यह लेख आई.एल.एस लॉ कॉलेज के छात्र Shreya Bambulkar और Anoop George द्वारा लिखा गया है। यह लेख मीडिएशन प्रोसीडिंग में डिफेमेशन की अवधारणा (कांसेप्ट) से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sonia Balhara द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
मीडिएशन विवाद, सौहार्दपूर्ण समाधान (अमिकेबल सेटलमेंट) का एक तरीका है जो पक्षों को अपने विचार बताने और बातचीत करके विवादों के समाधान निकलने की अनुमति देता है। मीडिएशन की प्रक्रिया में जारी रहने के दौरान पक्षों के बीच लिखित संचार (कम्युनिकेशन) का आदान-प्रदान शामिल हो सकता है। इन संचारों में दूसरे पक्ष पर लगाए गए झूठे आरोप हो सकते हैं जो डिफेमेट्री बयानों के बराबर हो सकते हैं। इस लेख में चर्चा की गई है कि क्या ऐसी बदनाम करने वाली पक्ष के खिलाफ क्रिमिनल और सिविल डिफेमेशन कार्रवाई की जा सकती है और क्या बदनाम करने वाला पक्ष ज्यूडिशियल और क्वासि-ज्यूडिशियल प्रिविलेज का बचाव कर सकता है।
भारत में मीडिएशन की कानूनी मान्यता
मीडिएशन, अल्टरनेटिव डिस्प्यूट रेजोल्यूशन की एक प्रक्रिया (प्रोसेस) है जिसे पहले इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट, 1947 में कानूनी मान्यता प्राप्त हुई थी। बाद में, विवादों के सौहार्दपूर्ण और त्वरित (स्पीडी) निपटान की सुविधा के लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर 1908 की धारा 89 को अधिनियमित (एनेक्टेड) किया गया था। नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटीज एक्ट, 1987, नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी का गठन (कॉन्स्टिट्यूट) करके, नेगोशिएशन, मीडिएशन, कॉन्सिलिएशन के माध्यम से विवादों के निपटारे को प्रोत्साहित (एनकरेज) करता है। ।
विवादों को निपटाने के लिए मीडिएशन एक प्रभावी साधन है
मीडिएशन, एक तेजी से बढ़ते निवारण तंत्र (रिड्रेसल मैकेनिज्म) के रूप में सामने आया है। एक झगड़े को हल करने के पहले चरणों (स्टेज) में से एक, इसके कारण की पहचान करना है और फिर झगड़े को दूर करने के लिए एक रणनीति विकसित करना है। मीडिएशन में पक्षकार स्वतंत्र रूप से अपने मुद्दों की राय और चिंताओं को बता सकते है जो उन्हें असली विवाद और इसके मुमकिन समाधानों को समझने में मदद करते हैं। यह एक स्वैच्छिक (वोलंटरी) और अनौपचारिक (इनफॉर्मल) नेगोशिएशन प्रक्रिया है जो समाधान पर आम सहमति तक पहुंचने के लिए पक्षों की सक्रिय (एक्टिव) और हर एक भागीदारी को प्रोत्साहित करती है, इस प्रकार जूरी द्वारा लगाए गए अनुचित फैसले का जोखिम अत्यधिक (हाइली) कम हो जाता है। यह मुकदमेबाजी (लिटिगेशन) का एक लागत प्रभावी और समय बचाने वाला विकल्प (अल्टरनेटिव) है। यह गोपनीयता (कॉन्फिडेंशियलिटी) भी सुनिश्चित करता है और मुकदमेबाजी की तरह, मीडिया का ध्यान आकर्षित (अट्रैक्ट) नहीं करता है।
मीडिएशन प्रक्रिया को प्राकृति
मीडिएशन एक स्वैच्छिक, पक्ष-केंद्रित (पार्टी सेंट्रिक) और संरचित (स्ट्रक्चर्ड) नेगोशिएशन है जो एक तटस्थ (न्यूट्रल) तीसरे पक्ष की सहायता से की जाती है जो केवल पक्षों के बीच संचार और नेगोशिएशन की सुविधा प्रदान करती है। यह पक्ष केंद्रित है क्योंकि मीडिएशन के परिणाम पर पक्षों का पूरा नियंत्रण (कंट्रोल) होता है। यह प्रकृति में अनौपचारिक है, इसलिए यह साक्ष्य के नियमों और प्रक्रिया के औपचारिक नियमों द्वारा शासित नहीं है। प्रक्रिया की स्वैच्छिक प्रकृति सुनिश्चित करती है कि पक्षों के पास यह अधिकार है कि वह समझौता कर सके और निपटान की शर्तें तय कर सके।
एफकॉन्स इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम चेरियन वर्की कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड
इस मामले में कोर्ट ने ब्लैक ‘लॉ डिक्शनरी में प्रदान की गई मीडिएशन की परिभाषा को देखा और कहा की “मीडिएशन एक प्रसिद्ध शब्द है और यह एक तटस्थ तीसरे पक्ष की सहायता से नॉन-बाइंडिंग डिस्प्यूट रेजोल्यूशन की एक विधि को संदर्भित (रेफर) करता है जो विवादित पक्षों को एक समझौते पर आने में मदद करने की कोशिश करता है।”
मीडिएशन के प्रकार
1. वैधानिक (स्टेट्यूटरी)
कुछ कानून पक्षों की सहमति और इच्छा के बावजूद मीडिएशन को अनिवार्य करते हैं। उदाहरण- सिविल प्रोसीजर कोड की धारा 5 (f)(iii)– अल्टरनेटिव डिस्प्यूट रेजोल्यूशन एंड मीडिएशन रूल्स, 2003 और कमर्शियल कोर्ट्स (प्री इंस्टीट्यूशन मीडिएशन एंड सेटलमेंट) रूल्स, 2018 की धारा 12(A)
2. कोर्ट द्वारा रेफर किया गया
कोर्ट सिविल प्रोसीजर कोड की धारा 89 के तहत पक्षों की सहमति से मामले को मीडिएटर के पास भेज सकता है।
3. निजी (प्राइवेट)
पक्ष मौद्रिक (मोनेटरी) आधार पर मीडिएटर के रूप में कार्य करने के लिए सीधे तीसरे पक्ष को संलग्न (एंगेज) करते हैं।
क्रिमिनल डिफेमेशन
इंडियन पीनल कोड की धारा 499 में डिफेमेशन के लिए तीन अवयवों (इंग्रेडिएंट्स) की आवश्यकता होती है:
- किसी व्यक्ति पर कोई आरोप लगाना या प्रकाशित (पब्लिश) करना,
- ऐसा आरोप किसके द्वारा लगाया गया होगा-
- शब्द, या तो बोले गए या पढ़ने के इरादे से; या
- संकेत; या
- दृश्यमान प्रतिनिधित्व (विज़िबल रेप्रेसेंटेशन)
- इस तरह का आरोप नुकसान पहुंचाने के इरादे से या ज्ञान या यह मानने के कारण से लगाया गया था कि यह उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा (रेप्युटेशन) को नुकसान पहुंचाएगा, जिसके बारे में इसे बनाया गया है।
डिफेमेशन के लिए पब्लिकेशन जरूरी है
दिनकर राजाराम पोल बनाम रामराव नंदनवंकर
इस मामले में कोर्ट ने कहा कि- पब्लिश करना एक ऐसी प्रक्रिया है जो लिखने से शुरू होती है और बदनाम पक्ष के अलावा किसी तीसरे व्यक्ति को इसे बताने के साथ समाप्त होती है।
इसलिए, जब एक पक्ष द्वारा, दूसरे पक्ष के वकील को मीडिएशन के दौरान अपमानजनक बयानों वाला लिखित संचार भेजा जाता है या मीडिएशन में आम सहमति तक पहुंचने में विफलता के कारण अदालत में प्रस्तुत किया जाता है या अनिवार्य प्री-इंस्टीट्यूशन मीडिएशन के तहत किसी भी प्राधिकारी को भेजा जाता है, तो यह इस तरह के बयानों के प्रकाशन के बराबर है।
इंडियन पीनल कोड के तहत प्रिविलेज
कुछ अवसर ऐसे होते हैं जब कानून यह मानता है कि बोलने की आजादी की स्वतंत्रता का अधिकार वादी (प्लेनटिफ) की प्रतिष्ठा के अधिकार से ज्यादा जरूरी है। कानून ऐसे अवसरों को ‘प्रिविलेज्ड’ मानता है। दो प्रकार के प्रिविलेजेस हैं: ‘पूर्ण (एब्सलूट)’ और ‘योग्य (क्वालिफाइड)’।
पूर्ण प्रिविलेज में, डिफेमेट्री बयानों के लिए कोई कार्रवाई नहीं होती है, भले ही बयान गलत हो या दुर्भावनापूर्ण (मलीशियस) तरीके से बनाया गया हो। इसके विपरीत, योग्य प्रिविलेज का लाभ तभी उठाया जा सकता है जब बयान सद्भावपूर्वक (गुड फेथ) और बिना द्वेष (मेलिस) के दिए गए हों।
भारतीय कानून के तहत क्रिमिनल डिफेमेशन के लिए कोई पूर्ण प्रिविलेज नहीं है
अशोक कुमार बनाम राधा किशन विज और अन्य
इस मामले में कोर्ट ने कहा कि- ज्यूडिशियल प्रोसीडिंग्स के एक पक्ष को केवल योग्य प्रिविलेज प्राप्त होते हैं क्योंकि यह वही है जो धारा 499 के 9 अपवादों में वैधानिक रूप से गिना जाता है। किसी पूर्ण प्रिविलेज का दावा नहीं किया जा सकता है। यह सामान्य कानून में उपलब्ध है। भारत में अपराधों का कानून और आम कानून की मौज़ेक नहीं है। यह शुद्ध और अधातु (अनअलॉयड) संहिताबद्ध (कोडिफाइड) कानून है। अब हमारे पास एपेक्स कोर्ट का उच्च प्राधिकरण ( अथॉरिटी) है कि धारा 499 के तहत “प्रतिरक्षा (इम्यूनिटी) एक योग्य है और पूर्ण नहीं है जैसा कि अंग्रेजी कानून में है।”
पूर्ण प्रिविलेज के अवसर पर बदनाम किए गए व्यक्ति का कोई कानूनी समाधान नहीं होता है, भले ही उसके बारे में असत्य बयान कितना ही अपमानजनक क्यों न हो और इसके निर्माता का मकसद कितना भी दुर्भावनापूर्ण क्यों न हो। यदि, दूसरी ओर, अवसर एक योग्य प्रिविलेज का है, तो प्रिविलेज को द्वेष के प्रमाण से हराया जा सकता है। यदि कथन के निर्माता को द्वेष से प्रेरित किया जाता है तो वह योग्य प्रिविलेज की ढाल की इस सुरक्षा को खो देता है।
इस प्रकार, इंडियन पीनल कोड केवल योग्य प्रिविलेज की अनुमति देती है, पूर्ण प्रिविलेज की नहीं। इसलिए यदि कोई मामला एक पक्ष द्वारा मीडिएशन को दूसरे पक्ष की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के इरादे से सूचित किया जाता है, तो उसे अपनी ओर से द्वेष साबित करके डिफेमेशन के लिए उत्तरदायी (लाइबल) ठहराया जा सकता है।
सिविल डिफेमेशन
डिफेमेशन के आवश्यक तत्व हैं:
- बयान डिफेमेट्री होना चाहिए
- बताए गए कथन (स्टेटमेंट) वादी को संदर्भित करना चाहिए
- बयान पब्लिश किया जाना चाहिए
पूर्ण प्रिविलेज केवल ज्यूडिशियल और क्वासि-ज्यूडिशियल प्रोसीडिंग्स पर लागू होता है-
ब्रिगेडियर ई.पू. राणा बनाम सीमा कटोच
इस मामले में कोर्ट ने माना कि- यह दावा करने के लिए कि कोई विशेष कथन डिफेमेट्री है, किसी तीसरे पक्ष के लिए एक प्रकाशन होना चाहिए और ऐसा प्रकाशन इस प्रकार का होना चाहिए जिससे किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को काफी नुकसान होने की संभावना हो। पूर्ण प्रिविलेज डिफेमेशन की कार्रवाई में उपलब्ध एक विशेष बचाव है जिसे संसदीय प्रोसीडिंग्स, ज्यूडिशियल प्रोसीडिंग्स और स्टेट्स के एक्ट्स के प्रमुखों के तहत समूहीकृत (ग्रुप्ड) किया जा सकता है। इसलिए, पूर्ण प्रिविलेज के नियम का सार (एसेंस) यह है कि शिकायत को एक ऐसे निकाय (बॉडी) को संबोधित किया जाना चाहिए जिसमें ज्यूडिशियल फंक्शन्स या, क्वासि-ज्यूडिशियल फंक्शन्स हों, और, शिकायत ज्यूडिशियल या क्वासि-ज्यूडिशियल प्रोसीडिंग्स में एक स्टेप-इन सेटिंग होनी चाहिए।
पांडे सुरिंदर नाथ सिंह बनाम बागेश्वरी प्रसाद
इस मामले में कोर्ट ने माना कि- पूर्ण प्रिविलेज सभी कोर्ट्स, वरिष्ठ (सुपीरियर) या अवर (इन्फीरियर), सिविल या राजस्व (रेवेन्यू) या सैन्य (मिलिट्री) और अन्य ट्रिब्यूनल्स जो कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है और न्यायिक रूप से कार्य करते (रिकॉग्नाइज्ड) है। हालांकि, यह उन ट्रिब्यूनल्स पर लागू नहीं होता है जो केवल एडमिनिस्ट्रेटिव फंक्शन्स का निर्वहन (डिस्चार्ज) करते हैं, या वास्तविक (जेन्युइन) ज्यूडिशियल फंक्शन्स के विरोध में केवल प्रशासनिक रखने वाले अधिकारियों पर भी लागू नहीं होता है।
मीडिएशन की प्रकृति ज्यूडिशियल या क्वासि-ज्यूडिशियल प्रोसीडिंग्स की नहीं है
इंडियन नेशनल कांग्रेस (आई) बनाम इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वेलफेयर और अन्य
इस मामले में कोर्ट ने कहा कि- “जहां दो या दो से अधिक पक्ष एक-दूसरे के दावे का मुकाबला कर रहे हैं और पक्षों के बीच प्रतिद्वंद्वी (राइवल) दावों को तय करने के लिए वैधानिक प्राधिकरण की आवश्यकता है, ऐसे वैधानिक प्राधिकरण को क्वासि-ज्यूडिशियल माना जाता है और उसके द्वारा निर्णय देने को क्वासि-ज्यूडिशियल आदेश के रूप में माना जाता है। इस प्रकार, जहां एक सूची या दो प्रतिस्पर्धी (कॉन्टेस्टिं) पक्ष प्रतिद्वंद्वी दावे कर रहे हैं तो, वैधानिक प्रावधान के तहत वैधानिक प्राधिकरण को इस तरह के विवाद को तय करने की आवश्यकता होती है, क्वासि-ज्यूडिशियल प्राधिकरण के किसी अन्य गुण (अट्रीब्यूट) की अनुपस्थिति में, ऐसा वैधानिक प्राधिकरण, क्वासि-ज्यूडिशियल प्राधिकरण होता है।”
“एक प्रशासनिक कार्य को क्वासि-ज्यूडिशियल कार्य से क्या अलग करता है, वह यह है की, प्रासंगिक (रिलेवेंट) कानून के तहत क्वासि-ज्यूडिशियल फंक्शन्स के मामले में वैधानिक प्राधिकरण को न्यायिक रूप से कार्य करने की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में, जहां कानून की आवश्यकता है, कि निर्णय पर पहुंचने से पहले प्राधिकरण को जांच करनी चाहिए, कानून की ऐसी आवश्यकता प्राधिकरण को क्वासि-ज्यूडिशियल प्राधिकरण बनाती है।”
हालांकि, मीडिएशन में मीडिएटर की भूमिका केवल पक्षों को एक समझौता करने के लिए मार्गदर्शन (गाइड) करने के लिए होती है। मीडिएटर से अपने निजी विचार व्यक्त करने की अपेक्षा नहीं की जाती है और न ही उसे दोनों पक्षों के मुद्दों को सुनने के बाद कोई निर्णय देना होता है। वह केवल पक्षों के बीच संचार की सुविधा प्रदान करता है, दोनो के बीच के झगड़े को सुलझाता है और उन्हें इस मुद्दे को सुलझाने के लिए प्रेरित करता है। वह कानूनी जांच नहीं करता है या पक्षों के दावों का फैसला नहीं करता है। इसलिए, मीडिएशन ज्यूडिशियल या क्वासि-ज्यूडिशियल प्रोसीडिंग्स नहीं है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
इस प्रकार, ऊपर बताए गए कानूनों और सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) के आधार पर, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मीडिएशन के दौरान सिविल और क्रिमिनल डिफेमेशन की कार्रवाई की जा सकती है। एक बार जब यह साबित हो जाता है कि डिफेमेट्री बयान किसी तीसरे पक्ष को प्रकाशित किए गए हैं, तो सवाल उठता है कि क्या संचार किसी प्रिविलेज के तहत कवर किया गया है। क्रिमिनल डिफेमेशन के मामले में, आई.पी.सी की धारा 499 के तहत अपवाद केवल योग्य हैं और पूर्ण नहीं हैं। द्वेष साबित करके योग्य प्रिविलेज को नकारा (नेगेट) जा सकता है। सिविल डिफेमेशन के मामले में, पूर्ण प्रिविलेज केवल ज्यूडिशियल या क्वासि-ज्यूडिशियल प्रोसीडिंग्स में कहे या लिखे गए मामलों को कवर करता है और मीडिएशन दोनों में से कोई नहीं है।