यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज (वीआईपीएस) की Jasmine Madaan द्वारा लिखा गया है। यह एक विस्तृत (एग्जाॅस्टिव) लेख है जो यह बताता है कि कैसे और किस वजह से आत्महत्या के प्रयास को अपराध से मुक्त किया गया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
एनसीआरबी के डेटा के अनुसार, वर्ष 2018 में आत्महत्या के कुल 1,34,516 मामले सामने आए थे। वर्ष 2017 में मामलों की संख्या की तुलना में वर्ष 2018 में दर्ज मामलों की संख्या में 3.6% की वृद्धि हुई थी। एक सवाल जो हर इंसान के मन में आता है कि “क्या कोई अपनी जान ले सकता है?” आत्महत्या आत्म-विनाश (सेल्फ-डिस्ट्रक्शन) और खुद की जान लेने का एक कार्य है। हम सभी जानते हैं कि ऐसा करने की अनुमति नहीं है और इसे नैतिक (मोरल) रूप से नीचा देखा जाता है लेकिन क्या कानूनी रूप से इसकी अनुमति है? क्या जीने के अधिकार में मरने का अधिकार भी शामिल है? अपने आप के जीवन को समाप्त करने की अवधारणा (कंसेप्ट) हमेशा एक बहस का मुद्दा रही है। यह लेख आत्महत्या करने के प्रयास से संबंधित कानून के विकास का एक ठोस सार (जिस्ट) प्रदान करता है।
वर्षों में विकास (डेवलपमेंट ओवर द ईयर्स)
इंडियन पीनल कोड, वर्ष 1860 में बनाई गई थी। कानून एक सतत विकसित (एवर-इवोल्विंग) और गतिशील (डायनेमिक) अवधारणा है, यह समाज में विकास के साथ बदलता रहता है। भारत में कानून सामाजिक मान्यताओं (बिलीफ्स) में परिवर्तन के अधीन है। उदाहरण के लिए, धारा 377 का डिक्रिमिनलाइजेशन देश के नागरिकों की मानसिकता में बदलाव का परिणाम था क्योंकि अब लोग एक व्यापक (ब्रॉडर) सोच विकसित कर रहे हैं और विभिन्न सेक्सुअल ओरिएंटेशन के लोगों को स्वीकार करना सीख रहे हैं। 156 से अधिक वर्षों से, कानूनी यात्रा के हर चरण (फेज) में पूछताछ के बावजूद आत्महत्या के प्रयास के अपराध से निपटने वाली धारा वर्षों तक अपरिवर्तित (अनचेंज्ड) रही है।
पहले की स्थिति (स्टेच्यूटरी)
इंडियन पीनल कोड की धारा 309 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करने का प्रयास करता है और प्रयास के अनुसरण (पर्सुएंस) में कोई कार्य करता है अर्थात अपराध करने के लिए इस धारा के तहत उत्तरदायी होगा। यह मूल्यवान मानव जीवन की समयपूर्व (प्रीमेच्योर) या अप्राकृतिक (अननेचुरल) मृत्यु का अपराध है। इस धारा के तहत प्रदान की गई सजा साधारण कारावास है जिसे अधिकतम (मैक्जिमम) 1 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना, या दोनों है। यह एक कॉग्निजेबल अपराध (ऐसे अपराध जिनमें पुलिस अधिकारी बिना किसी वारंट के आरोपी को गिरफ्तार कर सकता है), एक बेलेबल अपराध (अपराध जिसमें आवश्यक कागजात जमा करने के बाद जमानत दी जा सकती है) और एक नॉन-कंपाउंडेबल अपराध (अपराध जिसमें पार्टियों के बीच मामला सुलझाया या समझौता नहीं किया जा सकता है) है।
इस धारा के मुख्य इंग्रेडिएंट्स हैं:
- सबसे पहले, व्यक्ति आत्महत्या करने में असफल रहा हो क्योंकि यदि वह इस कार्य में सफल हो जाता है तो कोई भी अपराधी नहीं होता है।
- दूसरा, प्रयास जानबूझकर होना चाहिए। यह गलती या दुर्घटना नहीं होनी चाहिए। किसी का जीवन को आत्म-विनाश करने का इरादा स्पष्ट होना चाहिए।
एक चिंता जो धारा 309 के संबंध में उठाई गई थी वह यह थी कि इसे इंडियन पीनल कोड के चैप्टर XVI के तहत रखा गया है। इस चैप्टर के अन्य सभी अपराध उन श्रेणियों (कैटेगरी) से संबंधित हैं जहां धारा 309 जो एक आत्म-विनाशकारी कार्य है को छोड़कर मानव शरीर को नुकसान किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है।
इस धारा का मुख्य उद्देश्य भारत में आत्महत्या के मामलों की संख्या को कम करने के लिए एक निवारक (डिटरमेंट) प्रभाव डालना था। अपने नागरिकों को किसी भी तरह के नुकसान से बचाना स्टेट का कर्तव्य (ड्यूटी है। एनसीआरबी द्वारा जारी किए गए डेटा ने पिछले वर्षों में आत्महत्या के प्रयास के रिपोर्ट किए गए मामलों की संख्या में लगातार वृद्धि दिखाई है जो यह साबित करता है कि स्पष्ट रूप से, यह धारा अपने उद्देश्य को पूरा करने में विफल रही है।
ऐसे मामले जिनके कारण डिक्रिमिनलाइजेशन हुआ
वर्ष और घटनाओं (इवेंट) की सूची (लिस्ट) जिसके कारण इंडियन पीनल कोड की धारा 309 को अपराध से मुक्त किया गया है-
वर्ष | घटनाओं |
1970-71 | 42वें लॉ कमिशन की रिपोर्ट में आत्महत्या के प्रयास के अपराध को हटाने का सुझाव दिया गया है। |
1978-79 | भारत सरकार ने इस सुझाव को स्वीकार कर लिया लेकिन 1979 में देश के निर्वाचित निकाय (इलेक्टेड बॉडी) को बदल दिया गया था और लोकसभा में पेश किया गया बिल व्यपगत (लेप्स) हो गया था। |
1985 | स्टेट बनाम संजय कुमार भाटिया के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने धारा 309 को “मानव समाज के अयोग्य (अनवर्थी)” करार दिया था। |
1987 | बॉम्बे हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र स्टेट बनाम मारुति सतपती दुबल के मामले में धारा 309 को संविधान के अल्ट्रा वायर्स के रूप में माना क्योंकि यह आर्टिकल 14 और आर्टिकल 21 का उल्लंघन करता है। |
1988 | आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने चेन्ना जगदेश्वर बनाम आंध्र प्रदेश स्टेट के मामले में धारा 309 की संवैधानिकता (कांस्टीट्यूशनेलिटी) को बरकरार रखा और कहा कि जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है। |
1994 | पी. रथिनम बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2-न्यायाधीश बेंच) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली और बॉम्बे हाई कोर्ट के विचार को बरकरार रखा और धारा 309 को असंवैधानिक (अनकांस्टीट्यूशनल) घोषित किया था। |
1996 | श्रीमती ज्ञान कौर बनाम पंजाब स्टेट, में सुप्रीम कोर्ट (5-न्यायाधीशों की बेंच) ने फिर से धारा 309 को संवैधानिक ठहराया और इस तरह पी. रथिनम के फैसले को खारिज कर दिया था। |
1997 | 156वें लॉ कमिशन की रिपोर्ट में आईपीसी की धारा 309 को बनाए रखने का समर्थन किया गया था। |
2008 | 210वीं लॉ कमिशन की रिपोर्ट में आईपीसी की धारा 309 को खत्म करने का समर्थन किया गया था। |
2011 | सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य के मामले में संसद को पैसिव यूथेनेशिया के दिशा-निर्देशों को रखते हुए आईपीसी की धारा 309 के डिक्रिमिनलाइजेशन पर विचार करने की सिफारिश की थी। |
2013 | राज्यसभा में मेंटल हेल्थकेयर बिल पेश किया गया था। |
मध्य 2018 | मेंटल हेल्थकेयर एक्ट (एमएचसीए), 2017 पास किया गया जिसके कारण आत्महत्या करने के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था। |
मामलों की ओर बढ़ने से पहले, यह जानना महत्वपूर्ण है कि भारतीय संविधान का आर्टिकल 21 क्या कहता है। यह सभी मनुष्यों को सम्मान के साथ जीने का अधिकार प्रदान करता है। कानून द्वारा स्थापित (एस्टेब्लिश) प्रक्रिया के अधीन किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित (डिप्राइव) नहीं किया जा सकता है। यह आर्टिकल नागरिकों और गैर-नागरिकों सहित सभी लोगों पर लागू होता है। एक प्रश्न जिसका उत्तर दिया गया है, संशोधित (मोडिफाई) किया गया है और विभिन्न हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में बहस की गई है, क्या जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार भी शामिल है?
उपर्युक्त प्रश्न और इंडियन पीनल कोड की धारा 309 की संवैधानिकता का निर्णय निम्नलिखित मामलों में किया गया है:
- दिल्ली हाई कोर्ट ने स्टेट बनाम संजय कुमार भाटिया (1985) के मामले में आत्महत्या करने का प्रयास करने वाले आरोपी को बरी कर दिया था। कोर्ट ने इस तथ्य पर जोर दिया कि आईपीसी की धारा 309 को क़ानून से हटा दिया जाना चाहिए यानी इसे डिक्रिमिनलाइज कर दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने इसे ‘समाज के अयोग्य’ करार दिया था।
- महाराष्ट्र स्टेट बनाम मारुति सतपति दुबल (1987) के मामले में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने पहली बार जीवन के अधिकार के दायरे में मरने के अधिकार को शामिल करने के सवाल पर विचार किया था। कोर्ट ने पाया कि आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को दंडित करके आत्महत्या को रोकने के सभी प्रयास व्यर्थ हैं। कोर्ट ने कहा कि एक व्यक्ति जिसने आत्महत्या का प्रयास किया है, वह पहले से ही शारीरिक या मानसिक रूप से पर्याप्त पीड़ा में है, उस व्यक्ति को सलाखों के पीछे बंद करने से उसकी मानसिक या शारीरिक पीड़ा का स्तर (लेवल) बढ़ जाएगा। जिस चीज की जरूरत है वह चिकित्सकीय ध्यान या उपचार है। इसलिए, कोर्ट ने इंडियन पीनल कोड की धारा 309 को इस आधार पर असंवैधानिक करार दिया कि यह आर्टिकल 14 (समानता का अधिकार) और आर्टिकल 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करती है और कहा कि आर्टिकल 21 में मरने का अधिकार भी शामिल है।
- आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने एक अलग दृष्टिकोण (व्यू) दिया और चेन्ना जगदेश्वर बनाम आंध्र प्रदेश स्टेट के मामले में आईपीसी की धारा 309 की संवैधानिकता को बरकरार रखा था। इसी मामले में यह भी कहा गया था कि जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है और धारा 309 भारतीय संविधान के आर्टिकल 19 और 21 का उल्लंघन नहीं है।
- पी. रथिनम बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (1994) के मामले में सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की बेंच ने इंडियन पीनल कोड की धारा 309 और भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के बीच संबंध और विरोधाभास (कांट्रेडिक्शन) का कॉग्निजेंस लिया था। कोर्ट ने दिल्ली और बॉम्बे हाई कोर्ट्स के दृष्टिकोण का समर्थन (सपोर्ट) किया था और आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के दृष्टिकोण को खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि इंडियन पीनल कोड की धारा 309 इस आधार पर असंवैधानिक है कि यह भारतीय संविधान के आर्टिकल 14 और 21 का उल्लंघन करती है। कोर्ट ने प्रावधान को ‘क्रूर और तर्कहीन (इरेशनल)’ करार दिया था।
इसके पीछे मकसद आरोपी की दोहरी (डबल) पीड़ा के नियम को रोकना था। एक व्यक्ति जो आत्महत्या का प्रयास करता है वह पहले से ही पीड़ा और दर्द से पीड़ित है और उसे दंडित करने से अपमान के कारण होने वाली पीड़ा में वृद्धि होगी। जो व्यक्ति सबसे अधिक पीड़ित है वह स्वयं आरोपी है क्योंकि वह स्वयं के अलावा किसी और को नुकसान नहीं पहुंचा रहा है और किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में स्टेट का हस्तक्षेप उचित नहीं है। यदि कोई छात्र एकेडमिक दबाव में आकर आत्महत्या कर लेता है, लेकिन असफल हो जाता है, तो उस बच्चे को परामर्श (काउंसलिंग) या नरम शब्दों से कुछ मदद की ज़रूरत होती है और अभियोजक (प्रॉसिक्यूटर) द्वारा उसके साथ बेरहमी से व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए और उसके लिए दंडित भी नहीं किया जाना चाहिए।कोर्ट ने अंत में याचिकाकर्ता (पेटीशनर) की इस दलील (कंटेंशन) को बरकरार रखा कि ‘जीवन के अधिकार’ में ‘मजबूर जीवन नहीं जीने का अधिकार’ शामिल है।
- सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की बेंच ने श्रीमती ज्ञान कौर बनाम पंजाब स्टेट (1996) के मामले में पी. रथिनम के फैसले को खारिज कर दिया था। इस मामले में जो सवाल उठाया गया वह यह था कि पी. रथिनम के फैसले के अनुसार यदि धारा 309 (आत्महत्या करने का प्रयास) असंवैधानिक है तो इसे ध्यान में रखते हुए धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) भी असंवैधानिक होना चाहिए और अपराध नहीं माना जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि ‘जीवन के अधिकार’ में ‘मरने का अधिकार’ शामिल नहीं है क्योंकि वे एक-दूसरे के साथ असंगत (इनकंसिस्टेंट) हैं। इस जीवन के अधिकार में ‘गरिमा (डिग्निटी) के साथ मरने का अधिकार’ शामिल है, लेकिन कोर्ट ने कहा कि ऐसी मौत एक प्राकृतिक मौत होनी चाहिए। इसे जीवन की प्राकृतिक अवधि की अप्राकृतिक समाप्ति के साथ भ्रमित (कन्फ्यूज) नहीं होना चाहिए।
कोर्ट ने इंडियन पीनल कोड की धारा 309 और आईपीसी की धारा 306 की संवैधानिकता को बरकरार रखा था। इसमें कहा गया है कि आर्टिकल 21 की व्याख्या (इंटरप्रेटेशन) किसी भी तरह से इस निष्कर्ष पर नहीं ले जा सकती है कि जीवन को सुरक्षा प्रदान करने वाले अधिकार में उस जीवन को समाप्त करने का अधिकार भी शामिल है। जीवन का अधिकार एक प्राकृतिक अधिकार है जबकि आत्महत्या करके अपने जीवन को समाप्त करने का अधिकार एक अप्राकृतिक अधिकार है और इसे भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के तहत शामिल नहीं किया जा सकता है।
- अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य (2011) एक ऐतिहासिक मामला है क्योंकि इस मामले में विशेष परिस्थितियों में पैसिव यूथेनेशिया द्वारा सहायता प्राप्त आत्महत्या की अनुमति दी गई थी और भारत में पैसिव यूथेनेशिया से संबंधित व्यापक दिशानिर्देश निर्धारित (लेड डाउन) किए गए थे। कोर्ट ने एक्टिव और पैसिव यूथेनेशिया के बीच के अंतर को भी समझाया था। यदि रोगी स्वयं सहमति देने की स्थिति में नहीं है या उसके पास जीवित वसीयत नहीं है, तो केवल माता-पिता, पति या पत्नी या करीबी रिश्तेदार या मित्र ही जीवन समर्थन को बंद करने का निर्णय ले सकता है। पैसिव यूथेनेशिया के माध्यम से मरना कोर्ट के अनुसार गरिमा के साथ मरने का एक तरीका है। फिर से, इस मामले में, भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के तहत ‘जीवन के अधिकार’ में ‘गरिमा के साथ मरने का अधिकार’ शामिल है, की अवधारणा को बरकरार रखा गया था।
- कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2018) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की बेंच ने श्रीमती ज्ञान कौर बनाम पंजाब स्टेट और अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य में अस्थिर (अनसेटलिंग) और असंगत राय को ध्यान में रखा था। इसने पैसिव यूथेनेशिया और एक जीवित वसीयत के गठन (फॉर्मेशन) की अनुमति दी थी- चिकित्सकीय रूप से बीमार व्यक्ति द्वारा एक लिखित बयान (स्टेटमेंट) में चिकित्सा उपचार के लिए अपनी भविष्य की इच्छा का उल्लेख किया गया है यदि वह सहमति देने में सक्षम नहीं है। कोर्ट ने अंत में यह माना कि जीवन के अधिकार में ‘गरिमा के साथ मरने का अधिकार’ शामिल है और यह भारतीय संविधान के अनुसार मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) का एक हिस्सा है।
वर्तमान सिनेरियो (स्टेच्यूटरी)
सरकार आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर करके कानूनी दृष्टिकोण से अधिक चिकित्सा दृष्टिकोण में स्थानांतरित (शिफ्ट) हो गई है। मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017, जिसने 1987 के पहले के मेंटल हेल्थ एक्ट को बदल दिया था, ने भारत में आत्महत्या के प्रयास के संबंध में कानून की पूरी अवधारणा को बदल दिया है। राज्यसभा और लोकसभा ने क्रमशः (रिस्पेक्टेवली) 8 अगस्त 2016 और 27 मार्च 2017 को बिल पास किया था। मेंटल हेल्थकेयर एक्ट, 2017 को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति 7 अप्रैल 2017 को दी गई थी।
आत्महत्या के प्रयास के संबंध में एक्ट की सबसे रिलेवेंट धारा, धारा 115 है। यह प्रदान करती है कि:
- कोई भी व्यक्ति जो आत्महत्या करने का प्रयास करता है, उसे गंभीर तनाव में माना जाएगा और इंडियन पीनल कोड की धारा 309 या किसी अन्य धारा के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाएगा और दंडित नहीं किया जाएगा, जब तक कि अन्यथा साबित न हो जाए।
- उपयुक्त (अप्रोप्रिएट) सरकार का यह कर्तव्य है कि वह गंभीर तनाव के कारण आत्महत्या करने का प्रयास करने वाले किसी भी व्यक्ति को देखभाल, पर्याप्त उपचार और पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) प्रदान करे। इसका उद्देश्य व्यक्ति द्वारा आत्महत्या करने के प्रयास की पुनरावृत्ति (रिऑक्युरेंस) के जोखिम को कम करना है।
यह एक्ट भारत में मानसिक और भावनात्मक (इमोशनल) स्वास्थ्य को बढ़ावा देने की दिशा में एक बड़ा कदम है। एक्ट में यह भी प्रावधान (प्रोविजन) है कि कोई भी व्यक्ति जो मानसिक बीमारी से पीड़ित है, उसके साथ स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में शारीरिक रूप से बीमार के समान व्यवहार किया जाना चाहिए। ऐसी बीमारी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। जीवन के अधिकार का अर्थ है सार्थक (मीनिंगफुल) और गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार यानी गरिमा के साथ जीने का अधिकार है।
कारण (रीजंस)
इस बड़े कदम के पीछे मुख्य कारण इस तथ्य का अहसास था कि जो व्यक्ति आत्महत्या करने का प्रयास करता है वह पहले से ही गहरे दर्द, निराशा (डिस्पेयर) और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे से पीड़ित है, उस व्यक्ति को दंडित करने से दर्द और मानसिक यातना (टॉर्चर) में वृद्धि होती है। कोर्ट का मानना है कि एक व्यक्ति के लिए समाधान जो अपने जीवन को समाप्त करने के कठोर प्रयास में विफल रहा है, को मुकदमे और सजा के कठिन दौर में डालने के बजाय पुनर्वास सुविधाएं प्रदान करना है।
इस कदम (स्टेप) ने पीड़ितों को कानूनी झंझटों (हैसल्स) में फंसने के बजाय जीवन जीने का दूसरा मौका लेने में मदद की है। एक पीड़ित के उत्पीड़न (हैरेसमेंट) को रोकने के लिए जो पहले से ही भावनात्मक और मानसिक रूप से पीड़ित है। यह एक सामान्य मानसिकता और एक दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता (अनफोर्च्युनेट रियलिटी) है कि जब भी कोई व्यक्ति आत्महत्या करने का प्रयास करता है, तो वह मानसिक रूप से बीमार होता है और अपने जीवन से सभी आशाओं और अपेक्षाओं (एक्सपेक्टेशंस) को खो देता है।
दूसरे देश
दुनिया के लगभग सभी देशों ने जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, यूरोपीयन देशों, कुछ दक्षिण अमेरिकन देशों आदि ने आत्महत्या करने के प्रयास के अपराध को अपराध मुक्त कर दिया है।
यूनाइटेड किंगडम, भारत के औपनिवेशिक शासकों (कोलोनियल रूलर्स) ने भारत में भी सामान्य कानून व्यवस्था की नींव (फाउंडेशन) रखी थी। आत्महत्या के प्रयास का अपराध अब सुसाइड एक्ट 1961 की धारा 1 के आधार पर इंग्लैंड में अपराध नहीं है। इस धारा में कहा गया है कि आत्महत्या करने का प्रयास करने वाले व्यक्ति को दंडित करने वाले कानून के शासन को निरस्त (एब्रोगेट) कर दिया जाता है। किसी दूसरे को आत्महत्या के लिए उकसाना (अबेट), परामर्श देना, खरीदना या सहायता करना या किसी अन्य द्वारा आत्महत्या करने का प्रयास अभी भी एक अपराध है और किसी को कारावास की सजा के लिए उत्तरदायी बनाया जा सकता है जिसे 14 साल तक बढ़ाया जा सकता है। ऑफिस ऑफ नेशनल स्टेटिस्टिक्स के अनुसार वर्ष 1961-1974 के दौरान आत्महत्या के प्रयास को अपराध से मुक्त करने के बाद इंग्लैंड में मामलों की संख्या में गिरावट आई थी।
1975 में, जर्मनी पूरी दुनिया में आत्महत्या करने के प्रयास को अपराध से मुक्त करने वाला पहला देश था।
कनाडा, श्रीलंका और आयरलैंड ने क्रमशः 1972, 1998 और 1993 में आत्महत्या करने के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था।
नीदरलैंड में, कोई व्यक्ति आत्महत्या के दौरान नैतिक समर्थन प्रदान कर सकता है। आत्महत्या करने के लिए तैयारी, साधन की आपूर्ति (सप्लाई) या निर्देश (इंस्ट्रक्शन) में भाग नहीं ले सकते, क्योंकि इन्हें एक अपराध माना जाता है।
सिंगापुर में, आत्महत्या करने के प्रयास के अपराध को हाल ही में क्रिमिनल लॉ रिफॉर्म बिल पास करके अपराध से मुक्त कर दिया गया था, जिसने 6 मई 2019 को आत्महत्या करने के प्रयास को अपराध से मुक्त करने का सुझाव दिया था। यह एक्ट 1 जनवरी 2020 से लागू हुआ है। इससे पहले व्यक्ति जो आत्महत्या करने का प्रयास करते थे उन्हें 1 वर्ष तक के कारावास की सजा हो सकती थी। आत्महत्या करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति को उकसाना या उसकी सहायता करना अभी भी अवैध है।
अभी भी पाकिस्तान, मलेशिया और बांग्लादेश जैसे कुछ देश हैं जहां आत्महत्या करने का प्रयास एक अपराध है और इसके लिए किसी को दंडित किया जा सकता है। इन देशों में, पाकिस्तान पीनल कोड की धारा 325, पीनल कोड (मलेशिया के कानून) की धारा 309 और पीनल कोड (बांग्लादेश के कानून) की धारा 309 के अनुसार 1 साल तक की सजा या जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है।
आज की स्थिति
भारत में अभी भी उचित कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) की कमी महसूस की जाती है। इंडियन पीनल कोड की धारा 309 को अपराध से मुक्त करते समय जो मुख्य तर्क दिया गया था, वह यह था कि इस कदम से आत्महत्या के मामलों की संख्या में वृद्धि हो सकती है। मामलों की रिपोर्टिंग अभी भी एक आवश्यकता है क्योंकि यह सरकार और संबंधित अधिकारियों को उन लोगों की संख्या पर नज़र रखने में मदद करती है जिन्हें पुनर्वास सुविधाएं प्रदान करने की आवश्यकता है। यह एक मेडिको-लीगल केस (एमसीएल) है, एक ऐसा मामला जिसमे मरीज की जांच के बाद डॉक्टर को संबंधित अधिकारियों को रिपोर्ट करना होता है।
9 सितंबर 2019 को जारी वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन की लेटेस्ट रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण-एशियाई क्षेत्र में भारत में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। भारत की आत्महत्या दर प्रति 100,000 लोगों पर 16.5 आत्महत्या है। एट्रोशियस डेटा से पता चलता है कि लैंसेट पब्लिक हेल्थ अक्टूबर अंक के अनुसार वैश्विक (ग्लोबल) महिला आत्महत्या के कुल प्रतिशत में भारतीय महिलाएं 37% शामिल हैं।
कई वरिष्ठ (सीनियर) वकीलों, ट्रॉमा शोधकर्ताओं (रिसर्चर्स), मनोचिकित्सकों (साइकेट्रिस्ट्स) का मानना है कि आत्महत्या के प्रयास को अपराध से मुक्त करने से मामलों की संख्या में वृद्धि नहीं होगी क्योंकि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपने सामने सभी परिस्थितियों का विश्लेषण (एनालाइज) करने की स्थिति में नहीं है, अर्थात यदि व्यक्ति जीवन में विश्वास खो दिया है और एक बार में सभी के लिए पीड़ा को समाप्त करने का निर्णय लेता है, तो कार्य का परिणाम चाहे वह कितना भी गंभीर क्यों न हो, उसके निर्णय पर उसका बहुत कम प्रभाव पड़ता है।
एक सुसाइड प्रिवेंशन हॉटलाइन आसरा के निदेशक (डायरेक्टर) ने कहा कि भले ही बिल पास हो गया हो, फिर भी इसे देश के हर क्षेत्र में लागू नहीं किया गया है। देश के सभी हिस्सों के लोगों को मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्या की प्रवृत्ति (टेंडेंसीज) से निपटने के प्रति संवेदनशील बनाने की जरूरत है। केवल बिल का गठन और पास होना ही पर्याप्त नहीं है, इसका उचित कार्यान्वयन कलंक (स्टिग्मा) को तोड़ने और उत्तरजीवियों (सर्वाइवर) को जीवन में विश्वास हासिल करने में मदद करने की कुंजी है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
भारत में मानसिक स्वास्थ्य एक बड़ा टैबू है, लोग डरते हैं और अक्सर इसके बारे में बात करने से हिचकिचाते हैं, मेंटल हेल्थकेयर एक्ट, 2017 के कार्यान्वयन को विभिन्न मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों (एक्सपर्ट) के अनुसार एक बड़े कदम के रूप में देखा जा रहा है जो टैबू को तोड़ने में मदद कर सकता है। आत्महत्या के प्रयास के लिए कोई सजा नहीं है, लेकिन अभी भी मामला दर्ज किया जाता है।