यह लेख त्रिवेंद्रम के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के Pratap Alexander Muthalaly ने लिखा है। यह लेख ऐतिहासिक मामला, सुनील बत्रा बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन और अन्य, के कानून पर इसके प्रभाव और इससे संबंधित विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों और विवाद के प्रश्नों की जांच करता है। इस लेख का अनुवाद Aseer Jamal द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
सुनील बत्रा बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन और अन्य का मामला हमारे कानूनी इतिहास में एक ऐतिहासिक निर्णय के रूप में जाना जाता है, जिसने कैदियों के मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) को सुरक्षित करने में मदद की। यह कई मायनों में अनोखा था, एक यह कि विचाराधीन याचिकाकर्ता (पेटिशनर इन क्वेश्चन) मौत की सजा का दोषी था और ऐसी चीज़ के बारे में उस समय बहुत कम ही किसी को पता होता था। यह मामला कई मुद्दों को प्रकाश में लाया, जिसमें विभिन्न मौलिक अधिकारों और 1874 के प्रिज़न एक्ट के बीच टकराव शामिल हैं। इसके अलावा, इसने कैदियों के साथ होने वाले खराब व्यवहार को उजागर किया, जिनमें से कई क़ैदियों के साथ यातना (टार्चर) और यौन शोषण (सेक्सुअल एब्यूज) होता था। इस मामले ने प्रिज़न अधिकारियों द्वारा कैदियों के प्रति किए गए खतरनाक व्यवहार पर प्रकाश डालने में एक लंबा रास्ता तय किया।
मामले के तथ्य (फैक्ट्स ऑफ़ द केस)
विचाराधीन याचिकाकर्ता सुनील बत्रा, तिहाड़ सेंट्रल जेल में मौत की सजा काट रहे एक दोषी थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश को एक पत्र लिखा, जिसमें जेल में कैदियों के रहने की खराब स्थिति और उनके साथ हो रहे संदिग्ध व्यवहार के बारे में बताया गया। अपने पत्र में, उन्होंने एक अन्य कैदी प्रेमचंद के हेड वार्डन मगगर सिंह द्वारा उससे मिलने आने वाले रिश्तेदारों से पैसे निकालने के लिए क्रूर हमले और प्रताड़ना की भी शिकायत की। इस पत्र को हैबियस कार्पस कार्यवाही (प्रोसीडिंग) में बदल दिया गया था और उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 32 के दायरे में जनहित याचिका के रूप में माना गया था। इसके बाद कोर्ट ने राज्य और संबंधित अधिकारियों को नोटिस जारी किया।
सुप्रीम कोर्ट ने डॉ. वाई.एस. चीतल और श्री मुकुल मुदगल को भी एमिकस क्यूरी नियुक्त किया और उन्हें जेल का दौरा करने, कैदी से मिलने, आवश्यक दस्तावेजों की जांच करने और आवश्यक गवाहों का साक्षात्कार (इंटरव्यू) करने के लिए अधिकृत किया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे प्रासंगिक विवरण (रेलेवेंट डिटेल्स), परिस्थितियों के आसपास और मामले से संबंधित घटनाओं के बारे में जितना संभव हो जान पायें।
एमिकस क्यूरीया ने जेल का दौरा और गवाहों की जांच करने के बाद रिपोर्ट की और यह भी पुष्टि की, कि कैदी को गंभीर गुदा (ऐनल) चोट लगी थी। उन्होंने बताया कि उक्त कैदी को प्रताड़ित करने की प्रक्रिया में उसके ऐनल में रॉड मारी गई थी, जिससे कैदी का लगातार खून बह रहा था। खून बहना बंद न होने के कारण उसे जेल अस्पताल ले जाया गया और बाद में इरविन अस्पताल में स्थानांतरित (ट्रान्सफर्ड) किया गया। क़ैदी ने बताया की यह उसके साथ इसलिए हुआ क्योंकि वह वार्डन के पैसे की मांगों को पूरा नहीं कर पाया, इसके अलावा, डिपार्टमेंटल अधिकारी द्वारा कैदी और जेल डॉक्टर को डराकर अपराध को छुपाने का प्रयास किया गया था। अधिकारियों ने बहाने भी पेश किए कि चोटें क़ैदी द्वारा या बवासीर के कारण हुई थीं।
मामले में उठाए गए मुद्दे
इस मामले ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया:
- क्या कैदी एक आम इंसान के समान अधिकारों और मानकों (स्टैंडर्ड्स) के हकदार थे।
- क्या सुप्रीम कोर्ट को किसी दोषी की याचिका पर विचार करने का अधिकार था।
- क्या मौलिक अधिकार, विशेष रूप से आर्टिकल 14, 19, 21 हिरासत में लिए गए व्यक्ति पर लागू होते हैं।
- जेल में क्रूर और घृणित परिस्थितियों को ठीक करना।
- दोनों में से कौन बड़ा है, उपरोक्त प्रिज़न एक्ट या कांस्टीट्यूशन में निहित मौलिक अधिकार।
- धारा 30 (कैदी की संपत्ति की जब्ती और मौत की सजा पाने वालों के एकांत कारावास (सोलिटरी कॉनफाइन्मेंट) के संबंध में भी सवाल उठाए गए थे और धारा 56 (जेलर या उसके सबोर्डिनेट, यदि अपने कर्तव्य का उल्लंघन करते हुए या कानून या विनियम (रेगुलेशन) के खिलाफ कुछ भी करते पाए जाते हैं तो प्रिज़न एक्ट,1894 के तहत दंडित किया जा सकते है, जो 3 महीने की कारवास से अधिक या 200 रुपये जुर्माना से अधिक का नहीं हो या दोनों से दण्डित हो सकते हैं), क्योंकि वे कथित रूप से आर्टिकल 14 और 21 के उल्लंघन में थे।
- इसके अलावा, सवाल उठाया गया कि प्रिज़न एक्ट के संबंध में भविष्य में क्या संशोधन और परिवर्तन किए जाने थे।
तर्क (आर्ग्यूमेंट्स)
याचिकाकर्ता
- सबसे पहले यह तर्क दिया गया कि प्रिज़न एक्ट की धारा 30(2) एक कैदी को मौत की सजा के तहत एकांत कारावास में रखने की अनुमति नहीं देती है और जेल अधिकारियों के पास धारा 30(2) के तहत इस तरह की कोई शक्ति नही है।
- प्रेम चंद के फ्रांसीसी नागरिक होने के बावजूद, भी वह मौलिक अधिकारों (14, 20, 21 और 22) के तहत सुरक्षा के हकदार थे, क्योंकि ये सब मानवाधिकार हैं।
- याचिकाकर्ता ने प्रिज़न एक्ट,1894 की धारा 30(2) और धारा 56 और पंजाब प्रिज़न मैनुअल के पैरा 399(3) को चुनौती दी, क्योंकि यह भारत के कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 14 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों के खिलाफ था।
- जबकि यह स्वाभाविक ही था कि कैदियों के कुछ अधिकार उनकी सजा द्वारा छीन लिए गए थे इसलिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक था कि उनके कौन से अधिकार बचे थे और क्या जेल अधिकारियों द्वारा उन्हें मनमाने ढंग से छीना तो नहीं गया था।
- प्रिज़न एक्ट की धारा 56 को हटाया जाना चाहिए (जो बेड़ियों के लिए किसी भी प्रकार के लोहे के उपयोग की अनुमति देता है, इससे जेल अधिकारियों को कैदियों के साथ भेदभाव करने की मनमानी शक्ति मिलती है) क्योंकि यह कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 14 का उल्लंघन करता है।
प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट)
- राज्य ने तर्क दिया कि प्रिज़न एक्ट की धारा 30(2) में कैदियों की सुरक्षा के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है और अधिकारियों को दोष देने के बजाय, अदालत को इस धारा को अधिक विस्तृत परिभाषा देनी चाहिए ताकि क़ैदियों के अमानवीय व्यवहार को रोका जा सके।
- प्रतिवादी पक्ष ने यह भी तर्क दिया कि चाहे कैदियों को भारत के कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है या नहीं, लेकिन कानून के अनुसार राज्य के पास अभी भी कैदियों की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की शक्ति है। यह इस संभावना के कारण है कि अगर कैदियों को अलग नहीं रखा गया तो वह खुद को या किसी अन्य कैदी को नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर सकते है। राज्य ने तर्क दिया कि यही कारण है कि अदालत द्वारा प्रिज़न एक्ट की धारा 30(2) को बरकरार रखा जाना चाहिए। प्रतिवादी पक्ष ने यह भी तर्क दिया कि मौत की सजा के तहत एक कैदी की मानसिक स्थिति को देखते हुए, कैदी द्वारा आत्महत्या करने या दूसरों को नुकसान पहुंचाने का प्रयास करने की एक गंभीर संभावना होती है। इस कारण धारा 30 को बरक़रार रखना बहुत आवश्यक है।
- यह भी तर्क दिया गया कि प्रिज़न एक्ट की धारा 46 के अनुसार सुपरिन्टेन्डेन्ट को कैदी की जांच करने और आवश्यक दंड देने का अधिकार है। दूसरे शब्दों में उन्होंने कहा कि प्रेम चंद के साथ जो कुछ भी किया गया वह कानून के तहत उचित था।
फैसला
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 32 में, उसे हस्तक्षेप करने और कैदियों के मौलिक अधिकारों को लागु करने की शक्ति प्राप्त है। अर्थात्, कैदियों को कठोर या अमानवीय व्यवहार से बचाने और हस्तक्षेप करने के लिए यह पूरी तरह से माननीय अदालत के अधिकार के अंतर्गत था। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया गया कि जेल में कैद के दौरान, जेल अधिकारियों को अदालत की स्पष्ट अनुमति या आदेश के बिना उन्हें दंडित करने, कष्ट देने या किसी भी तरह से भेदभाव करने का कोई अधिकार नहीं है। यह अधिकार सिर्फ अदालत के पास था।
इसके अलावा, प्रिज़न एक्ट की धारा 30(2) जो जेल अधिकारियों को एक कैदी को एक अलग सेल में रखने की शक्ति देता है, इस प्रावधान को कैदियों को कष्ट देने का अधिकार या स्वतंत्रता के रूप में नहीं समझना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि कैदी के पास अभी भी जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार है। यह स्पष्ट किया गया कि प्रिज़न एक्ट की धारा 30(2), आर्टिकल 21 का उल्लंघन है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कानून का स्पष्ट समर्थन होने पर ही कैदियों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जा सकता है। इस खंड को बहुत ही मनमाना माना गया, क्योंकि इसमें अलग कारावास की आवश्यकता के संबंध में कुछ भी उजागर नहीं किया गया था।
अदालत ने यह भी पाया कि धारा 30(2), आर्टिकल 14 का उल्लंघन नहीं है, क्योंकि मौत की सजा के तहत कैदियों द्वारा अन्य कैदियों और जेल अधिकारियों को खतरा हो सकता है। ऐसे में उन्हें अलग-अलग सेल में रखना जरूरी समझा गया। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि मौत की सजा के तहत एक कैदी धारा 30(2) के दायरे में नहीं आता है, जब तक अदालत के फैसले के रद्द होने की संभावना है। यदि किसी कैदी को दी गई मौत की सजा अंतिम और अपरिवर्तनीय है, केवल तभी उक्त कैदी को धारा 30(2) के प्रावधानों के तहत एक अलग सेल में रखा जा सकता है।
यह भी कहा गया कि प्रिज़न एक्ट की धारा 56 को अदालत द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए क्योंकि यह बुनियादी मानवीय गरिमा का उल्लंघन है। इसी तरह, इस धारा के तहत सुपरिंटेंडेंट की शक्तियों को भी नियंत्रण में रखना चाहिए। अपमान और अनादर के साथ दोषियों का पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) करना अदालत द्वारा बहुत अच्छे कार्य के रूप में नहीं देखा गया और यह भी माना गया था कि जेल अधिकारियों द्वारा एकांत कारावास की परिभाषा की गलत व्याख्या की गई थी। नतीजतन, अदालत ने माना कि धारा 30 की उपधारा 8 के तहत, ‘एकान्त कारावास’ का मतलब कैदी को किसी अन्य कैदी से बात करने से रोकना है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कैदियों को अन्य कैदियों से एकदम अलग रखा जाए ताकि वह एक दूसरे को देख भी न पायें।
इसके अलावा, प्रिज़न एक्ट की धारा 56 ने सुपरिन्टेन्डेन्ट को कैदियों को लोहे की बेड़ी में बाँधकर रखने पर आवश्यक सावधानी बरतने की शक्ति दी, लेकिन उन्हें ऐसा करने की अनुमति केवल तभी दी गई जब स्थानीय सरकार द्वारा ऐसे आदेशों की विधिवत पुष्टि की गई हो और वे अपने विवेक पर ऐसा नहीं कर सकते हैं। इस विशिष्ट (स्पेसिफिक) मामले में, प्रेम चंद को स्थानीय सरकार की अनुमति के बिना, लोहे की बेड़ी के साथ एक अलग सेल में रखा गया था। नतीजतन, सुपरिन्टेन्डेन्ट अपने कार्यों के लिए ज़िम्मेदार ठहराए गए।
विश्लेषण (एनालिसिस)
हमारे देश के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना सुप्रीम कोर्ट और अन्य सभी सबोर्डिनेट न्यायालयों का कर्तव्य है, और इस कर्त्तव्य का पालन, कैदी और दोषियों के लिए भी होना चाहिए। यह फैसला यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण था कि आर्टिकल 14,19 और 21 क़ैदियों के लिए भी उपलब्ध है। इस मामले ने 1894 के प्रिज़न एक्ट और पंजाब प्रिज़न मैनुअल में सुधार की तत्काल आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला। यह भी स्पष्ट किया गया कि जांच और संतुलन आवश्यक है यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस देश में जेल प्रणाली (सिस्टम) काम करती है और जेल अधिकारियों द्वारा शक्तियों का दुरुपयोग या कोई मनमाना काम नहीं किया जा सकता।
इसने एकान्त कारावास जैसी सामान्य प्रथा को भी उजागर किया और इसकी अमानवीय प्रकृति पर प्रकाश डाला। इस तरह की भयानक घटना के बाद, अदालत ने जिला मजिस्ट्रेट को हर हफ्ते प्रिज़न का दौरा करने का भी निर्देश दिया ताकि वह कैदियों के रहने की स्थिति और पर्यावरण का लगातार सर्वेक्षण कर सकें। सुनील बत्रा की रिट याचिका को स्वीकार करना सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक क्रांतिकारी क़दम था, जिसमें आर्टिकल 32 के उपयोग को और आगे बढ़ाया गया और सुप्रीम कोर्ट के कौशल (स्किल्स) को लोगों के सामने दिखाया गया। साथ ही, सभी राज्य सरकारों को देश भर की जेलों में क्रूरता और यातना को समाप्त करने के लिए आवश्यक कदम उठाने का निर्देश दिया गया।
जेलरों और जेल अधिकारियों की जांच में वृद्धि हुई और उनसे समझौता किए बिना कानून के शासन का पालन करने की उम्मीद की गयी और वे विभिन्न कानूनी प्रावधानों के साथ मिलकर काम करने के लिए बाध्य थे। कैदियों को पूरक (सप्लीमेंट्री) सजा देने पर सख्त प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसके अलावा, इस फैसले ने साधारण दंडात्मक कार्रवाई के बजाय दंड के अधिक सुधारात्मक रूप पर जोर दिया।
निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)
कई अन्य मामलों की तरह इस मामले में जो कानून उजागर हुए, वे ब्रिटिश द्वारा बनाये गए थे जो उस समय के अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के अनुरूप नहीं थे। इस तरह के क़ानून आधुनिक भारत के विकास के लिए बहुत बड़ी बाधा का कारण है इस मामले में यह बात भी उजागर हुई। इस मामले में प्रिज़न सुपरिन्टेन्डेन्ट के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों पर भी ध्यान दिया गया। इसने उन खतरों पर प्रकाश डाला जो कर्तव्य की चूक के कारण हो सकते हैं। कैदियों के लिए पर्याप्त चिकित्सा देखभाल, उचित रहने की स्थिति और अदालत के अधिकारियों तक उनकी पहुंच जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला गया। इसने कैदियों के इलाज में एक महत्वपूर्ण कार्य किया, जिसमें वकीलों को अब से जिला मजिस्ट्रेट, सेशन जज, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट द्वारा साक्षात्कार के दौरों और कैदियों के साथ गोपनीय बातचीत, और जेल में उनके साथ होने वाले व्यवहार के संबंध में नामित (नॉमिनेटेड) किया जाने लगा।