यह लेख Shubhada Sonwalker और Jacob Michael द्वारा लिखा गया है। इस लेख में लेखक सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल) एक्ट, 2013 का विश्लेषण (एनालाइज) करते है और भारत में ऐसे एक्ट की जरूरत क्यों है यह भी बताते है। इस लेख में वह कुछ ऐतिहासिक मामलो पर भी चर्चा करते है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय (इंट्रोडक्शन)
परंपरागत (ट्रेडिशनली) रूप से भारत में महिलाओं को घर पर रहने और युवाओं की देखभाल करने के लिए ही कहा जाता था, जबकि पुरुषों को रोटी कमाने वाला माना जाता था। शिक्षा तक पहुंच, बेहतर सुविधाएं, बढ़ती हुई साक्षरता (लिट्रेसी) और औद्योगिक क्रांति (इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन) के साथ, दुनिया भर में महिलाओं ने अपने घरों की सीमाओं को छोड़ कर और बाहर काम करना शुरू कर दिया है। हालांकी, अपने परिवार की मदद करने के लिए महिलाएँ हमेशा अपने परिवार के साथ खेतों में काम करती आ रही हैं, और यहाँ तक कि बहुत लम्बे समय से दाई के रूप में भी काम करती आ रहीं हैं।
इन सभी चीजों को माध्यमिक गतिविधियों (सेकेंडरी एक्टिविटीज) के रूप में माना जाता था और शायद ही इन्हे कभी मान्यता दी गई होगी। महिलाओं ने बिना किसी अधिकार के काम किया है और इस तरह उनका अक्सर शोषण (एक्सप्लॉयटेशन) किया जाता है।
संविधान निर्माताओं (मेकर्स) ने इस समस्या को पर ध्यान देते हुए सभी को समानता का अधिकार प्रदान किया, लिंग, जाति, पंथ (क्रीड) या सामाजिक स्थिति के निरपेक्ष (इरेस्पेक्टिव) के बावजूद।
भारत में संविधान में आर्टिकल 15 के तहत समानता का लक्ष्य (एम) प्रदान किया गया है और दलित वर्गों (सेक्शंस) और महिलाओं के लिए विशेष कानून बनाने के लिए प्रावधान (प्रोविजन) भी प्रदान किया गया है। आज भी महिलाओं की स्थिति उनके पुरुष समकक्षों (काउंटरपार्ट्स) के बराबर नहीं है। हमें निश्चित रूप से ऐसे कानूनों की आवश्यकता है, जो महिलाओं को समाज में सही स्थान प्राप्त करने में उनका समर्थन (सपोर्ट) करें। भारत में लिंग विशिष्ट (स्पेसिफिक) कानून, दूसरे लिंगों के बीच समानता सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए हैं।
द सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ वूमेन एट वर्कप्लेस एक्ट, 2013, ऐसे कानूनों की श्रेणी (क्लास) में, हाल के दिनों में जोड़ा गया एक नया कानून है। इस कानून को व्यापक (वाइड) प्रशंसा और आलोचना (फ्लेक) दोनों प्राप्त हुई है।
इस लेख का उद्देश्य, समाज पर इस कानून से पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण (एनालिसिस) करना है। इसका उद्देश्य उन प्रबल प्रश्नों के उत्तर तलाशना है, कि क्या इस कानून ने समाज में महिलाओं की जगह को मजबूत करने में मदद की है? इस कानून के कोई दुष्परिणाम (इल-इफेक्ट्स) हुए हैं या नहीं?
ज़रूरत (नीड)
एक उभरती हुई भारतीय अर्थव्यवस्था (इकोनॉमी) में जैसे-जैसे अधिक से अधिक महिलाओं ने वर्कप्लेस में प्रवेश करना शुरू किया, सेक्शुअल हैरेसमेंट के रोग ने कई क्षेत्रों में अपना बदसूरत चेहरा बना लिया। पुलिस और सेना से लेकर बहुराष्ट्रीय (मल्टीनेशनल) कंपनियों से लेकर खेलों तक- यह खेदजनक (रिग्रेटेबल) है कि मानव प्रयास का कोई भी क्षेत्र नहीं बचा जिसे इस रोग ने छुआ न हो, इसलिए ऐसे कानून की सख्त जरूरत थी जो इन कामकाजी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा कर सके। जैसा कि कई कानूनों के मामले में हुआ है, पहली बार इस कानून को लोगों की नज़र में ज्यूडिशियल एक्टिविज्म की वजह से लाया गया था।
ज्यूडिशियल एक्टिविज्म
सेक्शुअल हैरेसमेंट के संदर्भ में, विशाखा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (इसके आगे विशाखा) में ज्यूडिशियल एक्टिविज्म अपनी चरम (पिनेकल) सीमा पर पहुंच गया। निर्णय कई कारणों से अभूतपूर्व (अनप्रेसेडेंटेड) था: सुप्रीम कोर्ट ने उन अंतरराष्ट्रीय ट्रीटीज को स्वीकार किया और उन पर काफी हद तक भरोसा किया जिन्हें पहले नगरपालिका (म्युनिसिपल) कानून में परिवर्तित (ट्रांसफॉर्म) नहीं किया गया था; सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भारत में ‘सेक्शुअल हैरेसमेंट’ की पहली आधिकारिक (अथॉरिटेटिव) परिभाषा प्रदान की गई; और एक वैधानिक (स्टेच्यूटरी) निर्वात (वैक्यूम) का सामना करते हुए, यह रचनात्मक (क्रिएटिव) हो गया और ज्यूडिशियल लेजिस्लेशन का मार्ग प्रस्तावित (प्रपोज) किया।
भंवरी देवी के साथ गैंग रेप
वह घटना जिसके कारण विशाखा मामले के संबंध में एक पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (पी.आई.एल.) दायर की गई, वह राजस्थान में एक सामाजिक (सोशल) कार्यकर्ता (वर्कर) का गैंग रेप का मामला था। भंवरी देवी एक साटन, एक जमीनी कार्यकर्ता और एक्टिविस्ट थीं, जो राजस्थान सरकार की महिला विकास परियोजना (प्रोजेक्ट) (डब्ल्यू.पी.डी) में कार्यरत (एंप्लॉयड) थीं। 1992 में, राजस्थान सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ एक अभियान (कैंपेन) शुरू किया, जिसके संबंध में डब्ल्यू.पी.डी के सदस्यों ने ग्रामीणों को इस प्रथा को छोड़ने के लिए राजी किया, जो अभी भी राजस्थान में चल रही है। भंवरी देवी ने 1 साल की लड़की की शादी को रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन उनके सारे प्रयास व्यर्थ गए, और जो उनके साथ हुआ वह एक बुरे सपने से भी बदतर था। राजस्थान में संस्थागत तंत्र (इंस्टीट्यूशनल मशीनरी) का पूरी तरह से ब्रेकडाउन हो गया था। ग्रामीणों ने भंवरी देवी को परेशान किया, धमकाया और उनका सामाजिक बहिष्कार (बॉयकॉट) किया।
फिर सितंबर 1992 में पांच ग्रामीणों ने उनके पति की मौजूदगी में उनके साथ रेप किया। उन्होंने न्याय मांगा, लेकिन पुलिस अधिकारियों के द्वारा असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ा। ट्रायल कोर्ट ने तो आगे बढ़कर पांचों आरोपियों को बरी कर दिया।
इस वजह से ‘विशाखा’ नाम से पांच गैर सरकारी संगठनों (ऑर्गेनाइजेशन) को सुप्रीम कोर्ट में पी.आई.एल. दायर करी और सुप्रीम कोर्ट से विस्तृत (डिटेल्स) निर्देश (डायरेक्शंस) देने की मांग की, कि वर्कप्लेस पर महिलाओं के सेक्शुअल हैरेसमेंट को ज्यूडिशियल एक्टिविज्म का उपयोग करके कैसे रोका जा सकता है।
विशाखा दिशानिर्देश बनाते समय अंतर्राष्ट्रीय ट्रिटीज का संदर्भ (रेफरेंस टू इंटरनेशनल ट्रिटीज वाइल मेकिंग द विशाखा गाइडलाइंस)
विशाखा दिशा-निर्देशों (गाइडलाइंस) ने एक महान उद्देश्य की सेवा की क्योंकि इसने वर्कप्लेस पर महिलाओं के सेक्शुअल हैरेसमेंट के संबंध में कानूनों की कमी को तुरंत पूरा कर दिया। 2013 तक वे पूरे भारत में लागू दिशा-निर्देशों का एकमात्र सेट थे जो इस मुद्दे के लिए विशिष्ट थे।
इन्हें सुप्रीम कोर्ट द्वारा पास किए जाने के कारण और सुप्रीम कोर्ट के कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड के रूप में कार्य करने की वजह से, इन्हे वास्तव में लोअर कोर्ट्स में भी लागू किया गया। लेकिन, इसे तैयार का कार्य 3 जजेस की बेंच पर निर्भर था, जिसमें जे.एस वर्मा (उस समय के सी.जे.आई.), सुजाता मनोहर और बी.एन. कृपाल ने उस समय की मौजूदा सभी अंतरराष्ट्रीय ट्रीटीज का कॉग्निजेंस लिया। भारत के संविधान में अंतरराष्ट्रीय ट्रीटीज के मूल्य पर एक सटीक (प्रिसाइज) स्टैंड नहीं है, जिन पर सरकार द्वारा हस्ताक्षर या पुष्टि (रेटिफाइड) की गई है, लेकिन कानून के माध्यम से इन्हें लागू नहीं किया गया है। विशाखा मामले में, कोर्ट ने अपनी हाल की अधिकांश व्याख्याओं (इंटरप्रीटेशंस) के अनुरूप (इन ट्यून) मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) की अधिक उद्देश्यपूर्ण समझ की ओर रुख किया, यह पुष्टि करते हुए कि ‘कोई भी अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन जो मौलिक अधिकारों के साथ असंगत (इनकंसिस्टेंट) नहीं है और इसकी भावना (स्पिरिट) के साथ सद्भाव (हार्मनी) में है, तो वह कन्वेंशन इन प्रावधानों [मौलिक अधिकार] में पढ़ा जाना चाहिए, ताकि संविधान द्वारा प्रदान की गई गारंटी को बढ़ावा दिया जा सके’।
चूंकि वर्कप्लेस पर सेक्शुअल हैरेसमेंट से संबंधित कोई कानून नहीं था, तो कोर्ट ने कहा कि वह आर्टिकल 14,19 और 21 की व्याख्या करने में, कन्वेंशन ऑन एलिमिनेशन ऑफ़ ऑल फॉर्म्स ऑफ़ डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वूमेन (सी.ई.डी.ए.डब्ल्यू- जिसे भारत द्वारा 1980 में हस्ताक्षरित किया गया था) पर भरोसा करने के लिए स्वतंत्र है। स्रोतों (सोर्सेज) को सही ठहराने के लिए कोर्ट ने ज्यूडिशियरी की स्वतंत्रता के सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) के बीजिंग स्टेटमेंट सहित कई स्रोतों को संदर्भित (रेफर) किया। कोर्ट ने ऑस्ट्रेलिया के हाई कोर्ट का एक निर्णय और अपने पहले के निर्णयों को भी संदर्भित किया। विशाखा मामला भी संभवतः (पॉसिबल) भारत में पहला उदाहरण था जहां अंतर्राष्ट्रीय कवनेंट्स, सीधे नगरपालिका और जिला स्तर के कोर्ट्स में लागू किए गए थे। विशाखा के बाद से, सुप्रीम कोर्ट ने अंतरराष्ट्रीय मल्टीलैटरल ट्रीटीज पर बहुत अधिक भरोसा करना शुरू कर दिया है, विशेष रूप से वे, जो यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स (1948) का हिस्सा हैं और अन्य जो इंटरनेशनल बिल ऑफ़ राइट्स का हिस्सा हैं लेकिन सार्वजनिक महत्व के क्षेत्रों में लेजिस्लेचर की सुस्ती (लेथार्जी) के कारण कानूनों में कमियां होती है, जिन्हें अक्सर आर्टिकल 141 के प्रयोग से पूरा किया जाता है।
दिशा-निर्देश (द गाइडलाइंस)
वर्कप्लेस पर महिलाओं को सेक्शुअल हैरेसमेंट से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने ‘दिशा-निर्देश’ (सी.ई.डी.ए.डब्ल्यू. पर आधारित) की एक श्रृंखला (सीरीज) जारी की। इन दिशा-निर्देशों का सभी वर्कप्लेसेस (चाहे सार्वजनिक या निजी क्षेत्र में) में सख्ती से पालन किया जाना था और यह दिशा-निर्देश, उपयुक्त (सूटेबल) कानून बनने तक कानून के तहत बाध्यकारी (बाइंडिंग) होंगे और लागू किए जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश निर्धारित (सेट आउट) किए:
- वर्कप्लेस में नियोक्ता (एंप्लॉयर) और/या अन्य जिम्मेदार लोग सेक्शुअल हैरेसमेंट को प्रीवेंट करने या रोकने के लिए कर्तव्यबद्ध (ड्यूटी बाउंड) होंगे और ऐसे मामलों में समाधान, निपटान या मुकदमा चलाने के लिए वह प्रक्रियाएं (प्रोसेसेस) स्थापित करेंगे।
- भारत में पहली बार “सेक्शुअल हैरेसमेंट को आधिकारिक रूप से परिभाषित किया गया था”। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसमें ऐसे अवांछित (अनवेलकम) व्यवहार (चाहे सीधे या निहितार्थ (इंप्लीकेशन)) शामिल हैं जैसे: शारीरिक संपर्क और अग्रिम (एडवांसेज), सेक्शुअल फेवर्स के लिए मांग या अनुरोध (रिक्वेस्ट), सेक्शुअल रंगीन टिप्पणी (रिमार्क्स) दिखाना, अश्लील साहित्य (पोर्नोग्राफी) दिखाना, और कोई अन्य शारीरिक, मौखिक या गैर-मौखिक सेक्शुअल प्रकृति का आचरण (कंडक्ट)।
- सभी नियोक्ताओं या वर्कप्लेसेज के इन चार्ज व्यक्तियों को सेक्शुअल हैरेसमेंट को रोकने का प्रयास करना चाहिए और यदि कोई कार्य इंडियन पीनल कोड, 1860 या किसी अन्य कानून के तहत एक विशिष्ट अपराध के रूप में है, तो नियोक्ताओं को ऐसे दोषियों को दंडित करने के लिए उचित कार्रवाई करनी चाहिए।
- भले ही उस कार्य को कानूनी अपराध या सेवा (सर्विस) नियमों का उल्लंघन (ब्रीच) नहीं माना गया हो, लेकिन नियोक्ता को उचित तंत्र (मैकेनिज्म) बनाना चाहिए ताकि शिकायत को एक समय सीमा के अंदर संबोधित (एड्रेस) किया जाए और उसका रिड्रेसल (रेड्रेस) भी किया जा सके।
- इस शिकायत तंत्र को, यदि आवश्यक हो, एक शिकायत कमिटी, एक विशेष काउंसलर या अन्य सहायता सेवा, जैसे की सुनिश्चित गोपनीयता (कॉन्फिडेंशियलिटी) प्रदान करनी चाहिए। शिकायत कमिटी की हेड एक महिला होंगी और सदस्यों में कम से कम आधी महिलाएं होनी ही चाहिए। साथ ही, वरिष्ठ (सीनियर) स्तरों से किसी भी तरह के अनुचित प्रभाव को रोकने के लिए, शिकायत कमिटी को सेक्शुअल हैरेसमेंट की चुनौतियों से परिचित एक तीसरे पक्ष (जैसे की एक गैर सरकारी संगठन) को शामिल करना चाहिए।
- नियोक्ता को, महिला कर्मचारियों को उनके अधिकारों के प्रति संवेदनशील (सेंसिटाइज) बनाना चाहिए और कोर्ट की दिशा-निर्देशों के बारे में उन्हें प्रमुखता (प्रोमिनेंटली) से सूचित करना चाहिए।
- यहां तक कि अगर कोई तीसरा पक्ष भी सेक्शुअल हैरेसमेंट के लिए जिम्मेदार है, तो नियोक्ता को पीड़ित की सहायता के लिए सभी आवश्यक से आवश्यक कदम उठाने चाहिए।
- निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के द्वारा इन दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिए, केंद्र और राज्य सरकारों को उपयुक्त उपाय अपनाने चाहिए।
एक्ट के साथ तुलना
प्रिवेंशन ऑफ़ हैरसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस एक्ट, 2013 में अधिकांश दिशा-निर्देशों को शब्दशः (वर्बेटिम) अपनाया गया है। कोर्ट से बाहर निपटान के क्लॉज को छोड़कर इसमें कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुआ है, लेकिन इसमें भी पैसा देकर बदले में कोई समझौता करने का प्रावधान नहीं है। यह कागज पर ही लागू होता है लेकिन असल में इसका लागू होना एक बड़ा सवाल है।
साथ ही, एक्ट में, महिला को शिकायत दर्ज होने की तारीख से 3 महीने की अवधि के लिए ऑफिस से छुट्टी लेने की अनुमति दी गई है। जबकि पुरुषों को ऑफिस में काम करते हुए, एक तय समय सीमा के अंदर जवाब देने को कहा गया है। महिला (संभवत: पीड़िता) को एक निर्धारित छुट्टियों की संख्या के अतिरिक्त छुट्टी लेने की अनुमति दी जाती है जब उसे जरूरत होती है और वह उनकी मांग करती है क्योंकि वह कंपनी में कर्मचारी के रूप में काम करती है और इन छुट्टियों के लिए हकदार है।
विशाखा के बाद के घटनाक्रम (डेवलपमेंट्स आफ्टर विशाखा)
विशाखा दिशा-निर्देशों के संदर्भ में हाई कोर्ट्स (और कभी-कभी सुप्रीम कोर्ट) में भारी मात्रा में मामले सामने आए हैं, जो की शिकायत कमकिटीज की स्थापना (एस्टेब्लिशमेंट) की मांग करते हैं, शिकायत कमिटी के गठन (कंस्टिट्यूशन) से संबंधित विवाद पहले से ही हो रहे है, या बर्खास्तगी (डिस्मिसल) के आदेशों से संबंधित कमिटीज़ के निर्णयों को चुनौती देते हुए शिकायत कए गई है।
अपेरल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल बनाम ए.के.चोपड़ा, 1999 का ऐसा पहला मामला था, जहां सुप्रीम कोर्ट को विशाखा मामले में दिए अपने फैसले का पालन करने का अवसर (ऑपर्च्युनिटी) मिला। इस मामले में, काउंसिल के चेयरमैन पर सेक्रेट्री के साथ सेक्शुअल हैरेसमेंट करने का आरोप लगाया गया था; हालांकि उन्होंने बार-बार ऐसा करने का प्रयास किया था लेकिन चेयरमैन ने वास्तव में कभी उसके साथ छेड़छाड़ नहीं की। उसकी शिकायत पर नियोक्ता को नौकरी से निकाल दिया गया। नियोक्ता द्वारा दायर की गई एक रिट याचिका के आधार पर दिल्ली हाई कोर्ट ने इस तथ्य का कॉग्निजेंस लिया कि उसने वास्तव में कभी उसके साथ छेड़छाड़ नहीं की और कोई वास्तविकता में उसके साथ कोई शारीरिक संपर्क नहीं बनाया, इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला कि उसने वास्तव में उसके साथ छेड़छाड़ नहीं की थी। काउंसिल द्वारा दायर की गई एक अपील में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को यह मानते हुए रिवर्स कर दिया कि, शारीरिक संपर्क बनाना सेक्शुअल हैरेसमेंट की एक शर्त नहीं थी, विशाखा के तहत व्यापक परिभाषा को देखते हुए, कोर्ट ने जोर देकर कहा कि सेक्शुअल हैरेसमेंट के कारण महिलाओं की गरिमा (डिग्निटी) से समझौता हुआ है और इसे माफ नहीं किया जा सकता। विशाखा में उल्लिखित (रेफर्ड) अंतरराष्ट्रीय स्रोतों के अलावा, कोर्ट ने काम के दौरान सेक्शुअल हैरेसमेंट को कॉम्बैट करने के लिए अर्थशास्त्र (इकोमनोमिक्स) से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय कवेनेंट्स, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय कवेनेंट्स और अंतर्राष्ट्रीय लेबर संगठन (ऑर्गेनाइजेशन) के सेमिनार्स पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया।
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा प्रगतिशील (प्रोग्रेसिव) दृष्टिकोण (एप्रोच) ने भारतीय कोर्ट्स के सामान्य रुख में एक संक्रमण (स्टेंस) को चिह्नित (मार्क) किया। सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया कि हैरेसमेंट, शारीरिक बाधाओं से परे है और मानसिक हैरेसमेंट के प्रभाव समान रूप से हानिकारक (डेमेजिंग) हो सकते हैं, और फिर भी महिलाओं के मुद्दों पर कोर्ट की गहरी असंवेदनशीलता (इंसेंसटिविटी) कभी-कभी सामने आती है।
डी.एस. ग्रेवाल बनाम विम्मी जोशी के मामले में भारतीय सेना के एक कर्नल ने सेना के एक स्कूल के प्रिंसिपल को अग्रिम (एडवांसेज) किए और अनुचित पत्र लिखे। प्रिंसिपल को डर था कि अगर उन्होंने उसके आचरण पर कोई आपत्ति जताई, तो वह एक शत्रुतापूर्ण (होस्टाइल) कार्य वातावरण पैदा करेगा और उसकी पदोन्नति (प्रमोशन) सहित उसके रोजगार में बाधा उत्पन्न करेगा। उनके यह डर सच होगी और उनकी सेवाओं को समाप्त कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने स्कूल प्रबंधन (मैनेजमेंट) को 3 सदस्य की शिकायत कमिटी (विशाखा दिशानिर्देशों के अनुसार) का गठन करने का आदेश दिया ताकि यह पता लगाया जा सके कि सेना अधिकारी के खिलाफ कोई प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) मामला है या नहीं। यदि कमिटी को ऐसा कोई मामला मिलता है, तो वह अपनी रिपोर्ट सेना को सौंप देगी, जो रिपोर्ट मिलने के बाद अनुशासनात्मक (डिसिप्लेनरी) कार्यवाही (प्रोसीडिंग्स) शुरू करेगी।
कोर्ट ने यह भी अफर्म किया की स्कूल प्रबंधन, प्रिंसिपल द्वारा किए गए कानूनी खर्च को वहन (बिअर) करने के लिए बाध्य था (कॉनसेल फि 50,000 रूपए निर्धारित किए गए थे) क्योंकि इसने विशाखा दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया था। सेक्शुअल हैरेसमेंट से संबंधित कानूनों के अभाव में विशाखा दिशा-निर्देश कार्रवाई का एकमात्र विश्वसनीय (रिलाइबल) स्रोत थे। इसने एक निवारक (डिटरेंट) के रूप में कार्य किया और यह सुनिश्चित किया कि इसके प्रावधानों के संबंध में इसका सख्त अनुपालन किया जाना चाहिए। इस तरह के एक गंभीर मामले में मुकदमा चलाने का विचार ही बहुत सार्वजनिक उपहास (रिडिक्यूल) का पात्र था।
कोर्ट्स ने विशाखा दिशा-निर्देशों के सख्त अनुपालन पर जोर दिया और वैकल्पिक (अल्टरनेटिव) तंत्र को नहीं देखा है। यदि एक मामले में जहां एक सार्वजनिक कंपनी ने सेक्शुअल हैरेसमेंट की शिकायत की जांच के लिए एक वकील को जांच अधिकारी के रूप में नियुक्त किया, तो बॉम्बे हाईकोर्ट ने प्रक्रियाओं की प्रभावकारिता (एफिकेसी) को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और माना कि विशाखा में प्रदान किया गया शिकायत तंत्र अनिवार्य है।
विशाखा दिशा-निर्देश लगभग सभी प्रकार के औपचारिक (फॉर्मल) रोजगार, यहां तक कि गैर सरकारी संगठनों और सहकारी (कॉपरेटिव) सोसाइटीज पर भी लागू किए गए थे। जैसा कि केरल हाई कोर्ट ने देखा कि ‘नारीत्व (वूमेनहुड) की गुणवत्ता (क्वालिटी), उनके काम करने की जगह से नहीं बदलती है, चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र हो या कोई निजी’ क्षेत्र हो।
एक और रुख में, मद्रास हाई कोर्ट ने माना कि उन मामलों में भी जहां सेक्शुअल हैरेसमेंट के आरोप निराधार (बेसलेस) लग रहे हो और ऐसा लग रहा हो की ऐसे आरोपो को पूरा विचार करने के बाद लगाया गया है, तो ऐसे मामलों पहला उचित कार्य यह होगा कि ऐसे मुद्दे को शिकायत कमिटी को संदर्भित करना चाहिए।
विशाखा वास्तव में पहला कानून था जिसने हैरेसमेंट को समावेशी (इंक्लूसिव) रूप से परिभाषित किया और उन सभी व्यवहारों को शामिल किया जो किसी व्यक्ति को रोजगार से संबंधित लाभों से वंचित (डिनाय) करते थे क्योंकि उन्होने सेक्शुअल फेवर्स से मना किया हो (क्विड प्रो क्वो हैरेसमेंट) या एक शत्रुतापूर्ण कार्य वातावरण बनाते थे (आर्थिक और अन्य लाभों पर सीधे प्रभाव डाले बिना)।
दो-धारी तलवार: प्रतिशोध के साधन के रूप में कानून के उपयोग के उदाहरण (डबल- एज्ड स्वॉर्ड: इंस्टेंसेज ऑफ़ यूज ऑफ़ द लॉ एस ए मींस ऑफ़ वेंजियंस)
कोई भी उपाय जिसका उद्देश्य समाज के वंचित वर्गों या अल्पसंख्यकों (माइनोरिटीज) की रक्षा करना है, उसके दुरुपयोग होने की संभावना भी है, और विशाखा इसे मामलो से अलग नहीं है। उषा सी.एस. बनाम मद्रास रिफाइनरीज के मामले में, मद्रास हाई कोर्ट ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (अंडरटेकिंग), मद्रास रिफाइनरीज लिमिटेड के कर्मचारी द्वारा की गई सेक्शुअल हैरेसमेंट की शिकायत पर सुनवाई की। कर्मचारी ने आरोप लगाया कि उसे अध्ययन (स्टडी) अवकाश के लिए भुगतान, वेतन और पदोन्नति से वंचित कर दिया गया क्योंकि उसने अपने डिपार्टमेंट के जनरल मैनेजर के अग्रिमों को अस्वीकार कर दिया था। तथ्यों की जांच करने के बाद, कोर्ट ने माना कि उस कर्मचारी के, उसकी पदोन्नति और अध्ययन-छुट्टी से संबंध में आरोप निराधार थे, क्योंकि दोनों निर्णय कंपनी की पॉलिसीज के अनुसार लिए गए थे। इसके अलावा, शिकायत कमिटी का गठन ठीक से किया गया था, लेकिन कर्मचारी ने लगातार जांच में देरी की थी, इसलिए, सेक्शुअल हैरेसमेंट के उसके आरोप, कंपनी की पॉलिसी के विपरीत, पदोन्नति और अध्ययन अवकाश और वेतन प्राप्त करने के लिए एक हथियार मात्र थे। विशाखा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के दुरुपयोग पर प्रकाश डालते हुए और निंदा (कन्डेम) करते हुए, कोर्ट ने कहा:
“नियोक्ता से, पीड़ित और अपराधी पर सतर्क नजर रखने की अपेक्षा की जाती है, और यह उम्मीद नहीं की जाती है कि, वह महिला को शीर्ष कोर्ट द्वारा प्रदान की गई शक्ति को प्रतिशोध (वेंजियंस) लेने के साधन के रूप में एक शील्ड की तरह उपयोग करने की अनुमति देगा। यह सच है कि हम शीर्ष कोर्ट के फैसलों से बाधित (बाउन्ड) हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें निजी लाभ के लिए याचिकाकर्ता (पेटीशनर) की तरह महिला की सुविधा के अनुरूप व्याख्या करने की अनुमति दी जा सकती है।”
इसके बाद कोर्ट ने विशाखा को ‘दो-धारी हथियार’ के रूप में बताया। इस विषय पर अन्य निर्णयों को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने पुष्टि की, कि कोर्ट यह नहीं मान सकती कि हैरेसमेंट का आरोप सही है जब तक कि इसे पहली बार शिकायत कमिटी को नहीं भेजा जाता।
बेंच ने अन्य कोर्ट्स को प्रत्येक मामले के तथ्यों को व्यक्तिगत (इंडिविजुअल) रूप से ध्यान में रखने का आग्रह किया, बिना यह मानकर कि महिला प्रत्येक मामले में पीड़ित है। वास्तव में इस विशेष मामले में अपीलकर्ता का अनुचित अवकाश और अनुपस्थिति का इतिहास रहा है। ऐसे मामले किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए सकारात्मक (पॉजिटिव) कानूनों के उपयोग की विसंगति (एनोमली) को उजागर करते हैं। हालांकि बहुत से शोधकर्ताओं (रिसर्चर्स) का यह मानना है कि चूंकि झूठे मामले एन.सी.आर.बी. के आंकड़ों के अनुसार दर्ज किए गए कुल मामलों में से केवल 4% या 5% हैं, इसलिए इन मामलों को नजरअंदाज किया जाना चाहिए और एक असल तस्वीर की तरफ ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह कानून, वास्तव में महिला को समाज में उनकी स्थिति मजबूत करने में मदद करते हैं।
लेकिन घरेलू हिंसा के मामलों और डाउरी हैरेसमेंट कानूनों के समान, बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्हें झूठे मुकदमे की धमकी दी जाती है। जैसे की महिलाओं को यह स्वीकार करना और लोगों को बताना मुश्किल होता है कि क्या उन्होंने सेक्शुअल हैरेसमेंट का अनुभव (एक्सपीरियंस) किया है, तो समान रूप से यह एक पुरुष के लिए भी उतना ही कठिन है, जिसे अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए झूठे मामले में फंसाया गया है।
जैसा कि प्रसिद्ध रोहतक ब्रेवहार्ट्स मामले में देखा गया था, जिसमे मीडिया ने हरियाणा इंटरसिटी बस में दो महिलाओं द्वारा, उनके साथ छेड़-छाड़ करने वाले पुरुषों को बेरहमी से पीटने की कहानी को उछाल दिया था, इन पुरुषों को दानव के नाम से बदनाम किया गया था, और भी कई प्रकार के नाम दिए गए थे। उन्होंने अपनी बेगुनाही साबित करने की कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उन्हें कहानी में विलेंस के रूप में ही चित्रित किया गया था। जबकि केस की सुनवाई शुरू होने से पहले ही लड़कियों को हीरोइन का दर्जा दे दिया गया था।
उन्हें (लड़कियों को), उनकी बहादुरी के लिए हरियाणा सरकार द्वारा सम्मानित भी किया जाना था।
मामले का कंक्लूसिव फैसला देने में 2 साल लग गए, फैसले ने सभी को अंदर तक झकझोर (शूक) कर रख दिया, इस फैसले में पाया गया कि तीनों आरोपियों ने कोई हैरेसमेंट नहीं किया था। सभी सबूतों और गवाहों ने भी कहा कि पुरुषों के द्वारा कोई अनुचित इशारा या निहितार्थ (इंप्लीकेशंस) नहीं दिया था। पूरी तरह से मामले के बैकग्राऊंड की जांच करने के बाद यह पाया गया कि कथित पीड़ितों (आरती और पूजा) के परिवार को पैसे उधार लेने की आदत थी और फिर उधारदाताओं को रेप, किडनैप और छेड़ छाड़ की झूठी शिकायत दर्ज करने की धमकी देकर, उनके कर्ज़ को चुकाने के लिए मजबूर करते थे।
जब मामला अंडर ट्रायल था, लड़कों (कुलदीप, नारायण, मोहित) ने सशस्त्र (आर्म्ड) बलों की लिखित परीक्षा में बैठने का मौका खो दिया था क्योंकि उन पर इस तरह के एक विवादित (कॉन्ट्रोवर्शियल) मामले का आरोप लगाया गया था।
उनमें से दो को अपनी शिक्षा छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था। एक बार फैसला आने के बाद सभी लड़कों ने कोर्ट से अपना सम्मान वापस पाने की मांग की।
ऐतिहासिक निर्णय (लैंडमार्क जजमेंट)
दिल्ली हाई कोर्ट ने अनीता सुरेश बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के अपने एक ऐतिहासिक फैसले में महिलाओं द्वारा दर्ज़ किए गए सेक्शुअल हैरेसमेंट के झूठे मामले का कांग्नीजेंस लिया, जिसमें जस्टिस मिधा ने प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट) को, उनके खिलाफ दर्ज़ किए गए सेक्शुअल हैरेसमेंट के झूठे मामले के बदले अनुकरणीय (एक्सेमप्लरी) हर्जाना देने का आदेश दिया। कोर्ट ने अपीलकर्ता सुश्री अनीता सुरेश को प्रतिवादियों और दिल्ली के बार एसोसिएशन को 50,000 रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया।
इससे यह बताने में मदद मिली कि, इस तरह के जघन्य (हिनियस) अपराधों में झूठा फंसाए जाने के बाद आरोपी के जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है क्योंकि वह निर्दोष हो सकता है, लेकिन लोग उसे संदेह से परे दोषी मानने लगते हैं।
सेक्शुअल हैरसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल) एक्ट, 2013 में परिवर्तन
एक्ट झूठे प्रॉसिक्यूशन की संभावना को पहचानता है और कहता है कि सभी दंड जो अपराधी पर लागू होते यदि आरोप साबित हो जाता तो, लेकिन यही दंड वादी पर इसके विपरीत (कन्वर्सली) लागू हो सकते हैं, यदि वह एक झूठा मामला दर्ज करता है।
दायरा (स्कोप)
यह एक्ट हर मायने में क्रांतिकारी (रिवॉल्यूशनरी) है, लेकिन अपने संकीर्ण (नैरो) दायरे के कारण यह अब जांच के दायरे में आ गया है, पुरुषों का शोषण हालांकि भारत में आम बात नहीं है, लेकिन यह अनसुना भी नहीं है।
लेकिन, इस एक्ट में निश्चित रूप से श्रमिक वर्ग (लेबर क्लास) की स्थिति में सुधार किया गया है और विशाखा दिशा-निर्देशों में भी जिन गृहिणियों के अधिकारों की रक्षा करना कठिन था, उन्हें उचित रिड्रेसल तंत्र दिया गया है ताकि उनके अधिकारों की भी रक्षा की जा सके।
एक्ट के प्रावधान
भारत के विभिन्न कोर्ट्स के ध्यान में यह आया था कि, भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का देश में कई वर्कप्लेसेस पर अभ्यास नहीं किया जा रहा था। विशाखा और अन्य बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के ऐतिहासिक मामले के निर्णय, जहां सुप्रीम कोर्ट ने वर्कप्लेस में सेक्शुअल हैरेसमेंट के लिए दिशा-निर्देश स्थापित किए थे, को पास करने के बाद एक उचित कानून बनाने में 16 साल लग गए, और सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल) एक्ट, 2013 बनाया गया। इस एक्ट ने उचित कानून कि कमी को भर दिया, जो भारत की प्रत्येक महिला को, चाहे वह किसी भी उम्र या रोजगार की स्थिति की हो, किसी भी तरह के हैरेसमेंट से सुरक्षित वर्कप्लेस प्रदान करता है। उपर्युक्त एक्ट का उद्देश्य न केवल सुरक्षा प्रदान करना है बल्कि वर्कप्लेस पर होने वाले किसी भी प्रकार के सेक्शुअल हैरेसमेंट को रोकना भी है और यह, इस एक्ट के तहत दर्ज की गई किसी भी शिकायत के लिए त्वरित (स्पीडी) उपाय सुनिश्चित करता है। 2013 में, क्रिमिनल लॉ एक्ट में एक अमेंडमेंट किया गया है, जहां अमेंडमेंट ने स्टॉकिंग करना, सेक्शुअल हैरेसमेंट आदि को अपराध घोषित कर दिया था।
एक्ट की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक यह है की शिकायतों के रिड्रेसल के लिए कमिटीज का गठन किया जाएगा, यह संगठित और असंगठित (अनऑर्गनाइज्ड) दोनों क्षेत्रों के लिए किया जाएगा। उक्त कमिटिज इस प्रकार हैं:
- आंतरिक (इंटर्नल) शिकायत कमिटी: 10 से अधिक कर्मचारियों को रोजगार देने वाले किसी भी संगठन में प्रत्येक कार्यालय या शाखा में एक आंतरिक शिकायत कमिटी होनी चाहिए जिसे आई.सी.सी भी कहा जाता है।
- स्थानीय (लोकल) शिकायत कमिटी: एक स्थानीय शिकायत कमिटी भी बनाई जाएगी, जिसे भारत सरकार द्वारा जिला स्तर पर असंगठित क्षेत्र के लिए और 10 से कम कर्मचारियों वाले संस्थानों के लिए बनाया जाएगा और इसे एल.सी.सी. भी कहा जाता है।
सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन और रिड्रेसल) एक्ट, 2013 के तहत आई.सी.सी. और एल.सी.सी. को एक सिविल कोर्ट के बराबर शक्ति दी गई है, उनके पास शपथ के तहत किसी भी आरोपी को बुलाने और निरीक्षण (इंस्पेक्ट) करने की शक्ति है, ताकि वह शिकायत से संबंधित दस्तावेज, या ऐसे कोई भी जरूरी मामले को प्रस्तुत करे जो मामले के शीघ्र निष्कर्ष के लिए आवश्यक है।
सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन और रिड्रेसल) एक्ट, 2013 कहता है कि जो कोई भी महिला अपनी वर्कप्लेस पर सेक्शुअल हैरेसमेंट की शिकार हुई है, जो शिकायत करने का प्रस्ताव करती है, उसे उस घटना की 6 लिखित शिकायतें प्रदान करनी होंगी। इस शिकायत में नाम, गवाह और सबसे महत्वपूर्ण उक्त घटना के साक्ष्य शामिल होंगे। उक्त हैरेसमेंट होने के 3 महीने के भीतर शिकायत दर्ज की जा सकती है। कमिटीयों द्वारा इस समय को और 3 महीने के लिए बढ़ाया जा सकता है। मानसिक रूप से पीड़ा देने वाली आपराधिक गतिविधि होने के कारण सेक्शुअल हैरेसमेंट, पीड़ितों पर भारी पड़ता है, इसलिए हो सकता है कि वे शिकायतों को प्रस्तुत करने की स्थिति में न हों। एक्ट में कहा गया है कि किसी भी रिश्तेदार, मनोवैज्ञानिक, दोस्तों, सहकर्मियों के पास पीड़ित के लिए शिकायत दर्ज करने की शक्ति है।
शिकायतकर्ताओं को आई.सी.सी और एल.सी.सी से अंतरिम (इंटरिम) उपाय मांगने का अधिकार है, जिन्हें इस एक्ट द्वारा ऐसा करने की शक्ति प्रदान की गई है। आई.सी.सी और एल.सी.सी पीड़ित के प्रति प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट) के कर्तव्यों को अन्य कर्मचारियों को हस्तांतरित (ट्रांसफर) कर सकते हैं, या पीड़ित को किसी अन्य शाखा या वर्कप्लेस में स्थानांतरित कर सकते हैं और उन्हें 3 महीने तक की छुट्टी दी जा सकती है। यह एक्ट, वर्कप्लेस में सेक्शुअल हैरेसमेंट में लिप्त (इंगेज्ड) व्यक्ति पर लगाए जाने वाले मुआवजे और दंड के बारे में भी विस्तार से बताता है। यह एक्ट निम्नलिखित कहता है:
- नियोक्ता संगठन में बनाए गए नियमों के अनुसार दंड दे सकता है।
- यदि ऐसे कोई नियम नहीं बनाए गए हैं तो सजा परामर्श (काउंसलिंग), सामुदायिक (कम्युनिटी) सेवा, सेवा की समाप्ति या पदोन्नति के संबंध में हो सकती है।
- पीड़िता को देय मुआवजे की कटौती (डिडक्शन), सेक्शुअल हैरेसमेंट में लिप्त व्यक्ति के वेतन से की जाएगी। पीड़ित द्वारा वहन की जाने वाली मानसिक और शारीरिक पीड़ा, रोजगार की हानि, चिकित्सा लागत, देय मुआवजे को निर्धारित करती है।
- यदि कोई संगठन सेक्शुअल हैरेसमेंट की शिकायतों के रिड्रेसल के लिए आई.सी.सी की स्थापना नहीं करता है तो उस पर 50000 रुपए का जुर्माना लगाया जाएगा।
सेक्शुअल हैरेसमेंट के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक विशाखा और अन्य है बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान है, इस विशेष मामले में भवरी देवी सरकार के अधीन एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। 5 व्यक्तियों द्वारा उसके साथ रेप किया गया था, और अपर्याप्त (इनसुफिशिएंट) सबूत के कारण, कोर्ट ने मामले को बरी कर दिया था। इस मामले को एक बड़ा सार्वजनिक समर्थन मिला था, इसलिए कई गैर सरकारी संगठनों और कार्यकर्ताओं ने भवरी देवी को न्याय दिलाने के लिए उनका साथ दिया, जिसकी वह हकदार थीं। इसलिए पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन दायर की गई थी। चूंकि भारत में इस मामले से संबंधित कोई कानून नहीं था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिशा-निर्देश पेश किए और इसे विशाखा दिशा-निर्देश का नाम दिया।
यह दिशा-निर्देश वर्कप्लेस पर किसी भी सेक्शुअल हैरेसमेंट को रोकने के लिए नियोक्ताओं के लिए थे। विशाखा दिशा-निर्देशों के लागू होने के बाद वर्कप्लेस पर सेक्शुअल हैरेसमेंट के संबंध में कोर्ट में सबसे पहला मामला अपैरल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल बनाम एके चोपड़ा आया, इस मामले में प्रतिष्ठान (एस्टेब्लिशमेंट) में वरिष्ठ अधिकारी ने एक महिला जो उनके अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) थी, को सेक्शुअली हैरेस किया था, और शारीरिक रूप से कोई संपर्क नहीं था। कोर्ट ने विशाखा दिशा-निर्देशों को लागू करते हुए उन्हें दोषी ठहराया था। कोर्ट ने फैसले में कहा था कि सेक्शुअल हैरेसमेंट के लिए शारीरिक रूप से संपर्क बनाना जरूरी नहीं है। अन्य सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक जिसमें हाई कोर्ट ने विशाखा दिशानिर्देशों को लागू किया था, वह था सऊदी अरब एयरलाइंस, मुंबई बनाम शहनाज़ मुद्भकल, इस मामले में शहनाज़ मुद्भकल, अरेबियन एयरलाइंस की एक कर्मचारी थीं। अब्दुल ई. बहरानी एक प्रबंधक (मैनेजर) था जिसने सेक्शुअल फेवर्स का अनुरोध करके शहनाज़ मुद्भलकल को सेक्शुअली हैरेस किया था और उसे धमकी दी थी कि अगर उसने इन मांगों का पालन नहीं किया या उसे प्रदान नहीं किया, तो वह उसे नौकरी निकाल देगा। शहनाज़ ने एक मामला दर्ज़ किया था और हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि शहनाज मुद्भलकल को पूरी मजदूरी (वेजेस) और पूरी उम्र के साथ बहाल किया जाना चाहिए।
कुछ साल पहले सेक्शुअल हैरेसमेंट के संबंध में एक महत्वपूर्ण सोशल मीडिया आंदोलन “# मी टू आंदोलन” के रूप में नामित किया गया था। जिन महिलाओं को उनके जीवनकाल में हैरेस किया गया था, वे उन कहानियों के साथ सामने आईं, जिनके माध्यम से वे सोशल मीडिया में थीं; यह आंदोलन दुनिया भर में फैल गया था। इसके तहत सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से कुछ यह थे जहां, वर्ष 2018 में एक महिला ने आरोप लगाया था की एक मंत्री ने उसे सेक्शुअली हैरेस किया था और उसी वर्ष विदेश मंत्री (एक्सटर्नल अफेयर्स मिनिस्टर) पर भी 20 से अधिक महिलाओं द्वारा आरोप लगाया गया था। महिलाएं अपनी शिकायतों के साथ सामने आने से डरती हैं क्योंकि उन्हें इसके बाद के परिणामों का डर होता है। मी टू आंदोलन में सच बोलने वाली महिलाओं के खिलाफ बहुत सारे डिफेमेशन के मामले दर्ज किए गए थे, यही एक कारण था कि महिलाएं यह नहीं बताती कि उनके साथ क्या हुआ था।
विश्लेषण (एनालिसिस)
द सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन और रिड्रेसल) एक्ट, 2013 के लागू होने से एक अच्छी पहल हुई है, लेकिन यह अभी भी किसी भी कमियों से मुक्त नहीं है और कुछ कानूनों में मुद्दों है, जिन्हें निम्नानुसार कहा गया है: यदि कोई पुरुष कर्मचारी कभी भी सेक्शुअल हैरेसमेंट का शिकार होता है, तो वह इस विशेष कानून के तहत राहत का दावा नहीं कर पाएगा। शिकायतों के रिड्रेसल के लिए, यह कानून आई.सी.सी. के गठन की बात करता है, लेकिन आई.सी.सी. के गठन के संबंध में कानून बहुत अस्पष्ट है, हर शाखा और कार्यालय में आई.सी.सी का गठन करना एक बहुत ही महंगा मामला है। आई.सी.सी में केवल कंपनी के कर्मचारी ही शामिल होते हैं, लेकिन इस कमिटी में एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो कंपनी से बिल्कुल भी संबंधित न हो, इस व्यक्ति को कानून या महिला अधिकारों के बारे में जानकारी होनी चाहिए, ऐसा नियुक्ति (अपॉइंटमेंट) निर्णय, एक अनुकूल (फेवरेबल) निर्णय बनाता है।
इस एक्ट ने सेक्शुअल हैरेसमेंट के मुद्दों को संबोधित करने की जिम्मेदारी दी है, लेकिन इस बात की संभावना है कि कंपनी में गवाह अपनी प्रतिष्ठा या सुरक्षा के डर से अपनी गवाही देने के लिए सहमत नहीं होंगे। इस में एक्ट यह भी निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा दर्ज की गई शिकायत दुर्भावनापूर्ण (मलीशियस) प्रकृति की है, तो नियोक्ता के पास उस व्यक्ति के खिलाफ आवश्यक कदम उठाने की शक्ति है, यह डर महिलाओं को आगे आने और अपनी शिकायत दर्ज़ करने के लिए हतोत्साहित (डिस्करेज) करेगा क्योंकि उन्हे ये लग सकता है की निर्णय कही उनके खिलाफ ना आ जाए। इस एक्ट में यह भी कहा गया है कि यदि किसी व्यक्ति को शिकायत के तहत दोषी पाया गया है तो नियोक्ता दोषी व्यक्ति के वेतन से शिकायतकर्ता को मुआवजे का भुगतान कर सकता है, लेकिन ऐसा कार्य पेमेंट ऑफ़ वेजेस एक्ट, 1936 के खिलाफ जा सकता है। यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका के पास इस विषय के संबंध में कोई कानून नहीं है जो नियोक्ता पर भी दायित्व का कुछ भार डालता है, लेकिन भारत में सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन और रिड्रेसल) एक्ट, 2013 ऐसा नहीं करता है।
कॉलिन कैपरनिक प्रभाव
इस एक्ट के तहत दर्ज किए गए झूठे मामलों का बहुत प्रचार किया गया था और कई वर्कप्लेसेस पर महिलाओं की छवि खराब की गई थी। साथ ही, मी टू आंदोलन के शुरू होने के साथ, प्रत्येक कार्रवाई की जांच की जा रही है। कई आलोचकों (क्रिटिक्स) के अनुसार वर्कप्लेस का सामान्य संतुलन बाधित (डिसरप्ट) हो गया है। एक गंभीर प्रभाव जो इस एक्ट का हो सकता है वह सक्षम और योग्य महिलाओं को काम पर ना रखना है।
चूंकि एन.सी.डब्ल्यू. के आंकड़ों के मुताबिक, उद्योगों में महिलाओं की भागीदारी नगण्य (नेगलीजिबल) है, जो कि केवल 4% है, इसलिए महिलाओं को काम ढूंढने में मुश्किल हो सकती है। एक नियोक्ता को एक कम विशेषज्ञता (एक्सपर्टाइज) वाले व्यक्ति को काम पर रखना में आसानी हो सकती है और साथ ही कम जटिलताएं (कॉम्प्लिकेशन) भी हो सकती है। जैसा कि सेक्शुअल हैरेसमेंट का सामना करने वाली महिला के मामले में नियोक्ता को मुकदमे का खर्च वहन करना पड़ता है और साथ ही उसे सामान्य छुट्टी के अलावा तीन महीने तक की छुट्टी देनी होती है जिसकी वह हकदार थी। इन सब की वजह से खर्च बढ़ जाता है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
हम, निश्चित रूप से एक महिला के लिए उपलब्ध रिड्रेसल के लिए कोई तंत्र उपलब्ध न होने से लेकर रिड्रेसल के लिए उपलब्ध एक बहुत ही शक्तिशाली और मजबूत तंत्र तक एक लंबा सफर तय कर चुके हैं। इस विषय को गहराई से देखने से हमें यह एहसास होता है कि कोई भी कानून एक आयामी (यूनीडाइमेंशनल) नहीं हो सकता, और वर्कप्लेस में महिलाओं के सेक्शुअल हैरेसमेंट जैसे क्रांतिकारी कानून के बड़े सामाजिक निहितार्थ (इंप्लीकेशंस) हो सकते हैं। मुझे लगता है कि यह कानून निश्चित रूप से सही दिशा में एक कदम है। इसके लिए जन जागरूकता, संवेदनशीलता और इसका मजबूत प्रकार से लागू होना बहुत आवश्यक है। मुझे लगता है कि जब कोई घटना होती है तो लोगों को महिला या पुरुष के खिलाफ निर्णय नहीं लेना चाहिए। नियत (ड्यू) प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए।
एक पुरुष आयोग (कमीशन) भी होना चाहिए ताकि पुरुषों को भी अपनी शिकायतों को व्यवस्थित (सिस्टेमेटिक) तरीके से सामने लाने का अधिकार दिया जाना चाहिए। जैसा कि इस एक्ट का उद्देश्य समानता लाना है न कि किसी लिंग का दमन (सप्रेस) करना है।
बिबलियोग्राफी
- 10 Judgements that changed India
- Constitution Of India
- Avani Mehra Sood, PART 2 EQUALITY SOCIAL INCLUSION AND WOMENS RIGHTS: REDRESSING WOMENS RIGHTS VIOLATIONS THROUGH JUDICIARY. Jindal Global Law Review (vol.1)(2009)
वेबलियोग्राफी
- SCC ONLINE
- NCRB YEARLY REPORT 2016
- International Labor Organization Tripartite Regional Seminar on Combating Sexual harassment at work, Manila, November 1993
- Rohtak Bravehearts the continuing story, Documentary by Deepika Narayan Bharadwaj
- You tube/Rohtakbravehearts
- Vox.com/ Colin Capernick / Nike