भारत में जीवों की रक्षा में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका

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1915
Wildlife Protection Act
Image Source- https://rb.gy/zdyjpw

यह लेख कोलकाता की एमिटी यूनिवर्सिटी की Harmanpreet Kaur ने लिखा है। यह लेख भारत में जीवों की सुरक्षा और न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी) द्वारा, उनकी रक्षा के लिए उठाए गए कदमों पर ध्यान देता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

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परिचय (इंट्रोडक्शन)

पर्यावरण की सुरक्षा, दुनिया भर में एक अहम् मुद्दा है और यह किसी विशेष क्षेत्र या राष्ट्र के अकेले की समस्या नहीं है। आज, प्रकृति के साथ समाज का घुलना-मिलना इतना व्यापक (एक्सटेंसीव) हो चुका है कि, पर्यावरण के मुद्दे इन सब का एक हिस्सा बन चुके है, जिन्होंने बदले में मानवता को प्रभावित किया है, औद्योगीकरण (इंडस्ट्रीयलाईजेशन), शहरीकरण (अर्बनाइजेशन), जनसंख्या में वृद्धि, संसाधनों (रिसोर्सेज) का हद्द से ज्यादा शोषण (एक्सप्लॉयटेशन), ऊर्जा (एनर्जी) के पारंपरिक स्रोतों (ट्रेडिशनल सोर्सेज) की कमी, प्रकृति के इकोलॉजिकल सिस्टम का विघटन (डिसरप्शन) और जानवरों और पौधों की जीवन प्रजातियों का विनाश, यह कुछ कारण हैं, जिनकी वजह से पर्यावरणीय क्षरण (एनवायरनमेंटल डिग्रेडेशन) आया है।

जीवित प्राकृतिक संसाधनों अर्थात पौधों, जानवरों और सूक्ष्मजीवों (माइक्रो-ऑर्गेनिज्म्स) और पर्यावरण के निर्जीव तत्वों (नॉन लिविंग एलिमेंट्स) की सुरक्षा, जिन पर वे निर्भर हैं, यह सब विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं। वन्यजीवों की सुरक्षा, सरकार का सबसे आवश्यक एजेंडा है, और इसके संरक्षण के लिए इसने कई पहल भी किए हैं। इसलिए बायोस्फेयर रिजर्व, नेशनल पार्क और सेंचुरी की स्थापना करके इस तरह से जानवरों की प्रजातियों के संरक्षण के लिए पृथ्वी के 4 प्रतिशत भूमि क्षेत्र की आवश्यकता है।

हालांकि, आजकल चुनौती, वन्यजीवों के संरक्षण की नहीं है, बल्कि यह है कि राष्ट्रीय हित में लागू करने के लिए बनाए गए तंत्र (मैकेनिज्म) को कैसे सफल किया जाए। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ.) की रिपोर्ट के अनुसार, यह अनुमान लगाया गया है कि पिछले 40 सालों में दुनिया के करीब 52 फीसदी जानवर गायब हो गए हैं। 2020 की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट में कहा गया है कि 50 साल से भी कम समय में वैश्विक प्रजातियों में लगभग 68 प्रतिशत की गिरावट आई है। इस प्रकार, वन्यजीवों का संरक्षण मानव जाति के लिए और साथ-साथ एक समान संतुलन (बैलेंस) बनाए रखने के लिए बहुत महत्व रखता है। वन्यजीवों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता (प्रायोरिटी) होनी चाहिए, और यह न केवल सरकार की बल्कि राष्ट्र के नागरिकों की भी जिम्मेदारी है।

इस लेख में उन कारकों (फैक्टर) के बारे में बात की जाएगी, जिनके कारण भारत में वन्य जीव विलुप्त (एक्सटिंक्ट) हो गए हैं, और क्या कानून वन्यजीवों की रक्षा के लिए पर्याप्त हैं? या क्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा पास किए गए निर्णयों ने वन्यजीवों के संरक्षण और सुरक्षा में एक अच्छी मिसाल (प्रीसिडेंट) के रूप में काम किया है?

भारत और जीव- जो विलुप्त होने के करीब है

भारत में प्राकृतिक संसाधनों की अपार विविधता (वैरायटी) है। देश, पौधों और जानवरों से समृद्ध (रिच) है, जो लाखों लोगों का भरण-पोषण करते है। हालांकि, प्राकृतिक पौधों और जीवों की रक्षा करना इस समय की मांग है। वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए चिंता का पता, तीसरी शताब्दी में लगाया जा सकता है, जब राजा अशोक ने अपने शासनकाल के अंत में एक फरमान जारी किया जिसमें कहा था कि ‘उनके राज्याभिषेक के बीस साल बाद, उन्हे यह एहसास हुआ कि जानवर सिर्फ मारने के लिए नहीं है, बल्कि उन्हे संरक्षित और सुरक्षित किया जाना चाहिए और जंगल की आग को रोकना चाहिए।

जीवों को संरक्षित और सुरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि, विभिन्न उत्पाद (प्रोडक्ट्स) और उपोत्पाद (बाइप्रोडक्ट) प्रदान करने में जानवरों और पौधों का, मनुष्यों के लिए बहुत आर्थिक महत्व है; प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने में; बायोडिवर्सरी का संरक्षण; यह वैज्ञानिकों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे इनके द्वारा विभिन्न प्रयोग (एक्सपेरिमेंट) कर सकते हैं; और यह सौंदर्य और सांस्कृतिक मूल्यों में भी योगदान करते हैं।

वर्तमान युग में मनुष्य अपने स्वयं के आर्थिक और सामाजिक लाभ के लिए पौधों और जानवरों जैसे प्राकृतिक संसाधनों का शिक्षण (एक्सप्लॉयट) कर रहे है, जिसके परिणामस्वरूप वन्य जीवन विलुप्त हो गया है। वन्य जीवों के विलुप्त होने से अंततः मानव जाति का विलुप्त होना तय है। भारत में दुनिया में सबसे अधिक और सबसे विविध (वेरिड) जीव है। हालांकि, पिछले कई दशकों में भारत में, जंगली जानवरों और पक्षियों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है, जो एक गंभीर चिंता का विषय है। कुछ जंगली जानवर और पक्षी पहले ही विलुप्त हो चुके हैं, जैसे, चीता, तेंदुआ, पांडा और बाघ।

फेडरेशन ऑफ इंडियन एनिमल प्रोटेक्शन ऑर्गनाइजेशन द्वारा 2021 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, यह अनुमान लगाया गया था कि लगभग 5 लाख जानवर, मनुष्यों द्वारा किए गए अपराधों का शिकार हुए है, जिसमें अवैध शिकार (पोचिंग), यौन शोषण (सेक्शुअल अब्यूज), अत्याचार और आर्थिक उद्देश्यों के लिए उन्हें मारना शामिल था। नीचे सूचीबद्ध विभिन्न कारण हैं, जिनकी वजह से भारत में जीव विलुप्त हुए है। वे कुछ इस प्रकार है:-

  • जीवों के आवास (हैबिटेट) का विनाश वन्य जीवों के लिए सबसे गंभीर खतरा है। पेड़ो की कटाई, सड़कों, रेलवे, उद्योगों और जलाशयों (रिजर्वॉर्स) जैसे विभिन्न विकास कार्यों ने वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास को कम कर दिया है।
  • पर्यावरण प्रदूषण न केवल मनुष्यों के लिए एक प्रमुख बढ़ती हुई चिंता है, बल्कि इसने पौधों और जानवरों के जीवन पर भी बुरा प्रभाव डाला है।
  • जनसंख्या वृद्धि कई विकासशील (डेवलपिंग) देशों में संरक्षण के प्रयासों के लिए एक मुद्दा है, क्योंकि जनसंख्या में वृद्धि से पार्कों और बायोस्फीयर रिजर्व को खतरा है। वनों पर पारंपरिक अधिकार रखने वाले लोग, पौधों और जीवों को नष्ट करना जारी रखते हैं और इस प्रकार वह वन्य जीवों को प्रभावित करते हैं।
  • भोजन और सुरक्षा के लिए जानवरों का शिकार, 19वीं सदी की शुरुआत से ही चल रहा है। जानवरों के शिकार के कारण बड़ी संख्या में वन्यजीवों की प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। अवैध शिकार को भारतीय कानून के तहत भले ही अपराध घोषित कर दिया गया हो, लेकिन लोग उन्हें खेल के रूप में इस्तेमाल करते हैं और जनजातियां (ट्राइब्स) उनका इस्तेमाल अपने जीवन को बनाए रखने के लिए करती हैं।
  • जंगल की आग बढ़ रही है, चाहे जानबूझकर या गलती से लगाई गई हो, जिसके कारण अतीत में वन्यजीवों की कई प्रजातियां विलुप्त हुई है।

भारत में वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए कानून 

भारतीय विधायिका (लेजिस्लेचर) ने समय-समय पर पर्यावरण की रक्षा के लिए कई कदम उठाए हैं। यदि हम इतिहास में पीछे मुड़कर देखें, तो 1860 में जब भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) लागू की गई थी, तो इसमें वन्यजीवों के संरक्षण से संबंधित कोई प्रावधान (प्रोविजन) नहीं था, लेकिन अधिनियम ने जानवरों को अपंग (मेम) करने और मारने को दंडनीय अपराध घोषित किया। फिर ब्रिटिश संसद द्वारा कई अन्य अधिनियम थे, जिन्होंने जंगली जानवरों की हत्या को एक दंडनीय अपराध बना दिया, जैसे हाथी संरक्षण अधिनियम (एलीफेंट प्रिजर्वेशन एक्ट), 1879, जो हाथियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए लाया गया था। लेकिन वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए भारत में पहला प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) लिखित कानून ब्रिटिश सरकार द्वारा वर्ष 1887 में पास किया गया था, जो द वाइल्डलाइफ बर्ड्स प्रोटेक्शन एक्ट, 1887 था, जो किसी भी प्रकार के निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) जंगली पक्षियों पर कब्जा करने या उनकी बिक्री पर रोक लगाने के उद्देश्य के लिए था; लेकिन अधिनियम को शुरू में निरस्त (रिपील) कर दिया गया, क्योंकि यह अपर्याप्त साबित हुआ और इसे वाइल्ड बर्ड्स एंड एनिमल प्रोटेक्शन एक्ट, 1912 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। समय बीतने के साथ, भारतीय संसद ने भारतीय वन अधिनियम (इंडियन फॉरेस्ट एक्ट), 1927 को पेश करके पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रभावी उपाय किए। जिसने वनों और वन उपज (प्रोड्यूस) से संबंधित कानून को एक ही अधिनियम के तहत रखा; वन संरक्षण अधिनियम (फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट), 1980, जो उन गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए बनाया गया था, जिनके परिणामस्वरूप पर्यावरण की क्षरण होगी।

क्योंकि, वन्यजीवों के संरक्षण से संबंधित कोई कानून नहीं था, इसलिए संसद ने वन्यजीवों के संरक्षण और सुधार के लिए पशु क्रूरता निवारण अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ़ क्रूएल्टी टू एनिमल्स एक्ट), 1960 और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट), 1972 को अधिनियमित (इनैक्ट) किया।

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट), 1972

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 को भारत के संविधान के आर्टिकल-252 के तहत 11 राज्यों के अनुरोध (रिक्वेस्ट) पर संसद द्वारा पेश किया गया था, जिसमें कहा गया था कि वन्यजीव संरक्षण के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय कानूनी ढांचा (लीगल फ्रेमवर्क) होना चाहिए। अधिनियम का उद्देश्य, निम्नलिखित दो उद्देश्यों को प्राप्त करना था: –

  1. निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) लुप्त हुई प्रजातियों को सभी स्थानों पर संरक्षित किया जाना चाहिए;
  2. सभी प्रजातियों को निर्दिष्ट क्षेत्रों में संरक्षित किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट न स्टेट ऑफ़ बिहार बनाम मुराद अली खान के मामले में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के उद्देश्यों को स्पष्ट किया, कि वन्यजीव कानूनों का एक लंबा इतिहास है, जो संसद और न्यायपालिका के लिए वन्यजीवों की रक्षा करना आवश्यक बनाता है। न्यायपालिका की राय यह थी कि जैसे-जैसे इकोलॉजिकल असंतुलन और पर्यावरण की क्षरण चरम पर पहुंच गया है, और यदि प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो यह क्षति अपरिवर्तनीय (इरिवर्सिबल) हो जाएगी।

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम को वर्ष 2002 में संशोधित (अमेंड) किया गया था, ताकि अधिनियम में आवश्यक बदलाव और समावेश किया जा सके। उद्देश्य इस प्रकार थे:-

  1. जंगली जानवरों, पौधों और पक्षियों और उनसे जुड़े सभी मामलों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए,
  2. देश की इकोलॉजिकल और पर्यावरण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए।

जीवों की रक्षा में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐतिहासिक निर्णय

“एक राष्ट्र की महानता और उसकी नैतिक (मोरल) प्रगति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां जानवरों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है- महात्मा गांधी।”

जानवरों के कल्याण और उनके अधिकारों को बहुत अधिक महत्व दिया गया है और न्यायपालिका, पशु अधिकारों का समर्थन (सपोर्ट) करने के लिए कदम उठा रही है। जिस तरह से मानव अधिकारों की रक्षा की जाती है, उसी तरह से पशु अधिकारों की रक्षा भी की जानी चाहिए। पशु कल्याण हालांकि अपने चरम पर नहीं पहुंचा है यानी पशु अधिकारों की कोई मान्यता नहीं है, लेकिन न्यायपालिका जानवरों के अधिकारों को बनाए रखने के लिए लगातार प्रयास कर रही है। यदि जानवरों को धुतकारा जाता है या मनुष्यों द्वारा उन्हें किसी भी प्रकार की हिंसा का शिकार बनाया जाता है, तो इसका परिणाम पशु क्रूरता (क्रुएल्टी) होगा। जानवरों के अधिकारों का समर्थन विधायिका और न्यायपालिका द्वारा किया गया है, ताकि उन्हें मनुष्यों द्वारा किसी भी तरह के उत्पीड़न, हिंसा और दुर्व्यवहार से बचाया जा सके।

मनुष्यों और जानवरों के बीच लगातार संघर्ष (कॉन्फ्लिक्ट्स) होते रहे हैं और इस प्रकार यह न्यायपालिका का काम है कि वह जानवरों पर हिंसा को रोकने के लिए निर्णय लें। भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अधिनियमन द्वारा वन्यजीवों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सटीक कदम उठाए हैं। इसने जानवरों को न्याय प्रदान करने और मानवाधिकारों से समान स्तर (लेवल) पर पशु अधिकारों को मान्यता देने के लिए विभिन्न निर्णय लिए हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने भारत में जीवों की रक्षा के लिए विभिन्न निर्णय लिए और पास किए हैं। कोर्ट के कुछ ऐतिहासिक फैसले इस प्रकार हैं:

तरुण भरत सिंह अलवर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 1992

इस मामले में, याचिकाकर्ता (पेटिशनर), एक सामाजिक कार्य के लिए समूह (सोशल एक्शन ग्रुप) था, जो वन्यजीवों के संरक्षण और सुरक्षा से संबंधित एक संगठन (आर्गेनाइजेशन) था। राज्य सरकार के कार्यों से व्यथित समूह ने भारत के संविधान के आर्टिकल 32 के तहत एक जनहित याचिका (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन) दायर की, क्योंकि सरकार ने कुछ वैधानिक अधिसूचनाओं (स्टेच्युटरी नोटिफिकेशन) को एक क्षेत्र में जारी किया था, जिसे ‘सरिस्का टाइगर पार्क’ के नाम से जाना जाता था, जिसे वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की धारा-55 के तहत सैंक्चुअरी के रूप में घोषित किया गया था। याचिकाकर्ताओं द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि राज्य सरकार द्वारा लाइसेंस प्रदान करने के बहाने, क्षेत्र में कुछ खनन (माइनिंग) कार्य किए जा रहे थे और यह पर्यावरण के लिए एक बाधा के रूप में और पार्क में वन्य जीवों को प्रभावित कर रहा था, और यह भी कहा कि राज्य सरकार अधिसूचना और घोषणा द्वारा लाइसेंस जारी करके क्षेत्र में खनन कार्यों को अधिकृत (ऑथराइज) करके पर्यावरण के क्षरण की अनुमति दे रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:-

  • राज्य अधिसूचनाओं और सुप्रीम कोर्ट के अन्य आदेशों के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) को सुनिश्चित करने के लिए एक सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक कमिटी की नियुक्ति के लिए निर्देश दिए गए और यह सुनिश्चित किया कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 3 के तहत संरक्षित क्षेत्र के अंदर पर्यावरण और वन्य जीवन की सुरक्षा हो।
  • इसने निर्देश दिए कि संरक्षित क्षेत्रों में कोई भी खनन कार्य नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि खनन कार्यों ने वन संरक्षण अधिनियम, 1980 की धारा 2 का उल्लंघन (इनफ्रिंज) किया है।
  • निहित स्वार्थों (वेस्टेड इंटरेस्ट) द्वारा किसी भी प्रकार के शारीरिक खतरों के खिलाफ पर्यावरण कार्यकर्ताओं को पुलिस सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
  • कार्यकर्ताओं को मामले को सुप्रीम कोर्ट में उठाने और वन्यजीवों की रक्षा के लिए पुरस्कार प्रदान किए गए।

चीफ फॉरेस्ट कंजरवेटर (वाइल्डलाइफ) बनाम निसार खान, 2003

इस मामले में, अपीलकर्ता मुनिया, तोता, मैना और बंटिंग जैसे पक्षियों का एक डीलर था, जो उत्तर प्रदेश राज्य में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते थे। उसे राज्य सरकार द्वारा, उसके व्यवसाय को चलाने के लिए लाइसेंस प्रदान किया गया था जो 1990 तक वैध था। इस अवधि की समाप्ति के बाद, उन्होंने अगले वर्ष के लिए लाइसेंस को दोबारा बनाने (रिन्यू) के लिए लाइसेंसिंग प्राधिकरण (अथॉरिटी) को अपना आवेदन (एप्लीकेशन) प्रस्तुत किया, लेकिन उसके लाइसेंस को इस आधार पर अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था कि उसके लिए, बिना शिकार के बंदी पक्षियों के प्रजनन (ब्रीडिंग) का व्यवसाय करना संभव नहीं होगा, जिसमें पक्षियों को फंसाना भी शामिल है। प्रतिवादी (रिस्पॉन्डेंट) ने हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती दी और सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर कर कहा कि यह उसके मूल मौलिक अधिकार (बेसिक फंडामेंटल राइट्स) यानी आर्टिकल 19 के तहत व्यापार या व्यवसाय करने की स्वतंत्रता का उल्लंघन है।

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि:

  • लाइसेंसिंग प्राधिकरण ने लाइसेंस को दोबारा बनाने से ठीक ही इनकार किया है क्योंकि, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की धारा 9 और धारा 2 (16) के तहत पक्षियों को बंदी बनाकर पालने का व्यवसाय निषिद्ध (प्रोहिबिटेड) है।
  • मौलिक अधिकार के उल्लंघन की अपीलकर्ता की याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि आर्टिकल 19 में प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) है कि यदि कोई व्यवसाय सार्वजनिक शांति के लिए खतरा पैदा करता है या कानून की नजर में अवैध पाया जाता है, तो उसे किसी भी ऐसे व्यापार को करने से मना किया जाएगा। 

कंज्यूमर एजुकेशन एंड रिसर्च सोसायटी, अहमदाबाद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2000

इस मामले में, गुजरात सरकार ने अधिनियम की धारा 18 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए कच्छ के लखपत तालुका में वन क्षेत्र के एक हिस्से को ‘वन्यजीव सेंक्चुअरी’ के रूप में नारायण सरोवर चिंकारा सेंक्चुअरी’ का नाम देकर घोषित किया, जहां राज्य सरकार ने अधिसूचना जारी की, की 94.87 वर्ग कि.मी. भूमि उक्त वन का भाग होगी।

याचिकाकर्ता ने अधिसूचना को चुनौती दी थी, जिसे राज्य सरकार ने रद्द कर दिया था। राज्य सरकार द्वारा उठाए गए कदम:

  • राज्य सरकार ने सेंक्चुअरी के क्षेत्र को कम करने का निर्णय लिया, क्योंकि यह आवश्यकता से अधिक पाया गया था और क्षेत्र को कम करने का निर्णय उनके लिए सहायक हो सकता था क्योंकि वह उस क्षेत्र के खनिज संपदा (मिनरल वेल्थ) का उपयोग करके उसे आर्थिक (इकोनॉमिक) रूप से व्यवस्थित रूप में विकसित करना चाह रहे थे।
  • इस संबंध में एक उपयुक्त प्रस्ताव पास करने के लिए सरकार ने, राज्य विधायिका (स्टेट लेजिस्लेचर) का रुख किया। राज्य विधायिका ने वैधानिक सीमा को कम करने के लिए प्रस्ताव पास किया और यह, अधिनियम की धारा 26A(3) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए पास किया गया था।
  • सरकार ने इसे ध्यान में रखते हुए एक एक अधिसूचना जारी की, लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा इस आधार पर फिर से चुनौती दी गई कि यह क्षेत्र वन्यजीवों की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है।

हाई कोर्ट:

  • याचिका को खारिज कर दिया गया और कहा गया कि राज्य विधायिका वन्यजीवों के बारे में काफी जागरूक है और 1200 चिंकाराओं की रक्षा के लिए 444.23 वर्ग कि.मी. का क्षेत्र पर्याप्त है।
  • यह आगे माना गया कि क्षेत्र के आर्थिक विकास से, क्षेत्र के लोगों को बड़े पैमाने पर लाभ होने की संभावना है और इससे पौधों और जीवों के संरक्षण, सुरक्षा और विकास में मदद मिलेगी।

याचिकाकर्ता ने हाई कोर्ट के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी कि:

  • राज्य सरकार ने गलत तरीके से यह मान लिया है कि चुनौती दी गई अधिसूचना का उद्देश्य क्षेत्र में चिंकारा की रक्षा करना था।
  • इसे इकोसिस्टम की रक्षा और इकोलॉजिकल संतुलन बनाए रखने की दृष्टि (व्यू) से जारी किया गया है।
  • राज्य विधायिका ने सभी प्रासंगिक (रिलेवेंट) तथ्यों को इकट्ठा करने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं किया है और केवल राज्य सरकार की राय के आधार पर प्रस्ताव पास किया गया है।
  • यह इंगित (पॉइंट) किया गया था कि जिस भूमि कोसीमेंट प्लांट की स्थापना के उद्देश्य से लीज पर दिया गया था उसपर बड़ी संख्या में पेड़ थे, जिसे विधायिका के ध्यान में नहीं लाया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को इस आधार पर स्पष्ट किया कि:

  • राज्य विधायिका के प्रस्ताव को अमान्य करना उचित नहीं होगा, क्योंकि यह विधिवत (ड्यूली) पाया गया था कि यह निर्णय, उनके द्वारा तथ्यों की उचित समीक्षा (रिव्यू) के साथ लिया गया था। इसने इस संदर्भ में यह कहा कि क्षेत्र को कम करने का निर्णय राज्य विधायिका को दिया गया था न कि राज्य सरकार को। राज्य विधायिका में बुद्धिजीवी (इंटेलेक्चुअल) और प्रतिनिधि (रिप्रेजेंटेटिव) होते हैं, जो स्थानीय क्षेत्रों और उनकी सुरक्षा के बारे में अच्छी तरह से जानते हैं, इसलिए राज्य विधायिका की शक्तियों और कार्यों पर सवाल उठाना अमान्य होगा।
  • हालांकि, राज्य विधायिका ने प्रस्ताव को जल्दबाजी में पास करने का निर्णय लिया था और सभी प्रासंगिक तथ्यों पर विचार किए बिना, उसके निर्णय को अमान्य घोषित करना समझदारी नहीं होगी, जब तक कि यह दिखाने के लिए पर्याप्त तर्क न हो कि इस प्रकार लिए गए निर्णय का पर्यावरण और वन्य जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा ।
  • कोर्ट ने कहा कि अधिसूचित क्षेत्र में जंगल एक मृदीय कांटेदार जंगल (एडाफिक थॉर्न फॉरेस्ट) है, लेकिन इसमें बड़ी संख्या में पेड़ हैं। वन समिति द्वारा घोषित बायोस्फीयर रिजर्व के पदनाम (डेजिगनेशन) से इसे एक संभावित स्थल के रूप में पहचाना गया है, लेकिन साथ ही यह बताया गया है कि यह एक पिछड़ा क्षेत्र था और औद्योगिक (इंडस्ट्रियल) विकास की कोई संभावना नहीं है।

इसलिए, पुष्टि की गई, कि यदि राज्य विधायिका और सरकार द्वारा पिछड़े क्षेत्र के आर्थिक विकास और पौधों और जानवरों दोनों सहित पर्यावरण की सुरक्षा के बीच एक समान संतुलन बनाए रखा जाता है, तो निषेध के सिद्धांत (प्रिंसिपल ऑफ़ प्रोहिबिशन) को लागू नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन  संधारणीय विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) और अंतर-पीढ़ीगत समानता (इंटर -जेनेरेशनल इक्विटी) की दृष्टि से ‘संरक्षण के सिद्धांत (प्रिंसिपल ऑफ़ प्रोटेक्शन)’, ‘प्रदूषक भुगतान के सिद्धांत (प्रिंसिपल ऑफ़ पॉल्यूटर्स पे)’ को लागू किया जा सकता है।

नवीन रहेजा बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 2001

इस मामले में, एक वन्यजीव उत्साही (एंथूजिआस्ट) नवीन रहेजा ने भारत के संविधान के आर्टिकल 32 के तहत एक जनहित याचिका दायर की, जिसमें भुवनेश्वर के चिड़ियाघर में बंदी बाघों की दुर्बलता (वल्नरबिलिटी) और बाद में नेहरू जूलॉजिकल पार्क, हैदराबाद में, जिंदा बाघिन की खाल निकालने की सबसे भयावह घटना के बारे में बताया गया। उन्होंने रिजर्व वनों और चिड़ियाघरों दोनों में जानवरों के कल्याण पर अपनी चिंता व्यक्त की। सुप्रीम कोर्ट को उस भीषण गतिविधि से पीड़ा हुई जो मनुष्यों द्वारा की गई थी, जिससे जानवरों को बहुत अधिक पीड़ा हुई थी।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:

  • यह चिड़ियाघर के अधिकारियों का कर्तव्य था कि वह बाघ को सुरक्षा प्रदान करे, लेकिन परिणामस्वरूप चिड़ियाघर में की गई इस क्रूरता से कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं हुई।
  • बिचारे बेजुबान जानवरों के साथ इतने भयानक तरीके से व्यवहार करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, जिसके परिणामस्वरूप पशु क्रूरता होती है। यदि ऐसा किया जाता है, तो इसके परिणामस्वरूप पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के तहत दंड दिया जाएगा।
  • कोर्ट ने निर्देश दिया कि राज्य को उचित कदम उठाने चाहिए ताकि चिड़ियाघर या आरक्षित वनों में ऐसी कोई घटना कभी न हो।

टी.एन.गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 2012

इस मामले में याचिकाकर्ता गोदावर्मन ने सुप्रीम कोर्ट मे, आर्टिकल 32 के तहत एक याचिका दायर की और कहा कि यूनियन ऑफ़ इंडिया और छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार को एशियाई जंगली भैंस, एक लुप्त हुई प्रजाति को बचाने के लिए आवश्यक कदम उठाने के लिए निर्देशित (डायरेक्ट) किया जाना चाहिए, और यह भी कहा कि, यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाएं जाने चाहिए कि जंगली और घरेलू भैंस का प्रजनन न हो और जेनेटिक प्योरिटी बनी रहे।

सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार (डिटेल) में निर्देश दिए:

वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया, 1994

वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया की शुरुआत 1994 में बेलिंडा राइट द्वारा सोसायटी के कार्यकारी निदेशक (एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर) के रूप में की गई थी और इसमें पर्यावरणवादी (एनवायरनमेंटलिस्ट) और संरक्षणवादी (कंजर्वेशनिस्ट) आधिकारिक सदस्य के रूप में शामिल थे। भारत के बढ़ते वन्यजीव संकट, अवैध शिकार से लेकर चिड़ियाघरों और वन्यजीव सैंक्चुअरी में जानवरों को परेशान करने के भयावह कार्य पर ध्यान केंद्रित करने के मुख्य उद्देश्य के साथ, इस सोसाइटी को बनाया गया था। इस प्रकार सोसाइटी ने सरकारी अधिकारियों को अवैध शिकार से निपटने और जंगलों, चिड़ियाघरों, सैंक्चुअरी और बायोस्फीयर रिजर्व में की जा रही किसी भी अवैध गतिविधि पर नज़र रखने के लिए सहायता प्रदान की, सोसाइटी ने हाल ही में अपनी सीमाओं को बढ़ाया है और यह पशु अधिकारों की मान्यता के लिए लड़ रहा है, और यह कोई भी पशु-मानव संघर्ष होने पर कार्रवाई करने के लिए, और लुप्त हुए वन्यजीव प्रजातियों को सुरक्षा भी प्रदान करता है।

यह सोसायटी, वन्यजीव कानून प्रवर्तन कार्यशालाओं (वाइल्डलाइफ लॉ एनफोर्समेंट वर्कशॉप) का आयोजन (कंडक्ट) करके, वन्यजीव अपराध डेटाबेस के माध्यम से, वन्यजीव मामलों का व्यापक (कंप्रिहेंसिव) विवरण प्रदान करके, अवैध शिकार, अतिक्रमण (एंक्रोचमेंट) और किसी भी अवैध गतिविधि से संबंधित मामलों को दर्ज करने में मदद करने के लिए कानूनी कार्यक्रम (लीगल प्रोग्राम) आयोजित करके और राज्य सरकारों द्वारा आयोजित विभिन्न संरक्षण परियोजनाओं (प्रोजेक्ट्स) का समर्थन करके, संबंधित राज्य सरकारों की मदद करती है। वर्ष 2017 में, सोसायटी ने 19 वन्यजीव मामलों को दर्ज करने में सरकार और प्रवर्तन एजेंसियों को सूचना और सहायता प्रदान करके उनकी मदद की और उन 19 मामलों में से, 15 मामले भारत के थे और 4 नेपाल के थे, जो भारत-नेपाल सीमा के पास थे। इन मामलों में 38 आरोपित वन्यजीव अपराधियों, 26 भारतीय नागरिकों और 11 नेपाली को गिरफ्तार किया गया।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति (नेशनल एनवायर्नमेंट पॉलिसी) 2006

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 केंद्र सरकार द्वारा एक स्वच्छ पर्यावरण के लिए शुरू की गई नीति है, जिसे भारत के संविधान में आर्टिकल 48A और आर्टिकल 51A(g) के तहत निर्देशित किया गया है, और जिसे न्यायपालिका द्वारा, संविधान के आर्टिकल 21 के तहत मजबूत किया गया है।  इस नीति का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के संरक्षण के लिए आवश्यक पौधों, वन्यजीवों, जंगलों और अन्य मनुष्य द्वारा बनाई गई धरोहर (हेरिटेज) सहित पर्यावरणीय संसाधनों (एनवायरमेंटल रिसोर्सेज) का संरक्षण करना है। जैसा कि लेख वन्यजीवों के संरक्षण के बारे में बात करता है, इसलिए निर्माताओं द्वारा वन्यजीवों के संरक्षण के लिए अपनाई गई रणनीतियों (स्ट्रेटजीज) के बारे में बात करते हैं:

  • देश के संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क का विस्तार करना।
  • सैंक्चुअरी और बायोस्फीयर क्षेत्रों में वन्यजीवों के संरक्षण और सुरक्षा को बढ़ाने वाली साझेदारी (पार्टनरशिप) का निर्माण और उसे लागू करना।
  • वन्यजीव स्थलों पर इकोटूरिज्म को प्रोत्साहित करना।
  • बंदी (कैप्टिव) प्रजनन और लुप्त हुई प्रजातियों के संरक्षण के उपायों को लागू करना।

क्या निर्णय एक अच्छी मिसाल हैं (आर जजमेंट्स ए गुड प्रिसीडेंट)

यूनाइटेड नेशंस ने जानवरों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए पशु अधिकारों के कानून का प्रस्ताव रखा। न्यायपालिका ने समय-समय पर जानवरों के कल्याण में निर्णय लिए हैं और मानव अधिकारों को जोड़कर पशु अधिकारों के महत्व को पहचाना है।

निर्णय एक अच्छी मिसाल हैं, लेकिन गलत करने वाले को दी गई सजा पर्याप्त नहीं है। भले ही न्यायपालिका ने जानवरों की सुरक्षा के लिए निर्णय और कार्य किए हैं, लेकिन पशु क्रूरता के मामलों में कोई कमी नहीं आई है। यह न केवल निर्णय है बल्कि न्यायपालिका और सरकार द्वारा की गई एक पहल भी हैं, जैसे:

  • देश में पौधों और जीवों के संरक्षण के लिए 14 बायोस्फीयर रिजर्व स्थापित किए गए हैं।
  • सरकार द्वारा विभिन्न राष्ट्रीय जागरूकता कार्यक्रम शुरू किए गए हैं।
  • विभिन्न वनों और वन्यजीव सेंक्चुअरी को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान की गई है।

जीवों की रक्षा के लिए प्रत्येक नागरिक की सामूहिक जिम्मेदारी

संविधान ने भारत के विभिन्न नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए हैं, लेकिन साथ ही उन्हें मौलिक कर्तव्य (फंडामेंटल ड्यूटीज) भी प्रदान किए गए हैं। वन्यजीवों को सुरक्षा प्रदान करना न केवल न्यायपालिका और सरकार का कर्तव्य है, बल्कि वन्यजीवों सहित, पर्यावरण की रक्षा करना नागरिकों की सामूहिक (कलेक्टिव) जिम्मेदारी भी होनी चाहिए।

  • संविधान के 42वें संशोधन, 1976 ने आर्टिकल 48A पेश किया, जो राज्य पर वन्यजीवों सहित, पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने का दायित्व डालता है।
  • संविधान के 42वें संशोधन, 1976 ने आर्टिकल 51A पेश किया, जो प्रत्येक नागरिक पर वन्यजीवों की रक्षा करने और जीवित प्राणियों के प्रति दया रखने का एक मौलिक कर्तव्य लागू करता है।

इसलिए, यह कहा जा सकता है कि राज्य और नागरिक दोनों वन्यजीवों की रक्षा करने और जीवित प्राणियों के लिए दया भाव रखने के लिए बाध्य हैं। संविधान की 7वीं अनुसूची (शेड्यूल) की सूची III के तहत कहा गया है की, केंद्र और राज्य सरकार, दोनों जानवरों के प्रति क्रूरता की रोकथाम (प्रिवेंशन), वनों के संरक्षण और सुरक्षा, वन्यजीवों और पक्षियों की रक्षा, एक राज्य से दूसरे राज्य में, मनुष्य, जानवरों और पौधों को प्रभावित करने वाले संक्रामक (इनफेक्शियस) रोगों या कीटों की रोकथाम से संबंधित कानून बना सकते हैं। 7वीं अनुसूची की सूची II के तहत कहा गया है कि राज्य के पास, पशुओं के संरक्षण, सुरक्षा और सुधार के लिए कानून बनाने और पशु रोगों को रोकने और मत्स्य पालन (फिशरी) पर कानून बनाने की शक्ति है।

निष्कर्ष (कंक्लूजऩ)

विधायिका और न्यायपालिका ने सामूहिक रूप से वन्यजीवों की रक्षा के लिए उपाय किए हैं और ऐसे निर्णय पास किए हैं, जिनमें वन्यजीवों के महत्व पर जोर दिया गया है। पर्यावरण प्रदूषण, इकोलॉजिकल डिस्ट्रक्शन और प्राकृतिक संसाधनों के संघर्ष से जुड़े मामले बढ़ रहे हैं, इसलिए न्यायपालिका ने क्षेत्रीय आधार पर “पर्यावरण न्यायालयों” की स्थापना का सुझाव दिया है, जिससे एक नए “पर्यावरण न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस)” का विकास हुआ है। “

इन प्रयासों ने साबित कर दिया है कि न्यायपालिका ने न केवल पर्यावरण के मुद्दों के बारे में लोगों के बीच जागरूकता पैदा की है, बल्कि पर्यावरणीय मुद्दों से जुड़े किसी विशेष मामले पर कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) में एक तात्कालिकता (अर्जेंसी) भी लाई है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

  • Environmental Law, fourth edn, Paramjit Jaswal, Nishtha Jaswal, Vibhuti Jaswal.

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