डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पॉलिसी का महत्व

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Constitution of India
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यह लेख Shubham Choudhary द्वारा लिखा गया है, जो पश्चिम बंगाल नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ ज्यूरिडिकल साइंसिज में कानून के छात्र हैं। लेखक ने डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी की विशेषताओं, महत्व और आलोचनाओं (क्रिटिसिज्म) पर चर्चा की है और इन्हें विभिन्न शीर्षों (हेड्स) में कैसे क्लासिफाई किया जा सकता है उसके बारे में भी बताया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी भारतीय संविधान के भाग IV के आर्टिकल 36 से आर्टिकल 51 के अंदर दी गई है। डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी का विचार 1937 के आयरिश संविधान से लिया गया था, जिसने खुद स्पेनिश संविधान से इसे उधार लिया था। ग्रानविल ऑस्टिन ने संयुक्त (कंबाइन) रूप से फंडामेंटल राइट्स और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी को “संविधान की अंतरात्मा” के रूप में परिभाषित किया है। बी.आर.अम्बेडकर ने इन्हें संविधान की नई विशेषताओं (फीचर)’ के रूप में परिभाषित किया है, जैसे कि विचार उधार लिए गए हैं, लेकिन संविधान के लिए व्युत्पन्न (डिराइविंग) शक्ति अपने आप में नई है। डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी, जब फंडामेंटल राइट्स के साथ संयुक्त होते हैं, तब संविधान के दर्शन (फिलोसॉफी) को अंकित (इनस्क्राइब) करते हैं और यह संविधान की आत्मा है।

डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी की विशेषताएं

  1. वाक्यांश (फ्रेज) ‘डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी’ शासन (गवर्नेंस) के लिए पॉलिसीज और कानूनों का निर्माण करते समय विचार किए जाने वाले आदर्शों (आइडियल्स) को दर्शाता है। यह कानून बनाने के लिए दिशा-निर्देश (गाइडलाइंस) या सिफारिशें या निर्देश (इंस्ट्रक्शन) की तरह हैं। फंडामेंटल राइट्स में परिभाषित ‘स्टेट’ के अर्थ के तहत सभी अधिकारियों (अथॉरिटीज) द्वारा इन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए।
  2. डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट में निहित (कंटेन) ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ इंस्ट्रक्शन’ की अवधारणा (कांसेप्ट) के समान हैं जो ब्रिटिश सरकार द्वारा गवर्नर-जनरल और कॉलोनीज के अन्य गवर्नर्स के लिए सिफारिशें थीं। अंतर केवल इतना है कि वे लेजिस्लेचर्स के लिए हैं और संविधान सभा द्वारा अनुशंसित (रिकमेंडेड) हैं।
  3. ये आइडियालिस्टिक डेमोक्रेटिक स्टेट के लिए सामाजिक-आर्थिक (सोशियो-इकोनॉमिक) और राजनीतिक (पॉलिटिकल) दिशा-निर्देशों के लिए व्यापक (कॉम्प्रिहेंसिव) दिशानिर्देश हैं, जो स्वतंत्रता के समय संभव नहीं थे, लेकिन न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व (फ्रेटरनिटी) के उच्च आदर्शों को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, जिस पर भारतीय डेमोक्रेसी के स्तंभ (पिलर) खड़े हैं। कल्याणकारी (वेलफेयर) स्टेट की अवधारणा को पुलिस स्टेट के विपरीत हासिल करने की जरूरत है क्योंकि यह अंग्रेजों के अधीन था।
  4. ये प्रिंसिपल्स प्रकृति में गैर-न्यायसंगत (नॉन-जस्टिसिएबल) हैं, इसका मतलब है कि इन्हें सरकार के खिलाफ कानून के कोर्ट में कानूनी रूप से लागू नहीं किया जा सकता है। हालांकि, संविधान का आर्टिकल 37 स्वयं कहता है कि ये देश के शासन में फंडामेंटल हैं और कानून बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करना स्टेट का कर्तव्य (ड्यूटी) है।
  5. हालंकि ये प्रकृति में गैर-न्यायसंगत हैं, लेकिन यह कानून की संवैधानिक (कांस्टीट्यूशनल) वैधता (वैलिडिटी) को निर्धारित (डिटरमाइन) करने में कोर्ट की मदद करते हैं। सुप्रीम कोर्ट कई बार न्याय होने तक डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स को लागू करने का प्रयास करता है।

डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी का क्लासिफिकेशन

संविधान डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी के प्रकारों के बीच अंतर नहीं करता है, लेकिन इसकी बेहतर समझ के लिए, इन्हें तीन व्यापक श्रेणियों (कैटेगरी) में क्लासिफाई किया जा सकता है, अर्थात् सोशियलिस्टिक, गांधीअन और लिबरल-इंटेलेक्चुअल।

1. सोशियलिस्टिक प्रिंसिपल्स

फ्रीमैन और गुलाम, पेट्रीशियन और प्लेबीयन, लॉर्ड और सर्फ, गिल्ड-मास्टर और जर्नीमैन, शब्द में, उत्पीड़क (ऑप्रेसर) और उत्पीड़ित (ऑप्रेस्ड) है, लेकिन अब कानून की नजर में सब बराबरी पर हैं, लेकिन इन सामाजिक हाइरार्कियल समस्याओं पर अंकुश लगाने के लिए समाज में भारी असमानताएं (इनेक्वालिटीज) थी, संविधान सभा सोशियलिस्ट स्टेट को प्राप्त करना चाहती थी और इसके लिए उन्होंने संविधान के निम्नलिखित आर्टिकल्स को शामिल किया जो सोशियलिज्म की विचारधारा को दर्शाते है।

  • आर्टिकल 38: राष्ट्र की सभी संस्थाओं (इंस्टीट्यूशन) में सामाजिक व्यवस्था को प्रभावी ढंग से बनाए रखते हुए लोगों के कल्याण को बढ़ावा देना। यह स्टेट का कर्तव्य होगा कि वह असमानताओं को कम करे और किसी व्यक्ति की स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को दूर करने का प्रयास करे।
  • आर्टिकल 39: स्टेट निम्नलिखित चीजों को सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रिंसिपल्स का पालन करेगा:
  1. पुरुषों और महिलाओं के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए और दोनों को आजीविका (लाइवलीहुड) के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार है।
  2. समुदाय (कम्युनिटी) की सेवा करने के लिए स्वामित्व (ओनरशिप) और नियंत्रण, समाज के सर्वोत्तम (बेस्ट) हित में वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) किया जाएगा और सामान्य हित को बनाए रखा जाएगा।
  3. आर्थिक व्यवस्था धन के संकेंद्रण (कंसंट्रेशन) का परिणाम नहीं होगी और उत्पादन (प्रोडक्शन) के साधन कभी भी लोगों की भलाई के लिए हानिकारक नहीं होंगे।
  4. पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान काम के लिए समान वेतन दिया जाएगा।
  5. श्रमिकों (वर्कर्स) का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रमुख है, बच्चों को आर्थिक आवश्यकता के कारण मजबूर नहीं किया जाना चाहिए और नागरिकों को उनकी उम्र और स्वास्थ्य के अनुपयुक्त (अनसूटेड) काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।
  6. बच्चों के विकास के लिए बच्चों को अवसर और सुविधाएं दी जानी चाहिए, बच्चों की स्वतंत्रता और गौरव (डिग्निटी) का सम्मान किया जाना चाहिए और शोषण (एक्सप्लॉयटेशन) के खिलाफ उनकी रक्षा की जानी चाहिए।
  • आर्टिकल 39A: समान न्याय सुनिश्चित करना और न्याय तक समान एक्सेस प्रदान करना स्टेट का कर्तव्य होगा, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (बैकवर्ड क्लास) के लोगों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे कोई भी न्याय से वंचित न हो।
  • आर्टिकल 41: स्टेट अपनी आर्थिक क्षमता के भीतर काम के अधिकार, शिक्षा के अधिकार के लिए एक प्रणाली विकसित करता है और बेरोजगारी, वृद्धावस्था (ओल्ड ऐज), बीमारी और विकलांगता (डिसेबिलिटी) के मामलों के प्रावधान (प्रोविजंस) बनाता है ।
  • आर्टिकल 42: कार्यस्थल (वर्कप्लेस) में न्यायसंगत (जस्ट) और मानवीय (ह्यूमेन) स्थिति सुनिश्चित करना और मातृत्व राहत (मैटरनिटी रिलीफ) के प्रावधान बनाना स्टेट का कर्तव्य है।
  • आर्टिकल 43: स्टेट औद्योगिक (इंडस्ट्रियल), कृषि श्रमिकों के लिए एक आय (वेज) सुनिश्चित करेगा और काम करने के लिए सभ्य कार्यस्थल सुनिश्चित करेगा और ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत या को-ऑपरेटिव आधार पर कुटीर (कॉटेज) उद्योगों को बढ़ावा देगा।
  • आर्टिकल 47: स्टेट अपने लोगों के पोषण (न्यूट्रीशन) स्तर (लेवल) और जीवन स्तर को ऊपर उठाने और बढ़ाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए काम करेगा।

यह आर्टिकल्स समाज के सोशियलिस्ट स्वरूप को ध्यान में रखते हुए सन्निहित (एंबेडेड) हैं। हालांकि, उनमें से कुछ ही हासिल किए गए हैं और सरकार अभी भी उन्हें वास्तविकता (रियलिटी) बनाने के लिए संघर्ष कर रही है।

2. गांधीअन प्रिंसिपल्स

जैसा कि नाम से पता चलता है कि ये प्रिंसिपल्स गांधी जी की विचारधारा पर आधारित हैं। गांधी जी के सपनों को पूरा करने और गांधीअन स्टेट को प्राप्त करने के लिए, इन आर्टिकल्स को संविधान में शामिल किया गया था। यह आर्टिकल निम्नलिखित हैं।

  • आर्टिकल 40: स्टेट्स द्वारा ग्राम पंचायतों को संगठित (ऑर्गेनाइज) करने के लिए कदम उठाए जाएंगे और स्वशासन (सेल्फ-गवर्नमेंट) बनाने के लिए शक्ति और अधिकार का विकेंद्रीकरण (डिसेंट्रालाइजेशन) किया जाएगा।
  • आर्टिकल 43: स्टेट औद्योगिक, कृषि श्रमिकों के लिए एक आय सुनिश्चित करेगा और काम करने के लिए एक सभ्य कार्यस्थल सुनिश्चित करेगा और ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत या को-ऑपरेटिव आधार पर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देगा।
  • आर्टिकल 43B: स्वैच्छिक (वॉलंटरी) गठन (फॉर्मेशन), स्वायत्त (ऑटोनोमस) कामकाज, डेमोक्रेटिक नियंत्रण और को-ऑपरेटिव सोसाइटीज के पेशेवर प्रबंधन (मेनेजमेंट) को बढ़ावा देना।
  • आर्टिकल 46: अनुसूचित जाति (शेड्यूल कास्ट) और अनुसूचित जनजाति (ट्राइब्स) को शोषण और अन्याय से बचाने के लिए उनके शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा दिया जाएगा।
  • आर्टिकल 47: स्टेट अपने लोगों के पोषण के स्तर और जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए काम करेगा, और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए काम करेगा।
  • आर्टिकल 48: वैज्ञानिक (साइंटिफिक) आधार पर कृषि और पशुपालन का संगठन (ऑर्गेनाइजेशन) और नस्लों (ब्रीड्स) का संरक्षण (प्रिजर्व) और सुधार में कदम, गायों, बछड़ों और अन्य दुधारू (मिल्च) और मवेशियों (कैटल) के वध (स्लॉटर) पर रोक लगाना।

3. लिबरल-इंटेलेक्चुअल प्रिंसिपल 

लिब्रलिज्म की विचारधारा व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वायत्तता के लिए खड़ी है। इन प्रिंसिपल्स को लिब्रलिज्म की विचारधारा को ध्यान में रखते हुए शामिल किया गया है। यह हैं:

  • आर्टिकल 44: सभी नागरिकों के लिए पूरे देश में सभी धर्मों और समाज के हर वर्ग के लिए एक यूनिफॉर्म सिविल कोड को सुरक्षित करना।
  • आर्टिकल 45: 14 वर्ष की आयु तक प्रारंभिक (एलिमेंटरी) शिक्षा प्रदान करना जो अब आर्टिकल 21A के तहत एक फंडामेंटल राइट बन गया है।
  • आर्टिकल 48: वैज्ञानिक आधार पर कृषि और पशुपालन का संगठन और नस्लों के संरक्षण और सुधार में कदम, गायों, बछड़ों और अन्य दुधारू और मवेशियों के वध पर रोक लगाना।
  • आर्टिकल 48A: देश के पर्यावरण और वन और वन्य जीवन की रक्षा और सुरक्षा करना स्टेट का कर्तव्य है।
  • आर्टिकल 49: राष्ट्रीय महत्व के स्मारक (मॉन्यूमेंट) के रूप में कानून के तहत घोषित प्रत्येक स्मारक या स्थान या कलात्मक (आर्टिस्टिक) या ऐतिहासिक रुचि की वस्तु की रक्षा करना स्टेट का दायित्व है।
  • आर्टिकल 50: स्टेट की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) से अलग करना।
  • आर्टिकल 51: अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना और राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानजनक संबंध बनाए रखना; अंतरराष्ट्रीय कानून और ट्रीटी दायित्वों (ऑब्लिगेशन) के लिए सम्मान को बढ़ावा देना, और आर्बिट्रेशन द्वारा अंतरराष्ट्रीय विवादों के निपटारे को प्रोत्साहित करना।

नए डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स

हमारे संविधान की सबसे अच्छी विशेषता यह है कि यह एक जीवित प्राणी की तरह है और विकसित होता रहता है। डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स में परिवर्तन हुए हैं और प्रमुख परिवर्तन 1976 के 42वें अमेंडमेंट एक्ट द्वारा किए गए, जिसमें पहली बार 4 नए प्रिंसिपल्स जोड़े गए। वे थे:

  1. आर्टिकल 39: बच्चों के स्वस्थ विकास के अवसरों को सुरक्षित करने और बच्चों की गरिमा और स्वतंत्रता का सम्मान करने के लिए अतिरिक्त क्लॉज जोड़ा गया था।
  2. आर्टिकल 39A: समान न्याय सुनिश्चित करना और न्याय तक समान एक्सेस प्रदान करना स्टेट का कर्तव्य होगा, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करना, जिससे कोई भी न्याय से वंचित न हो।
  3. आर्टिकल 43A: उपक्रमों (अंडरटेकिंग्स), प्रतिष्ठानों (एस्टेब्लिशमेंट) या उद्योग के किसी अन्य संगठन के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उठाए गए कदम।
  4. आर्टिकल 48A: पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने के लिए और वनों और वन्य जीवन की रक्षा के लिए उठाए गए कदम।

1978 के 44वें अमेंडमेंट एक्ट ने एक और डायरेक्टिव प्रिंसिपल जोड़ा, जिसके लिए स्टेट को आय, स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को कम करने की आवश्यकता है जिसे आर्टिकल 38 में शामिल किया गया था।

ऐसा नहीं है कि केवल नए डायरेक्टिव प्रिंसिपल जोड़े जाते हैं बल्कि इन डायरेक्टिव प्रिंसिपल को फंडामेंटल राइट्स की श्रेणी में बढ़ावा दिया जाता है, यह 2002 के 86वें अमेंडमेंट एक्टसं द्वारा हुआ जिसने प्रारंभिक शिक्षा को आर्टिकल 21A के तहत फंडामेंटल राईट बना दिया।

2011 में फिर से 97वें अमेंडमेंट की मदद से आर्टिकल 43B के तहत को-ऑपरेटिव सोसाइटीज से संबंधित डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स को जोड़ा गया।

डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी का महत्व

संविधान स्वयं आर्टिकल 37 के तहत घोषित करता है कि ये देश के शासन में फंडामेंटल हैं। डॉ बी.आर. अम्बेडकर ने बताया कि डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स का बहुत महत्व है क्योंकि वे भारतीय राजनीति के लक्ष्यों को निर्धारित करते हैं जो ‘राजनीतिक लोकतंत्र’ से अलग ‘आर्थिक लोकतंत्र’ है।

डॉ बी.आर. अम्बेडकर ने इंगित (पॉइंट) किया था कि डायरेक्टिव्स का बहुत महत्व है क्योंकि वे कहते हैं कि भारतीय राजनीति का लक्ष्य ‘आर्थिक लोकतंत्र’ है जो ‘राजनीतिक लोकतंत्र’ से अलग है।

इसके अलावा, ग्रेनविल ऑस्टिन का मत था कि डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स का उद्देश्य ‘सामाजिक क्रांति (रिवोल्यूशन) के लक्ष्यों को आगे बढ़ाना या इसकी उपलब्धि के लिए आवश्यक शर्तों को स्थापित करके इस क्रांति को बढ़ावा देना’ है। संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार सर बी.एन.राऊ ने कहा कि डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ‘स्टेट के अधिकारियों के लिए नैतिक (मोरल) नियमों’ के रूप में अभिप्रेत (इंटेंड) हैं। उनके पास कम से कम एक शिक्षाप्रद (एज्यूकेटिव) मूल्य है।’ कुछ महत्वों को इस प्रकार हाईलाइट किया जा सकता है:

  1. ये विदेशी और घरेलू मामलों में सरकार की पॉलिसीज का पालन करने में उपयोगी होते हैं। इन्हें पॉलिसीज बनाने के लिए कच्चे ढांचे (रॉस्ट्रकचर) के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
  2. ये लेजिस्लेटर और न्यायाधीश दोनों के लिए पथ प्रदर्शक (टॉर्च बीयरर) हैं, क्योंकि लेजिस्लेचर के लिए वे कानून बनाने के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं और न्यायाधीशों के लिए ये बनाए गए कानूनों की संवैधानिक वैधता तय करने में मदद करते हैं।
  3. ये संविधान की आत्मा हैं क्योंकि वे संविधान बनाने के लिए संविधान सभा के पीछे की विचारधारा का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंट) करते हैं।
  4. ये फंडामेंटल राइट्स और नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक अधिकारों के बीच के अंतर को भरते हैं। ये लेजिस्लेचर्स को अंतर को भरने का मार्ग प्रदान करते हैं।
  5. ये फंडामेंटल राइट्स के पूरक (सप्लीमेंट्री) हैं और इन्हें प्राप्त करना लेजिस्लेचर का लक्ष्य है।
  6. ये सरकार के प्रदर्शन का परीक्षण (टेस्ट) करने में सहायक हो सकते हैं और यह देखा जा सकता है कि सरकार ने डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी में कितना काम किया है।
  7. ये सरकार को अपने चुनावी घोषणापत्र (मैनिफेस्टो) को सूचित करने और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स की तुलना में अपनी विचारधारा को प्रतिबिंबित (कंपेयर) करने में मदद करते हैं।

डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी की आलोचना

डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स की कई बार तीखी आलोचना हुई है। कुछ प्रमुख आलोचनाओं का निष्कर्ष इस प्रकार है।

1. कोई कानूनी बल नहीं है

डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स की प्रमुख आलोचनाओं में से एक यह है कि वे प्रकृति में गैर-न्यायसंगत हैं। के.टी. शाह ने इनकी तुलना “बैंक में एक चेक से की है, जो केवल तभी देय है जब बैंक के संसाधन (रिसोर्सेज) अनुमति देते हैं”। नसीरुद्दीन के शब्दों में, ये प्रिंसिपल्स ‘नए साल के संकल्पों (रेजोल्यूशन) से बेहतर नहीं हैं, जो जनवरी के दूसरे दिन टूट जाते हैं’। हालांकि, इन डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स को लागू करने के लिए लेजिस्लेटर ने कानून तो बनाए हैं लेकिन यूनिफॉर्म सिविल कोड के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है, जिसकी मांग लंबे समय से की जा रही है।

2. अतार्किक रूप से व्यवस्थित (इलॉजिकली अरेंज्ड)

एक राय में, आलोचना यह है कि ये अतार्किक रूप से व्यवस्थित हैं और किसी सुसंगत (कंसिस्टेंट) दर्शन या तर्क पर आधारित नहीं हैं। एन श्रीनिवासन के शब्दों में, ‘डिरेक्टिव्स को न तो ठीक से क्लासिफाई किया गया है और न ही तार्किक (लॉजिकली) रूप से व्यवस्थित किया गया है। यह घोषणा (डिक्लेरेशन) महत्वहीन मुद्दों को सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों के साथ मिलाती है। यह आधुनिक (मॉडर्न) को पुराने के साथ असंगत (इनकंगरूसली) रूप से जोड़ती है और तर्क और विज्ञान द्वारा सुझाए गए प्रावधानों को विशुद्ध रूप से भावना और पूर्वाग्रह (प्रेज्यूडिस) के प्रावधान के साथ जोड़ती है।

3. रूढ़िवादी (कंजरवेटिव)

सर आइवर जेनिंग्स इनकी आलोचना करते हैं क्योंकि डायरेक्टिव्स 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश राजनीतिक दर्शन पर आधारित हैं। संविधान का भाग IV सोशलिज्म के बिना फैबियन सोशलिज्म को व्यक्त करता है। ये स्टेट के वृद्धावस्था दर्शन पर आधारित हैं जो 20वीं शताब्दी की विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

यह वास्तव में एक तथ्य है कि डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स निर्देशक कानूनों के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं और पिछले कुछ दशकों में ऐसा हुआ हैं। हालांकि डायरेक्टिव प्रिंसिपल का विचार प्रकृति में रूढ़िवादी है, देश की पॉलिसी निर्माण में इसका बहुत बड़ा प्रभाव है। यह कानून बनाने में सरकार के लिए परीक्षा है और अगर वह डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स के विपरीत जाता है तो वह विफल हो जाता है। इसके अलावा, यह कोर्ट को अधिनियमित (इनेक्टेड) कानूनों की वैधता तय करने में मदद करता है। आर्टिकल्स को अधिक वैज्ञानिक तरीके से अरेंज करके बेहतरी की गुंजाइश है। राष्ट्र के महत्व और आवश्यकता के अनुसार आर्टिकल्स की व्यवस्था की जा सकती है। ये फंडामेंटल राइट्स के साथ सहायक भूमिका निभाते हैं लेकिन उनकी भूमिकाओं को इस आधार पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि ये गैर-प्रवर्तनीय (नॉन-एंफोर्सेबल) हैं। इनने कानून की संवैधानिक वैधता तय करने के लिए लिटमस टेस्ट के साथ सरकार और कोर्ट की बार-बार मदद की है।

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