यह लेख Tisha Agrawal द्वारा लिखा गया है। यह लेख बाल्को कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ के मामले से संबंधित है, जिसमें इसके तथ्यों, उठाए गए मुद्दों, दिए गए तर्क, निर्णय, संदर्भित उदाहरण और इस मामले पर आधारित निर्णयों के साथ-साथ भारतीय संविधान के संबंधित अनुच्छेद भी शामिल हैं। इस लेख का अनुवाद Himanshi Deswal द्वारा किया गया है।
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परिचय
बाल्को कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ (2002) का मामला संवैधानिक कानून और श्रम अधिकारों के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक निर्णय है। यह मामला मेसर्स भारत एल्युमीनियम कंपनी लिमिटेड में विनिवेश के भारत सरकार के निर्णय के इर्द-गिर्द घूमता है। इस विनिवेश से कंपनी के कर्मचारियों में अशांति फैल गई, जिसके बाद उन्होंने निम्नलिखित मामले में इस निर्णय को चुनौती दी। मामले का मुद्दा यह था कि भारत सरकार के निर्णय से कंपनी के कर्मचारियों को नुकसान होगा और उनके कानूनी और सामाजिक हितों में बाधा आएगी।
निर्णय प्रशासनिक नीतियों के कार्यान्वयन (इम्प्लीमेंटेशन) और ऐसे निर्णयों में न्यायालयो के हस्तक्षेप पर केंद्रित था। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय प्राकृतिक अधिकारों और उनकी प्रयोज्यता (ऍप्लिकेबिलिटी) के व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ-साथ सरकार के विवेक और शक्ति पर भी प्रकाश डालता है। निरर्थक जनहित याचिका (पीआईएल) को हतोत्साहित करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया। निर्णय सरकार के पक्ष में दिया गया, लेकिन इसने कई मुकदमेबाजी मुद्दों के लिए मार्ग प्रशस्त किया जो समान तथ्यात्मक आधार पर आगे उठे।
मामले का विवरण
- मामले का नाम: बाल्को कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ
- समतुल्य उद्धरण: एआईआर 2002 एससी 350
- महत्वपूर्ण प्रावधान: भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15
- न्यायपीठ: बी.एन कृपाल, शिवराज वी. पाटिल, पी. वेंकटरामा रेड्डी, जे.जे.
- याचिकाकर्ता/अपीलकर्ता: बाल्को कर्मचारी संघ
- प्रतिवादी: भारत संघ
- निर्णय की तारीख: 10 दिसंबर, 2001
मामले के तथ्य
विचाराधीन कंपनी, मेसर्स भारत एल्युमीनियम कंपनी लिमिटेड (बाल्को) को 1965 में कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत भारत सरकार के उपक्रम (अंडरटेकिंग) के रूप में शामिल किया गया था। कंपनी एल्यूमीनियम के निर्माण में लगी हुई थी और इसके कोरबा (छत्तीसगढ़) और बिधानबाग (पश्चिम बंगाल) में संयंत्र (प्लांट) थे। 1990 के दशक के दौरान, केंद्र सरकार ने कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश की योजना बनाई थी। इसके बाद, 1996 में, भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय (सार्वजनिक उद्यम (एन्टर्प्राइज़) विभाग) ने सार्वजनिक क्षेत्र में विनिवेश की देखभाल के लिए एक आयोग का गठन किया। इस आयोग का गठन तीन साल के लिए किया गया था। आयोग एक स्वतंत्र, गैर-वैधानिक सलाहकार निकाय था।
आयोग का गठन सरकार के निवेश की समीक्षा करने और भविष्य की पहल की योजना बनाने के उद्देश्य से किया गया था, जो अर्थव्यवस्था के लिए व्यवहार्य है। इसकी स्थापना इस दृष्टिकोण से की गई थी कि आयोग किसी भी विनिवेश की सलाह देते समय हितधारकों, श्रमिकों और उपभोक्ताओं के हितों पर भी विचार करेगा। आयोग केवल एक सलाहकार निकाय था, और अंतिम निर्णय लेने की शक्ति अभी भी भारत सरकार के पास थी।
1997 में, आयोग ने सलाह दी कि बाल्को का निजीकरण करने और इसे गैर-कोर समूह उद्योग के रूप में वर्गीकृत करने की आवश्यकता है। आयोग ने सिफारिश की कि सरकार एक रणनीतिक साझेदार को 40% इक्विटी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा देकर कंपनी में अपनी हिस्सेदारी का तुरंत विनिवेश करेगी। आयोग के अध्यक्ष द्वारा आगे यह सिफारिश की गई कि प्रबंधन के हस्तांतरण के साथ-साथ रणनीतिक साझेदार को 51% या उससे अधिक की पेशकश की जाए। नतीजतन, पूरी रणनीतिक बिक्री की व्यवस्था की गई, और उच्चतम बोली लगाने वाले को मंजूरी दे दी गई।
रणनीतिक बिक्री के भारत सरकार के निर्णय को बाल्को के कर्मचारी संघ ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका द्वारा चुनौती दी थी जिसका निपटारा कर दिया गया था। नतीजतन, जब शेयरों के हस्तांतरण की प्रक्रिया शुरू की गई, तो छत्तीसगढ़ और दिल्ली उच्च न्यायालयों में कई अन्य रिट याचिकाएं दायर की गईं। इन सभी याचिकाओं को भारत संघ द्वारा किए गए एक आवेदन पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया था। इसलिए, वर्तमान मामले का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया गया था।
उठाए गए मुद्दे
न्यायालय के समक्ष वर्तमान मामले में निम्नलिखित मुख्य मुद्दे थे: –
- क्या भारत सरकार का बाल्को में विनिवेश का निर्णय वैध था?
- क्या ऐसा निर्णय न्यायिक समीक्षा के योग्य है, और यदि हां, तो किस हद तक?
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ताओं की ओर से दलीलें
याचिकाकर्ताओं द्वारा यह तर्क दिया गया कि बाल्को में 51% शेयरों का विनिवेश करने और इसे एक निजी निगम में बदलने के भारत सरकार के निर्णय से कामगार गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं। विनिवेश से पहले, बाल्को भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य था। श्रमिकों ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 द्वारा गारंटीकृत अपने अधिकारों और सुरक्षा को खो दिया है। इस तरह का निर्णय लेने से पहले कार्यकर्ताओं की बात सुनी जानी चाहिए थी। कार्यकर्ताओं से सलाह-मशविरा जरूरी था। याचिकाकर्ताओं ने अजय हसिया बनाम खालिद मुजिन सेहरावर्दी (1980) और सेंट्रल इनलैंड वाटर ट्रांसपोर्टेशन लिमिटेड बनाम ब्रोजो गांगुली (1986) पर भरोसा जताया। इन मामलों में न्यायालय द्वारा श्रमिकों के अधिकारों पर जोर दिया गया और चर्चा की गई। यह देखा गया कि यदि कोई कार्य उनके हितों और सामाजिक न्याय के विरुद्ध है तो निगम को आवश्यक रूप से श्रमिकों से परामर्श करना होगा।
आगे यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 14 और 16 के तहत सुरक्षा को हटाने का नागरिक परिणाम होता है, इसलिए श्रमिकों को सुनने का अधिकार है। अधिकार और लाभ प्रक्रियात्मक और वास्तविक दोनों थे। इससे श्रमिकों का पेंशन का अधिकार भी छीन जाएगा, जिसमें यह सिद्धांत भी शामिल है कि पेंशन देने या रोकने में कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। भारत पेट्रोलियम मैनेजमेंट स्टाफ पेंशनर्स बनाम भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (1988) पर भरोसा रखा गया था।
न्यायालय के समक्ष यह भी प्रस्तुत किया गया कि विनिवेश का कार्यान्वयन सामाजिक-राजनीतिक सुधारों का एक व्यापक पैकेज हासिल करने में विफल रहा है। निर्णय लेने की प्रक्रिया निष्पक्ष, उचित और तर्कसंगत नहीं रही है। सरकार को श्रमिकों से परामर्श किए बिना और उन्हें अपनी बात रखने का उचित अवसर दिए बिना इतना महत्वपूर्ण निर्णय नहीं लेना चाहिए। भारत सरकार ने अपने निर्णय के परिणामों पर सही ढंग से विचार नहीं किया है।
प्रतिवादियों की ओर से तर्क
प्रतिवादियों द्वारा प्रस्तुत किया गया कि, 1990 के दशक से, सरकार ने विभिन्न कंपनियों में विनिवेश किया है। विनिवेश निर्णयों के पीछे प्रमुख रूप से तीन कारण हैं और ये हैं:-
- तमाम कोशिशों के बावजूद सरकारी उद्यमों के रिटर्न की दर कम रही है।
- केंद्र या राज्यों के पास उन उद्यमों को बनाए रखने के लिए कोई संसाधन नहीं हैं जो अपने दम पर खड़े होने में सक्षम नहीं हैं। जबरदस्त प्रतिस्पर्धा का माहौल है।
- तमाम कोशिशों के बावजूद सरकार सरकारी उपक्रमों की कार्यसंस्कृति में बदलाव नहीं ला सकी है।
उपर्युक्त कारणों से, सबसे मजबूत उद्यम डूब रहे हैं, और सरकार के लिए उन्हें बनाए रखना अधिक कठिन हो गया है। तकनीकी बदलाव भी तेज़ हो गया है और सरकार अब इसे बरकरार नहीं रख सकती। याचिकाकर्ताओं के लिए चुनौती अक्षम्य (अन्टेनबल) है।
आगे यह प्रस्तुत किया गया कि सरकार की आर्थिक नीतियों की उपयुक्तता न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं है। न्यायालय विभिन्न आर्थिक नीतियों के सापेक्ष (रिलेटिव) गुणों पर विचार नहीं कर सकतीं। रुस्तम कैवसजी कूपर बनाम भारत संघ (1970) पर भरोसा रखा गया था जिसमें न्यायालय ने कहा था कि विभिन्न राजनीतिक सिद्धांतों या आर्थिक नीतियों के सापेक्ष गुणों पर विचार करना न्यायालयो का काम नहीं है। कानून बनाने में संसद की नीति पर अपील पर न्यायालय कार्रवाई नहीं कर सकती। इसी तरह, यह तर्क दिया गया कि न्यायालय विनिवेश की नीति और इसकी वांछनीयता की जांच नहीं कर सकती हैं। प्रशासनिक प्राधिकार के साथ न्यायिक हस्तक्षेप सावधानीपूर्वक नहीं है। विनिवेश की प्रक्रिया एक नीतिगत निर्णय है और जटिल आर्थिक कारक दांव पर हैं। न्यायालय लगातार ऐसे आर्थिक फैसलों में हस्तक्षेप करने से बचता रहा हैं। वर्तमान मामले में भी इसका पालन किया जाएगा।
प्राकृतिक न्याय का कोई सिद्धांत नहीं है जिसके लिए आर्थिक नीति से प्रभावित होने वाले श्रमिकों को पूर्व सूचना देने की आवश्यकता होती है। जब कोई उद्योग कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत पंजीकृत होता है तो सरकार को शेयरधारक के रूप में अपने शेयर हस्तांतरित करने का अधिकार होता है। ऐसी किसी भी कंपनी में शामिल होने वाले व्यक्ति कंपनी के मामलों को कानून के अनुसार संचालित करने के लिए निदेशकों और शेयरधारकों के अधिकार को भी स्वीकार करते हैं।
मामले का निर्णय
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि सरकार द्वारा किया गया विनिवेश अमान्य नहीं था। लोकतांत्रिक व्यवस्था में, अपनी नीतियों का पालन करना प्रत्येक सरकार का विवेक है। ऐसी नीतियां प्रणाली में कुछ प्रतिकूल बदलावों को प्रभावित कर सकती हैं और उनका कारण बन सकती हैं, लेकिन जब तक कोई अवैधता नहीं की जा रही है या यह कानून के विपरीत नहीं है या दुर्भावनापूर्ण प्रकृति का नही है, तब तक न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। यह न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आता।
इसकी समीक्षा केवल तभी की जा सकती है जब यह प्रदर्शित हो कि नीति किसी भी वैधानिक प्रावधानों या भारत के संविधान के विपरीत है। नीतियों की सापेक्ष खूबियों पर विचार करना न्यायालयो पर निर्भर नहीं है। किसी भी नीति की सत्यता का विश्लेषण करने के लिए संसद है। याचिकाकर्ता की इस दलील में कोई दम नहीं है कि विनिवेश का निर्णय मनमाना था। नियोक्ता के निर्णयों को स्वीकार करना कर्मचारी की सेवा का एक हिस्सा है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की यहां कोई भूमिका नहीं है। हालाँकि, ऐसे निर्णय लेते समय, एक नियोक्ता से कंपनी के कर्मचारियों के हितों को ध्यान में रखने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन यह कर्मचारियों को ऐसे किसी भी निर्णय से पहले सुनवाई या परामर्श का अधिकार मांगने का अधिकार नहीं देता है। नीतियाँ स्थिर नहीं रह सकतीं; उन्हें बदलते समय के साथ बदलना चाहिए।
न्यायालय ने सरकार द्वारा पारदर्शिता की कमी की दलीलों को भी खारिज कर दिया। कहा गया कि पारदर्शिता का मतलब सार्वजनिक रूप से चौराहे पर बैठकर सरकारी कामकाज करना नहीं है। इसका सीधा मतलब यह है कि जिस तरीके से निर्णय लिया जा रहा है, उससे अवगत कराया जाएगा और निर्णय लेने वाले व्यक्ति मनमाने नहीं होंगे। वर्तमान मामले में, यह स्पष्ट है कि निर्णय निष्पक्ष और उचित तरीके से लिया गया है। सबसे अधिक बोली लगाने वाले का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। याचिकाकर्ताओं द्वारा लगाए गए सभी आरोपों में किसी भी प्रकार का आधार या तर्क का अभाव है।
न्यायालय के समक्ष एक और विवाद यह था कि क्या सरकार द्वारा लिए गए वित्तीय या आर्थिक निर्णयों को जनहित याचिका के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है। माननीय न्यायालय ने इस दावे को खारिज करते हुए कहा कि जनहित याचिका को जनता के हित में मुकदमेबाजी के लिए न्यायिक प्रक्रिया में लाया गया था और इससे ज्यादा कुछ नहीं। जब भी न्यायालयो ने जनहित याचिका पर विचार करते समय हस्तक्षेप किया है, तो इसका कारण मुख्य रूप से अनुच्छेद 21 या मानवाधिकारों का उल्लंघन रहा है। एक जनहित याचिका पर तभी विचार किया जाता है जब मुकदमा गरीबों के लाभ और सामाजिक हित में शुरू किया जाता है। यह सरकार द्वारा लिए गए वित्तीय या आर्थिक निर्णयों को चुनौती देने का हथियार नहीं है। विनिवेश का सरकार का निर्णय पूर्णतः एक प्रशासनिक निर्णय है जो राज्य की आर्थिक नीति से संबंधित है। ऐसी कार्रवाई की कोई भी चुनौती जनहित याचिका के मापदंडों के अंतर्गत नहीं आ सकती है।
न्यायिक हस्तक्षेप तब उपलब्ध होता है जब सरकार के कार्यों के कारण जनता को चोट पहुँचती है। वर्तमान मामले में, यह लागू नहीं है। न्यायालय तभी हस्तक्षेप करेगा जब संवैधानिक या वैधानिक प्रावधानों का स्पष्ट उल्लंघन हो।
राज्य सरकार ने यह भी दावा किया था कि विनिवेश की पूरी प्रक्रिया में उनसे सलाह नहीं ली गई। न्यायालय ने कहा कि यह संभव नहीं है कि राज्य सरकार पूरी कार्यवाही के दौरान इस तथ्य से अनभिज्ञ रही हो। मामले के तथ्य स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि इस विनिवेश के विभिन्न चरणों में व्यापक प्रचार किया गया था। व्यापक प्रचार के बाद ही वैश्विक सलाहकार की नियुक्ति की गई। इसलिए, श्रमिक संघ और राज्य सरकार की सभी दलीलें खारिज की जाती हैं और विनिवेश को वैध माना जाता है।
उदाहरणों का उल्लेख किया गया है
केंद्र और राज्य सरकार द्वारा दिए गए तर्कों का विश्लेषण करते हुए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कई महत्वपूर्ण निर्णयों का उल्लेख किया।
भावेश पैरिश और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2000) के मामले में, यह कहा गया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों द्वारा प्रदान की गई सेवाओं को न्यायालयो द्वारा कम नहीं किया जा सकता है। यह एक स्वीकृत सिद्धांत है कि न्यायालय विधायिका के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगी। इसे विषय से निपटने वाले लोगों की विशेषज्ञता और बुद्धिमत्ता पर छोड़ देना सबसे अच्छा होगा।
नर्मदा बचाओ आंदोलन बनाम भारत संघ और अन्य (2000) मामले में, यह माना गया था कि न्यायालय, अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए, नीतिगत निर्णयों के क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करेंगी। न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह यह देखे कि ऐसे निर्णय लेने में किसी कानून का उल्लंघन न हो, लेकिन केवल संविधान के तहत अनुमत सीमा तक।
एम.पी. तेल निष्कर्षण (एक्सट्रैक्शन) बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य (1997) मामले में, यह कहा गया था कि जब तक प्रश्न में नीति पूरी तरह से सनकी न हो, किसी भी कारण से समर्थित न हो और प्रकृति में मनमाना न हो, तब तक केवल न्यायालय ही हस्तक्षेप कर सकता हैं। अन्यथा, न्यायालय वैधानिक प्रावधानों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता या उनके साथ टकराव नहीं कर सकता।
आर.के. गर्ग बनाम भारत संघ (1981) मामले में, यह माना गया कि न्यायालय इस बारे में अपनी राय व्यक्त नहीं कर सकता हैं कि, एक निश्चित समय पर, एक राष्ट्रीय नीति अपनाई जानी चाहिए थी या नहीं। देश के नागरिकों द्वारा साझा किए गए विचार और राय हो सकते हैं, लेकिन इसे संसद में ही सुलझाया जाना चाहिए। न्यायालय इसकी समीक्षा और जांच नहीं कर सकता कि उक्त नीति अपनाई जानी चाहिए थी या नहीं। जब ऐसी नीति पर प्रथम दृष्टया संवैधानिक रोक हो, तो निःसंदेह, न्यायालय निर्णय ले सकता हैं।
प्रीमियम ग्रेनाइट्स और अन्य बनाम तमिलनाडु राज्य (1994) में, यह देखा गया कि सार्वजनिक नीति के एक अज्ञात सागर में प्रवेश करना न्यायालय का क्षेत्र नहीं है। ऐसी शक्ति, जैसा भी मामला हो, कार्यकारी और विधायी प्राधिकारियों के पास है। न्यायालय का एकमात्र कार्य यह देखना है कि किसी वैध अधिकार का दुरुपयोग नहीं हो रहा है। एक सार्वजनिक निकाय को अपनी शक्तियों से अधिक या दुरुपयोग नहीं करना चाहिए और उसे प्रतिबद्ध प्राधिकरण की सीमा के भीतर रहना चाहिए, जैसा कि पीयरलेस जनरल फाइनेंस एंड इन्वेस्टमेंट एंड कंपनी बनाम भारतीय रिजर्व बैंक (1992) में आयोजित किया गया था।
इसके अलावा, हरियाणा राज्य बनाम श्री देस राज सनगर और अन्य (1975) के मामले में, यह माना गया कि प्राकृतिक न्याय का कोई सिद्धांत नहीं है जो श्रमिकों को पूर्व सूचना का अधिकार देता है। अनुच्छेद 14 और 16 के तहत अधिकारों के अस्तित्व का सरकार के विनिवेश के अधिकार पर वीटो करने का प्रभाव नहीं है। कर्मचारी विनिवेश के प्रत्येक चरण में निरंतर परामर्श के किसी अधिकार का दावा नहीं कर सकते।
नेशनल टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन बनाम पी.आर. रामकृष्णन (1983) के मामले में, न्यायमूर्ति भगवती ने यह माना था कि जब प्रबंधन में परिवर्तन हो रहा हो तो मजदूरों से परामर्श करना उचित और समझदारी है; हालाँकि, कानून में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। परिणामस्वरूप, कर्मचारी कंपनी के रोजगार में बने रहते हैं; केवल प्रबंधन बदला है, तो इसका मतलब रोज़गार में बदलाव नहीं है।
बाल्को मामले में निर्णय का विश्लेषण
दो दशकों के निर्णय के बाद, यह मामला अभी भी न्यायिक प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मामला बना हुआ है। कर्मचारी संघ और भारत सरकार के बीच उठे मुद्दे के अलावा, प्रमुख विवाद कंपनी, बाल्को में विनिवेश के संघ के निर्णय के आसपास घूमता रहा। इस निर्णय को पारदर्शिता की कमी के आधार पर राज्य सरकार ने भी चुनौती दी थी। इसलिए, मामले में राजनीतिक और कानूनी दोनों चुनौतियाँ थीं। यह मामला मुख्य रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत कर्मचारियों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के इर्द-गिर्द घूमता है।
न्यायालय ने सभी दलीलों को खारिज कर दिया और बहुत स्पष्ट रूप से स्पष्ट किया कि नीतिगत निर्णय पूरी तरह से प्रशासनिक कार्रवाई हैं और न्यायालय ऐसे निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं। यदि न्यायालय सरकार के हर मामले में हस्तक्षेप करने लगे तो इससे लोकतंत्र में विभिन्न संस्थाओं के सुचारू कामकाज में बाधा उत्पन्न होगी। इसलिए, न्यायालय वास्तव में विनिवेश नीति की खूबियों को तय करने में शामिल नहीं हुआ। न्यायालय ने इसे प्रशासनिक नीति के रूप में संबोधित करके नीति की शुद्धता का निर्णय लेने से परहेज किया।
बाल्को के निर्णय के बाद एचपीसीएल और बीपीसीएल के विनिवेश को भी बाल्को के आधार पर मंजूरी दे दी गई, जबकि बाल्को मामले में विनिवेश की खूबियों का कभी आकलन नहीं किया गया। हम कह सकते हैं कि इसने निम्नलिखित मामलों के लिए गलत मिसाल कायम की है। न्यायालय ने आर्थिक या वित्तीय नीति के मामलों का आकलन करते समय न्यायालयो की सीमा और दायरे को भी सीमित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि यह न्यायालयो के अधिकार क्षेत्र या न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं है। न्यायालय याचिकाकर्ताओं के कहने पर किसी विशेष नीति को रद्द करने के इच्छुक नहीं हैं। यह भी माना गया कि न्यायालय सार्वजनिक परियोजनाओं और योजनाओं के संबंध में निषेधाज्ञा (इन्जंक्शन) या रोक के माध्यम से राहत नहीं दे सकती हैं। यह तभी हो सकता है जब न्यायालय बिना किसी उचित संदेह के पूरी तरह से संतुष्ट हो कि ऐसी नीति सार्वजनिक हितों में बाधा डाल सकती है। ऐसा लगता है कि न्यायालय ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के मामले का अनुसरण किया है, जिसमें अंतरिम राहतों के कारण परियोजना के पूरा होने में बड़ी बाधाएं आईं और इस तरह लाखों रुपये का नुकसान हुआ। न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि जनहित याचिकाओं का इस्तेमाल बेकार की याचिकाओं के लिए नहीं किया जाना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग न करके उन्हें पवित्र रखा जाए।
यह महत्वपूर्ण है कि जब कोई नीतिगत निर्णय लिया जाए तो कर्मचारी और संघ श्रम अधिकारों की रूपरेखा को समझें। कोई भी मजदूर प्राकृतिक अधिकार या न्याय के आधार पर अधिकार का दावा नहीं कर सकता। यहां तक कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत सुरक्षा प्राप्त सरकारी कर्मचारी भी उसे सेवा में बने रहने का पूर्ण अधिकार नहीं देता है। इसलिए, कंपनी के नियंत्रण और प्रबंधन को सरकार से निजी इकाई में बदलने का निर्णय सरकार का एकमात्र विशेषाधिकार है। यह न्यायालय का एक कड़ा निर्णय हो सकता है, लेकिन यह हर विवाद पर न्यायालय में जनहित याचिकाओं को कम करने की दिशा में एक उल्लेखनीय कदम था।
जिन निर्णयों पर यह मामला निर्भर था
न्यायिक घोषणाओं की एक श्रृंखला है जो अपने जबरदस्त विचारों के लिए बाल्को के निर्णय पर निर्भर करती है। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:-
2005 में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आर एंड एम ट्रस्ट बनाम कोरमंगला रेजिडेंट्स विजिलेंस ग्रुप और अन्य (2005) के मामले का निर्णय करते हुए, बाल्को के निर्णय पर भरोसा किया और कहा कि जनहित याचिका निस्संदेह लोगों की शिकायतों के निवारण के लिए एक बहुत ही उपयोगी माध्यम है, लेकिन कुछ इच्छुक व्यक्तियों द्वारा इसका दुरुपयोग भी किया गया है और इसकी बदनामी हुई है। न्यायालयो को अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग हल्के ढंग से नहीं करना चाहिए बल्कि इसका प्रयोग बहुत ही दुर्लभ मामलों में करना चाहिए। पीआईएल सभी ग़लतियों के लिए कोई गोली या रामबाण इलाज नहीं है।
2006 में, विनिवेश के संबंध में ऑल इंडिया आईटीडीसी वर्कर्स यूनियन और अन्य बनाम आईटीडीसी और अन्य (2006) के मामले में, न्यायालय ने बाल्को के मामले का उल्लेख किया और कहा कि आईडीटीसी के कर्मचारियों की आशंका निराधार है और इसे खारिज किया जा सकता है क्योंकि स्थानांतरण दस्तावेज़ में कर्मचारियों की सेवा शर्तों के संबंध में सुरक्षा उपाय विधिवत प्रदान किए गए हैं। श्रमिकों का तर्क था कि विनिवेश के निर्णय से उनके हितों और अधिकारों में बाधा आती है। कंपनी अधिनियम के तहत पंजीकृत कंपनी के कर्मचारियों को राज्य के एक साधन के कर्मचारी की स्थिति का आनंद लेने का कोई अधिकार नहीं है।
नेशनल साउथ इंडियन रिवर इंटरलिंकिंग एग्रीकल्चरिस्ट एसोसिएशन बनाम तमिलनाडु सरकार और अन्य (2017) में, मद्रास उच्च न्यायालय ने बाल्को मामले पर भरोसा किया और माना कि तथ्य यह है कि नीति तैयार करने में निष्पक्ष, उचित और न्यायसंगत प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है, यह रिट अधिकार क्षेत्र के तहत न्यायिक समीक्षा के दायरे में आने वाला मामला है। आर्थिक नीतियों की बुद्धिमत्ता और उपयुक्तता आमतौर पर न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं होती है।
केरल बार होटल्स एसोसिएशन और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य (2015) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि विचाराधीन नीति किसी भी मनमानी से ग्रस्त नहीं है। लोकतंत्र में, अपनी नीति को लागू करना और उसका पालन करना निर्वाचित सरकार का विशेषाधिकार है, भले ही यह किसी तरह से लोगों के निहित हितों को प्रभावित करता हो। बाल्को मामले पर भरोसा रखा गया।
पेरिसन्स एग्रोटेक लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ (2015) के मामले में, यह देखा गया कि जब तक किसी निश्चित नीति के कार्यान्वयन में कोई अवैधता नहीं की जाती है या यदि वह कानून के विपरीत या दुर्भावनापूर्ण नहीं है, तो ऐसे निर्णय को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12, 14 और 18 के उल्लंघन के रूप में नहीं माना जा सकता है।
शिवम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2021) में, माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह देखा, जब भी न्यायालयो ने किसी जनहित याचिका पर विचार करते समय हस्तक्षेप किया है या निर्देश दिए हैं, ऐसा केवल तभी हुआ है जब अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हुआ हो, या जब मामला समाज के गरीब वर्गों के लाभ के लिए दायर किया गया हो। जनहित याचिका का उद्देश्य हथियार के रूप में प्रयोग करना नहीं है।
निष्कर्ष
बाल्को कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ का मामला भारतीय न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण मोड़ बना हुआ है। यह विशेष रूप से प्रशासनिक निर्णयों, श्रम अधिकारों और न्यायिक समीक्षा के बीच नाजुक संतुलन के प्रबंधन से संबंधित है। यह निर्णय न्यायिक समीक्षा और जनहित याचिकाओं की प्रकृति पर महत्वपूर्ण रूप से प्रकाश डालता है। यह मामला नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए न्यायपालिका की अनिच्छा को रेखांकित करता है, जिसे विशेषज्ञों द्वारा लिया जाएगा। इस सिद्धांत की एक बार फिर पुष्टि की गई है कि नीतिगत निर्णय मुख्य रूप से न्यायालयो के बजाय कार्यकारी और विधायी शाखाओं के दायरे में आएंगे। यह निर्णय नीतिगत निर्णय लेने और देश की आर्थिक वृद्धि के लिए क्या सही है और क्या गलत है, यह तय करने में सरकार के विवेक को बरकरार रखता है। इस तरह की कार्रवाइयां तब तक न्यायपालिका के दायरे में नहीं होंगी जब तक कि वे पूरी तरह से मनमानी या दुर्भावनापूर्ण न हों।
इसके साथ ही, निर्णय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के महत्व को भी स्पष्ट करता है लेकिन यह भी स्पष्ट करता है कि वे इस तरह के मामले पर लागू नहीं होते हैं। श्रमिकों के साथ पूर्व परामर्श कानून द्वारा बनाया गया आदेश नहीं है; इसलिए, कर्मचारी सुने जाने या परामर्श लेने के अधिकार का दावा नहीं कर सकते। सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अपने शेयर हस्तांतरित करने का विशेषाधिकार है। न्यायिक दायरे की सीमित प्रकृति के लिए निर्णय की आलोचना की जा सकती है, लेकिन इसने ऐसी तुच्छ याचिकाओं को हतोत्साहित करके कानूनी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित किया है।
अंततः, यह मामला कानून और नीति निर्धारण निर्णयों के बीच की जटिलताओं को उजागर करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह आवश्यक है कि प्रत्येक संस्था को अन्य संस्थाओं के हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र रूप से कार्य करने की अनुमति दी जाए।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम क्या हैं?
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम भारत में सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियाँ हैं। कम से कम 51% शेयर पूंजी का स्वामित्व सरकार के पास है। सरकार द्वारा कई विनिवेश किए जाने के बाद आज भी कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हैं।
विनिवेश क्या हैं?
विनिवेश वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सरकार किसी संपत्ति या सहायक कंपनी को बेचती है या उसका परिसमापन (लिक्विडेशन) करती है। इसका मतलब पूंजीगत व्यय को कम करना भी है। विनिवेश कई कारणों से किया जाता है, चाहे राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक।
प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत क्या हैं?
प्राकृतिक न्याय के दो सिद्धांत हैं सुनवाई का अधिकार और निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार। इन सिद्धांतों का उद्देश्य सभी को निष्पक्ष, उचित और न्यायसंगत निर्णय प्रदान करना है।
न्यायिक समीक्षा क्या है?
भारत में न्यायिक समीक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय उन कार्यकारी या विधायी कार्यों की जांच कर सकते हैं जो भारतीय संविधान के साथ असंगत हैं।
संदर्भ