यह लेख बी.वी.पी.-न्यू लॉ कॉलेज, पुणे के द्वितीय वर्ष के छात्र Gauraw Kumar द्वारा लिखा गया है। इस लेख में उन्होंने, “इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम स्टेट ऑफ़ केरल और अन्य 2018” के एक बहुत ही महत्वपूर्ण मामले पर चर्चा की है। लोकप्रिय रूप से इसे “सबरीमाला केस” के रूप में जाना जाता है और लेखक इस लेख में इसके तथ्यों, इतिहास, मुद्दों और मामले के निर्णय को समझाने की कोशिश करते है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय (इंट्रोडक्शन)
हमारे समाज में महिलाओं ने हमेशा सार्वजनिक (पब्लिक) स्थानों पर समान स्थिति और प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) के लिए संघर्ष (स्ट्रगल) किया है। लेकिन, अब स्थिति बदल रही है और कोर्ट्स के निर्णयों के माध्यम से विभिन्न सुधार हुए हैं। शाह बानो मामले की तरह, सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक की प्रथा से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की है। डॉ नूरजहां साफिया नियाज बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र और अन्य के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने हाजी अली दरगाह के अंदर महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दी है।
अब, ‘इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम स्टेट ऑफ़ केरल और अन्य‘ का मामला केरल के स्टेट में स्थित सबरीमाला तीर्थ मंदिर में प्रवेश पाने के लिए महिलाओं के संघर्ष से सम्बंधित है। महिलाओं ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए बहुत संघर्ष किया है। केरल के सबरीमाला क्षेत्र में अयप्पा मंदिर, मासिक (मेंस्ट्रुअल) की उम्र (10-15 वर्ष की आयु) की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर, केरल में प्रवेश करने के लिए प्रतिबंधित (रिस्ट्रिक्ट) करने के प्रावधान (प्रोविज़न) के लिए विवाद में रहा है। इस मामले में कई मुद्दों को उठाया गया था, जिसमें याचिकाकर्ताओं (पिटीशनर्स) द्वारा यह तर्क दिया गया था कि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध से संबंधित प्रावधान असंवैधानिक हैं क्योंकि यह भारतीय संविधान के आर्टिकल 14, 15, 17, 25, 26 का उल्लंघन (वॉयलेशन) करता है।
अंत में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सभी आयु वर्ग की महिलाएं सबरीमाला मंदिर में प्रवेश कर सकती हैं क्योंकि सभी को पूजा करने का अधिकार है और यह एक संवैधानिक और मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) है जो भारतीय संविधान के आर्टिकल 25 और 26 में दिया गया है।
संवैधानिक आदर्शों और सामाजिक वास्तविकता में अंतर होता हैं। भारतीय संविधान में दिए गए प्रावधानों और समाज की वास्तविकता के बीच एक व्यापक (वाइड) अंतर है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों के बीच के अंतर को कम करने की कोशिश की।
तथ्यों का सारांश (सम्मरी ऑफ़ फैक्ट्स)
- केरल के स्टेट में भगवान अय्यप्पन को समर्पित एक हिंदू मंदिर है जिसका नाम सबरीमाला मंदिर है। यह केरल के ‘पथानामथिट्टा’ जिले में पेरियार टाइगर रिजर्व के अंदर सबरीमाला में स्थित एक मंदिर है।
- सबरीमाला मंदिर, जो केरल के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है, ने महिलाओं (मासिक धर्म की उम्र की) को प्रवेश से प्रतिबंधित कर दिया था।
- कई महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन उनके खिलाफ शारीरिक हमले की धमकी के कारण, वह अंदर नहीं जा सकीं।
- केरल हाई कोर्ट का फैसला, जिसमे सदियों पुराने प्रतिबंध को बरकरार रखा गया था और फैसला सुनाया था कि परंपराओं पर निर्णय लेने का अधिकार केवल वहां के “तांत्रिक (पुजारी)” को ही है, को पांच महिला वकीलों के एक समूह ने चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था।
पक्षों की पहचान (जजेस के नाम सहित) [आइडेंटिफिकेशन ऑफ़ पार्टीज (इन्क्लूडिंग द नेम ऑफ़ द जजेस)]
1990 में, एस. महेंद्र ने एक याचिका (पिटीशन) दायर की, जिसमें आरोप लगाया गया था कि युवा महिलाएं सबरीमाला मंदिर में जा रही थीं। उसी का फैसला 1991 में आया था, जहां केरल हाई कोर्ट के जज के. परीपुरन और के. बालनारायण मरार ने कहा था कि 10 से 50 वर्ष की आयु की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में पूजा करने से प्रतिबंधित किया गया है और कहा कि ऐसा प्रतिबंध आज से नहीं है, यह बहुत लंबे समय से प्रचलित (प्रेवेलेंट) उपयोग के अनुसार था। हाई कोर्ट ने केरल सरकार को पुलिस बल (फ़ोर्स) की मदद से मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने के आदेश को लागू करने का भी निर्देश दिया। कोर्ट का ऑब्जर्वेशन कुछ इस प्रकार था:
महिलाओं के प्रवेश पर इस तरह का प्रतिबंध भारतीय संविधान के आर्टिकल 15, 25 और 26 और केरल हिन्दू प्लेस ऑफ़ पब्लिक वरशिप एक्ट, 1965 के प्रावधानों का भी उल्लंघन नहीं है। चूंकि समाज के दो वर्गों के बीच कोई प्रतिबंध नहीं है, लेकिन प्रतिबंध केवल विशेष रूप से कुछ आयु वर्ग की महिलाओं के लिए ही है।
2006 में, इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन (छह महिलाओं से मिलकर) के सदस्यों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं के खिलाफ सबरीमाला मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध हटाने के लिए याचिका दायर की। उन्होंने तर्क दिया कि यह प्रतिबंध उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है और उन्होंने केरल हिन्दू प्लेसेस ऑफ़ पब्लिक वरशिप रूल्स एक्ट,1965 में दिए गए प्रावधानों की वैधता पर भी सवाल उठाया, जिन्होंने इसका समर्थन (सपोर्ट) किया।
याचिकाकर्ता: इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन; डॉ लक्ष्मी शास्त्री; प्रेरणा कुमारी; अलका शर्मा; सुधा पाल.
प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट): केरल स्टेट; त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड; सबरीमाला मंदिर के प्रमुख तांत्रिक; पथानामथिट्टा के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट; नायर सर्विस सोसाइटी; अखिल भारतीय अयप्पा सेवा संघम; अयप्पा सेवा समिति; अयप्पा पूजा समिति; धर्म संस्था सेवा समाज; अखिल भारतीय मलयाली संघ; सबरीमाला अयप्पा सेवा समाजम; केरल क्षेत्र समरक शाना समिति; पंडालम कोट्टाराम निर्वाहका संघम; सबरीमाला कस्टम प्रोटेक्शन फोरम।
याचिकाकर्ता के वकील: आर.पी. गुप्ता; राजा रामचंद्रन (एमिकस क्यूरी); के.राममूर्ति (एमिकस क्यूरी)।
प्रतिवादी के वकील: जयदीप गुप्ता; लिज़ मैथ्यू; वेणुगोपाल, (त्रावणकोर देवस्वोम); वी. गिरि, (केरल स्टेट); राकेश द्विवेदी; के राधाकृष्णन।
इस मामले में भारत के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.एम.खानविलकर, जस्टिस आर.एफ.नरीमन, जस्टिस डी.वाई.चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा सहित 5 जजेस की संवैधानिक बेंच थी।
कोर्ट के समक्ष मुद्दे (इशूज बिफोर द कोर्ट)
इस मामले में मुख्य रूप से तीन मुद्दे उठाए गए:
- क्या मंदिर अधिकारियों द्वारा लगाया गया यह प्रतिबंध भारतीय संविधान के आर्टिकल 15, 25 और 26 का उल्लंघन करता है?
- क्या यह प्रतिबंध केरल हिन्दू प्लेस ऑफ़ पब्लिक वरशिप एक्ट, 1965 के प्रावधानों का उल्लंघन करता है?
- क्या सबरीमाला मंदिर का एक सांप्रदायिक (डिनोमिनेशनल) चरित्र है?
मुद्दों पर पार्टियों द्वारा तर्क (आर्ग्यूमेंट्स बाय पार्टिस ऑन इशू)
इन मुद्दों पर दोनों पार्टियों की ओर से कई तर्क दिए गए। ये निम्नलिखित हैं:
महिला प्रवेश के पक्ष में तर्क (आर्ग्यूमेंट्स इन फेवर ऑफ़ वूमेन एंट्री)
याचिकाकर्ताओं द्वारा महिलाओं के प्रवेश के पक्ष में दिए गए तर्क कुछ इस प्रकार थे- मासिक धर्म अशुद्ध नहीं है, और महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने का समान अधिकार होना चाहिए। एक आलोचना (क्रिटिसिज़्म) का दावा है कि हम मासिक धर्म के आधार पर महिलाओं को अपवित्र नहीं मान सकते हैं और यह एक लैंगिक (जेंडर) भेदभाव है। केरल के चीफ मिनिस्टर पिनाराई विजयन ने कहा कि उनकी पार्टी (लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट) ने हमेशा लैंगिक समानता का समर्थन किया है और हम महिलाओं के लिए सुविधाएं और सुरक्षा प्रदान करते हैं। यह प्रथा भारतीय संविधान के आर्टिकल 14 (कानून के समक्ष समानता) का भी उल्लंघन करती है क्योंकि महिलाओं के एक विशिष्ट (स्पेसिफिक) आयु वर्ग के आधार पर भेदभाव उचित भेदभाव नहीं है।
- यह प्रतिबंध, भारतीय संविधान के आर्टिकल 15, 25 और 26 का उल्लंघन करता है:
आर्टिकल 15 “धर्म, मूलवंश (रेस), जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर निषेध (प्रोहिबिशन)” से संबंधित है। यहां, इस प्रथा में आर्टिकल 15 का उल्लंघन शामिल है क्योंकि मंदिर में प्रवेश करने के लिए भेदभाव ‘लिंग’ पर आधारित था।
आर्टिकल 25 “अंतरात्मा (कोनसाइन्स) की स्वतंत्रता और धर्म के स्वतंत्र पेशे (प्रोफेशन), प्रचार (प्रोपेगेशन) और प्रथाओं” से संबंधित है। यहां, इस प्रथा में आर्टिकल 25 का उल्लंघन शामिल है क्योंकि यह महिलाओं को धर्म के अभ्यास की स्वतंत्रता से रोकता है।
आर्टिकल 26 “धार्मिक मामलों की स्वतंत्रता” से संबंधित है। यहां, यह प्रथा स्पष्ट रूप से आर्टिकल 26 के प्रावधान का उल्लंघन करती है।
- केरल हिन्दू प्लेस ऑफ़ पब्लिक वरशिप एक्ट, 1965 के प्रावधान, जो मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध का समर्थन करते हैं, असंवैधानिक है क्योंकि यह भारतीय संविधान के आर्टिकल 14, 15, 25 और 26 का उल्लंघन करता है।
- याचिकाकर्ता की ओर से एक तर्क है कि भगवान अयप्पा मंदिर, आर्टिकल 26 के लिए एक अलग धार्मिक संप्रदाय (डीनोमिनेशन) नहीं था क्योंकि सबरीमाला मंदिर में ‘पूजा’ और अन्य धार्मिक समारोहों के समय की जाने वाली धार्मिक प्रथाएं अन्य हिंदू मंदिरों में की जाने वाले अन्य धार्मिक प्रथाओं से अलग नहीं हैं।
महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ तर्क (आर्ग्यूमेंट्स अगेंस्ट वूमेन एंट्री)
प्रतिवादी द्वारा महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ दिए गए तर्क- इस तरह की धार्मिक प्रथाएं इतनी पुरानी नहीं हैं क्योंकि यह मंदिर के भगवान/देवी का सम्मान करने की परंपरा है। पुरुषों को भी कई मंदिरों में प्रवेश करने और पूजा करने के लिए प्रतिबंधित किया जाता है, उदाहरण के लिए, ब्रह्मा मंदिर, पुष्कर।
- भारतीय संविधान के आर्टिकल 15, 25 और 26 का कोई उल्लंघन नहीं है क्योंकि प्रतिबंध केवल एक विशेष आयु वर्ग की महिलाओं के संबंध में है न कि एक वर्ग के रूप में महिलाओं के लिए। यदि महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध की प्रथा एक वर्ग के रूप में महिलाओं के लिए बनाई जाती है, तभी यह भारतीय संविधान के उपर्युक्त आर्टिकल्स का उल्लंघन होगा।
- केरल हिन्दू प्लेस ऑफ़ पब्लिक वरशिप एक्ट, 1965 के प्रावधान भी इस प्रतिबंध का समर्थन करते हैं।
निर्णय (रेश्यो डेसिडेंडी और ओबीटर डिक्टम)
रेश्यो डेसिडेंडी
‘रेश्यो डेसिडेंडी’ कानून का वह नियम है जिस पर न्यायिक निर्णय आधारित होता है। यह कानूनी रूप से बाध्यकारी (बाइंडिंग) है।
28 सितंबर 2018 को, कोर्ट ने इस मामले में 4:1 बहुमत (मेजॉरिटी) से अपना फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रतिबंध असंवैधानिक है। कोर्ट ने माना कि यह प्रथा समानता, स्वतंत्रता और धर्म की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, आर्टिकल 14, 15, 19(1), 21 और 25(1)। इसने केरल हिन्दू प्लेस ऑफ़ पब्लिक वरशिप एक्ट के नियम 3(B) को असंवैधानिक करार दिया। नियम 3(B) में हिंदू संप्रदायों को सार्वजनिक पूजा स्थलों से महिलाओं को बाहर करने की अनुमति दी गयी है, यदि बहिष्कार (एक्सक्लूज़न) ‘कस्टम’ पर आधारित होता है तो।
सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दी है, और कहा है कि “भक्ति को लैंगिक भेदभाव के अधीन नहीं किया जा सकता है।”
ओबिटर डिक्टम
‘ओबिटर डिक्टम’ एक जज की राय की अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) है, जो कोर्ट में या लिखित निर्णय में कही गई है, लेकिन निर्णय के लिए आवश्यक नहीं है और इसलिए कानूनी रूप से एक प्रिसिडेंट के रूप में बाध्यकारी नहीं है।
इस मामले में, कोर्ट ने इस प्रकार फैसला सुनाया:
“हमें यह कहने में कोई संदेह नहीं है कि इस तरह की प्रथा महिलाओं के मंदिर में प्रवेश करने और स्वतंत्र रूप से हिंदू धर्म का पालन करने के अधिकार का उल्लंघन करती है”।
“भक्ति को लैंगिक भेदभाव के अधीन नहीं किया जा सकता”।
भारत के माननीय चीफ जस्टिस ने अपने फैसले में कहा कि धर्म, एक व्यक्ति की गरिमा (डिग्निटी) से जुड़ा, जीवन का एक तरीका है और पितृसत्तात्मक (पेट्रिआर्कल) प्रथाओं के आधार पर एक लिंग को दूसरे के पक्ष में छोड़कर, अपने धर्म का पालन करने और उसे मानने के मौलिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
फैसले का आलोचनात्मक विश्लेषण (क्रिटिकल एनालिसिस ऑफ़ द जजमेंट)
बेंच में अकेली महिला जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने असहमति जताई।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस आर.एफ.नरीमन, जस्टिस ए.एम. खानविलकर और जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने बहुमत का गठन किया।
भारत के चीफ जस्टिस, माननीय दीपक मिश्रा ने अपने लिए लिखे गए फैसले को पढ़ते हुए और जस्टिस ए.एम. खानविलकर ने कहा कि महिलाएं पुरुषों से कम या नीचे पद पर नहीं हैं। धार्मिक पितृसत्ता को विश्वास पर विजय की अनुमति नहीं दी जा सकती। आस्था के लिए स्वतंत्रता में जैविक (बायोलॉजिकल) कारणों (जैसे मासिक धर्म) को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। धर्म मूल रूप से जीवन का एक तरीका है।
भारत के चीफ जस्टिस के निर्णय ने यह भी कहा कि अयप्पा के भक्त एक अलग धार्मिक संप्रदाय का गठन नहीं करेंगे। केरला हिन्दू प्लेसेस ऑफ़ पब्लिक वरशिप (ऑथॉरिज़ेशन ऑफ़ एंट्री), रूल्स 1965 के नियम 3(B) ने सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगा दी थी, जिसे असंवैधानिक करार दिया गया था।
जस्टिस नरीमन की अलग, लेकिन सहमत राय ने कहा कि “संवैधानिकता के कालानुक्रमिक (एनक्रोनिस्टिक) में व्यक्तित्व के विनाशकारी कुछ भी, महिलाओं को नीचे दर्जे के लोगों के रूप में मानने के लिए संविधान को ही देखा जाता हैं”। यह माना गया कि अयप्पा एक अलग धार्मिक संप्रदाय का गठन नहीं करते हैं।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपनी अलग लेकिन सहमत राय में कहा कि प्रतिबंध के पीछे का विचार यह था कि महिलाओं की उपस्थिति वर्जिनिटी को बिगाड़ देगी, और वह महिलाओं पर पुरुषों की वर्जिनिटी का बोझ डाल रही थी। यह महिलाओं को कलंकित (स्टिग्मेटाइज़) और रूढ़िबद्ध (स्टीरियोटाइप) बनाता है, उन्होंने देखा।
जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने अपनी अकेली असहमति में कहा कि गहरी धार्मिक भावनाओं के मुद्दों में कोर्ट द्वारा हस्तक्षेप (इंटरफेयर) नहीं किया जाना चाहिए। कोर्ट को इस मामले में तब तक दखल नहीं देना चाहिए जब तक कि उस वर्ग या धर्म से कोई नाराज व्यक्ति न हो। तार्किकता (रेशनेलिटी) की धारणा (नोशन) को धार्मिक मामलों में नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने यह भी माना कि मंदिर और देवता भारतीय संविधान के आर्टिकल 25 द्वारा संरक्षित (प्रोटेक्टिड) हैं।
केस विवरण और स्थिति (केस डिस्क्रिप्शन एंड स्टेटस)
सुप्रीम कोर्ट ने घोषणा की है कि एक विशिष्ट आयु वर्ग की महिलाओं को उनके ‘मासिक धर्म के वर्षों’ में सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने से प्रतिबंधित करने की प्रथा असंवैधानिक है।
मामले की वर्तमान स्थिति: लंबित (पेंडिंग) निर्णय को चुनौती देने वाली समीक्षा (रिव्यू) याचिकाएं दायर की गई हैं।
निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)
भारत जैसे देश में लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) के लिए धर्म से संबंधित स्वतंत्रता आवश्यक तत्व हैं। जैसा कि हम जानते हैं, संवैधानिक आदर्श और सामाजिक वास्तविकता एक दूसरे से बहुत अलग हैं लेकिन समाज के सुचारू (स्मूथ) और उचित कामकाज के लिए जितना संभव हो सके मतभेदों को कम करना भी आवश्यक है। ‘इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम स्टेट ऑफ़ केरल और अन्य’ के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक आदर्शों और सामाजिक वास्तविकता के बीच के अंतर को काम करने की कोशिश की है।