यह लेख एमिटी यूनिवर्सिटी कोलकाता की Harmanpreet Kaur ने लिखा है। यह लेख महिलाओं की सुरक्षा के लिए अधिनियमित (इनैक्ट) और पेश किए गए विभिन्न बलात्कार कानूनों के बारे में बताता है। यह लेख इस बारे में भी बात करता है कि पुरुष के बलात्कार से संबंधित कानूनों को क्यों मान्यता दी जानी चाहिए। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय (इंट्रोडक्शन)
बलात्कार भारत में चौथा सबसे आम प्रकार का जघन्य (हीनियस) अपराध है। यह एक ऐसा अपराध है, जिसमें पीड़िता को सहानुभूति देने के बजाय, उसे सामाजिक रूप से बहिष्कृत (ओस्ट्रेसाइज) और नैतिक (मोरल) रूप से अपमानित किया जाता है, जिससे उसकी गरिमा (डिग्निटी) और चरित्र पर जीवन भर का कलंक लगा रहता है, जिससे उसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। तमाम कड़े कानूनों के बावजूद, बलात्कार के मामलों में कोई कमी नहीं आई है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो (नेशनल क्राइम ब्यूरो) की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार; प्रतिदिन औसतन (एवरेज) 87 बलात्कार के मामले होते है और एक वर्ष में बलात्कार के लगभग 4-5 लाख मामले होते है। प्रचलित (प्रीवेलेंट) सामाजिक मानदंड (नॉर्म्स) अपराधी की जगह, हमेशा पीड़ित को ही किए गए अपराध के लिए दोषी ठहराते रहे हैं। हाल ही में, ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहां पुरुषों पर हिंसा की सूचना मिली थी। यह लेख महिलाओं की सुरक्षा के लिए उल्लिखित बलात्कार के विभिन्न कानूनों और बलात्कार और हिंसा से पुरुषों की सुरक्षा के लिए कानूनों को मान्यता देने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करेगा। गुवाहाटी उच्च न्यायालय द्वारा निपुण सक्सेना बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 2018 के मामले में यह देखा गया था कि “बलात्कार बुनियादी मानवाधिकारों के खिलाफ एक अपराध है और पीड़ित के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी है”।
महिलाओं के लिए बलात्कार का कानून – एक सिंहावलोकन (ओवरव्यू)
स्टेट ऑफ़ पंजाब बनाम गुरमीत सिंह और अन्य, 1996 के मामले में, जस्टिस अरिजीत पसायत द्वारा कहा गया था की, “सामान्य रूप से महिलाओं के खिलाफ अपराध और विशेष रूप से बलात्कार का अपराध, हाल ही में बढ़ते दिख रहे हैं…बलात्कार केवल एक शारीरिक हमला नहीं है- यह अक्सर पीड़ित के पूरे व्यक्तित्व के लिए विनाशकारी होता है। एक हत्यारा पीड़ित के भौतिक शरीर को नष्ट कर देता है; एक बलात्कारी असहाय महिला की आत्मा को ही नीचा दिखाता है। इसलिए न्यायालयें बलात्कार के आरोप में एक आरोपी पर मुकदमा करते समय एक बड़ी जिम्मेदारी लेती हैं।”
सदियों से महिलाएं बलात्कार की शिकार होती रही हैं; यह एक महिला के निजी स्थिति का उल्लंघन है। यदि हम महिलाओं के खिलाफ बलात्कार के आंकड़ों पर नजर डालें तो राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो रिकॉर्ड्स बताते है कि समान रूप से लगभग 75 प्रतिशत बलात्कारी विवाहित पुरुष हैं; 86 प्रतिशत महिलाएं अपने-अपने शहरों में सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं और हर 10 बलात्कारियों में से तीन या तो दोस्त या रिश्तेदार में से होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर 4 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता है, जबकि सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ वूमेन स्टडीज के अनुसार, भारत में हर 35 मिनट में 42 महिलाओं का बलात्कार होता है।
‘बलात्कार’ (खासकर के रेप) शब्द लैटिन शब्द ‘रेपियो’ से बना है जिसका अर्थ है ‘जब्त करना’ है। इसे महिलाओं की सहमति के बिना, बल, भय, या धोखाधड़ी के द्वारा उनकी बर्बादी के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
बलात्कार का अपराध करने वाले अपराधी को दंडित करने के लिए विधायिका (लेजिस्लेचर) द्वारा कई कानून बनाए और पेश किए गए है। भारतीय दंड संहिता में विधायिका द्वारा पेश किए गए विभिन्न कानून इस प्रकार हैं:
धारा 375
धारा – 375 ‘बलात्कार’ शब्द को परिभाषित करता है। इसमें कहा गया है कि “एक पुरूष को “बलात्कार” के अपराध का अपराधी तब माना जाता है, यदि वह-
- अपने लिंग (पेनिस) को किसी भी हद तक किसी महिला की योनि (वजीना), मुंह, मूत्रमार्ग (यूरेथरा), या एनस में घुसाता है या उससे ऐसा करवाता है या अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिए कहता है; या
- किसी महिला की योनि, मूत्रमार्ग या एनस में किसी भी वस्तु या शरीर का कोई अंग, जो लिंग नहीं है, सम्मिलित (इंसर्ट) करता है या उससे ऐसा करवाता है या अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिए कहता है; या
- एक महिला के शरीर के किसी भी हिस्से को योनि, मूत्रमार्ग, एनस, या ऐसी महिला के शरीर के किसी भी हिस्से में प्रवेश (पेनेट्रेशन) करने के लिए प्रेरित करता है या उससे ऐसा करवाता है या अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिए कहता है; या
- एक महिला की योनि, एनस, मूत्रमार्ग पर अपना मुंह लगाता है या निम्नलिखित सात विवरणों में से किसी के तहत आने वाली परिस्थितियों में उससे ऐसा करवाता है या अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिए कहता।
दूसरे शब्दों में, एक पुरुष को बलात्कार के अपराध का अपराधी तब कहा जाता है, अगर उसकी सहमति और इच्छा के बिना योनि, मूत्रमार्ग, और एनस या किसी महिला के शरीर के किसी अंग में किसी वस्तु या शरीर के किसी हिस्से का प्रवेश बिना सहमति के होता है।
धारा- 376
धारा 376 में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति बलात्कार का अपराध करता है, तो उसे कम से कम 7 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा से दंडित किया जाएगा, और साथ ही वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
सामूहिक बलात्कार
धारा – 376 D, ‘सामूहिक बलात्कार’ के अपराध को परिभाषित करती है। आपराधिक संशोधन अधिनियम (क्रिमिनल अमेंडमेंट एक्ट), 2013 में न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी) द्वारा सामूहिक बलात्कार के अपराध को अपराध घोषित किया गया था।
‘सामूहिक बलात्कार’ का अपराध करने वाले व्यक्ति को कम से कम 20 साल की सजा हो सकती है जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है और वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
हिरासत में बलात्कार (कस्टडियल रेप)
धारा – 376 (2) “हिरासत में बलात्कार” के अपराध को परिभाषित करती है। इसमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति, जो अधिकार की स्थिति में है या किसी भरोसेमंद संबंध में है, एक लोक सेवक, अधीक्षक (सुपरिटेंडेंट), या जेल प्रबंधक (मैनेजर) या सरकारी केंद्रों में कोई अस्पताल या पुलिस हिरासत, किसी भी महिला पर बलात्कार का अपराध करते है, तो हिरासत में बलात्कार के अपराध के तहत मुकदमा चलाया जाएगा। हिरासत में बलात्कार का अपराध करने वाले किसी भी व्यक्ति को 5 साल की कैद, जिसे 10 साल तक बढ़ाया जा सकता है, से दंडित किया जाएगा।
वैवाहिक बलात्कार
भारतीय दंड संहिता के तहत वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं बनाया गया है, इस अपराध का उल्लेख बलात्कार के अपवादों के तहत किया गया है। इसमें कहा गया है कि यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध रखता है, जिसकी आयु 15 वर्ष से कम नहीं है, तो वह बलात्कार के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना जाना चाहिए, और यदि कोई महिला अपने पति के साथ संभोग (सेक्शुअल इंटरकोर्स) के लिए सहमति नहीं देती है, और कोई पुरुष उस पर किसी भी प्रकार का बल और धमकी देता है, तो वह वैवाहिक बलात्कार के अपराध के लिए उत्तरदायी होगा। अमेरिका, स्वीडन, डेनमार्क, ऑस्ट्रेलिया और यू.के. में इस गलत व्यवहार को अपराध घोषित कर दिया गया है।
केस कानून
तुका राम बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र राज्य, 1979
इस मामले में मथुरा नाम की एक लड़की को देसाईगंज थाने में बुलाया गया था, जहां उसके भाई ने उसके अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराई थी। जब मथुरा और उसके पिता पुलिस स्टेशन से बाहर जाने वाले थे, तो मथुरा को रोक लिया गया और बहुत देर रात तक थाने में रखा गया और 26 मार्च, 1972 को हिरासत में पुलिस कांस्टेबल द्वारा उसका बलात्कार किया गया था।
पीड़िता और उसके परिवार द्वारा मामले को सत्र न्यायालय (सेशन कोर्ट) में ले जाया गया था, लेकिन न्यायाधीश ने आरोपी के पक्ष में फैसला सुनाया और उसे मौन रहकर सहमति देने के औचित्य (जस्टिफिकेशन) पर बलात्कार के सभी आरोपों से बरी कर दिया गया था। फिर मामले को बॉम्बे उच्च न्यायालय में ले जाया गया और न्यायालय ने सत्र न्यायालय के फैसले का विरोध किया और पुलिस कांस्टेबल को बलात्कार के अपराध के लिए दोषी ठहराया था। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस फैसले को उलट दिया और कहा कि चूंकि व्यक्ति (अपराधी) पर चोट के कोई निशान नहीं थे, तो यह दर्शाता है कि पूरा मामला शांति पूर्वक किया गया था, और इसलिए आरोपी को बरी कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह व्यापक (वाइड) रूप से आलोचना (क्रिटिसाइज) हुई और देश में इसका भारी विरोध हुआ था। इसके परिणामस्वरुप, सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया गया और आरोपियों को बलात्कार के अपराध का दोषी ठहराया गया। मथुरा बलात्कार कांड, बलात्कार कानून में कुछ विकास लेकर आया था। किए गए विकास कुछ इस प्रकार थे:
- इसने भारतीय साक्ष्य अधिनियम (इंडियन एविडेंस एक्ट) की धारा 114 A को अधिनियमित (इनैक्ट) करते हुए कहा कि सहमति के संबंध में अनुमान पीड़ित पर निहित होना चाहिए।
- हिरासत में बलात्कार के अपराध का अपराधिकरण (क्रिमिनलाइजेशन) किया गया था।
- सबूत के बोझ के विचार को संशोधित (अमेंड) किया गया था, जिसमें कहा गया था कि यह अभियोजन पक्ष (प्रॉसिक्यूशन) पर निर्भर करेगा।
- भारतीय दंड संहिता में धारा- 228 A को पेश किया गया था, जिसमें बलात्कार के मामलों में पीड़िता की पहचान उजागर करने और प्रकाशित करने पर रोक लगाई गई थी।
निर्भया बलात्कार केस (मुकेश बनाम स्टेट एन.सी.टी. ऑफ दिल्ली), 2012
इस मामले में, 12 दिसंबर 2012 की रात एक बस में पांच लोगों व एक नाबालिग ने एक महिला का बहुत बुरा तरह से बलात्कार किया था। बलात्कार ने, पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए संसद के बाहर काफी आक्रोश पैदा किया। चार वयस्कों (एडल्ट्स) को मौत की सजा सुनाई गई, और एक किशोर को किशोर केंद्र (जुवेनाइल सेंटर) भेज दिया गया था। इस मामले के बाद, भारतीय आपराधिक कानून में बहुआयामी (मल्टीफासेटेड) परिवर्तन हुए और बलात्कार कानूनों में विभिन्न संशोधन किए गए, अर्थात्:
- मौत की सजा को वैध बनाया गया था।
- सामूहिक बलात्कार को एक अपराध के रूप में पेश किया गया और मान्यता दी गई थी।
- भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के तहत सहमति शब्द को व्यापक अर्थ दिया गया था।
पुरुषों के लिए बलात्कार कानूनों को डिजाइन करना- एक सिंहावलोकन
सामाजिक मानदंडों (नॉर्म्स) का लोगों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, और इस कारण से, लोगों का मानना है कि बलात्कार का अपराध केवल एक महिला पर किया जा सकता है, जो एक पुरुष को जघन्य और क्रूर अपराध का अपराधी के रूप में और एक महिला को एक शिकार के रूप मानता है। भारत में कानूनी प्रावधान (प्रोविजंस) भी पुरुष के बलात्कार के अपराध का अपराधीकरण नहीं करते हैं, जिससे पुरुषों पर हिंसा का खतरा बढ़ जाता है।
बलात्कार के शिकार पुरुष के बारे में कुछ सामाजिक मिथक (मिथ) हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
- समाज की धारणा (नोशन) है कि पुरुष लिंग समाजीकरण (मैस्कुलाइन जेंडर सोशलाइजेशन) के अनुसार, एक आदमी समाज में एक प्रमुख शक्ति रखता है और कमजोर नहीं होता है, इसलिए पुरुष का बलात्कार होना संभव नहीं है।
- यह भी कहा जाता है कि एक पुरुष यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल असॉल्ट) का शिकार नहीं होता है क्योंकि वे हमेशा यौन गतिविधियों की इच्छा रखते हैं, या उन्हे महिला दुर्व्यवहार की तुलना में बहुत कम आघात (ट्राउमेटाइजेशन) और अशांति का शिकार होने पर मजबूर किया जाता है।
यू.एस. स्टेटिस्टा रिसर्च सेंटर द्वारा, दिसंबर 2020 में प्रकाशित (पब्लिश) एक रिपोर्ट में यह दिखाया गया और बताया गया था कि पुरी दुनिया भर में लगभग 52,336 मामले दर्ज हैं, जहां अलग अलग देशों में पुरुषों के साथ बलात्कार या यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल असॉल्ट) किया गया था, जिससे पुरुष भेद्यता (वुलनेराबिलिटी) का खतरा बढ़ गया था।
इस प्रकार यह आवश्यक है कि निर्दोष पुरुषों को यौन उत्पीड़न, हिंसा और बलात्कार से बचाने के लिए कानूनों को नया रूप दिया जाना चाहिए।
- धारा 375 के तहत बलात्कार की परिभाषा में संशोधन किया जाना चाहिए और उसे व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिए क्योंकि इस परिभाषा में पुरुष और महिला दोनों को बलात्कार के अपराध के प्राथमिक (प्राइमरी) शिकार के रूप में शामिल किया जाना चाहिए।
- इस कानून को मनुष्य से संबंधित अपराधों और कानूनों को पहचानना चाहिए, और मनुष्य के लिए विभिन्न कड़े कानून भी पेश किए जाने चाहिए।
- विभिन्न गैर सरकारी संगठनों (नॉन गवर्नमेंट आर्गेनाइजेशन) और संगठनों की स्थापना की जानी चाहिए, जो पुरुषों के बलात्कार के अपराध का निर्धारण (डिटरमाइन) कर सके और उसकी सहायता करे, ताकि पुरूष उन पर की गई किसी भी तरह की हिंसा की रिपोर्ट करने में सक्षम हो सके।
- समाज में लिंग-तटस्थ (जेंडर न्यूट्रल) कानूनों की आवश्यकता है जो पुरुषों और महिलाओं और समलैंगिकों (होमोसेक्सुअल) को किसी भी प्रकार के अपराध से बचा सके, विशेष रूप से बलात्कार के अपराध से। यह भी संविधान के आर्टिकल 14 के तहत समानता की अवधारणा (कांसेप्ट) के लिए एक आवश्यक तत्व है।
- संयुक्त राष्ट्र संगठन (यूनाइटेड नेशंस आर्गेनाइजेशन) के तहत गारंटीकृत बुनियादी मानवाधिकारों के अनुसार पुरुष के बलात्कार को अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर अपराध के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।
ऐसे कई उदाहरण हैं जहां पुरुषों ने वास्तव में उन पर हुए हमलों और बलात्कार के बारे में बात की है। अभिनेता राहुल राज ने व्यक्त किया है कि 19 साल की उम्र में उनका मौखिक रूप से यौन शोषण किया गया था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, एशिया अर्जेंटीना नाम के एक अभिनेता और कार्यकर्ता पर आरोप लगाया गया था की उन्होने एक पुरुष अभिनेता, जिमी बेनेट का यौन उत्पीड़न किया है जब वह 17 साल के थे।
इस प्रकार यह आवश्यक है कि निर्दोष पुरुषों को यौन उत्पीड़न, हिंसा और बलात्कार से बचाने के लिए कानूनों को एक नया रूप दिया जाना चाहिए।
बलात्कार कानूनों को सुव्यवस्थित (स्ट्रीमलाईन) करने के लिए सुझाव
बलात्कार कानूनों के आधुनिकीकरण (मॉडर्नाइजेशन) के लिए कई सुझाव या दिशा निर्देश (गाइडलाइंस) निर्धारित (प्रेस्क्राइब) किए जाने चाहिए:
- कालानुक्रमिक (एनाक्रोनिस्टिक) बलात्कार कानून को अंग्रेजी कानून के संदर्भ (टर्म्स) में फिर से परिभाषित किया जाना चाहिए, जो यौन अपराध अधिनियम (द सेक्शुअल ऑफेंसेज एक्ट), 2003 की धारा 1 के तहत पुरुष और महिला दोनों को बलात्कार का विषय बनाता है।
- 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्तियों के बीच सहमति से समलैंगिकता को वैध किया जाना चाहिए।
- बलात्कार के मामलों में महत्वपूर्ण फोरेंसिक साक्ष्य की हानि को रोकने के लिए सरकार को उचित और प्रासंगिक (रिलेवेंट) उपाय करने चाहिए।
- एक विशेष दूसरी राय (स्पेशलाइज्ड सेकेंड ओपिनियन) की आवश्यकता के लिए कानून में प्रावधान होना चाहिए जैसा कि ब्रिटेन में बलात्कार के मामलों में निर्णय लेने से पहले होता है।
- आजकल, पुरुषों को अनावश्यक रूप से प्रताड़ित (हैरेस) करने या उनसे बदला लेने के लिए महिलाओं के द्वारा बहुत सी झूठी शिकायतें दर्ज की जाती हैं। सरकार को गिरफ्तारी और उन्हे हिरासत में लेने के कानूनी कदम तभी उठाने चाहिए जब प्राधिकारी (अथॉरिटीज) इस प्रकार किए गए अपराध के बारे में उचित रूप से आश्वस्त हों।
- बलात्कार के मामलों में फैसला सुनाने में देरी नहीं होनी चाहिए।
- बलात्कार पीड़ितों को उचित प्रकार की परामर्श (काउंसलिंग) प्रदान की जानी चाहिए ताकि उनमें विश्वास पैदा किया जा सके और बिना देरी किए तुरंत कार्रवाई शुरू की जा सके।
आधार जहां पुरुष और महिला बलात्कार कानून अलग-अलग होने चाहिए
बलात्कार कानूनों में लैंगिक असमानता (जेंडर इनेक्वालिटी) है। यहां ऐसे कानूनी प्रावधान हैं जो केवल महिला बलात्कार के मामलों के बारे में ही बात करते हैं, और इस प्रक्रिया (प्रोसेस) में, पुरुष बलात्कार के मामले या तो अपंजीकृत (अन रजिस्टर्ड) हो जाते हैं या पुलिस स्टेशन को इसकी सूचना नहीं दी जाती है। इसलिए समाज में लिंग-तटस्थ कानूनों की आवश्यकता है, जिसे सरकार और विधायी निकायों (लेजिसलेटिव बॉडीज) द्वारा प्रख्यापित (प्रोमुलगेट) किया जाना चाहिए ताकि समाज में किए गए विकास को गति दी जा सके और यह भी कि, संवैधानिक जनादेश (कांस्टीट्यूशनल मेंडेट्स) और विधानों का उल्लंघन न किया जाए, जो पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समानता के प्रावधान प्रदान करते हैं।
लिंग-तटस्थ कानूनों के लिए, क्रिमिनल जस्टिस सोसाइटी ऑफ इंडिया नाम के एक एन.जी.ओ. द्वारा एडवोकेट आशिमा मंडला द्वारा जनहित याचिका (पी.आई.एल.) दायर की गई थी, जिसमें बलात्कार के संदर्भ में लिंग-तटस्थ कानूनों को वैध बनाने की दलील दी गई थी, जिसमें कहा गया था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के तहत ‘बलात्कार’ की परिभाषा, आर्टिकल 14, आर्टिकल 15 और आर्टिकल 21 के तहत बुनियादी संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, क्योंकि यह पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्ति के बलात्कार के लिए सुरक्षा प्रदान नहीं करती है और इस प्रकार इसे संवैधानिक ढांचे पर अल्ट्रा वायर्स और भेदभावपूर्ण माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि एन.जी.ओ. की याचिका (पिटीशन) को खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि यह लिंग-तटस्थ कानून बनाना न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरोडिकशन) में नहीं आता है, और कानून बनाने की शक्ति और अधिकार केवल संसद को दो गई है। इस प्रकार, पुरुषों और महिलाओं दोनों को बलात्कार के इस जघन्य अपराध के चंगुल से बचाने के लिए लिंग-तटस्थ कानूनों की शुरूआत होनी चाहिए।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
इस प्रकार, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बलात्कार जनता के बीच एक संस्कृति बन गई है, चाहे वह पुरुष, महिला और ट्रांसजेंडर पर हो। संसद और न्यायपालिका को हमेशा किए गए अपराध की दर (रेट) पर दोष नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि विधायी निकाय बलात्कार के अपराधों के लिए कड़े कानून बनाने के लिए अग्रिम (एडवांस) समय और प्रौद्योगिकियों (टेक्नोलॉजीज) के साथ उचित उपाय कर रहे हैं। हालांकि, इसे लिंग-तटस्थ कानूनों और कानूनों को लागू करने के लिए कदम उठाने चाहिए, ताकि समाज में लिंग भेदभाव का कोई रूप न हो।
संदर्भ (रेफरेंसस)
- Textbook on Indian Penal Code, sixth edition, KD Gaur., 2019
- Law relating to women and children, fourth edition, Mamta Rao, 2019
- Criminal Manual- Justice Khastgir, 2019
- The Constitution of India, 1950.