यह लेख डॉ. ग्लोबल अम्बेडकर लॉ इंस्टीट्यूट, तिरुपति आंध्र प्रदेश के छात्र Kuberan द्वारा लिखा गया है। यह लेख डिजिटल साक्ष्य, इससे संबंधित कानूनों और भारतीय न्यायालयों में इसकी स्वीकार्यता के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय
साक्ष्य हर मामले को तय करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। साक्ष्य दो प्रकार के होते हैं, मौखिक और दस्तावेजी। दस्तावेजी साक्ष्य को फिर से दो प्रकारों में विभाजित किया गया है, प्राथमिक साक्ष्य और द्वितीयक (सेकेंडरी) साक्ष्य। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 61 से 90A दस्तावेजी साक्ष्य से संबंधित है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 61 से 90A में उल्लिखित प्रक्रिया के अनुसार दिवानी (सिविल) और आपराधिक दोनों कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत सभी दस्तावेजों को स्वीकार किया जाता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का यह विशेष अध्याय जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) और तर्क की कला के साथ मामले का फैसला करता है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65 क्या है?
धारा 65 उन परिस्थितियों के लिए प्रावधान करती है जिनमें प्राथमिक साक्ष्य दाखिल किए बिना द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है। हालांकि, पक्ष धारा 65 को समाप्त किए बिना द्वितीयक साक्ष्य को स्वीकार करने के लिए न्यायालय की अनुमति नहीं ले सकती है। दूसरे शब्दों में, पक्ष को द्वितीयक साक्ष्य दाखिल करने के लिए वास्तविक कारण दिखाना चाहिए और इसे स्वीकार करना न्यायालय का विवेकाधिकार है। वे परिस्थितियाँ इस प्रकार हैं:
- ऐसे मामलों में जहां मूल दस्तावेज की प्रति विरोधी पक्ष के पास हो या ऐसे व्यक्ति के पास हो जो पहुंच से बाहर हो या ऐसे व्यक्ति के पास हो जिसने नोटिस के बाद मूल दस्तावेज देने से इनकार कर दिया हो।
- ऐसे मामलों में जहां मूल दस्तावेज़ की सामग्री को बाद में दूसरे दस्तावेज़ के माध्यम से विरोधी पक्ष द्वारा स्वीकार किया गया है।
- ऐसे मामलों में जहां मूल दस्तावेज खो गया है या एक सार्वजनिक दस्तावेज है या मूल दस्तावेज को आसानी से स्थानांतरित (मूव) नहीं किया जा सकता है। यदि कोई सार्वजनिक दस्तावेज या कोई अन्य दस्तावेज जिसकी प्रमाणित प्रति कानून के तहत प्राप्त की जा सकती है, तो उस प्रमाणित प्रति को द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
- जब मूल दस्तावेज़ में कई खाते होते है, तो एक कुशल व्यक्ति द्वारा जांचे गए दस्तावेज़ के हिस्से को द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य के बीच अंतर
प्राथमिक साक्ष्य ही मूल दस्तावेज है, जबकि द्वितीयक साक्ष्य प्राथमिक साक्ष्य से बनी प्रति है।
मूल दस्तावेज़
- जब किसी दस्तावेज़ को कई भागों में निष्पादित किया जाता है, तो प्रत्येक भाग को प्राथमिक साक्ष्य माना जाता है। उदाहरण के लिए एक ऋण समझौते में, यदि उधारकर्ता ने सभी पृष्ठों (पेज) पर हस्ताक्षर किए हैं, तो प्रत्येक पृष्ठ को प्राथमिक साक्ष्य माना जाता है।
- यदि किसी दस्तावेज़ को दो प्रतियों में निष्पादित किया जाता है, तो प्रत्येक प्रति को प्राथमिक साक्ष्य माना जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई अनुबंध दो या दो से अधिक पक्षों के बीच किया जाता है, तो प्रत्येक अनुबंध समझौते को प्राथमिक साक्ष्य माना जाता है।
- यदि एक ही यांत्रिक (मैकेनिकल) प्रक्रिया द्वारा कई दस्तावेज तैयार किए जाते हैं, तो उस यांत्रिक प्रक्रिया के एक दस्तावेज को उसी यांत्रिक प्रक्रिया के तहत तैयार किए गए अन्य दस्तावेजों के प्राथमिक साक्ष्य के रूप में माना जाता है।
- उपरोक्त मूल दस्तावेज से बनाई गई प्रतियों को द्वितीयक साक्ष्य माना जाएगा।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65A
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65A और धारा 65B को भारतीय साक्ष्य (संशोधन) अधिनियम, 2000 के माध्यम से जोड़ा गया था। धारा 65A और 65B का मुख्य उद्देश्य साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता को स्पष्ट करना है। धारा 65A के अनुसार, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सामग्री को धारा 65B के तहत दी गई प्रक्रिया से साबित किया जा सकता है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65B
धारा 65B इलेक्ट्रॉनिक उपकरण (डिवाइस) और उन परिस्थितियों के बारे में बात करती है जिनके तहत साक्ष्य दर्ज किए जाते हैं। यह साक्ष्य की रिकॉर्डिंग के दौरान इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की स्थितियों के बारे में भी बात करता है। धारा 65B की उप-धारा 1 कंप्यूटर आउटपुट को परिभाषित करती है। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट), 2000 की धारा 2 के साथ इस धारा को पढ़ते समय, यह माना जा सकता है कि कोई भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे कि कंप्यूटर, मोबाइल फोन, टेप रिकॉर्डर, या वीडियो रिकॉर्डर, जिसमें जानकारी संग्रहीत (स्टोर) करने, संसाधित (प्रोसेस) करने और भेजने की क्षमता को इलेक्ट्रॉनिक उपकरण माना जाता है। इन उपकरणों को आमतौर पर “कंप्यूटर आउटपुट” कहा जाता है।
धारा 65B के तहत इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए शर्तें
यदि किसी इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड में निहित कोई भी जानकारी जो कागज में छपी है, संग्रहीत, रिकॉर्ड की गई है, या कंप्यूटर द्वारा उत्पादित ऑप्टिकल या मैग्नेटिक मीडिया में कॉपी की गई है, तो उसे एक दस्तावेज के रूप में माना जाएगा।
ऐसे दस्तावेज साक्ष्य के रूप में बिना किसी सबूत या मूल दस्तावेज को प्रस्तुत किए बिना स्वीकार्य होंगे यदि कंप्यूटर के लिए जिम्मेदार मालिक या व्यक्ति, जिसने साक्ष्य दर्ज किया है, वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65B (4) के तहत एक प्रमाण पत्र देता है, जिसमें कहा गया है:-
- साक्ष्य की रिकॉर्डिंग के दौरान कंप्यूटर की कार्यशील (वर्किंग) स्थिति।
- इसका, मालिक या ऑपरेटर द्वारा वैध उपयोग है।
- कंप्यूटर के नियमित उपयोग का विवरण।
- यदि सामान्य गतिविधि के दौरान किसी अन्य कंप्यूटर में जानकारी फीड की जाती है, तो इसके बारे में विवरण।
- संपूर्ण अवधि के दौरान कंप्यूटर की कार्यशील स्थिति का विवरण जिसमें सूचना संसाधित या निर्मित (क्रिएट) या स्थानांतरित की जाती है।
- यदि कंप्यूटर के एक समूह का उपयोग, सूचना बनाने या संसाधित करने के लिए किया जाता है, तो सभी कंप्यूटरों के बारे में विवरण और आगे, सभी कंप्यूटरों को एक ही कंप्यूटर के रूप में माना जा सकता है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65B के तहत प्रमाण पत्र कैसे प्राप्त करें?
कंप्यूटर के मालिक या कंप्यूटर का संचालन करने वाले व्यक्ति को जानकारी निर्मित करते समय इसके बारे में प्रमाणित करना चाहिए,
- उन परिस्थितियों को बताते हुए जिनमें इसे बनाया गया था।
- इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के उत्पादन में शामिल उपकरण और स्वामित्व के बारे में विवरण।
- रिकॉर्ड के उत्पादन की वैधता।
- अन्य मामले जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65B की उप-धारा 2 में दिए गए हैं।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि निर्मित की गई जानकारी सामान्य होनी चाहिए और दूसरों की गोपनीयता (प्राइवेसी) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई पति अपनी पत्नी की कॉल को उसकी अनुमति के बिना रिकॉर्ड करता है, तो रिकॉर्ड को साक्ष्य के रूप में नहीं माना जा सकता क्योंकि यह कार्य पत्नी की अनुमति के बिना किया गया था।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65 के अनुसार इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के दायरे में क्या आता है?
- कोई भी जानकारी जो किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से निर्मित, रिकॉर्ड और स्थानांतरित की जाती है, जो ऐसी जानकारी या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को बना सकती है, या संग्रहीत और स्थानांतरित कर सकती है, वह साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है।
- इलेक्ट्रॉनिक रूप में दर्ज की गई जानकारी को एक दस्तावेज माना जाता है। इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड और दस्तावेजों के कुछ उदाहरण- सेल फोन, कंप्यूटर, एटीएम रसीद, ईमेल, एसएमएस, आईपी एड्रेस, इंटरनेट ब्राउज़िंग इतिहास, कंप्यूटर प्रोग्राम में सहेजी गई फाइल, ई-फॉर्म, राजपत्र अधिसूचना (गैजेट नोटिफिकेशन), डेबिट कार्ड और क्रेडिट कार्ड लेनदेन, सीसीटीवी फुटेज आदि इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के दायरे में आते हैं।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65 को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 से कैसे जोड़ा गया है?
- जन धन योजना, डिजिटल इंडिया मिशन, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, मोबाइल बैंकिंग, सरकार द्वारा विभिन्न ई-सेवाओं और इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सटीकता जैसी योजनाओं के माध्यम से डिजिटल लेनदेन में वृद्धि के कारण, और ऐसे इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के कपटपूर्ण उपयोग को विनियमित (रेगुलेट) करने और रोकने के लिए इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड से संबंधित कानून तैयार करना महत्वपूर्ण माना जाता है।
- सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 को अधिनियमित करते समय, इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता के संबंध में भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 में धारा 65A और 65B को शामिल किया गया था।
- इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड, कंप्यूटर और कंप्यूटर नेटवर्क जैसे शब्दों की परिभाषा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 2 में दी गई है।
- सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000, एक कंप्यूटर सिस्टम को एक उपकरण या उपकरणों के संग्रह के रूप में परिभाषित करता है, जिसमें इनपुट (कीबोर्ड, माउस), आउटपुट (मॉनिटर, प्रिंटर), और सपोर्ट डिवाइस शामिल हैं और बाहरी फाइलों के साथ संयोजन (एमपी 3, एमपी 4, वर्ड, पीडीएफ) के रूप में उपयोग किए जाने में सक्षम हैं, जिसमें कंप्यूटर प्रोग्राम, इलेक्ट्रॉनिक निर्देश, इनपुट डेटा और आउटपुट डेटा शामिल हैं।
- कोई भी उपकरण जो तर्क, अंकगणित (आर्थमेटिक), डेटा संग्रह और पुनर्प्राप्ति (रिट्राइवल), संचार नियंत्रण और अन्य कार्य करता है, वह भी कंप्यूटर की परिभाषा के अंतर्गत आता है। आईटी अधिनियम की मदद से धारा 65A और 65B की अच्छी तरह से व्याख्या की जा सकती है।
भारत में साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता का विकास
1950 के दशक के दौरान, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड केवल टेप रिकॉर्डिंग और वीडियोग्राफी तक ही सीमित था। 1960 में महाराष्ट्र राज्य बनाम प्रकाश विष्णुराव माने (1979) में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता के संबंध में नियम बनाए थे। नियमों में अदालत में रिकॉर्ड को बजाना, विशेषज्ञ की राय से आवाज का विश्लेषण करना और घटना को रिकॉर्ड करने वाले और जिस व्यक्ति की आवाज रिकॉर्ड की गई है, उसकी जांच करना शामिल है।
2000 से पहले, न्यायालयों ने इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को अधिक हद तक साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया था। हालांकि, 2000 के बाद, न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को स्वीकार किया और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65B की उप-धारा 4 के तहत एक प्रमाण पत्र को वैकल्पिक माना (अर्चना रस्तोगी बनाम विवेक रस्तोगी, 2007)।
अब, लगभग सभी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा रहा है जैसे कि सीसीटीवी फुटेज, एटीएम रसीद, बैंक स्टेटमेंट, ई-फॉर्म, सरकारी आदेश, डिजिटल हस्ताक्षर आदि।
वर्ष 2000 से पहले क्या स्थिति थी?
2000 से पहले, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 61 से 65 को लागू करके इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को प्राथमिक साक्ष्य या द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाता था। यदि मूल दस्तावेज़ स्वयं प्रस्तुत किया जाता था, तो इसे प्राथमिक साक्ष्य के रूप में मना जाता था। अन्य मामलों में, इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य जोड़ने के लिए धारा 65 के तहत प्रक्रिया का पालन किया जाता था।
वर्ष 2000 के बाद क्या स्थिति थी
2000 के बाद, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65A और 65B के तहत इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को स्वीकार किया गया था। हालांकि, इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य जोड़ने के दौरान प्रमाण पत्र के उत्पादन के संबंध में संघर्ष कठिन था।
राज्य (एन.सी.टी. दिल्ली) बनाम नवजोत संधू @ अफसान गुरु 2005 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 65B (4) के तहत एक प्रमाण पत्र आवश्यक नहीं है और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 63 और 65 के माध्यम से इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य जोड़ा जा सकता है।
इस विचार को अनवर पी.वी बनाम पी.के.बशीर और अन्य (2014) के मामले में खारिज कर दिया गया था। जहां सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 65A और 65B अपने आप में कोड हैं और इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य जोड़ने के लिए उन धाराओं की प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए। फिर से, इस विचार को सर्वोच्च न्यायालय ने शफी मोहम्मद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य, (2018) में खारिज कर दिया था, जहां यह माना गया था कि धारा 65A और 65B के तहत प्रक्रिया केवल प्रक्रियात्मक है और इसलिए, इसका सभी परिस्थितियां में पालन करने की आवश्यकता नहीं है।
अंत में, इस भ्रम को सर्वोच्च न्यायालय की एक बड़ी बेंच ने अर्जुन पंडितराव खोतकर बनाम कैलाश कुशानराव गोरंट्याल, (2020) में सुलझा दिया था। जहां यह माना गया था कि धारा 65A और 65B के तहत प्रक्रिया अपने आप में एक कोड है और इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता के संबंध में सामान्य प्रावधानों को खारिज करती है। इसलिए, इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य जोड़ने के लिए 65A और 65B के प्रावधानों का पालन किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
संक्षेप में, इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य प्रस्तुत करते समय, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65A और 65B के तहत प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए। इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए उपकरण के मालिक या उपकरण के वैध ऑपरेटर द्वारा प्रमाण पत्र आवश्यक है। साथ ही, द्वितीयक साक्ष्य दाखिल करने के लिए, पक्ष के पास वास्तविक कारण होना चाहिए और द्वितीयक साक्ष्य दाखिल करने से पहले प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा, पक्ष को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 में दिए गए विकल्पों को समाप्त करने के बाद द्वितीयक साक्ष्य दाखिल करने के कारण का उल्लेख करना चाहिए। इसे द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकार करना न्यायालय का विवेकाधिकार है।
संदर्भ
- बेयर एक्ट ऑफ़ द इंडियन एविडेंस एक्ट 1872।
- रतनलाल और धीरजलाल द्वारा साक्ष्य का कानून