सीपीसी के तहत रेस सब-ज्यूडिस की प्रकृति, दायरा और उद्देश्य

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Civil Procedure Code
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यह लेख हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, रायपुर से द्वितीय वर्ष की लॉ की छात्रा Shruti Singh द्वारा लिखी गई है। यह लेख रेस सब-ज्यूडिस के सिद्धांत और इससे जुड़े विभिन्न मामलो की व्याख्या करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

अर्थ

रेस का अर्थ है प्रत्येक वस्तु का अधिकार जो किसी विशेष मामले में विषय वस्तु हो सकती है। लैटिन में, सब-ज्यूडिस शब्द का अर्थ है ‘एक जज के अधीन’ या दूसरे शब्दों में, ‘एक विचाराधीन मामला’। इसका अर्थ है एक ऐसा मामला जो किसी न्यायालय या न्यायाधीश के समक्ष विचाराधीन या लंबित (पेंडिंग) है। रेस-ज्यूडिकाटा का सिद्धांत एक ऐसे वाद की सुनवाई को रोकता है जो पहले से ही सक्षम अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) की अदालत में लंबित है। जब एक ही पक्ष एक ही मामले में दो या तीन मामले दायर करते हैं, तो सक्षम अदालत के पास दूसरे अदालत की कार्यवाही पर रोक लगाने की शक्ति होती है। इसका प्राथमिक उद्देश्य समवर्ती (कंकर्रेंट) अधिकार क्षेत्र वाली अदालतों को एक साथ दो समानांतर (पैरलल) मुकदमों पर विचार करने से रोकना है।

प्रकृति, दायरा और उद्देश्य

रेस सब-ज्यूडिस का सिद्धांत अदालत को किसी भी वाद की सुनवाई के साथ आगे बढ़ने से रोकता है जिसमें मामला काफी हद तक समान पक्षों के बीच पहले से स्थापित मुकदमे के समान है और समान अदालत में है जिसके पास मांगी गई राहत प्रदान करने की शक्ति है।

यह नियम वाद की सुनवाई पर लागू होता है न कि वाद को स्थापित करने पर। यह न्यायालय को निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) या रोक लगाने (स्टे) जैसे अंतरिम (इंटरिम) आदेश पारित करने से प्रतिबंधित नहीं करता है। हालांकि, यह रिवीजन और अपील पर लागू होता है।

इस नियम के पीछे का उद्देश्य अदालतों में मामलों की बहुलता को रोकना है। यह भी मांग की जाती है कि वादी को अपने पक्ष में अलग-अलग अदालतों से दो अलग-अलग निर्णय या दो विरोधाभासी निर्णय लेने से रोका जाए। यह वादी को अनावश्यक उत्पीड़न से बचाने के लिए भी सुनिश्चित करता है। कानून की नीति वादी को एक कानून तक सीमित रखना है, इस प्रकार एक ही राहत के संबंध में एक ही अदालत द्वारा दो परस्पर विरोधी फैसलों की संभावना को समाप्त करना है।

वाद का अर्थ

वाद शब्द को संहिता में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन यह एक कार्यवाही है जो एक वादपत्र (प्लेंट) की प्रस्तुति से शुरू होती है।  हंसराज गुप्ता और अन्य मे बनाम देहरादून-मसूरी इलेक्ट्रिक ट्रामवे कंपनी लिमिटेड के ऑफिशियल लिक्विडेटर, में प्रिवी काउंसिल ने अभिव्यक्ति “वाद” को एक वाद की प्रस्तुति द्वारा स्थापित एक सिविल कार्यवाही के रूप में परिभाषित किया है।

पांडुरंग रामचंद्र बनाम शांतिबाई रामचंद्र में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी भी कार्यवाही पर न्याय की अदालत में लागू होने के लिए वाद को समझा जाना चाहिए, जिसके द्वारा एक व्यक्ति उस उपाय को प्राप्त करता है जो उसे कानून प्रदान करता है।

शर्तें

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 10, रेस सब-ज्यूडिस के सिद्धांत को लागू करने के लिए आवश्यक शर्तों से संबंधित है। रेस सब-ज्यूडिस के आवेदन की प्रक्रिया में निम्नलिखित शर्तें हैं:

  • जहां मामला समान है

धारा 10 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दोनों वादों में मामला काफी हद तक एक जैसा होना चाहिए। दूसरे शब्दों में दो वाद होने चाहिए एक जो पहले स्थापित किया गया हो और दूसरा जिसे बाद में प्रतिस्थापित किया गया हो। इस सिद्धांत का लाभ पाने के लिए दोनों वादों के मुद्दे समान होने चाहिए, यदि केवल एक या दो मुद्दे समान हों तो यह पर्याप्त नहीं है। जिन परिस्थितियों में सभी मुद्दे समान नहीं होते हैं, उनमें अदालत धारा 151 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकती है और बाद के वाद की सुनवाई पर रोक लगा सकती है या वाद की सुनवाई को समेकित (कंसोलिडेट) किया जा सकता है। धारा 151 के तहत मुकदमे पर रोक लगाने की अदालतों की शक्ति विवेकाधीन प्रकृति की है और इसका प्रयोग तभी किया जा सकता है जब अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग होता है और यह न्याय के उद्देश्यों का उल्लंघन करता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अनुसार “मुद्दे में मामला” दो प्रकार के होते हैं:

  1. मामला सीधे और पर्याप्त रूप से मुद्दे में- यहां “सीधे” का अर्थ है तत्काल यानी बिना किसी हस्तक्षेप के। “पर्याप्त रूप से” शब्द का तात्पर्य अनिवार्य रूप से या भौतिक रूप से है।
  2. मामला संपार्श्विक (कोलेटरली) रूप से और आकस्मिक रूप से मुद्दे में- यह सीधे या पर्याप्त रूप से मुद्दे के विपरीत है।
  • जहां वाद में समान पक्ष है

दो वाद में एक ही पक्ष या उनके प्रतिनिधि होने चाहिए।

  • जहां वाद का शीर्षक समान है

दोनों वादों का शीर्षक जिनके लिए पक्ष मुकदमा कर रहे हैं, वह एक ही होना चाहिए।

  • वाद लंबित होना चाहिए

पहला वाद अदालत में लंबित होना चाहिए जबकि बाद वाला वाद स्थापित किया जाना चाहिए। लंबित शब्द पहले से स्थापित वाद के लिए है, जहां अंतिम निर्णय नहीं दिया गया है।

  • एक सक्षम अदालत में होना चाहिए

धारा 10 यह भी निर्दिष्ट करती है कि पहले वाला वाद एक अदालत, जो सुनवाई करने के लिए सक्षम है, के समक्ष लंबित होना चाहिए। यदि पिछला मुकदमा किसी अक्षम न्यायालय के समक्ष लंबित है, तो उससे कोई कानूनी प्रभाव नहीं निकल सकता है।

उदाहरण:

  • ‘X’ और ‘Y’ मशीन की बिक्री के लिए एक अनुबंध करने का निर्णय लेते हैं। ‘X’ विक्रेता है और ‘Y’ क्रेता है। Y ने X को बिक्री की राशि का भुगतान करने में चूक कर दी। X ने पहले बैंगलोर में पूरी राशि की वसूली के लिए एक वाद दायर किया। इसके बाद, X ने 20,000 रुपये की बकाया राशि की मांग के लिए बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक और वाद दायर किया। X के वाद में Y ने बचाव किया कि X के वाद पर रोक लगा दी जानी चाहिए क्योंकि दोनों वाद समान मुद्दे पर हैं। हालांकि बॉम्बे की अदालत ने माना कि चूंकि X के पहले वाद और दूसरे वाद में समान मुद्दे हैं, इसलिए बाद के वाद पर रोक लगाई जा सकती है।
  • P पटना में एक एजेंट था जो ओडिशा में M को माल बेचने के लिए सहमत हुआ। P एजेंट ने पटना में खातों के लिए एक वाद दायर किया। M ने ओडिशा में खातों और उसकी लापरवाही के लिए एजेंट P पर वाद दायर किया; जबकि मामला पटना में चल रहा था। इस मामले में, पटना की अदालत को सुनवाई करने से रोक दिया गया और वह पटना अदालत में कार्यवाही पर रोक लगाने के लिए ओडिशा अदालत को याचिका दायर कर सकता है।

जिस क्षण उपरोक्त शर्तें पूरी हो जाती हैं, अदालत बाद में स्थापित वाद पर आगे नहीं बढ़ सकती क्योंकि धारा 10 में निहित प्रावधान अनिवार्य हैं और अदालत अपने विवेक का प्रयोग नहीं कर सकती है। कार्यवाही के किसी भी चरण में रोक लगाने का आदेश दिया जा सकता है।

हालांकि, धारा 10 मामले के गुण-दोष की पूरी तरह से जांच करने की अदालत की शक्ति को छीन लेती है। अगर अदालत इस तथ्य से संतुष्ट है कि बाद के वाद का फैसला पूरी तरह कानूनी बिंदु पर किया जा सकता है, तो अदालत इस तरह के वाद में फैसला कर सकती है।

नीता बनाम शिव दयाल कपूर और अन्य में यह आयोजित किया गया था कि धारा 10 में उल्लिखित शर्तों को पूरा नहीं करने पर बाद के मामले को नहीं रोका जा सकता है। स्पष्ट मामले में, जिन दो न्यायालयों ने समान मुद्दों पर विचार किया, वे समवर्ती अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय नहीं थे। इसलिए, बाद की अदालत में कार्यवाही पर रोक नहीं लगाई गई।

परीक्षण

धारा 10 के लिए प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) का परीक्षण यह है कि क्या पहले वाले वाद में दिया गया निर्णय बाद के वाद में रेस ज्यूडिकाटा के रूप में काम करेगा। अगर ऐसा होता है, फिर बाद वाले वाद पर रोक लगानी चाहिए। इसका अनुमान एस.पी.ए.अन्नामलय चेट्टी बनाम बी.ए.थॉर्नबिल के मामले से भी लगाया जा सकता है।

विदेशी अदालत में वाद का लंबित होना

धारा 10 का स्पष्टीकरण खंड स्पष्ट रूप से प्रदान करता है कि यदि पहले से स्थापित वाद किसी विदेशी वाद में लंबित है, तो बाद में स्थापित वाद की सुनवाई करने के लिए भारतीय अदालत की शक्ति पर कोई सीमा नहीं है। इसका मतलब यह भी है कि मामलों को एक साथ दो अदालतों में चलाया जा सकता है।

रोक लगाने की अंतर्निहित (इन्हेरेंट) शक्ति

अंतर्निहित शब्द का बहुत व्यापक अर्थ है जिसमें किसी चीज का अविभाज्य (इंसेपरेब्ल) भाग या एक विशेषता या गुण शामिल होता है जो स्थायी और आवश्यक होता है। यह कुछ ऐसा है जो आंतरिक है और किसी व्यक्ति या वस्तु से जुड़ा हुआ है। इसलिए, अंतर्निहीत शक्तियाँ न्यायालयों की शक्तियाँ हैं जो अक्षम्य (इनेलिनेबल) हैं, अर्थात, कुछ ऐसा जिसे अदालतों से अलग या दूर नहीं किया जा सकता है और वे पक्षों को पूर्ण न्याय प्रदान करने के लिए इसका प्रयोग करते हैं।

यहां तक ​​कि जहां धारा 10 के प्रावधान सख्ती से लागू नहीं होते हैं, वहां भी एक सिविल अदालत के पास धारा 151 के तहत न्याय प्राप्त करने के लिए वाद पर रोक लगाने की अंतर्निहित शक्ति है। इसके अतिरिक्त अदालतें एक ही पक्ष के बीच विभिन्न वादों को भी समेकित कर सकती हैं जिसमें मुद्दे का मामला काफी हद तक समान है। बोकारो और रामगुर लिमिटेड बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) में मामला संपत्ति के स्वामित्व से संबंधित था। इस मामले में अदालत ने अपनी शक्ति का इस्तेमाल किया और एक ही मामले वाले विभिन्न मुद्दों को समेकित किया था।

वाद का समेकन

धारा 10 के पीछे का उद्देश्य एक ही मामले में अलग-अलग अदालतों द्वारा दो विरोधाभासी फैसलों से बचना है। इस पर काबू पाने के लिए अदालतें दोनों वादों के समेकन का आदेश पारित कर सकती हैं। अनुराग एंड कंपनी और अन्य बनाम अतिरिक्त जिला न्यायाधीश और अन्य के मामले में यह समझाया गया था कि न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए धारा 151 के तहत वादो के समेकन का आदेश दिया जाता है क्योंकि यह पक्ष को मामलों की बहुलता, देरी और खर्चों से बचाता है। पक्षों को दो अलग-अलग जगहों पर एक ही सबूत पेश करने से भी राहत मिली है।

उल्लंघन का प्रभाव

धारा 10 के उल्लंघन में पारित कोई भी डिक्री शून्य नहीं है और इसलिए इसकी पूरी तरह से अवहेलना नहीं की जा सकता है। यहां यह स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए कि यह केवल सुनवाई है, न कि बाद के मुकदमे को स्थापित करना जो इस धारा के तहत वर्जित है। लेकिन यह अधिकार जो पक्षों के पक्ष में दिया जाता है, उनके द्वारा माफ किया जा सकता है। इसलिए, यदि किसी वाद में पक्ष अपने अधिकारों को छोड़ने का फैसला करते हैं और अदालत से बाद के मुकदमे को आगे बढ़ाने के लिए कहते हैं, तो वे बाद की कार्यवाही की वैधता को चुनौती नहीं दे सकते है।

अंतरिम आदेश

अंतरिम आदेश अस्थायी आदेश हैं जो अंतिम आदेश से ठीक पहले सीमित अवधि के लिए पारित किए जाते हैं। धारा 10 के तहत रोक लगाने का आदेश अंतरिम आदेश पारित करने के लिए अदालत की शक्ति को नहीं लेता है। इसलिए, अदालतें ऐसे अंतरिम आदेश पारित कर सकती हैं जो वह ठीक समझे जैसे संपत्ति की कुर्की (अटैचमेंट), निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) आदि।

रेस ज्यूडिकाटा और रेस सब ज्यूडिस के बीच अंतर

रेस ज्यूडिकाटा रेस सब ज्यूडिस
रेस ज्यूडिकाटा एक निर्णय दिए हुए मामले पर लागू होता है। रेस सब ज्यूडिस एक ऐसे मामले में लागू होता है जो लंबित है।
यह एक सुनवाई या एक मुद्दे के परीक्षण को रोकता है जो पहले से ही एक वाद में तय हो चुका है। यह एक वाद की सुनवाई को रोकता है, जो पहले से स्थापित वाद में एक लंबित निर्णय है।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11, रेस ज्यूडिकाटा से संबंधित है। संहिता की धारा 10 विशेष रूप से रेस सब-ज्यूडिस के सिद्धांत से संबंधित है।
शर्तें:

  1. सक्षम अधिकार क्षेत्र की अदालत ने पूर्व स्थापित वाद में निर्णय दिया होगा।
  2. बाद के वाद में विचाराधीन मामला वही होना चाहिए जो पहले वाले वाद में प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) या पर्याप्त रूप से जारी था।
  3. दोनों वादो में पक्षों को समान होना चाहिए।
  4. जिस न्यायालय ने पहली वाले वाद में निर्णय दिया है वह सक्षम अधिकार क्षेत्र वाला न्यायालय होना चाहिए।
  5. पहले वाले वाद में पक्षों ने एक ही शीर्षक के तहत या दूसरे शब्दों में समान क्षमता में मुकदमा चलाया हो।
शर्तें:

  1. दो वादों की उपस्थिति होनी चाहिए एक जिसे पहले स्थापित किया गया था और दूसरा जिसे बाद में स्थापित किया गया था।
  2. बाद के वाद में मुद्दे काफी हद तक पिछले वाद के समान होने चाहिए।
  3. दोनों वादों में पक्ष समान होने चाहिए।
  4. जिस न्यायालय में पिछला वाद स्थापित किया गया था, वह ऐसा न्यायालय होना चाहिए जिसके पास इस तरह के वाद की सुनवाई के लिए सक्षम अधिकार क्षेत्र हो।
  5. दोनों वादों में शीर्षक भी एक जैसा होना चाहिए जिसके तहत वे मुकदमा कर रहे हैं।

निष्कर्ष

एक सिद्धांत के रूप में रेस सब ज्यूडिस का मुख्य उद्देश्य बहुतायत मामलों से अदालतों के बोझ को कम करना है। दूसरे तरीके से यह विभिन्न अदालतों में दो बार मौखिक या लिखित साक्ष्य पेश करने के पक्षों के बोझ को भी कम करता है। यह परस्पर विरोधी फैसलों से भी बचता है और अदालतों के संसाधनों की बर्बादी को कम करना सुनिश्चित करता है। अदालत इस शक्ति का प्रयोग कर सकती है और बाद के वाद पर रोक लगा सकती है। जो लोग दोहरा लाभ पाने के लिए अपने अधिकार का दुरुपयोग करने की कोशिश करते हैं, उनकी देखभाल इस सिद्धांत के माध्यम से की जाती है। वैसे भी भारतीय न्यायपालिका पर कई मामलों का बोझ है और यदि पक्ष दो बार मामले दर्ज करना शुरू कर देंगे तो ऐसे सभी मामलों में निर्णय देने में अदालतों की स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

संदर्भ

  • सिविल प्रोसीजर कोड, 1908

 

 

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