यह लेख Vishal Raghavan द्वारा लिखा गया है, जो लॉसिखो से इन हाउस काउंसल के लिए बिजनेस लॉ में डिप्लोमा कर रहे हैं। इस लेख में वह कर्नाटक प्रिवेंशन ऑफ़ स्लॉटर एंड प्रिजर्वेशन ऑफ़ कैटल बिल, 2020 और कर्नाटक प्रिवेंशन ऑफ़ काऊ स्लॉटर एक्ट, 1964 पर चर्चा करते हैं और बीफ विक्रेताओं पर इसके प्रभाव के बारे में बताते हैं। लेखक इस लेख में यह भी बताते हैं कि मांस की खपत कम करने के लिए लोगों के पास क्या-क्या विकल्प हो सकते हैं। यह लेख Divyansha Saluja द्वारा अनुवादित किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
‘बीफ बैन’ इस समय भारत में सबसे ज्यादा विवाद का विषय है। कुछ ऐसे लोगों का अनुपात (प्रोपोरशन) है जो कसाईखाने (स्लॉटरहॉउस) से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों और कई धार्मिक कारणों की वजह से गो मांस पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध (प्रोहिबिशन) लगाने की मांग कर रहे हैं। हिंदू धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म गायों का पूर्ण सम्मान करते हैं। दूसरी ओर कुछ ऐसे लोगों का अनुपात भी है, जो इस पर प्रतिबंध लगाने से नाखुश हैं क्योंकि वे इस तरह के मांस को बेचने का व्यवसाय करते हैं। इस प्रकार, गो हत्या पर प्रतिबंध लगाने से इन समूहों पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ेगा। भारत एक धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) देश है, जिसके कारण वह हर किसी को अपने धर्म का पालन करने के साथ-साथ उनकी परंपराओं का पालन करने का अधिकार भी देता है, जो उनके धर्मों के अंदर आती हैं और यह हमारे कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 25 से आर्टिकल 28 के तहत उल्लेखित (मेंशंड) मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) में से एक है, और प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है।
10 दिसंबर, 2020 को, भाजपा ने, कर्नाटक प्रिवेंशन ऑफ़ स्लॉटर एंड प्रिजर्वेशन ऑफ़ कैटल बिल, 2020 को पारित (पास) करने का फैसला लिया। इस बिल का मुख्य मकसद यह था कि, 13 साल से अधिक उम्र के भैंसों और अन्य अस्वस्थ मवेशियों (कैटल) को छोड़कर सभी मवेशी वध (कैटल स्लॉटर) पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाना चाहिए। विपक्षी कांग्रेस ने इस बिल को टाल दिया था, इसलिए उस समय, इस बिल को पास नहीं किया जा सका। लेकिन 5 जनवरी 2021 को, कर्नाटक के गवर्नर ने अपनी सहमति से प्रिवेंशन ऑफ़ स्लॉटर एंड प्रिजर्वेशन ऑफ़ कैटल ऑर्डिनेंस, 2020 पारित किया।
अब, मवेशी वध पर प्रतिबंध लगाने वाला यह बिल पहला नहीं है। 2010 में भी इस तरह का बिल पास हुआ था। लेकिन, 2013 में इसे बरख़ास्त कर दिया गया। इस प्रकार, कर्नाटक प्रिवेंशन ऑफ़ काऊ स्लॉटर एक्ट, 1964, कांग्रेस सरकार द्वारा वापस ले लिया गया, जिसमें केवल गाय और भैंस के बछड़ों को मारने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था लेकिन 12 वर्ष से अधिक आयु की भैंसों के लिए, 1964 के एक्ट में दिए गए प्रावधानों के अनुसार, उचित प्राधिकारी (अथॉरिटी) द्वारा अनुमति दी जा सकती है।
2020 के ऑर्डिनेंस और 1964 के एक्ट में क्या अंतर है?
अब, यदि आप 2020 के ऑर्डिनेंस और 1964 के एक्ट (जो पहले लागू किया गया था), को साथ-साथ रखते हैं और दोनों की तुलना करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि नर और मादा दोनों भैंसों को वध के लिए भेजा जा सकता है, लेकिन शर्त यह है कि सबसे पहले, उचित प्राधिकारी से पूर्व अनुमति ली जानी चाहिए। लेकिन 1964 के अधिनियम में 12 वर्ष से अधिक उम्र की भैंसों के साथ-साथ बैलों का भी वध करने की अनुमति दी गई थी।
लेकिन, 2020 के ऑर्डिनेंस में, भैंस ही एकमात्र ऐसे मवेशी हैं जिनका वध तभी किया जा सकता है जब उनकी आयु 13 वर्ष से अधिक हो, जबकि बाकी सभी प्रकार के मवेशियों को बिल द्वारा संरक्षित (प्रोटेक्ट) किया गया है। इसलिए, 1964 के एक्ट की तुलना में, 2020 के ऑर्डिनेंस में, 1 वर्ष की वृद्धि अर्थात 12 से 13 वर्ष की वृद्धि हुई है और 13 साल से कम उम्र की भैंसों का वध अपराध है।
2020 के ऑर्डिनेंस में ‘मवेशी’ शब्द में गाय, गाय का बछड़ा और बैल, और 13 साल से कम उम्र की भैंस शामिल हैं। इस प्रकार, पुराने 1964 के एक्ट की तुलना में 2020 के बिल में मवेशी शब्द में कुछ और चीज़े भी जोड़ी गयीं है। अतः केवल 13 वर्ष से अधिक आयु की भैंस या कोई अन्य मवेशी जो बीमार या अस्वस्थ हैं या राज्य सरकार द्वारा किसी भी एक्सपेरिमेंटेशन में प्रयोग के लिए हत्या की जा सकती है, लेकिन उचित प्राधिकारी से अनुमति लेकर।
क्या गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाना संवैधानिक है (इज़ इट कॉंस्टीटूशनल और लीगल टू बैन कैटल स्लॉटर)?
इस प्रश्न का जवाब हाँ है और, इसका कारण यह है कि कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 48 के अनुसार, राज्य मवेशियों, गाय, बछड़े और अन्य सभी दुधारू (मिल्च) मवेशियों और भार वाहक (ड्रॉट) मवेशियों की हत्या पर रोक लगाता है। आर्टिकल 48, कॉन्स्टिट्यूशन के भाग VI में दिए गए डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पॉलिसी, में से एक है और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स को कोर्ट द्वारा लागु नहीं किया जा सकता है। लेकिन जब, राज्य या केंद्र कानून या नीतियां बना रहे होते हैं, तो उन्हें इन डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स से परामर्श (कंसलटेन्स) लेना चाहिए और मार्गदर्शक (गाइडिंग) सिद्धांतों के रूप में उपयोग करना चाहिए। इसलिए, भले ही कोई व्यक्ति अदालत में नहीं जा सकता यदि इनमें से किसी भी डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स का उल्लंघन किया जाता है, लेकिन सरकार को यह देखना चाहिए कि नीतियां बनाते समय इन प्रिंसिपल्स का उपयोग मार्गदर्शन के तौर पर किया जा रहा है या नहीं।
हमारे कॉन्स्टिट्यूशन ने विधायी (लेजिस्लेटिव) शक्तियों को तीन लिस्ट में बांटा है – 1) यूनियन लिस्ट, 2) स्टेट लिस्ट, 3) कॉन्कररेंट लिस्ट। यूनियन लिस्ट में जैसे रेलवे और 97 अन्य विषय शामिल हैं। कॉन्कररेंट लिस्ट में 47 विषय शामिल हैं, जहां सेंटर और स्टेट दोनों मिलकर कानून बना सकते हैं, जैसे शिक्षा और अन्य विषयों पर और फिर, स्टेट लिस्ट में 66 विषय शामिल हैं, जैसे शराब और अन्य के प्रावधान।
स्टेट लिस्ट में 14वीं और 15वीं एंट्री में कृषि और पशुधन (लाइव्स्टाक) का संरक्षण भी शामिल है। इसलिए, प्रत्येक राज्य का अपने लिए नियम और कानून बनाना, पूरी तरह से क़ानूनी प्रक्रिया है, ठीक उसी तरह जैसे प्रत्येक राज्य में शराब कानून अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए– गोवा, राजस्थान और कर्नाटक में शराब पीने की उचित आयु 18 वर्ष है, जबकि असम, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और ओडिशा में इसकी आयु 21 वर्ष है और महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में इसकी आयु 25 वर्ष है। इस प्रकार, प्रत्येक राज्य को कानून और नीतियां बनाने का अधिकार है, जो उनकी आवश्यकताओं के अनुसार सबसे अच्छा है।
क्या बीफ व्यापारियों पर प्रतिबंध का असर होगा (विल द बैन इम्पैक्ट बीफ ट्रेडर्स) ?
बीफ पर पूर्ण प्रतिबंध का, बीफ व्यापारियों पर गंभीर असर पड़ेगा। चूंकि गो मांस, भोजन के सस्ते स्रोतों में से एक है। इसका सेवन करने वाले कई निम्न (लो) और मध्यम आय वाले परिवार बहुत बुरी तरह प्रभावित होंगे। इस प्रतिबंध से, व्यापारियों के साथ-साथ गो मांस का सेवन करने वालों के सस्ते भोजन का स्रोत भी बंद हो जाएगा। साथ ही धार्मिक भेदभाव के दावे भी होंगे।
इस उद्योग के व्यापारी कई पीढ़ियों से इस क्षेत्र में काम करते आ कर रहे हैं, और उनके दादा और यहाँ तक कि परदादा ने अपने और अपने परिवार के लिए, जीविका कमाने के लिए इस व्यवसाय को शुरू किया था।
2020 के ऑर्डिनेंस के अनुसार, केवल 13 वर्ष से अधिक आयु की भैंस की हत्या, उचित प्राधिकारी से अनुमति लेकर की जा सकती है और अन्य प्रकार के मवेशियों की हत्या केवल उनके बीमार या अस्वस्थ होने पर ही की जा सकती है। इस वजह से, बीफ की सप्लाई कम होगी, लेकिन डिमांड वही रहेगी। अन्य प्रकार के मवेशियों की हत्या पर प्रतिबंध लगने के कारण, प्रतिबंध लगने से पहले के दामों की तुलना में अब बीफ के दाम बढ़ सकते हैं।
मांस व्यापारियों का कार्य वातावरण और स्वास्थ्य (वर्क एनवायरमेंट एंड हेल्थ ऑफ मीट ट्रेडर्स)
इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन के बाद से, कई नई तकनीकों और मशीनों का आविष्कार हुआ। तो, उत्पादन (प्रोडक्शन) बढ़ाने के लिए पशुधन में मौजूद रसायनों (केमिकल्स) का उपयोग होने लगा, क्योंकि इसमें लागत (एक्सपेंसेस) कम और उत्पादकों को मुनाफा ज्यादा होता है। मांस के तेजी से विकास और आकार को बढ़ाने के लिए, पशुओं में एंटीबायोटिक्स और ग्रोथ हार्मोन इंजेक्ट किए जाने लगे।
व्यापारी इन जानवरों और पक्षियों को कम जगह में रखते हैं और वहां मल मूत्र की सफाई नहीं की जाती, मांस की दुकानों को स्वच्छ रखने के लिए कुछ नहीं किया जाता है। इसी कारण से, न केवल मांस की गुणवत्ता (क्वालिटी) बल्कि व्यापारियों का स्वास्थ्य भी खराब होता है। व्यापारियों को तीव्र (अक्यूट) और स्थायी (क्रॉनिक) फेफड़ों की बीमारियां, न्यूरोबिहेवियरल और अन्य संक्रमण हो सकते हैं, जो जानवरों से मनुष्यों में आते हैं, जैसे कि ट्यूबरकुलोसिस और कई अन्य बीमारियां भी फैल सकती है।
पशु/पक्षियों से मनुष्यों को होने वाले रोग
कुख्यात कोविड-19 या कोरोना वायरस, जिसकी वजह से पूरी दुनिया में 1 साल के लिए लॉकडाउन लगा रहा और अभी भी यह हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस वायरस के कारण कई लोगों की जान चली गई। इस प्रकार के वायरस जूनोटिक डिसीसेस या जूनोसिस की श्रेणी (कैटेगरी) में आते हैं। यह एक तरह की बीमारी है जो जानवरों से इंसानों में फैली है। इसमें इबोला वायरस और साल्मोनेलोसिस भी शामिल है।
इस प्रकार की बीमारियाँ गहन पशुपालन (इंटेंसिव एनिमल फार्मिंग) के कारण होती हैं। ऐसे जानवरों के जैविक चक्र (लाइफ साइकिल) को रसायनों के उपयोग से बदल दिया जाता है। उन्हें प्राकृतिक भोजन या पर्यावरण प्रदान नहीं किया जाता। पशुओं को केवल आप्रकृतिक भोजन और रसायन दिए जाते हैं।
मांस की दुकानों में पशुओं के मल मूत्र संबंधी मामलों पर भी ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसे मल मूत्र के घोल (स्लरी) से मीथेन नामक गैस फैलती है। इस घोल का उपयोग खाद के रूप में किया जाता है और जब इसका उपयोग किया जाता है तो यह भूमि, जल और वायु को प्रदूषित करती है। नाइट्रस ऑक्साइड नामक गैस भी फैलती है जिससे भूमि और पानी का नाइट्रोजन प्रदूषण और अन्य श्वसन (रेस्पिरेटरी) संबंधित रोग होते हैं।
फ़ैक्टरी फ़ार्म में पशुधन की स्थिति या ‘कुकीज़ आउट ऑफ फ़ैक्टरी ओवन’
कसाईखानों में जानवरों और पक्षियों का रख रखाव से जुड़े कार्य जैसे उनका खाना, पानी और बिजली का इस्तेमाल आदि फैक्ट्री में किया जाता है, जहाँ जगह की कमी होती है। जानवरों और पक्षियों को ऐसी जगहों पर रखा जाता है, जहाँ वे ठीक से चल भी नहीं सकते और न ही उन्हें उचित धूप मिल पाती है।
फैक्ट्री फार्मिंग या गहन पशुपालन, अब अरबों डॉलर के बड़े उद्योगों में से एक बन चुका है, और यह इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन के युग के शुरू होने से हुआ है, जहां एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग करके थोक में मांस का उत्पादन किया जाता है। अब इस तरह के रसायनों का उपयोग करके, मांस और अंडे को उनके मूल जैविक चक्र द्वारा बहुत अधिक तेजी से और भारी मात्रा में उत्पादित किया जा सकता है। ऐसे मांस का सेवन करने के बाद पशुओं में डाले गए हानिकारक रसायन हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं, जिससे मनुष्य में कई तरह की बीमारियां होती हैं।
कसाईखानों में मवेशियों के सींग पूरी तरह से काट दिए जाते हैं ताकि अगर किसी मवेशी के बीच लड़ाई हो जाए तो वे अपने सींगों के इस्तेमाल से किसी अन्य मवेशी को नुकसान न पहुंचाएं। मवेशियों को जो चारा दिया जाता है उसमें एंटीबायोटिक्स, विटामिन, फैट और अन्य रसायन मौजूद होते हैं, जो तेजी से उनके विकास में मदद करते हैं लेकिन इस प्रकार के रसायनों से, उनका स्वास्थ्य खराब होता है और वह रोगग्रस्त हो जाते है।
1900 के दशक में, एक मुर्गी (एक वयस्क (ऐडल्ट) मादा मुर्गी) प्रति वर्ष 83 अंडे देती थे। जबकि वर्ष 2000 में प्रति मुर्गी की अंडे देने की संख्या बढ़कर 300 हो गई है और यह वृद्धि हार्मोन के उपयोग करने से हुई है। यू. एस. ए. में छोटे खेतों को उद्योगों द्वारा खरीद लिया गया था, जिन्हें बाद में फैक्ट्री फार्म में परिवर्तित कर दिया गया। यहां वही किसान काम करते हैं और मजदूरी के बदले उन्हें अच्छा वेतन (वेज) दिया जाता है।
विशेषज्ञों (एक्सपर्ट्स) द्वारा यह पाया गया है कि, कसाईखानों में पशुओं के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और वे सुरक्षित पर्यावरण (एनवायरनमेंट) प्रोटोकॉल का पालन भी नहीं करते। यू. एस. ए. और कई अन्य देशों में मुर्गियों के संदर्भ में, आमतौर पर जबरन निर्मोचन (फोर्स्ड मोल्टिंग) का अभ्यास किया जाता है। यह एक प्रक्रिया है, जब मुर्गियां कम अंडे देती हैं, तो उन्हें इस जानलेवा अमानवीय (इन्ह्यूमन) प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। जहां उन्हें अप्राकृतिक धूप में रखा जाता है और भोजन भी नहीं दिया जाता जिससे कि वह अधिक अंडे पैदा कर सकें। इसलिए ऐसे अंडों का सेवन करने के बाद भी, मनुष्य को पोषण संबंधी कोई लाभ नहीं होता। इसके अलावा, क्योंकि ये पशुधन ‘कुकीज़ आउट ऑफ़ फ़ैक्टरी ओवन’ की तरह उत्पादित होते हैं, इसलिए इनकी सप्लाई बहुत अधिक होती है और डिमांड भी अधिक होती है, जिस वजह से इनकी, कीमत बहुत सस्ती होती है। तो, ऐसे उत्पाद खाने का क्या फायदा है, जो सस्ता तो है और विज्ञान भी कहता है कि यह स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है, लेकिन सच्चाई यह है कि हमें जो मिल रहा है वह सिर्फ फैक्ट्री फॉर्म में उत्पादित मांस है जिसमें हानिकारक रसायनों को इंजेक्ट किया गया है, जिसे यदि प्री इंडस्ट्रियल एरा की तुलना में देखा जाए, जहां मुर्गियां और मवेशी एक किसान की भूमि में खुले घूमते थे और उन्हें भोजन के रूप में रासायनिक मुक्त चारा दिया जाता था, इसलिए वह मनुष्य के लिए हानिकारक नहीं होता था।
यू.एस.ए. में, एफ.डी.ए. की रिपोर्ट के अनुसार, बाजार में बिकने वाले सभी एंटीबायोटिक दवाओं का 80 प्रतिशत, उपयोग पशुधन में इंजेक्ट करने के लिए किया जाता है। यह रिपोर्ट 2009 की थी और इस एक दशक के भीतर, बढ़ती आबादी और भोजन की खपत (कंसम्पशन) के कारण यह संख्या आसमान छू गई होगी।
पर्यावरणीय प्रभाव (एनवायरमेंटल इंपैक्ट)
फैक्ट्री फार्मिंग, विश्व स्तर पर सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन (इमिट) करने वाले उद्योगों के अंदर आती है। हम, कारों, प्लास्टिक, जीवाश्म ईंधन (फॉसिल फ्यूल) से हुए प्रदूषण के बारे में बात करते हैं, लेकिन फैक्ट्री फार्म से होने वाले प्रदूषण की मात्रा को हमेशा नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में पशु कृषि (एनिमल एग्रीकल्चर) का योगदान 18 प्रतिशत है, जो इसे ग्लोबल वार्मिंग में सबसे बड़ा एकमात्र कारक बनाता है। यह पूरे परिवहन (ट्रांसपोर्ट) उद्योग को कार्बन फुटप्रिंट में भी पीछे छोड़ देता है।
कसाईखाने, पर्यावरण प्रदूषण में तीन तरह से योगदान देते हैं। आइए इसे हम ‘एक ग्रह (प्लैनेट) को प्रदूषित करने के लिए तीन-गुना प्रणाली’ कहते हैं-
पहला, दूषित जल (वेस्ट वॉटर)- जल जीवन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है और इसीलिए इसे जीवन का अमृत कहा जाता है। जल, खपत और सफाई के लिए आवश्यक है। कसाईखाने, बड़ी मात्रा में जल का उपयोग करते हैं और उपयोग के बाद ऐसे पानी को बिना उपचार के ही सीधे जल निकायों (बॉडी) में छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार, जल प्रदूषण के कारण मनुष्य के साथ-साथ अन्य जीव भी प्रभावित होते हैं। ऐसे दूषित जल में नाइट्रोजन, अमोनिया और फास्फोरस जैसे हानिकारक रसायन मौजूद होते हैं। पानी में नाइट्रेट की अधिक मात्रा से नाइट्रेट प्रदूषण होता है, जिससे सभी जीवित प्राणियों को प्रभावित करने वाली कई बीमारियां हो सकती है।
दूसरा, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करना- फैक्ट्री अपने संस्थान (इंस्टिट्यूट), मशीनरी और परिवहन को चलाने के लिए बिजली और ईंधन का उपयोग करती है, जिसकी वजह से कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है ‘गो ग्रीन एंड सेव द प्लैनेट’ वाक्यांश को अनदेखा कर दिया जाता है या भुला दिया जाता है।
तीसरा, डिस्पोज़ल- दूषित जल न केवल सीधे जल निकायों में बल्कि भूमि में भी छोड़ा जाता है। इस दूषित जल का उपयोग खेतों में सिंचाई (इरीगेशन) करने के लिए किया जाता है। जिसकी वजह से, उपज भूमि दूषित हो जाती है और जिसके परिणामस्वरूप, ऐसी भूमि पर उगाए गए पौधे या फसलें अस्वास्थ्यकर (अन्हेल्थी) या जहरीली उपज पैदा करती हैं।
मवेशी और चमड़ा उद्योग के आयात/निर्यात पर क्या प्रभाव पड़ा (व्हाट अबाउट एक्सपोर्ट/इंपोर्ट ऑफ कैटल एंड लेदर इंडस्ट्रीज)?
भारत, मवेशियों के निर्यात (एक्सपोर्ट) के साथ-साथ उनका आयात (इंपोर्ट) भी करता है। भारत में कुछ ऐसे रेस्टोरेंट हैं जो अपने मेनू में आयातित गो मांस प्रदान करते हैं और विदेशी भूमि में भारतीय मवेशियों की मांग बहुत अधिक है। इसलिए सरकार को मवेशियों के आयात/निर्यात पर रोक लगानी चाहिए।
इसके अलावा, चमड़ा उद्योग एक बहुत विशाल उद्योग है। अमीर लोग चमड़े के सामान खरीदते हैं जो बहुत महंगे होते हैं, लेकिन चमड़ा लेने के लिए जानवरों का शोषण किया जाता है। इन उद्योगों का दावा है कि वे सिर्फ जानवरों की त्वचा के लिए उन्हें नहीं मारते हैं बल्कि वे जानवरों से चमड़ा लेते हैं जो जैविक (बायोलॉजिकल) कारणों से मर जाते हैं या बीमार होने के कारण मार दिए जाते हैं। जबकि इस उद्योग के आलोचकों (क्रिटिक) का कहना है कि यह असत्य है और वे जानवरों को मारते हैं चाहे वे बीमार हों या नहीं।
इन कारणों की वजह से, पर्यावरण क्षरण (डिग्रेडेशन) के खतरे को रोकने के लिए भारतीय सरकार को न केवल मवेशी हत्या पर बल्कि चमड़ा उद्योगों और मवेशियों के आयात/निर्यात पर भी प्रतिबंध लगाना चाहिए।
ऐसे व्यवसाय जो उन्नत तकनीकों के कारण बुरी तरह प्रभावित हुए लेकिन एक नए व्यवसाय की ओर अग्रसर हुए (बिज़नेसेज़ व्हिच गॉट हिट बेडली ड्यू टू एडवांसिंग टेक्नोलॉजीस बट हस्टल्ड टू ए न्यूअर बिज़नेस )
क्या आप जानते हैं कि पहला कैमरा कैसा दिखता था? उस समय में कैमरा एक अँधेरे काळा कमरे म रखा जाता था, जहाँ कमरे से खींचे गए चित्र उलटे और प्रतिबिम्बित (रिफ्लेक्ट) नजर आते थ। धीरे-धीरे, यह एक कॉम्पैक्ट बॉक्स के ढांचे के रूप में अपग्रेड हो गया, और फिर रंगीन छवियों के साथ इसका अपग्रेड आया। इस प्रकार, फोटोग्राफी व्यवसाय फलफूल गया। लेकिन जैसे-जैसे तकनीक आगे बढ़ रही है, इंसानों के द्वारा किए जाने वाले कार्यों का इस्तेमाल कम होता जा रहा है। 90 के दशक में फिल्म रोल के साथ पोर्टेबल कैमरों की तुलना में अब, कैमरों को बहुत हल्का और कॉम्पैक्ट संस्करणों में अपग्रेड किया गया है और फिर डिजिटल युग आने से, कैमरों में डिजिटल स्क्रीन का आविष्कार किया गया, जिसमें हम छोटे 1.5-2-इंच एस.डी. कार्ड में चित्रों को सहेज कर रख सकते हैं। इस वजह से, उन चित्रों को प्रिंट करने के लिए, फोटो स्टूडियो में जाने की आवश्यकता लगभग अप्रचलित (ओब्सोलीट) हो गई है और फोटोग्राफी स्टूडियो उद्योग को भारी नुकसान झेलना पड़ा, लेकिन फोटोग्राफी उद्योग ने व्यवसाय का एक और क्षेत्र ढूंढ लिया और खुद को उन्नत किया है। आज-कल के समय में, फोटोग्राफर, ड्रोन और हाई एंड डी.एस.एल.आर. का उपयोग, शादी के अनोखे शॉट या जंगल के बीच बाघ की सामान्य झलक पाने के लिए कर रहे हैं। डिजिटल फोटो फ्रेम और रेगुलर फोटो एलबम का उपयोग भी इस उद्योग में शामिल है।
दूसरा उदाहरण: कॉम्पैक्ट- ऑफिस और होम प्रिंटर के आविष्कार के साथ फोटोकॉपी शॉप पर जाने की आवश्यकता, एक दशक पहले की तुलना में कम हो गई। एक होम प्रिंटर का उपयोग लगभग एक दशक या उससे भी अधिक समय तक के लिए किया जा सकता है यदि इसे पर्याप्त देखभाल के साथ रखा जाए तो। इसके अलावा, स्याही आजकल बहुत सस्ती हो गयी है। इसलिए, अब फोटोकॉपी व्यवसाय इसलिए चल रहा है, क्योंकि ग्राहकों के पास प्रिंट करने के लिए पेजेस बड़ी मात्रा में है या उन्हें तुरंत किसी प्रिंट की आवश्यकता हो और उनके पास घर या कार्यालय में प्रिंटर न हो।
समाधान क्या हो सकता है (व्हाट्स द सोल्युशन)?
अंग्रेजी में एक कहावत होती है- “विद क्राइसिस कम्स द ओप्पर्टूनिटी” जिसका अर्थ है, संकट के साथ अवसर आता है। उपरोक्त दो उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि, पिछले कुछ समय में, उन्नत तकनीको या पर्यावरणीय कारणों से कई उद्योग बंद हुए हैं, लेकिन वे तब भी आगे बढ़े और अधिक लाभ और पर्यावरणीय स्थिरता (सस्टेनेबिलिटी) के साथ एक नए व्यवसाय को विकसित किया। व्यवसायों को परिस्थितियों के मुताबिक चलना चाहिए और उसके अनुसार ही अपने आप को विकसित करना चाहिए।
मांस का एक विकल्प कल्चर्ड मीट है जिसके कई पर्यायवाची शब्द हैं, जैसे मांसहीन मांस, हत्या मुक्त मांस, लैब में बनाया गया मांस आदि। मूल रूप से, यह मांस जानवरों से सेलुलर एग्रीकल्चर के द्वारा लैब में बनाया जाता है। सेलुलर एग्रीकल्चर एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें किसी भी पशु या पक्षी को बिना कोई नुकसान पहुँचाए, जीवित पशु स्टेम सैल्स पर विभिन्न वैज्ञानिक (साइंटिफिक) विधियों का उपयोग करके कृषि उत्पादों का उत्पादन किया जाता है। इस प्रकार, इसका नाम लैब में बनाया गया मांस (लैब ग्रोन मीट) पड़ा।
सोया मांस और लैब में बनाए गए मांस में बहुत बड़ा अंतर है। सोया मांस पौधों के प्रोटीन से निकाला जाता है, जबकि लैब में बनाए गए मांस को जीवित जानवरों, को बिना कोई नुकसान पहुंचाए, उनके स्टेम सेल से बनाया जाता है।
2013 में, डॉ मार्क पोस्ट, जो कि मास्ट्रिच विश्वविद्यालय में एक फार्माकोलॉजिस्ट और प्रोफेसर है, उन्होंने पहली कल्चरल बीफ बर्गर पैटी बनाई, जो गाय के स्टेम सेल में मौजूद मांसपेशियों के टिश्यू की 20,000 पतली किस्मों (स्ट्रैंड) से बनाई गई थी। लेकिन इसे बनाने की लागत 325,000 अमेरिकी डॉलर यानी कि 23,718,500 रुपये से अधिक थी और इसे बनाने में 2 साल लगे। अभी इसकी कीमत 11 अमेरिकी डॉलर या 804 रुपये है। बर्गर पैटी की समीक्षा (रिव्यू) अच्छी है और इसका स्वाद लगभग हत्या किए गए पशु के मांस के समान ही है, लेकिन थोड़े अंतर के साथ। यदि, एक बार ऐसे मांस को फैक्ट्री में बनाना शुरू कर दिया जाएगा तो इसकी कीमतों में गिरावट आएगी।
कई स्टार्टअप मांसहीन मांस उद्योग में आ गए हैं। अभी, इस उद्योग में सबसे अधिक चलने वाला स्टार्टअप अमेरिका स्थित कंपनी, ‘जस्ट ईट’ है, जिसे सिंगापुर के बाजारों में कल्चर्ड चिकन बेचने की मंजूरी मिली। विश्व स्तर पर यह पहली बार हुआ है कि किसी कल्चर्ड मीट को बाजारों में बिक्री के लिए मंजूरी मिली है।
भारत में, कार्तिक दीक्षित और श्रद्धा भंसाली द्वारा अगस्त 2019 में स्थापित एक नया स्टार्टअप ‘इवो फूड्स‘ है, जो पूरी तरह से पौधे के प्रोटीन से बने शाकाहारी अंडे का उत्पादन करता है। वे भारतीय फलियों से प्रोटीन निकालते हैं और इसमें मुर्गी के अंडे की तरह ही प्रोटीन की मात्रा होती है। एक साल के भीतर ही लोग उनके इस उद्योग से आकर्षित होने लगे। 25 से अधिक रेस्टोरेंट ने शाकाहारी अंडे के व्यंजन को अपनी मेनू में डालने के लिए उनके साथ केटर किया है।
निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)
यह स्पष्ट है कि कसाईखाने और कारखाने की खेती ग्रह को नष्ट कर रहे है। खराब स्वच्छता, जगह की कमी, एंटीबायोटिक दवाओं और हार्मोन का ज्यादा उपयोग, रोग, पर्यावरण प्रदूषण, आदि, इन सब खतरों को नियंत्रित करने की तुरंत आवश्यकता है।
उपरोक्त पैराग्राफ में दी गई जानकारी से, हमें इस खतरे का समाधान भी मिल गया है। यदि हम अभी कोई सख़्त कदम नहीं उठाते तो बहुत देर हो जाएगी और हम स्वयं अपने इस ग्रह को नष्ट कर देंगे। पर्यावरणीय मामलों से निपटने के दौरान, धर्म और व्यक्तिगत (पर्सनल) विकल्पों को पहले नहीं आना चाहिए। हमें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि हमें ग्रह को पहले रखना है। इलेक्ट्रिक ट्रांसपोर्ट अब एक प्रचलन (ट्रेंड) बन गया है और कई सरकारों ने इस मामले में पहल की हैं लेकिन कसाईखानों के लिए अभी तक ऐसी कोई नीति नहीं है। जब तक कि कल्चर्ड मीट भारतीय बाजार में नहीं आ जाता और लोग इसे बढ़ावा नहीं देते, तब तक सरकार को ऐसे बीफ व्यापारियों को मासिक भुगतान की तरह प्रोत्साहन देना चाहिए जिससे उन्हें कम से कम कुछ राहत मिलेगी।
हमारे पास मांस रहित मांस और सोया मांस का समाधान है, और यह उद्योग भी फलफूल रहे है। तो क्यों न इसका उपयोग करें और ग्रह को बचाएं और कार्बन फुटप्रिंट को कम करें और ग्रह को सुरक्षित रखें। बेशक, अभी यह उद्योग अभी-अभी शुरू हुए हैं है लेकिन धीरे-धीरे इसे सभी नए आविष्कारों की तरह कर्षण मिलेगा।
न तो यह लेख और न ही मैं किसी भी धार्मिक प्रथा के विरुद्ध हैं। यह लोगों को उनके कार्यों के बारे में जागरूक करने के लिए है जो पर्यावरण को प्रभावित कर रहे हैं और थोड़ा बदलाव करने का प्रयास करते हैं।
जो शाकाहारी लोग एक शाकाहारी अंडे का व्यंजन (रेसिपी) आज़माना चाहते है वो इस लिंक पर क्लिक करें।
संदर्भ (रेफरेन्सेस)
- Why has Online Alcohol Delivery Taken so Long to Catch On? – Legalease (by WorldWise) (substack.com)