नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया: फैसला जिसने होमसेक्शूऐलिटी को अपराध से मुक्त कर दिया

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India Penal Code 1860
Image Source-https://rb.gy/zdhizr

यह लेख सिम्बायोसिस लॉ स्कूल,पुणे के छात्रा Amandeep Kaur ने लिखा है। इस लेख में लेखक विस्तार से, भारतीय दंड संहिता 1860 (इंडियन पीनल कोड,1860) की धारा 377, के लंबे सफर की व्याख्या करते हैं, इसके इतिहास चुनौती और अब अपराध से मुक्त होने का विवरण करते है। इस लेख का अनुवाद Zikra Mansoor ने किया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन) 

भारत, होमसेक्शूऐलिटी को वैध (लीगल) घोषित करने और एल.जी.बी.टी. के अधिकार को मान्यता देने वाला, एशिया की 28 देशों की सूची में शामिल हो गया है। नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ के फैसले ने भारत के कई लोगों की जिंदगियां बदली है। इस फैसले के पूर्व भारत में लैसबियन, गे, बाइसेक्शूअल और ट्रांसजेंडर समाज के कोई अधिकार नहीं थे और होमसेक्शूऐलिटी, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 377 के अंतर्गत दंडनीय अपराध था।

धारा 377 की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (हिस्टोरिकल बैकग्राउंड ऑफ सेक्शन 377)

प्राचीन भारत में होमसेक्शूऐलिटी ना ही अपराध था और ना ही दंडनीय था, ऐसे कई उदाहरण है जो इस बात की पुष्टि करते हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित है-

  • खजुराहो मंदिर- यह ख्यात मंदिर मध्यप्रदेश में स्थित है और ऐसी कई मूर्तियों से सजाया गया है जो कामुकता (सेक्शूऐलटी) को दर्शाती है। दसवीं शताब्दी में यह मंदिर राजपूत चंदेल राजवंश (राजपूत चंदेला डायनेस्टी) के राजाओं ने बनवाया था। मानव प्रकृति के सभी भावों को दर्शाने वाला ऐसा कोई अन्य मंदिर भारत में नहीं मिलेगा। इनमें से कई मूर्तियां होमसेक्शूऐलिटी दर्शाती है और इस बात का परिमाण देती है कि प्राचीन भारत में होमसेक्शूऐलिटी मौजूद थी।
  • मनुस्मृति- यह एक प्रसिद्ध कानून संहिता है, जिसका पालन प्राचीन भारत के ज्यादातर लोग करते थे। यह संहिता पुरुष या महिला द्वारा किए समलैंगिक कार्य के लिए दंड निर्धारित करता है।  हालांकि, यह आलेख (स्क्रिप्ट), समलैंगिक कार्यों की पुष्टि (अप्रूव) नहीं करता और इस बात का परिमाण देता है कि प्राचीन भारत में होमसेक्शूऐलिटी मौजूद नहीं था।
  • अर्थशास्त्र- यह एक प्राचीन नियमावली (मैनुअल) है, जिसे “कौटिल्य अर्थशास्त्र” कहा जाता है। यह प्राचीन भारत में होमसेक्शूऐलिटी के मौजूद न होने का अन्य परिमाण देता है क्योंकि यह नियमावली इस बात की पुष्टि करता है कि राजा पर यह जिम्मेदारी थी कि वह होमसेक्शूऐलिटी के लिए लोगों को दंड दे। 

होमसेक्शूऐलिटी को अपराध किसने बनाया (हु क्रिमिनलाइज़ड होमसेक्शूऐलिटी) ?

यह वह प्रश्न है जिसका उत्तर जानने के लिए समलैंगिक स्त्री, समलैंगिक पुरुष, बाइसेक्शूअल और ट्रांसजेंडर समाज के सभी लोग उत्सुक हैं। भारतीय दंड संहिता,1860, ब्रिटिश औपनिवेशिक (कॉलोनियल) शासक द्वारा 19वी शताब्दी में बनाया गया था। यह संहिता पूर्ण रूप से, उस वक्त के अंग्रेजी कानूनों पर आधारित था और तमाम जटिल (कॉम्प्लिकेटेड) स्थितियों से भरा हुआ था और धारा 377 उनमें से एक है। धारा 377, 16वीं शताब्दी के द बुग्गेरी एक्ट,1533 के अनुसार बनाया गया था।

द बुग्गेरी एक्ट,1533

यह अधिनियम समलैंगिक कार्य, सोडोमी, जानवरों से जुड़ी यौन गतिविधियाँ (सेक्शूअल एक्टिविटीज) को अप्राकृतिक (अननेचुरल) अपराध परिभाषित करता है। इंग्लैंड के सांसद (पार्लियामेंट) ने इस अधिनियम को 1533 में, किंग हेनरी VII के शासन में पारित किया। इस अधिनियम के अंतर्गत अप्राकृतिक अपराध, मृत्यु दंड द्वारा दंडित किया जाता था। थाॅमस मैकविले के द्वारा, भारत की सबसे पहली विधि आयोग (लॉ कमीशन) यह कानून लाया गया और इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के प्रारूप (ड्राफ्ट) में शामिल किया ।  

धारा 377 की चुनौतियां (चैलेंजेज़ टू सेक्शन 377)

नॉन गवर्नमेंट आर्गेनाईजेशन -एड्स भेदभाव विरोधी अभियान (ए.बी.वी.ए.)

धारा 377 ने सबसे पहली चुनौती का सामना 1994 में किया। इस गैर सरकारी संगठन ने दिल्ली हाई कोर्ट में, इस धारा को अपराध से मुक्त करने की याचिका दायर करी।  मामले के तथ्य कुछ इस तरह थे, तिहार जेल में होमसेक्शूऐलिटी का ऑब्जर्वेशन करने के बाद संगठन के कर्मचारी, पुरुष कैदियों को निरोध (कंडोम) बांटना चाहते थे परंतु उस वक्त की तिहार जेल की सुपरिंटेंडेंट, किरण बेदी ने इसकी पुष्टि (अप्रूवल) यह कहते हुए नहीं करी, की यह होमसेक्शूऐलिटी को बढ़ावा देगा।  2001 में यह याचिका खारिज कर दी गई।

नाज फाउंडेशन बनाम गवर्नमेंट ऑफ़ एन.सी.टी. ऑफ दिल्ली अन्य (2009)

मामले के तथ्य (फैक्टस ऑफ द केस) 

यह एक स्पेशल लीव पिटिशन थी, जिसे 2006 में गैर- सरकारी संगठन ‘नाज फाउंडेशन’ ने जनहित याचिका( पी.आई.एल.) के रूप में दायर किया, इसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद 2004 में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए रिव्यू पिटिशन दायर की गई, जिसको  खारिज कर दिया गया। नाज फाउंडेशन, एच.आई.वी और एड्स से बचाव के लिए कार्य करता है और इसलिए, इनका पारस्परिक विचार, समलैंगिक लोगों से भी हुआ। संस्था के मुताबिक समलैंगिक लोगों का समुदाय एच.आई.वी की चपेट में आने की ज्यादा संभावना रखता है क्योंकि यह समुदाय समाज द्वारा भेदभाव और शोषण का पात्र है और शासकीय प्राधिकारी (पब्लिक अथॉरिटी) द्वारा भी इन्हें नजरअंदाज किया जाता है। संस्था के मुताबिक भारतीय दंड संहिता की धारा 377, अनुच्छेद 14,15 और 21 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, जो समलैंगिक लोगों के लिए भी है।

उठाए गए मुद्दे (इश्यूज रेज़ड)

  • क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 377, संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन (वॉयलेट) करती है?
  • क्या धारा 377, संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन  करती है?
  • क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 377 असंवैधानिक (अनकंस्टीट्यूशनल) है?

याचिकाकर्ता के तर्क (आरग्यूमेंट फ्रॉम द पेटीशनर साइड)

  • याचिकाकर्ता के अनुसार होमसेक्शूऐलिटी को अपराध बनाने वाली धारा 377 समय के अनुकूल (डेटेड) नहीं है और आधुनिक (मॉडल) समाज के अनुसार परिवर्तन की आवश्यकता रखती है। धारा 377, अनुच्छेद 21 में दिए, जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती है क्योंकि आपसी सहमति से निजी रूप से यौन संबंध बनाना अत्याधिक निजी मामला है और यह धारा निजता (प्राइवेसी) के अधिकार, जो कि संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आता है, उसका भी उल्लंघन करती है। 
  • धारा 377, लिंग के आधार पर भी भेदभाव करती है, यौन अभिविन्यास (ओरियंटेशन) के आधार पर समलैंगिक लोगों से भेदभाव करना, अनुच्छेद 15 के अंतर्गत उनके अधिकार का उल्लंघन करता है।
  • धारा 377 जो अप्रकृतिक अपराधों को दंडित करती है, उसका कोई तर्कसंगत (रेशनल) संबंध, प्रजनन (प्रोक्रिएटिव) और गैर-प्रजनन (नॉन-प्रोक्रिएटिव) यौन कृत्य के विभाजन (क्लासिफिकेशन) से नहीं है।
  • उपर्युक्त तर्कों के आधार पर यह कहा जाता है कि, धारा 377 जो निजी रूप से आपसी सहमति से बालिग लोगो की यौन गतिविधि को दंडित करती है, उसे हटा दिया जाना चाहिए।

प्रतिवादी पक्ष के तर्क (आरग्यूमेंट फ्रॉम द रेस्पोंडेंट साइड)

  • भारत सरकार के गृह मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स) द्वारा दिए गए शपथ पत्र (एफिडेविट) के अनुसार धारा 377, बाल यौन शोषण (एब्यूज़) के मामलों को रोकने के लिए कानून में शामिल की गई थी। उन्होंने यह कहा कि ऐसी गतिविधियां केवल इसलिए नहीं वैध मानी जा सकती कि यह बालिग लोगों की सहमति से हुइ हैं बल्कि शासकीय प्राधिकारी द्वारा निजी और पारिवारिक मामलों में समाज की सुरक्षा, सेहत और नैतिकता को बचाने के लिए हस्तक्षेप (इंटरफेयर) किया जा सकता है।
  • राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन) (नाको) ने, नाज फाउंडेशन के समलैंगिक लोगों के एच.आई.वी. की चपेट में आने की ज्यादा संभावना होने, के तर्क को स्वीकृत किया। उनकी रिपोर्ट के अनुसार, करीब 25 लाख समलैंगिक लोग उच्च जोखिम व्यवहार श्रेणी (हाई रिस्क बिहेवियर ग्रुप) में हैं। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) ने अपने शपथ पत्र में ऐसे तमाम उपाय सुझाए हैं जिन्हें अपनाकर हम समलैंगिक लोगों को एच.आई.वी. के खतरे से बचा सकते हैं। 
  • प्रतिवादी न. 8, 12 ऐसी संस्थाओं (ऑर्गेनाइजेशन) का समागम (कोअलिशन) है जो बाल अधिकार, महिला अधिकार, मानव अधिकार, स्वास्थ्य मामले और लैसबियन, गे,बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर समाज के अधिकार का प्रतिनिधित्व करते है। प्रतिवादी न. 8, याचिकाकर्ता के तर्कों से सहमति रखते हुए यह कहते है कि, हमें धारा 377 में निहित भेदभाव को हटाने की आवश्यकता है।

फैसला (जजमेंट गिवेन)

  • यदि कोई व्यक्ति एक ही लिंग के व्यक्ति के साथ यौन संबंध बेहतर समझता है, और अगर ऐसी यौन भागीदारी (इंवॉल्वमेंट), आपसी सहमति से हुई हो और किसी अन्य को नुकसान ना पहुंचाती हो तो ऐसे मामलों में दखल, अनुच्छेद 21 में दिए गए निजता के अधिकार (राइट टू प्राइवेसी) का उल्लंघन होगा। कोर्ट ने मानव अधिकारों के सार्वजनिक घोषणापत्र (यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स) के अनुच्छेद 12, नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय प्रण (इंटरनेशनल कॉवेनेनट ऑफ सिविल एंड पॉलीटिकल राइट्स) के अनुच्छेद 17 और मानव अधिकारों पर यूरोपीय सम्मेलन (यूरोपियन कन्वेंशन ऑन ह्यूमन राइट्स) से संदर्भ लिया।
  • गौरव (डिग्निटी) के साथ जीने का अधिकार, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन के अधिकार के अंतर्गत आता है और धारा 377 किसी व्यक्ति की पहचान का अपराधीकरण उसकी लैंगिकता के आधार पर करना, इस अधिकार का उल्लंघन होगा। 
  • समलैंगिक लोग और ट्रांसजेंडर समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है और धारा 377 इसको आरोपित करती है, एल.जी.बी.टी. समुदाय समाज के अनुसार जिंदगी जीने पर मजबूर है और उत्पीड़न (हैरेसमेंट), शोषण (एक्सप्लोइटेशन), क्रूरता और अपमान का पात्र है। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा ने आपसी संबंध से किए गए आप्राकृतिक मामलों को अपराध से मुक्त कर दिया है।
  • विधि आयोग ने अपनी 142 रिपोर्ट में यह इच्छा जाहिर की, कि उनकी रिपोर्ट के अनुसार धारा 377 को हटा दिया जाए। धारा 377, असहमति (नॉन कंसेंशुअल) से किए गए यौन और बाल शोषण से बचाव के लिए लाई गई थी, परंतु अब धारा 375 से 376E के निवेशन (इंसर्शन) और संशोधन (अमेंडमेंट) के बाद इसकी कोई आवश्यकता नहीं हुई।
  • धारा 377, एल.जी.बी.टी समुदाय (कम्युनिटी) को अलग रूप से चिन्हित करती है और उनके लिंग और यौन अभिविन्यास (ओरियंटेशन) के आधार पर भेदभाव करती है और यह अनुचित है एवं संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन भी है, कोर्ट ने यह तय किया की योन अभिविन्यास, लिंग के आधार पर भेदभाव के समान ही है और संविधान का अनुच्छेद 15(2), यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव प्रतिबंधित (प्रोहिबिट) करता है। 
  • कोर्ट ने धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का उल्लंघन करता है। हालांकि की धारा 377 अभी भी असहमति से किए गए शिश्न गैर योनि (पिनाइल नॉन वेजाइनल) जिसमें नाबालिक (18 साल से नीचे) व्यक्ति शामिल हो, ऐसे मामलों मे लागू होगी। 

सुरेश कुमार कौशल और अन्य बनाम नाज फाउंडेशन और अन्य

सुरेश कुमार कौशल और अन्य बनाम नाज फाउंडेशन और अन्य के मामले की याचिका – यह केस धारा 377 के पूर्व फैसल, नाज फाउंडेशन बनाम गवर्नमेंट ऑफ़ एन.सी.टी ऑफ दिल्ली अन्य के खिलाफ याचिका है। 

उठाए गए मुद्दे (इश्यूज रेज़ड)

  • क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 377 संविधान  के अनुच्छेद 14 और 15  का उल्लंघन करती है?
  • क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 377 संविधान  के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है?
  • क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 377 असंवैधानिक है? 

अपीलार्थी के तर्क (आरग्यूमेंट फ्रॉम द अप्पिलेंट साइड)

  • नाको द्वारा दर्शाए गए आंकड़ों से यह साबित नहीं होता है कि धारा 377 एल.जी.बी.टी समुदाय के एड्स की चपेट में आने की ज्यादा संभावनाओं की वजह है और ऐसा नहीं है कि धारा 377 के हटने से ऐसे मामलों में कमी आएगी।
  • धारा 377, यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव नहीं करती और सभी लिंग के लोगों के लिए समान प्रोविजन करती है। यह भी तर्क दिया गया कि यह धारा ऐसे शारीरिक संभोग एवं अन्य क्रियाओं को दंडित करती है जो दोनों भागीदारों के लिए हानिकारक हो और इसलिए धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए निजता के अधिकार और सम्मान का उल्लंघन नहीं करती है। यह धारा केवल एच.आई.वी., एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों से सुरक्षित रखने का प्रावधान है। 
  • धारा377 समलैंगिक लोगों की प्रगति (डेवलपमेंट) में बाधा नहीं है और उनके आत्मसम्मान की सुरक्षा करती है। हाई कोर्ट ने अपने पूर्व फैसले को अकैडमिशियन की रिपोर्ट पर आधारित होते हुए गलत बताया और यह कहा किस शिक्षाविद की रिपोर्ट भरोसे के काबिल नहीं और इसलिए धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन नहीं करती है। यह भी कहा गया कि धारा 377 आत्मीय मूल और नैतिकता की सुरक्षा के लिए बनाई  गई थी। अप्पिलेंट ने प्रकृति के नियम (ऑर्डर ऑफ नेचर) पर चर्चा करते हुए यह व्याख्या करी, मनुष्य के शरीर का हर अंग किसी निर्धारित कार्य के लिए होता है और यदि उनका दुरुपयोग करते हुए प्रकृति के नियम के विपरीत जाकर कार्य किए जाएं तो वह भारत के आत्मीय संस्कृति के ढांचे को ठेस पहुंचाएगी। 
  • संविधान के संस्थापकों (मेकर्स) ने कभी भी लिंग के अंतर्गत यौन अभिविन्यास को शामिल नहीं करना चाहते थे। हालांकि मनुष्य की सेहत और नैतिकता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए यौन अभिविन्यास के अधिकार पर पाबंदी लगाई जा सकती है। भारतीय अदालतों को कानून बनाने का अधिकार नहीं है, इसलिए दिल्ली हाईकोर्ट को धारा 377 कि संवैधानिकता का फैसला करने की जिम्मेदारी संसद को सौंप देनी चाहिए थी।

प्रतिवादी पक्ष के तर्क (आरग्यूमेंट फ्रॉम द रेस्पोंडेंट साइड)

  • संविधान का अनुच्छेद 21, मानव अधिकार सुनिश्चित करता है और यौन अधिकार और कामुकता, इस अनुच्छेद के अंतर्गत सुरक्षित हैं और धारा 377 इसका उल्लंघन करती है। वैज्ञानिक अवलोकन (साइंटिफिक ऑब्जर्वेशंस) के आधार पर एक ही लिंग के लोगों के बीच सहमति से की गई यौन क्रिया ‘प्रकृति के नियम’ के खिलाफ नहीं है। इसलिए यह धारा एल.जी.बी.टी. समुदाय के लोगों को संपूर्ण नैतिक नागरिकता (सिटीजनशिप) से वंचित रखती है।
  • यह धारा एल.जी.बी.टी. समुदाय को उनकी यौन व्यक्तित्व (पर्सनालिटी) पर आधारित भेदभाव पर अपराध घोषित करते हुए उनके आत्मसम्मान को हीन बनाती है। समलैंगिक लोगों के बीच यौन क्रिया को अपराध बनाते हुए व उनके स्वास्थ्य से जुड़े अधिकार का भी उल्लंघन करती है, जिसको संविधान का अनुच्छेद 21 सुनिश्चित करता है। 
  • ऐसे कार्यों का अपराध होने की वजह से यह समुदाय एच.आई.वी./ एड्स का शिकार होने की संभावना रखता है। प्रकृति के आदेश के खिलाफ शारीरिक संभोग, इस अभिव्यक्ति का प्रयोग, अपीलार्थी पक्ष बार-बार करता है, परंतु यह अभिव्यक्ति कानून में कहीं भी निर्धारित रूप से परिभाषित नहीं है। इसलिए यह धारा अस्पष्ट और मनमानी है। 
  • जिस समुदाय के लिए इस धारा को बनाया गया है वही इसके आशय को नहीं समझती क्योंकि कोई स्पष्ट निषेध (प्रोहिबिशन) इस धारा के अंतर्गत निर्धारित नहीं किया गया है। धारा 377 प्रकृति के आदेश के खिलाफ शारीरिक संभोग और ऐसे शारीरिक संभोग जो प्रकृति के आदेश के खिलाफ नहीं हैं, में भेद रखती है परंतु कोई ऐसा कानून नहीं है जो इस भेद को निर्धारित करें और इसलिए यह धारा मनमानी (आर्बिट्रेरी) है। इसलिए किसी निर्धारित परिभाषा ना होने की स्थिति में यह अदालत पर निर्भर करता है कि वह उसको किस तरह समझे। 
  • एक जरूरी तर्क यह भी दिया गया कि बदलते मूल और नैतिकता को अदालत ध्यान में ना रखें, आत्मीय मूल और नैतिकता जो 50-60 साल पहले स्थापित थे, वह अब बदल चुके हैं। परिवर्तन, संसार का नियम है इसलिए धारा 377 जो संविधान से पूर्व का कानून, उसे न्यायधीश के विचारों की आवश्यकता है।

फैसला (जजमेंट गिवेन)

  • माननीय हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार है कि वह संविधान से पहले या बाद में बने ऐसे कानून को अमान्य (वॉइड) घोषित कर दें, जो संविधान के तीसरे भाग के अधिकारों का उल्लंघन करते हो। 
  • किसी भी कानून को व्यर्थ घोषित करना हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के पास अंतिम उपलब्ध उपाय है। यदि कोई कानून व्यर्थ घोषित कर दिया जाता है तो यह कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वह संविधान के पक्ष में कोई उपयुक्त फैसला करे।अदालत तभी कोई कानून व्यथृ घोषित कर सकती है जब उचित संदेह (रीजनेबल डाउट) के परे यह साबित हो जाए कि वह संविधान का उल्लंघन करती है। 
  • माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि, हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट केवल इस आधार पर किसी कानून को व्यर्थ घोषित नहीं कर सकते कि उनका दुरुपयोग होता है और समाज के मूल और नैतिकता में परिवर्तन आ चुका है। 
  • कोर्ट ने यह कहा कि, धारा 377 सभी लिंगों के लिए एक समान है और किसी एक निश्चित समुदाय के लोगों को निशाना नहीं बनाती बल्कि, उम्र और सहमति से निरपेक्ष अपराध की घोषणा करती है।
  • प्रतिवादी पक्ष की याचिका अपने तर्कों में ऐसे पहलुओं को नजरअंदाज करती है, जो यौन माइनॉरटी के प्रति समाज और शासकीय प्राधिकारी द्वारा उत्पीड़न और हमला शामिल करती हो। यहां तक, प्रतिवादी पक्ष ऐसे मामलों का उल्लेख (मेंशन) ही नहीं करती है जहां ऐसे अल्पसंख्यक समुदायों के मानव अधिकार को शासकीय प्राधिकारी द्वारा नकार दिया गया हो। 
  • दिल्ली हाई कोर्ट की पीठ ने, समाज के छोटे समुदाय से आने वाले लैसबियन, गे, बाइसेक्शूअल और ट्रांसजेंडर लोगों को नजरअंदाज किया है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि इस धारा के अंतर्गत 150 सालो में केवल 200 लोग ही दंडित किए गए है, यह नहीं कहा जा सकता कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 21 का उल्लंघन करती है। 
  • यदि किसी कानून का, पुलिस और शासकीय प्राधिकारी द्वारा दुरुपयोग किया जाता है तो यह कोई आधार नहीं है कानून को असंवैधानिक घोषित करने का। ‌सभी अदालतों को प्रासंगिक (रेलीवेंट) तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही किसी कानून को असंवैधानिक घोषित करना चाहिए।

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों के तर्को को सुनकर यह फैसला सुनाया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 असंवैधानिक नहीं है और संविधान द्वारा दिए गए किसी भी अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है।

नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया 

इस मामले की याचिका: यह मामला अदालत द्वारा धारा 377 के संदर्भ में दिए गए 2013 पूर्व फैसल के खिलाफ अपील है। 

जज पीठ: चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.एम. खानविलकर, जस्टिस नरीमन, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा। 

उठाए गए मुद्दे (इश्यूज रेज़ड): यहां उठाया गया अहम मुद्दा धारा 377 की संवैधानिकता का था।

याचिकाकर्ता के तर्क (आरग्यूमेंट फ्रॉम द पेटीशनर साइड)

  • होमसेक्शूऐलिटी, उभयलिंगी (बाइसेक्शूअल) या फिर कोई और यौन रुचि, कोई शारीरिक या मानसिक बीमारी नहीं है यह व्यक्तिगत पसंद का प्रतिबिंब (रिफ्लेक्शन) है और इस को अपराध घोषित करना किसी भी व्यक्ति के संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा। 
  • कोई भी समुदाय, समाज में मान्य ना होने की वजह से विदेशी नहीं हो जाएगा और इसलिए एल.जी.बी.टी. समुदाय, जो भारत में 7-8 प्रतिशत की आबादी में मौजूद हैं उनके भी अधिकारों को मान्यता प्राप्त होनी चाहिए 
  • धारा 377, विक्टोरियन युग के आत्मीय मूल और नैतिकता पर आधारित है जहां यौन गतिविधियों को सिर्फ एक प्रजनन प्रक्रिया माना जाता था। यह धारा ही एक मात्र कारण ,है जिसकी वजह से एल.जी.बी.टी. समुदाय समाज में भेदभाव और शोषण का शिकार हुआ है और यदि होमसेक्शूऐलिटी एक बार फिर अपराध घोषित करी जाती है तो यह समुदाय एक बार फिर भेदभाव और शोषण का शिकार होगा।
  • यदि धारा 377, बगैर किसी संशोधन  के भारतीय दंड संहिता में मौजूद रहती है तो यह एल.जी.बी.टी. समुदाय के तमाम अधिकार जैसे अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की आजादी, निजता का अधिकार और स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व (फ्रेटरनिटी) के अधिकार का उल्लंघन करेगी।
  • याचिकाकर्ता यह तर्क देते हैं, कि जिस तरह लोग, अंतर धार्मिक और अंतरजातीय विवाह (इंटरकास्ट) को चयनित (चूज़) करते हैं, उसी तरह वह लोग हैं जो समान लिंग के साथी का‌ चयन करते हैं। समाज अंतर धार्मिक और अंतरजातीय विवाह को मान्यता देती हो या नहीं देती हो परंतु या अदालत की जिम्मेदारी है कि उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जाए। एल.जी.बी.टी. समुदाय की स्थिति भी इसी तरह है समाज से मान्यता नहीं देगी परंतु यह अदालत की जिम्मेदारी है कि वह इस समुदाय के अधिकारों की रक्षा करे। 
  • प्राकृतिक और अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध बनाने में कोई उचित वर्गीकरण (डिफरेंस) नहीं है और शारीरिक संभोग जो प्रकृति के आदेश के खिलाफ हैं उसकी किसी कानून में कोई उचित परिभाषा नहीं दी गई है। इसलिए धारा 377, स्पष्ट मनमानी और अनुच्छेद 14 के खिलाफ है। 
  • यह धारा, अनुच्छेद 15 का भी उल्लंघन करती है क्योंकि यह एल.जी.बी.टी. समुदाय के व्यक्ति के साथी के लिंग के आधार पर भेदभाव करती है।

प्रतिवादी पक्ष के तर्क (आरग्यूमेंट फ्रॉम द रेस्पोंडेंट साइड)

  • प्रतिवादी पक्ष यह व्याख्या करता है कि यदि धारा 377 असंवैधानिक घोषित कर दी जाती है तो परिवार योजना खत्म हो जाएगी और भ्रष्ट भारतीय नौजवान इसको धंधे की तरह देखेंगे और समलैंगिक गतिविधियों को पैसा कमाने का स्त्रोत (सोर्स) बना लेंगे। ऐसी गतिविधियों में शामिल होने वाले लोग एच.आई.वी., एड्स की चपेट में आएंगे और भारत में एड्स पीड़ितों की संख्या में बढ़ोतरी होगी।
  • यह भी कहा जाता है कि, जहां होमसेक्शूऐलिटी अपराध नहीं है, वहां राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संभावनाएं अलग है,  वह देश भारत जैसे विभिन्न संस्कृतियों  के प्रदेश नहीं है। 
  • मौलिक अधिकार निरपेक्ष (अब्सॉल्यूट) नहीं है इसलिए धारा 377 को, अपराध मुक्त करने से हमारे देश के सभी धर्मों को आपत्तिजनक (ऑब्जेक्शनेबल) कर देगा और संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन करेगा। 
  • यह सुझाव भी दिया जाता है कि, धारा 377 में सभी विवादित शब्दों की निश्चित परिभाषा को जोड़ा जाए, इस प्रकार यह धारा दुर्भावनापूर्ण व्यक्तियों और असहमति से किए गए कार्यों को चिन्हित करेगी। शारीरिक संभोग, जो प्रकृति के आदेश के खिलाफ  हैं, इन्हें अपराध घोषित करने का मुख्य कारण इनके हानिकारक परिणाम हैं और आपराधिक विधि का  उद्देश्य यह भी है कि वह नागरिक को हानिकारक स्थितियों से बचाए।
  • संविधान का अनुच्छेद 15, लिंग के आधार पर भेदभाव निषेध करता है, परंतु यौन अभिविन्यास के आधार पर कोई रोकथाम नहीं है इसलिए धारा 377, अनुच्छेद 15 का उल्लंघन नहीं करती । यह धारा अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन नहीं करती है क्योंकि यह एक निर्धारित अपराध और उसके दंड की स्थापना करती है।

फैसला (जजमेंट गिवेन)

  • यह मायने नहीं रखता कि एल.जी.बी.टी. समुदाय की संख्या बहुत कम है बल्कि यह ज्यादा गंभीर विषय है कि इनका भी निजता का अधिकार सुरक्षित हो जिसमें शारीरिक अंतरंगता (इंटिमेसी) भी शामिल है। इस समुदाय के लोगों का, साथी का‌ चुनाव भिन्न रूप से हो सकता है, पर इसका यह निष्कर्ष नहीं है कि उन्हें इसके लिए दंडित किया जाए। धारा 377 एल.जी.बी.टी. समुदाय के आत्मसम्मान और व्यक्तिगत पसंद को संक्षिप्त करती है और परिणाम स्वरूप अनुच्छेद 21 में उनके निजता के अधिकार का उल्लंघन करती है।  
  • धारा 377 को कायम रखने के पीछे मुख्य कारण, औरतों एवं बच्चों को शोषण से बचाना है, परंतु एल.जी.बी.टी. समुदाय द्वारा सहमति से किए गए शारीरिक संभोग, ना ही औरतों और ना ही बच्चों के लिए हानिकारक है। असहमति से किए गए ऐसे कार्य धारा 375 में पहले से ही अपराध हैं इसलिए धारा 377 एक विशेष समुदाय के प्रति भेदभाव पूर्ण है और इसलिए अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हुए असंवैधानिक है।  
  • हमारा संविधान स्वतंत्र है और इसलिए यह मुमकिन नहीं है इसलिए चुनाव का अधिकार (राइट टू चॉइस) निरपेक्ष नहीं है। इसलिए चुनाव के अधिकार पर कुछ नियंत्रण लगाए गए हैं। परंतु साथी चुनने का अधिकार नियंत्रित नहीं किया जा सकता है‌ क्योंकि यह पूर्ण रूप से व्यक्तिगत चुनाव है। धारा 377 एल.जी.बी.टी. समुदाय के लोगों के, साथी चुनने के अधिकार पर नियंत्रण लगाती है और इसलिए यह यह धारा तर्क हीन और मनमानी है। 
  • सार्वजनिक व्यवस्था (पब्लिक ऑर्डर), शालीनता (डिसेंसी) और नैतिकता के आधार पर मौलिक अधिकारों पर नियंत्रण लगाया जा सकता है। एल.जी.बी.टी. समुदाय द्वारा स्नेह स्वरूप समाज के बीच किए गए कोई भी कार्य सार्वजनिक व्यवस्था और शालीनता को ठेस नहीं पहुंचाते हैं जब तक वह अभद्र ना हो। हालांकि, धारा 377 एक बार फिर असंवैधानिक इस आधार पर है कि यह धारा आनुपातिकता के मानदंड (क्राइटेरिया ऑफ़ प्रोपोर्शनैलिटी) पर आधारित नहीं है और एल.जी.बी.टी. समुदाय की अभिव्यक्ति की आजादी (फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन) का उल्लंघन करती है। 
  • सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि धारा 377, संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करती है और इसलिए असंवैधानिक हैकोर्ट ने, सुप्रीम कोर्ट के सुरेश कुमार कौशल और अन्य बनाम नाज फाउंडेशन  और अन्य, के निर्णय को रद्द कर दिया। कोर्ट ने यह भी घोषित किया कि धारा 377 केवल असहमति से किए गए लैंगिक अपराधों को दंडित करेगा जो किसी युवा या नाबालिक के खिलाफ किए गए हो। 

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न) 

अब होमसेक्शूऐलिटी अपराध मुक्त हो चूका है, परंतु समाज और अन्य संगठनों की प्रतिक्रिया आज भी एल.जी.बी.टी. समुदाय के लोगों के लिए एक चुनौती है। एक हाथ पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमात-ए-इस्लामी हिंद जैसे संगठन है, जिन्होंने इस फैसले पर निराशाजनक (डिसएप्वाइंटमेंट) प्रतिक्रिया दी, वहीं दूसरी ओर एमनेस्टी इंटरनेशनल, आर.एस.एस, सी.पी.आई.(मार्क्सवादी) और संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशंस) इस फैसले के समर्थन में हैं। एल.जी.बी.टी. कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए सर्वेक्षण में यह प्रभाव दिखा कि अब एल.जी.बी.टी. समुदाय के लोगों की जिंदगी साधारण और आसान है। हर समाज को किसी बदलाव को अपनाने के लिए वक्त लगता है वह वक्त दूर नहीं जब समाज एल.जी.बी.टी. समुदाय को लोगों को अपना लेगी और उनके अधिकारों को मान्यता हासिल होगी।

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