मुफ्त कानूनी सहायता की चुनौतियां और समाधान

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Constitution of India
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यह लेख भारती विद्यापीठ विश्वविद्यालय, पुणे के न्यू लॉ कॉलेज के Beejal Ahuja ने लिखा है। यह लेख मुफ्त कानूनी सहायता की अवधारणा (कांसेप्ट) और इसे प्रदान करने की चुनौतियों पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Sonia Balhara द्वारा किया गया है।

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परिचय (इंट्रोडक्शन)

जस्टिस ब्लैकमन ने ठीक ही कहा था कि “न्याय मांगने की अवधारणा को डॉलर के मूल्य (वैल्यू) के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। न्याय पाने में पैसा कोई भूमिका नहीं निभाता है।” न्याय की राह कभी सस्ती नहीं रही  है। अदालतों में न्याय की मांग करते हुए हर कदम पर मोटी रकम चुकानी पड़ती है। भारत के संविधान के आर्टिकल 14 में कहा गया है कि कानून के समक्ष हर एक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार किया जाएगा, और धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या जन्म के स्थान सभी के लिए कानून की समान सुरक्षा सुनिश्चित करता है। साथ ही, आर्टिकल 22(1) में कहा गया है कि जिसे गिरफ्तार किया जा रहा है, उसे उसकी पसंद के कानूनी व्यवसायी (प्रैक्टिशनर) से परामर्श (कंसल्ट) करने और बचाव करने के अधिकार से इंकार नहीं किया जा सकता है, और कानून का एक बुनियादी सिद्धांत (बेसिक प्रिंसिपल) है जिसका पालन किया जाना चाहिए, वह है, ऑडी अल्टरम पार्टेम, जिसका मतलब है कि किसी भी पार्टी को अनसुना नहीं छोड़ा जाएगा। न्याय एक मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) होने के बाद भी, महंगी कानूनी व्यवस्था को वहन (अफ़्फोर्ड) करने में असमर्थता के कारण गरीब लोगों को बहुत नुकसान उठाना पड़ता है और कई बार अन्याय के लिए समझौता करना पड़ता है।

कानूनी सहायता गरीब लोगों के लिए मार्ग दिखाने वाले (टॉर्चबियरर) का काम करती है जो अदालती कार्यवाही का खर्च नहीं उठा सकते। यह न्यायिक (ज्यूडिशियल) कार्यवाही, प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) कार्यवाही, अर्ध-न्यायिक (क्वासि-ज्यूडिशियल) कार्यवाही, या सभी कानूनी समस्याओं के संबंध में किसी भी परामर्श में गरीब लोगों को दी जाने वाली मुफ्त कानूनी सहायता है। कानूनी सहायता जैसा कि जस्टिस पी.एन. भगवती गरीब और अनपढ़ लोगों के लिए न्याय वितरण प्रणाली (डिलीवरी सिस्टम) तक आसान पहुंच की व्यवस्था है, ताकि अज्ञानता (इग्नोरेंस) और गरीबी उन्हें न्याय मांगने से न रोके। इस सेवा का एकमात्र उद्देश्य गरीब और पददलित (डाउनट्रोड्डेन) लोगों को समान न्याय प्रदान करना है। इसमें न केवल अदालती कार्यवाही में एक वकील के प्रतिनिधित्व के लिए मुफ्त पहुंच शामिल है बल्कि कानूनी जागरूकता, कानूनी सलाह, जनहित याचिका (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन), कानूनी आंदोलन, लोक अदालतें, कानून सुधार और ऐसी कई सेवाएं भी शामिल हैं जो अन्याय को रोक सकती हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (हिस्टोरिकल बैकग्राउंड)

आजादी के बाद कई राज्यों ने जरूरतमंद लोगों के लिए कानूनी सहायता की अवधारणा शुरू की। 1958 में, 14वीं लॉ कमीशन की रिपोर्ट ने गरीबों को समान न्याय और मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने पर जोर दिया। केरला पहला राज्य था जिसने गरीब लोगों के लिए कानूनी सहायता पर नीति (पॉलिसी) शुरू की जिसका नाम केरला कानूनी सहायता है। तमिलनाडु और महाराष्ट्र ने भी गरीब और पिछड़े (बैकवर्ड) लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए इसी तरह की योजनाएं शुरू कीं। 1971 में माननीय जस्टिस पी.एन. भगवती एक कमिटी के अध्यक्ष थे जो सभी को न्याय प्रदान करने और कानूनी सहायता की विभिन्न कमिटीज के कामकाज में न्यायाधीशों की भूमिका पर जोर देने के लिए बनाई गई थी, जो थीं-

  1. तालुका कानूनी सहायता कमिटी (तालुका लीगल ऐड कमिटी)
  2. जिला कानूनी सहायता कमिटी
  3. राज्य कानूनी सहायता कमिटी

1973 में, माननीय जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर के नेतृत्व में कानूनी सहायता पर एक विशेषज्ञ (एक्सपर्ट) कमिटी द्वारा “प्रोसेसुअल जस्टिस टू पुअर” पर एक रिपोर्ट प्रकाशित (पब्लिश्ड) की गई थी। रिपोर्ट में कानूनी सहायता को वैधानिक (स्टेच्यूटरी) आधार देने की आवश्यकता, लॉ स्कूलों में कानूनी सहायता क्लीनिक स्थापित करने की आवश्यकता, जनहित याचिका पर जोर, और कानूनी सहायता प्रणाली को लोगों को आसानी से उपलब्ध कराने के अन्य तरीकों पर जोर दिया गया है। फिर 1977 में जस्टिस पी.एन. भगवती और जस्टिस कृष्ण अय्यर को “राष्ट्रीय न्यायशास्त्र समान न्याय और सामाजिक न्याय” के रूप में नामित किया गया। रिपोर्ट ने कानूनी सहायता कार्यक्रमों के कामकाज को देखा, उपचार या न्याय प्राप्त करने में वकीलों के मूल्य और भूमिका को मान्यता दी, और नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी (एनएएलएसए) की स्थापना का भी प्रस्ताव रखा।

1976 में, मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, इसे 42वें संवैधानिक संशोधन (अमेंडमेंट) द्वारा “समान न्याय और मुफ्त कानूनी सहायता” पर डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी (डीपीएसपी) के तहत आर्टिकल 39A को सम्मिलित (इनसर्टिंग) करके एक वैधानिक अधिकार बनाया गया था जिसमें कहा गया है कि राज्य के पास सभी को समान न्याय का अवसर सुनिश्चित करने और जरूरतमंदों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए न्यायालय होना चाहिए ताकि आर्थिक (इकोनॉमी) या कोई अन्य विकलांगता (डिसेबिलिटी) किसी को न्याय मांगने से न रोके।

1980 में, कानूनी सहायता योजना के कार्यान्वयन (इम्प्लीमेंटेशन) के लिए कमिटी (सीआईएलएएस) को माननीय जस्टिस पी.एन. भगवती की अध्यक्षता में देश में चल रही कानूनी सहायता गतिविधियों की निगरानी और पर्यवेक्षण (सुपरवाइस्ड) किया और लोक अदालतों की भी शुरुआत की जो विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग (अमीकेबली) से निपटाने के लिए एक प्रभावी उपकरण (टूल) हैं।

न्यायपालिका की भूमिका (रोल ऑफ ज्यूडिशरी)

न्यायपालिका हमेशा भारत में एक प्रमुख समर्थक और मुफ्त कानूनी सहायता की प्रस्तावक  (प्रोपोनेंट) रही है। अतीत से यह स्पष्ट है कि माननीय जस्टिस पी.एन. भगवती और माननीय जस्टिस कृष्ण अय्यर ने कानूनी सहायता आंदोलन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, और भारत में मुफ्त कानूनी सहायता के महत्व पर जोर दिया है। न्यायपालिका के विभिन्न निर्णय कानूनी सहायता कार्यक्रम को बढ़ावा देने में प्रभावी साबित हुए हैं। उनमें से कुछ हैं:

हुसैनारा खातून बनाम होम सेक्रेटरी, स्टेट ऑफ बिहार

इस मामले ने बिहार राज्य में न्याय वितरण प्रणाली की खराब स्थिति को उजागर किया था। ऐसे बहुत से विचाराधीन (अंडरट्रायल्स) कैदी थे जिन्हें जबरदस्ती जेल में डाल दिया गया था और ऐसे आरोपी थे जिन्हें जबरदस्ती दोषी ठहराया गया था और उन्हें ज्यादा सजा दी गई थी, जिसके वे हकदार नहीं थे। इन सभी देरी के पीछे एकमात्र कारण दोषी व्यक्ति द्वारा अपने बचाव के लिए एक वकील को नियुक्त करने में असमर्थता थी। इसकी अध्यक्षता जस्टिस पी.एन. भगवती ने कहा कि मुफ्त कानूनी सेवा का अधिकार किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति के लिए ‘उचित, निष्पक्ष और न्यायपूर्ण’ प्रक्रिया का एक अनिवार्य हिस्सा है और इसकी गारंटी आर्टिकल 39A और आर्टिकल 21 में निहित (इम्प्लिसिट) है।

स्टेट ऑफ हरियाणा बनाम दर्शन देवी

इस मामले में, माननीय जस्टिस कृष्णा अय्यर ने कहा कि कोई भी गरीब केवल अदालती शुल्क और आदेश XXXIII, सिविल प्रोसीजर कोड के प्रावधानों को लागू करने से इनकार करने के कारण न्याय से वंचित नहीं होना चाहिए, और उन्होंने इसके प्रावधानों को दुर्घटना दावा न्यायाधिकरणों तक बढ़ा दिया गया।

खत्री बनाम स्टेट ऑफ बिहार

इस मामले में माननीय जस्टिस पी.एन. भगवती ने सेशन न्यायाधीशों के लिए यह अनिवार्य कर दिया कि वे आरोपियों को मुफ्त कानूनी सहायता के अपने अधिकारों के बारे में सूचित करें और यदि ऐसा कोई व्यक्ति जो गरीबी या बदहाली के कारण बचाव के लिए एक वकील को नियुक्त करने में असमर्थ है।

शीला बरसे बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

इस मामले में, माननीय न्यायालय द्वारा यह माना गया कि भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 में निहित त्वरित परीक्षण करना एक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।

सुक दास बनाम यूनियन टेरिटरी ऑफ अरुणाचल प्रदेश

यह न्याय जस्टिस पी.एन. भगवती द्वारा दिए गए ऐतिहासिक निर्णय में से एक था। उन्होंने कहा कि भारत में बड़ी संख्या में निरक्षर लोग हैं जिसके कारण उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी नहीं है। इसलिए, लोगों के बीच कानूनी साक्षरता और कानूनी जागरूकता को बढ़ावा देना आवश्यक है और यह कानूनी सहायता का एक महत्वपूर्ण अवयव (कंपोनेंट) भी है।

अन्य क़ानून (अदर स्टैच्यूट्स)

कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, 1973 की धारा 304

इस धारा में कहा गया है कि जब सेशन न्यायालय के समक्ष एक मुकदमे में, आरोपी बचाव के लिए एक प्लीडर या वकील को शामिल करने में सक्षम नहीं है और अगर अदालत को लगता है कि आरोपी एक वकील को शामिल करने की स्थिति में नहीं है, तो यह कर्तव्य है न्यायालय द्वारा आरोपी के बचाव के लिए एक वकील या एक प्लीडर नियुक्त करने के लिए और खर्च राज्य द्वारा वहन किया जाएगा।

सिविल प्रोसीजर कोड, 1908 का नियम 9A

सी.पी.सी के आदेश XXXIII के इस नियम में कहा गया है कि अदालत के पास एक निर्धन व्यक्ति को वकील नियुक्त करने की शक्ति है और ऐसे व्यक्ति को अदालती शुल्क का भुगतान करने से भी छूट मिलती है।

लीगल सर्विस अथॉरिटी एक्ट, 1987

यह एक्ट भारत में कानूनी सहायता आंदोलन का एक नया हिस्सा था। एक्ट में अंतिम संशोधन किए जाने के बाद इसे 1995 में लागू किया गया था। जस्टिस आर.एन. मिश्रा ने इस एक्ट को लागू करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिर 1988 में जस्टिस ए.एस आनंद नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी के कार्यकारी अध्यक्ष बने।

एक्ट के 2 उद्देश्य थे: 

  • समाज के गरीब और कमजोर वर्गों को मुफ्त कानूनी सेवाएं प्रदान करना, यह सुनिश्चित करना कि कोई भी नागरिक किसी भी आर्थिक और अन्य अक्षमता के कारण न्याय से वंचित न रहे, और,
  • लोक अदालतों का आयोजन कर सुनिश्चित करें कि न्याय का समान वितरण हो।

इस एक्ट की धारा 12 उन लोगों की एक श्रेणी (कैटेगरी) निर्धारित करती है जो इस एक्ट के तहत मुफ्त कानूनी सहायता के हकदार हैं। इस एक्ट में राष्ट्रीय, राज्य, जिला और तालुका स्तरों पर संस्थागत (इंस्टीट्यूशनल) ढांचे का भी उल्लेख किया गया है, जो कि नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी, डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस अथॉरिटी, जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण और तालुका लीगल सर्विस अथॉरिटी है।

नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी (एनएएलएसए)

एनएएलएसए एक शीर्ष निकाय (अपेक्स बॉडी) है जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश पैट्रन-इन-चीफ और सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) न्यायाधीश कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में होते हैं, जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है। एनएएलएसए एक्ट के तहत कानूनी सेवाओं को आसानी से उपलब्ध कराने के लिए नीतियों और सिद्धांतों के साथ-साथ प्रभावी आर्थिक योजनाओं को तैयार करता है। यह कानूनी सहायता कैम्प भी आयोजित करता है, लोगों को लोक अदालत में विवादों को निपटाने के लिए प्रोत्साहित करता है, कानूनी सेवाओं में रिसर्च शुरू करता है और बढ़ावा देता है, और कानूनी सहायता कार्यक्रमों का आवधिक मूल्यांकन (पेरिओडिक ईवैल्यूएशन) भी करता है। यह कानूनी साक्षरता को बढ़ावा देता है और विभिन्न लॉ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में कानूनी सहायता क्लीनिक स्थापित करता है और पैरालीगल के प्रशिक्षण को भी बढ़ावा देता है। इसके अलावा, एनएएलएसए स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी की गतिविधियों की निगरानी करता है और गैर-सरकारी संगठनों को कानूनी सहायता योजनाओं को लागू करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी (एसएलएसए)

लीगल सर्विस अथॉरिटी एक्ट हर एक राज्य सरकार के लिए एक स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी होना अनिवार्य बनाता है जिसमें हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पैट्रन-इन-चीफ और कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में हाई कोर्ट के एक सेवारत (सर्विंग) या सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं, जो राज्य के गवर्नर द्वारा मनोनीत (नॉमिनेट) किए जाते है। स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी एनएएलएसए द्वारा निर्धारित नीतियों, नियमों और रणनीतियों को लागू करता है। यह प्राधिकरण सर्वोच्च निकाय है जो राज्य में होने वाली कानूनी सेवाओं की गतिविधियों की निगरानी करता है। यह लोक अदालतों और विभिन्न कानूनी सहायता कार्यक्रमों का भी आयोजन करता है।

डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस अथॉरिटी (डीएलएसए)

लीगल सर्विस एक्ट हर एक राज्य के लिए संबंधित राज्य के हर एक जिले में एक डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस अथॉरिटी का गठन (कंन्स्टिट्यूट) करना अनिवार्य बनाता है जिसमें एक अध्यक्ष के रूप में जिला न्यायाधीश शामिल होंगे। यह प्राधिकरण स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी द्वारा निर्धारित कार्यों और नियमों का पालन करता है। और यह तालुका लीगल सर्विस कमिटी और जिले में घूमने वाली अन्य कानूनी सेवाओं के कार्यों की निगरानी भी करता है और लोक अदालतों का आयोजन करता है।

तालुका लीगल सर्विस कमिटी

स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी द्वारा एक तालुका लीगल सर्विस कमिटी का गठन किया जाता है जिसमें एक पदेन  (एक्स-ऑफिशिओ) अध्यक्ष के रूप में सबसे वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी होता है। यह तालुका में होने वाली कानूनी सेवाओं की गतिविधियों का पर्यवेक्षण और समन्वय (कोआर्डिनेशन) करता है और लोक अदालत का आयोजन भी करता है।

लीगल सर्विस अथॉरिटी एक्ट की धारा 3A में समाज के गरीब और कमजोर वर्गों को कानूनी सहायता करने वाला और न्याय प्रदान करने के लिए सुप्रीम कोर्ट लीगल सर्विस कमिटी की स्थापना का उल्लेख है। यह समिति सुप्रीम कोर्ट में लोक अदालतों का आयोजन भी करती है और कमिटी के अधीन सुप्रीम कोर्ट मध्यस्थता केंद्र (मेडिएशन सेंटर) भी कार्य करती है।

साथ ही, धारा 8A स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी द्वारा हाई कोर्ट लीगल सर्विस अथॉरिटी की स्थापना के बारे में बताती है।

लोक अदालत

लोक अदालतें विवाद समाधान का एक वैकल्पिक (अल्टरनेटिव) माध्यम हैं। लोक अदालतों का मुख्य उद्देश्य अदालतों के कार्यभार को कम करना और मामलों का सस्ता त्वरित (स्पीडी) निपटान सुनिश्चित करना है। लीगल सर्विस अथॉरिटी एक्ट, 1987 का चैप्टर VI लोक अदालतों की शक्तियों से संबंधित प्रावधानों को बताता है। लोक अदालतों के कई लाभ हैं जैसे कि कोई अदालत शुल्क की आवश्यकता नहीं है, यह विवादों को सुलझाने का एक बहुत ही सौहार्दपूर्ण तरीका है, मामलों का त्वरित निपटान है, और पक्ष समझौता करने या तदनुसार समझौता करने के लिए स्वतंत्र हैं।

मुद्दे और चुनौतियां

इतने सारे वैधानिक प्रावधानों, समितियों और प्राधिकरणों के बाद भी, एक रिक्त स्थान है जिसे भरने की आवश्यकता है। आज भी, बहुत से लोग अन्याय के लिए समझौता करते हैं क्योंकि वे अपने बचाव के लिए एक वकील का खर्च नहीं उठा सकते। अदालतों में इतने सारे लंबित मामले क्यों हैं, इसके कई कारण हैं, ऐसे कई लोग हैं जो दोषी हैं लेकिन निर्दोष हैं और अपना बचाव करने में सक्षम नहीं हैं। कानूनी सहायता सेवाओं के कार्यान्वयन के रास्ते में कई चुनौतियाँ और मुद्दे आते हैं।

सार्वजनिक कानूनी शिक्षा और कानूनी जागरूकता का अभाव (लैक ऑफ पब्लिक लीगल एजुकेशन एंड लीगल अवेयरनेस)

ये कानूनी सहायता सेवाएं गरीब और अनपढ़ लोगों के लिए हैं, और प्रमुख मुद्दा यह है कि वे शिक्षित नहीं हैं। उनके पास कानूनी शिक्षा नहीं है, यानी वे अपने मूल अधिकारों और कानूनी अधिकारों से अवगत नहीं हैं। लोगों को कानूनी सहायता सेवाओं के बारे में अधिक जानकारी नहीं है जिसका वे स्वयं लाभ उठा सकते हैं। इसलिए, कानूनी सहायता आंदोलन ने लक्ष्य हासिल नहीं किया है, क्योंकि लोग लोक अदालतों, कानूनी सहायता आदि से ज्यादा परिचित नहीं हैं।

अधिवक्ताओं (एडवोकेट्स), वकीलों आदि के समर्थन का अभाव 

इन दिनों सभी वकील और एडवोकेट्स अपनी सेवाओं के लिए उचित शुल्क चाहते हैं, और उनमें से ज्यादातर ऐसी सामाजिक सेवाओं में भाग लेने में रुचि नहीं रखते हैं। बहुत कम वकील हैं जो इन सेवाओं में योगदान करते हैं लेकिन अच्छी गुणवत्ता (क्वालिटी) वाले कानूनी प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) की कमी न्याय के वितरण (डिलीवरी) में बाधा डालती है।

लोक अदालतों को शक्तियों का अभाव

लोक अदालतों के पास सिविल अदालतों की तुलना में सीमित शक्तियाँ हैं। सबसे पहले, उचित प्रक्रियाओं की कमी। फिर इसमें वे पक्षकारों को कार्यवाही के लिए उपस्थित होने के लिए बाध्य (बाउंड) नहीं कर सकते। कई बार कोई एक पक्ष सुनवाई के लिए उपस्थित नहीं होता और फिर यहां भी निस्तारण (डिस्पोजल) में देरी हो जाती है।

पैरा-लीगल वॉलंटियर्स का कम उपयोग

इन पैरा-लीगल वॉलंटियर्स की मूल भूमिका कानूनी सहायता कैम्प्स, योजनाओं को बढ़ावा देना और समाज के गरीब और कमजोर वर्गों तक पहुंचना है। लेकिन इन पैरा लीगल वॉलंटियर्स के उचित प्रशिक्षण (ट्रेनिंग), निगरानी, ​​सत्यापन (वेरिफिकेशन) का अभाव है। और ये स्वयंसेवक भी पूरी आबादी की तुलना में बहुत कम संख्या में हैं।

समाधान और सुझाव

कानूनी सहायता का लक्ष्य तभी प्राप्त होगा जब सभी जरूरतमंद और गरीब लोग जागरूक होंगे और इसका लाभ उठा रहे होंगे, क्योंकि यह उनका मौलिक अधिकार है। इसलिए, कानूनी सहायता प्रणाली में उन कमियों को भरने के लिए कुछ सुधार किए जाने हैं।

गैर सरकारी संगठनों की भूमिका (रोल ऑफ एनजीओ)

लोगों के बीच उनके अधिकारों और प्रभावी न्याय वितरण के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका को शामिल करना और बढ़ाना।

कानूनी सहायता कार्यक्रम और कानूनी जागरूकता

लोगों के अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाने और जरूरतमंद लोगों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता कार्यक्रमों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए बड़े स्तर पर कानूनी सहायता कैम्प्स और लोक अदालतों का एक संगठन होना चाहिए। विभिन्न पिछड़े क्षेत्रों में अधिकारों, कानूनों के बारे में जागरूक करने और वैकल्पिक विवाद मध्यस्थता, लोक अदालतों आदि के माध्यम से विवादों को हल करके उन्हें मुफ्त कानूनी सेवाओं का विकल्प चुनने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न पिछड़े क्षेत्रों में पात्रता (एंटाइटलमेंट) केंद्रों की स्थापना होनी चाहिए।

कानूनी साक्षरता मिशन (लीगल लिटरेसी मिशन)

अन्य विकसित (डेवलप्ड) देशों में लोगों को कानूनों और अधिकारों के बारे में सूचित करने के लिए 2 साल या 5 साल की योजना है। भारत लोगों को उनके अधिकारों और कानूनों के बारे में शिक्षित करने के लिए 5 साल की योजना भी पेश कर सकता है।

वकीलों को बेहतर पारिश्रमिक (रैम्यूनरेशन)

आजकल, वकीलों के लिए एक अच्छा प्रतिनिधित्व मिलना मुश्किल है क्योंकि वे मुफ्त कानूनी सेवाएं देने में रुचि नहीं रखते हैं, और सेवाओं के लिए कुछ शुल्क की अपेक्षा करते हैं। इसलिए, अदालतों या सरकार द्वारा वकीलों को भुगतान किए जाने वाले पारिश्रमिक में वृद्धि की जानी चाहिए, जो अभियुक्तों को मुफ्त में पेश कर रहे हैं या उनका बचाव कर रहे हैं।

प्रतिक्रिया दृष्टिकोण (फीडबैक एप्रोच)

काउंसलों के काम की निगरानी का मूल्यांकन प्रतिक्रिया दृष्टिकोण के माध्यम से किया जाना चाहिए, अर्थात लोगों से परिषद के काम की प्रतिक्रिया के बारे में पूछकर और फिर हर एक अधिवक्ता की उचित प्रगति रिपोर्ट होनी चाहिए। यह सब एक उचित निगरानी समिति का गठन करके किया जा सकता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

रेजिनाल्ड हेबर स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘जस्टिस एंड द पूअर’ में खूबसूरती से लिखा है कि “कानून तक समान पहुंच के बिना, सिस्टम न केवल गरीबों को उनकी एकमात्र सुरक्षा से वंचित करता है, लेकिन यह उनके उत्पीड़कों के बैंड में अब तक का सबसे शक्तिशाली और क्रूर हथियार रखता है।”  

भारत में एक सफल कानूनी सहायता आंदोलन के लिए, सरकार को जागरूकता फैलाने और लोगों को उनके मूल मौलिक अधिकारों के बारे में शिक्षित करके उचित कदम उठाने की जरूरत है। सरकार का एकमात्र उद्देश्य ‘सभी को समान न्याय’ प्रदान करना होना चाहिए। लोगों के बीच जागरूकता और कानूनी शिक्षा की कमी की प्रमुख समस्या या मुद्दे को हल करके लीगल सर्विस अथॉरिटी एक्ट को उचित कार्यान्वयन की आवश्यकता है। यदि लोग शिक्षित और अधिकारों के प्रति जागरूक होंगे तो मुफ्त कानूनी सहायता सेवाओं आदि का उचित उपयोग होगा। इन सबके कारण, यह अधिकारों का शोषण और जरूरतमंद लोगों द्वारा अधिकारों से वंचित करता है। कानूनी सहायता सेवाओं का उचित प्रबंधन और निगरानी होनी चाहिए।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

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