यह लेख Tanya D’souza ने लिखा है, जो अंबेडकर यूनिवर्सिटी की छात्रा हैं। इस लेख में एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों के बारे में चर्चा की गयी है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।
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सारांश (एब्सट्रैक्ट)
पिछले कुछ वर्षों में एलजीबीटी समुदाय अक्सर सुर्खियों में रहा है, चाहे वह आईपीसी की धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण हो या हाल ही में भारत में तीसरे लिंग की कानूनी मान्यता के बारे में नालसा का फ़ैसला हो।
दुनिया भर में एलजीबीटी समुदाय, उनके साथ रोज़ाना होने वाले भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है। वेस्ट में एलजीबीटी आंदोलन, महिला आंदोलनों के साथ का परिणाम था, जिसने आनंद के विचार को आगे बढ़ाया, यहां एलजीबीटी आंदोलन वास्तव में एड्स संकट की तरह एक्सिस्टेंस में आया और खुद को अनिवार्य रूप से संकट, हिंसा और रेमेडियल कार्य की भाषाओं में व्यक्त किया, न की आनंद की भाषा में। (टेलिस:2011) भले ही एकेडमिक फाइल्स में सेक्शुएलिटी को विभिन्न प्रवचनों (डिस्कोर्स) में दिखाया गया है, लेकिन इसे राज्य द्वारा स्वीकार या समझा नहीं गया है। इसके अलावा सेक्शुअल डिजायर के बारे में कोई बहस कभी भी आधार के रूप में, सेक्शुअल एजेंसी के सामने नहीं आई है।
इस लेख में, मैं उन कुछ सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करूंगी जो इन कानूनों से परिचित होने पर हमारे दिमाग में आ सकते हैं। प्रश्न जैसे– क्या यह एक वैध निर्णय था? क्या होमो-सेक्शुएलिटी अननेचुरल है? होमो-सेक्सुएलिटी की धारणा (परसेप्शन) में धर्म क्या भूमिका निभाता है? होमो-सेक्शुएलिटी के कार्य का अपराधीकरण (क्रिमिनलाइसिंग) करते हुए और इसे अननेचुरल बताते हुए, क्या हम इंडायरेक्टली मानवाधिकार और समानता के कानून के खिलाफ तो नहीं जा रहे हैं? जबकि हम, एक देश के रूप में भारत की निरंतर वृद्धि और विकास के बारे में बात करते हैं, हमें बैठकर यह भी सोचना चाहिए की क्या ये विज्ञान, अर्थव्यवस्था (इकॉनमी) और इन्फ्रास्ट्रक्चर के संदर्भ में विकसित होने के लिए पर्याप्त है? क्या धारा 377 जैसे मुद्दों के प्रति समाज की मानसिकता में बदलाव लाने चाहिए?
पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड)
जब तक भारत में, इंडियन पीनल कोड की धारा 377 को रद्द कराने के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन नहीं किए गए, तब तक इस धारा से बहुत से लोग परिचित नहीं थे। यह संघर्ष लंबा रहा है, धारा 377, भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान, 1861 से पहले की है, जब “प्रकृति के खिलाफ” की जाने वाली किसी भी सेक्शुअल गतिविधि को अपराध की श्रेणी (केटेगरी) में रखा गया था। नेचुरल और अननेचुरल क्या है, इस कॉन्सेप्ट को खुद एक समस्या के रूप में देखा जा सकता है। सिर्फ इसलिए कि कुछ लोगों की प्राथमिकताएँ (प्रेफरेंसेज) अलग होती हैं, तो क्या उन्हें या उनकी पसंद को अननेचुरल बना दिया जाएगा?
आईपीसी की धारा 377 इस प्रकार है:
“अननेचुरल ऑफेंस– जो कोई भी अपनी मर्ज़ी से किसी भी पुरुष, महिला या जानवर के साथ नेचर के खिलाफ जा कर कार्नल इंटरकोर्स करता है, तो उसे आजीवन कारावास, या किसी भी प्रकार की कारावास , जिसकी अवधि 10 वर्ष तक की हो सकती है, से दंडित किया जाएगा, और वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
स्पष्टीकरण (एक्सप्लेनेशन): प्रवेश (पेनिट्रेशन) इस धारा में दिए गए अपराध के लिए आवश्यक कार्नल इंटरकोर्स का गठन (कांस्टीट्यूट) करने के लिए पर्याप्त है।“
2 जुलाई 2009 को दिल्ली के हाई कोर्ट ने सहमति व्यक्त करने वाले एडल्ट्स के बीच सेक्स के संबंध में गे-सेक्स को कानूनी घोषित किया, लेकिन 11 दिसंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट पुराने संविधान पर वापस चला गया और धारा 377 को बड़ावा दिया। सभी सरकारी याचिकाओं (पिटीशन) के बावजूद शीर्ष अदालत ने होमो-सेक्शुएलिटी पर प्रतिबंध (बैन) की समीक्षा (रिव्यू) करने और इसे हटाने से इनकार कर दिया और अपने फैसले पर कायम रही। एक गलत फैसले ने एलजीबीटी कार्यकर्ताओं (एक्टिविस्ट) द्वारा निवेश (इन्वेस्ट) की गई सभी कड़ी मेहनत, जो की इस विषय के बारे में जागरूकता फैलाने और सैकड़ों व्यक्तियों को मुक्त करने के लिए जिन्होंने खुद को एलजीबीटी समाज का एक हिस्सा माना, उसका भी परीक्षण किया गया।
जब से सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह का गलत फैसला सुनाया है, दुनिया भर में इस विषय पर बहुत चर्चा और बहस हुई है। देश के कई हिस्सों में एलजीबीटी समाज ने इस विषय के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए विभिन्न शांति यात्रा और प्राइड परेड आयोजित (ऑर्गेनाइज) करके इस फैसले का विरोध किया। इन प्राइड परेडों में न केवल होमो-सेक्शुअल लोग बल्कि कई हेट्रो-सेक्शुअल लोग भी शामिल हुए, जिन्हें लगा कि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाया गया एक गलत कदम था।
धारा 377 का प्रभाव
पौलोमी बनर्जी ने अपने लेख में हमें दिखाया है कि कैसे यह फैसला एलजीबीटी समाज से संबंध रखने वाले कई लोगों के लिए एक खतरा बन गया था और हमें ऐसे कई उदाहरणों का लेखा–जोखा भी दिया। उन्होंने हमें कोलकाता के एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति के बारे में बताया, जिसके साथ उसके पड़ोस के लोगों ने दुर्व्यवहार किया और उसका अपमान किया। जब वह “घर लौट रहा था तो सड़क पर कुछ लोगों ने उस पर अंडे फेंके। एक या दो दिन पहले, पड़ोस के लगभग 7 पुरुषों के एक समूह ने उसका रास्ता रोककर, यह पूछा कि सेक्शुअल फैवर्स के बदले उन्हें उसे कितने पैसे देने होंगे” (बनर्जी,2014)। यह एक ऐसी चीज है जिसका सामना कई होमो-सेक्शुअल लोग रोजाना करते हैं, और उन्हें इसके बारे में क्या करना चाहिए? पुलिस के पास जाए? पर वह यह, नहीं कर सकते, क्योंकि पुलिस खुद उन्हें परेशान करती है और कानून का दुरुपयोग करती है। कोलकाता के कार्यकर्ता पवन ढल कहते हैं, जैसा कि बनर्जी ने अपने लेख में भी बताया है कि “ऐसे कई मामले हुए हैं जहां दो लड़के हाथ पकड़े या किस करते देखे गए और पुलिस द्वारा परेशान किए गए। वे या तो उनके साथ मारपीट करते हैं या उन्हें गिरफ्तार करने की धमकी देते हैं और उन्हें छोड़ने के लिए पैसे की मांग करते हैं। नॉन-प्रॉसिक्यूशन के बदले में सेक्शुअल फेवर्स की मांग भी आम है।”
यह देखकर दुख होता है कि एक तरफ जहां लोग आगे आ रहे हैं और जागरूकता अभियानों में हिस्सा ले रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कर रहे हैं, दूसरी ओर, अभी भी बहुत से लोग हैं जो मानते हैं कि हेट्रो-सेक्शुअल के अलावा कोई अन्य सेक्शुअल ओरियंटेशन अननेचुरल है और न केवल प्रकृति के विरुद्ध है, बल्कि ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध भी है। ऐसे कई लोग हैं जो मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने सही फैसला दिया है और उसका फैसला इससे बेहतर नहीं हो सकता था। हिंदुस्तान टाइम्स द्वारा प्रकाशित एक लेख में ऑल इंडियन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के जनरल सेक्रेट्री श्री अब्दुल रहीम कुरैशी कहते है की, हम जानते हैं कि होमो-सेक्शुएलिटी नेचर के खिलाफ है, यह इसके सभी कानूनों के खिलाफ है और यही एचआईवी/एड्स के फैलने का कारण है” (एचटीसी और एएफपी, 2013)।
जबकि कई लोग इस फैसले का जस्टिफिकेशन श्री कुरैशी के एचआईवी/एड्स के समान देते हैं, परंतु यह भी याद रखना चाहिए कि एचआईवी/एड्स केवल होमो-सेक्शुअल के बीच की समस्या नहीं है। एचआईवी/एड्स का फैलना मुख (ओरल) और एनल सेक्स को समाप्त करने से नहीं रुकेगा। एचआईवी संक्रमण (सस्सेप्टिबल) का खतरा उस व्यक्ति को होता है जो असुरक्षित सेक्स करता है (न केवल मौखिक और एनल में बल्कि पेनो-वैजिनल भी)। असल में “एचआईवी/एड्स पर यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम ने 2008 में तर्क दिया था कि होमो-सेक्शुअलिटी को डिक्रिमिनलाइज करने से भारत को एचआईवी/एड्स के स्प्रेड से मुकाबला करने में मदद मिलेगी, जो अनुमानित 2.5 मिलियन लोगों को प्रभावित कर रहा है।”(एचटीसी और एएफपी, 2013)
एड्स को दूर रखने का एक तरीका होने से ज्यादा,धारा 377 के फैसले को निष्पक्ष (फेयर) कैसे कह सकते है, अगर लोगों के एक वर्ग के साथ इतना बुरा व्यवहार किया जाता है, सिर्फ इस कारण कि उनकी पसंद अलग है? ऐसे में समानता के अधिकार और पसंद की स्वतंत्रता का क्या हुआ? ऐसा लगता है कि धारा 377 के फैसले ने संविधान के आर्टिकल 14 और 15 के बेसिक मानवाधिकारों को भी अनदेखा किया गया है, जो प्रत्येक व्यक्ति को समानता के अधिकार की गारंटी देता है और जाति, लिंग, धर्म, नस्ल (रेस) या यहां तक कि जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को वर्जित (प्रोहिबित) करता है। यदि दो व्यक्ति आपस में सेक्स के लिए मंजूरी देते हैं, तो किसी को इससे क्यों समस्या होनी चाहिए? यह एक और विरोधाभास (कॉन्ट्राडिक्शन) है क्योंकि संविधान का आर्टिकल 21, किसी व्यक्ति को स्वतंत्रता, गोपनीयता (प्राइवेसी) और व्यक्तिगत लिबर्टी के अधिकार की गारंटी देता है, इसलिए राज्य सभा द्वारा किसी भी तरह की घुसपैठ (इंट्रूजन) से बचने के लिए मंजूरी देने वाले एडल्ट्स के बीच इंटिमेट सेक्शुअल रिलेशनशिप्स की गारंटी दी गई है। ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन अधिकारों पर आंखें बंद कर रखी हैं। हाँ, यह एक अलग बात होती यदि एक व्यक्ति दूसरे को इस कार्य के लिए मजबूर करता, और फिर यह सभी मायने में बलात्कार माना जा सकता है।
क्या धारा 377 केवल एलजीबीटी समुदाय को प्रभावित करती है?
धारा 377 में कहा गया है कि हेट्रो-सेक्शुअल सेक्स के अलावा कुछ भी “प्रकृति के कानून के खिलाफ” है। एनल सेक्स और ओरल सेक्स जैसे सेक्शुअल एक्ट्स को “गे सेक्स” या “होमो-सेक्शुअल कार्य” कहना एक और समस्या है। बनर्जी ने अपने लेख में अशोक रो कवि, (कार्यकर्ता और हमसफर ट्रस्ट– एक होमो-सेक्शुअल समुदाय पर आधारित संगठन (आर्गेनाइजेशन) के चेयरमैन) को प्रस्तुत करते हुए कहा “फैमिली प्लैनिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा किए गए एक अध्ययन (स्टडी) में पाया गया है कि भारत में बड़ी संख्या में हेट्रो-सेक्शुअल जोड़े एनल सेक्स में इन्वॉल्व रहते हैं। इसलिए, धारा 377 के प्रावधानों (प्रोविजन्स) के तहत, वे भी आपराधिक कार्यवाही का सामना कर सकते हैं” (बनर्जी, 2014)। तो हम इस तरह की सेक्शुअल प्रैक्टिसेज को “गे” या “होमो-सेक्शुअल” कैसे कह सकते हैं, जब बड़ी संख्या में हेट्रो-सेक्शुअल जोड़े ऐसी सेक्शुअल प्रैक्टिसेज में लिप्त (इंडल्ज) होते हैं? दूसरे शब्दों में, केवल एलजीबीटी समाज को ही इस कानून द्वारा निशाना नहीं बनाया जा रहा है, ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट, भारत के नागरिकों के बीच सेक्स के पूरे विचार या व्यवहार को बदलने के लिए तैयार है, चाहे उनका सेक्शुअल ओरियंटेशन कुछ भी हो। भारत को कामसूत्र के देश के रूप में जाना जाता है, जिसमें ओरल सेक्स और विभिन्न प्रकार की सेक्स शैलियों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है, लेकिन अब धारा 377 के अनुसार कोई भी सेक्शुअल एक्ट जो पेनो–वैजिनल नहीं है, वह एक अपराध माना जाता है।
जबकी कुछ लोग कहते हैं, “धारा 377 होमो-सेक्शुएलिटी को अपराध नहीं मानती है। आपको गे होने के कारण गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है, लेकिन आपको नॉन–पेनो-वैजिनल सेक्स में इन्वॉल्व होने के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है,” (बनर्जी, 2014) कुछ लोगों के लिए यह तब तक संतोषजनक (सेटिसफैक्ट्री) हो सकता है जब तक कि उन्हें यह एहसास न हो कि धारा 377 के खिलाफ इस लड़ाई का पूरा प्वाइंट यह है कि, यह केवल सेक्स के बारे में नहीं है, “एक्ट और पहचान के बीच बहुत करीब रिश्ता है” (बनर्जी, 2014)। यदि दो लोग एक रिश्ते में हैं और आपसी सहमति के तहत इंटीमेट संबंध बनाना चाहते हैं, तो क्या उन्हें उस तरह का रिश्ता रखने की स्वतंत्र इच्छा नहीं होनी चाहिए जो वे चाहते हैं? जो लोग कहते हैं कि यह निर्णय धर्म और संस्कृति के आधार पर मान्य है, उन्हें यह महसूस करना चाहिए कि भगवान ने भी मनुष्यों को अपनी जीवन शैली चुनने की स्वतंत्र इच्छा दी है।
कई वर्षों से गलत पर्यावरण का हिस्सा होने के कारण लोगों मे होमो-सेक्शुएलिटी का होना माना गया है। एक समय ऐसा भी था जब अमेरिकन साइकेट्रिक एसोसिएशन द्वारा भी होमो-सेक्शुएलिटी को एक मानसिक बीमारी माना जाता था, लेकिन 1973 मे उन्होंने होमो-सेक्शुएलिटी को मानसिक बीमारियों के निदान (डायग्नोस्टिक) और स्टेटिस्टिकल मैनुअल से हटा दिया। लेकिन आज भी बहुत से लोग होमो-सेक्शुएलिटी को एक बीमारी समझते है। हाल के दिनों में हमने कई मंत्रियों और सरकारी अधिकारियों को देखा है जो होमो-सेक्सुअल्स के लिए पुनर्वसन (रिहब्स) खोलना चाहते हैं, ताकि समाज के “सुधार” के लिए उनकी “समस्या” को “ठीक” किया जा सके।
यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि किसी व्यक्ति का सेक्शुअल ओरियंटेशन पर्यावरणीय प्रभावों की वजह से आकार नहीं लेता है। जबकि पर्यावरणीय प्रभाव एक व्यक्ति के वास्तविक सेक्शुअल ओरियंटेशन को प्रकट करने में मदद कर सकते हैं, तथ्य यह है कि एक व्यक्ति का सेक्शुअल ओरियंटेशन गर्भ के दौरान फिक्स हो जाता है और जन्म के समय से तय होता है। इसलिए पर्यावरणीय फैक्टर्स व्यक्ति के सेक्शुअल ओरियंटेशन को इतनी आसानी से नहीं बदल सकते जब तक कि उस व्यक्ति को जन्म के समय से एक अलग सेक्शुएलिटी होने का आभास न हो। हमें खुद को और दूसरों को ऐसे ज्ञान और तथ्यों से शिक्षित करना चाहिए, ताकि इन सब पुराने कॉन्सेप्ट्स को बंद किया जा सके और लोगों में जागरूकता पैदा की जा सके ताकि वे इस विरोधी मानसिकता से बाहर निकलने में सक्षम हों। ऐसी पुरानी, अवास्तविक और अवैज्ञानिक धारणाओं और टाबूस केवल नफरत और हिंसा का कारण बनते हैं।
बनर्जी के लेख में यह बहुत सही बताया है कि कोई कैसे इस कानून का फायदा उठा सकता है और इसका दुरुपयोग कर सकता है। “वकील आनंद ग्रोवर कहते हैं, जिन्होंने दिल्ली एचसी और एससी में नाज़ फाउंडेशन (एनजीओ जिसकी याचिका ने 2009 में दिल्ली एचसी के ऐतिहासिक फैसले का नेतृत्व किया था) का प्रतिनिधित्व किया था कि “धारा 377 किसी को भी, चाहे वह परिवार का सदस्य हो या पड़ोसी जो होमो-सेक्शुअल सम्बन्ध को नमंजूर करता है उसे पुलिस को बुलाने का मौक़ा देता है और दावा करता है की उसने एनल और ओरल सेक्स विटनेस किया है तो पुलिस को एफआईआर दर्ज़ करनी ही होगी, (बनर्जी, 2014)। भले ही एक उचित कार्यवाही होगी जो बाद में होगी और एक व्यक्ति को दोषी साबित करने के लिए चिकित्सा परीक्षण (एग्जामिनेशन) की आवश्यकता होगी, लेकिन क्या पुलिस थाने तक घसीटा जाना काफ़ी अपमानजनक नहीं है? और समाज में एक व्यक्ति को अपना सिर झुकाकर शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है, वह भी सिर्फ इस वजह से की उनकी पसंद में अंतर है।
एशले टेलिस बहुत सही बताते हैं कि, “अगला कदम एलजीबीटी समुदायों के खिलाफ धारा 377 और हिंसा के हर दूसरे रूप, कानूनी और गैर–कानूनी के खिलाफ पहले के आंदोलन का पुनर्निर्माण (रिबिल्ड) करना है। दिल्ली हाई कोर्ट ने धारा 377 को निरस्त (रिपील) करने के लिए कोई आदेश नहीं दिया और न ही इसने देश भर में गरीब और मार्जिनलाइज्ड समुदायों को प्रभावित करने वाले किसी भी मुद्दे को संबोधित (एड्रेस) किया” (एचटीसी और एएफपी, 2013)।
नालसा निर्णय– आशा की एक किरण?
नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (नालसा) ने 2012 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और ये जानने की मांग की कि तीसरे लिंग के रूप में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समान अधिकार और कानूनी मान्यता दी जानी चहिए। उनका मानना था कि ट्रांसजेंडर समुदाय जो इस देश के नागरिक हैं, उनकी लिंग पहचान को गैर–मान्यता देकर हम उनके गारंटीकृत मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) का उल्लंघन करते हैं।
गैर–मान्यता के कारण ट्रांसजेंडर समुदाय को सबसे आम अधिकारों का अभाव था, जो कि हर दूसरे तथाकथित (सो-कॉल्ड) “सामान्य” नागरिक के पास हैं। उन्हें वोट देने के अधिकार, संपत्ति के अधिकार और पासपोर्ट या ड्राइविंग लाइसेंस जैसे किसी भी आधिकारिक दस्तावेज के माध्यम से ऑफिशियल पहचान का दावा करने के अधिकार से वंचित (डिनाइ) कर दिया गया था। आगे उन्हें चुनाव लड़ने, रोजगार देने में भी भेदभाव का सामना करना पड़ा और उन्हें अछूत की तरह माना जाता था। यह सब केवल इसलिए क्योंकि उपरोक्त में से किसी का लाभ उठाने के लिए ज़रूरी कानूनी दस्तावेज में आवेदक (एप्लीकेंट) का लिंग बताने के लिए कहा जाता है,और फॉर्म में केवल दो जेंडर कैटेगरी के विकल्प होते हैं जोकि पुरुष और महिला है।
अब नालसा के फैसले के साथ, यह घोषित किया गया कि, “ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों में नागरिक घोषित किया जाना चाहिए और व्यक्तियों के उस वर्ग को उपलब्ध सभी लाभ प्रदान किए जाने चाहिए, जो पुरुष और महिला लिंगों को दिए गए हैं। लर्न्ड वकील ने यह भी प्रस्तुत किया कि लिंग चुनने का अधिकार, गरिमा (डिग्निटी) के साथ जीवन जीने के अधिकार का इंटीग्रल अंग है, जो निस्संदेह संविधान के आर्टिकल 21 द्वारा गारंटीकृत है। इसलिए, लर्न्ड वकील ने प्रस्तुत किया कि, ऐसे नियमों/रेगुलेशंस/प्रोटोकॉल के अधीन, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को यह निर्धारित करने का अधिकार दिया जाना चहिए कि उन्हें, पुरुष, महिला या ट्रांसजेंडर वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) में से कौनसा विकल्प चुनना है ” निर्णय ने ‘सेक्स‘ शब्द के अर्थ को भी बड़ा दिया, जिसका अर्थ हमेशा आर्टिकल 15 और 16 में पुरुष या महिला जैविक सेक्स से था,और अब इसमें ‘मनोवैज्ञानिक सेक्स‘ और/या ‘लिंग पहचान‘ शामिल कर लिया गया है।
यह निर्णय कई व्यक्तियों के लिए आशा की किरण के रूप में सामने आया है, जो कई वर्षों से अपनी लिंग की पहचान के लिए संघर्ष कर रहे थे, चाहे वह महिला , पुरुष हो या थर्ड जेंडर हो। चिकित्सा और सर्जिकल हस्तक्षेप (इंटरवेंशन) के बावजूद भी, अब लिंग का चयन व्यक्ति की पसंद पर आधारित है। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के आर्टिकल 19(1)(a) के तहत व्यक्तिगत उपस्थिति और ड्रेसिंग की पसंद पर कोई प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) ना लगाकर एक व्यक्ति की लिंग अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की सुरक्षा की घोषणा की।
विरोधाभासों (कॉन्ट्राडिक्शन्स)
नालसा के फैसले ने अपनी ट्रांसजेंडर परिभाषा के भीतर लिंग पहचान और सेक्शुअल ओरियंटेशन दोनों को शामिल किया। गौरतलब (सिग्निफिकेंटली) है कि कोठियों को ट्रांसजेंडर श्रेणी (केटेगरी) में शामिल किया गया, कोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि वे “बाईसेक्शुअल व्यवहार” प्रदर्शित करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि लिंग पहचान को केवल पोशाक और भाषण के माध्यम से ही नहीं, बल्कि तौर–तरीकों के माध्यम से भी व्यक्त किया जा सकता है।
भले ही धारा 377 की व्याख्या (इंटरप्रेट) किसी की पहचान के बजाय उसके कार्य को अपराधीकरण करने के लिए की गई हो, नालसा के फैसले में “ट्रांसजेंडर” की परिभाषा यह सवाल उठाती है कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति, विशेष रूप से कोठी, को कैसे नालसा के फैसले के तहत अधिकारों का एक दायरा दिया जा सकता है जब धारा 377 उनके “व्यवहार” और उनके “बाईसेक्शुअल व्यवहार” के अन्य तत्वों का उल्लंघन करते हैं। सेक्शुअल ओरियंटेशन को धारा 377 से अलग नहीं किया जा सकता है; गैर–विषम–मानक (नॉन-हेट्रो-नॉर्मेटिव) सेक्शुअल ओरिएंटेशन वाले व्यक्तियों को सेक्स में शामिल होने से रोकना, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को उनकी पसंद की सेक्शुअल एक्टिविटी में शामिल होने से रोकने से अलग नहीं है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सिर्फ पक्षपातपूर्ण (बायस्ड) नहीं है, धारा 377 को न तो नैतिक (मॉरली) रूप से और न ही वैज्ञानिक रूप से सही साबित करने के लिए कोई सबूत पर्याप्त हैं। ऐसा लगता है कि यह निर्णय समग्र रूप से समाज के बजाय होमोफोबिया के आधार पर दिया गया है। जबकि हम आधुनिक तरीकों को अपनाने की बात करते हैं और एक संयुक्त, विकसित (डेवलप्ड) देश की दिशा में काम करते हुए, यहाँ हम समाज के एक वर्ग के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए खड़े हैं, उन्हें बुनियादी मानवाधिकारों से सिर्फ इसलिए वंचित कर दिया गया है क्योंकि वे माइनॉरिटी हैं और उनके अलग–अलग विचार और जीवन शैली की प्राथमिकताएं हैं। हमें यह महसूस करना चाहिए कि नालसा के फैसले की लैंगिक पहचान की कानूनी घोषणा एलजीबीटी समुदाय के बीच समानता की लड़ाई का अंत नहीं है, बल्कि सिर्फ शुरुआत है। उम्मीद है कि यह निर्णय ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ दुर्व्यवहार करने और उन्हें आक्रामक (ऑफेंसिव) और दखल देने वाली प्रक्रियाओं के अधीन होने वाली अत्याचारी (एट्रोशियस) प्रथाओं को रोक देगा, और यह धारा 377 पर पुनर्विचार करने और फिर से काम करने का एक कारण भी होगा। हालांकि यह ट्रांसजेंडर समुदाय के भले की दिशा में एक कदम आगे हो सकता है, यह नहीं भूलना चाहिए कि लेस्बियन, गे और बाईसेक्शुअल समुदायों को अभी तक उनके अधिकारों का हिस्सा नहीं दिया गया है।
हमारे देश में माइनॉरिटी की एक बड़ी संख्या है और जैसे उन्हें अपनी मर्जी से जीने का अधिकार है, वैसे ही एलजीबीटी समाज को भी वही आजादी दी जानी चाहिए। समय आ गया है कि एक देश के रूप में हम इस तरह के मतभेदों और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के कारण माइनॉरिटी को अलग करने के बजाय समावेश (इनक्लूसिवनेस) के तरीकों को अपनाएं।
संदर्भ (रेफरेंसेस)
- बनर्जी, पौलोमी: “डिकोडिंग सेक्शन 377: कैसे फैसले ने बुनियादी मानवाधिकारों को मिटा दिया”, हिंदुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली: गुरुवार, 20 फरवरी, 2014।
- हार्वे, निक (2008): इंडियाज ट्रांसजेंडर – हिजड़ा; न्यू स्टेट्समैन पत्रिका में प्रकाशित।
- हुसैन, अदनान (2012): बियॉन्ड इमाक्यूलेशन- बीइंग मुस्लिम एंड बीइंग हिजरा इन साउथ एशिया। एशियन स्टडीज रिव्यू, 36:4, 495-513।
- एचटी संवाददाता और एएफपी: “सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि सेक्स अवैध है, सरकार विधायी मार्ग पर संकेत देती है”, हिंदुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली, 11 दिसंबर, 2013।
- रोशनाबादी, क़मर (1999): फेसिंग द मिरर: लेस्बियन राइटिंग फ्रॉम इंडिया, अश्विनी सुकथंकर, पेंगुइन पब्लिशर्स द्वारा संपादित।
- टेलिस, एशले (2011): एथिक्स, ह्यूमन राइट्स एंड द एलजीबीटी डिस्कोर्स इन इंडिया, चैप्टर 12, एप्लाइड एथिक्स एंड ह्यूमन राइट्स- कॉन्सेप्चुअल एनालिसिस एंड कॉन्टेक्स्टुअल एप्लिकेशन, एड। शशि मोतीलाल