आर्टिकल 124-147: यूनियन जुडिशियरी से संबंधित कांस्टीट्यूशनल प्रोविजन्स का विश्लेषण

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Indian Constitution 1950
Image Source- https://bit.ly/2UTkLU4

यह लेख इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज की छात्रा,  Shubhnagi Upmanya द्वारा लिखा गया है। इसमें वह यूनियन जुडिशियरी और उससे संबंधित आर्टिकल्स पर चर्चा करती हैं। यह लेख Divyansha Saluja द्वारा अनुवादित किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

प्राचीन काल में, जब कोई व्यक्ति, गलत कार्य करता था, तो यह कर्तव्य राजा का होता था, कि वह अपराधी को दंडित करें जिससे कि पीड़ित को राहत मिले। कॉन्स्टिट्यूशन के लागू होने के बाद, राजा के इस कर्तव्य को जुडिशियरी द्वारा अपना लिया गया, जबकि अन्य कार्य जैसे कानून बनाना और उन्हें लागू करना लेजिस्लेचर और एक्ज़ीक्युटिव द्वारा अपना लिए गए।

प्रणाली (सिस्टम )में पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) और निष्पक्षता (फेयरनेस), सुनिश्चित करने के लिए कॉन्स्टिट्यूशन मेकर्स ने, इन तीनों अंगों को एक दूसरे से स्वतंत्र रखा है। जुडिशियरी, कॉन्स्टिट्यूशन के संरक्षक (गार्जियन) के रूप में कार्य करता है, अधिकारों की मुख्य व्याख्याकार (इंटरप्रेटर) के नाम से भी जाना जाता है। यह लेजिस्लेचर और एक्ज़ीक्युटिव पर भी जाँच के आदेश दे सकता है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह अपने अधिकारों के दायरे से बाहर कार्य ना कर रहे हो। कॉन्स्टिट्यूशन यह सुनिश्चित करता है कि, जुडिशियरी सभी परिस्थितियों में एक समान बनी रहे।

भारत में, जुडिशियरी के विभिन्न स्तर मौजूद हैं, जो केंद्रीय, राज्य और जिला स्तर पर कार्य करते हैं।  कॉन्स्टिट्यूशन के भाग V में, अध्याय IV, यूनियन जुडिशियरी से संबंधित है और इसमें सुप्रीम कोर्ट शामिल है। इस लेख में, हम यूनियन जुडिशियरी का विश्लेषण करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट – कॉन्स्टिट्यूशन का संरक्षक

फेडरेशन के विभिन्न अंगों के बीच विरोध उत्पन्न हो सकता है, और यहां से सुप्रीम कोर्ट का कार्य शुरू होता है। यह सर्वोच्च प्राधिकारी (अथॉरिटी) और कानून का मुख्य व्याख्याकार है, जिसका अर्थ है कि उसके पास कानून के सभी मामलों पर अंतिम और सर्वश्रेष्ठ निर्णय देने का अधिकार है। इसके निर्णय से सभी निचले न्यायालय बाध्य होते हैं। इसके पास जुडिशियल रिव्यू की शक्ति है, जिसके माध्यम से यह लेजिस्लेचर और एक्ज़ीक्युटिव के कार्यों को रिव्यू कर सकता है।

आइए आर्टिकल 124 को देखें और इसके अर्थ को समझें।

कॉन्स्टिट्यूशन का आर्टिकल 124,

  1. इस आर्टिकल के पहले भाग में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के बारे में बताया गया है, जो भारत के एक  मुख्य न्यायाधीश (चीफ जस्टिस) और केवल सात जज से मिलकर बनता है, जब तक कि संसद (पार्लियामेंट), कानून द्वारा और न्यायाधीशों को निर्धारित नहीं करती।
  2. इस आर्टिकल के दूसरे भाग में यह कहा गया है कि, भारत के मुख्य न्यायाधीश को, अन्य न्यायाधीशों से परामर्श करने के बाद राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा, जिन्हें वह उपयुक्त समझते हैं और वह जज 65 वर्ष तक की आयु तक अपने पद पर रह सकते हैं। जबकि, राष्ट्रपति को अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय मुख्य न्यायाधीश की राय को ध्यान में रखना होगा।
  • इस आर्टिकल का भाग 2(a) यह कहता है कि, एक न्यायाधीश, राष्ट्रपति को इस्तीफा पत्र देकर अपने पद से इस्तीफा दे सकता है जबकि,
  • इस आर्टिकल के भाग 2(b) में यह कहा गया है कि, न्यायाधीश को क्लॉज़ (4) के अंतर्गत दिए गए  प्रावधान (प्रोविजन) के तहत हटाया जा सकता है।

हम आने वाले विषयों के तहत इस आर्टिकल के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे।

भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट ऑफ  चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया)

आर्टिकल 124(2) के अनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति (अपॉइंटमेंट), राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और नियुक्ति करने के लिए राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों से परामर्श करते हैं। राष्ट्रपति के पास इस संबंध में वारंट भी होना चाहिए।

मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के प्रावधान में, समय-समय पर उचित बदलाव आए हैं।

इस लेख में हम उन बदलावों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।

न्यायालय की संरचना (कंपोजीशन ऑफ द कोर्ट)

आर्टिकल 124(2) के अनुसार, पहले न्यायाधीशों की संख्या केवल 7 तक सीमित थी, लेकिन संसद ने कानून द्वारा, इस संख्या को निर्धारित और संशोधित किया है और अब, न्यायाधीशों की संख्या को बढ़ाकर 31 कर दिया गया है, जिसमें 30 न्यायाधीश और 1, भारत के मुख्य न्यायाधीश होते हैं।

यह एक उद्देश्य के साथ किया गया था कि, 7 न्यायाधीश, जुडिशियरी के कार्य के लिए पर्याप्त नहीं थे। निपुणता (एफिशिएंसी) से कार्य करने के लिए, न्यायाधीशों की संख्या बढ़ानी जरूरी थी अन्यथा स्थिति ऐसी हो जाती की, न्यायालय में मामले बढ़ते रहते और अन्याय के दृश्य अधिक हो जाते।

न्यायाधीशों की नियुक्ति- संविधान के 99वें संशोधन से पहले की स्थिति (अप्वाइंटमेंट आफ जजेस- पोजीशन बिफोर 99 अमेंडमेंट ऑफ द कॉन्स्टिट्यूशन)

कॉन्स्टिट्यूशन के लागू होने के बाद, न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में परंपरा यह थी कि, सबसे वरिष्ठ (सीनियर- मोस्ट) न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में चुना जाता था और दूसरी तरफ भारत के राष्ट्रपति को,  मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट के कुछ अन्य न्यायाधीशों के साथ परामर्श करना होता था और फिर इन दोनों न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति होती थी।

कुछ वर्षों के बाद, यह परंपरा हटा दी गई और न्यायाधीशों का चयन उनकी योग्यता के अनुसार किया गया न कि उनकी वरिष्ठता के अनुसार।

उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि, एक न्यायाधीश है और उनके ऊपर 3 वरिष्ठ न्यायाधीश हैं, लेकिन राष्ट्रपति को लगता है कि वह भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद को संभालने में अधिक सक्षम नहीं है। इसलिए, वरिष्ठता के आधार को न बनाकर, वह उन 3 न्यायाधीशों की जगह उन्हें नियुक्त करेंगे।

इस संशोधन ने, वरिष्ठतम न्यायाधीशों को अपने पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया क्योंकि मुख्य न्यायाधीश के पद पर प्रमोशन उनका एकमात्र उद्देश्य था और उस पद पर किसी जूनियर न्यायाधीश का प्रमोशन होना उनके लिए किसी अनादर से कम न था।

खैर, यह प्रथा भी हटा दी गई और नई सरकार आने से, चयन की पुरानी प्रक्रिया जो की वरिष्ठता के आधार पर थी, वह वापस आ गई और अब फिर से वरिष्ठता के आधार पर प्रमोशन किया जाता है। लेकिन विवाद यहां खत्म नहीं हुए, क्योंकि अब जुडिशियरी की स्वतंत्रता पर सवाल उठने लगे।

जिसके बाद 3 मामलों के ऊपर निर्णय लिया गया, जिसके कारण कॉलेजियम की व्यवस्था जो, आज अस्तित्व में है, की शुरुवात हुई

अब हम इन तीनों मामलों का विश्लेषण करेंगे।

सुप्रीमेसी ऑफ एक्ज़ीक्युटिव

[जजेस ट्रांसफर केस I] 

जजेस ट्रांसफर केस I को, एस.पी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के नाम से भी जाना जाता है।

इस मामले में यह निर्णय लिया गया कि, जब भी विभिन्न कांस्टीट्यूशनल एजेंसियों के बीच कोई मुद्दा होगा, तो उस स्थिति में केंद्र सरकार का निर्णय मान्य होगा और सरकार यह चुनेगी कि कांस्टीट्यूशनल एजेंसी के किस दृष्टिकोण को ध्यान में रखा जाना चाहिए। जबकि, जब सुप्रीम कोर्ट के जजेस की नियुक्ति से संबंधित कोई मामला होगा और अगर भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय सहमति में नहीं होगी, तो अंतिम निर्णय सरकार का  होगा।

जहां तक ​​आर्टिकल 124(2) में, ‘मे’ शब्द का संबंध है, तो कोर्ट ने कहा कि इसका तात्पर्य केवल यह निर्णय लेना है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजेज की नियुक्ति करते समय, किस न्यायाधीश से परामर्श किया जाना चाहिए, जबकि यह सरकार को न्यायाधीशों की राय पर विचार करने का विकल्प नहीं देता।

इस मामले में, एक्ज़ीक्युटिव की सुप्रीमेसी को बनाए रखा गया था।

जुडिशियल सुप्रीमेसी

[जजेस ट्रांसफर केस II]

जजेस ट्रांसफर केस II को, सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के नाम से भी जाना जाता है।

फर्स्ट जज केस में जो व्यवस्था निर्धारित की गई थी, उससे कई समस्याएं उत्पन्न हुईं। आइए एक उदाहरण से समझते हैं – जब भारत के मुख्य न्यायाधीश को अपनी राय देने के लिए कहा गया, तो उन्होंने वरिष्ठ न्यायाधीशों को मौका दिए बिना, एक जूनियर न्यायाधीश को सी.जे.आई. का पद लेने का मौका दिया।

इसलिए, यह निर्णय लिया गया कि, सुप्रीम कोर्ट के लिए एक कॉलेजियम प्रणाली होनी चाहिए, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होंगे और निर्णय लेते समय (कि सी.जे.आई. का पद कौन लेगा) कॉलेजियम के दोनों न्यायाधीश अपनी राय देंगे और सी.जे.आई को इसे ध्यान में रखना होगा। उसके बाद, कॉलेजियम का फैसला राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए जाएगा। जबकि, हाई कोर्ट के लिए, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम न्यायाधीश होंगे, और उस पर कॉलेजियम की प्रक्रिया, सुप्रीम कोर्ट के समान ही होगी।

वास्तव में इस मामले में यह हुआ यह था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश कभी-कभी अन्य न्यायाधीशों द्वारा दी गई राय पर विचार नहीं करते थे और स्वयं निर्णय ले लेते थे और राष्ट्रपति की सहमति के लिए इसे पारित कर देते थे।

इस मामले ने, मूल रूप से जुडिशियल सुप्रीमेसी बनाए रखी। इसके अलावा, इसने फर्स्ट जजेस केस के फैसले को खारिज कर दिया और कॉलेजियम प्रणाली के गठन को निर्धारित किया।

कॉलेजियम का विस्तार (एक्सपेंशन ऑफ़ द कॉलेजियम)

[जजेस ट्रांसफर केस III]

जजेस ट्रांसफर केस III को इन रे स्पेशल रेफरेंस केस के नाम से भी जाना जाता है।

जुडिशियल सुप्रीमेसी अस्तित्व में बनी रही। जब भी कॉलेजियम की राय पर विचार नहीं किया जाता था, तब यह सी.जे.आई को स्वीकार्य नहीं था।

यह प्रक्रिया तब तक जारी रही, जब तक कि एक्ज़ीक्युटिव ने सुप्रीम कोर्ट की सलाहकार राय (एडवाइजरी ओपिनियन) के लिए न्यायालय के सामने प्रस्ताव रखा।

साथ ही कोर्ट ने कॉलेजियम में जजों की संख्या दो से बढ़ाकर चार करने का आदेश दिया।

इस मामले ने यह भी खारिज कर दिया कि, सबसे वरिष्ठतम न्यायाधीश सीजेआई का पद ग्रहण करेंगे और जहां तक ​​सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों का सवाल है, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम राष्ट्रपति को सिफारिश करेंगे जिस पर वह अपनी सहमति देंगे।

परामर्श प्रक्रिया का पालन किए बिना भारत के मुख्य न्यायाधीश की एकमात्र राय: सरकार पर बाध्यकारी नहीं (सोल ओपिनियन  ऑफ़  चीफ  जस्टिस  ऑफ़  इंडिया  विथाउट  फोल्लोविंग  कंसल्टेशन  प्रोसेस : नॉट  बाइंडिंग  ऑन गवर्नमेंट) 

जजेज ट्रांसफर केस III ने अपने फैसले के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया कि, जब भी भारत के मुख्य न्यायाधीश कॉलिजियम की राय को ध्यान में ना रखते हुए राष्ट्रपति को अपनी राय बताएंगे,तो उस स्थिति में मुख्य न्यायाधीश की राय को खारिज कर दिया जाएगा, जब तक कि वह कांस्टीट्यूशनल मैंडेट का पालन नहीं करते। .

उदाहरण के लिए, 2018 में, वरिष्ठ एडवोकेट इंदु मल्होत्रा को भारत के मुख्य न्यायाधीश बनाने की राय कॉलिजियम द्वारा दी गई थी, जिसमें जस्टिस दीपक मिश्रा भी शामिल थे। 

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमिशन)

2014 में, 99वें अमेंडमेंट एक्ट द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (कमिशन) की शुरुआत की गई थी। जिसके परिणामस्वरूप, दो अधिनियमों को लागू किया गया था, जिसमें से एक में कॉलेजियम प्रणाली को हटाने और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की शुरूआत के बारे में दिया गया था और दूसरे अधिनियम में प्रक्रिया दी गई थी, जो पहले आर्टिकल में उल्लिखित है। इस अमेंडमेंट एक्ट ने  कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 124A, आर्टिकल 124B और आर्टिकल 124C को प्रस्तुत किया। इसे अगस्त 2014 में संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया था, जबकि इसे दिसंबर 2014 में राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई थी।

इस संशोधन के खिलाफ कई याचिकाएं (पिटिशन) दायर की गईं, और यह तर्क दिया गया की, यह शक्तियों के विभाजन के खिलाफ है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठाता है क्योंकि एक्ज़ीक्युटिव के सदस्यों को भी एन.जे.ए.सी. में शामिल किया गया 

इसके बाद, मामले को पांच-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजा गया, जिसने 4:1 के अनुपात (रेश्यो) से असंवैधानिकता (अनकंस्टीट्यूशनलिटी) के आधार पर  इस अमेंडमेंट एक्ट को रद्द कर दिया।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के प्रावधान (द प्रोविज़न्स ऑफ द नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन) 

[आर्टिकल 124A]

99वें अमेंडमेंट एक्ट ने कॉन्स्टिट्यूशन में एक नया आर्टिकल124A प्रस्तुत किया। इस आर्टिकल में उन सदस्यों का उल्लेख किया गया है जो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग में शामिल होंगे।

इस आर्टिकल के अनुसार, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग में निम्नलिखित लोग शामिल होंगे-

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश
  • सुप्रीम कोर्ट  के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश
  • केंद्रीय कानून मंत्री (यूनियन लॉ मिनिस्टर)
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री और लोकसभा के विपक्ष के नेता द्वारा चयनित, दो प्रतिष्ठित व्यक्ति

दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक सदस्य या तो महिला होगी या अल्पसंख्यक (माइनॉरिटी) वर्ग (सेक्शन) से संबंधित कोई व्यक्ति या पिछड़ा (बैकवर्ड) वर्ग जैसे एस.सी., एस.टी., ओ.बी.सी., आदि से संबंधित कोई व्यक्ति होगा।

उन्हें तीन साल की अवधि के लिए नामांकित (नॉमिनेट) किया जाएगा और 3 साल के बाद उन्हें फिर से नामांकित नहीं किया जा सकता।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के कार्य (फंक्शन्स ऑफ़ द नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन)

[आर्टिकल 124B]

आर्टिकल 124A के साथ, 99वें अमेंडमेंट एक्ट में आर्टिकल 124B को शामिल करने के लिए भी कहा गया था।

इस आर्टिकल में, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एन.जे.ए.सी.) के कार्यों का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार हैं-

  • यह आयोग भारत के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों के पद के लिए लोगों के नामांकन में सलाह देता है।
  • यह आयोग विभिन्न हाई कोर्ट्स के मुख्य न्यायाधीश को एक हाई कोर्ट से दूसरे हाई कोर्ट में स्थानांतरित (ट्रांसफर) करने की भी सलाह देता है।
  • यह पूरी तरह से सुनिश्चित करता है कि केवल वही लोग पदोन्नत (प्रमोट) हों जो इन पदों पर पदोन्नत होने में  काबिल हों।

संसद द्वारा नियंत्रित की जाने वाली नियुक्ति की प्रक्रिया (प्रोसीजर ऑफ अपॉइंटमेंट टू बी रेगुलेटेड बाय द पार्लियामेंट)

[आर्टिकल 124C]

आर्टिकल 124C, इस प्रकार से है:

  • संसद, भारत के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों, या संबंधित हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रावधानों में संशोधन करने के लिए कोई भी कानून बना सकती है।
  • यह आर्टिकल एन.जे.ए.सी. को, एन.जे.ए.सी. के कार्यों को नियंत्रित करने वाले किसी भी कानून, पद के लिए लोगों के चयन करने के लिए या एन.जे.ए.सी. के कामकाज से संबंधित किसी अन्य मामले को नियंत्रित करने के लिए एन.जे.ए.सी. को सक्षम बनाता है।

इस आर्टिकल को इस आधार पर एक विवादास्पद आर्टिकल माना जाता है कि, यह संसद को सुप्रीम कोर्ट और  हाई कोर्ट के न्यायाधीशों को नियुक्त करने की अनुमति देता है, जो शक्तियों के विभाजन की अवधारणा के खिलाफ है। इसके अलावा, यह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को अपने लिए नियम बनाने की शक्ति देता है।

[सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2015]

2015 में, “सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन” और कुछ वरिष्ठ एडवोकेट्स द्वारा याचिकाएं दायर की गईं, जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग और 99वें अमेंडमेंट एक्ट की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी।

यहां पर अहम मुद्दा, जुडिशियरी की स्वतंत्रता के संबंध में था कि, इस संशोधन ने कॉन्स्टिट्यूशन के उस प्रावधान का उल्लंघन किया जिसके अनुसार जुडिशियरी को वास्तविक कार्यों को सुनिश्चित करने के लिए स्वतंत्र रखा गया था।

जस्टिस जगदीश सिंह खेहर के निर्णय के मुख्य पॉइंट्स – फिट टू होल्ड द ऑफिस 

इस मामले की सुनवाई पांच जजों की बेंच ने की जिसमें जस्टिस जगदीश सिंह खेहर, जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस मदन बी. लोकुर, जस्टिस जोसेफ और जस्टिस आदर्श कुमार गोयल शामिल थे। जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने असहमतिपूर्ण राय देते हुए 4:1 के अनुपात में निर्णय लिया।

न्यायमूर्ति जगदीश सिंह केहर ने राय दी कि आर्टिकल 124A (1) का क्लॉज़ (c), कॉन्स्टिट्यूशन के बेसिक स्ट्रक्चर के अल्ट्रा वायर्स है जो “शक्तियों  के विभाजन” और “जुडिशियरी की स्वतंत्रता” है। उन्होंने यह भी कहा कि एक ही अधिनियम का क्लॉज़ (d), जो दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों की नियुक्ति के बारे में बात करता है, कई कारणों से कॉन्स्टिट्यूशन के तत्वों और बेसिक स्ट्रक्चर का उल्लंघन है।

वरिष्ठता: एन.जे.ए.सी. अधिनियम की धारा 5(1) (सीनियरिटी: सेक्शन 5(1) ऑफ द एन.जे.ए.सी. एक्ट)

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की धारा 5(1) यह कहती है कि यदि सुप्रीम कोर्ट का वरिष्ठतम जज पद धारण करने के योग्य है तो उसे भारत के मुख्य जज के रूप में चुना जाएगा।

यह सेक्शन सुनिश्चित करता है कि, एक जूनियर जज द्वारा वरिष्ठ जज की जगह लेने की संभावना कम हो जाती है।

जबकि, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के अधिनियम की धारा 5(2) में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति आर्टिकल 124 के क्लॉज़ 3 में दी गई योग्यता और अन्य शर्तों के आधार पर की जाएगी।

एन.जे.ए.सी. के किन्हीं दो सदस्यों को वीटो पावर: एन.जे.ए.सी. अधिनियम की धारा 6(6)

इस लेख में, हमने यह देखा कि एन.जे.ए.सी. में दो प्रतिष्ठित लोगों को नियुक्त किया जाता है, जो भारत के मुख्य न्यायाधीश को नियुक्त करने की प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं। तो अब, उन दो लोगों के बारे में यदि विचार किया जाए, जो न्यायिक प्रक्रिया के आदी नहीं हैं और कानून के क्षेत्र में एक आम आदमी ही हैं, उन्हें दो प्रतिष्ठित लोगों के रूप में नियुक्त किया जाता है, जिसके कारण उन्हें भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश का फैसला करने का मौका मिलता है। साथ ही, उन्हें वीटो पावर दी गई है, जिसके माध्यम से वे भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश जो एन.जे.ए.सी. के सदस्य भी हैं, के फैसले को भी रद्द कर सकते हैं।

यह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की धारा 6(6) में दिए गए प्रावधानों के विपरीत था। इस धारा में कहा गया कि यदि आयोग के दो सदस्यों में से कोई भी हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति से संबंधित मामले पर असहमत है, तो आयोग उस पद पर उस व्यक्ति के नामांकित की सलाह नहीं देगा।

कॉन्स्टिट्यूशन के 99वें अमेंडमेंट एक्ट के लागू होने से पहले एन.जे.ए.सी. एक्ट लागू नहीं हो सका 

99वां संशोधन 2014 में अस्तित्व में आया, धारा 2 में तीन नए आर्टिकल जोड़े गए जो आर्टिकल 124A,  आर्टिकल 124B और  आर्टिकल 124C थे।

इसी में, एन.जे.ए.सी. का प्रावधान रखा गया था। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बिल को निचले सदन ने 13 अगस्त 2014 को और उच्च सदन ने 14 अगस्त 2014 को पारित किया था। जिसके बाद दिसंबर में इसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिली।

लेकिन 99वें अमेंडमेंट एक्ट और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग दोनों को इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि यह कॉन्स्टिट्यूशन के मूल तत्वों का उल्लंघन करते हैं।

एन.जे.ए.सी. एक्ट के एनक्टमेंट के लिए आर्टिकल 368 के तहत प्रदान की गई प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए 

केशवानंद भारती बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में, यह कहा गया था कि संशोधन के माध्यम से कॉन्स्टिट्यूशन में किया गया कोई भी परिवर्तन केवल इस हद तक होना चाहिए कि यह कॉन्स्टिट्यूशन की बेसिक स्ट्रक्चर का उल्लंघन न करता हो।

एन.जे.ए.सी. अधिनियम को अधिनियमित (एनक्ट) करने के लिए, आर्टिकल 368 के तहत प्रदान किए गए, बेसिक स्ट्रक्चर के सिद्धांत को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। उसी सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए, यह पाया गया कि यह कॉन्स्टिट्यूशन के बेसिक स्ट्रक्चर, अर्थात ‘शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत’ में बाधा डाल रहा है। इसलिए एन.जे.ए.सी. अधिनियम को अमान्य घोषित कर दिया गया।

संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करने के लिए एक सामान्य विधान को अमान्य ठहराया जा सकता है (एन ऑर्डिनरी  लेजिस्लेशन कैन बी इनवैलिडेटेड फॉर वोलेटिंग द कोंस्टीटूशनल प्रोविज़न्स)

वर्ष 1976 में आए 42वें अमेंडमेंट एक्ट ने कई नए आर्टिकल्स की प्रस्तुति की।

आर्टिकल 32A ने सुप्रीम कोर्ट को किसी भी राज्य के कानून की संवैधानिकता (कंस्टीट्यूशनलिटी) तय करने के लिए तब तक असक्षम कर दिया जब तक कि, इसमें किसी केंद्रीय कानून की संवैधानिकता शामिल न हो। इसके अलावा, आर्टिकल 131A के माध्यम से, सुप्रीम कोर्ट को केंद्रीय कानून की संवैधानिकता की जाँच करने का विशेष अधिकार (एक्सक्लूसिव जूरिस्डिक्शन) दिया गया था।

जबकि, आर्टिकल 228A के तहत हाई कोर्ट को किसी भी राज्य के कानून की संवैधानिक वैधता (वैलिडिटी) तय करने का अधिकार दिया गया। इस कानून का फैसला हाई कोर्ट को पांच जजों की बेंच के द्वारा किया गया।

यदि कानून का कोई भी अधिनियम, कॉन्स्टिट्यूशन के प्रावधानों के अनुरूप (कंसिस्टेंट) नहीं पाया जाता है तो उसे असंवैधानिक कहा जाएगा।

आर्टिकल 124A कॉन्स्टिट्यूशन (99वें अमेंडमेंट) एक्ट का ढांचा है

99वें अमेंडमेंट एक्ट का आर्टिकल 124A पूरे 99वें अमेंडमेंट एक्ट का ढांचा है, क्योंकि यह अमेंडमेंट एक्ट की पूरी संरचना के बारे में बताता है और यदि इसे नकारात्मक (निगेटरी) बना दिया जाता है तो आर्टिकल 124, 124B, 124C, आर्टिकल 127, आर्टिकल 128, आर्टिकल 217, आर्टिकल 222, आर्टिकल 224, 224A, आर्टिकल 231 को कॉन्स्टिट्यूशन में वापस लाया जाएगा।

उदाहरण के लिए, आर्टिकल 124 A (1) एन.जे.ए.सी. के गठन और संरचना के लिए प्रदान करता है, इसलिए यदि इसे अमान्य कर दिया जाता है तो पूरे एन.जे.ए.सी. को असंवैधानिक बना दिया जाएगा और 99वें अमेंडमेंट एक्ट किसी अर्थ का नहीं रहेगा।

आइए देखें कि इस पर जस्टिस मदन बी लोकुर ने क्या कहा:

जस्टिस मदन बी. लोकुर

जस्टिस मदन बी लोकुर ने अपने फैसले में कहा कि, आर्टिकल 124A कॉन्स्टिट्यूशन के बेसिक स्ट्रक्चर के खिलाफ है और इसके बिना अन्य प्रावधान टिक नहीं सकते.

इसके अलावा, उन्होंने बताया कि  इस प्रावधान ने भारत के राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश को भी प्रभावित किया है क्योंकि राष्ट्रपति का कार्य केवल सलाह लेने तक ही सीमित था जबकि सी.जे.आई. को आयोग के अन्य लोगों की राय को ध्यान में रखकर काम करना होता  है।

जस्टिस कुरियन जोसेफ

प्रख्यात न्यायाधीश ने अपने फैसले में एक कहावत बताई जो कि “एनशिआ नॉन सनट मल्टीप्लिकांडा साइन नेसेसिटेट” थी, जिसका शाब्दिक अर्थ है कि चीजों को बिना आवश्यकता के बड़ाना नहीं चाहिए। उन्होंने अपने निर्णय को सरल भाषा में दिया, उन्होंने कहा कि किसी भी नॉन ज्यूडिशियल बॉडी का शामिल होना,  जैसे की यहां पर एग्जीक्यूटिव है, तो वह कई संरचित (स्ट्रक्चर) समझौतों का पालन करेंगे और यदि ऐसा नहीं भी करते हैं, तो यह और भी बदतर हो सकता है। उन्होंने आगे कहा कि जो कुछ भी कॉन्स्टिट्यूशन की सुप्रीमेसी को कमजोर करता है, उसे उसकी शुरुआत में ही रद्द कर दिया जाना चाहिए।

जस्टिस आदर्श कुमार गोयल

जस्टिस ने कहा कि एक नॉन ज्यूडिशियल पद की भूमिका और हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की भूमिका बहुत अलग है और उनकी तुलना नहीं की जा सकती है, इसलिए नॉन ज्यूडिशियल व्यक्ति के हाथ में वीटो पावर देना जो इसका गलत इस्तेमाल कर सकता है और सी.जे.आई. की शक्तियों को भी रद्द कर सकता है,  इसलिए यह शक्ति पूरी तरह से आर्बिट्रेरी है।

कॉलेजियम व्यवस्था में सुधार के लिए दिशानिर्देश (गाइडलाइंस फॉर इंप्रूवमेंट ऑफ द कॉलेजियम सिस्टम)

जस्टिस मदन बी लोकुर ने अपने फैसले में कॉलेजियम प्रणाली में सुधार पर जोर दिया, जिसके बाद प्रक्रियाओं का एक ज्ञापन अस्तित्व में आया, जिसने कॉलेजियम प्रणाली में संशोधन के लिए दिशानिर्देश जारी किए।

एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया

राज्य सरकार और केंद्रीय सरकार के अनुसार, एम.ओ.पी. ही न्यूनतम (मिनिमम) आयु आवश्यकता की जांच करेगा।

नियुक्ति प्रक्रिया में ट्रांसपेरेंसी

जजेस की नियुक्ति में पारदर्शिता अत्यंत महत्वपूर्ण है।  बेंच ने कहा कि प्रत्येक कार्यवाही और जजेस की नियुक्ति से संबंधित सभी मामलों को कानून मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ लॉ), सुप्रीम कोर्ट और  हाई कोर्ट की वेबसाइट पर अपडेट किया जाना चाहिए, जबकि इससे संबंधित चर्चा के हर हिस्से को रिकॉर्ड किया जाना चाहिए।

सेक्रेटेरिएट

कॉलेजियम के बेहतर कामकाज के लिए, प्रत्येक हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के लिए एक सेक्रेटेरिएट स्थापित किया जाना चाहिए।

यह न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए बेहतर प्रक्रिया सुनिश्चित कर सकता है।

कम्प्लेंट्स 

शिकायत निवारण (कंप्लेंट रिड्रेसल) यह सुनिश्चित करने के लिए बहुत आवश्यक है कि सभी कार्यों को ठीक से किया जा रहा है और सभी कर्तव्यों का ठीक से निपटाया जा रहा है। इसलिए, एक उचित शिकायत तंत्र (मकेनिज़्म) का गठन किया जाना चाहिए।

न्यायाधीशों की क्वालिफिकेशन

आर्टिकल 124 अपने क्लॉज़ (4) में, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की क्वालिफिकेशन के लिए एक जाँच सूची प्रदान करता है, जो इस प्रकार है-

वह व्यक्ति,

  • भारत का नागरिक होना चाहिए,
  • पांच साल की अवधि के लिए हाई कोर्ट या कम से कम दो निचले न्यायालयों का न्यायाधीश होना चाहिए,
  • 10 वर्षों की अवधि के लिए हाई कोर्ट या कम से कम दो निचले न्यायालयों का एडवोकेट होना चाहिए,
  • राष्ट्रपति की नजर में एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता (जूरिस्ट) होना चाहिए।

न्यायाधीशों का टेन्योर और रिमूवल

आर्टिकल 124(2) के अनुसार,  सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर  बने रह सकते हैं। यानी की वे 65 वर्ष की उम्र में रिटायर हो जाएंगे।

जहां तक ​​हटाने का संबंध है, आर्टिकल 124(4) में उल्लेख है कि, न्यायाधीश को साबित कदाचार (मिस्डिमिनर) के आधार पर हटाया जा सकता है, जिसके लिए प्रक्रिया यह है कि राष्ट्रपति एक आदेश पारित करेंगे, जिसे बाद में दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और इसे सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों में दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाना चाहिए।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि, न्यायाधीश को अपने कृत्य के लिए अक्षम या दोषी साबित किया जा सकता है। इसे उसी मामले के संबंध में जांच की प्रक्रिया के माध्यम से साबित किया जा सकता है और ऐसी प्रक्रिया को संसद, कानून द्वारा निर्धारित करेगी। यह अधिकार संसद को आर्टिकल 124(5) के तहत दिया गया है।

जजेस (इंक्वायरी) एक्ट, 1968

इस अधिनियम के तहत न्यायाधीशों के खिलाफ आरोपों की जांच की प्रक्रिया निर्धारित की गई है।

न्यायाधीश को कदाचार या असमथर्ता साबित होने के बाद ही हटाया जा सकता है।

इस अधिनियम ने आगे बताया गया है कि इसमें, निम्नलिखित लोग शामिल होंगे-

  • सुप्रीम कोर्ट के कोई भी न्यायाधीश, या सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश,
  • हाईकोर्ट के कोई मुख्य न्यायाधीश, और
  • कोई भी व्यक्ति जो अध्यक्ष की राय में एक विशिष्ट विधिवेत्ता है।

सदस्य, सर्वसम्मति (युनेनिमस डिसीज़न) से जज के खिलाफ आरोप तय करेंगे और इसकी जांच करेंगे.

वेतन और भत्ते (सैलरीज़ एंड अलाउअन्सिज़)

आर्टिकल 125, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को दिए जाने वाले वेतन और भत्तों (अलाउअन्सिज़) के बारे में बताता है।

  • क्लॉज़ (1) में, यह दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को संसद द्वारा, कानून में निर्धारित वेतन का भुगतान किया जाएगा। यह सेकंड शेड्यूल में तब तक मौजूद है जब तक कि वेतन के संबंध में कोई अन्य कानून नहीं बन जाता।
  • क्लॉज़ (2) में आगे यह उल्लेख किया गया है कि, न्यायाधीशों को संसद द्वारा निर्धारित कानून के संबंध में विशेष सुविधाएँ, भत्ते और अनुपस्थिति (अब्सेंस) की छुट्टी और पेंशन के अधिकार मिलेंगे।

संसद, कानून द्वारा उन अधिकारों को बदल सकती है जो न्यायाधीश की पदवी (पोज़िशन) में बाधा डालते हैं। लेकिन, यह आर्टिकल सुनिश्चित करता है किसी न्यायाधीश के विशेषाधिकारों और भत्तों में तथा अनुपस्थिति छुट्टी में या पेंशन के सम्बन्ध में उसके अधिकार में उसकी नियुक्ति के पश्चात उसके लिए अलाभकारी (डिसैड्वन्टेजस) परिवर्तन नहीं किया जायेगा।

कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश (एक्टिंग चीफ जस्टिस): आर्टिकल 126

आर्टिकल 126 कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश के बारे में बताता है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश के टेन्योर के दौरान कभी भी, यदि वह अनुपस्थित रहतें है और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सक्षम नहीं होते या उनका पद किसी भी कारण से खाली होता है, तो कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश भारत के मुख्य न्यायाधीश के कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट की सीट: आर्टिकल 130

आर्टिकल 130 में यह बताया गया है कि, सुप्रीम कोर्ट की सीट दिल्ली में होगी। खैर, यह पक्का नियम नहीं है, लेकिन नम्य (फ्लेक्सिबल) हो सकता है, क्योंकि भारत के मुख्य न्यायाधीश समय-समय पर निर्दिष्ट कर सकते हैं, जिसे राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट का जूरिस्डिक्शन 

  1. कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड

  1. आर्टिकल 129 के तहत सुप्रीम कोर्ट का जूरिस्डिक्शन, कोर्ट्स एक्ट से स्वतंत्र है

न्यायालय की अवमानना (कंटेम्प्ट) ​​तब होती है, जब कोई व्यक्ति न्यायालय के आदेशों को नहीं मानता या अपने आचरण से न्यायालय का अनादर करता है।

कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड का यह मतलब है कि, न्यायालय की कार्यवाही को रिकॉर्ड किया जाएगा ताकि वे भविष्य में बयान के रूप में कार्य कर सकें।

आर्टिकल 129 सुप्रीम कोर्ट को कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड बनाता है और उसे अपनी अवमानना ​​के लिए दंडित करने की शक्ति देता है।

पी.एन. डूडा बनाम वी. पी. शिव शंकर और अन्य

इस मामले में, पुराने निर्णयों को खारिज करके यह कहा गया था कि, किसी भी व्यक्ति को न्यायालय की अवमानना ​​​​के लिए तभी दंडित किया जाएगा, जब उसने न्यायालय की प्रक्रिया और न्याय प्रशासन में बाधा उत्पन्न करी हो, जबकि न्यायिक प्रणाली (सिस्टम) की आलोचना करने के लिए किसी को दंडित नहीं किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के कंटेम्प्ट और साथ ही निचले न्यायालयों के कंटेम्प्ट ​​के लिए दंडित करने की सुप्रीम कोर्ट की शक्ति

कॉन्स्टिट्यूशन का आर्टिकल 215, हाई कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के कंटेम्प्ट ​​के लिए दंडित करने का अधिकार नहीं देता लेकिन सुप्रीम कोर्ट को हाई कोर्ट और अन्य नीचले न्यायालयों के कंटेम्प्ट ​​के लिए दंडित करने की शक्ति है।

यदि सुप्रीम कोर्ट अपने कंटेम्प्ट ​​के लिए किसी को दंडित नहीं करता, तो हाई कोर्ट का इसमें कोई अधिकार नहीं है की वह उस व्यक्ति को दंडित करें।

रजिस्ट्री की सुरक्षा के लिए कंटेम्प्ट जूरिस्डिक्शन 

सुप्रीम कोर्ट ने न केवल न्यायाधीश की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के लिए लोगों को दंडित किया है बल्कि जुडिशियरी के नाम की रक्षा के लिए भी न्यायालय के कंटेम्प्ट ​​​​को बरकरार रखा है।

उदाहरण के लिए, एक वकील को एक महीने के लिए वकालत अभ्यास करने से रोक दिया गया था क्योंकि उसने न्यायालय की रजिस्ट्री पर आरोप लगाया था, जिसमें उसने ‘बेंच हंट’ शब्द  का इस्तेमाल किया था।

कोर्ट ने फैसला सुनाया कि बेंच का गठन रजिस्ट्री द्वारा नहीं बल्कि भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाता है और रजिस्ट्री के कंटेम्प्ट ​​को दंडित किया जाएगा।

एक मंत्री या अधिकारी भी कंटेम्प्ट ​​का दोषी हो सकता है जब राज्य द्वारा न्यायालय का   कंटेम्प्ट हो

जब न्यायालय के सामने कोई मुद्दा होता है जो दो राज्य के बीच में होता है या राज्य पक्षकारों (पार्टी) में से किसी एक पक्ष का का होता है और न्यायालय एक आदेश या डिक्री देता है, जिसका राज्य उल्लंघन (डिसऑबे) करता है, तो सुप्रीम कोर्ट राज्य को अवमानना ​​​​का दोषी ठहराया जा सकता है।

मामले में शामिल अधिकारी और मंत्री इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जाएंगे।

न्यायालय के पास अपने आदेशों के पालन के लिए बाध्य करने की असीमित शक्ति है 

आर्टिकल 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को न्यायालय की अवमानना ​​के संबंध में आदेश देने की शक्ति दी गई है। अर्थात, सुप्रीम कोर्ट, इस आर्टिकल के तहत किसी भी व्यक्ति को, अपने द्वारा दिए गए आदेश का पालन करने के लिए मजबूर कर सकता है।

  1. ओरिजिनल जूरिस्डिक्शन-आर्टिकल 131

इस आर्टिकल के तहत, निम्नलिखित मामलों में सुप्रीम कोर्ट के पास ओरिजिनल जूरिस्डिक्शन होती है-

  • भारत सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच; या
  • भारत सरकार और विभिन्न पक्षों में एक या अधिक राज्यों के बीच; या
  • दो या दो से अधिक राज्यों के बीच।

इस आर्टिकल में, आगे यह भी  दिया गया है कि,  सुप्रीम कोर्ट की जूरिस्डिक्शन में किसी समझौते, संविदा (इंगेजमेंट) या किसी भी प्रकार की ट्रीटी से उत्पन्न होने वाले मामले को शामिल नहीं किया जाएगा, जो पूर्व-संवैधानिक (प्री-कॉन्स्टिट्यूशन) समय से पहले मौजूद थे और अभी भी लागू है। यह उन मामलों पर भी  लागू होगा जो यह कहते हैं कि, यह जूरिस्डिक्शन इस संबंधित विवाद पर लागू नहीं होगा।

मौलिक अधिकारों को लागु करना (एनफोर्समेंट ऑफ फंडामेंटल राइट)

कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 32 में यह कहा गया है कि यदि किसी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट की शरण ले सकता है।।

यह आर्टिकल, रिट जारी करने का प्रावधान करता है, जिसमें हेबियस कॉर्पस, मैंडेमस, सर्टिओरीरी, क्वो वारंटो,  प्रोहिबिशन शामिल हैं।

इन रिटों को जारी करने के बाद मौलिक अधिकारों को लागु कराने के लिए,  व्यक्ति सीधे सुप्रीम कोर्टकी शरण ले सकता है।

  1. अपीलेट जूरिस्डिक्शन-आर्टिकल 132

आर्टिकल 132 के अनुसार, किसी भी राज्य के हाई कोर्ट से अपील, जो कि किसी भी दीवानी (सिविल) और आपराधिक मामलों के लिए है, सुप्रीम कोर्ट में जा सकती है।

यह भी बताया गया है कि, उस मामले में आर्टिकल 134A के तहत, कानून के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल होने चाहिए।

जब सभी मापदंड (पैरामीटर) अपील के लिए पूरे हो जाते है, तो प्रमाण पत्र (सर्टिफिकेट) दिया जाता है जिसके तहत कोई भी व्यक्ति इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट से संपर्क कर सकता है कि उसके मामले में हाई कोर्ट द्वारा गलत निर्णय लिया गया है।

दीवानी मामलों में अपील

आर्टिकल 133, दीवानी मामलों में अपील के बारे में बात करता है।

  • इसमें कहा गया है कि अपील सुप्रीम कोर्ट में तभी पेश हो सकती है, जब हाई कोर्ट प्रमाणित करे कि वह आर्टिकल 134A में दी गई शर्तों को पूरा करता है, जिसमें कहा गया है कि मामले में कानून का एक महत्वपूर्ण प्रश्न होना चाहिए और हाई कोर्ट की राय में सुप्रीम कोर्ट को इस मामले पर निर्णय लेना चाहिए।
  • यह आर्टिकल फिर से अपने क्लॉज़ (2) में बताता है कि, हाई कोर्ट द्वारा कानून के किसी प्रश्न पर गलत तरीके से निर्णय लिया गया है।
  • क्लॉज़ (3) में, यह कहता है कि इस आर्टिकल के अनुसार, कोई भी अपील सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तब तक नहीं होगी जब तक कि संसद निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) न करे।

आपराधिक मामलों में अपील-आर्टिकल 134

आर्टिकल 134 सुप्रीम कोर्ट में अपील के बारे में बताता है जब मामला आपराधिक प्रकृति का हो। 

अपील सुप्रीम कोर्ट के समक्ष जाएगी जब हाई कोर्ट ने –

  • अपील में किसी अभियुक्त (अक्यूस्ड) व्यक्ति की दोषमुक्ति (एक्विटल) के आदेश को उलट दिया हो और उसको मृत्यु दंड का आदेश दिया हो; या
  • निचले न्यायालय से किसी मामले को विचारण (ट्रायल) के लिए अपने पास मँगा लिया हो और ऐसे विचारण में ‍अभियुक्त व्यक्ति को सिद्धदोष (कनविक्शन) ठहराया है और उसको मृत्यु दंड  का आदेश दिया हो; या
  • आर्टिकल 134A के आधार पर मामला सुप्रीम कोर्ट में पेश करने योग्य है।

सुप्रीम कोर्ट में अपील के लिए प्रमाण पत्र (सर्टिफिकेट फॉर अपील टू द सुप्रीम कोर्ट)

जैसा कि इस लेख में पहले भी बताया गया है, आर्टिकल 134A यह प्रमाणित करने के लिए एक चेकलिस्ट प्रदान करता है कि मामला न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए जाने योग्य है या नहीं। यह आर्टिकल मूल रूप से सुप्रीम कोर्ट में अपील के लिए प्रमाण पत्र प्रदान करता है।

यह चेकलिस्ट इस प्रकार हैं-

  • यदि हाई कोर्ट अपने स्वयं के प्रस्ताव में ऐसा करना उचित समझता है।
  • यदि निर्णय पारित होने के ठीक बाद पीड़ित पक्ष मौखिक आवेदन (एप्लीकेशन) पेश करता है।
  • निर्णय, आर्टिकल 132(1), आर्टिकल 133(1) और आर्टिकल 134(1) के संबंध में लिए जाने चाहिए। 

मामलों को वापस लेने और स्थानांतरित करने की सुप्रीम कोर्ट की शक्ति आर्टिकल 139A (पावर ऑफ द सुप्रीम कोर्ट टू विदड्रो एंड ट्रांसफर केसेस: आर्टिकल 139A)

आर्टिकल 139A, सुप्रीम कोर्ट को हाई कोर्ट से मामलों को वापस लेने की शक्ति प्रदान करता है, यदि वे पेंडिंग हैं और सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह माना जाता है कि, उस मामले में कानून से संबंधित एक महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हैं।

एक अन्य उदाहरण जिसमें सुप्रीम कोर्ट ऐसा कर सकता है, जब भारत के अटॉर्नी जनरल या पीड़ित पक्ष सुप्रीम कोर्ट को यह उल्लेख करते हुए लिखता है कि इस मामले में कानून से संबंधित एक  सामान्य महत्व का प्रश्न शामिल है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रयोग की जाने वाली फेडरल कोर्ट का जूरिस्डिक्शन-आर्टिकल 135

फेडरल कोर्ट्स की स्थापना कॉन्स्टिट्यूशन के लागू होने से पहले की गई थी, लेकिन तब कुछ कानून/ अधिनियम पारित किए जा चुके थे। अब अगर आर्टिकल 133 और आर्टिकल 134 के तहत दिए गए प्रावधान उन कानूनों पर लागू नहीं होते, तो आर्टिकल 135 के तहत सुप्रीम कोर्ट की जूरिस्डिक्शन होगी।

स्पेशल लीव द्वारा अपील- आर्टिकल 136

आर्टिकल 136, सुप्रीम कोर्ट को देश के किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) द्वारा पारित किसी भी आदेश, निर्णय या सजा के लिए अपील की स्पेशल लीव देने का अधिकार देता है।

यह यूनियन ज्यूडिशरी से संबंधित अध्याय में निहित किसी भी चीज़ की परवाह किए बिना दिया गया है और सशस्त्र (आर्म्ड) सेनाओ से संबंधित किसी भी मामले पर लागू नहीं होता।

न्यायालय, सरकार की आर्थिक नीति का न्याय करने के लिए सक्षम नहीं (द कोर्ट नॉट कम्पीटेंट टू जज इकनोमिक पालिसी ऑफ़ द गवर्नमेंट )

सरकार द्वारा निर्धारित आर्थिक नीतियां (पॉलिसीज), कानूनी प्रतिबंध (रिस्ट्रेंट) के अधीन हैं, क्योंकि जुडिशियरी द्वारा इसकी समीक्षा (रीव्यू) नहीं की जा सकती है।

इसके पीछे  कातर्क यह है कि, जुडिशियरी कानून के क्षेत्र में एक विशेषज्ञ (एक्सपर्ट) है, जबकि आर्थिक नीतियों की व्याख्या करने के लिए अर्थशास्त्र (इकोनॉमिक्स) का ज्ञान रखने वाले विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है।

न्यायपालिका का काम दो पक्षों के बीच मामले की सुलह कराना है जबकि नीति न्याय में कई विचार होते हैं।

टी.एन. गोवर्नम थिरुमूलकपद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में, जुडिशियरी ने फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट, 1980 से संबंधित मामले पर निर्णय लिया था। इस मामले में कुछ मामलों में तकनीकी के साथ-साथ विशेषज्ञता की भी आवश्यकता थी, तो सुप्रीम कोर्ट ने मामले से संबंधित विशेषज्ञों की नियुक्ति की थी। इसलिए यहां सुप्रीम कोर्ट नीतिगत मामलों को उठाने के लिए जरूरी आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम रहा।

लेकिन, संसाधनों की व्यवस्था करना जैसे, तकनीकी विशेषज्ञों की नियुक्ति भी करनी पड़ती है, जो पहले से ही लेजिस्लेटर और एक्ज़ीक्युटिव में मौजूद हैं। लेकिन जुडिशियरी केवल उन्हीं नीतिगत मामलों को उठा सकती है, जिन्हें वह अन्याय मानती है।

स्पेशल लीव अपील प्रदान करने की शक्ति केवल असाधारण मामलों में प्रयोग की जानी चाहिए 

हम इससे जुड़े कुछ मामलों पर चर्चा करेंगे:

प्रीतम सिंह बनाम राज्य

इस मामले में, यह कहा गया था कि, अपील करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की विशेष अनुमति केवल विशेष परिस्थितियों में ही दी जानी चाहिए, जहां गंभीर अन्याय किया गया हो और न्यायालय इसकी जांच करेगा और न्याय प्रदान करेगा।

न्यायालय ने अपील की विशेष अनुमति देने के लिए एक मानक (स्टैंडर्ड) स्थापित करने पर जोर दिया।

एन.सूर्यकला बनाम ए.मोहन दोस्स

इस मामले में, न्यायालय ने इस बात से इंकार किया कि अपील की विशेष अनुमति देना, सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई सामान्य कार्रवाई नहीं है क्योंकि यह केवल तभी दी जाती है जब सुप्रीम कोर्ट को अपने विवेक (डिस्क्रीशन) के तहत मामले में हस्तक्षेप करना पड़ता है।

ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट के सहमतिय निष्कर्ष

आइए इससे संबंधित एक मामले को देखें:

एम. वाडिवेल बनाम अरुल्मुघु इरावतीश्वरर कोइली

इस मामले में, यह तर्क दिया गया था कि आर्टिकल 133 के तहत सुप्रीम कोर्ट किसी भी मामले को ले सकता है, क्योंकि यूनियन जुडिशियरी के अध्याय में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट के सहमतिय निष्कर्ष की समीक्षा नहीं की जा सकती है।

यह माना गया कि ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट के सहमतिय निष्कर्ष को दोनों पक्षों के मामलों पर विचार करके न्यायालय द्वारा लिया गया है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट केवल असाधारण मामलों में ही हस्तक्षेप करता है जब गंभीर अन्याय की स्थिति होती है।

तथ्यों पर नई दलील (न्यू प्ली ऑन फैक्ट्स)

सुप्रीम कोर्ट, न्यायालय में तथ्यों को उठाने की अनुमति नहीं देता, जब उन्हें निचले न्यायालय की कार्यवाही के दौरान नहीं उठाया गया हो। इसलिए नए तथ्य अस्वीकार्य होते हैं।

आइए एक मामले को देखें।

जगन्नाथ बेहरा बनाम राजा हरिरार सिंह

इस मामले में, नया तथ्य यह था कि विलय (मर्ज) किए गए क्षेत्र में कोई विशेष कानून या परंपराएं प्रचलित थीं या नहीं। यह तथ्य किसी भी न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया था और सुप्रीम कोर्ट में पहली बार प्रस्तुत किया, इसलिए उसे स्वीकार नहीं किया गया।

गोपीनाथ घोष बनाम स्टेट ऑफ पश्चिम बंगाल 

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में पहली बार यह लाया गया कि अपराध के समय आरोपी की उम्र 18 वर्ष से कम थी। अत: यह भी अस्वीकार्य था।

कानून की दलील (प्ली ऑफ लॉ)

जब किसी मामलों में, कानून का कोई प्रश्न किसी न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया था, तो सुप्रीम कोर्ट इसे पहली बार उठाने की अनुमति देता है।

बदरी प्रसाद बनाम नागरमाली

इस मामले में, रेवा स्टेट एक्ट की धारा 4(2) को असंवैधानिक बताते हुए सवाल उठाया गया था। यह सवाल पहली बार सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया और कोर्ट ने इसे अनुमति दी।

मसालती बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश

इस मामले में, यह कहा गया था कि, कानून का कोई भी प्रश्न जो, तथ्यों के लिए महत्वपूर्ण है, वह स्वीकार्य होगा, भले ही वह सुप्रीम कोर्ट में पहली बार प्रस्तुत किया गया हो।

एक साधारण पक्ष दोषमुक्ति को चुनौती देने के लिए आर्टिकल 136 के तहत अपील दायर कर सकता है

आर्टिकल 136 के तहत सुप्रीम कोर्ट, स्पेशल लीव की अपील के लिए विचार करता है। लेकिन इस सवाल को समझना होगा कि क्या साधारण पक्ष को अपील दायर करने का अधिकार है या नहीं।

आइए इसका जवाब जानने के लिए इन मामलों को पढ़ते हैं:

प्रिजनर्स राइट फोरम द्वारा एक याचिका दायर की गई थी जो कैदी की मौत की सजा से संबंधित थी, जिसे एन आनंद वेंकटेश ने खारिज कर दिया और कहा गया कि कोई तीसरा व्यक्ति इसके बारे में अपील दायर नहीं कर सकता।

और अगर इसकी अनुमति दी जाती है, तो कोई भी बाईस्टैंडर निचले न्यायालय के फैसले को रद्द करने के लिए अपील दायर करने में सक्षम होगा।

जब मुख्य फैसले को कोई चुनौती नहीं

पक्षकारों की सहमति से पारित किए गए न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध कोई अपील दायर नहीं की जा सकती। अपील केवल कानून के प्रश्न के संबंध में ही की जा सकती है।

फॉल्स और मिसलीडिंग स्टेटमेंट – अपील को रद्द करने का जस्टिफिकेशन

जब कोई पक्ष अपील की सुनवाई के दौरान न्यायालय के सामने कोई फॉल्स स्टेटमेंट या मिसलीडिंग फैक्ट पेश करता है, तो सुप्रीम कोर्ट अपील को रद्द कर सकता है।

एस.एन. अग्रवाल बनाम. यूनियन ऑफ इंडिया में झूठे तथ्य प्रस्तुत किए गए, जिसने न्यायालय के निर्णय और विवेक को प्रभावित किया। इस मामले में, यह कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट के पास अपील को खारिज करने की शक्ति है और यह उचित माना जाएगा।

ट्रिब्यूनल

न्यायालयों पर कार्यभार को कम करने के लिए ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई थी, ट्रिब्यूनल से कोई भी अपील सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत की जा सकती है जब तक कि अपीलीय ट्रिब्यूनल का कोई प्रावधान न हो। अगर प्रावधान है तो अपीलीय ट्रिब्यूनल्स, ट्रिब्यूनल से आए मामलों की अपील सुनेंगे।

निर्णयों की समीक्षा करने की शक्ति: आर्टिकल 137

आर्टिकल 137 के तहत, सुप्रीम कोर्ट  को अपने फैसले की समीक्षा करने की शक्ति है।

यह कानून के प्रावधानों और आर्टिकल 147 के प्रावधानों के अधीन है।

यह मूल रूप से सुप्रीम कोर्ट को अपनी गलतियों में संशोधन करने के लिए प्रदान किया गया एक मेकैनिज्म है।

क्यूरेटिव पिटीशन

क्यूरेटिव पिटीशन का उपचार (रेमेडी) सुप्रीम कोर्ट ने रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा के मामले में प्रस्तुत किया था।

एक क्यूरेटिव पिटीशन किसी भी शिकायत के लिए प्रदान किया गया अंतिम उपचार है। इसका प्रतिरूप मर्सी पिटिशन है जो राष्ट्रपति के समक्ष दायर की जाती है।

यह दिल्ली के मशहूर रेप केस में भी दर्ज की गई थी। 

सुप्रीम कोर्ट  की सहायक शक्तियाँ

आर्टिकल 140, संसद को किसी भी पूरक (सप्प्लिमेंटरी) अधिकार के संबंध में कानून बनाने में सक्षम बनाता है जो सुप्रीम कोर्ट को दिए जा सकते हैं। यह अधिकार कानून के प्रावधानों के खिलाफ नहीं होना चाहिए।

यह सुप्रीम कोर्ट को, लोगों को न्याय दिलाने के लक्ष्य की दिशा में अधिक प्रभावी ढंग से काम करने में सक्षम बनाते हैं।

एडवाइज़री जूरिस्डिक्शन-आर्टिकल 143

यदि किसी भी स्थिति में राष्ट्रपति को ऐसा लगता है कि कोई मामला कानून से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न रखता है और सार्वजनिक उपयोगिता का है तो वह एडवाइज़री जूरिस्डिक्शन के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण में आ सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट इसे सुनने के बाद राष्ट्रपति को अपनी राय दे सकता है।

यह एडवाइज़री जूरिस्डिक्शन की प्रक्रिया है जो कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 143 में मौजूद है।

सुप्रीम कोर्ट  द्वारा घोषित कानून सभी न्यायालयों के लिए बाध्यकारी है- आर्टिकल 141

सुप्रीम कोर्ट, कानून का सर्वोच्च (हाईएस्ट) अंग है और यह जो निर्णय लेता है वह अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यह अपने निर्णय का पालन करने के लिए कुछ नियम बनाता है जिसमें प्रक्रियाओं की एक संरचना निर्धारित  होती है, जो निचले न्यायालयों के लिए एक दिशानिर्देश के रूप में काम करती है, वह भी उन मामलों में जहां समान तथ्य होते हैं।

आर्टिकल 141 में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय सभी निचली या अधीनस्थ न्यायालयों पर बाध्यकारी है।

सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों से बाध्य नहीं

आर्टिकल 141 अन्य निचली न्यायालयों को सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का पालन करने और अपने निर्णय पर कायम रहने के लिए बाध्य करता है, जो कि स्टेयर डिसीसिस का सिद्धांत है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले से खुद बाध्य नहीं है।

यह अपने पहले के फैसलों का पालन करने में विश्वास रखता है जब तक कि परिस्थितियों बदलाव ना आया हो।

रेश्यो डेसीडेंडी  

निर्णय का वह भाग जो निर्णय के मूल कारण को निर्धारित करता है, रेश्यो डेसीडेंडी कहलाता है। निर्णय के अनुपात पर विचार करना महत्वपूर्ण है क्योंकि यह कानून के शासन को निर्धारित करता है।

प्रोस्पेक्टिव ओवररुलिंग

न्यायिक पूर्व निर्णय का पालन करने का मकसद, पुराने कानूनों को बनाए रखना और उनका पालन करना है न कि हर दिन नए कानूनों का आविष्कार करना। एक पूर्व निर्णय को खारिज तब किया जाता है जब उसके बाद कई बार लोगों के साथ अन्याय होता है, इसलिए इसे रोकने के लिए, प्रोस्पेक्टिव ओवररुलिंग के सिद्धांत का पालन किया जाता है।

प्रोस्पेक्टिव ओवररुलिंग का सिद्धांत उस तंत्र को निर्धारित करता है जिसके अनुसार, उस मामले से जो कानून उत्पन्न हुआ है, जिसने पिछले निर्णय को खारिज कर दिया है, उसी का पालन किया जाएगा।

इस सिद्धांत को सबसे पहले आई.सी. गोलखनाथ बनाम पंजाब राज्य, जहां जस्टिस सुब्बा राव ने इसे लागू किया। उन्होंने इसे अमेरिकी कानून से लिया था जहां विभिन्न प्रतिष्ठित न्यायविदों (जूरिस्ट) ने इसके बारे में  चर्चा की थी।

ऑबिटर डिक्टा

जैसा कि इस लेख में, हम पहले ही रेश्यो डेसीडेंडी पर चर्चा कर चुके हैं, जो निर्णय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। यहाँ ओबिटर डिक्टा, फैसले का दूसरा आधा हिस्सा है, जो महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं है और फैसले के तथ्यों पर विचार करते समय इसे नजरअंदाज किया जा सकता है। यदि किसी को विचार प्रक्रिया और उस निर्णय को लिखने वाले न्यायाधीश की राय के बारे में जानना है, तो वह इसे पढ़ सकता है।

सह-समान बेंच द्वारा खारिज नहीं करना (ओवररूलिंग नॉट बाय को-इक्वल बैंच)

सिद्धराम सतलिंगप्पा म्हेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य में, न्यायालय ने यह कहा कि, बड़ी पीठ का निर्णय छोटी पीठ और सह-पीठ पर बाध्यकारी होगा।

लेकिन क्या होता है अगर फैसले को लेकर दो सह-बेंच के बीच विवाद हो?

इसका उत्तर, मध्य प्रदेश राज्य बनाम माला बनर्जी के  मामले में दिया गया, जिसमें कहा गया था कि इस तरह के विवादों के मामलों में, मामले को एक बड़ी पीठ के सामने पेश किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के डिक्री और आदेशों का प्रवर्तन (एनफोर्समेंट ऑफ डिक्री एंड आर्डर ऑफ सुप्रीम कोर्ट ): आर्टिकल 142

आर्टिकल 142 के अनुसार-

  • न्याय सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट कोई भी आदेश या डिक्री पारित कर सकता है।
  • क्लॉज़ (1) में कहा गया है कि, जब ऐसा आदेश या डिक्री पारित होती है तो यह संसद के कानून द्वारा बनाए गए प्रावधान के तहत पूरे देश में लागू हो जाता है और यदि इसके बारे में कोई प्रावधान नहीं होता, तो इसके द्वारा किए गए प्रावधान, राष्ट्रपति द्वारा विचार किए जाएंगे।
  • सुप्रीम कोर्ट के पास, मामले से संबंधित व्यक्ति की उपस्थिति, किसी भी संबंधित दस्तावेज की खोज या प्रस्तुति, या  न्यायालय की किसी भी अवमानना ​​की जांच या दंड की जांच, करने के लिए आदेश या डिक्री जारी करने की शक्ति है, जो संसद द्वारा निर्धारित प्रावधानों के अधीन होगी।

एक्स-ग्रेशिया ग्रांट 

[संतोष देवी बनाम भारत संघ, 2016]

संतोष देवी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, के मामले को देखते हुए, हम एक्स-ग्रेशिया ग्रांट की अवधारणा को समझ सकते हैं।

इस मामले में, यह कहा गया था कि एक ही परिवार के मृत सदस्य के स्थान पर उसी परिवार के दूसरे सदस्य की अनुकम्पा (कम्पैशनेट) नियुक्ति की प्रक्रिया केवल इस बात को ध्यान में रखकर की जाती है कि, क्या उस सदस्य की आकस्मिक (सडन) मृत्यु अपने परिवार को आर्थिक रूप से प्रभावित किया है या वह सदस्य परिवार का एकमात्र कमाने वाला सदस्य था और उसके निधन के बाद, किसी को उसकी जगह लेने की जरूरत है।

प्रतीक्षा की वैधानिक अवधि को छोड़कर आपसी सहमति से विवाह का विघटन (डिसॉलूशन ऑफ़ मैरिज बाय म्यूच्यूअल कंसेंट वेविंग द स्टटूटोरी पीरियड ऑफ़ वेटिंग)  

उदाहरण के लिए

जुलाई में एक जोड़े ने शादी की जिसके बाद घरेलू हिंसा की घटनाओं के चलते, दोनों अलग रहने लगे। जिसके बाद उन्होंने इस मामले के लिए फैमिली कोर्ट की शरण ली और आपसी सहमति से तलाक के लिए अर्जी दी।

उस मामले में फैमिली कोर्ट ने उन्हें 6 महीने की अवधि के लिए अलग रहने का आदेश दिया। बाद में, महिला एक ऐसे व्यक्ति से शादी करना चाहती थी जो ऑस्ट्रेलिया का निवासी न हो।

महिला द्वारा इसके लिए याचिका दायर करने के बाद हाई कोर्ट ने 18 महीने की अलगाव (सेपरेशन) अवधि को हटा दिया।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अगर शादी के लिए दोनों पक्षों की आपसी सहमति से तलाक हुआ है तो छह महीने की अवधि के अलगाव के नियम को हटा दिया जा सकता है।

पूरी तरह से अव्यवहारिक होने पर विवाह का विघटन (डिजो़ल्यूशन ऑफ मैरिज इफ इट इज टोटली अनवरकेबल)

टूटी हुई शादी को सही नहीं किया जा सकता है, इसलिए हिंदू मैरिज एक्ट और स्पेशल मैरिज एक्ट इस बात का ख्याल रखते है कि जिस विवाह में अभी भी कुछ उम्मीदें हैं, वह टूटा नहीं जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि केवल वह विवाह जो भावनात्मक रूप से मृत हो गया है और पूरी तरह से अव्यवहारिक (अनवर्केबल) है, उसका तलाक की प्रक्रिया के माध्यम से विघटन (डिसोल्यूशन) किया जाना चाहिए।

सालों से अलग रह रहे दंपति का इसमें शामिल लंबे मैकेनिकल के कारण तलाक नहीं होता। यह उनके लिए अपने जीवन सही तरीके से जीने को असंभव बना देता है  क्योंकि वह अभी भी पिछली शादी में फंसे हुए है जो उनके लिए पहले से ही मर चुकी है।

कई लोगों ने आर्टिकल 142 को लागू करने और विवाह के विघटन के कारण के रूप में अपरिवर्तनीय (इरिट्रीवबल) टूटने को लागू करने की सिफारिश की है।

दुर्घटनाओं के पीड़ितों को तत्काल सहायता प्रदान करने और अच्छे लोगों की सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देशों और निर्देशों का प्रवर्तन (एनफोर्समेंट ऑफ़ गाइडलाइन्स एंड डिरेक्शंस टू प्रोवाइड इमीडियेट हेल्प टू द विक्टिम्स ऑफ़ एक्सीडेंट्स एंड टू प्रोटेक्ट गुड समरिटन्स) 

एक अच्छा सामरी वह व्यक्ति होता है, जो वास्तविक इरादे से और उस कार्य के बदले में कुछ भी नहीं चाहता जो वह करता है, किसी दुर्घटना या दुर्घटना में घायल हुए व्यक्ति जो आपात स्थिति में होते हैं और  उन्हें तत्काल चिकित्सा सहायता की आवश्यकता होती है, तो वह उन लोगों की मदद करने या सहायता प्रदान करने के लिए आगे बढ़ता है और ।

अपने अच्छे कार्यों के लिए, अच्छे सामरी को कई दिशा-निर्देशों के तहत सुरक्षा प्रदान की जाती है जो इस प्रकार हैं-

  • यदि घायल व्यक्ति की मृत्यु हो जाती तो अच्छे सामरी के खिलाफ आपराधिक और सिविल मामले पर कोई जांच शुरू नहीं की जाएगी।
  • अच्छे सामरी को अपनी व्यक्तिगत विवरण (डीटेल्स) को प्रकट करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, यदि वह ऐसी दुर्घटना या इसमें शामिल घायल व्यक्ति के बारे में सूचित करता है।
  • कोई भी व्यक्ति जो उसे अपनी व्यक्तिगत जानकारी का खुलासा करने के लिए मजबूर करता है, उसे दंडित किया जाएगा।
  • अच्छे सामरी, घायल व्यक्ति के इलाज का कोई प्रारंभिक खर्च उठाने के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

[सेवलाइफ फाउंडेशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया,2016]

सेवलाइफ फाउंडेशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, मुख्य रूप से एम्बुलेंस कोड, आपातकालीन (इमरजेंसी) प्रक्रियाओं, राजमार्गों (हाईवे) में स्थित अस्पतालों द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया और सदमें से प्रभावित, घायल व्यक्ति के प्रबंधन से संबंधित प्रक्रियाओं से संबंधित था। 

नियम बनाने की सुप्रीम कोर्ट  की शक्ति

सुप्रीम कोर्ट, कॉन्स्टिट्यूशन का सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी है।

आर्टिकल 145 के तहत कॉन्स्टिट्यूशन, सुप्रीम कोर्ट को नियम बनाने का अधिकार देता है। यह संसद के कानून के अनुरूप होना चाहिए और राष्ट्रपति की अनुमति से बनाया जाना चाहिए। ये नियम आम तौर पर न्यायालय की प्रक्रिया के लिए बनाए जाते हैं।

इन नियमों में  निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं-

  • न्यायालय के समक्ष वकालत  का अभ्यास करने वाले व्यक्ति के संबंध में नियम।
  • सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपीलों की सुनवाई से संबंधित नियम और इससे संबंधित सभी मामले।
  • न्यायालय की कार्यवाही के संबंध में नियम।
  • मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए नियम।
  • जमानत देने के संबंध में नियम
  • प्रक्रियाओं पर रोक से संबंधित नियम
  • पूछताछ की प्रक्रिया पर विचार करने वाले नियम

यह आर्टिकल आगे बताता है कि, इसके संबंध में सुप्रीम कोर्ट, इस मामले में निर्णय लेने के लिए बैठने वाले न्यायाधीशों की संख्या भी प्रदान करेगा। यह डिवीजन न्यायालयों और एकल (सिंगल) न्यायाधीशों को प्रदान की जाने वाली शक्तियों के बारे में भी बताता है।

यह सुप्रीम कोर्ट को उन मामलों को तय करने के लिए न्यायाधीशों की संख्या तय करने की शक्ति प्रदान करता है, जिनमें कानून का एक बड़ा प्रश्न शामिल है।

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)

[कॉन्स्टिट्यूशन के तहत जुडिशियरी की स्वतंत्रता को कैसे बनाए रखा जा सकता है]

“हमें कॉन्स्टिट्यूशन की व्याख्या वैसी ही करनी चाहिए जैसी वह है न कि उसके अनुसार, जो हम सोचते हैं कि उसे होना चाहिए। हम हमेशा कुछ ऐसे तरीकों से रूबरू होंगे जिनसे भारत के कॉन्स्टिट्यूशन की भावना को संशोधित किया जा सकता है, लेकिन फिर हम इसकी व्याख्या करने की आड़ में कॉन्स्टिट्यूशन को दोबारा से लिखेंगे। प्रख्यात विधिवेत्ता पी.एन. भगवती ने एक मामले के फैसले के दौरान यह बात कही थी।

कॉन्स्टिट्यूशन ने शक्तियों के विभाजन की अवधारणा प्रदान की और जुडिशियरी की स्वतंत्रता कॉन्स्टिट्यूशन की मूल विशेषता थी।

जबकि भारत में फर्स्ट जजेज केस, सेकेंड जजेज केस और थर्ड जजेज केस जैसे मामले देखे गए, जहां इसने शक्तियों के विभाजन और जुडिशियरी की स्वतंत्रता को रद्द किया। लेकिन हर उदाहरण के बाद भी जुडिशियरी की स्वतंत्रता बरकरार रही।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एन.जे.ए.सी.) और 99वे संशोधन के रद्द होने से, कॉन्स्टिट्यूशन की मूल विशेषता को पुनः स्थापित कर दिया गया।

यह नहीं भूलना चाहिए कि बेसिक स्ट्रक्चर, कॉन्स्टिट्यूशन का सार है और किसी भी परिस्थिति में इसे बदला या समाप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि यह न्याय के प्रशासन के लिए उचित तंत्र है। हमारी जुडिशियरी को स्वतंत्र होना चाहिए जैसा कि हमारे कॉन्स्टिट्यूशन निर्माताओं का इरादा था और हमें उनके इरादे  को सुनिश्चित करना चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए।

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