लाइवलीहुड के अधिकार के आधार पर आर्टिकल 21 का विस्तारित ज्यूरिस्प्रूडेंस

0
1974
Constitution of India
Image Source- https://rb.gy/1umdb4

ह लेख नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी ओडिशा की Avni Sharma ने लिखा है। यह लेख जीवन के अधिकार (राइट टू लाइफ) और आजीविका (लाइवलीहुड) के अधिकार के विस्तारित (एक्सटेंडेड) ज्यूरिस्प्रूडेंस के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

परिचय (इंट्रोडक्शन)

आर्टिकल 21 जीवन और स्वतंत्रता के लिए सुरक्षात्मक (प्रोटेक्टिव) प्रक्रियात्मक (प्रोसीजरल) मैग्नाकार्टा है।”

– जस्टिस अय्यर

मानव गरिमा (डिग्निटी) संविधान निर्माताओं द्वारा बनाए गए सभी अधिकारों और स्वतंत्रताओं का एक जरूरी तत्व है। आर्टिकल 21, जीवन और व्यक्तिगत (पर्सनल) स्वतंत्रता के खतरे के खिलाफ एक ढाल बनकर खड़ा है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि देश में विभिन्न कोर्ट्स द्वारा आर्टिकल 21 की जांच की जा रही है। इसमें अनगिनत अधिकार शामिल हैं जो इस बात को दर्शाते हैं कि आर्टिकल 21 के दायरे को सीमित करना बहुत मुश्किल होगा।

कोर्ट्स ने निरंतर ज्यूरिस्प्रूडेंस के माध्यम से आर्टिकल की कई तरह से व्याख्या (इंटरप्रेट) की है। इनमें से कुछ पहलुओं में आजीविका का अधिकार और सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है। प्रस्तुत लेख निरंतर ज्यूरिस्प्रूडेंस की व्याख्या के माध्यम से आर्टिकल 21 और इसके विकास के बारे में बताता है।

जीवन के अधिकार का सार (एस्सेंस ऑफ़ राइट ऑफ़ लाइफ)

शुरूआती चरण में, कोर्टों ने आजीविका के अधिकार को जीवन के अधिकार के लिए विशेष (एक्सक्लूसिव) माना। लेकिन इस दृष्टिकोण (व्यू) में कई संशोधन (मॉडिफिकेशन) हुए और ‘जीवन’ शब्द की परिभाषा को व्यापक और विस्तृत माना जाने लगा। बोर्ड ऑफ़ ट्रस्टीज मामले के बाद आजीविका के अधिकार को ध्यान में रखा जाने लगा।

इस मामले में स्पष्ट रूप से यह कहा कि, ‘जीवन’ केवल जानवरों के अस्तित्व (एग्जीस्टेंस) या जीवन के दौरान निरंतर परिश्रम को नहीं कहते है। जहां, विभागीय जांच (डिपार्टमेंटल इंक्वायरी) के कारण से किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा (रेप्यूटेशन) या आजीविका प्रभावित होने की संभावना है, तो वहां मानव सभ्यता के कुछ अंतिम गुण जो जीवन को जीने के लायक बनाते हैं, वह खतरे में आ जाएंगे और इसे केवल कानून द्वारा खतरे में डाला जा सकता है, जो उचित प्रक्रियाओं को शामिल करता है।

कोर्ट ने आर्टिकल के दायरे का विस्तार करने के लिए एक बड़ा कदम उठाया जब उसने तर्क (अर्ग्यू) दिया कि आर्टिकल 21 में ‘जीवन’ का मतलब केवल ‘पशु मात्र अस्तित्व’ नहीं है बल्कि ‘मानव गरिमा’ के साथ जीना है। कोर्ट ने इस प्रकार आर्टिकल 21 को बहुत व्यापक (एक्सटेंसिव) मानदंड (पैरामीटर) दिए हैं। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने फ्रांसिस कोरली के मामले में देखा है, और यहां पर इसने जीवन के अधिकार और इसकी सीमा को केवल शरीर या उसकी प्राकृतिक क्षमता की सुरक्षा तक सीमित कर दिया है।

दूसरा प्रश्न यह की जीवन के अधिकार की सीमा, पर्याप्त पोषण (न्यूट्रीशन), कपड़े, सिर पर छत और पढ़ने, लिखने और खुद को अलग अलग तरीकों में व्यक्त (एक्सप्रेस) करने, स्वतंत्र रूप से घूमने और साथी मनुष्यों के साथ घुलने-मिलने की सुविधाओं के संदर्भ (टर्म्स) में हो सकता है। इस अधिकार के घटकों की मात्रा और सामग्री (कंटेंट) देश के आर्थिक (इकोनॉमिक) विकास की सीमा पर निर्भर करती है, लेकिन इसमें जीवन की बुनियादी (बेसिक) आवश्यकताएं शामिल होनी चाहिए और ऐसे कार्यों और गतिविधियों को करने का अधिकार भी शामिल होना चाहिए क्योंकि वे मनुष्य के जीवन के न्यूनतम (मिनिमम) अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) का गठन (कंस्टीट्यूट) करते हैं।

मुन्न बनाम इलिनॉइस के मामले में, जस्टिस फील्ड ने कहा “जैसे कि यहां जीवन शब्द का उपयोग किया गया है, लेकिन इसका अर्थ केवल पशु के समान अस्तित्व से कुछ अधिक है। इसके अभाव के खिलाफ निषेध (डिप्रेशन), शरीर और उसकी प्राकृतिक क्षमता तक फैला हुआ है, जिसके द्वारा जीवन का आनंद लिया जाता है। यह प्रावधान (प्रोविजन) समान रूप से हाथ या पैर के अंगच्छेदन (एम्पुटेशन) द्वारा शरीर के अंग-भंग (म्यूटिलेशन) को प्रतिबंधित करता है। ”

‘बंधुआ मजदूर’ समुदाय (कम्युनिटी) के लिए भारतीय आंदोलन में आर्टिकल 21 भी बहुत स्पष्ट था। लोगों को कम से कम दामों पर खरीदा जाता था और उनके साथ अमानवीय (इन ह्यूमन) व्यवहार किया जाता था। इसलिए, गरिमा के साथ जीवन के अधिकार का एक और पहलू, बंधुआ मुक्ति मोर्चा में पाया गया जिसने, आर्टिकल 21 को मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) के केंद्र के रूप में वर्णित किया, कोर्ट ने इसे एक विस्तृत व्याख्या देते हुए कहा कि- “मानव गरिमा के साथ जीने के लिए जीवन,” शोषण (एक्सप्लोइटेशन) से मुक्त होना चाहिए। इसमें श्रमिकों, पुरुषों और महिलाओं के स्वास्थ्य और ताकत की सुरक्षा और बच्चों के साथ गलत व्यवहार, बच्चों के स्वस्थ तरीके से विकसित होने के अवसर और सुविधाएं शामिल हैं।

चमेली बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश में, कोर्ट ने भोजन, पानी और एक सभ्य वातावरण का अधिकार भी शामिल किया। कोर्ट ने एक संगठित (ऑर्गेनाइज) समाज के संबंध में एक अवलोकन (ऑब्जर्व) किया जो कहता है कि मनुष्य की तरह जीने का अधिकार केवल मनुष्य की पशु आवश्यकताओं को पूरा करने से पूरा नहीं होता है।

यह तभी सुरक्षित होता है जब उसे अपने विकास के लिए सभी सुविधाओं का आश्वासन (एंश्योर) दिया जाता है और उसे उन प्रतिबंधों (रिस्ट्रिक्शन) से मुक्त किया जाता है जो उसके विकास में बाधा बनती हैं। सभी मानवाधिकार इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं। किसी भी सभ्य समाज में गारंटी के अधिकार का अर्थ है भोजन, पानी, स्वस्थ पर्यावरण, चिकित्सा देखभाल और आश्रय का अधिकार।

डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी के माध्यम से सुझाव 

आर्टिकल 39A बताता है कि नागरिकों (पुरुषों और महिलाओं) को आजीविका के पर्याप्त साधन का अधिकार होता है। इसलिए, यह तथ्य यह दर्शाता है कि संविधान निर्माताओं को ऐसी आवश्यकता के बारे में पता था और वे नागरिकों के बुनियादी आजीविका आवश्यकताएं प्रदान करने के लिए तैयार थे।

इसके अलावा, आर्टिकल 39(E) यह सुझाव देता है कि श्रमिकों के स्वास्थ्य और ताकत और बच्चों की कोमल उम्र का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आर्टिकल 21 में जीवन का अधिकार और आजीविका का अधिकार शामिल है और इसका इरादा हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा किया गया था, लेकिन उपलब्ध सुविधाओं की कमी के कारण, वह पर्याप्त आवश्यकताएं प्रदान करने में सक्षम (एबल) नहीं थे।

आजीविका का अधिकार

आजीविका में बुनियादी आश्रय, भोजन, शिक्षा, व्यवसाय (ऑक्यूपेशन) और चिकित्सा देखभाल शामिल हो सकते हैं। जैसे कि पहले चर्चा की गई, समय के साथ कोर्ट का दृष्टिकोण (व्यू) बदलता रहा है। सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की बेंच ने, ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, जिसे “फुटपाथ ड्वेलर्स केस” के नाम से भी जाना जाता है, में निहित (इंप्लाई) किया कि ‘आजीविका का अधिकार’ ‘जीवन के अधिकार’ से आया है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति बिना जीविका के नही रह सकता है, यानी आजीविका के साधनों के बिना नहीं रह सकता है।

कोर्ट ने इस मामले में कहा कि “आर्टिकल 21 द्वारा प्रदान किए गए जीवन के अधिकार का प्रभाव व्यापक और दूरगामी (फार रीचिंग) है। इसका केवल यह अर्थ नहीं है कि जीवन को समाप्त या छीना नहीं जा सकता है, उदाहरण के लिए, कानून द्वारा स्थापित (एस्टेब्लिश) प्रक्रिया (प्रोसीजर) के अलावा, मौत की सजा को लागू करने और निष्पादित (एक्जीक्यूट) करने से छीना जा सकता है। यह जीवन के अधिकार का एक पहलू है। जीवन के अधिकार का एक समान रूप से महत्वपूर्ण पहलू आजीविका का अधिकार भी है क्योंकि कोई भी व्यक्ति आजीविका के साधनों के बिना नहीं रह सकता है।”

यदि आजीविका के अधिकार को जीवन के संवैधानिक (कंस्टीट्यूशन) अधिकार का हिस्सा नहीं माना जाता है, तो किसी व्यक्ति को उसके जीवन के अधिकार से वंचित (डिप्राइव) करने का सबसे आसान तरीका यह होगा कि उसे उसकी आजीविका के साधन से वंचित कर दिया जाए।

इस मामले में, कोर्ट ने आगे यह भी कहा की स्टेट को सकारात्मक (एफर्मेटिव) कार्रवाई से, नागरिकों को आजीविका या काम के पर्याप्त साधन प्रदान करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति, जो कानून द्वारा स्थापित न्यायसंगत और निष्पक्ष प्रक्रिया (जस्ट एंड फेयर प्रोसिजर) के अलावा अपनी आजीविका के अधिकार से वंचित होता है, वह आर्टिकल 21 के तहत जीवन के अधिकार के उल्लंघन (ऑफेंड) के रूप में, अधिकार से वंचित होने को चुनौती दे सकता है।

जीवन और आजीविका के करीबी संबंधों पर जोर देते हुए, कोर्ट ने एम. पॉल एंथोनी बनाम बिहार गोल्ड माइंस लिमिटेड के मामले में कहा कि जब एक सरकारी या पब्लिक अंडरटेकिंग के कर्मचारी, जिसे निलंबित कर दिया जाता है, उसके खिलाफ कोई विभागीय अनुशासनात्मक जांच (डिपार्टमेंटल डिसिप्लिनरी इंक्वायरी) लंबित (पेंडिंग) होती है, तो ऐसे में उसे निर्वाह भत्ता (सबसिस्टेंस एलाउंस) दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया है कि एक सरकारी कर्मचारी इस मामले में अपने जीवन के अधिकार और अन्य मौलिक अधिकारों का उपयोग नहीं करता है।

हालांकि, यदि कोई व्यक्ति कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया (जिसे उचित, न्यायसंगत और रीजनेबल होना चाहिए और जो लोगों के हित में ज्यादा से ज्यादा हो) के अनुसार ऐसे अधिकार से वंचित होता है, तो ऐसे में आर्टिकल 21 के तहत आजीविका के अधिकार से वंचित करने की दलील को बनाए रखा नहीं जा सकता है।

कोर्ट ने कहा कि स्टेट, किसी सार्वजनिक उद्देश्य (पब्लिक पर्पज) के लिए एमिनेंट डोमेन को अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए भूमि का अधिग्रहण (एक्विजिशन) करता है और बदले में जमीनदार को भूमि के लिए मुआवजा दिया जाता है, और इसलिए, आर्टिकल 21 के तहत आजीविका के अधिकार से वंचित करने की दलील को बनाए रखा नहीं जा सकता है।

एम.जे. सिवानी बनाम स्टेट ऑफ़ कर्नाटक और अन्य के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 21 के तहत जीवन का अधिकार आजीविका की रक्षा करता है, लेकिन इसके तहत एक शर्त को जोड़ा गया कि, इसके अभाव को ऐसे व्यवसाय, या व्यापार के लिए बहुत दूर तक नहीं बढ़ाया जा सकता है या पेश किया जा सकता है या खींचा जा सकता है, जो हानिकारक हो सकता है, जिससे सार्वजनिक हित या सार्वजनिक नैतिकता (मोरल्स) या सार्वजनिक व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए, यह माना गया कि वीडियो गेम का रेगुलेशन या प्योर चांस या मिक्सड चांस और कौशल (स्किल्स) के कुछ वीडियो गेम्स का निषेध (प्रोहिबिशन) आर्टिकल 21 का उल्लंघन नहीं है और न ही यह प्रक्रिया अनुचित या अन्यायपूर्ण है।

यू.पी. आवास विकास परिषद बनाम फ्रेंड्स कॉर्पोरेशन हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड के मामले में, आश्रय के अधिकार को एक मौलिक अधिकार माना गया है जो आर्टिकल 19(1)(e) में सुरक्षित निवास (रेजिडेंस) के अधिकार और आर्टिकल 21 द्वारा गारंटीकृत जीवन के अधिकार से उत्पन्न होता है। सही मायने में गरीबों को ये अधिकार प्रदान करने के लिए, स्टेट को घर बनाने के लिए सुविधाएं और अवसर प्रदान करने चाहिए।

“जानवर के लिए, यह केवल शरीर की सुरक्षा है, लेकिन मनुष्य के लिए यह एक उपयुक्त आवास होना चाहिए जो उसे शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक (इंटेलेक्चुअल) हर पहलू में विकसित करने की अनुमति दे। संविधान का उद्देश्य प्रत्येक बच्चे का पूर्ण विकास सुनिश्चित करना है और यह तभी संभव होगा जब बच्चा एक सही घर में होगा। यह आवश्यक नहीं है कि सभी नागरिकों को एक अच्छी तरह से बने आरामदायक घर में रहना सुनिश्चित किया जाना चाहिए, लेकिन एक उचित घर, विशेष रूप से भारत में लोगों के लिए, मिट्टी से बना फूस का घर या मिट्टी से बना अग्निरोधक घर भी हो सकता है।

चमेली सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश में, सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की एक पीठ ने विचार किया और माना कि आश्रय का अधिकार प्रत्येक नागरिक के लिए उपलब्ध एक मौलिक अधिकार है और इसे भारत के संविधान के आर्टिकल 21 में शामिल किया जाना चाहिए जिसका दायरा, जीवन के अधिकार को और अधिक सार्थक बनाना है।

कोर्ट ने कहा कि “मनुष्य के लिए आश्रय का अधिकार, सिर्फ, उनके जीवन और शरीर की सुरक्षा मात्र नहीं है। हालांकि यह वह जगह है जहाँ उसे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक (स्पिरिचुअली) रूप से विकसित होने के अवसर मिलते हैं। इसलिए, आश्रय के अधिकार में पर्याप्त रहने की जगह, सुरक्षित और सभ्य संरचना (स्ट्रक्चर), स्वच्छ और सभ्य वातावरण, पर्याप्त प्रकाश, शुद्ध हवा और पानी, बिजली, स्वच्छता और अन्य नागरिक सुविधाएं जैसे सड़कें आदि शामिल हैं, ताकि दैनिक व्यवसाय के लिए उसकी पहुंच आसान हो सके।  इसलिए, आश्रय के अधिकार का अर्थ केवल किसी के सिर पर छत का अधिकार ही नहीं है, बल्कि उसे एक इंसान के रूप में जीने और विकसित करने के लिए आवश्यक सभी बुनियादी ढांचे का अधिकार है। ”

आजीविका का अधिकार-हॉकर्स

आजीविका के अधिकार में व्यवसाय का अधिकार शामिल है जिसका उल्लंघन अक्सर फेरीवालों/ठेले वालों को हटाकर किया जाता है।

सोदन सिंह बनाम नई दिल्ली म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने आर्टिकल 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता की अवधारणा (कांसेप्ट) को आर्टिकल 19(1)(g) द्वारा प्रदान किए गए मौलिक अधिकार के तहत किसी भी व्यापार या व्यवसाय को चलाने के अधिकार से अलग किया है, और यह भी कहा है कि व्यापार या व्यवसाय करने का अधिकार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा में शामिल नहीं है। आर्टिकल 21 व्यापार और व्यवसाय के मामले में आकर्षित नहीं होता है।

इस मामले में, याचिकाकर्ताओं (पेटीशनर्स), दिल्ली में पक्की सड़कों पर कारोबार कर रहे फेरीवालों ने दावा किया था कि नगरपालिका अधिकारियों (म्युनिसिपल अथॉरिटी) द्वारा उन्हें अपनी आजीविका के लिए व्यवसाय करने से इनकार करना संविधान के आर्टिकल 21 के तहत उनके अधिकार का उल्लंघन है। कोर्ट ने कहा कि हालांकि फेरीवालों को आर्टिकल 19(1)(g) के तहत अपनी पसंद का व्यापार या व्यवसाय करने का मौलिक अधिकार है; लेकिन उन्हें किसी विशेष स्थान पर ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। उन्हें शहर की हर सड़क पर अपना व्यापार करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। यदि सड़क इतनी चौड़ी नहीं है कि उस पर ट्रैफिक को आसानी से देखा और निपटाया जा सके, तो वहां किसी भी फेरीवाले को अनुमति नहीं दी जा सकती है या सप्ताह में एक बार वहां व्यवसाय करने की अनुमति दी जा सकती है।

फुटपाथ, स्ट्रीट्स या सड़कें, सार्वजनिक संपत्ति हैं और आम जनता के लिए हैं और निजी उपयोग के लिए नहीं हैं। हालांकि, कोर्ट ने कहा कि प्रभावित व्यक्ति स्थानांतरण (रिलोकेशन) के लिए आवेदन (अप्लाई) कर सकते हैं और संबंधित अधिकारियों को इस पर विचार करना चाहिए और आदेश पास करना चाहिए। यह दोनों अधिकार एक साथ जुड़ने के लिए बहुत अलग है।

कोर्ट ने ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के फैसले को अलग बताते हुए कहा की इसमें याचिकाकर्ता बहुत गरीब व्यक्ति थे, जिन्होंने गंदगी और कूड़े के बीच फुटपाथों को अपना घर बना लिया था और उन्हें फुटपाथ पर रहना पड़ा ताकि वे शहर में कोई भी नौकरी पा सकें, और यह मामला, कुछ पूंजी लगाकर वस्तुएँ बेचने के व्यवसाय के मामले में नहीं था।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

आजीविका के अधिकार का एक विस्तृत (एक्सटेंडेड) अर्थ हो सकता है, क्योंकि जब मानव जीवन और गरिमा की बात आती है तो यह सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है। कोर्ट्स इसकी कई तरह से व्याख्या करते रहेंगे जो लोगों की दुर्दशा से रक्षा करेगी।

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here