सेंटर-स्टेट संबंध: एडमिनिस्ट्रेटिव

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Constitution of India 1950
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यह लेख निरमा विश्वविद्यालय के विधि संस्थान की छात्रा Paridhi Dave ने लिखा है। यह एक विस्तृत लेख है जो महत्वपूर्ण केस कानूनों के साथ-साथ यूनियन और स्टेट्स के बीच एडमिनिस्ट्रेटिव संबंधों से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

कंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया, 1950 देश का आदर्श है। यह मुख्य रूप से ढांचा (फ्रेमवर्क) तैयार करता है जो विभिन्न सरकारी संस्थानों (इंस्टीट्यूशन) के राजनीतिक सिद्धांतों (प्रिंसिपल), प्रक्रियाओं, शक्तियों और कर्तव्यों (ड्यूटी) को परिभाषित करता है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राईट) और कर्तव्यों आदि को निर्धारित करता है।

कंस्टीट्यूशन, सरकार की संसदीय प्रणाली (पार्लियामेंट्री सिस्टम) का पालन करता है। इसके अलावा, यह शक्तियों के विभाजन (डिवीजन) के सिद्धांत का पालन करता है। कंस्टीट्यूशन न तो पूरे रूप से फेडरल है और न ही पूरे रूप से यूनिटरी है। विद्वानों ने अक्सर इसे ‘अर्ध-संघीय (क्वासी-फेडरल)’ के रूप में परिभाषित किया है। भारत समय के साथ प्रतिस्पर्धी संघवाद (कंपीटिटीव फेडरलिज़्म) से सहकारी (कॉपरेटिव) संघवाद की ओर बढ़ गया है।

यह लेख ऐडमिनिस्ट्रेशन के क्षेत्र में सेंटर और स्टेट्स के बीच संबंधों की जांच करता है।

सेंटर और स्टेट्स के बीच एडमिनिस्ट्रेटिव संबंध

भारत के कंस्टीट्यूशन के आर्टिकल 256 से आर्टिकल  263 के तहत सेंटर और स्टेट्स के बीच एडमिनिस्ट्रेटिव संबंध बताए गए हैं। सेंटर-स्टेट संबंधों को निर्धारित करने के लिए भारत सरकार ने 2007 में पुंछी कमिशन का भी गठन (कांस्टीट्यूट) किया था।

कंस्टीट्यूशन का आर्टिकल 246, पार्लियामेंट और स्टेट लेजिस्लेचर द्वारा बनाए जाने वाले कानूनों के विषय से संबंधित है। कंस्टीट्यूशन, अनुसूची (शेड्यूल) VII के तहत, तीन सूचियाँ निर्धारित करता है। ये सूचियाँ सेंटर और स्टेट्स के बीच विषयों को विभाजित करती हैं। सूची I यूनियन सूची है, सूची II स्टेट सूची है और सूची III काॅन्करंट सूची है।

एक निर्धारित नियम के रूप में, सेंटरल सरकार के पास उन मामलों पर एडमिनिस्ट्रेटिव अधिकार हैं जिन पर पार्लियामेंट को कानून बनाने का अधिकार है। स्टेट सरकारें, स्टेट सूची में निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) मामलों पर एडमिनिस्ट्रेटिव अधिकार का प्रयोग करती हैं।

स्टेट्स और यूनियन के दायित्व (द ओब्लिगेशन ऑफ स्टेट्स एंड यूनियन)

भारत के कंस्टीट्यूशन के आर्टिकल 256 को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

सबसे पहले, यह निर्धारित करता है कि स्टेट की कार्यकारी (एक्जीक्यूटिव) शक्तियों का प्रयोग इस तरह से किया जाना है कि यह पार्लियामेंट द्वारा बनाए गए कानूनों या स्टेट में लागू होने वाले किसी अन्य मौजूदा कानूनों का पालन करता है। दूसरा, इसमें कहा गया है कि यूनियन की कार्यकारी शक्ति के दायरे में ऐसे निर्देश शामिल हैं जो सेंटर सरकार द्वारा स्टेट को दिए जाते हैं, जिसे वह इस उद्देश्य के लिए आवश्यक समझता है।

इस प्रावधान (प्रोविजन) को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि यदि स्टेट पहले भाग का विधिवत (ड्युली) पालन करते हैं, तो दूसरा भाग आवश्यक नहीं लगता। जबकि, यदि दूसरा भाग, कभी-कभी अपने उद्देश्य की पूर्ति करता है, तो यह स्पष्ट होता है कि स्टेट प्रावधान के पहले भाग का उल्लंघन करने का दोषी हैं।

कंस्टीट्यूशन इस प्रावधान को इस धारणा (अज़म्प्शन) के साथ निर्धारित करता है कि स्टेट किसी भी समय, जानबूझकर अवज्ञा (डिफाइंस) या अपने कर्तव्यों की लापरवाही के दोषी होंगे।

आर्टिकल 256, गर्वनमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 की सेक्शन 122 का उत्तराधिकारी (सक्सेसर) है। हालांकि यह प्रावधान पालन ना किए जाने के मामले में परिणामों के बारे में विशेष रूप से चुप है, कंस्टीट्यूशन के आर्टिकल 365 में कठोर स्वीकृति (ड्रास्टिक सैंक्शन) निर्धारित की गई है। व्याख्या करने के लिए, यदि कोई स्टेट, सेंटर द्वारा जारी निर्देशों का पालन करने में विफल रहता है, तो राष्ट्रपति के लिए यह मानना ​​​​वैध है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें स्टेट सरकार को कंस्टीट्यूशन के प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है। इसलिये, एक स्टेट आपातकाल (इमरजेंसी) लगाया जा सकता है। इस प्रावधान का प्राथमिक (प्राइमरी) विषय यह है कि सभी स्टेटट्स में सेंटरल कानूनों का उचित निष्पादन (एक्जीक्यूशन) होना चाहिए।

पूर्व उदाहरण (प्रेसेडेंट)

रामेश्वर उरांव बनाम बिहार स्टेट और अन्य 1995 के मामले में, यह देखा गया कि स्टेट सरकार को सेंटर सरकार द्वारा जारी निर्देशों के अनुसार कार्य करना अनिवार्य है।

कर्नाटक स्टेट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1977) के मामले में, यह माना गया था कि सेंटर एक स्टेट को कानूनी इकाई (एंटिटी) के रूप में आर्टिकल 256 के तहत निर्देश जारी कर सकता है, न कि भौगोलिक (ज्योग्राफिकल) या क्षेत्रीय (टेरिटोरियल) इकाई के रूप में। इसके अलावा, राजस्थान स्टेट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1977) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि आर्टिकल 256 के तहत सेंटर द्वारा स्टेट सरकार को निर्देश जारी करना उचित है यदि सेंटर सरकार की राय है, कि स्टेट की कार्यकारी शक्ति का प्रयोग सेंटरल कानूनों के प्रवर्तन के उल्लंघन में हो सकता है।

स्वराज अभियान बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2017) में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान पर ध्यान आकर्षित किया, इसे ‘भूल गया प्रावधान’ कहा। कंस्टीट्यूशन के लागू होने के बाद से इस प्रावधान का शायद ही कभी उपयोग हुआ हो।

कुछ मामलों में स्टेट्स पर यूनियन का नियंत्रण (कंट्रोल ऑफ द यूनियन ओवर स्टेट्स इन सर्टेन केसेस)

भारत के कंस्टीट्यूशन, 1950 का आर्टिकल 257 इस विषय से संबंधित है।

आर्टिकल 257(1) में प्रावधान है कि स्टेट की कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह केन्द्र की कार्यपालिका शक्तियों के प्रयोग में बाधा या प्रतिकूल प्रभाव न डाले। इसके अलावा, इस क्लॉज का दूसरा भाग आर्टिकल 256 के समान है। यह बताता है कि सेंटर आवश्यक समझे जाने वाले उद्देश्यों के लिए स्टेट सरकारों को निर्देश जारी कर सकता है।

आर्टिकल 257 (2) में प्रावधान है कि स्टेट्स को निर्देश जारी करने की, यूनियन की कार्यकारी शक्ति का विस्तार राष्ट्रीय या सैन्य (मिलिट्री) महत्व के घोषित संचार (कम्युनिकेशन) के साधनों के निर्माण (कंस्ट्रक्शन) और रखरखाव (मेंटिनेंस) के मामलों तक भी होगा। कंस्टीट्यूशन की प्रविष्टि (एंट्री) 13, सूची II, अनुसूची VII के तहत संचार स्टेट का विषय है – यूनियन को निर्देश जारी करने का अधिकार दिया गया है।

प्रोविसो कहता है कि इस विशेष प्रावधान में कुछ भी पार्लियामेंट की शक्ति को सीमित करने के रूप में नहीं माना जाएगा:

  • कुछ राजमार्गों (हाईवेज़) या जलमार्गों (वाटरवेज़) को राष्ट्रीय राजमार्ग या जलमार्ग घोषित करना;
  • नौसेना, सैन्य और वायु सेना के उद्देश्यों के संदर्भ में, अपने कार्यों के एक भाग के रूप में संचार के साधनों का निर्माण और रखरखाव करना।

आर्टिकल 257(3) में प्रावधान है कि स्टेट्स को निर्देश जारी करने की, यूनियन की कार्यकारी शक्ति का विस्तार किसी विशेष स्टेट के भीतर रेलवे की सुरक्षा के लिए किए जाने वाले आवश्यक उपायों तक भी होगा।

आर्टिकल 257(4) प्रावधान कहता है कि क्लॉज (2) या क्लॉज (3) के तहत निर्देशों के पालन के उद्देश्य से, स्टेट्स को अतिरिक्त लागत (कॉस्ट) वहन (बीयर) करना पड़ता है, जो स्टेट की अनुपस्थिति में, स्टेट के सामान्य कर्तव्यों के निर्वहन नहीं होता है। इस तरह के निर्देशों के बाद, इन लागतों का भुगतान भारत सरकार द्वारा सहमति के अनुसार किया जाएगा। यदि समझौते (एग्रीमेंट) में कोई चूक होती है, तो स्टेट द्वारा इस प्रकार किए गए अतिरिक्त लागतों का योग भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त मध्यस्थ (आर्बिट्रेटर) द्वारा निर्धारित किया जाएगा।

कुछ मामलों में स्टेट्स को शक्तियां आदि प्रदान करने की यूनियन की शक्ति 

भारत के कंस्टीट्यूशन, 1950 का आर्टिकल 258 इस विषय की सामग्री को निर्धारित करता है।

आर्टिकल 258(1) एक गैर-बाधक (ऑब्सटेंट) क्लॉज से शुरू होता है। इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति, स्टेट के गवर्नर की अनुमति से, स्टेट सरकार या उसके अधिकारियों को यूनियन की कार्यकारी शक्ति के दायरे में शामिल, किसी भी मामले से संबंधित कार्यों को करने के लिए सशर्त (कंडीशनली) या बिना शर्त (अनकंडीशनली) सौंप सकते हैं।

आर्टिकल 258(2) में यह प्रावधान है कि पार्लियामेंट द्वारा बनाया गया कानून जो किसी भी स्टेट में लागू होता है, कुछ शक्तियां प्रदान कर सकता है और कर्तव्यों को लागू कर सकता है, या स्टेट या उसके अधिकारियों को शक्तियां प्रदान करने और कर्तव्यों को लागू करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) कर सकता है। क्लॉज के भीतर एक गैर-बाधक क्लॉज है। इसमें कहा गया है कि यदि स्टेट के लेजिस्लेचर को उस मामले पर कानून बनाने की कोई शक्ति नहीं है, तो भी पार्लियामेंट द्वारा बनाया गया कानून लागू होता है।

आर्टिकल 258(3) में कहा गया है कि ऐसी प्रदत्त (इंक्यूर) शक्तियों और कर्तव्यों के प्रयोग के संबंध में स्टेट्स को एडमिनिस्ट्रेशन की अतिरिक्त लागत का भुगतान, भारत सरकार द्वारा किया जाएगा – ऐसी राशि जो सहमत हो सकती है। यदि समझौते में कोई चूक होती है, तो स्टेट द्वारा इस प्रकार किए गए अतिरिक्त लागतों का योग भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त मध्यस्थ द्वारा निर्धारित किया जाएगा।

यूनियन  को कार्य सौंपने की स्टेट्स की शक्ति (पॉवर ऑफ द स्टेट्स टू इंट्रस्ट फंक्शन टू द यूनियन)

यह शक्ति भारत के कंस्टीट्यूशन के आर्टिकल 258-A के तहत निर्धारित की गई है। आर्टिकल एक गैर-बाधक क्लॉज के साथ शुरू होता है। इसमें कहा गया है कि किसी स्टेट का गवर्नर, सेंटर सरकार की सहमति से, उस विशेष स्टेट की सरकार या उसके अधिकारियों को सशर्त या बिना शर्त, कार्य सौंप सकता है, जो किसी भी मामले से संबंधित है जो स्टेट कि कार्यकारी शक्ति के दायरे में शामिल है।

इस प्रावधान को कंस्टीट्यूशन (7वां अमेंडमेंट) एक्ट, 1956 द्वारा कंस्टीट्यूशन में शामिल किया गया था।

भारत के बाहर के क्षेत्रों के संबंध में यूनियन का अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन ऑफ द यूनियन इन रीलेशन टू टेरिटरीज आउटसाइड इंडिया)

भारतीय कंस्टीट्यूशन का आर्टिकल 260 विदेशी क्षेत्रों के संबंध में अधिकार क्षेत्र से संबंधित है। आर्टिकल में कहा गया है कि भारत सरकार किसी भी क्षेत्र की सरकार के साथ एक समझौता कर सकती है जो भारतीय क्षेत्र का हिस्सा नहीं है। यह समझौता उस क्षेत्र की सरकार में निहित (अंडरटेक) किसी भी कार्यकारी, विधायी (लेजिस्लेटिव) या न्यायिक कार्यों को करने के लिए किया जाता है। ऐसे सभी समझौते किसी भी कानून के अधीन और शासित (गवर्नड) होते हैं, जो उस समय लागू विदेशी क्षेत्राधिकार के प्रयोग से संबंधित होते हैं।

यह एक गुप्त उत्साहवर्धक (एंबोलडनिंग) प्रावधान है। कंस्टीट्यूशन सभा (असेंबली) ने इस प्रावधान पर तीन अलग-अलग सत्रों (सेशन) में बहस की – 25 जुलाई, 1947; 28 जुलाई, 1947 और 25 अगस्त, 1947। इन बहसों के अवलोकन (पर्सुअल) पर, यह समझा जा सकता है कि इस प्रावधान के पीछे का मकसद उन स्टेट्स के ऐडमिनिस्ट्रेशन को सुविधाजनक बनाना था जो भारतीय यूनियन में शामिल नहीं हुए थे।

सर्वोच्च न्यायालय ने जी वी के इंडस लिमिटेड और अन्य बनाम आयकर अधिकारी और अन्य (2011), में फैसला सुनाया है, कि यह आर्टिकल केवल उन मामलों में लागू किया जाना है, जब इस तरह के कानूनों का भारत या भारतीय क्षेत्र के लोगों पर प्रभाव पड़ता है या परिणाम होता है। सेंटर सरकार के विदेशी क्षेत्राधिकार के प्रयोग के लिए पार्लियामेंट ने इस आर्टिकल के अनुसार फॉरेन ज्यूरिसिक्शन एक्ट, 1947 भी अधिनियमित (प्रोवाइड) किया है।

सार्वजनिक कृत्य, अभिलेख और न्यायिक कार्यवाही (पब्लिक एक्ट, रिकॉर्ड्स एंड ज्यूडिशियल प्रोसिडिंग)

भारत के कंस्टीट्यूशन का आर्टिकल 261 सार्वजनिक कृत्यों, अभिलेखों और न्यायिक कार्यवाही से संबंधित है।

आर्टिकल 261(1) में प्रावधान है कि पूरे भारत में यूनियन और प्रत्येक स्टेट के सभी सार्वजनिक कृत्यों, अभिलेखों और न्यायिक कार्यवाहियों को पूर्ण विश्वास और श्रेय (क्रेडिट) दिया जाना चाहिए।

आर्टिकल 261(2) में प्रावधान है कि जिस तरीके और शर्तों के तहत उपरोक्त कृत्यों, अभिलेखों और कार्यवाही को उसके प्रभाव के साथ साबित किया जाना है, वह पार्लियामेंट द्वारा बनाए गए कानून द्वारा प्रदान किया जाएगा।

आर्टिकल 261(3) में कहा गया है कि अंतिम निर्णय या आदेश जो भारतीय क्षेत्र के किसी भी हिस्से में स्थित सिविल अदालतों द्वारा दिए या पास किए जाते हैं, कानून के अनुसार उस क्षेत्र के भीतर कहीं भी निष्पादन (एक्जिक्यूशन) में सक्षम हैं।

अंतर स्टेट्स नदियों या नदी घाटियों के जल से संबंधित विवादों का न्यायनिर्णयन (एडज्यूडिकेशन ऑफ डिस्प्यूट्स रिलेटिंग टू वॉटर ऑफ इंटर स्टेट्स रिवर और रिवर वैली)

भारत के कंस्टीट्यूशन का आर्टिकल 262 उपर्युक्त मुद्दों से संबंधित विवादों के न्यायनिर्णयन (एडज्यूडिकेशन) से संबंधित है।

आर्टिकल 262(1) में कहा गया है कि पार्लियामेंट किसी भी अंतर-स्टेट्स नदी या नदी घाटी (वैली) के पानी के उपयोग, वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन) या नियंत्रण के संदर्भ में किसी विवाद या शिकायत के न्यायनिर्णयन के लिए कानून बना सकती है।

आर्टिकल 262(2) एक गैर-बाधक क्लॉज से शुरू होता है और यह प्रदान करता है कि पार्लियामनेट कानून द्वारा यह प्रदान कर सकती है, कि न तो एपेक्स न्यायालय और न ही कोई अन्य अदालत क्लॉज (1) में उल्लिखित किसी भी ऐसे विवाद या शिकायत के संबंध में अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने में सक्षम होगी।

स्टेट्स को पानी के इस मुद्दे पर प्रवेश 17, स्टेट सूची, अनुसूची VII के तहत कानून बनाने की शक्ति है। यूनियन को प्रवेश 56, यूनियन सूची, अनुसूची VII के तहत उसी पर कानून बनाने का अधिकार है।

आर्टिकल 262 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए, पार्लियामेंट ने इंटर स्टेट वाटर डिस्प्यूट्स एक्ट, 1956 को अधिनियमित किया। यदि जल विवादों को बातचीत से सुलझाया नहीं जा सकता है तो सेंटर सरकार ऐसे विवादों के न्यायनिर्णयन के लिए जल विवाद न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) की स्थापना करती है। वर्तमान में पांच सक्रिय न्यायाधिकरण हैं – अर्थात्, रावी और ब्यास जल न्यायाधिकरण, कृष्णा जल विवाद न्यायाधिकरण- II, वसुंधरा जल विवाद न्यायाधिकरण, महादयी जल विवाद न्यायाधिकरण और महानदी जल विवाद न्यायाधिकरण। अंतर स्टेट्स जल के मुद्दे से संबंधित कई कानूनी सिद्धांत हैं। इनमें शामिल हैं – रिपेरियन राइट्स का सिद्धांत, पूर्व विनियोग (अप्रोप्रिएशन), क्षेत्रीय संप्रभुता (साॅवरेनिटी), ब्याज का समुदाय और न्यायसंगत विभाजन (कम्युनिटी ऑफ इंटरेस्ट एंड इक्विटेबल अपॉर्शनमेंट)।

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के मुख्य सचिव के माध्यम से केरल स्टेट बनाम सरकार के मुख्य सचिव के माध्यम से तमिलनाडु स्टेट (2018) के फैसले में आखिरकार सदियों से चले आ रहे कावेरी जल विवाद को सुलझा लिया।

एक अंतर स्टेट परिषद के संबंध में प्रावधान (प्रोविजंस विथ रिस्पेक्ट टू एन इंटर स्टेट काउन्सिल)

भारत के कंस्टीट्यूशन के आर्टिकल 263 के तहत, यदि राष्ट्रपति का मानना ​​है कि एक अंतर-स्टेट परिषद (काउन्सिल) की स्थापना से सार्वजनिक हितों की सेवा में मदद मिलेगी, तो राष्ट्रपति के लिए आदेश द्वारा ऐसी परिषद की स्थापना करना वैध है। वह परिषद द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों की प्रकृति, उसके संगठन (ऑर्गेनाइजेशन) और पालन की जाने वाली प्रक्रिया को भी परिभाषित करेगा।

राष्ट्रपति निम्नलिखित कर्तव्यों के साथ परिषद को आदेश कर सकता है:

  1. स्टेट्स के बीच उत्पन्न होने वाले विवादों की जांच और सलाह देना;
  2. उन विषयों की जांच और चर्चा करना जिनमें कुछ या सभी स्टेट, या यूनियन और एक या अधिक स्टेट एक समान रुचि प्रदर्शित (डिस्प्ले) करते हैं;
  3. किसी विषय पर सिफारिश करना और विशेष रूप से उस विषय से संबंधित नीति (पॉलिसी) और कार्रवाई के समन्वय (कॉर्डिनेशन) को बढ़ाने के लिए सिफारिशें करना।

अंतर-स्टेट परिषद की स्थापना सरकारिया कमिशन, 1988 की सिफारिशों के आधार पर की गई थी। परिषद की स्थापना, 1990 में राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार की गई थी। यह परामर्श (कंसल्टेशन) के लिए एक स्थायी (परमानेंट) स्वतंत्र राष्ट्रीय मंच के रूप में कार्य करता है। परिषद को हाल ही में 2019 में पुनर्गठित (रीकांस्टीट्यूट) किया गया था, जिसके अध्यक्ष प्रधान मंत्री थे।

सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट, 2019 के लागू होने के कारण मौजूदा संकट में सेंटर और स्टेट्स के बीच अविश्वास बढ़ा है। संवैधानिक संकट के ऐसे समय में, यह आवश्यक है कि परिषद एक सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनियस) समाधान पर पहुंचने के लिए बैठक करे।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

भारतीय कंस्टीट्यूशन का उद्देश्य सहयोगी या सहकारी संघवाद की स्थापना करना है। सेंटर और स्टेट्स के बीच शक्तियों के विभाजन के माध्यम से, स्टेट्स को यह सुनिश्चित करने के लिए एक निश्चित स्वायत्तता (ऑटोनोमी) प्रदान की जाती है कि जमीनी स्तर पर एडमिनिस्ट्रेशन कुशल बना रहे। साथ ही, सेंटर संतुलन बनाए रखने के लिए स्टेट्स पर अपनी शक्ति का प्रयोग करता है।

एक यूनियन के रख-रखाव के रास्ते में कई चुनौतियाँ हैं लेकिन प्रमुख समाधान है स्वस्थ बहस और इसमें शामिल पक्षों के बीच चर्चा।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

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