह की कोई गुंजाइश नहीं थी।
उन्होंने एक-दूसरे को अपने दुख के लिए जिम्मेदार ठहराया। दोनों ने एक-दूसरे पर अवैध संबंधों की एक श्रृंखला में शामिल होने का आरोप लगाया, लेकिन उन्होंने इस तरह के रिश्तों में शामिल होने से इनकार किया।
आपसी सहमति से तलाक के लिए याचिका दायर करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था। उनके शादी को अपूरणीय क्षति हुई थी जो कुछ भी करने पर पहले जैसी नहीं हो सकती थी।
दोनों पक्षों ने तत्काल तलाक और प्रतीक्षा अवधि को माफ करने के लिए प्रार्थना की। यह देखते हुए कि पक्ष काफी लंबे समय से अलग-अलग रहते थे और शादी के रिश्ते को फिर से अच्छा करने की कोई गुंजाइश नहीं थी।
आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने माना कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13B (2) को वैधानिक आदेश के रूप में नहीं, बल्कि केवल एक निर्देशिका के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।
इसलिए, प्रतीक्षा अवधि जो कभी प्रकृति में अनिवार्य थी, अब विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) है।
क्या सहमति एकतरफा वापस ली जा सकती है?
पहले प्रस्ताव के बाद, यदि पक्ष को प्रतीक्षा अवधि प्रदान की जाती है, तो वे कभी-कभी अपना विचार बदलने का निर्णय ले सकते हैं। तलाक के सभी मामले अपूरणीय (इर्रीपरेबल) नहीं होते हैं और कुछ में अभी भी सुलह की कुछ गुंजाइश हो सकती है और पक्ष अपनी सहमति वापस लेने और अपनी शादी को दूसरा मौका देने का विकल्प चुन सकते हैं।
प्रतीक्षा अवधि कुछ मामलों के लिए बहुत उपयोगी साबित होती है क्योंकि पक्ष को मध्यस्थता के लिए जाना पड़ता है जिससे उनका विचार बदल सकता है। ऐसा माना जाता है की 18 महीने की प्रतीक्षा अवधि की समाप्ति के बाद पक्षों द्वारा तलाक के लिए सहमति भी वापस ले ली गई है, तो तलाक की डिक्री नहीं दी जाएगी।
वाक्यांश “आपसी सहमति से तलाक” स्व-व्याख्यात्मक (सेल्फ एक्सप्लेनेटरी) है, इसका सीधा सा मतलब है कि अदालत को तलाक की डिक्री देने के लिए दोनों पक्षों की सहमति आवश्यक है। सुरेशता देवी बनाम ओम प्रकाश में, तलाक के लिए याचिका दाखिल करने के लिए पति द्वारा धोखे से पत्नी की सहमति प्राप्त की गई थी। पत्नी तलाक के लिए अपनी सहमति देने को तैयार नहीं थी और इसलिए उसने एकतरफा अपनी सहमति रद्द कर दी।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पढ़ने के बाद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि एक पक्ष अपनी सहमति को एकतरफा वापस ले सकता है यदि वह स्वतंत्र रूप से नहीं दी गई है।
पहला प्रस्ताव पारित होने के बाद पक्ष भरण पोषण, बच्चों की कस्टडी और अन्य वैवाहिक खर्चों जैसे विभिन्न मुद्दों पर समझौता करने के लिए सहमत हो सकते है। अब, यदि एक पक्ष अपनी एकतरफा सहमति वापस ले लेता है तो दूसरे पक्ष को पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) हो सकता है जो अपरिवर्तनीय हो सकता है।
रजत गुप्ता बनाम रूपाली गुप्ता में, अदालत का कहना है कि पक्षों के बीच अपने मुद्दों को निपटाने और आपसी सहमति से तलाक का विकल्प एक बाध्यकारी समझौता और उपक्रम (अंडरटेकिंग) का एक रूप है। यदि कोई पक्ष एकतरफा अपनी सहमति वापस ले लेता है, तो वे कानून की अदालत के समक्ष किए गए अपने उपक्रम का उल्लंघन करेंगे, जिसके परिणामस्वरूप जानबूझकर एक उपक्रम की अवज्ञा करके अदालत की दीवानी अवमानना (सिविल कंटेंप्ट) होगी। यदि सहमति को एकतरफा वापस लेना है, तो इसे उचित आधार पर किया जाना चाहिए और यहा दूसरे पक्ष को पूर्वाग्रह का शिकार नहीं होना चाहिए।
इसलिए, सहमति केवल असाधारण मामलों में ही उचित आधार पर एकतरफा वापस ली जा सकती है।
निष्कर्ष
तलाक एक गंभीर मुद्दा है और इसे केवल अंतिम उपाय के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, हालांकि, इन दिनों लोग तलाक लेने से पहले दो बार भी नहीं सोचते हैं। यह परिवारों को विभाजित करता है और अलग होने वाले जोड़े के बच्चे को अलग माता-पिता के साथ बड़े होने पर गंभीर आघात से गुजरना पड़ता है।
यह सब कहने के बाद, उच्च तलाक दर वाले देशों में महिला सशक्तिकरण के उच्च मानक (स्टैंडर्ड) हैं। लोग खुश नहीं होने पर विवाह समाप्त करने के अपने अधिकार का प्रयोग करते हैं।
आपसी सहमति से तलाक, तलाक का सबसे अच्छा तरीका है क्योंकि पक्ष को न्यायालय कक्ष में एक-दूसरे का बुरा नहीं करना पड़ता है और दोनों पक्ष परस्पर सभी मुद्दों पर समझौता कर सकते हैं और अपनी शादी को समाप्त कर सकते हैं।
संदर्भ