अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001)

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यह लेख Soumyadutta Shyam द्वारा लिखा गया है। इसमें मामले के तथ्यों, उसमें चर्चित कानून, पटना उच्च न्यायालय के निर्णय, तत्पश्चात सर्वोच्च न्यायालय में की गई अपील, अपील में उठाए गए मुद्दे, पक्षों द्वारा दिए गए तर्क, अंतिम निर्णय तथा मामले का व्यापक विश्लेषण किया गया है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

न्याय मिलने में देरी के कारण अक्सर न्याय चाहने वाले लोगों में निराशा, पीड़ा और असहायता की भावना पैदा होती है। न्यायिक प्रक्रिया लंबी और जटिल है, जिसके कारण लोगों को अपने मामलों में निर्णय आने की प्रतीक्षा में वर्षों लग जाते हैं। इस संदर्भ में कहावत “न्याय में देरी न्याय से इनकार के समान है” प्रासंगिक है। कानून का शासन सुनिश्चित करने के लिए समय पर और निर्णायक न्याय प्रदान करना महत्वपूर्ण है। किसी देश की न्याय प्रणाली में आम जनता की विश्वसनीयता बनाए रखना भी महत्वपूर्ण है। सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक अवसरों पर यह तथ्य व्यक्त किया है कि न्याय में विलंब संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। 

अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) के इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय देने के संबंध में दिशानिर्देश प्रदान किए थे, तथा सभी न्यायालयों द्वारा उनका पालन किए जाने की परिकल्पना की थी। न्यायालय ने इस मामले में फैसला सुनाने में अनावश्यक देरी के लिए पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की आलोचना की। यह देखा गया कि निर्णय को रोके रखने से मुकदमे के परिणाम में पक्षों का विश्वास डगमगा जाता है। 

अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) का विवरण

उद्धरण

एआईआर 2001 एससी 3173 

याचिकाकर्ता का नाम

अनिल राय

प्रतिवादी का नाम

बिहार राज्य

न्यायपीठ

न्यायमूर्ति के.टी. थॉमस और न्यायमूर्ति आर.पी. सेठी 

अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) के तथ्य

अपीलकर्ताओं ने अन्य अभियुक्त व्यक्तियों के साथ मिलकर लाल मुनि राय और चांद मुनि राय, जो भाई थे, की हत्या करने के साझा उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए एक गैरकानूनी सभा का गठन किया। घटना से पहले पीड़ितों के अभियुक्तों के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध थे। घटना के दिन लाल मुनि राय पंचायत भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेकर घर लौट रहे थे। जैसे ही वह सुभाष चंद राय के आवास के उत्तर में पहुंचा, अभियुक्तों ने हथियार के बल पर उसे पकड़ लिया और जबरन रोक लिया। हंगामे ने लाल मुनि राय के कुछ रिश्तेदारों का ध्यान आकर्षित किया, जिनमें चांद मुनि राय (पीड़ित), बिपिन राय, शिशिर राय, संजीव राय और होशिला देवी शामिल थे, जो इस मामले में अभियोजन पक्ष के गवाह भी थे, वे घटनास्थल पर पहुंचे। घटनास्थल पर पहुंचने पर, गवाहों ने देखा कि सुभाष चंद राय को छोड़कर सभी अभियुक्तों ने लाल मुनि राय को पकड़ रखा था। लाल मुनि राय ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की और भागने की कोशिश की, लेकिन अविनाश चंद राय (अभियुक्त नंबर 1) ने उसे गोली मार दी और उसकी हत्या कर दी। 

इसके बाद जब चांद मुनि राय मौके पर पहुंचे तो सुभाष चंद राय ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। अविनाश चंद राय ने अन्य रिश्तेदारों पर भी गोली चलाई, लेकिन उनमें से कोई भी घायल नहीं हुआ। घटना के बाद तीन अभियुक्त घटनास्थल से भागकर गांव चले गए। बाकी अभियुक्त अविनाश चंद राय के घर की ओर दौड़े। गोलियों की आवाज पास के कुचिला पुलिस स्टेशन तक पहुंची, जिसके बाद एएसआई अखिलेश्वर कुमार और एएसआई अरबिंद कुमार तथा अन्य पुलिसकर्मी वहां पहुंचे। उन्होंने पीड़ितों के शव देखे और होशिला देवी को रोते हुए देखा। उसका बयान अपराध स्थल पर दर्ज किया गया। अभियुक्तों ने पुलिस कर्मियों पर भी  गोलियां चलाईं। 

अभियुक्त व्यक्तियों को पकड़ने के लिए उप-निरीक्षक सहित अतिरिक्त पुलिस बल को घटनास्थल पर बुलाया गया। अविनाश चंद राय के आवास की तलाशी के दौरान उन्हें अनिल राय के साथ एक राइफल, चार जिंदा कारतूस और छह खाली कारतूस के साथ गिरफ्तार किया गया। इमारत की छत पर दो अन्य व्यक्तियों, राम प्रवेश यादव और भगवान यादव को एक देशी बन्दूक और एक नियमित डबल बैरल बंदूक के साथ गिरफ्तार किया गया। अविनाश चंद राय के आवास से अमित कुमार राय को बंदूक व कारतूस के साथ पकड़ा गया। भागने की कोशिश करने वाले शेष अभियुक्तों को बाद में पकड़ लिया गया। 

अभियोजन पक्ष ने 14 गवाह पेश किये, जिनमें अभियोजन पक्ष के गवाह 1, 2, 5, 6 और 12 शामिल थे। एक गवाह, मुकाती सिंह (जिन्होंने अविनाश चंद राय के घर की तलाशी में पुलिस की सहायता की थी और जिन्हें प्रत्यक्षदर्शी बताया गया है) मुकदमे के दौरान अपने बयान से पलट गए। बचाव पक्ष ने डॉ. बसंत कुमार सहित तीन अन्य व्यक्तियों से पूछताछ की, जिन्होंने घायल अभियुक्तों की चिकित्सा जांच की थी। 

साक्ष्य के मूल्यांकन के बाद, विचारण न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अभियोजन पक्ष अभियुक्त को दोषी साबित करने में सफल रहा। मुख्य अभियुक्त अविनाश चंद राय और सुभाष चंद राय को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया और सजा सुनाई गई, जबकि अन्य अभियुक्तों को आईपीसी की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत दोषी ठहराया गया। इसके अतिरिक्त, सभी अभियुक्तों को शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 27 के तहत दोषी ठहराया गया। उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत अपराधों के लिए आजीवन कारावास तथा शस्त्र अधिनियम, 1959 के उल्लंघन के लिए एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। 

मामले में प्रमुख व्यक्ति

अभियुक्त व्यक्ति

जैसा कि ऊपर बताया गया है, इस मामले में कई व्यक्तियों पर गंभीर अपराध करने का आरोप लगाया गया था: 

  1. अभियुक्त संख्या 1: अविनाश चंद राय
  2. अभियुक्त संख्या. 2: सुभाष चंद राय
  3. अभियुक्त संख्या. 3: अवध बिहारी राय
  4. अभियुक्त संख्या 4: अनिल राय
  5. अभियुक्त संख्या. 5: अवनी राय
  6. अभियुक्त संख्या. 6: अमित कुमार राय
  7. अभियुक्त संख्या. 7: सत्य नारायण यादव
  8. अभियुक्त संख्या 8: राम प्रवेश यादव उर्फ भरत दुसाध
  9. अभियुक्त संख्या. 9: भजवान यादव उर्फ गोरख कहार

गवाह

कार्यवाही के दौरान, कई गवाहों ने महत्वपूर्ण गवाही दी:

  1. अभियोजन पक्ष का गवाह संख्या 1: बिपिन राय
  2. अभियोजन पक्ष का गवाह संख्या. 3: शिशिर राय
  3. अभियोजन पक्ष का गवाह संख्या. 5: संजीव राय
  4. अभियोजन पक्ष की गवाह संख्या 6: होशिला देवी
  5. अभियोजन पक्ष के गवाह संख्या.10: डॉ. जय शंकर मिश्रा
  6. अभियोजन पक्ष के गवाह संख्या.11: अखिलेश्वर कुमार ए.एस.आई.
  7. अभियोजन पक्ष के गवाह संख्या.12: मुकाती सिंह
  8. अभियोजन पक्ष गवाह संख्या 13: अरबिंद कुमार ए.एस.आई.

कानून पर चर्चा

यह मामला संविधान द्वारा निर्धारित मौलिक अधिकारों के साथ-साथ आपराधिक कानून के पहलुओं से संबंधित था। 

आईपीसी की धारा 302 : हत्या के लिए सजा

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत, यदि कोई अभियुक्त हत्या का दोषी पाया जाता है तो उसे मृत्युदंड या आजीवन कारावास तथा जुर्माने की वैकल्पिक सजा का प्रावधान है। इस मामले में पीड़ितों की अविनाश चंद राय और सुभाष चंद राय ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। बाद में उन्हें हत्या का दोषी ठहराया गया। पटना उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय दोनों ने उनकी सजा की पुष्टि की थी। 

आईपीसी की धारा 149 : समान उद्देश्य 

धारा 149 में प्रतिनिधिक दायित्व का नियम शामिल है तथा यह किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के लिए उत्तरदायी ठहराता है, जो उसने व्यक्तिगत रूप से नहीं किया हो, लेकिन किसी गैरकानूनी समूह का सदस्य होने के कारण वह उत्तरदायी हो जाता है। यह धारा यह निर्धारित करती है कि एक समान उद्देश्य रखने वाली किसी गैरकानूनी सभा का प्रत्येक सदस्य उस सभा के किसी अन्य सदस्य द्वारा किए गए कार्यों के लिए उत्तरदायी होगा, तथा वह मूल अपराध का दोषी होगा तथा उस अपराध के लिए दंडनीय होगा। 

इस मामले में अविनाश चंद राय और सुभाष चंद राय के अलावा अन्य अभियुक्तों को आईपीसी की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत सजा सुनाई गई। राम प्रवेश यादव और भजवान यादव की अपील को पटना उच्च न्यायालय ने आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने अवध बिहारी राय (अभियुक्त संख्या 3), अनिल राय (अभियुक्त संख्या 4), अवनी राय (अभियुक्त संख्या 5) और अमित कुमार राय (अभियुक्त संख्या 6) द्वारा प्रस्तुत अपीलों को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया और आईपीसी की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत उनकी सजा को रद्द कर दिया। इसके बजाय उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 148 एवं धारा 149 के तहत उत्तरदायी ठहराया गया, क्योंकि उनका इरादा पीड़ितों की हत्या करने का नहीं था, बल्कि उनका इरादा केवल पीड़ितों पर हमला करने का था। 

धारा 353(1) : निर्णय

धारा 353(1) में कहा गया है कि मूल अधिकार क्षेत्र वाले किसी भी आपराधिक न्यायालय के समक्ष सभी मुकदमों में फैसला पीठासीन अधिकारी द्वारा मुकदमे के समापन के तुरंत बाद या उसके बाद किसी समय खुली अदालत में सुनाया जाएगा, जिसके लिए पक्षों और उनके वकीलों को सूचित किया जाएगा:- 

  1. संपूर्ण निर्णय सुनाकर; या
  2. संपूर्ण निर्णय पढ़कर; या
  3. निर्णय के प्रभावी भाग को पढ़कर तथा निर्णय के सार को ऐसी भाषा में समझाकर जिसे अभियुक्त या उनके वकील समझ सकें।

सर्वोच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 353(1) की व्याख्या करते हुए धारा में उल्लिखित “कुछ बाद के समय” का अर्थ छह सप्ताह की अवधि से अधिक नहीं बताया। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि निर्णय देने में अनावश्यक देरी कानून के सिद्धांत के विपरीत है। 

सीआरपीसी की धारा 157 : जांच की प्रक्रिया

सीआरपीसी की धारा 157(1) में कहा गया है कि यदि प्राप्त सूचना से या अन्यथा किसी पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी के पास किसी अपराध के होने का अनुमान लगाने का कारण है, जिसकी जांच करने के लिए उसे धारा 156 के तहत अधिकार दिया गया है, तो वह तत्काल इसकी रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजेगा जो पुलिस रिपोर्ट पर ऐसे अपराध का संज्ञान लेने के लिए सशक्त होगा और वह स्वयं जाएगा या अपने अधीनस्थ अधिकारियों में से किसी एक को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की जांच करने के लिए घटनास्थल पर भेजेगा और यदि आवश्यक हो, तो अपराधी की खोज और गिरफ्तारी के लिए उपाय करेगा। 

इस मामले में सुभाष चंद राय के वकील ने आरोप लगाया कि क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट को एफआईआर की प्रति भेजने में देरी की गई। हालाँकि, यह पाया गया कि मजिस्ट्रेट को एफआईआर की प्रति भेजने में कोई देरी नहीं हुई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 157 के तहत एफआईआर की एक प्रति क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट को भेजने का उद्देश्य भी समझाया। इस आवश्यकता का उद्देश्य संज्ञेय अपराधों की जांच के बारे में मजिस्ट्रेट को सूचित करना है, ताकि वे जांच पर नियंत्रण बनाए रख सकें और आवश्यकता पड़ने पर उचित निर्देश दे सकें। 

शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 27 : शस्त्र आदि का प्रयोग करने पर दण्ड

शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 27 में यह प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति धारा 5 का उल्लंघन करते हुए किसी हथियार या गोलाबारूद का उपयोग करता है, तो उसे न्यूनतम तीन वर्ष से अधिकतम सात वर्ष तक की जेल की सजा दी जाएगी तथा जुर्माना भी देना होगा। धारा 5 में अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) के आधार पर आग्नेयास्त्र (फायरआर्म्स) रखने के संबंध में प्रासंगिक नियम निर्धारित किये गये हैं। 

इस मामले में अभियुक्तों के पास भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद बरामद किया गया। तलाशी और जब्ती के दौरान अविनाश चंद राय को एक राइफल, चार जिंदा कारतूस और छह खाली कारतूस के साथ पकड़ा गया। राम प्रवेश यादव और भजवान यादव को एक देशी कट्टा और एक दोनाली बंदूक के साथ पकड़ा गया। अमित कुमार राय (अभियुक्त संख्या. 6) को एक बंदूक और 5 कारतूस के साथ गिरफ्तार किया गया। इस प्रकार, उन्हें शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 27 के अनुसार सजा सुनाई गई। 

संविधान का अनुच्छेद 21: शीघ्र सुनवाई का अधिकार

संविधान के अनुच्छेद 21 में कहा गया है, “किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा।” सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 के अर्थ में “शीघ्र सुनवाई के अधिकार” को एक मौलिक अधिकार माना है। हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1979) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित करने के महत्व पर प्रकाश डाला था। कुछ विचाराधीन कैदियों के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका प्रस्तुत की गई थी, जो लंबे समय से बिहार की जेलों में अपने मुकदमे की प्रतीक्षा में बंद थे। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि “शीघ्र सुनवाई का अधिकार” संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी में अंतर्निहित एक मौलिक अधिकार है। शीघ्र सुनवाई न्याय की भावना है। आगे यह भी कहा गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका में, शीघ्र सुनवाई छठे संशोधन में निर्धारित संवैधानिक अधिकारों में से एक है। कोई भी प्रक्रिया जो यथोचित रूप से शीघ्र सुनवाई की गारंटी नहीं दे सकती, उसे उचित, निष्पक्ष या न्यायसंगत नहीं माना जा सकता। इस प्रकार, न्यायालय ने बिहार सरकार को निर्देश दिया कि वह विचाराधीन कैदियों को निजी मुचलके पर रिहा करे। 

मोसेस विल्सन बनाम कार्तूरबा (2008) मामले में सर्वोच्च न्यायालय  ने मामलों के निपटान में देरी पर अपनी आशंका व्यक्त की और संबंधित अधिकारियों को स्थिति बिगड़ने से पहले शीघ्र उचित कार्रवाई करने का आदेश दिया। यहां 1947 में एक छोटी सी रकम के लिए मुकदमा दायर किया गया था, जो बाद में 60 वर्षों तक चलता रहा। इसलिए, न्यायालय ने भारत में मामलों के निपटारे में होने वाली देरी पर चिंता व्यक्त की थी। न्यायालय ने कहा कि मामलों के निपटारे में देरी के परिणामस्वरूप लोगों का न्यायपालिका पर से विश्वास उठ रहा है। 

उपर्युक्त मामले में, एम.एच. होसकोट बनाम महाराष्ट्र राज्य (1978), हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1979), ए.आर. अंतुले बनाम आर.एस. नायक (1992), करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य (1994) और अन्य मामलों का भी संदर्भ दिया गया, जो स्पष्ट रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के एक भाग के रूप में “शीघ्र सुनवाई के अधिकार” को स्थापित करते हैं। 

इसके अलावा, इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आर.सी. शर्मा बनाम भारत संघ (1976) के मामले का हवाला देते हुए निर्णय सुनाने में तेजी लाने की आवश्यकता पर बल दिया। न्यायालय ने आगे कहा कि कई मामले लंबे समय तक “निर्णय सुरक्षित” स्थिति में रहते हैं। बहस पूरी होने और निर्णय सुनाए जाने के बीच के समय को कम करने की आवश्यकता पर भी बल दिया गया। न्यायालय ने इस संबंध में उच्च न्यायालयों द्वारा अपनाए जाने वाले उचित दिशा-निर्देशों का भी सुझाव दिया। 

पटना उच्च न्यायालय का निर्णय

सत्र न्यायालय ने 4 मई, 1991 को हत्या सहित विभिन्न अपराधों के लिए नौ व्यक्तियों को सजा सुनाई। इसके बाद दोषियों ने पटना उच्च न्यायालय के समक्ष अपनी अपील प्रस्तुत की। जेल में रहते हुए, दोषियों को उम्मीद थी कि उनका मामला उच्च न्यायालय में आएगा। इस मामले को उच्च न्यायालय तक पहुंचने में पांच साल लग गए। अपीलकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों ने खंडपीठ के समक्ष अपनी दलीलें रखीं और 23 अगस्त, 1995 को न्यायाधीशों ने निर्णय के लिए अपील को अनिर्दिष्ट अवधि के लिए स्थगित कर दिया। अभियुक्त और उनके परिवार के सदस्य अदालत में मामले पर कोई प्रगति न होने के कारण बेचैनी से फैसले का इंतजार करते रहे। दुर्भाग्यवश, फैसले का इंतजार करते हुए एक दोषी की जेल में ही मृत्यु हो गई। पक्षकारों द्वारा न्यायालय के समक्ष अपनी दलीलें प्रस्तुत करने के बाद से काफी लम्बा समय बीत गया। 

जब तक उनमें से एक की सेवानिवृत्ति की तिथि नजदीक नहीं आ गई, तब तक न्यायाधीशों ने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। सुभाष चंद राय (अभियुक्त संख्या. 2), अविनाश चंद राय (अभियुक्त संख्या.1), अवध बिहारी राय (अभियुक्त संख्या 3) और अमित कुमार राय (अभियुक्त संख्या. 6) द्वारा प्रस्तुत अपीलें खारिज कर दी गईं। राम प्रवेश यादव (अभियुक्त संख्या 8) और भजवान यादव (अभियुक्त संख्या 9) द्वारा प्रस्तुत अपील को आईपीसी की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत उनकी सजा के संबंध में आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया गया, लेकिन शस्त्र अधिनियम के तहत उनकी दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, धारा 302 के अनुसार हत्या के लिए आजीवन कारावास या मृत्युदंड का प्रावधान है तथा जुर्माना भी लगाया जा सकता है, तथा धारा 149 के अनुसार यदि किसी गैरकानूनी जमावड़े के किसी सदस्य द्वारा कोई अपराध किया जाता है तो उस गैरकानूनी जमावड़े के सदस्य उत्तरदायी होंगे। हालाँकि, शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 27 के तहत राम प्रवेश यादव (अभियुक्त संख्या 8) और भजवान यादव (अभियुक्त संख्या 9) की दोषसिद्धि और सजा, जो हथियारों का उपयोग करने की सजा का प्रावधान करती है, अपरिवर्तित रही। 

सर्वोच्च न्यायालय में अपील

इस मामले में आपराधिक अपील संख्या 389/1998 के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक अपील प्रस्तुत की गई थी। अविनाश चंद राय (अभियुक्त संख्या 1) और सुभाष चंद राय (अभियुक्त संख्या 2) को मूल रूप से विचारण न्यायालय द्वारा आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या के लिए सजा सुनाई गई थी। अन्य अभियुक्तों को विचारण न्यायालय द्वारा सामान्य आशय के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत दोषी ठहराया गया। उन्हें आग्नेयास्त्रों का प्रयोग करने के लिए शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 27 के तहत भी दोषी ठहराया गया। उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत अपराधों के लिए आजीवन कारावास तथा शस्त्र अधिनियम, 1959 के उल्लंघन के लिए एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। सत्य नारायण यादव (अभियुक्त संख्या 7) द्वारा एक विशेष अनुमति याचिका दायर की गई थी, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने 27.03.1998 को आत्मसमर्पण का सबूत पेश करने में विफल रहने के कारण खारिज कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पटना उच्च न्यायालय की दोहरी न्यायाधीश वाली पीठ ने फैसला सुनाने में दो साल लगा दिए, जबकि अभियुक्त जेल में कष्ट झेल रहे थे। न्यायालय ने इस मामले में उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण की आलोचना की तथा सवाल किया कि जब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश विवादों के निपटारे के कई महीनों या कभी-कभी वर्षों बाद भी निर्णय देने में विफल रहते हैं, तो इसका क्या परिणाम होना चाहिए। 

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह आरोप लगाया गया कि निर्णय सुनाने में अत्यधिक, अस्पष्टीकृत और लापरवाहीपूर्ण विलंब ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) में दिए गए अपील के विशेषाधिकार को कमजोर कर दिया है। इस तरह की देरी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। 

देश के कुछ उच्च न्यायालयों में व्याप्त ऐसी भयानक एवं भयावह (ड्रेडफुल) स्थितियों के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ने वादियों के अधिकारों पर ऐसे विलंब के प्रभाव की जांच की। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पहलू पर विचार करने और उचित निर्देश देने का संकल्प लिया। 

उठाए गए मुद्दे 

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रासंगिक प्रश्न यह था कि क्या निर्णय देने में देरी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है। 

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

अपीलकर्ताओं की ओर से उपस्थित अधिवक्ता ने सुरेन्द्र नाथ सरकार बनाम द एम्परर (1941), जगरनाथ सिंह बनाम फ्रांसिस खारिया (1948) और सोहागिया बनाम रामबृक्ष महतो (1961 बीएलजेआर 282) के निर्णयों का हवाला देते हुए यह दर्शाया कि केवल छह महीने से दस महीने के बीच की अवधि के लिए निर्णय देने में देरी के कारण, उच्च न्यायालयों ने इन निर्णयों को कानून के प्रतिकूल माना और उन्हें खारिज कर दिया। आर.सी. शर्मा बनाम भारत संघ (1976) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह देखते हुए कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में निर्णय सुनाने के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है, फैसला सुनाया कि विवादों की सुनवाई और निर्णय सुनाने के बीच अत्यधिक विलंब, जब तक कि दुर्लभ और असामान्य स्थितियों द्वारा उचित न ठहराया जाए, वास्तव में अस्वीकार्य है, भले ही लिखित विवाद प्रस्तुत किए गए हों। यह सामान्य बात है कि कुछ बिन्दु, जिन्हें वादी महत्वपूर्ण मानता है, पर ध्यान नहीं दिया गया हो। लेकिन, प्रासंगिक बात यह है कि वादी को मुकदमे के परिणाम पर कुछ हद तक विश्वास होना चाहिए। यह विश्वास तब टूट जाता है जब विवादों की सुनवाई और निर्णय सुनाए जाने के बीच काफी समय बीत जाता है। 

सुभाष चंद राय का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील ने विभिन्न कारणों से विचारण न्यायालय और उच्च न्यायालय के निर्णयों की आलोचना की। यह तर्क दिया गया कि चूंकि न्यायालय द्वारा समर्थित गवाह अपीलकर्ताओं के प्रति शत्रुतापूर्ण थे, इसलिए उनकी गवाही पर तब तक विश्वास नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि उसकी पुष्टि भौतिक विवरणों से न हो जाए। उन्होंने एफआईआर की प्रति क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट को भेजने में हुई देरी का भी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की। इसके अतिरिक्त, उन्होंने इस बात पर भी विवाद किया कि होशिला देवी को प्रत्यक्षदर्शी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उन्होंने वास्तव में घटना नहीं देखी थी। यह भी दावा किया गया कि अभियोजन पक्ष के गवाह 1 (बिपिन राय) और 5 (संजीव राय) के बयानों की विश्वसनीयता स्थापित नहीं की जा सकी क्योंकि उनके नाम एफआईआर में उल्लेखित नहीं थे। 

इसके अलावा, अपीलकर्ता की ओर से उपस्थित वकील ने पीड़ित के घावों और सुभाष चंद राय से एक बैरल वाली बंदूक बरामद होने के संबंध में प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों और चिकित्सा साक्ष्यों में विरोधाभासों की ओर इशारा किया। उन्होंने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष अपीलकर्ताओं को अपराध से जोड़ने में विफल रहा, विशेषकर तब जब अपीलकर्ताओं ने आरोप लगाया कि गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने उन्हें घायल कर दिया था। आगे यह दावा किया गया कि जांच में खामियां पाई गईं, इसलिए आरोपी को बरी कर दिया जाना चाहिए। चूंकि मुकाती सिंह एक पक्षद्रोही गवाह थे, जिनकी गवाही में अभियुक्त नंबर 2 यानी सुभाष चंद राय का नाम नहीं था, इसलिए उन्हें इन अपीलों में फैसले को रद्द करके बरी कर दिया जाना चाहिए था। 

सुभाष चंद राय का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील ने होशिला देवी की गवाही की आलोचना की तथा उनके बयान और चिकित्सा साक्ष्य के बीच कथित विरोधाभासों पर प्रकाश डाला। उन्होंने उसकी गवाही की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए तर्क दिया कि उसे प्रत्यक्षदर्शी नहीं माना जा सकता, तथा बताया कि उसने अभियुक्त द्वारा राइफल का प्रयोग करने का उल्लेख किया था, जबकि केवल एक बंदूक ही बरामद हुई थी। मुकदमे में अपनी गवाही के दौरान अभियोजन पक्ष की गवाह संख्या 6 (होशिला देवी) ने अपने द्वारा देखी गई घटनाओं का विस्तृत विवरण दिया। उन्होंने बताया कि कैसे वह और उनके रिश्तेदार शोरगुल सुनकर गांव के उत्तरी हिस्से में पहुंचे, जहां उन्होंने देखा कि लाल मुनि राय को कुछ लोगों ने पकड़ रखा है, जिनमें अभियुक्त संख्या 1, 3, 4, 5, 6 और 7 के अलावा बंदूकों और राइफलों से लैस दो अन्य लोग भी शामिल थे। लाल मुनि राय के भागने की कोशिश के बावजूद अविनाश चंद राय ने उन्हें पीछे से गोली मार दी, जिससे वे जमीन पर गिर पड़े। एक अन्य अज्ञात व्यक्ति ने भी लाल मुनि राय पर गोली चलाई। जब चांद मुनि राय घटनास्थल पर पहुंचे तो सुभाष चंद राय ने बरामदे से उन्हें गोली मार दी। सुभाष चंद राय ने होशिला देवी और अन्य पर भी गोलियां चलाईं, जो भागने में सफल रहे, लेकिन बाद में वापस आ गए। होशिला देवी ने कभी यह नहीं बताया कि उनके पति चांद मुनि राय को केवल एक ही गोली लगी थी। इससे यह संभावना पैदा होती है कि सुभाष चंद राय द्वारा एक और गोली चलाई गई हो या किसी अन्य अभियुक्त द्वारा चलाई गई गोली चूक गई हो जिससे पीड़ित प्रभावित हुआ हो, जिसे खारिज नहीं किया जा सकता। 

अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) में निर्णय

अभियोजन पक्ष के गवाहों 1, 2, 5 और 6 के प्रत्यक्षदर्शी बयानों, अविनाश चंद राय और सुभाष चंद राय से आग्नेयास्त्रों की जब्ती, उनके और पीड़ितों के बीच दुश्मनी और चिकित्सा साक्ष्य के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने अविनाश चंद राय और सुभाष चंद राय की दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखा। दूसरी ओर, सत्य नारायण, जिन्होंने पहले विशेष अनुमति याचिका दायर की थी, को परिवर्तित सजा का लाभ दिया गया, क्योंकि धारा 302 के साथ धारा 149 आईपीसी के तहत उनकी दोषसिद्धि को रद्द कर दिया गया और इसके विकल्प के रूप में उन्हें धारा 148 के साथ धारा 149 आईपीसी के तहत दोषी ठहराया गया और तीन साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। 

सर्वोच्च न्यायालय ने सुभाष चंद राय द्वारा प्रस्तुत अपीलों को खारिज कर दिया। अवध बिहारी राय, अनिल राय, अवनी राय और अमित कुमार राय द्वारा प्रस्तुत अपीलों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत उनकी दोषसिद्धि को रद्द करते हुए आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। इसके बजाय, उन्हें धारा 148 तथा धारा 149 के अंतर्गत दंडनीय अपराधों के लिए उत्तरदायी पाया गया तथा तीन वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। इसके अतिरिक्त, शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 27 के तहत सजा की पुष्टि की गई। 

चूंकि कुछ अभियुक्त व्यक्ति जैसे अवध बिहारी राय (अभियुक्त संख्या. 3), अनिल राय (अभियुक्त संख्या. 4), अवनी राय (अभियुक्त संख्या. 5) और सत्य नारायण यादव (अभियुक्त संख्या. 7) पहले ही तीन वर्ष की अपनी सजा पूरी कर चुके थे, इसलिए उन्हें रिहा कर दिया गया।

 

इस निर्णय के पीछे तर्क

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्याय में देरी न्याय से इनकार के समान है, लेकिन न्याय में बाधा डालना कहीं अधिक हानिकारक है। सर्वोच्च न्यायालय ने एम.एच. होसकोट बनाम महाराष्ट्र राज्य (1978) में दिए गए अपने फैसले को दोहराया, जिसमें कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा निर्धारित प्रक्रिया एक “निष्पक्ष और उचित प्रक्रिया” को दर्शाती है, जो प्राकृतिक न्याय जैसे सभ्य सिद्धांतों के अनुरूप है, जो सामूहिक विवेक में दृढ़ता से निहित है। आपराधिक मामलों में अपील का अधिकार सभ्य न्यायशास्त्र का मूलभूत अधिकार माना जाता है, तथा मुकदमे के बाद न्याय में देरी इस अधिकार को कमजोर करती है। आवश्यकता के अनुपालन के लिए अपील का अधिकार प्रदान करने को दिखावा नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि इसमें ऐसे मामलों में निर्णय देने की अवधि बढ़ा दी गई है जो न तो संबंधित पक्षों के प्रति, न ही राज्य के प्रति और न ही कानूनी पेशे के प्रति जवाबदेह हैं। न्यायाधीशों की कमी, अपर्याप्त बुनियादी ढांचे, वकीलों की हड़ताल और राज्य के प्रति उत्तरदायी स्थितियों के कारण अपीलों के निपटान में देरी समझ में आती है। हालांकि, न्याय प्रदान करने की प्रणाली में भागीदारी की पूरी प्रक्रिया समाप्त हो जाने के बाद, तथा केवल शेष कार्य निर्णय देना रह जाने के बाद, पक्षों के अधिकारों पर निर्णय देने में और अधिक विलंब करने का कोई औचित्य नहीं दिया जा सकता है, विशेषकर तब जब इसका प्रभाव संविधान के भाग III द्वारा गारंटीकृत किसी भी अधिकार पर पड़ता हो। 

सर्वोच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 353(1) के अर्थ और व्याख्या पर गहराई से विचार किया। अदालत ने स्पष्ट किया कि प्रावधान में यह प्रावधान है कि मूल अधिकार क्षेत्र वाले किसी भी आपराधिक न्यायालय में प्रत्येक मुकदमे में फैसला मुकदमे के पूरा होने के तुरंत बाद या किसी बाद के समय पर खुली अदालत में सुनाया जाना चाहिए, जिसके लिए पक्षकारों और उनके वकील को उचित सूचना दी जाएगी। इस प्रावधान में धारा 353(1) में वर्णित वाक्यांश “कुछ समय बाद” का अर्थ है बिना अनावश्यक देरी के निर्णय सुनाना, क्योंकि निर्णय सुनाने में विलंब करना कानून के शासन के विपरीत है। किसी भी परिस्थिति में ऐसा विलंब छह सप्ताह की अवधि से अधिक नहीं होना चाहिए। हालाँकि, उच्च न्यायालयों के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता या सीआरपीसी में कोई विशिष्ट समय निर्धारित नहीं है। फिर भी, चूंकि निर्णय देना न्याय प्रणाली का एक मूलभूत पहलू है, इसलिए इसमें विलंब नहीं होना चाहिए। मामलों के निपटान में अनियंत्रित देरी से न्यायपालिका में लोगों का विश्वास कम होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कानून के शासन की प्राप्ति के लिए इसकी प्रतिष्ठा, सम्मान और प्रतिष्ठा को बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया।

उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णय सुनाने के लिए दिशानिर्देश

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णय सुनाए जाने के संबंध में उचित दिशा-निर्देश जारी किए। दिशा-निर्देश नीचे सूचीबद्ध हैं:- 

  • उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश रजिस्ट्री को उचित निर्देश दे सकते हैं कि किसी मामले में जब निर्णय सुरक्षित रखा जाता है और बाद में सुनाया जाता है, तो निर्णय के प्रथम पृष्ठ पर मामले के शीर्षक के बाद एक स्तंभ (कॉलम) जोड़ा जा सकता है, जिसमें निर्णय सुरक्षित रखने की तारीख और सुनाने की तारीख स्पष्ट रूप से बताई जा सकती है। 
  • उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को अपने प्रशासनिक प्राधिकार पर, उच्च न्यायालयों में विभिन्न पीठों के न्यायालय अधिकारियों/रीडरों को निर्देश देना चाहिए कि वे प्रत्येक माह उन मामलों की सूची प्रस्तुत करें जिनमें सुरक्षित रखे गए निर्णय उस माह में नहीं सुनाए गए हों। 
  • यह देखते हुए कि बहस पूरी होने के बाद दो महीने के भीतर फैसला नहीं सुनाया जाता है, मुख्य न्यायाधीश उन मामलों का विवरण जारी करने की उपयुक्तता पर विचार कर सकते हैं जिनमें बहस पूरी होने की तारीख से छह सप्ताह से कम समय में फैसला नहीं सुनाया गया है, ताकि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनकी जानकारी मिल सके। इस तरह के संचार को गोपनीय तरीके से दिया जाना चाहिए। 
  • जहां निर्णय सुरक्षित रखने की तिथि से तीन माह के भीतर निर्णय नहीं सुनाया जाता है, वहां मामले का कोई भी पक्ष उच्च न्यायालय में शीघ्र निर्णय के लिए आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। यह आवेदन निर्णय सुरक्षित रखने की तिथि से तीन माह की अवधि समाप्त होने के दो दिन के भीतर संबंधित पीठ के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। 
  • यदि किसी मामले में छह महीने के अंतराल में फैसला नहीं सुनाया जाता है, तो कोई भी पक्ष उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है, जिसमें नए सिरे से बहस के लिए मामले को किसी अन्य पीठ को स्थानांतरित करने की मांग की जा सकती है। मुख्य न्यायाधीश उक्त याचिका को स्वीकार कर सकते हैं या अपने विवेक से कोई अन्य आदेश पारित कर सकते हैं। 

फैसले के अन्य पहलू 

अपीलों पर विचार करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष के गवाह 1, 2, 5 और 6, जिन्हें विचारण और उच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार किया गया था, के पूर्व दुश्मनी के कारण अभियुक्तों के साथ खराब संबंध थे। कानून का रुख यह है कि दुश्मनी एक “दोधारी तलवार” है जो अपराध के लिए एक मकसद के साथ-साथ झूठे आरोप का कारण भी हो सकती है। विरोधी गवाहों के संबंध में, अदालतों को उनकी गवाही का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना चाहिए ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि उनकी गवाही विश्वसनीय है या नहीं, चाहे दुश्मनी का तथ्य कुछ भी हो। जब अपराध के लिए दुश्मनी को प्रेरणा सिद्ध कर दिया जाता है, तो अभियुक्त यह नहीं कह सकता कि अपराध के साक्ष्य के बावजूद, प्रतिकूल गवाह पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। हालाँकि, अपराध में अभियुक्त की भागीदारी के संबंध में अभियोजन पक्ष के गवाहों का आकलन करते समय इस संभावना पर विचार किया जाना चाहिए। प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही को केवल इसलिए खारिज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि मृतक प्रत्यक्षदर्शियों का रिश्तेदार था या अभियुक्त और गवाहों के बीच पहले से कोई दुश्मनी थी। इस मामले में दुश्मनी का तथ्य, विशेषकर जब इसे अपराध के लिए एक मकसद के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, प्रत्यक्षदर्शी की गवाही को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता। 

सीआरपीसी की धारा 157 के तहत एफआईआर की प्रति क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट को भेजने के मुद्दे पर, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह धारा मजिस्ट्रेट को संज्ञेय अपराधों की जांच के बारे में सूचित रखने के लिए तैयार की गई है, जिससे वे जांच की निगरानी कर सकें और सीआरपीसी की धारा 159 के अनुसार, यदि आवश्यक हो तो उचित निर्देश जारी कर सकें। तथापि, जहां एफआईआर शीघ्र दर्ज की जाती है और उस एफआईआर के आधार पर बिना देरी के जांच शुरू हो जाती है, वहां मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट की प्रति भेजने में देरी से यह पुष्टि नहीं होती कि जांच से समझौता किया गया है। इस मामले में घटना के 15 मिनट के भीतर एफआईआर दर्ज कर ली गई थी और कई अभियुक्तों को तुरंत पकड़ लिया गया था। इसके अलावा, एफआईआर की प्रति क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट को भेजने में कोई देरी नहीं हुई। अपीलकर्ता सुभाष चंद राय का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील ने अदालत को यह विश्वास दिलाने के लिए कोई सबूत नहीं दिया कि एफआईआर की प्रति क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट को भेजने में असाधारण देरी हुई थी। 

मृतक को लगी चोटों की प्रकृति के बारे में चिकित्सा साक्ष्य से संबंधित तर्क को भी न्यायालय ने खारिज कर दिया। न्यायालय ने कहा कि साक्ष्य की गलत व्याख्या की गई तथा उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। इसके अलावा, यह भी पाया गया कि सुभाष चंद राय से बरामद हथियार बंदूक था न कि राइफल। विशेषज्ञ गवाह ने “आग्नेयास्त्र” शब्द का प्रयोग किया, जिसमें बंदूकें और राइफलें दोनों शामिल हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि विशेषज्ञ गवाह चिकित्सा विज्ञान का विशेषज्ञ था, न कि बैलिस्टिक विशेषज्ञ। 

इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने एक अभियुक्त के वकील द्वारा दी गई दलील को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि चूंकि अभियोजन पक्ष के गवाह संख्या 12 को पक्षद्रोही घोषित कर दिया गया था और उसने अभियुक्त संख्या 2 का नाम लिया था, इसलिए अभियोजन पक्ष का मामला असफल माना जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि अपने गवाह के पक्षद्रोही घोषित होने के बावजूद, लोक अभियोजक को जिरह करने की अनुमति देने मात्र से, उक्त गवाह द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्य मिट नहीं जाते। 

शेष अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य वकीलों ने कहा कि उनके मुवक्किलों यानी अभियुक्त संख्या 3 से अभियुक्त संख्या 7 को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 149 के तहत दी गई सजा सही नहीं थी। न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 149 के दायरे की जांच करते हुए कहा कि जब तक यह निर्णायक रूप से स्थापित नहीं हो जाता कि सभी आरोपी व्यक्तियों का उद्देश्य समान था तथा उन्होंने अपराध की घटना में भाग लिया था, तब तक धारा 149 लागू नहीं की जा सकती। यह दिखाने के लिए न तो कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य था और न ही परिस्थितिजन्य साक्ष्य था कि अभियुक्त संख्या. 3 (अवध बिहारी राय) से लेकर अभियुक्त संख्या. 7 (सत्य नारायण यादव) का अविनाश चंद राय (अभियुक्त संख्या.1) और सुभाष चंद राय (अभियुक्त संख्या. 2) के साथ पीड़ितों की मौत का कारण बनने का आपसी साझा उद्देश्य था। यदि कोई साझा उद्देश्य था भी तो वह सिर्फ दंगा-फसाद करने के लिए था। हालाँकि, यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत थे कि अभियुक्त संख्या 3 (अवध बिहारी राय) से लेकर अभियुक्त संख्या 7 (सत्य नारायण यादव) तक ने लाल मुनि राय के खिलाफ हिंसा का उपयोग करने के सामान्य उद्देश्य से एक गैरकानूनी सभा का गठन किया था। 

अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) का विश्लेषण

अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) मामले में समय पर निर्णय सुनाए जाने, निष्पक्षता, समानता और कानून के शासन के सिद्धांतों को कायम रखने के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी उजागर किया है, पटना उच्च न्यायालय द्वारा निर्णय देने में दो वर्षों की देरी से न केवल अपीलकर्ताओं को अनावश्यक कष्ट उठाना पड़ा, बल्कि न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता भी कम हुई। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, निर्णय देने में लंबा विलंब न केवल न्याय का खंडन है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त शीघ्र सुनवाई के मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों को उनके संवैधानिक कर्तव्य की याद दिलाई थी। पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए और समय पर निर्णय देने के लिए दिशानिर्देश जारी करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक प्रणाली में जवाबदेही और दक्षता की आवश्यकता पर बल दिया। यद्यपि ये दिशानिर्देश प्रकृति में निर्देशात्मक थे, लेकिन इनका उद्देश्य निर्णय देने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना तथा न्यायपालिका में जनता के विश्वास को खत्म करने वाली अनुचित देरी को रोकना था। इस प्रकार, इसने बताया कि बहस पूरी होने और निर्णय सुनाए जाने के बीच इतने लंबे अंतराल का मामले के परिणाम पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है। 

इसके अलावा, यह मामला आपराधिक कार्यवाही में साक्ष्य मूल्यांकन के महत्व पर जोर देता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गवाहों के बयानों, चिकित्सीय साक्ष्यों और तर्कों की जांच से गहन और निष्पक्ष न्यायिक समीक्षा प्रक्रिया के महत्व पर प्रकाश पड़ता है। 

निष्कर्ष

अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) का मामला हमें याद दिलाता है कि अदालतों के लिए शीघ्र और निष्पक्ष निर्णय लेना कितना महत्वपूर्ण है। निर्णय देने में होने वाली देरी को दूर करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप, शीघ्र सुनवाई के अधिकार की रक्षा करने तथा उचित न्याय सुनिश्चित करने के प्रति उसके समर्पण को दर्शाता है। समय पर निर्णय देने के लिए नियम निर्धारित करके और साक्ष्यों की सावधानीपूर्वक समीक्षा करके, सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के संरक्षक और संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका की पुनः पुष्टि की थी। आगे बढ़ते हुए, न्यायपालिका में जनता का विश्वास बहाल करने और कानून के शासन को बनाए रखने के लिए इन दिशानिर्देशों का कार्यान्वयन महत्वपूर्ण है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

भारतीय दंड संहिता की धारा 149 के अंतर्गत “सामान्य उद्देश्य” क्या है?

भारतीय दंड संहिता की धारा 149 के अंतर्गत किसी गैरकानूनी समूह के किसी सदस्य द्वारा किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपराध करना शामिल है। यह प्रावधान गैरकानूनी सभा के सदस्यों के प्रतिनिधि दायित्व की घोषणा करता है, जिसका सामान्य उद्देश्य अपराध करना है। यदि कोई गैरकानूनी सभा किसी अपराध को करने के सामान्य उद्देश्य से गठित की जाती है, और यदि उस अपराध को गैरकानूनी सभा के किसी सदस्य द्वारा उस उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए किया जाता है, तो सभी सदस्य उस अपराध के लिए उत्तरदायी होंगे। 

संविधान का कौन सा अनुच्छेद ‘शीघ्र सुनवाई के अधिकार’ को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देता है?

शीघ्र सुनवाई के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के एक पहलू के रूप में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। 

संदर्भ

  • के.डी. गौर; भारतीय दंड संहिता पर पाठ्यपुस्तक; यूनिवर्सल लॉ पब्लिशिंग
  • डॉ. जे.एन. पांडे; भारत का संवैधानिक कानून; केंद्रीय विधि एजेंसी

 

 

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