भारत के संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 के तहत जीवन, स्वतंत्रता और गोपनीयता

0
4234
Constitution of India
Image Source- https://rb.gy/6lhnym

यह लेख रमैया इंस्टीट्यूट ऑफ लीगल स्टडीज की छात्रा Sneha Mahavar द्वारा लिखा गया है। लेख भारत के संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 के तहत जीवन, स्वतंत्रता और गोपनीयता (प्राइवेसी) की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) पर चर्चा करता है। इसका अनुवाद Sakshi Kumari द्वारा किया जाए ही जो फेयरफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी से बी ए एलएलबी कर रही है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

भारत के संविधान, 1949 का आर्टिकल 21 कहता है-

“जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा (प्रोटेक्शन ऑफ लाइफ एंड पर्सनल लिबर्टी) – किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा सिवाय कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार।”

जस्टिस भगवती, जे., भारत के संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 के अनुसार “एक लोकतांत्रिक समाज में सर्वोच्च महत्व के संवैधानिक मूल्य के प्रतीक के रूप में जाना जाता हैं” जैसा कि फ्रांसिस कोराली बनाम यूनियन टेरीटरी ऑफ दिल्ली के मामले में कहा गया है। इस लेख को भारत के संविधान का दिल माना गया है और इसे हमारे जीवित संविधान में सबसे प्रगतिशील और जैविक प्रावधानों (ऑर्गेनिक प्रोविजन) में से एक माना जाता है। इसे हमारे सभी कानूनों और कानूनी व्यवस्था की नींव के रूप में मान्यता प्राप्त है।

केवल जब किसी व्यक्ति को “राज्य” द्वारा उसके “जीवन” या “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” से वंचित किया जाता है, जैसा कि भारत के संविधान, 1949 के अनुच्छेद 12 में परिभाषित किया गया है, तब केवल भारतीय संविधान का आर्टिकल 21 तब ही अधिकार के रूप में दावा किया जा सकता है। भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 में निजी व्यक्तियों (प्राइवेट इंडिविजुअल्स) द्वारा अधिकार का उल्लंघन शामिल नहीं है।

भारतीय संविधान का आर्टिकल 21 उन सभी पर लागू होता है जिसका अर्थ प्रत्येक प्राकृतिक व्यक्ति पर लागू होता है जो व्यक्ति, नागरिक, गैर-नागरिक, या यहां तक ​​कि विदेशी व्यक्तियों पर भी लागू होता है।

‘जीवन के अधिकार’ की अवधारणा (कॉन्सेप्ट ऑफ राइट टू लाइफ)

प्रत्येक व्यक्ति को जीवन का अधिकार है, और  यह एक मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) है जो हमारे देश की सरकार द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) के भीतर सभी प्राकृतिक व्यक्तियों (नागरिक, गैर-नागरिक, विदेशी) को वादा और आश्वासन (एश्योर्ड) देता है। भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के तहत इस अधिकार का वादा और आश्वासन दिया गया है। जीवन के अधिकार को प्राथमिक (प्राइमरी)  अधिकार माना जाता है क्योंकि इस अधिकार के अस्तित्व के बिना किसी भी अन्य अधिकार का कोई मूल्य नहीं होगा। भारत के संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 में प्रयुक्त शब्द ‘जीवन’ में न केवल सांस लेने का कार्य शामिल है, बल्कि मानवीय गरिमा (ह्यूमन डिग्निटी) के साथ जीने का अधिकार, यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल हैरेसमेंट) के खिलाफ अधिकार, प्रतिष्ठा का अधिकार (राइट टू रेपुटेशन), बलात्कार के खिलाफ अधिकार, आजीविका का अधिकार, विकास का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, आश्रय का अधिकार, प्रदूषण मुक्त हवा का अधिकार, पोषण का अधिकार आदि का अधिकार भी शामिल है। यह भारतीय संविधान का एकमात्र आर्टिकल है जिसकी व्यापक संभव व्याख्या (वाइडेस्ट पॉसिबल इंटरप्रेटेशन) प्राप्त हुई है। इसे भारतीय संविधान का दिल माना जाता है।

कानूनी मामले

खड़क सिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश

इस मामले में, भारत के संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 की व्याख्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई थी और यह माना गया था कि ‘जीवन’ शब्द केवल एक जीवित प्राणी का अस्तित्व (एग्जीस्टेंस) नहीं है, यह उससे कहीं अधिक है। जीवन के अधिकार का भी तब उल्लंघन होता है जब कोई जीव किसी ऐसे अंग से वंचित हो जाता है जिसके द्वारा वह मनुष्य अपने जीवन का आनंद लेता है, या बाहरी दुनिया के साथ संचार (कम्युनिकेट)  करता है।

इस मामले में पहली बार यह सवाल उठाया गया था कि क्या निजता के अधिकार (राइट टू प्राइवेसी) को संविधान के आर्टिकल 19(1)(D), संविधान के आर्टिकल 19(1)(E) जैसे मौजूदा मौलिक अधिकारों से निहित (रेज) किया जा सकता है। संविधान, और संविधान के आर्टिकल 21 को कानून की कोर्ट में उठाया गया था। सात-न्यायाधीशों की बेंच ने माना कि भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 में निजता का अधिकार शामिल नहीं है, लेकिन न्यायमूर्ति सुब्बा राव हालांकि फैसले में अल्पमत (माइनॉरिटी) में थे, लेकिन भारतीय संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 में निजता के अधिकार को शामिल करने का मार्ग प्रशस्त किया। 

सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि ‘जीवन का अधिकार (राइट टू लाइफ)’ में स्वस्थ जीवन जीने और मानव शरीर के सभी पहलुओं का उनकी सर्वोत्तम परिस्थितियों में आनंद लेने का अधिकार भी शामिल है। इस अधिकार में किसी व्यक्ति की परंपरा (ट्रेडिशन), संस्कृति (कल्चर), विरासत (हेरिटेज), शांति से जीने का अधिकार, शांति से सोने का अधिकार, और आराम करने और स्वास्थ्य का अधिकार और वह सब जो किसी व्यक्ति या व्यक्ति के जीवन को अर्थ देता है,  व्यक्तिगत प्राणी की सुरक्षा का अधिकार भी शामिल होगा।

मेनका गांधी बनाम भारत संघ

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी व्याख्या की जिसने संविधान के आर्टिकल 21 को एक नया आयाम (डाइमेंशन) और पहलू (आस्पेक्ट) दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जीवन का अधिकार केवल शारीरिक अधिकारों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है। फ्रांसिस कोराली बनाम केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के मामले में निर्णय लेते समय इसी दृष्टिकोण (व्यू) पर विचार किया गया और तस्वीर में लिया गया।

चंद्र राजा कुमार बनाम पुलिस कमीशनर हैदराबाद

इस मामले में, कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जीवन के अधिकार में मानवीय गरिमा के साथ और सभ्य तरीके से जीने का अधिकार भी शामिल है और इस प्रकार, सौंदर्य प्रतियोगिता (ब्यूटी कॉन्टेस्ट) का आयोजन महिलाओं की गरिमा या शालीनता के लिए अस्वीकार्य (अनएक्सेप्टेबल) है और भारत के संविधान 1949 के आर्टिकल 21 का उल्लंघन करता है लेकिन केवल तभी जब प्रतियोगिता प्रकृति में अभद्र (इंडिसेंट), चरित्र में अश्लील (ऑब्सिन) या ब्लैकमेलिंग के कार्य के लिए अभिप्रेत (इंटेंडेड)हो।

महाराष्ट्र राज्य बनाम चंद्रभान

इस मामले में कोर्ट ने कहा कि 1/- प्रति माह रुपये का भुगतान एक निलंबित (सस्पेंडेड) लोक सेवक को जब उसकी अपील के लंबित (पेंडिंग) रहने के दौरान दोषी ठहराया जाता है, तो उसे इस आधार पर असंवैधानिक (अनकंस्टीट्यूशनल) माना जाता है कि यह एक ऐसा कार्य है जिसे भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 का उल्लंघन माना जाता है। यह प्रावधान बॉम्बे सिविल सर्विस रूल्स, 1959 में निहित था और इस मामले में इसे रद्द कर दिया गया था।

विशाखा बनाम राजस्थान राज्य

इस मामले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया कि जीवन के अधिकार में कार्यस्थल (वर्कप्लेस) पर यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल हैरेसमेंट) के खिलाफ अधिकार शामिल है। इस प्रकार, किसी भी कामकाजी महिला (वर्किंग वुमन) को काम पर परेशान करना भारत के संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 के साथ-साथ संविधान के आर्टिकल 15 और संविधान के आर्टिकल 14 का उल्लंघन है। अपैरल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल बनाम ए.के. चोपड़ा के मामले का फैसला करते समय इसी दृष्टिकोण पर विचार किया गया था।

डी.टी.सी. बनाम डी.टी.सी. मजदूर कांग्रेस

इस मामले में कोर्ट ने कहा कि जीने के अधिकार में आजीविका (लाइवलीहुड) का अधिकार भी शामिल है। इसके अलावा, किसी भी कर्मचारी को बिना नोटिस दिए, या उचित कारण बताए, या उसे सुनवाई का मौका दिए बिना उसकी सेवाओं से निकाला नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह संविधान के आर्टिकल 21 में वर्णित प्रावधानों का उल्लंघन है।

उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद बनाम फ्रेंड्स  हाउसिंग कॉर्पोरेशन सोसाइटी लिमिटेड

इस मामले  में कोर्ट ने घोषित किया कि जीवन के अधिकार में आश्रय का अधिकार (राइट टु शेल्टर) भी शामिल है, और इस प्रकार, आश्रय के अधिकार की भी गारंटी और संरक्षण संविधान के आर्टिकल 21 के तहत दिया गया है।

स्टेट ऑफ पंजाब बनाम एम.एस. चावला

इस मामले में, कोर्ट ने यह माना कि जीवन के अधिकार में स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है और यह संविधान के आर्टिकल 21 के तहत संरक्षित और गारंटीकृत है।

महाराष्ट्र राज्य बनाम मारुति श्रीपति दुबली

इस मामले में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया और कहा कि जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल है, और दोनों भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के प्रावधानों के तहत संरक्षित हैं। इस प्रकार, यह निर्णय देते हुए न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 309 को समाप्त कर दिया।

‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार’ की अवधारणा (कॉन्सेप्ट ऑफ राइट टू पर्सनल लिबर्टी)

‘लिबर्टी’ शब्द का अर्थ नियंत्रण (कंट्रोल) या प्रतिबंधों (रिस्ट्रिक्शन) से मुक्त है। यह कारावास (इंप्रिजनमेंट), दासता (स्लेवरी), या, जबरन श्रम ( लेबर)फोर्स्ड से मुक्त होने की स्थिति है। इस प्रकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ है किसी व्यक्ति की उस व्यक्ति पर लगाए गए सभी प्रकार के नियंत्रणों और प्रतिबंधों से स्वतंत्रता। किसी अन्य व्यक्ति के प्रत्येक नागरिक के पास यह अधिकार है और यह सरकार का कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों के ऐसे अधिकारों की रक्षा करे। भारतीय कोर्ट में, स्वतंत्रता शब्द की अंग्रेजी कोर्ट्स की तुलना में कहीं अधिक विस्तृत व्याख्या (वाइड इंटरप्रेटेशन) प्राप्त हुई है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि स्वतंत्रता केवल शारीरिक स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि इसमें वे सभी अधिकार और विशेषाधिकार भी शामिल हैं जिन्हें एक स्वतंत्र व्यक्ति की खुशी के लिए आवश्यक माना गया है।

कानूनी मामले

सतवंत सिंह साहनी बनाम सहायक पासपोर्ट अधिकारी, नई दिल्ली

इस मामले में, भारत के सुप्रीमकोर्ट ने माना कि ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ शब्द में विदेश यात्रा करने का अधिकार शामिल है और भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के तहत यह संरक्षित, वादा और आश्वासन दिया गया है।

स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम प्रभाकर पांडुरंग

इस मामले में, याचिकाकर्ता (पेटीशनर) ने अपनी सजा के दौरान एक किताब लिखी और अपनी पत्नी को प्रकाशन के लिए अपनी पुस्तक भेजने का अनुरोध किया। अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया था। कोर्ट ने माना कि इस इनकार को भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 का उल्लंघन माना जाता है, प्रत्येक व्यक्ति को एक किताब लिखने का अधिकार है।

डी.के. बसु बनाम स्टेट ऑफ पश्चिम बंगाल

इस मामले में, भारत के माननीय सुप्रीमकोर्ट ने माना कि प्रत्येक गिरफ्तार व्यक्ति के अपने अधिकार हैं और एक व्यक्ति को हिरासत में लेने के लिए दिशा-निर्देश (गाइडलाइंस) भी निर्धारित किए गए हैं। यदि दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया जाता है तो यह एक ऐसा एक्ट होगा जो भारत के संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 में निर्धारित प्रावधानों का उल्लंघन है।

‘निजता के अधिकार’ की अवधारणा (कॉन्सेप्ट ऑफ राइट टू प्राइवेसी)

निजता के अधिकार को जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की छाया के रूप में मान्यता प्राप्त है। हालांकि भारतीय संविधान में इस बात का कोई विशेष उल्लेख नहीं है कि निजता का अधिकार भारत के संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 का एक हिस्सा है, लेकिन इसे ‘पेनुमब्रल राइट’ माना जाता है।

द ब्लैक्स लॉ डिक्शनरी ‘निजता (प्राइवेसी)’ के अर्थ को “अकेले रहने का अधिकार” के रूप में पढ़ता है; किसी व्यक्ति या व्यक्ति का अनुचित प्रचार से मुक्त होने का अधिकार; और उन मामलों में जनता द्वारा अनुचित हस्तक्षेप के बिना जीने का अधिकार, जिनसे जनता का संबंध जरूरी नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को निजता का अधिकार प्राप्त है और उचित प्राधिकरण (प्रॉपर ऑथराइजेशन) के बिना उस स्थान पर आक्रमण करना कानून द्वारा दंडनीय (पनिशेबल) है। निजता के अधिकार में टेलीफोन टैपिंग के खिलाफ अधिकार, जनता को भयानक बीमारी का खुलासा करने का अधिकार, अवैध हिरासत के खिलाफ अधिकार आदि शामिल हैं।

कानूनी मामले

पीयूसीएल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

इस मामले को एक ऐतिहासिक मामला माना जाता है, क्योंकि इस मामले का फैसला सुनाए जाने के बाद, भारत के संविधान, 1949 के आर्टिकल 21 के तहत निजता के अधिकार की रक्षा की गई थी।

इस मामले में, कोर्ट ने माना कि निजता का अधिकार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में आता है और भारत के संविधान, 1949 के  आर्टिकल 21 के तहत संरक्षित और गारंटीकृत है।

आर.एम. मलकानी बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र 

इस मामले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कोर्ट  फोन पर बातचीत को टैप करके निर्दोष नागरिकों को गलत हस्तक्षेप से बचाएगा लेकिन यह सुरक्षा दोषी नागरिकों को उपलब्ध नहीं होगी। टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5 (2) विशिष्ट आधारों के तहत भारत में टेलीफोन टैप करने की अनुमति देती है।

श्रीमान ‘X’ बनाम अस्पताल ‘Z’

इस मामले में जिस महिला की शादी होनी थी, उसका जांच रिपोर्ट एचआईवी पॉजिटिव निकला, डॉक्टर ने  X की मंगेतर को यह जानकारी दी, महिला ने डॉक्टर के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया भारत के सुप्रीम कोर्ट ने माना कि चूंकि निजता का अधिकार जीवन के अधिकार का एक हिस्सा है और जीवन के अधिकार में स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है, इसलिए डॉक्टरों ने निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं किया।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

इसलिए, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि कानूनी कारावास भी सभी मौलिक अधिकारों को फेयरवेल नहीं देता है। एक कैदी एक स्वतंत्र नागरिक द्वारा प्राप्त सभी अधिकारों को भी बरकरार रखता है, केवल उन सभी अधिकारों को छोड़कर जो कारावास की घटना के रूप में जरूरी रूप से खो गए हैं। हालांकि भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से नहीं लिखा गया है लेकिन भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 में निजता के अधिकार के साथ जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार शामिल है। इस प्रकार, जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की इस अवधारणा के तहत, निजता का अधिकार भी छिपा हुआ है और एक व्यक्ति के जीवन में एक अनिवार्य भूमिका निभाता है।

संदर्भ (रिफ्रेंस)

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here