फॉर्जरी

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Indian Penal Code
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इस लेख में लेखक, जालसाजी (फॉर्जरी) और झूठे दस्तावेज़ बनाने के अपराध पर चर्चा करते हुए, शीला सेबेस्टियन बनाम आर. जवाहरराज और अन्य के मामले का विश्लेषण (एनालिसिस) करते हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

परिचय (इंट्रोडक्शन)

‘जालसाजी (फॉर्जरी)’ और ‘झूठे दस्तावेज़ बनाना’: शीला सेबेस्टियन बनाम आर. जवाहरराज और अन्य (आपराधिक अपील संख्या 2010 की 359-360)

भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड), 1860 की धारा 463, जालसाजी के अपराध को परिभाषित करती है और भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 464 इस बात की पुष्टि (सब्सटेंटिएट) करती है कि कब एक झूठा दस्तावेज, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 463 के तहत जालसाजी का अपराध करने के उद्देश्य से बनाया गया था। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 464 जालसाजी के अवयवों (इंग्रेडिएंट्स) में से एक को परिभाषित करती है, जो कि एक झूठा दस्तावेज बनाने का अपराध है।

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 465 जालसाजी का अपराध करने के लिए दंड का प्रावधान (प्रोविजन) करती है। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 465 के तहत एक दोषसिद्धि (कनविक्शन) को बनाए रखने के लिए, पहले यह साबित करना जरूरी है कि भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 463 के तहत जालसाजी की गई थी, जिसका अर्थ है कि भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 464 के तहत अवयवों को भी संतुष्ट होना चाहिए। इसलिए, जब तक भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 463 के तहत निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) अवयवों को संतुष्ट नहीं किया जाता है, तब तक किसी व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 465 के तहत, केवल धारा 464 के अवयवों पर संतुष्ट हो कर दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि एसा करने से जालसाजी का अपराध अधूरा रह जाएगा।

कब किसी व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि उसने झूठा दस्तावेज बनाया है?

मोहम्मद इब्राहिम और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार और अन्य, (2009) 8 एस.सी.सी. 751, के मामले में, यह माना गया कि, एक व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि उसने एक ‘झूठा दस्तावेज’ बनाया है, यदि:

  1. उसने, किसी और व्यक्ति के होने का दावा करते हुए एक दस्तावेज़ बनाया या उसे निष्पादित (एग्जीक्यूट) किया या उस दस्तावेज़ को किसी और के द्वारा अधिकृत (ऑथराइज) होने का दावा किया; या,
  2. उसने एक दस्तावेज़ को बदल दिया या उसके साथ छेड़छाड़ की; या,
  3. उसने धोका करके, या किसी अन्य व्यक्ति से, जो अपनी इंद्रियों (सेंसेज) के नियंत्रण (कंट्रोल) में नहीं है, से एक दस्तावेज प्राप्त किया।

शीला सेबेस्टियन (सुप्रा) के ओबीटर का विश्लेषण 

  1. जालसाजी को केवल एक उद्देश्य को प्राप्त करने के साधन के रूप में वर्णित (डिस्क्राइब) किया जा सकता है और वह उद्देश्य धोखा देने का है। धोखाधड़ी और जालसाजी के बीच मुख्य अंतर यह है कि धोखा देने में धोखा मौखिक होता है, जबकि जालसाजी में यह लिखित रूप में होता है।
  2. जालसाजी के अपराध का मूल (वेरी) आधार किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने के आपराधिक इरादे से झूठा दस्तावेज बनाना है।
  • केवल जालसाजी के वे कार्य, जो धोखे और चोट के तत्वों के साथ जुड़े होते हैं, वह भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 463 और 464 के तहत जालसाजी की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं।
  1. झूठे दस्तावेज बनाना जालसाजी का अहम हिस्सा है। एक झूठे दस्तावेज़ या किसी दस्तावेज़ के हिस्से को बनाने का मतलब उसमे शब्दों को लिखने से नहीं है, जो स्वयं मे ही निर्दोष (इनोसेंट) हैं, बल्कि किसी व्यक्ति की मुहर या उसके हस्ताक्षर को दस्तावेज़ या उस दस्तावेज़ के हिस्से में, यह जानते हुए लगाना कि वह मुहर या हस्ताक्षर उसका नहीं है और उस व्यक्ति ने इसे लगाने का कोई अधिकार नहीं दिया है। दूसरे शब्दों में, मिथ्यात्व (फॉल्सिटी) में दस्तावेज़, या दस्तावेज़ का कोई हिस्सा होता है, जिस पर उस व्यक्ति के नाम या मुहर के साथ हस्ताक्षर या मुहर लगाई जाती है, जिसने वास्तव में उस पर हस्ताक्षर या मुहर नहीं लगाई थी।
  2. भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 463 के अर्थ में जालसाजी का गठन (कांस्टीट्यूट) करने के लिए, निम्नलिखित अवयवों को स्थापित (एस्टेब्लिश) किया जाना चाहिए:
  • दस्तावेज़ या दस्तावेज़ का हिस्सा झूठा होना चाहिए;
  • इसे भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 464 में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ के अंदर बेईमानी से या कपटपूर्वक (फ्रॉडुलेंटल) बनाया जाना चाहिए; तथा,
  • इसे भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 463 के तहत निर्दिष्ट इरादों में से एक के साथ बनाया जाना चाहिए।
  • भारतीय दंड संहिता, 1860 के प्रावधानों के तहत जालसाजी की तैयारी कोई अपराध नहीं है।

जालसाजी के संबंध में अध्ययन (स्टडी)

  1. एक बिक्री विलेख (सेल डीड) निष्पादित करने वाले व्यक्ति के बीच एक मौलिक (फंडामेंटल) अंतर है, जो दावा करता है कि संपत्ति उसकी है, और एक व्यक्ति जो उस संपत्ति के मालिक का प्रतिरूपण (इंपरसोनेट) करके या मालिक द्वारा अधिकृत या अधिकार होने का झूठा दावा करके, बिक्री विलेख निष्पादित करता है, और मालिक की ओर से विलेख को निष्पादित करने के लिए सशक्त (एंपावर्ड) होने का दावा करता है। पहले वाला मामला जालसाजी का नही है लेकिन बाद वाला मामला जालसाजी का है।
  2. जब कोई व्यक्ति किसी संपत्ति को अपना बताते हुए किसी दस्तावेज को निष्पादित करता है, तो तब दो संभावनाएं होती हैं। पहला यह है कि वह प्रामाणिक (बोना फाइड) रूप से मानता है कि संपत्ति वास्तव में उसकी ही है। दूसरा यह है कि वह बेईमानी से या कपटपूर्वक, इसे अपना होने का दावा कर रहा हो, भले ही वह जानता हो कि यह उसकी संपत्ति नहीं है। ये दोनों संभावनाएं जालसाजी के अपराध के दायरे से बाहर हैं।

जब कोई व्यक्ति एक दस्तावेज़ को निष्पादित करके, किसी संपत्ति का दावा करता है जो उसकी नहीं है, तो वह यह दावा नहीं कर रहा है कि वह कोई और है और न ही वह दावा कर रहा है कि वह किसी और के द्वारा अधिकृत है। इसलिए, इस तरह के दस्तावेज़ का निष्पादन, किसी संपत्ति को व्यक्त करने के लिए, जिसका वह मालिक नहीं है, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 464 के तहत परिभाषित एक झूठे दस्तावेज़ का निष्पादन नहीं है। यदि कोई दस्तावेज निष्पादित किया जाता है जो झूठा नहीं है, तो भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 463 और 464 के संबंध में, कोई जालसाजी नहीं है।

  • ‘झूठे दस्तावेज़’ की परिभाषा ‘जालसाजी’ की परिभाषा का एक हिस्सा है। एक दस्तावेज़ बनाना, इस अपराध को करने से अलग है। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 464 के तहत अपराध का गठन करने के लिए, यह अनिवार्य है कि एक झूठा दस्तावेज बनाया जाए और आरोपी व्यक्ति उसी का निर्माता हो, अन्यथा आरोपी व्यक्ति जालसाजी के अपराध के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
  • यहां तक ​​​​कि अगर किसी व्यक्ति के पास संपत्ति का कानूनी दावा या शीर्षक (टाइटल) है, तो वह जालसाजी का दोषी होगा यदि वह दस्तावेजों का समर्थन (सपोर्ट) करने के लिए उन्हें जाली बनाता है।

उदाहरण के लिए: X, P को अपनी संपत्ति बेचता है। बाद में X, P को उसी संपत्ति से धोखा देने के लिए, उसको Q को निष्पादित करता है, जिसकी तारीख P को किए हस्तांतरण (ट्रांसफर) की तारीख से 6 महीने पहले की थी, जिसका इरादा यह बताने का था की उसने संपत्ति को P को बेचने से पहले Q को बेच दिया था। इसलिए, X ने जालसाजी की है।

जहां एक आरोपी व्यक्ति, झूठे दस्तावेज़ को, हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति के सामने, उसके हस्ताक्षर के लिए रखे गए कागजों के ढेर में सम्मिलित (इंसर्ट) करके उस पर वास्तविक हस्ताक्षर प्राप्त करता है, तो आरोपी व्यक्ति को भारतीय दंड सहित, 1860 की धारा 464 के तहत अपराध के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि किसी भी धोखे का यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता है कि, दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति को दस्तावेज़ की प्रकृति को जानने से रोकने का प्रयास किया गया था।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न) 

एक व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि उसने एक झूठा दस्तावेज या रिकॉर्ड बनाया है यदि निम्नलिखित तीन शर्तों में से कोई एक संतुष्ट होती है, अर्थात्:

  • प्रतिरूपण: दस्तावेज़ को यह मानने के इरादे से झूठा बनाया गया है कि ऐसा दस्तावेज़, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा बनाया गया है जिसके द्वारा वह नही बनाया गया था और दस्तावेज़ को झूठा बनाने वाला व्यक्ति वास्तव में इस बात को जानता है।
  • इंटरलाइनेशन और विस्मरण (ऑब्लिटरेशन) के कारण दस्तावेजों को बदलना: जहां वैध अधिकार के बिना कोई व्यक्ति किसी दस्तावेज़ को बनाने के बाद बदल देता है।
  • धोखे से दस्तावेज प्राप्त करना: जब दस्तावेज़ पर किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाते हैं, जो अपनी मानसिक अक्षमता (इंकैपेबिलिटी) (नशे या दिमाग की अस्वस्थता) के कारण बनाए गए दस्तावेज़ों की सामग्री को नहीं जानता है।

किसी दस्तावेज़ को झूठे दस्तावेज़ होने के लिए, यह आवश्यक नहीं है कि वह एक पूर्ण दस्तावेज़ हो। हालांकि, यदि कोई दस्तावेज़, जैसे कि बिक्री का एक विलेख किसी भी हस्ताक्षर से पहले, आंशिक (पार्शियल) रूप से या पूर्ण रूप से पकड़ा जाता है, तो, विलेख को एक झूठे दस्तावेज़ के रूप में नहीं माना जाएगा, क्योंकि अपराध अभी भी तैयारी की चरण में रहेगा, लेकिन यदि आरोपी व्यक्ति पकड़ा जाता है, तो ऐसे विलेख पर हस्ताक्षर करते समय, अपराधी को पकड़ा गया कहा जा सकता है, जब अपराध तैयारी के चरण से आगे चला गया था और पहले से ही जालसाजी के अपराध को करने के प्रयास के क्षेत्र में प्रवेश कर चुका था। इसलिए, विलेख पर हस्ताक्षर की प्रक्रिया शुरू होने से पहले, झूठे दस्तावेज का ‘बनाना’ प्रक्रियाधीन (अंडर प्रोसेस) रहेगा और अपराध ‘तैयारी’ के चरण के अंदर रहेगा। यह चोरी करने के लिए ताले की डुप्लीकेट चाबी बनाने या हत्या करने के लिए जहर लेने जैसा होगा। केवल इस तरह की चाबी बनाने के लिए, भले ही अपराध का इरादा चोरी का हो, किसी को चोरी का अपराध करने का प्रयास करने के लिए नहीं माना जा सकता है। इसी तरह, जहर की खरीद, अपने आप में, हत्या के प्रयास का अपराध नहीं होगी, हालांकि इसका उद्देश्य किसी विशिष्ट (स्पेसिफिक) व्यक्ति को जहर देना हो सकता है। कानून एक व्यक्ति को दोषी इरादे के लिए नहीं, बल्कि किए गए कार्य के लिए दंडित करता है।

 

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