ट्रेड यूनियन एक्ट, 1946 के बारे में सब कुछ जानिए

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Trade Unions Act 1946
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यह लेख Shivangi Tiwari द्वारा लिखा गया है, जो हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, रायपुर से बी.ए. एलएलबी की पढ़ाई कर रही हैं और द्वितीय वर्ष की छात्रा है। यह, ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 से संबंधित एक विस्तृत (एक्जॅास्टिव) लेख है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

बड़े पैमाने पर इंडस्ट्रियलाइजेशन के उदय से पहले, श्रमिकों (वर्कर्स) और नियोक्ताओं (एंप्लॉयर्स) के बीच पर्सनल कॉन्ट्रैक्ट्स हुआ करते थे। इसलिए, तब तक श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच संबंधों का ध्यान रखने वाली किसी भी मशीनरी के विकास की कोई आवश्यकता नहीं उठी। लेकिन मॉडर्न फैक्ट्री सिस्टम की स्थापना (एस्टेब्लिशमेंट) के बाद बड़े पैमाने पर इंडस्ट्रियलाइजेशन के कारण, इस संबंध ने अपना महत्व खो दिया, जिसने नियोक्ताओं को बाजार में जबरदस्त कंपटीशन का सामना करने के लिए, उत्पादन (प्रोडक्शन) की लागत को कम करने और तकनीकी रूप से अधिक परिष्कृत (सोफिस्टिकेटेड) साधनों का उपयोग करके अपने लाभ को अधिकतम (मैक्सिमाइज) करने के लिए प्रेरित किया, जिसके परिणामस्वरूप श्रमिकों के एक नए वर्ग (क्लास) का उदय हुआ जो अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से मजदूरी पर निर्भर थे, जिसने मौजूदा नियोक्ता और कर्मचारी संबंध को बदल दिया जिसमें कर्मचारियों का उनके नियोक्ताओं द्वारा शोषण (एक्सप्लॉयटेशन) किया गया था। श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच हितों (इंटरस्ट्स) के टकराव और श्रमिकों के संकट के परिणामस्वरूप विभिन्न ट्रेड यूनियंस का विकास हुआ।

एक ट्रेड यूनियन, श्रमिकों का एक संगठित समूह (ऑर्गेनाइज्ड ग्रुप) है जो उचित वेतन, काम के अच्छे माहौल, काम के घंटे और अन्य लाभ, जो उन्हे अपने श्रम के बदले में मिलने चाहिए, से संबंधित मुद्दों में श्रमिकों की मदद करने का प्रयास करता है। वे प्रबंधन (मैनेजमेंट) और श्रमिकों के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करते हैं। नई-नई संस्थाओं (इंस्टीट्यूशंस) के शुरू होने के बाद भी वे एक शक्तिशाली फोर्स के रूप में परिवर्तित हो गए हैं, क्योंकि उनका श्रमिकों के सामाजिक और आर्थिक (इकोनॉमिक) जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इन ट्रेड यूनियंस के कामकाज को नियंत्रित (कंट्रोल) और प्रबंधित (मैनेज) करने के लिए अलग-अलग कानूनों की आवश्यकता है, जो इन मुद्दों को रेगुलेट करे। भारत में ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926, ट्रेड यूनियंस के कामकाज को नियंत्रित करने और प्रबंधित करने के लिए एक प्रमुख एक्ट है। इस लेख का उद्देश्य एक्ट के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या (एक्सप्लेन) करना और उनको सामने लाना है।

भारत में ट्रेड यूनियनिज्म का इतिहास

भारत में ट्रेड यूनियंस, श्रमिकों की मांगों को सामने लाने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच के रूप में विकसित (डेवलप) हुए हैं। वे सबसे प्रभावशाली दबाव (इनफ्लुएंशियल प्रेशर) समूहों में से एक हैं, जो सरकार का हिस्सा बनने की इच्छा के बिना, श्रमिकों के पक्ष में कानून बनाने में सरकार को प्रभावित करने की मांग करते है। एक संगठित संस्था के रूप में, ट्रेड यूनियनिज़्म ने प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अपना ठोस आकार लिया। भारत में ट्रेड यूनियन अनिवार्य रूप से आधुनिक (मॉडर्न) बड़े पैमाने पर इंडस्ट्रियलाइजेशन की एक देन है और समाज में किसी भी मौजूदा संस्थान से विकसित नहीं हुआ है। एक संगठित ट्रेड यूनियन की आवश्यकता को पहली बार 1875 में श्री सोराबजी शापाजी बंगाली और श्री एन.एम. लोखंडे जैसे विभिन्न परोपकारी (फिलेंथ्रोफीस्ट्स) और सामाजिक कार्यकर्ताओं (वर्कर्स) द्वारा महसूस किया गया था, जिनके निरंतर प्रयासों के परिणामस्वरूप द प्रिंटर्स यूनियन ऑफ कलकत्ता (1905), बॉम्बे पोस्टल यूनियन (1907) जैसे ट्रेड यूनियंस का गठन (फॉर्मेशन) हुआ।

19वीं शताब्दी के प्रारंभ में, बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता प्रेसीडेंसी टाउन्स में कपड़ा और मिल इंडस्ट्रीज की स्थापना ने भारत में इंडस्ट्रियल वर्कफोर्स एसोसिएशन के गठन को बड़ावा दिया। 1890 में एन.एम. लोखंडे द्वारा स्थापित बॉम्बे मिल-हैंड्स एसोसिएशन, भारत का पहला श्रमिक एसोसिएशन था। बाद के वर्षों में भारत में कई अन्य श्रमिक एसोसिएशंस और यूनियंस की वृद्धि और विकास देखा गया, जैसे मद्रास लेबर यूनियन, जिसे 1918 में बी.पी. वाडिया द्वारा स्थापित किया गया था और 1920 में देश ने गुजरात में अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबरर्स एसोसिएशन का विकास भी देखा जो महात्मा गांधी के मार्गदर्शन (गाइडेंस) में एक एसोसिएशन में बदल गया और उस समय के देश में सबसे मजबूत यूनियंस में से एक माना जाता था, जो अपने आर्बिट्रेशन और कांसिलीएशन के अनूठे (यूनिक) तारेकों के कारण जाना जाता था, जिसकी वजह से श्रमिकों की शिकायतों को नियोक्ताओं के साथ आसानी से निपटाया जाता था। चूंकि एसोसिएशन ने महात्मा गांधी द्वारा निर्धारित (लेड डाउन) सत्य और अहिंसा के आदर्शों का पालन किया, इसलिए यह समाज में हार्मनी को नुकसान पहुंचाए बिना श्रमिकों को शांतिपूर्ण (पीसफुल) तरीके से न्याय दिलाने में सक्षम था। उसी वर्ष, पहले ट्रेड यूनियन फेडरेशन, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (ए.आई.टी.यू.सी.) का गठन हुआ, जो इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन द्वारा की गई टिप्पणियों (ऑब्जर्वेशन) के बाद अस्तित्व में आया, जिसने ट्रेड यूनियंस और एसोसिएशंस पर पड़ने वाले राजनीतिक प्रभाव और कैसे वह किसी भी अर्थव्यवस्था (इकोनॉमी) की समृद्ध (प्रोस्पर) होने के लिए हानिकारक है, पर प्रकाश डाला।

एक संगठित ट्रेड यूनियन के गठन के महत्व को महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रवादी (नेशनलिस्ट) नेताओं ने महसूस किया, जिन्होंने नियोक्ता और कार्यकर्ता के संबंधों को बेहतर बनाने के लिए ट्रस्टीशिप की अवधारणा (कांसेप्ट) दी, जिसमें श्रमिकों और नियोक्ताओं के सहयोग की परिकल्पना (इनवीसेज) की गई थी। इस अवधारणा के अनुसार, जो लोग आर्थिक रूप से मजबूत हैं, उन्हें संपत्ति का न केवल ऐसा उपयोग करना चाहिए जो उनके लिए फायदेमंद हो, बल्कि संपत्ति का ऐसा उपयोग करना चाहिए जो उन श्रमिकों के कल्याण के लिए हो जिनकी समाज में आर्थिक स्थिति ठीक न हो और प्रत्येक कार्यकर्ता को खुद को अन्य श्रमिकों के ट्रस्टी के रूप में सोचना चाहिए और अन्य श्रमिकों के हितों की रक्षा करने का प्रयास करना चाहिए।

कई कमीशंस ने भारत में ट्रेड यूनियंस के गठन पर भी जोर दिया, उदाहरण के लिए, रॉयल कमिशन ऑन लेबर या व्हिटली कमीशन ऑन लेबर, जिसे वर्ष 1929-30 में स्थापित किया गया था, ने सिफारिश की थी कि भारत में मॉडर्न इंडस्ट्रियलाइजेशन द्वारा उत्पन्न की गई समस्याएं, दुनिया भर में, इसी वजह से उत्पन्न हुई समस्याओं के समान हैं और एकमात्र समाधान (सॉल्यूशन), जो मजदूरों को उनकी दयनीय स्थिति और शोषण से मुक्त करने के लिए है, वह मजबूत ट्रेड यूनियन बनाना है।

भारत में ट्रेड यूनियन कानून का विकास (डेवलपमेंट ऑफ़ ट्रेड यूनियन लॉ इन इंडिया)

भारत में श्रम कानून का इंडस्ट्रियल संबंधों के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। सामाजिक न्याय की स्थापना भारत में सभी श्रम कानूनों का सिद्धांत रहा है। दुनिया भर में श्रम की स्थिति के उत्थान (अपलिफ्ट) के लिए इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की स्थापना ने देश में अच्छी तरह से तैयार श्रम कानून की आवश्यकता को और ज्यादा गति दी। 1921-24 के स्वराज आंदोलन और श्रम पर रॉयल कमीशन जैसे कई अन्य आंतरिक कारकों (इंटर्नल फैक्टर्स) ने भी विभिन्न श्रम कानूनों का मार्ग प्रशस्त (पेव) किया और संविधान निर्माताओं को ऐसे कानूनों को भारतीय संविधान में शामिल करने के लिए प्रोत्साहित (इनकरेज) किया, जिससे मजदूरों को लाभ होगा। संविधान के तहत श्रम, कॉन्करेंट लिस्ट का विषय है और केंद्र और राज्य सरकार दोनों इस विषय से संबंधित कानून बना सकते हैं। देश में श्रम पर विभिन्न कानून इस प्रकार हैं:

  • अपरेंटिसिस एक्ट, 1961: इस एक्ट का उद्देश्य नई जनशक्ति (मैनपॉवर) के स्किल्स को बढ़ावा देना और व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) और सैद्धांतिक (थियोरिटिकल) प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) के माध्यम से पुराने स्किल्स में सुधार और शोधन (रिफाइनमेंट) करना था।
  • कांट्रैक्ट लेबर (रेगुलेशन एंड एबोलिशन) एक्ट, 1970: इस एक्ट का उद्देश्य कुछ परिस्थितियों (सर्कमस्टेंसेस) में श्रमिकों के रोजगार के कॉन्ट्रैक्ट के साथ-साथ उसके एबोलीशन को रेगुलेट करना है।
  • एंप्लॉयज प्रोविडेंट फंड एंड मिसलेनियस प्रोविजंस एक्ट, 1952: इस एक्ट ने कर्मचारियों को वेतन के भुगतान को रेगुलेट किया और उन्हें सामाजिक सुरक्षा की गारंटी भी दी।
  • फैक्ट्रीज एक्ट, 1948: इस एक्ट का उद्देश्य कुछ निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) रोजगारों में लगे श्रमिकों के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करना है।
  • मिनिमम वेजेस एक्ट, 1948: इस एक्ट का उद्देश्य कुछ रोजगारों में मजदूरी की न्यूनतम दरें तय करना है।
  • ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926: यह एक्ट, ट्रेड यूनियंस के रजिस्ट्रेशन को प्रदान करता है और रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियंस से संबंधित कानूनों को परिभाषित करता है।

इनियन ट्रेड यूनियन (अमेंडमेंट) एक्ट, 1947

मजदूरों, विशेषकर असंगठित (अनोर्गनाइज्ड) क्षेत्रों में काम करने वाले लोग सही से बारगेन करने की असक्षम होते हैं और यह उनके शोषण का एक प्रमुख कारण बन जाता है। कलेक्टिव बार्गेनिंग का अधिकार केवल उन्हीं ट्रेड यूनियंस को प्रदान किया जाता है जो रजिस्टर्ड हैं लेकिन भारत में ट्रेड यूनियंस की मान्यता के संबंध में कानून हैं लेकिन ट्रेड यूनियंस के रजिस्ट्रेशन पर एक भी कानून नहीं है। ट्रेड यूनियंस के रजिस्ट्रेशन के लिए केंद्रीय कानून होने की आवश्यकता को महसूस करते हुए, संसद ने वर्ष 1947 में इंडियन ट्रेड यूनियन (अमेंडमेंट) एक्ट पास किया। उक्त एक्ट ने ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 में अध्याय (चैप्टर) III-A को पेश करने की मांग की, जिसने किसी भी ट्रेड यूनियन की अनिवार्य मान्यता के लिए आवश्यक शर्तों की गणना (एन्युमरेट) की। हालाँकि, इस एक्ट को कभी भी लागू नहीं किया गया, इसलिए, भारत में लागू किसी भी कानून के तहत ट्रेड यूनियंस की अनिवार्य (मैंडेटरी) मान्यता मौजूद नहीं है।

ट्रेड यूनियंस का रजिस्ट्रेशन

1926 का ट्रेड यूनियन एक्ट वर्ष 1926 में पास किया गया था, लेकिन यह वर्ष 1927 में लागू हुआ। इस एक्ट में ट्रेड यूनियंस के लिए रजिस्ट्रेशन, रेगुलेशन, लाभ और सुरक्षा से संबंधित प्रावधान (प्रोविजंस) शामिल हैं। एक्ट के अध्याय 2 की धारा 3 से धारा 14 भारत के क्षेत्र में ट्रेड यूनियंस के रजिस्ट्रेशन से संबंधित है।

धारा 3: रजिस्ट्रार्स की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट ऑफ़ रजिस्ट्रार्स)

एक्ट की धारा 3 उपयुक्त (अप्रोप्रिएट) सरकार को किसी व्यक्ति को ट्रेड यूनियन के रजिस्ट्रार के रूप में नियुक्त (अपॉइंट) करने का अधिकार देती है। उपयुक्त सरकार एक ट्रेड यूनियन में और डेप्युटी रजिस्ट्रार्स भी नियुक्त कर सकती है, जिसे वह एक्ट के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उपयुक्त समझे।

धारा 4: रजिस्ट्रेशन का तरीका

एक्ट की धारा 4 में ट्रेड यूनियन के रजिस्ट्रेशन के तरीके का प्रावधान है। धारा के अनुसार, एक ट्रेड यूनियन के 7 या 7 से अधिक सदस्य निम्नलिखित 2 शर्तों के अधीन ट्रेड यूनियन के रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन (एप्लाई) कर सकते हैं:

  • आवेदन करने की तिथि को स्थापना में कम से कम 7 सदस्यों को नियोजित (एंप्लॉय) किया जाना चाहिए।
  • कम से कम 10% या 100 सदस्य जो भी कम हो, स्थापना में नियोजित हैं, आवेदन करने की तिथि पर इसका एक हिस्सा होना चाहिए।

धारा 6: एक ट्रेड यूनियन के नियमों में शामिल किए जाने वाले प्रावधान

एक्ट की धारा 6 उन प्रावधानों को सूचीबद्ध (एनलिस्ट) करती है जो ट्रेड यूनियन के नियमों में निहित (कंटेंड) होने चाहिए और यह प्रदान करती है कि किसी भी ट्रेड यूनियन को तब तक मान्यता नहीं दी जाएगी जब तक कि उसने एक्ट के प्रावधानों के अनुसार एक वर्किंग कमिटी की स्थापना नहीं की है और इसके नियम निम्नलिखित मामलों को निर्दिष्ट करते हैं अर्थात्:

  • ट्रेड यूनियन का नाम;
  • ट्रेड यूनियन की स्थापना का उद्देश्य;
  • उद्देश्यों, जिन के लिए यूनियन के साथ फंड्स को निर्देशित (डायरेक्ट) किया जाएगा;
  • यूनियन के सदस्यों को निर्दिष्ट करने वाली एक सूची बनाई जाएगी। सूची का निरीक्षण (इंस्पेक्शन) ट्रेड यूनियन के ऑफिस बीयरर्स और सदस्यों द्वारा किया जाएगा;
  • साधारण सदस्यों को शामिल करना जो वास्तव में ऐसी इंडस्ट्री में लगे या नियोजित होंगे, जिससे ट्रेड यूनियन जुड़ा हुआ है;
  • वे शर्तें जो सदस्यों को नियमों द्वारा सुनिश्चित किए गए किसी भी लाभ के लिए पात्र (एंटाइटल) बनाती हैं और वे शर्तें भी जिनके तहत सदस्यों पर कोई जुर्माना या जब्ती (फॉरफीचर) लगाई जा सकती है;
  • वह प्रक्रिया जिसके द्वारा नियमों में अमेंडमेंट, परिवर्तन (वेरिड) या निरसन (रेसिंड) किया जा सकता है;
  • जिस तरह से मैनेजर के सदस्य और श्रमिक यूनियन के ऑल्टरनेटिव वर्कप्लेस के बीयरर्स को इलेक्ट और हटाया जाएगा;
  • श्रमिक यूनियन की फंड्स की सुरक्षित कस्टडी, एनुअल ऑडिट, इस तरह से, जैसा कि निर्धारित किया जा सकता है, उसके अकाउंट्स की, और वर्कप्लेस के ऑफिस बीयरर्स और श्रमिक यूनियन के सदस्यों द्वारा अकाउंट बुक्स के निरीक्षण के लिए पर्याप्त सुविधाएं, तथा;
  • जिस तरह से श्रमिक यूनियन को डिसोल्व किया जा सकता था।

धारा 7: विवरण की मांग करने की शक्ति और नाम में परिवर्तन की आवश्यकता (पॉवर टू कॉल फॉर फर्दर पार्टिकुलर्स एंड रिक्वायर अल्टरेशन ऑफ़ द नेम)

एक्ट की धारा 7 रजिस्ट्रार को स्वयं को संतुष्ट करने के लिए सूचना मांगने की शक्ति प्रदान करती है कि ट्रेड यूनियन द्वारा किया गया कोई भी आवेदन एक्ट की धारा 5 और 6 के अनुपालन (कंप्लायंस) में है। ऐसे मामलों में जहां विसंगति (डिस्क्रेपैंसी) पाई जाती है, रजिस्ट्रार आवेदन को अस्वीकार करने का अधिकार सुरक्षित रखता है जब तक कि यूनियन द्वारा ऐसी जानकारी प्रदान नहीं की जाती है।

यह धारा रजिस्ट्रार को ट्रेड यूनियन को अपना नाम बदलने या नाम बदलने का निर्देश देने की शक्ति भी प्रदान करती है यदि रजिस्ट्रार ऐसे यूनियन का नाम किसी अन्य ट्रेड यूनियन के नाम के समान पाता है या यदि वह उसका नाम किसी भी मौजूदा ट्रेड यूनियन के नाम से मिलता-जुलता पता है, जो जनता या किसी भी ट्रेड यूनियन के सदस्यों को धोखा देने के आशय से हो सकता है।

धारा 8: रजिस्ट्रेशन

एक्ट की धारा 8 के अनुसार, यदि रजिस्ट्रार ने खुद को पूरी तरह से संतुष्ट कर लिया है कि एक यूनियन ने एक्ट के सभी आवश्यक प्रावधानों का पालन किया है, तो वह एक्ट द्वारा निर्दिष्ट तरीके से उसके सभी विवरणों (डिटेल्स) को दर्ज करके ऐसे यूनियन को रजिस्टर कर सकता है।

धारा 9: रजिस्ट्रेशन का सर्टिफिकेट

एक्ट की धारा 9 के अनुसार, रजिस्ट्रार किसी भी ट्रेड यूनियन को एक रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट जारी करेगा जो एक्ट की धारा 8 के प्रावधान के तहत रजिस्टर्ड है और ऐसा सर्टिफिकेट ट्रेड यूनियन के रजिस्ट्रेशन के निर्णायक प्रमाण (कंक्लूजिव प्रूफ) के रूप में कार्य करेगा।

धारा 9A: ट्रेड यूनियन की सदस्यता से संबंधित न्यूनतम आवश्यकता

एक्ट की धारा 9A किसी भी यूनियन में उपस्थित होने के लिए आवश्यक न्यूनतम सदस्यों की संख्या निर्धारित करती है जो कि विधिवत (ड्यूली) रजिस्टर्ड है, धाराएं अनिवार्य करती हैं कि एक ट्रेड यूनियन जो रजिस्टर्ड हो, उसमे कम से कम 10% या 100 श्रमिक होने ही चाहिए, जो भी कम हो, जिसमे से कम से कम 7 ने संस्था या व्यापार में काम किया हो जिसमे वे सदस्य के रुप में जुड़े हुए थे।

धारा 10: रजिस्ट्रेशन रद्द करना (कैंसिलेशन ऑफ़ रजिस्ट्रेशन)

एक्ट की धारा 10 के अनुसार रजिस्ट्रार के पास निम्नलिखित में से किसी भी स्थिति में, किसी भी यूनियन के रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट को वापस लेने या रद्द (कैंसल) करने की शक्ति है:

  • ट्रेड यूनियन द्वारा किए गए एक आवेदन पर इस तरह से वेरिफाई करने की मांग की जा सकती है जैसा कि निर्धारित किया गया हो;
  • यदि रजिस्ट्रार इस तथ्य से संतुष्ट है कि ट्रेड यूनियन ने धोखाधड़ी या छल के माध्यम से सर्टिफिकेट प्राप्त किया है;
  • यदि ट्रेड यूनियन का अस्तित्व समाप्त हो गया है;
  • यदि ट्रेड यूनियन ने जानबूझकर और रजिस्ट्रार को नोटिस प्रस्तुत करने के बाद एक्ट के किसी प्रावधान का उल्लंघन (कंट्रावीन) किया है या किसी ऐसे नियम को जारी रखा है जो एक्ट के प्रावधानों के उल्लंघन में है;
  • यदि किसी यूनियन ने एक्ट की धारा 6 के तहत प्रदान किए गए किसी भी नियम को रद्द कर दिया है।

धारा 11: अपील

एक्ट की धारा 11 के अनुसार, कोई भी यूनियन जो रजिस्ट्रेशन से इंकार करने या रजिस्ट्रार द्वारा किए गए रजिस्ट्रेशन को वापस लेने से व्यथित (एग्रीवेड) है, अपील दायर कर सकता है:

  • किसी भी हाई कोर्ट में, यदि ट्रेड यूनियन का हेड ऑफिस किसी प्रेसीडेंसी शहर में स्थित है;
  • किसी भी लेबर कोर्ट या इंडस्ट्रियल ट्रिब्यूनल में, यदि ट्रेड यूनियन ऐसे स्थान पर स्थित है जिस पर लेबर कोर्ट या इंडस्ट्रियल ट्रिब्यूनल का अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) है;
  • यदि ट्रेड यूनियन का हेड ऑफिस किसी अन्य स्थान पर स्थित है, तो किसी भी कोर्ट में अपील दायर की जा सकती है जो मूल अधिकार क्षेत्र के प्रिंसिपल सिविल कोर्ट के एडिशनल या असिटेंट कोर्ट से कम नहीं है।

धारा 12: रजिस्टर्ड ऑफिस

एक्ट की धारा 12 में कहा गया है कि किसी भी ट्रेड यूनियन को सभी संचार (कम्युनिकेशंस) और नोटिस उसके रजिस्टर्ड ऑफिस पर संबोधित (एड्रेस) किए जाने चाहिए। यदि कोई ट्रेड यूनियन अपने रजिस्टर्ड ऑफिस का पता बदलता है, तो उसे लिखित रूप में 14 दिनों की अवधि के भीतर रजिस्ट्रार को इसकी सूचना देनी होगी और रजिस्ट्रार एक्ट की धारा 8 के तहत उल्लिखित (मेंशन्ड) रजिस्टर में बदले हुए पते को दर्ज करना होगा।

धारा 13: रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन का इनकॉरपोरेशन 

एक्ट की धारा 13 में कहा गया है कि प्रत्येक ट्रेड यूनियन जो एक्ट के प्रावधानों के अनुसार रजिस्टर्ड है, वह:

  • उस नाम से कॉर्पोरेट होंगे जिसके तहत यह रजिस्टर्ड है।
  • परपेचुअल सक्सेशन और एक सामान्य मुहर (सील) है।
  • किसी चल (मूवेबल) और अचल (इम्मूवेबल) संपत्ति के लिए कॉन्ट्रैक्ट करने और धारण (होल्ड) करने और अर्जित (एक्वायर) करने की शक्ति है।
  • उक्त नाम पर मुकदमा किया जा सकता है और मुकदमा चलाया भी जा सकता है।

रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियंस के अधिकार और दायित्व (राइट्स एंड लायबिलिटीज ऑफ़ रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियंस)

धारा 15 से धारा 28 उन अधिकारों को स्पष्ट करती है जो एक रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन के पास होते हैं और उन दायित्वों को भी जो इसके खिलाफ लगाए जा सकते हैं।

धारा 15: वे वस्तुएं जिन पर सामान्य फंड खर्च किया जा सकता है

एक्ट की धारा 15 केवल उन गतिविधियों को निर्धारित करती है जिन पर एक रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन अपने फंड्स खर्च कर सकता है। इन गतिविधियों में शामिल हैं:

  • ऑफिस बीयरर्स को वेतन देना।
  • ट्रेड यूनियन के एडमिनिस्ट्रेशन के लिए खर्च की गई लागत (कॉस्ट)।
  • किसी भी व्यापार विवाद से उत्पन्न होने वाले किसी भी नुकसान के कारण श्रमिकों को मुआवजा (कंपेंसेशन)।
  • श्रमिकों के कल्याण कार्यों में होने वाला खर्चा।
  • बेरोजगारी, विकलांगता (डिसेबिलिटी) या मृत्यु के मामले में श्रमिकों को दिए जाने वाले लाभ।
  • किसी कानूनी मुकदमे को लाने या बचाव करने में होने वाली लागत।
  • श्रमिकों के बीच जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से प्रकाशन (पब्लिशिंग) सामग्री।
  • श्रमिकों या उनके आश्रितों की (डिपेंडेंट्स) शिक्षा।
  • श्रमिकों के लिए चिकित्सा उपचार की व्यवस्था करना।
  • श्रमिकों के कल्याण के लिए बीमा पॉलिसी लेना।

धारा यह भी प्रावधान करती है कि उक्त फंड में कंट्रीब्यूशन न करने का कारण और फंड में कंट्रीब्यूशन को यूनियन में प्रवेश के लिए मानदंड (क्राइटेरिया) के रूप में नहीं बनाया जा सकता है।

धारा 16: राजनीतिक उद्देश्यों के लिए एक अलग फंड का गठन (कांस्टीट्यूशन ऑफ़ ए सेपरेट फंड फॉर पॉलिटिकल पर्पसेज)

धारा 16 में प्रावधान है कि एक ट्रेड यूनियन, अपने सदस्यों के नागरिक और राजनीतिक हितों को बढ़ावा देने के लिए उक्त उद्देश्यों के लिए अलग से किए गए कंट्रीब्यूशंस से एक अलग फंड का गठन कर सकता है। यूनियन के किसी भी सदस्य को फंड में कंट्रीब्यूशंस करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।

धारा 17: व्यापार विवादों में आपराधिक साजिश (क्रिमिनल कॉन्स्पीरेसी इन ट्रेड डिस्प्यूट्स)

एक्ट की धारा 17 में कहा गया है कि ट्रेड यूनियन के वैध हितों को बढ़ावा देने के लिए यूनियन के सदस्यों के बीच किए गए किसी भी एग्रीमेंट के संबंध में धारा 120B की उप-धारा (सब-सेक्शन) 2 के तहत उल्लिखित आपराधिक साजिश के लिए ट्रेड यूनियन के किसी भी सदस्य को उत्तरदायी (लायबल) नहीं ठहराया जा सकता है।

धारा 18: कुछ मामलों में सिविल वादों से इम्यूनिटी

एक्ट की धारा 18 ट्रेड यूनियन के सदस्यों को किसी भी व्यापार विवाद (ट्रेड डिस्प्यूट) को आगे बढ़ाने या विचार करने के लिए किए गए किसी भी कार्य से उत्पन्न सिविल या टॉर्टियस दायित्वों से मुक्त करती है।

उदाहरण के लिए, सामान्य तौर पर, किसी व्यक्ति को किसी कॉन्ट्रेक्ट का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित करने के लिए एक व्यक्ति पर टॉर्टियस दायित्व होता है। लेकिन, ट्रेड यूनियन और उसके सदस्य ऐसी दायित्वों से मुक्त हैं, बशर्ते इस तरह के प्रलोभन (इंड्यूसमेंट) किसी भी व्यापार विवाद के विचार या आगे बढ़ाने के लिए हों। इसके अलावा, प्रलोभन भयानक (ऑफुल) होना चाहिए और किसी भी हिंसा, धमकी या किसी अन्य अवैध गतिविधि के किसी भी पहलू को शामिल नहीं करना चाहिए।

धारा 19: एग्रीमेंट की एनफोर्सिबिलिटी

धारा 25 के अनुसार, व्यापार में बाधा डालने वाला कोई भी एग्रीमेंट वॉइड है। लेकिन ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 की धारा 19 के तहत एक रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन के सदस्यों के बीच व्यापार गतिविधियों को रोकने के लिए कोई भी एग्रीमेंट न तो वॉइड है और न ही वॉइडेबल है। हालाँकि ऐसा अधिकार केवल रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियंस के पास ही उपलब्ध है क्योंकि अनरजिस्टर्ड ट्रेड यूनियंस को सामान्य कॉन्ट्रेक्ट कानून का पालन करना होता है।

धारा 20: ट्रेड यूनियन की पुस्तकों के निरीक्षण का अधिकार

एक्ट की धारा 20 के अनुसार, किसी भी रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन के खातों और सदस्यों की सूची का ट्रेड यूनियन के सदस्यों द्वारा, समय-समय पर निरीक्षण किया जा सकता है, जैसा कि ट्रेड यूनियन के नियमों के तहत प्रदान किया गया है।

धारा 21: नाबालिगों को ट्रेड यूनियन की सदस्यता के अधिकार

धारा 21 में यह प्रावधान है कि 15 वर्ष से अधिक आयु का व्यक्ति किसी भी ट्रेड यूनियन का सदस्य हो सकता है और यदि वह सदस्य बन जाता है तो वह ट्रेड यूनियन के सदस्यों को ट्रेड यूनियन द्वारा निर्धारित शर्तों के अधीन दिए गए सभी अधिकारों का आनंद ले सकता है, जिसका वह हिस्सा बनना चाहता है।

धारा 21-A: ट्रेड यूनियन के ऑफिस बीयरर्स की अयोग्यता (डिस्क्वालिफिकेशंस ऑफ़ ऑफिस बियरर्स ऑफ़ ट्रेड यूनियन)

एक्ट की धारा 21A उन शर्तों को निर्धारित करती है, जिनकी पूर्ति किसी व्यक्ति को ट्रेड यूनियन के सदस्य होने से अयोग्य (डिस्क्वालिफाई) घोषित कर देती है। एक्ट में निर्धारित शर्तें इस प्रकार हैं:

  • यदि सदस्य ने मेजोरिटी की आयु प्राप्त नहीं की है,
  • यदि उसे भारत की किसी भी कोर्ट द्वारा नैतिक अधमता (मोरल टर्पीट्यूड) के लिए दोषी ठहराया गया है और उसे तब तक कारावास की सजा सुनाई गई है जब तक कि उसकी रिहाई के बाद से 5 साल की अवधि समाप्त नहीं होती है।

धारा 22: इंडस्ट्री से जुड़े ऑफिस बीयरर्स का अनुपात (प्रोपोर्शन ऑफ़ ऑफिस बियरर्स टू बी कनेक्टेड विथ द इंडस्ट्री)

एक्ट की धारा 22 में कहा गया है कि ट्रेड यूनियन के कम से कम आधे सदस्यों को उस इंडस्ट्री या कार्य में नियोजित किया जाना चाहिए जिससे ट्रेड यूनियन जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिए, अगर कोई ट्रेड यूनियन कृषि (एग्रीकल्चरल) मजदूरों के कल्याण के लिए बनाई गई है, तो इस धारा के अनुसार ऐसे ट्रेड यूनियन के आधे सदस्यों को कृषि गतिविधियों में नियोजित किया जाना चाहिए।

धारा 23: नाम का परिवर्तन

धारा 23 में कहा गया है कि कोई भी रजिस्टर्ड यूनियन अपना नाम बदलने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन इस शर्त के साथ कि वह अपने सदस्यों के कम से कम 2/3 की सहमति से और एक्ट की धारा 25 में निर्धारित शर्तों को पूरा करने के अधीन ऐसा करता हो।

धारा 24: ट्रेड यूनियंस का अमलगमेशन

धारा 24 में कहा गया है कि दो या दो से अधिक ट्रेड यूनियन एक साथ जुड़ सकते हैं और फंड के डिजोल्यूशन या विभाजन (डिवीजन) के साथ या बिना, एक ट्रेड यूनियन बना सकते हैं। ऐसा अमलगमेशन तभी हो सकता है जब प्रत्येक ट्रेड यूनियन के आधे सदस्यों द्वारा वोट किया गया हो और यह कि 60% वोट प्रस्ताव (प्रपोजल) के पक्ष में होना चाहिए।

धारा 25: नाम परिवर्तन या अमलगमेशन की सूचना

एक्ट की धारा 25 में प्रावधान है कि:

  • नाम के प्रत्येक परिवर्तन और प्रत्येक अमलगमेशन का नोटिस, जिस पर सेक्रेटरी द्वारा और ट्रेड यूनियन के 7 सदस्यों द्वारा अपना नाम बदलने पर हस्ताक्षर किए जाते हैं, और, अमलगमेशन के मामले में, सेक्रेटरी द्वारा और ट्रेड यूनियन के प्रत्येक 7 सदस्यों द्वारा, जो उसका एक पक्ष है, रजिस्ट्रार को भेजा जाना चाहिए।
  • यदि रजिस्ट्रार को लगता है कि प्रस्तावित नाम किसी अन्य मौजूदा ट्रेड यूनियन के नाम के समान है या, यह ऐसे नाम से मिलता-जुलता है, जिससे जनता या ट्रेड यूनियन के सदस्यों को धोखा होने की संभावना है, तो रजिस्ट्रार नाम का परिवर्तन करने से इनकार कर सकता है। 
  • यदि उस राज्य का रजिस्ट्रार जिसमें अमलगमेटिड ट्रेड यूनियन का हेड ऑफिस स्थित है, इस बात से संतुष्ट है कि इस एक्ट के प्रावधानों ने अमलगमेशन का अनुपालन किया है, तो उसे ऐसे रजिस्ट्रेशन की तारीख से प्रभाव में लाया जाएगा।

धारा 27: डिजोल्यूशन

एक्ट की धारा 27 एक फर्म के डिजोल्यूशन के बारे में इस प्रकार बताती है:

  • यदि एक रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन को डिजोल्व कर दिया गया है, तो इस तरह के डिजोल्यूशन का एक नोटिस, जिस पर 7 सदस्यों और ट्रेड यूनियन के सेक्रेटरी द्वारा हस्ताक्षर किए जाने चाहिए, इस तरह के डिजोल्यूशन के 14 दिनों के भीतर रजिस्ट्रार को तामील (सर्व) किया जाना चाहिए और यदि रजिस्ट्रार संतुष्ट है कि डिजोल्यूशन ट्रेड यूनियन द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार प्रभावी किया गया है, तो वह डिजोल्यूशन दर्ज कर सकता है।
  • जहां एक यूनियन को डिजोल्व कर दिया गया है, लेकिन उसके नियम यह नहीं बताते हैं कि उसके डिजोल्यूशन के बाद फंड को किस तरह से वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) किया जाना है, रजिस्ट्रार किसी भी निर्धारित तरीके से फंड वितरित कर सकता है।

धारा 28: रिटर्न्स

धारा 28 में प्रावधान है कि प्रत्येक ट्रेड यूनियन को रजिस्ट्रार द्वारा निर्धारित दिन को या उससे पहले  रजिस्ट्रार को एनुअल रिटर्न भेजना चाहिए। रिटर्न में शामिल हैं:

  • जनरल स्टेटमेंट
  • ऑडिट रिपोर्ट 
  • ट्रेड यूनियन द्वारा किए गए सभी रिसीप्ट्स और एक्सपेंडिचर
  • 31 दिसंबर को फर्म की संपत्ति और देनदारियां (लायबिलिटी)

धारा की उप-धारा 2 में कहा गया है कि जनरल स्टेटमेंट के साथ-साथ ट्रेड यूनियन के नियमों की एक कॉपी, जो उसके प्रेषण (डिस्पैच) की तारीख तक सही की गई हो और एक स्टेटमेंट जिसमें यूनियन द्वारा वर्ष में किए गए सभी परिवर्तनों को दर्शाया गया हो, रजिस्ट्रार को भेजा जाना चाहिए है।

जब भी कोई रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन अपने नियमों में परिवर्तन करता है, तो ऐसे परिवर्तन करने से कम से कम 15 दिनों की अवधि में रजिस्ट्रार को ऐसे परिवर्तनों के बारे में बताया जाना चाहिए।

रेगुलेशन

एक्ट के अध्याय 4 की धारा 29 से धारा 30 उन रेगुलेशंस को निर्धारित करती है जो ट्रेड यूनियन पर लगाए जाएंगे।

धारा 29: रेगुलेशंस बनाने की शक्ति 

एक्ट की धारा 29 उपयुक्त सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान करने का अधिकार प्रदान करती है कि एक्ट के प्रावधानों को निष्पक्ष (फेयर) रूप से निष्पादित (एक्जीक्यूट) किया जाता है। ऐसे रेगुलेशन किसी या सभी मामलों के लिए प्रावधान कर सकते हैं, जो इस प्रकार हैं:

  • किस तरह से एक ट्रेड यूनियन या उसके नियमों को रजिस्टर्ड किया जाएगा;
  • किस तरह से एक ट्रेड यूनियन के रजिस्ट्रेशन को स्थानांतरित (ट्रांसफर) किया जाना है जिसने अपना हेड ऑफिस बदल दिया है;
  • उस व्यक्ति की नियुक्ति का तरीका और योग्यता जो रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन के खातों का ऑडिट करेगा;
  • किन परिस्थितियों में रजिस्ट्रार द्वारा रखे गए दस्तावेजों का निरीक्षण करने की अनुमति दी जाएगी और इस प्रकार किए गए निरीक्षण के लिए लगाया जाने वाला शुल्क भी।

धारा 30: रेगुलेशंस का प्रकाशन (पब्लिकेशन ऑफ रेगुलेशंस)

धारा 30 में कहा गया है कि:

  • सरकार को दी गई, रेगुलेशंस बनाने की शक्ति इस शर्त के अधीन है कि ऐसा रेगुलेशन पिछले प्रकाशन (पब्लिकेशन) के बाद बनाया गया हो;
  • जिस तारीख से रेगुलेशन लागू किया जाएगा वह जनरल क्लॉजेस एक्ट, 1897 की धारा 23 के क्लॉज (3) के अनुसार निर्दिष्ट किया जाएगा, और वह तारीख, उस तारीख से 3 महीने से कम नहीं होनी चाहिए, जिस पर प्रस्तावित रेजुलेशन का ड्राफ्ट सामान्य जानकारी के लिए प्रकाशित किया गया था,
  • जो रेगुलेशन बनाए जाते हैं उन्हें भारत के आधिकारिक राजपत्र (ऑफिशियल गैजेट) में निर्दिष्ट किया जाना चाहिए और इस पर एक इनेक्टेड कानून का प्रभाव होगा।

दंड और प्रक्रिया (पेनल्टीज एंड प्रोसीजर)

ट्रेड यूनियन एक्ट की धारा 31 से धारा 33 एक ट्रेड यूनियन पर दंड और उसके आवेदन की प्रक्रिया को निर्धारित करती है जो इस तरह के दंड के अधीन है।

धारा 31: रिटर्न जमा करने में विफलता

धारा 31 में कहा गया है कि:

  • यदि किसी ट्रेड यूनियन को एक्ट के तहत रजिस्ट्रार को कोई नोटिस, बयान या कोई दस्तावेज भेजने की आवश्यकता होती है और यदि नियम ने यूनियन में किसी विशेष व्यक्ति को ऐसी जानकारी प्रदान करने के लिए निर्धारित नहीं किया है, तो डिफ़ॉल्ट के मामले में एक्जीक्यूटिव के प्रत्येक सदस्य पर 5 रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा और लगातार चूक करने पर जुर्माना 5 रुपये प्रति सप्ताह तक बढ़ाया जा सकता है।
  • यदि कोई व्यक्ति एक्ट की धारा 28 के तहत आवश्यक जनरल स्टेटमेंट में जानबूझकर कोई गलत एंट्री या कोई चूक करता है, तो वह 500 रुपये तक के जुर्माने से दंडनीय होगा।

धारा 32: ट्रेड यूनियंस के संबंध में गलत सूचना देना

धारा 32 में निम्नलिखित कहा गया है:

  • कोई भी व्यक्ति जो किसी ट्रेड यूनियन के सदस्य या किसी अन्य व्यक्ति को धोखा देने के लिए, ट्रेड यूनियन का हिस्सा होने का दावा करता है,
  • ट्रेड यूनियन के नियमों वाले दस्तावेज़ की एक कॉपी इस बहाने से देता है।
  • वह जानता है या उसके पास यह मानने का कारण होता है कि यह ऐसे नियमों और परिवर्तन की सही कॉपी नहीं है और,
  • समान आशय (इंटेंशन) वाला कोई भी व्यक्ति किसी रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन के नियमों की कॉपी होने का दावा करने वाले किसी भी दस्तावेज की कॉपी देता है, जो वास्तव में एक अनरजिस्टर्ड यूनियन है,
  • तो उस व्यक्ति पर जुर्माना लगाया जाएगा जो 200 रुपये तक हो सकता है।

धारा 33 : अपराधों का कॉग्निजेंस

धारा 33 में अपराध के कॉग्निजेंस के संबंध में प्रावधान हैं। इसमें कहा गया है कि कोई भी कोर्ट जो प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट या फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट से कम है, एक्ट के तहत अपराध को ट्राई नहीं करेगी। कोर्ट्स केवल निम्नलिखित मामलों में एक्ट के तहत अपराधों का कॉग्निजेंस ले सकती हैं:

  • जब शिकायत रजिस्ट्रार की पूर्व स्वीकृति से की गई हो
  • जब किसी व्यक्ति पर एक्ट की धारा 32 के तहत आरोप लगाया गया है, तो उस पर कथित (एलेज्ड) अपराध किए जाने के 6 महीने के भीतर ट्राई किया जा सकता है।

कलेक्टिव बार्गेनिंग और व्यापार विवाद

जब एक संगठित बॉडी, नियोक्ता के साथ बातचीत करती है और बार्गेनिंग के माध्यम से रोजगार की शर्तों को तय करती है, तो इसे कलेक्टिव बार्गेनिंग के रूप में जाना जाता है। कलेक्टिव बार्गेनिंग का अनिवार्य तत्व यह है कि यह इच्छुक (इंटरेस्टेड) पार्टियों के बीच होती है न कि बाहरी पार्टियों के बीच।

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन ने वर्ष 1960 में अपने मैनुअल में कलेक्टिव बार्गेनिंग के अर्थ को इस प्रकार परिभाषित किया था:

“एक एग्रीमेंट पर पहुंचने की दृष्टि से एक नियोक्ता, कर्मचारियों के एक समूह या एक या एक से अधिक नियोक्ता संगठन के बीच काम करने की स्थिति और रोजगार की शर्तों के बारे में बातचीत।” एग्रीमेंट की शर्तों का उपयोग उन अधिकारों और दायित्वों का पता लगाने के लिए किया जाता है जिनके द्वारा प्रत्येक पक्ष रोजगार के दौरान एक दूसरे के प्रति बाध्य होती है।

इंडस्ट्रियल रिलेशंस एक्ट 1990 की धारा 8 व्यापार विवाद को परिभाषित करती है, एक्ट के अनुसार, इंडस्ट्रियल विवाद किसी भी विवाद को संदर्भित करता है जो नियोक्ताओं और श्रमिकों के बीच उत्पन्न होता है और यह आमतौर पर निम्नलिखित में से किसी एक के संबंध में हो सकता है:

  • रोजगार या गैर-रोजगार,
  • रोजगार के नियम या शर्तें,
  • कुछ ऐसा जो किसी भी व्यक्ति के रोजगार को प्रभावित करता हो।

कलेक्टिव बार्गेनिंग के लिए आवश्यक शर्तें

  • अनुकूल (फेवरेबल) राजनीतिक और सामाजिक माहौल: अतीत में हुई सभी कलेक्टिव बार्गेनिंग इस बात की गवाही देती है कि अनुकूल राजनीतिक और सामाजिक माहौल कलेक्टिव बार्गेनिंग की सबसे जरूरी शर्त है। इसका कारण बिल्कुल स्पष्ट है क्योंकि भारत में लगभग सभी ट्रेड यूनियन एक या दूसरे राजनीतिक दृष्टिकोण (व्यू) की सदस्यता लेते हैं और इसलिए, ट्रेड यूनियन आमतौर पर कर्मचारियों को उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों की योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि उनके राजनीतिक विचार के आधार पर पसंद करते हैं।
  • ट्रेड यूनियन: भारत जैसे लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक) देश में, जहां बोलने के अधिकार को मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) के रूप में मान्यता दी जाती है, ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार इसका प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) परिणाम है और इसलिए सभी नियोक्ताओं को ट्रेड यूनियंस और उसके प्रतिनिधित्व को पहचानना चाहिए।
  • समस्या-समाधान रवैया (एटीट्यूड): इसका मतलब है कि दोनों पक्षों को अपनी संबंधित चिंताओं को लाने के लिए बातचीत करते समय एक समस्या-समाधान रवैया अपनाना चाहिए और विपरीत पक्ष को नुकसान में डालने की कोशिश किए बिना समस्या को सौहार्दपूर्ण (एमिकेबल) ढंग से हल करने का लक्ष्य रखना चाहिए।
  • निरंतर संवाद (डायलॉग): नियोक्ता और श्रमिकों के बीच संवाद कभी-कभी बिना किसी उपयोगी बातचीत के समाप्त हो सकता है या बार्गेनिंग का गतिरोध (इंपासे) उत्पन्न हो सकता है, ऐसे मामले में नियोक्ता और कर्मचारी के बीच संवाद के मुक्त प्रवाह (फ्लो) को रोका नहीं जाना चाहिए और कभी-कभी इसे अलग रखना चाहिए जिससे विवाद की जड़ एक बेहतर समाधान लाने में मदद करती है।

कलेक्टिव बार्गेनिंग के उद्देश्य

  • श्रमिकों को काम करने की स्थिति के संबंध में अपनी शिकायतों को सुनने का अवसर प्रदान करना।
  • नियोक्ता और श्रमिकों के लिए एक दूसरे के प्रति कोई दुर्भावना (इल विल) के बिना शांतिपूर्वक सौहार्दपूर्ण समाधान तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करना।
  • नियोक्ता और श्रमिकों के बीच सभी विवादों को सुलझाने के लिए।
  • कॉन्ट्रेक्ट पर आपसी सहमति से भविष्य में होने वाले किसी भी विवाद को रोकने के लिए।
  • श्रमिकों और संगठन के बीच शांतिपूर्ण और स्थिर (स्टेबल) संबंध को बढ़ावा देना।

भारत में स्थिति

भारत में, कलेक्टिव बार्गेनिंग अपने आवेदन में सीमित रही है और विभिन्न श्रम कानूनों द्वारा प्रतिबंधित (रेस्ट्रिक्टेड) की गई है। विभिन्न श्रम कानूनों ने श्रमिकों की कार्य स्थितियों के संबंध में अलग-अलग प्रावधान किए है। भारत में कुछ श्रम कानून इस प्रकार हैं:

  • द फैक्ट्रीज एक्ट, 1948 ने श्रमिकों के स्वास्थ्य, सुरक्षा, कल्याण और अन्य पहलुओं के संबंध में उनके सुधार के लिए प्रावधान किए, जब तक श्रमिक फैक्ट्रीज के काम में नियोजित हैं। हालांकि, एक्ट के सभी प्रावधान सभी फैक्ट्रीज में लागू नहीं थे, उदाहरण के लिए, रेस्टरूम का प्रावधान केवल तभी लागू होगा जब 150 या अधिक श्रमिक हों।
  • एंप्लॉयीज प्रोविडेंट फंड एंड मिसलेनियस प्रोविजंस एक्ट, 1952, मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट और पेमेंट ऑफ़ ग्रेच्युटी एक्ट
  • इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट, 1947, उन प्रक्रियाओं को निर्धारित करता है जिनके द्वारा इंडस्ट्रियल विवादों का निपटारा किया जाता है। इसके प्रक्रियात्मक (प्रोसीजरल) पहलू इंडस्ट्रियल विवादों के निपटारे के लिए सभी एंटरप्राइजेज पर लागू होते हैं।

भारत में श्रम कानूनों को करीब से देखने पर पता चलता है कि ज्यादातर श्रमिक जो अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्रों में नियोजित हैं, वे विभिन्न श्रम कानूनों के तहत संरक्षित हैं। 1999 की 5वीं आर्थिक जनगणना के अनुसार, यह पता चला था कि 97% से अधिक एंटरप्राइजेज 10 से कम श्रमिकों को रोजगार देते हैं, और इनमें से ज्यादातर 5 से कम श्रमिकों को रोजगार देते हैं। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि श्रम कानून 3% से कम एंटरप्राइजेज पर लागू होते हैं।

इसके अलावा, लिबरलाईजेशन की शुरुआत के साथ वर्कफोर्स के फॉर्मलाइजेशन में तेजी ने औपचारिक क्षेत्र (फॉर्मल सेक्टर) को अनौपचारिक क्षेत्र (इनफॉर्मल सेक्टर) में स्थानांतरित करने और इसके साथ-साथ नौकरियों के फॉर्मलाइजेशन में भी बदल दिया है। आज, औपचारिक क्षेत्र में, औपचारिक श्रमिकों की संख्या लगभग 33.7 मिलियन और अनौपचारिक श्रमिकों की संख्या लगभग 28.9 मिलियन (2004-05) है। औपचारिक क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि (चाहे वह कितनी भी हो) प्रकृति में काफी हद तक अनौपचारिक रही है। जो बदले में व्यापार बार्गेनिंग पर प्रतिबिंबित (रिफ्लेक्ट) हुआ है?

कलेक्टिव बार्गेनिंग के लिए एग्रीमेंट

भारत में कलेक्टिव बार्गेनिंग के लिए निम्नलिखित प्रकार के एग्रीमेंट प्रचलित (प्रीवेलेंट) हैं:

  • बायपारटाइट एग्रीमेंट: ये एग्रीमेंट आमतौर पर नियोक्ता और कर्मचारियों के बीच स्वैच्छिक बातचीत में परिणत (रिजल्ट) होते हैं और आमतौर पर बाध्यकारी होते हैं।
  • सेटलमेंट्स: सेटलमेंट्स आमतौर पर सुलह प्रक्रिया से उत्पन्न होती हैं और वे आमतौर पर प्रकृति में ट्राईपारटाइट होती हैं क्योंकि उनमें 3 पक्ष शामिल होते हैं जो नियोक्ता, कर्मचारी और सुलह अधिकारी होते हैं।
  • कॉन्सेंट अवॉर्ड्स: जब पार्टियां एक एग्रीमेंट पर पहुंचती हैं, जबकी उनके बीच विवाद न्यायिक बॉडी के समक्ष लंबित (पेंडिंग) है। इस तरह के एग्रीमेंट प्राधिकरण (अथॉरिटीज) के अवार्ड में शामिल हैं और विवाद के तहत पार्टियों पर बाध्यकारी हैं।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 एक कल्याणकारी कानून है, जो संगठित और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को अमानवीय व्यवहार और उनके मानवाधिकारों की सुरक्षा से बचाने के लिए इनेक्ट किया गया है। जैसे कानून में ट्रेड यूनियंस के लिए रजिस्ट्रेशन, रेगुलेशन, लाभ और सुरक्षा के प्रावधान शामिल हैं। जिससे श्रमिकों को लाभ हो रहा है।

किसी भी देश के लोकतांत्रिक विकास के लिए ट्रेड यूनियन महत्वपूर्ण अंग हैं क्योंकि यह कलेक्टिव बार्गेनिंग द्वारा श्रमिकों की जरूरतों और मांगों को पूरा करता है। कलेक्टिव बार्गेनिंग नियोक्ता-कर्मचारी संबंध का एक महत्वपूर्ण पहलू है। हालाँकि, कलेक्टिव बार्गेनिंग सभी ट्रेड यूनियंस को प्रदान नहीं की जाती है, बल्कि केवल उन ट्रेड यूनियंस को प्रदान की जाती है जिन्हें मान्यता प्राप्त हो। इसलिए, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 के तहत प्रदान न की गई ट्रेड यूनियन की अनिवार्य मान्यता की मांग श्रमिकों द्वारा बार-बार उठाई गई है। आज, मीडिया के विकास के परिणामस्वरूप ट्रेड यूनियंस का सशक्तिकरण (एंपावरमेंट) हुआ है और वे न केवल इंडस्ट्रियल क्षेत्रों में बल्कि कृषि और अन्य संबद्ध (एलाइड) क्षेत्रों में भी प्रभावशाली समूहों में बदल गए हैं।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

  • B.P. Guha: Wage Movement in Indian Industries: As Reflected in Collective Bargaining Agreements.
  • Bare Act: Trade Unions Act, 1926 along with Central Trade Unions Regulations, 1938. – Universal Law Publishing
  • Justice P.S. Narayana: The Trade Unions Act, 1926

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