आरोप पत्र और प्राथमिकी के बीच अंतर

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यह लेख Danish Ur Rahman S द्वारा लिखा गया है। यह लेख प्रथम सूचना रिपोर्ट (प्राथमिकी) और आरोप पत्र (चार्जशीट) और आपराधिक कानून के क्षेत्र में उनकी प्रयोज्यता (एप्लिकेशन) के बीच एक विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन देता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

हम सभी ने अपने जीवनकाल में एक बार ये दो शब्द अवश्य सुने होंगे- प्राथमिकी और आरोप पत्र। हमने उनके बारे में समाचार पत्रों, मीडिया, फिल्मों आदि के माध्यम से सीखा। प्राथमिकी और आरोप पत्र दोनों का अभियुक्तों पर और अदालत के समक्ष अपराध के लिए आपराधिक कार्यवाही पर बहुत प्रभाव पड़ता है। यह आसानी से कहा जा सकता है कि प्राथमिकी किसी अपराध के बाद की जाने वाली पहली चीज है, और आरोप पत्र अभियुक्त के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही के उद्देश्य से तैयार की गई अपराध की अंतिम रिपोर्ट है। इन दोनों पर इस लेख में नीचे विस्तार से चर्चा की गई है।

आरोप पत्र और प्राथमिकी के बीच अंतर

हालाँकि, प्राथमिकी और आरोपपत्र दोनों का आपराधिक कार्यवाही पर बहुत प्रभाव पड़ता है, लेकिन उनके बीच कुछ प्रमुख अंतर हैं। ऐसे प्रत्येक अंतर को नीचे विस्तार से समझाया गया है।

आरोप पत्र और प्राथमिकी का मतलब

आरोप पत्र

आरोप पत्र वह अंतिम दस्तावेज है जो पुलिस द्वारा तब तैयार किया जाता है जब अपराध करने वाले अभियुक्त के खिलाफ पुख्ता सबूत हों। किसी अपराध की पूरी जांच होने के बाद ही पुलिस द्वारा आरोप पत्र तैयार किया जाता है। पुलिस द्वारा जांच से एकत्र किए गए सबूतों और अपराध की प्रकृति और गंभीरता के आधार पर आरोपियों के खिलाफ आरोप दर्ज करने के लिए आरोप पत्र का उपयोग किया जाता है। आरोप पत्र को चालान, पूर्णता रिपोर्ट या समापन रिपोर्ट के रूप में भी जाना जाता है। मजिस्ट्रेट के सामने आरोप पत्र जमा करने के बाद ही मुकदमा शुरू होता है और अभियोजन पक्ष अभियुक्त पर मुकदमा चलाता है।

प्राथमिकी

प्रथम सूचना रिपोर्ट एक लिखित दस्तावेज है जो किसी आपराधिक घटना या अपराध के बारे में पुलिस को प्राप्त शिकायतों और सूचनाओं के आधार पर तैयार की जाती है। प्राथमिकी केवल संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध के मामले में तैयार की जाती है, और इसलिए गैर-संज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) अपराध के लिए कोई प्राथमिकी तैयार नहीं की जाती है। दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार, संज्ञेय अपराध एक अधिक गंभीर और जघन्य अपराध है जो समाज और जनता को बुरी तरह प्रभावित करता है, और संज्ञेय अपराध में पुलिस को बिना किसी गिरफ्तारी वारंट या अदालत की अनुमति के अभियुक्त को गिरफ्तार करने की शक्ति होती है। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2(c), संज्ञेय अपराध शब्द को परिभाषित करती है। राजस्थान राज्य बनाम शिव सिंह (1960) के मामले में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने माना कि प्राथमिकी ‘एक पुलिस स्टेशन में एक पुलिस अधिकारी के समक्ष रिपोर्ट के निर्माता का बयान है जो संहिता के प्रावधानों द्वारा प्रदान किए गए तरीके से दर्ज किया गया है।’

आरोप पत्र और प्राथमिकी को नियंत्रित करने वाले कानून

आरोप पत्र

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 वह प्रावधान है जो आरोप पत्र से संबंधित है। धारा 173(1) उस अवधि से संबंधित है जिसके भीतर आरोप पत्र तैयार करने के लिए जांच पूरी करनी होती है, जिसे निम्नलिखित शीर्षकों में समझाया गया है। धारा में आरोप पत्र को पुलिस रिपोर्ट कहा गया है।

धारा 173(2) में कहा गया है कि, जैसे ही पुलिस अधिकारी किसी अपराध की जांच पूरी कर लेता है, पुलिस अधिकारी एक पुलिस रिपोर्ट बनाएगा और इसे एक मजिस्ट्रेट को अग्रेषित (फॉरवर्ड) करेगा जिसके पास अपराध का संज्ञान लेने की शक्ति है।

धारा 173(2) में यह भी कहा गया है कि जांच पूरी होने के बाद बनाई गई पुलिस रिपोर्ट में सभी जानकारी शामिल होनी चाहिए:

  • पक्षों के नाम;
  • दी गई जानकारी की प्रकृति;
  • उन सभी व्यक्तियों के नाम जो मामले की परिस्थितियों से जुड़े हैं;
  • क्या कोई अपराध किसी ने किया है और यदि हां, तो किसने किया है;
  • क्या अपराध करने वाले अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गया है;
  • क्या अभियुक्त को उसके बॉन्ड पर हिरासत से रिहा किया गया है और यदि हां, तो क्या उसे प्रतिभूतियों (सिक्योरिटी) के साथ या उसके बिना रिहा किया गया है;
  • क्या वह सीआरपीसी की धारा 170 के तहत हिरासत में है;
  • यदि अपराध महिला के खिलाफ है और अपराध भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376, 376-A, 376-AB, 376-B, 376-C, 376-D, 376-DA, 376-DB या 376-E के तहत अपराध से संबंधित है, तो क्या महिला की चिकित्सीय जांच रिपोर्ट में संलग्न (अटैच्ड) की गई है।

जिस अधिकारी ने पुलिस रिपोर्ट या आरोप पत्र तैयार किया है, उसे संबंधित राज्य सरकार द्वारा निर्धारित तरीके से प्रथम सूचना रिपोर्ट देने वाले व्यक्ति के साथ संवाद करना होता है। 

सीआरपीसी की धारा 158 में प्रावधान है कि जब भी कोई रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है, तो राज्य सरकार इसे किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी द्वारा अग्रेषित करने का निर्देश देती है, जिसे सामान्य या विशेष आदेश द्वारा नियुक्त किया गया है। रिपोर्ट अकेले वरिष्ठ पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट को सौंपी जाती है।

इसलिए, धारा 173(3) में कहा गया है कि आरोप पत्र एक वरिष्ठ अधिकारी के माध्यम से मजिस्ट्रेट को भेजा जाना है, जैसा कि धारा 158 में निर्धारित है। यदि मजिस्ट्रेट के आदेश लंबित हैं, तो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी आगे की जांच करने के लिए प्रभारी पुलिस अधिकारी को निर्देश दे सकता है।

नूपुर तलवार बनाम सीबीआई (2012) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट द्वारा लिए गए अपराध के संज्ञान में किसी भी आदेश द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि ऐसा संज्ञान अनुचित न हो या किसी सामग्री पर आधारित न हो।

धारा 173(4) में कहा गया है कि यदि मजिस्ट्रेट को भेजे गए आरोप पत्र में कहा गया है कि अभियुक्त को बॉन्ड द्वारा रिहा कर दिया गया है, तो मजिस्ट्रेट के पास बॉन्ड से मुक्त करने का आदेश देने या अन्यथा जैसा वह उचित समझे, करने की शक्ति है।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 170 में बताया गया है कि साक्ष्य पर्याप्त होने पर कब और कौन से मामले को मजिस्ट्रेट के पास भेजा जा सकता है। 

धारा 173(5) में कहा गया है कि यदि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 170 के तहत आरोप पत्र मजिस्ट्रेट को भेजा जाता है, तो आरोप पत्र उन सभी दस्तावेजों या प्रासंगिक उद्धरणों (एक्सट्रैक्ट) के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए जिन पर अभियोजन भरोसा कर सकता है। आरोप पत्र उन सभी व्यक्तियों द्वारा दर्ज किए गए बयानों के साथ प्रस्तुत किया जाना है जो अभियोजन के समय गवाह हो सकते हैं। 

धारा 173(7) में कहा गया है कि पुलिस अधिकारी, यदि ऐसा करने के लिए पर्याप्त सुविधाजनक है, तो अपराध के अभियुक्त को धारा 173(5) में निर्दिष्ट सभी या कोई भी दस्तावेज प्रस्तुत कर सकता है।

यदि पुलिस अधिकारी को लगता है कि धारा 173(5) में उल्लिखित बयानों के किसी भी हिस्से का अभियुक्त के सामने खुलासा करना आवश्यक नहीं है और मामले की विषय वस्तु के लिए प्रासंगिक नहीं है, तो पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट से अभियुक्त को उस हिस्से का खुलासा न करने का अनुरोध कर सकता है। 

भले ही पुलिस अधिकारी ने जांच पूरी होते ही आरोप पत्र भेज दिया हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जांच खत्म हो गई है। धारा 173(8) में कहा गया है कि 173(2) के तहत मजिस्ट्रेट को आरोप पत्र भेजे जाने के बाद भी जांच आगे बढ़ सकती है, और पुलिस अधिकारी आगे की रिपोर्ट या विस्तारित जांच की रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजेगा।

प्राथमिकी

प्रथम सूचना रिपोर्ट (प्राथमिकी) को कानून में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। किसी भी आपराधिक क़ानून में प्राथमिकी को परिभाषित करने वाला कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। हालांकि कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं हैं, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 154 के तहत दर्ज की गई जानकारी को प्रथम सूचना रिपोर्ट माना जाता है।

सीआरपीसी की धारा 154

धारा 154(1) के अनुसार, “संज्ञेय मामलों में जानकारी”- किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित प्रत्येक जानकारी जो किसी पुलिस स्टेशन के अधिकारी को मौखिक रूप से दी जाती है, उसे अधिकारी या उसके निर्देशन में किसी भी व्यक्ति द्वारा लिखित रूप में किया जाना चाहिए और अधिकारी मुखबिर को दर्ज की गई सभी जानकारी पढ़कर सुनाएगा। इस प्रकार दर्ज की गई जानकारी, चाहे लिखित रूप में दी गई हो या लिखित रूप में की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित की जाएगी जिसने ऐसी जानकारी दी है, और ऐसी सभी जानकारी संबंधित राज्य सरकार द्वारा निर्धारित तरीके से अधिकारी द्वारा दर्ज और रखी जाती है।

पुलिस स्टेशन में प्राथमिकी दर्ज करते समय चार आवश्यक बातें निम्नलिखित हैं:

  1. किसी संज्ञेय अपराध के होने से संबंधित प्रत्येक जानकारी एक पुलिस स्टेशन के पुलिस अधिकारी को दी जानी है।
  2. ऐसी जानकारी, यदि मौखिक रूप से दी गई है, तो अधिकारी या उसके निर्देशन में किसी के द्वारा लिखित रूप में की जाएगी।
  3. मुखबिर को दर्ज किए गए बयान पर हस्ताक्षर करना होगा जिसे पुलिस अधिकारी या उसके निर्देशन में किसी के द्वारा लिखित में कर दिया गया है।
  4. पुलिस अधिकारी ऐसी जानकारी को संबंधित राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रपत्र में रखेगा और रिकॉर्ड करेगा।

धारा 154(2) ऐसी दर्ज की गई जानकारी को मुखबिर को निःशुल्क जारी करने का भी आदेश देती है।

धारा 154(3) के अनुसार, यदि किसी पुलिस स्टेशन का प्रभारी पुलिस अधिकारी धारा 154(1) के तहत उसे दी गई जानकारी को दर्ज करने से इनकार करता है, तो पीड़ित पक्ष ऐसी जानकारी की सामग्री को लिखित रूप में और डाक द्वारा संबंधित पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है। 

पुलिस अधीक्षक, यदि संतुष्ट हैं कि ऐसी जानकारी संज्ञेय अपराध के घटित होने की व्याख्या करती है, तो दी गई जानकारी के आधार पर या तो स्वयं मामले की जांच करेंगे या अपने अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी को दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (सीआरपीसी) में प्रदान किए गए तरीके से जांच करने का निर्देश दे सकते हैं। जिस पुलिस अधिकारी को पुलिस अधीक्षक द्वारा जांच करने का निर्देश दिया गया है, उसके पास पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी की शक्तियाँ होंगी।

पीड़ित महिला द्वारा दी गई जानकारी के लिए विशेष प्रावधान:

सीआरपीसी की धारा 154(1) के प्रावधान में बताया गया है कि कैसे पीड़ित महिला द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर प्राथमिकी दर्ज की जाती है। धारा 154(1) के अनुसार, उस महिला द्वारा दी गई जानकारी, जिसके खिलाफ निम्नलिखित अपराधों का प्रयास किया गया है या किया गया है, एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज की जाएगी। भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत अपराध, जहां महिला अधिकारी को पीड़ित महिला द्वारा दी गई जानकारी दर्ज करनी होती है, निम्नलिखित है:

  • धारा 326A (एसिड के इस्तेमाल से स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुंचाना),
  • धारा 354 (महिला की लज्जा भंग करने के इरादे से उस पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग),
  • धारा 354-A (यौन उत्पीड़न),
  • धारा 354-B (महिला को निर्वस्त्र करने के इरादे से उस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग),
  • धारा 354-C (ताक-झांक), 
  • धारा 354-D (पीछा करना), 
  • धारा 376 (बलात्कार के लिए सज़ा),
  • धारा 376-A (मृत्यु कारित करने या पीड़ित की लगातार क्षीण (वेजिटेटिव) अवस्था के लिए सज़ा),
  • धारा 376-AB (बारह वर्ष से कम उम्र की महिला से बलात्कार के लिए सजा),
  • धारा 376-B (अलगाव के दौरान पति द्वारा अपनी पत्नी से यौन संबंध बनाना),
  • धारा 376-C (अधिकार प्राप्त व्यक्ति द्वारा यौन संबंध),
  • धारा 376-D (सामूहिक बलात्कार),
  • धारा 376-DA (सोलह वर्ष से कम उम्र की महिला से सामूहिक बलात्कार के लिए सजा),
  • धारा 376-DB (बारह वर्ष से कम उम्र की महिला से सामूहिक बलात्कार के लिए सजा), 
  • धारा 376-E (बार-बार अपराध करने वालों को सज़ा) या
  • धारा 509 (किसी महिला की गरिमा का अपमान करने के इरादे से शब्द, इशारा या कार्य)

धारा में आगे यह प्रावधान है कि यदि उपरोक्त किसी अपराध के प्रयास या कारित करने के कारण पीड़ित अस्थायी या स्थायी रूप से मानसिक या शारीरिक रूप से अक्षम है, तो ऐसी जानकारी एक पुलिस अधिकारी द्वारा, पीड़ित व्यक्ति के निवास पर, जो ऐसे अपराध की रिपोर्ट करना चाहता है, या पीड़ित व्यक्ति की पसंद के सुविधाजनक स्थान पर दर्ज की जाएगी। जानकारी दर्ज करते समय एक दुभाषिया या एक विशेष शिक्षक मौजूद रहेगा। 

सूचना रिकार्ड करने वाला पुलिस अधिकारी या उसका कोई अधीनस्थ व्यक्ति ऐसी रिकार्डिंग की वीडियोग्राफी करेगा। सीआरपीसी की धारा 164 (5-A)(a) न्यायिक मजिस्ट्रेट को उस व्यक्ति के बयान दर्ज करने का निर्देश देती है जिसके खिलाफ उपरोक्त कोई भी अपराध किया गया है, और पुलिस अधिकारी को भी जल्द से जल्द मजिस्ट्रेट के सामने बयान दर्ज कराना होगा।

आरोप पत्र और प्राथमिकी दाखिल करने का समय

आरोप पत्र

जांच पूरी होते ही आरोप पत्र तैयार कर मजिस्ट्रेट को भेज दिया जाता है। इसलिए आरोप पत्र दाखिल करना अपराध की जांच पूरी होने पर निर्भर है।   

आरोप पत्र दाखिल करने का समय जांच पूरी होने के तुरंत बाद है। धारा 173(1) में कहा गया है कि किसी अपराध की जांच बिना अनावश्यक देरी के पूरी की जानी चाहिए। इसलिए, जांच की जानी चाहिए और बिना किसी अनावश्यक देरी के जल्द से जल्द आरोप पत्र दायर किया जाना है।

दंड प्रक्रिया संहिता संशोधन अधिनियम, 2008 में 154वें विधि आयोग की रिपोर्ट पर विचार किया गया, जिसमें आपराधिक मामलों के तेजी से निपटान की सिफारिश की गई, खासकर यदि अपराध महिलाओं के खिलाफ हों।

2008 के संशोधन अधिनियम ने दंड प्रक्रिया संहिता में एक नई उपधारा 173(1-A) जोड़ी, जो एक निर्दिष्ट समय देती है जिसके पहले जांच पूरी करनी होती है और पुलिस रिपोर्ट या आरोप पत्र को मजिस्ट्रेट के पास भेजना होता है, यदि अपराध महिला के खिलाफ है।

यह उपधारा केवल भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 376-A, 376-AB, 376-B, 376-C, 376-D, 376-DA, 376-DB और 376-E के तहत अपराधों के लिए लागू है। इस प्रकार, बलात्कार से संबंधित अधिकांश मामलों में, जांच उस तारीख से दो महीने के भीतर की जानी चाहिए जिस दिन अपराध के बारे में पहली बार जानकारी प्राप्त हुई थी। 

2008 के संशोधन अधिनियम में यह प्रावधान करने का विचार था कि किसी बच्चे के साथ बलात्कार के अपराध की जांच उस तारीख से तीन महीने के भीतर पूरी की जानी चाहिए जब बच्चे के खिलाफ अपराध के बारे में पहली बार जानकारी दी गई थी।

प्राथमिकी

आम तौर पर किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी पुलिस अधिकारी के समक्ष प्राथमिकी दर्ज करने की कोई समय सीमा नहीं होती है, लेकिन प्राथमिकी जितनी जल्दी हो सके दर्ज करनी होती है। अपराध घटित होने के तुरंत बाद कभी भी प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है। यूथ बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया बनाम भारत संघ (2016) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्राथमिकी दर्ज करने के बाद, पुलिस का कर्तव्य है कि वह पंजीकरण के 24 घंटे के भीतर प्राथमिकी की एक ऑनलाइन प्रति अपलोड करे।

प्राथमिकी दर्ज करने में देरी

यदि प्राथमिकी दर्ज करने में थोड़ी सी भी देरी होती है, तो आमतौर पर इसका जांच या अभियोजन पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है।

प्राथमिकी दर्ज करने में असामान्य देरी निश्चित रूप से जांच या अभियोजन के लिए समस्या पैदा कर सकती है। यदि अपराध घटित होने के इतने दिनों बाद प्राथमिकी दर्ज की जाती है या प्राथमिकी दर्ज करने में देरी को ठीक से नहीं बताया जाता है, तो इससे सूचना देने वाले पर संदेह पैदा हो सकता है और अभियोजन का मामला कमजोर हो सकता है।

पलानी बनाम तमिलनाडु राज्य (2018) के मामले में, देरी के बाद दर्ज की गई प्राथमिकी की स्वीकार्यता पर सवाल उठाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्राथमिकी दर्ज करने में देरी संदेह या आशंका पैदा कर सकती है क्योंकि देरी से अभियुक्त के खिलाफ सबूत इकट्ठा होने की संभावना रहती है। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि प्राथमिकी दर्ज करने में हुई देरी को संतोषजनक और प्रशंसनीय स्पष्टीकरण देना अभियोजन पक्ष का दायित्व है। यद्यपि प्राथमिकी दर्ज करने में देरी अभियोजन पक्ष के मामले को खारिज करने का उचित आधार नहीं हो सकती है, लेकिन लंबी और अस्पष्ट देरी संदेह पैदा कर सकती है कि प्राथमिकी दर्ज करने में देरी क्यों हो रही है।   

आरोप पत्र और प्राथमिकी कौन दर्ज कर सकता है

आरोप पत्र

आरोप पत्र आम तौर पर कहीं भी दायर नहीं किया जाता है; इसके तैयार होने के बाद इसे मजिस्ट्रेट के पास भेज दिया जाता है। आरोप पत्र पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा ही तैयार किया जाता है, जो प्राथमिकी में दी गई जानकारी के आधार पर मामले की जांच करता है। मामले की जांच करने वाला पुलिस अधिकारी अकेले ही आरोप पत्र को मजिस्ट्रेट के पास भेज सकता है यदि मामले के तथ्य को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हों। 

प्राथमिकी

प्राथमिकी उस पीड़ित द्वारा दर्ज कराई जा सकती है जिसके खिलाफ अपराध किया गया है। यह अनिवार्य नहीं है कि पीड़ित ही प्राथमिकी दर्ज कराए। पीड़ित का कोई रिश्तेदार, दोस्त या परिचित पीड़ित की ओर से पुलिस अधिकारी के पास प्राथमिकी दर्ज करा सकता है। भारत में कोई भी व्यक्ति पुलिस में प्राथमिकी दर्ज करा सकता है अगर उसे पता हो कि उसके साथ कोई संज्ञेय अपराध हुआ है। यह आवश्यक नहीं है कि मुखबिर को अपराध के बारे में सारी जानकारी पता हो, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि वह जो कुछ भी जानता है, उसे बताए।

आरोप पत्र और प्राथमिकी पर आगे की रिपोर्ट

आरोप पत्र

धारा 173(8) आगे की जांच की स्वीकार्यता और आगे की पुलिस रिपोर्ट को मजिस्ट्रेट को भेजने से संबंधित है। जांच पूरी होने के बाद मजिस्ट्रेट को आरोप पत्र भेजे जाने के बाद भी, आगे की जांच और आगे की रिपोर्ट संभव है। दिनेश डालमिया बनाम सीबीआई (2007) के मामले में, शीर्ष अदालत ने कहा कि धारा 173(2) के तहत रिपोर्ट धारा 173(8) के तहत आगे की जांच को नहीं रोकती है।

कुछ उदाहरणों ने धारा 173(8) के तहत आगे की जांच से संबंधित मामलों में अदालतों को शक्ति प्रदान की है। सतीश कुमार न्यालचंद बनाम गुजरात राज्य (2019) में, गुजरात उच्च न्यायालय ने माना कि अदालत के पास आगे की जांच का आदेश देने से पहले अभियुक्त को नहीं सुनने की शक्ति है, और देवेंद्र नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (2022) के मामले मे, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालयों के पास पुलिस अधिकारियों को आगे की जांच और यहां तक ​​कि उसी मामले की दोबारा जांच के लिए निर्देश देने की शक्ति है।

प्राथमिकी

किसी भी आपराधिक मामले में एक से अधिक प्राथमिकी नहीं हो सकती, लेकिन राम लाल नारंग बनाम दिल्ली राज्य (1979) के मामले में यह माना गया कि जब प्राथमिकी दर्ज करने के उद्देश्य अलग-अलग हों तो दूसरी प्राथमिकी दर्ज करने की संभावना होती है। अंजू चौधरी बनाम यूपी राज्य (2012) के मामले में कहा गया कि नीचे सूचीबद्ध तीन कारणों से दूसरी प्राथमिकी दर्ज करने की अनुमति नहीं है:

  • दूसरी प्राथमिकी की अनुमति नहीं है क्योंकि इससे अभियुक्त के मौलिक अधिकार को दोहरे खतरे से बचाया जाता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 20(2);
  • दूसरी प्राथमिकी की अनुमति नहीं है क्योंकि मामले की निष्पक्ष जांच बनाए रखी जानी चाहिए;
  • इसकी अनुमति इसलिए नहीं है ताकि पुलिस अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करे और किसी निर्दोष को गलत तरीके से दोषी ठहराने से बच सके।

आरोप पत्र एवं प्राथमिक में दोष का निर्धारण

आरोप पत्र

हालाँकि आरोप पत्र एक सार्वजनिक दस्तावेज़ नहीं है, लेकिन यह पूर्ण है क्योंकि इसमें सभी आवश्यक सबूत हैं और यही वह आधार है जिस पर अभियुक्त के लिए मुकदमा शुरू होता है। अभियोजन पक्ष अभियुक्त को दोषी साबित करने के लिए आरोप पत्र पर निर्भर करता है। लेकिन राजेश यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) के मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि आरोप पत्र को ठोस सबूत नहीं माना जा सकता है और यह सिर्फ जांच अधिकारी की सामूहिक राय है।

प्राथमिकी

प्राथमिकी के तहत दर्ज की गई पहली सूचना का कुछ विश्वसनीय मूल्य होता है क्योंकि यह पहली सूचना होती है जो पुलिस तक पहुंचती है, और यहां तक ​​कि प्राथमिकी दर्ज करने में देरी से मामले में संदेह पैदा हो सकता है और इस तरह मामले के तथ्य तय हो सकते है। प्राथमिकी को गवाहों या संदिग्धों द्वारा दिए गए बयानों का समर्थन या खंडन करने के लिए सबूत के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। हालाँकि, अकेले प्राथमिकी को किसी अपराध की सजा के लिए नहीं माना जा सकता है, और इसके अलावा, यह केवल सबूत है जो अकेले या सामूहिक रूप से मामले का फैसला करता है। पांडुरंग चंद्रकांत म्हात्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2009) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्राथमिकी सिर्फ सूचना का एक टुकड़ा है और इसे सबूत का एक ठोस टुकड़ा नहीं माना जा सकता है; इसका उपयोग गवाहों की विश्वसनीयता की जांच के लिए किया जा सकता है।

आरोप पत्र और प्राथमिकी पर महत्वपूर्ण मामले

आरोप पत्र

लक्कोस जकारिया बनाम जोसेफ जोसेफ (2021) 

इस मामले में धारा 173(8) के तहत प्रस्तुत पूरक रिपोर्ट की स्वीकार्यता के मुद्दे पर सवाल उठाया गया था। इस मुद्दे पर भी सवाल उठाया गया कि क्या न्यायिक मजिस्ट्रेट उस पूरक रिपोर्ट पर विचार करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायिक मजिस्ट्रेट मामले पर निर्णय लेने से पहले सीआरपीसी की धारा 173(2) के तहत प्रस्तुत प्रारंभिक अंतिम रिपोर्ट या आरोप पत्र और धारा 173(8) के तहत प्रस्तुत पूरक रिपोर्ट दोनों पर विचार करने के लिए बाध्य है। न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास उसके समक्ष प्रस्तुत पूरक रिपोर्ट को कम मूल्य देने का विवेक नहीं है, और उसे पुलिस द्वारा उसे सौंपी गई दोनों रिपोर्टों पर संचयी (कम्युलेटिव) रूप से विचार करना होगा।

सौरव दास बनाम भारत संघ (2023)

इस मामले में, याचिकाकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाई कि पुलिस अधिकारियों को सार्वजनिक डोमेन या वेबसाइट पर आरोप पत्र की एक ऑनलाइन प्रति अपलोड करने का निर्देश देने का आदेश पारित किया जाए। अदालत ने माना कि आरोप पत्र एक सार्वजनिक दस्तावेज नहीं है और यह कोई ठोस सबूत भी नहीं है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि आरोप पत्र और अन्य प्रासंगिक दस्तावेजों को सार्वजनिक डोमेन या राज्य सरकार की सार्वजनिक वेबसाइट पर अपलोड करना दंड प्रक्रिया संहिता की योजना के विपरीत हो सकता है क्योंकि यह अभियुक्त, पीड़ित और/या यहां तक कि जांच एजेंसी के भी अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है।

प्राथमिकी

ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2013) 

इस मामले में, मुद्दा यह था कि क्या प्राथमिकी दर्ज करने के लिए पुलिस द्वारा प्रारंभिक जांच की आवश्यकता थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि सूचना किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने के संबंध में है, तो प्राथमिकी दर्ज करने से पहले किसी प्रारंभिक जांच की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार, यदि पुलिस अधिकारी को संज्ञेय अपराध से संबंधित कोई भी जानकारी प्राप्त होती है तो वह प्राथमिकी दर्ज करने के लिए बाध्य है। प्राथमिकी दर्ज करने से मना करने वाले पुलिस अधिकारी पर कार्रवाई हो सकती है। वैवाहिक या पारिवारिक विवाद, वाणिज्यिक (कमर्शियल) अपराध, चिकित्सा लापरवाही अपराध और भ्रष्टाचार के मामलों में, प्राथमिकी दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच की जा सकती है।

हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1990) 

इस मामले में, न्यायालय ने प्राथमिकी के अनिवार्य पंजीकरण के महत्व का प्रस्ताव दिया। इस मामले में मुद्दा यह है कि क्या संज्ञेय अपराध के मामले में प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है। न्यायालय ने कहा कि संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित जानकारी के आधार पर प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है। संज्ञेय अपराध के तहत प्राथमिकी के पंजीकरण को अनिवार्य करने के अदालत के आदेश के पीछे कारण यह है कि शब्द “करेगा” पंजीकरण को अनिवार्य करता है और “हर जानकारी” शब्द का अर्थ उचित जानकारी या विश्वसनीय जानकारी नहीं है। इसलिए, यदि किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित कोई भी जानकारी प्रदान की जाती है, तो प्राथमिकी का पंजीकरण अनिवार्य है।

सी. मंगेश बनाम कर्नाटक राज्य (2010)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्राथमिकी के साक्ष्य मूल्य पर सवाल उठाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्राथमिकी कोई ठोस सबूत नहीं है, बल्कि सिर्फ एक पुष्टिकरण कारक है, और यह भी एक सुस्थापित कानून है कि प्राथमिकी अभियोजन पक्ष को अभियुक्त को अपराध का दोषी साबित करने में मदद नहीं करती है। प्रथम सूचना रिपोर्ट (प्राथमिकी) का उपयोग भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 157 के तहत मुखबिर द्वारा दी गई जानकारी की पुष्टि करने के लिए और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 के तहत मुखबिर का खंडन करने के लिए भी किया जा सकता है।

आरोप पत्र और प्राथमिकी के बीच अंतर का सारांश

क्रमांक संख्या अंतर का आधार प्राथमिकी आरोप पत्र
1. कानूनी प्रावधान प्राथमिकी को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के तहत निपटाया जाता है। आरोप पत्र का निपटारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 में किया जाता है।
2. परिभाषा प्राथमिकी एक लिखित दस्तावेज है जो पुलिस स्टेशन में दर्ज किया जाता है जिसमें संज्ञेय अपराध के संबंध में सभी प्रारंभिक जानकारी होती है। आरोप पत्र अंतिम पुलिस रिपोर्ट है जिसे संज्ञेय अपराध की जांच पूरी होने के बाद जांच अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट को भेज दिया जाता है।
3. कौन दर्ज कर सकता है पीड़ित, पीड़ित के रिश्तेदार या कोई भी व्यक्ति जिसे संज्ञेय अपराध होने की जानकारी हो, वह प्राथमिकी दर्ज करा सकता है। जांच अधिकारी ही आरोप पत्र तैयार कर सकता है।
4. दाखिल करने का समय संज्ञेय अपराध घटित होने के तुरंत बाद प्राथमिकी दर्ज करनी होती है। जांच पूरी होते ही आरोप पत्र तैयार कर मजिस्ट्रेट के पास भेजना होता है।
5.  स्वीकार्यता अकेले प्राथमिकी से किसी अभियुक्त को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।  आरोप पत्र को ठोस सबूत नहीं माना जा सकता और यह सिर्फ जांच अधिकारी की राय है।
6.  क्षेत्राधिकार जीरो प्राथमिकी की अवधारणा संज्ञेय अपराध के मुखबिर को किसी भी पुलिस स्टेशन में प्राथमिकी दर्ज करने की अनुमति देती है। आरोप पत्र केवल उस पुलिस स्टेशन के जांच अधिकारी द्वारा तैयार किया जाना चाहिए जिसके पास अपराध का क्षेत्राधिकार  है।
7. एक से ज्यादा रिपोर्ट दूसरी प्राथमिकी दर्ज करने की अनुमति नहीं है क्योंकि यह अभियुक्त के मौलिक अधिकार का उल्लंघन कर सकता है और न्याय के खिलाफ है। एक अतिरिक्त पुलिस रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजी जा सकती है, भले ही कोई आरोप पत्र भेजा गया हो।

निष्कर्ष 

हालाँकि प्राथमिकी और आरोप पत्र के बीच बहुत सारे अंतर हैं, लेकिन एक के बिना दूसरे का कोई मतलब नहीं है। ये दोनों सामूहिक रूप से जांच में और अदालत के समक्ष मुकदमे में भी सहायता करते हैं। हालाँकि अदालत द्वारा किसी मामले का फैसला करने से पहले इन दोनों को ठोस सबूत नहीं माना जाता है, लेकिन इनके बिना, आपराधिक मामलों के फैसले की कोई उचित संरचना नहीं होगी। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या आरोप पत्र और अंतिम रिपोर्ट में कोई अंतर है?

आरोप पत्र और अंतिम रिपोर्ट दोनों पुलिस रिपोर्ट हैं; मुख्य अंतर अभियुक्तों के खिलाफ एकत्र किए गए सबूत हैं। यदि मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी के पास पर्याप्त सबूत हैं जिनका उपयोग अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्त के मुकदमे के दौरान किया जा सकता है, तो पुलिस अधिकारी धारा 173(2) में बताई गई सभी जानकारी के साथ मजिस्ट्रेट के समक्ष एक आरोप पत्र पेश करेगा। यदि पुलिस अधिकारी को अभियुक्त के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिल पाता है और यह साबित करने के लिए कोई उचित आधार नहीं है कि अभियुक्त ने अपराध किया है, तो पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट को अंतिम रिपोर्ट पेश करेगा। 

जीरो प्राथमिकी क्या है?

जीरो प्राथमिकी एक अवधारणा है जो पीड़ित को किसी भी पुलिस स्टेशन में प्राथमिकी दर्ज करने में सहायता करती है, चाहे अपराध किसी भी स्थान पर हुआ हो। इसकी सिफारिश 2012 के चर्चित निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले के दौरान गठित न्यायमूर्ति वर्मा समिति ने की थी। जीरो प्राथमिकी की अवधारणा पुलिस के लिए यह कर्तव्य बनाती है कि वह क्षेत्राधिकार के बहाने के बिना संज्ञेय अपराध से संबंधित जानकारी प्राप्त करने के तुरंत बाद प्राथमिकी दर्ज करे। इसलिए, कोई पुलिस अधिकारी यह कहकर प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार नहीं कर सकता कि जहां अपराध हुआ है, उस स्थान पर उनके पुलिस स्टेशन का क्षेत्राधिकार नहीं है। पुलिस अधिकारी को दी गई जानकारी के आधार पर प्राथमिकी दर्ज करनी होगी, और उसे इसे संबंधित पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित करना होगा जहां अपराध का वास्तविक क्षेत्राधिकार है। संबंधित थाना नई प्राथमिकी दर्ज कर जांच शुरू करेगा।

क्या अपराध का अभियुक्त पुलिस में प्राथमिकी दर्ज करा सकता है? 

भारत में, जिस किसी को भी संज्ञेय अपराध होने की जानकारी है, वह पुलिस को इसकी रिपोर्ट कर सकता है और इसके संबंध में प्राथमिकी दर्ज कर सकता है। भारत में संज्ञेय अपराध के संबंध में अभियुक्त भी पुलिस अधिकारी के समक्ष प्राथमिकी दर्ज करा सकता है। यदि अभियुक्त द्वारा दी गई जानकारी स्वीकारोक्ति बयानों से संबंधित है, तो यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत स्वीकार्य नहीं है, और यदि दी गई जानकारी गैर स्वीकारोक्ति बयान है, तो ऐसी जानकारी भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 8, 21 और 32(1) के तहत स्वीकार्य होगी। 

केस डायरी क्या है?

जिस समय सूचना पुलिस अधिकारी तक पहुंची, जिस समय उन्होंने जांच शुरू की और बंद की, और आरोप पत्र तैयार करते समय उनके द्वारा देखे गए स्थानों और गवाहों के बारे में सभी जानकारी एक केस डायरी में दर्ज की जाएगी जो कि पुलिस स्टेशन में रखी गई है। लक्ष्मी बनाम एनसीटी दिल्ली (2016) में, यह माना गया था कि केस डायरी एक वॉल्यूम होनी चाहिए और विधिवत पृष्ठांकित (पेजिनेटेड) होनी चाहिए, जिसका अर्थ है कि उस डायरी के किसी भी पृष्ठ को इससे अलग नहीं किया जा सकता है। यह बात महत्वपूर्ण है कि जांच अधिकारी के लिए केस डायरी रखना अनिवार्य है।

क्या आरोपपत्र का कोई और नाम है?

हां, आरोप पत्र को कई अलग-अलग नामों से संदर्भित किया जाता है, जैसे समापन रिपोर्ट, चालान, आरोप पत्र, अंतिम रिपोर्ट और पुलिस रिपोर्ट। सीआरपीसी की धारा 173 आरोप पत्र को पुलिस रिपोर्ट के रूप में परिभाषित करती है जो जांच पूरी होने के बाद मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है। 

संदर्भ

 

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